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इंसान की कहानी, एक तरह से संवाद या कम्युनिकेशन (communication) की कहानी है। अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने की जरूरत ने ही हमें भाषा, लिपि, पत्र, टेलीफोन (telephone) और आज स्मार्टफोन (smartphone) जैसी तकनीकें दी हैं। टेक्नोलॉजी (Technology) ने दुनिया को छोटा कर दिया है। लेकिन इस चमक-दमक के बीच कुछ ऐसे आविष्कार भी हैं, जो बहुत साधारण दिखते हैं पर जिनका महत्व असाधारण रहा है। इन्हीं में से एक है- वॉकी-टॉकी।
आज हम इसी वॉकी-टॉकी (walkie-talkie) के सफर को समझेंगे। यह लेख पिथौरागढ़ के निवासियों को यह बताएगा कि कैसे युद्ध के मैदान में जिंदगियाँ बचाने वाला यह उपकरण आज हमारे पहाड़ों में उपयोगी है, कैसे इसका गलत इस्तेमाल देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन रहा है, और कैसे भारत अब एक ऐसी 'अनहैकेबल' यानी अभेद्य संचार तकनीक बना रहा है, जो भविष्य में संवाद की दुनिया को पूरी तरह बदल देगी।
वॉकी-टॉकी का जन्म जरूरत की कोख से हुआ था। इसका आविष्कार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुआ, जब युद्ध के मैदान में सैनिकों के लिए एक-दूसरे से तुरंत संपर्क करना जीवन और मृत्यु का सवाल था। उस समय पोर्टेबल (portable), यानी आसानी से साथ ले जाए जा सकने वाले टू-वे रेडियो की सख्त जरूरत थी।
इस आविष्कार का श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं जाता। कनाडा के आविष्कारक डोनाल्ड हिंग्स (Donald Hings) ने 1937 में एक "पैकसेट" बनाया था, जिसे आज वॉकी-टॉकी का शुरुआती रूप माना जाता है। वहीं, अमेरिका में मोटोरोला (motorola) कंपनी ने युद्ध के लिए बड़े पैमाने पर वॉकी-टॉकी का उत्पादन किया। उनके शुरुआती मॉडल SCR-300 को पीठ पर लादना पड़ता था, लेकिन बाद में आए हाथ में पकड़े जा सकने वाले SCR-536 मॉडल ने क्रांति ला दी।
यह डिवाइस (device) सैनिकों को तुरंत अपनी टुकड़ी से संपर्क साधने, हमलों के बीच तालमेल बनाने, और घायल होने पर मदद बुलाने की सुविधा देता था। इसने युद्ध के मैदान में संवाद की अनिश्चितता को खत्म कर दिया और अनगिनत सैनिकों की जान बचाई। यह सिर्फ एक गैजेट (gadget) नहीं था, बल्कि एक जीवन रक्षक उपकरण था, जिसने साबित किया कि सही समय पर सही जानकारी कितनी कीमती हो सकती है।

युद्ध के मैदान से निकलकर वॉकी-टॉकी आज आम जीवन का भी हिस्सा बन गया है, खासकर उन जगहों पर जहाँ मोबाइल नेटवर्क (network) भरोसेमंद नहीं है। पिथौरागढ़ जैसे पहाड़ी इलाकों के लिए यह एक बहुत ही उपयोगी उपकरण है। ट्रैकिंग टीमों, आपदा प्रबंधन समूहों, निर्माण
स्थलों और दूर-दराज के गाँवों में जहाँ मोबाइल का सिग्नल नहीं पहुँचता, वहाँ वॉकी-टॉकी ही संवाद का एकमात्र जरिया होता है।
लेकिन भारत में वॉकी-टॉकी का इस्तेमाल करने के कुछ नियम हैं, जिनकी जानकारी होना बहुत जरूरी है। भारत में रेडियो फ्रीक्वेंसी का प्रबंधन WPC (वायरलेस प्लानिंग एंड कोऑर्डिनेशन विंग) (Wireless Planning and Coordination Wing) नाम की सरकारी संस्था करती है। ज्यादातर रेडियो फ्रीक्वेंसी (Radio Frequency) पर बात करने के लिए लाइसेंस (license) की जरूरत होती है और बिना लाइसेंस के ऐसा करना गैर-कानूनी है, जिस पर जुर्माना भी हो सकता है।
हालांकि, आम नागरिकों के लिए एक राहत है। सरकार ने PMR446 (प्राइवेट मोबाइल रेडियो 446 मेगाहर्ट्ज) नाम की एक खास फ्रीक्वेंसी रेंज (frequency range) को लाइसेंस-फ्री (license free) रखा है। इसका मतलब है कि आप इस फ्रीक्वेंसी पर काम करने वाले वॉकी-टॉकी बिना किसी लाइसेंस के इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें हैं:
पिथौरागढ़ में ट्रैकिंग या अन्य गतिविधियों के लिए वॉकी-टॉकी खरीदते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए, ताकि आप बिना किसी कानूनी झंझट के इस उपयोगी तकनीक का लाभ उठा सकें।
हर तकनीक के दो पहलू होते हैं। जहाँ एक ओर वॉकी-टॉकी पहाड़ों में हमारा मददगार है, वहीं दूसरी ओर इसका गलत इस्तेमाल देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है। हाल ही में सुरक्षा एजेंसियों ने पाया है कि आतंकवादी समूह आपस में संपर्क के लिए चीन में बने "बाओफेंग" (Baofeng) ब्रांड के शक्तिशाली वॉकी-टॉकी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे हैं।
यह एक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि:
पिथौरागढ़ जैसे सीमावर्ती और संवेदनशील जिले के निवासियों के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि कैसे एक साधारण दिखने वाला उपकरण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक चुनौती बन सकता है।
एक तरफ जहाँ पुरानी तकनीक का दुरुपयोग एक चुनौती है, वहीं दूसरी तरफ भारत भविष्य की एक ऐसी तकनीक पर काम कर रहा है जो संवाद को पूरी तरह सुरक्षित बना देगी। हमारे देश की दो प्रतिष्ठित संस्थाएं- इसरो (ISRO) और डीआरडीओ (DRDO), क्वांटम की डिस्ट्रीब्यूशन (Quantum Key Distribution - QKD) नाम की एक अत्याधुनिक तकनीक विकसित कर रही हैं।
इसे 'अनहैकेबल' (unhackable) यानी अभेद्य तकनीक कहा जा रहा है। आइए, इसे सरल भाषा में समझते हैं। आज हम जो भी एन्क्रिप्टेड (coded) संदेश भेजते हैं, उसे सैद्धांतिक रूप से भविष्य में शक्तिशाली सुपर कंप्यूटरों द्वारा तोड़ा जा सकता है। लेकिन क्वांटम कम्युनिकेशन भौतिकी के मूलभूत नियमों पर काम करता है।
QKD तकनीक में, संदेश को खोलने वाली 'की' या 'चाबी' को क्वांटम कणों (फोटॉन्स) के रूप में भेजा जाता है। क्वांटम भौतिकी का एक नियम है कि अगर कोई इन कणों को देखने या मापने की कोशिश करता है, तो वे खुद-ब-खुद बदल जाते हैं। इसका मतलब है कि अगर कोई हैकर या जासूस इस 'की' को बीच में रोकने की कोशिश करेगा, तो इसका स्वरूप तुरंत बदल जाएगा और भेजने वाले और पाने वाले, दोनों को तत्काल पता चल जाएगा कि किसी ने घुसपैठ की कोशिश की है। इससे घुसपैठिया कभी भी असली 'की' हासिल नहीं कर पाएगा।
इसरो और डीआरडीओ ने हाल ही में इस तकनीक का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है। यह तकनीक भविष्य में भारत के सबसे महत्वपूर्ण संवादों - जैसे कि सेना, कूटनीति और अन्य रणनीतिक संचार - को सुरक्षित रखने में मदद करेगी। यह भारत के लिए प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी छलांग है और हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है।
संवाद का यह सफर, जो वॉकी-टॉकी की साधारण 'पुश-टू-टॉक' तकनीक से शुरू हुआ था, आज क्वांटम कणों की रहस्यमयी दुनिया तक पहुँच गया है। यह हमें सिखाता है कि तकनीक खुद में अच्छी या बुरी नहीं होती, उसका मूल्य इस बात से तय होता है कि हम इंसान उसका इस्तेमाल किस इरादे से करते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/jgyetcg
https://tinyurl.com/2a8fkfnc
https://tinyurl.com/2aczxzdw
https://tinyurl.com/27fako66
https://tinyurl.com/23etcyxc