कुमाऊँ में गोरखाओं की सत्ता उखड़ने के क्या कारण रहे?

औपनिवेशिक काल और विश्व युद्ध : 1780 ई. से 1947 ई.
24-10-2025 09:10 AM
कुमाऊँ में गोरखाओं की सत्ता उखड़ने के क्या कारण रहे?

18वीं शताब्दी के अंत में, कुमाऊँ का गौरवशाली चंद राजवंश अपनी अंतिम साँसें गिन रहा था। जो साम्राज्य कभी अपनी वीरता, कूटनीति और कला के लिए जाना जाता था, अब वह कमज़ोर उत्तराधिकारियों और दरबारी साजिशों के बोझ तले दबकर बिखर रहा था। राजा गद्दी पर महज़ एक कठपुतली बनकर रह गए थे, और असली ताकत दरबार के अलग-अलग गुटों के हाथों में थी। यह आंतरिक कलह और सत्ता की भूख का ही नतीजा था कि कुमाऊँ के इतिहास का सबसे काला अध्याय लिखा जाना था, एक ऐसा अध्याय जिसकी पटकथा किसी और ने नहीं, बल्कि एक अपने ही दरबारी ने लिखी थी।

यह कहानी है विश्वासघात की, क्रूरता की, और एक गुलामी से निकलकर दूसरी गुलामी में फँसने की। यह कहानी है पिथौरागढ़ के उस दौर की, जब यहाँ के लोगों ने पहले 'गोरख्याणी' का कहर झेला और फिर 'अंग्रेजी राज' का उदय देखा।

चंद दरबार उस समय गुटबाज़ी का अखाड़ा बन चुका था। इसी अखाड़े के एक सबसे चतुर और महत्वाकांक्षी खिलाड़ी थे हर्ष देव जोशी (Harsh Dev Joshi)। उन्हें कुमाऊँ का 'किंगमेकर' भी कहा जाता था, क्योंकि दरबार में उनका दबदबा इतना था कि वे जिसे चाहते, उसे गद्दी पर बिठा या हटा सकते थे। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और अपने प्रतिद्वंद्वियों से परेशान होकर, हर्ष देव जोशी ने एक ऐसा कदम उठाया, जिसने हमेशा के लिए कुमाऊँ का भविष्य बदल दिया।

उन्होंने मदद के लिए बाहर देखा। उस समय पड़ोस का गोरखा साम्राज्य (Gorkha Kingdom of Nepal), जो अपनी लड़ाकू सेना और विस्तारवादी नीतियों के लिए जाना जाता था, एक नई शक्ति के रूप में उभर रहा था। वे अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए सही मौके की तलाश में थे। हर्ष देव जोशी ने उन्हें वही मौका दे दिया। उन्होंने गोरखाओं को कुमाऊँ पर आक्रमण करने के लिए सीधे-सीधे निमंत्रण भेजा और यह भरोसा दिलाया कि अंदरूनी कलह में फँसा चंद राज्य उनका सामना नहीं कर पाएगा।

1790 में, गोरखा सेना ने काली नदी पार की और कुमाऊँ पर हमला कर दिया। जैसा कि हर्ष देव जोशी ने कहा था, चंदों की कमज़ोर और विभाजित सेना उनका सामना नहीं कर सकी। गोरखाओं ने आसानी से राजधानी अल्मोड़ा पर कब्जा कर लिया और इसी के साथ चंद राजवंश के लगभग 700 साल लंबे शासन का अंत हो गया। कुमाऊँ के लिए एक अंधेरी रात की शुरुआत हो चुकी थी।

गोरखा शासन, जो अगले 25 वर्षों तक चला, कुमाऊँ के इतिहास में 'गोरख्याणी' के नाम से जाना जाता है। यह शब्द आज भी यहाँ की लोककथाओं में क्रूरता, अत्याचार और दमन का पर्याय है। गोरखाओं का शासन बेहद कठोर और निर्मम था:

  • अत्याचारी कर व्यवस्था: उन्होंने लोगों पर भारी और मनमाने टैक्स (tax) लगाए। जनता की कमाई का बड़ा हिस्सा कर के रूप में वसूल लिया जाता था, जिससे वे कंगाल हो गए।
  • कठोर न्याय और बर्बर सज़ाएँ: उनका न्याय प्रणाली बहुत क्रूर थी। छोटी-छोटी गलतियों के लिए भी भयानक सज़ाएँ दी जाती थीं, ताकि लोगों में उनका खौफ बना रहे।
  • दास प्रथा: गोरख्याणी की सबसे भयानक चीज़ थी दास प्रथा (Slavery) का संस्थागत रूप। हज़ारों कुमाऊँनी पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाकर नेपाल और दूसरी जगहों पर बेच दिया गया। इसने समाज पर एक गहरा घाव छोड़ा।

अपने शासन को मजबूत करने और स्थानीय जनता पर नियंत्रण रखने के लिए, गोरखाओं ने पिथौरागढ़ में एक किले (Fort) का निर्माण किया। यह किला किसी राजा की शान का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह विदेशी उत्पीड़न का केंद्र था। इसी किले से गोरखा कमांडर अपना शासन चलाते थे, भारी टैक्स वसूलते थे और अपने कठोर आदेश जारी करते थे। पिथौरागढ़ के लोगों के लिए, यह किला उनकी गुलामी और उन पर हो रहे अत्याचारों का एक जीता-जागता, स्थायी प्रतीक था।

गोरख्याणी का दमन जब असहनीय हो गया, तो इसके अंत की भूमिका भी तैयार होने लगी। इसके दो मुख्य कारण बने:

  1. जनता का विद्रोह: गोरखाओं के ज़ुल्म से तंग आकर कुमाऊँ के लोग किसी भी कीमत पर उनसे छुटकारा पाना चाहते थे। जैसा कि हर्ष देव जोशी ने उन्हें बुलाया था, अब वे ही उन्हें भगाने का रास्ता खोजने लगे। उन्होंने उस समय भारत में उभर रही सबसे बड़ी ताकत, अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company) से बार-बार मदद की गुहार लगाई।
  2. गोरखाओं का बढ़ता लालच: गोरखाओं की विस्तारवादी नीतियां अब उन्हें सीधे अंग्रेजों के साथ टकराव में ला रही थीं। तराई के सीमावर्ती इलाकों पर उनके बढ़ते दखल ने अंग्रेजों को चौकन्ना कर दिया।

इन्हीं कारणों के चलते 1814 में आंग्ल-नेपाल युद्ध (Anglo-Nepalese War) छिड़ गया। इस युद्ध में, अंग्रेजों को कुमाऊँ के स्थानीय लोगों का भरपूर साथ मिला, जो गोरखाओं को भगाने के लिए किसी भी बाहरी शक्ति से हाथ मिलाने को तैयार थे। 1816 में, युद्ध का अंत सुगौली की संधि (Treaty of Sugauli) के साथ हुआ। इस संधि के तहत, नेपाल को अपने जीते हुए सभी इलाके, जिनमें कुमाऊँ और गढ़वाल भी शामिल थे, अंग्रेजों को सौंपने पड़े।

पिथौरागढ़ और पूरे कुमाऊँ के लिए यह एक निर्णायक मोड़ था। 25 साल का क्रूर गोरख्याणी शासन समाप्त हो गया था। लोगों ने राहत की साँस ली, लेकिन यह पूर्ण स्वतंत्रता नहीं थी। यह बस एक मालिक का बदलना था।

1780 से 1816 तक का यह छोटा सा दौर पिथौरागढ़ के इतिहास में भारी उथल-पुथल लेकर आया। यह कहानी है एक राज्य के आंतरिक विश्वासघात की, एक क्रूर विदेशी आक्रमण की, 25 साल के दमन की, और अंत में एक और विदेशी ताकत के हस्तक्षेप की।

गोरखाओं के जाने के साथ ही पिथौरागढ़ और पूरे कुमाऊँ में ब्रिटिश राज (British Raj) का उदय हुआ। यह एक नए, ज़्यादा संगठित और व्यवस्थित औपनिवेशिक शासन की शुरुआत थी, जो अगले 131 वर्षों तक, यानी 1947 में भारत की आज़ादी तक चलना था। गोरखाओं द्वारा बनाया गया वह किला आज भी पिथौरागढ़ में खड़ा है—उस क्रूर दौर, उसके खिलाफ हुए संघर्ष, और फिर पहाड़ों में ब्रिटिश राज के लंबे युग के उदय का एक खामोश गवाह बनकर।


संदर्भ 

https://tinyurl.com/2yd73rg4 
https://tinyurl.com/2683v5zw 
https://tinyurl.com/2ygsc248 
https://tinyurl.com/2yrjybxc 
https://tinyurl.com/29ccjrvp 



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