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किसी भी वस्तु का मूल्य या उसकी पहचान क्या है? क्या यह उसके आकार और बनावट से तय होती है, या उसे इस्तेमाल करने वाले के इरादे और उद्देश्य से? यह सवाल हमें वस्तुओं को देखने का एक नया नजरिया देता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण धनुष-बाण है। यह एक ऐसा उपकरण है जिसका इतिहास युद्ध, पौराणिक कथाओं और आधुनिक खेलों तक फैला हुआ है। इस लेख में, हम धनुष के इसी सफर को समझेंगे - कैसे यह एक घातक हथियार से आज एक सम्मानित खेल का उपकरण बन गया, और इस कहानी के तार हमारे भारत के इतिहास और विशेष रूप से उत्तराखंड की भूमि से कैसे जुड़े हैं।
प्राचीन भारत में तीरंदाजी केवल एक कला नहीं, बल्कि युद्ध नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी। भारतीय धनुर्धरों की सफलता के पीछे एक विशेष प्रकार का धनुष था, जिसे इतिहासकार 'इंडियन कम्पोजिट बो' (Indian Composite Bow) या 'भारतीय मिश्रित धनुष' कहते हैं। यह उस युग की उन्नत इंजीनियरिंग (engineering) का एक बेहतरीन नमूना था और इसे बनाने की प्रक्रिया काफी जटिल थी।
यह धनुष किसी एक प्रकार की लकड़ी से नहीं बनता था। इसे तीन मुख्य चीजों को मिलाकर तैयार किया जाता था: लकड़ी, जानवर के सींग और जानवरों की नसों से बना 'स्नायु' (sinew)।
इन अलग-अलग गुणों वाली चीजों को एक साथ गोंद से चिपकाकर एक घुमावदार आकार दिया जाता था। इस बनावट का नतीजा यह होता था कि जब धनुष को खींचा जाता, तो सींग दबता और स्नायु खिंचता, जिससे धनुष में साधारण लकड़ी के धनुष की तुलना में कहीं ज़्यादा ऊर्जा संग्रहीत हो जाती थी। इसलिए, आकार में छोटा होने के बावजूद यह धनुष बहुत शक्तिशाली होता था। इससे छोड़ा गया तीर अत्यधिक वेग और बल के साथ लक्ष्य पर पहुँचता था, जो मोटे से मोटे कवच को भी भेदने में सक्षम था। इसकी छोटी बनावट इसे घुड़सवार सेना के लिए विशेष रूप से उपयोगी बनाती थी, क्योंकि घोड़े की पीठ पर इसे चलाना आसान होता था। यह धनुष सिर्फ एक हथियार नहीं, बल्कि प्राचीन भारत के ज्ञान और कौशल का प्रमाण था।
इतिहास के पन्नों से आगे बढ़कर जब हम अपनी पौराणिक कथाओं में झांकते हैं, तो हमें एक ऐसे धनुष का वर्णन मिलता है जिसे अब तक का सबसे महान शस्त्र माना गया है - गांडीव। महाभारत में अर्जुन की पहचान उनके गांडीव धनुष से ही थी।
गांडीव की उत्पत्ति दिव्य मानी जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इसका निर्माण स्वयं सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने किया था। ब्रह्मा के बाद यह धनुष कई देवताओं और प्रजापतियों से होता हुआ देवराज इंद्र के पास पहुँचा। महाभारत के अनुसार, जब अग्नि देव खांडव वन को भस्म करना चाहते थे, तो इंद्र वर्षा करके उन्हें रोक रहे थे। तब अग्नि देव ने मदद के लिए अर्जुन और कृष्ण से संपर्क किया। उसी समय, जल के देवता वरुण देव ने अग्नि देव के कहने पर अर्जुन को यह दिव्य गांडीव धनुष प्रदान किया।
गांडीव की कई विशेषताएँ थीं। माना जाता है कि इसमें 108 तार थे और जब इसे चलाया जाता तो इसकी टंकार बादलों की गड़गड़ाहट जैसी होती थी, जो दुश्मनों के मन में भय भर देती थी। इसके साथ अर्जुन को दो ऐसे तरकश भी मिले जिनके बाण कभी समाप्त नहीं होते थे। यह धनुष अपने धारक को असीम आत्मविश्वास प्रदान करता था और उसे अजेय बना देता था। यह केवल एक हथियार नहीं था, बल्कि अर्जुन के लिए धर्म की स्थापना के संघर्ष में एक दिव्य सहायक था। गांडीव ने महाभारत के युद्ध की दिशा तय करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और पौराणिक कथाओं में अमर हो गया।
यह कहानी केवल किताबों और कथाओं तक सीमित नहीं है। इसका एक सिरा हमारी अपनी भूमि उत्तराखंड से भी जुड़ता है, जो इसे हमारे लिए और भी खास बना देता है। चमोली जिले की पैखंडा घाटी में रैंसल नाम का एक गाँव है। यहाँ के स्थानीय लोगों के बीच एक गहरा विश्वास प्रचलित है जो सीधे तौर पर पांडवों से जुड़ा है।
मान्यता के अनुसार, जब पांडवों ने अपना राज-पाट त्यागकर स्वर्ग की ओर अपनी अंतिम यात्रा (स्वर्गारोहण) शुरू की, तो वे इसी क्षेत्र से होकर गुज़रे थे। कहा जाता है कि इस यात्रा के दौरान उन्होंने अपने सभी शस्त्रों का त्याग कर दिया था। रैंसल गाँव के लोगों का मानना है कि अर्जुन ने अपना प्रसिद्ध गांडीव धनुष इसी स्थान पर छोड़ा था और वह आज भी गाँव के एक प्राचीन मंदिर में सुरक्षित रखा हुआ है।
यह धनुष, जिसे स्थानीय लोग गांडीव मानते हैं, बहुत भारी है और इसे देखकर इसकी प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है। गाँव के लोगों की इसमें गहरी आस्था है और वे इसकी पूजा करते हैं। उनका मानना है कि इस धनुष को केवल वही व्यक्ति उठा सकता है जिसके मन में कोई पाप न हो और सच्ची श्रद्धा हो। यह विश्वास दिखाता है कि कैसे एक समय में विनाश का प्रतीक रहा शस्त्र, आज एक छोटे से गाँव में आस्था और दिव्यता का केंद्र बन गया है। यहाँ धनुष का महत्व उसकी मारक क्षमता में नहीं, बल्कि उसके पौराणिक और आध्यात्मिक जुड़ाव में है।
समय के साथ धनुष का स्वरूप और उद्देश्य दोनों बदल गए हैं। जिस धनुष का इस्तेमाल कभी युद्ध जीतने और साम्राज्यों की रक्षा के लिए होता था, वह आज दुनिया भर के खेल के मैदानों की शोभा बढ़ा रहा है। तीरंदाजी आज एक सम्मानित ओलंपिक खेल है, जिसमें शारीरिक बल से ज़्यादा मानसिक एकाग्रता, अनुशासन और सटीकता का परीक्षण होता है।
आधुनिक धनुष भी प्राचीन कम्पोजिट बो से बहुत अलग हैं। आज के रिकर्व और कंपाउंड बो कार्बन फाइबर (Compound Bow Carbon Fiber), फाइबरग्लास (Fiberglass) और एल्यूमीनियम मिश्र धातु (aluminum) जैसी उच्च-तकनीकी सामग्रियों से बनते हैं। ये धनुष बहुत हल्के, स्थिर और सटीक होते हैं। इस खेल ने भारत को कई अंतरराष्ट्रीय सितारे दिए हैं, और उन्हीं में से एक हैं सिक्किम के तरुणदीप राय। तरुणदीप ने कई बार ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया है और उन्हें उनके योगदान के लिए पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया है।
यह हम सबके लिए एक गर्व का विषय है कि 38वें राष्ट्रीय खेल उत्तराखंड में आयोजित होने वाले हैं, जहाँ तरुणदीप राय जैसे कई आधुनिक धनुर्धर अपने कौशल का प्रदर्शन करेंगे। इन खिलाड़ियों के लिए धनुष हिंसा का नहीं, बल्कि खेल भावना और आत्म-अनुशासन का प्रतीक है।
इस प्रकार, धनुष का सफर एक पूर्ण चक्र पूरा करता है। यह एक वस्तु की यात्रा है जो दिखाती है कि किसी भी उपकरण का असली चरित्र उसके स्वरूप में नहीं, बल्कि उसके उपयोग में निहित है। यह एक हथियार था, फिर एक दिव्य शस्त्र बना, एक पूजनीय कलाकृति के रूप में स्थापित हुआ और अंत में एक खेल का उपकरण बन गया। धनुष की यह कहानी हमें सिखाती है कि किसी भी चीज़ का सही या गलत होना पूरी तरह से उसे इस्तेमाल करने वाले इंसान के उद्देश्य और नीयत पर निर्भर करता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/28q93jcq
https://tinyurl.com/2ydwmpll
https://tinyurl.com/2cyupgyz
https://tinyurl.com/23dhdjdp
https://tinyurl.com/278a9vu8