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16वीं शताब्दी का भारत एक नए और शक्तिशाली साम्राज्य के उदय का गवाह बन रहा था। दिल्ली सल्तनत का दौर खत्म हो चुका था और मध्य एशिया से आए मुगल (Mughals), विशेषकर सम्राट अकबर के नेतृत्व में, एक विशाल और अजेय साम्राज्य की स्थापना कर रहे थे। उस समय हिंदुस्तान के सभी छोटे-बड़े राजाओं के सामने एक ही सवाल था - मुगलों की अपार शक्ति से टकराकर अपना अस्तित्व मिटा दें, या फिर उनके साथ मिलकर अपनी सत्ता और संस्कृति को सुरक्षित रखें?
यह एक बहुत बड़ा फैसला था, और इसी फैसले ने अगले 250 सालों के लिए पिथौरागढ़ और पूरे कुमाऊँ का भविष्य तय किया। यह कहानी है चंद राजाओं की उस कूटनीति की, जिसने उन्हें पहाड़ों का सबसे शक्तिशाली शासक बना दिया।
जिस समय मुगल सम्राट अकबर पूरे भारत पर अपना परचम लहरा रहे थे, उसी समय कुमाऊँ के चंद राजवंश की गद्दी पर एक युवा और महत्वाकांक्षी राजा बैठे थे, जिनका नाम था रुद्र चंद (Rudra Chand) (शासनकाल लगभग 1565-1597)।
इस स्थिति को समझने के लिए, हमें रुद्र चंद के एक समकालीन, मेवाड़ के महान शासक महाराणा प्रताप को देखना होगा। महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया और अपनी स्वतंत्रता के लिए हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध लड़ा। उन्होंने महलों को त्यागकर जंगलों में रहना स्वीकार किया, लेकिन मुगलों के सामने सिर नहीं झुकाया। उनका रास्ता स्वाभिमान और टकराव का था।
वहीं, राजा रुद्र चंद ने एक अलग और कहीं ज़्यादा व्यावहारिक रास्ता चुना। वे जानते थे कि मुगलों की विशाल सेना से सीधे टकराना आत्मघाती हो सकता है। इसलिए, उन्होंने युद्ध की जगह कूटनीति का सहारा लिया। 1581 में, वह मुगल सम्राट अकबर से मिलने लाहौर पहुँचे। उन्होंने अकबर की सर्वोच्च सत्ता (Suzerainty) को स्वीकार कर लिया। यह कोई आत्मसमर्पण नहीं था, बल्कि एक बहुत ही सोचा-समझा राजनीतिक कदम था। इस एक फैसले से रुद्र चंद ने अपने राज्य को मुगल आक्रमण के खतरे से पूरी तरह सुरक्षित कर लिया। अकबर ने भी उन्हें कुमाऊँ के वैध शासक के रूप में मान्यता दी और ज़रूरत पड़ने पर सैन्य सहायता का वचन दिया। इस तरह, जहाँ राजस्थान युद्ध की आग में जल रहा था, वहीं रुद्र चंद की दूरदर्शिता ने कुमाऊँ में शांति और स्थिरता सुनिश्चित की।
चंद राजाओं का सबसे बड़ा खतरा दिल्ली के मुगल नहीं, बल्कि उनके अपने पड़ोसी थे - गढ़वाल के शक्तिशाली पंवार (Panwar) राजवंश के राजा। सदियों तक, कुमाऊँ और गढ़वाल के ये दो पहाड़ी राज्य एक-दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे। अपनी सीमाओं के विस्तार और अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उनके बीच लगातार युद्ध होते रहते थे।
इस प्रतिद्वंद्विता में भी चंद राजाओं ने अपने मुगल संबंधों का भरपूर फायदा उठाया। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं राजा बाज बहादुर चंद (Baz Bahadur Chand) (शासनकाल लगभग 1638-1678)। वह एक बहादुर योद्धा होने के साथ-साथ एक चतुर राजनेता भी थे। उन्होंने मुगल बादशाह शाहजहाँ के साथ बहुत अच्छे संबंध बनाए। जब मुगलों ने गढ़वाल पर आक्रमण करने की योजना बनाई, तो बाज बहादुर चंद ने उनकी पूरी मदद की। अपनी वफादारी और वीरता के बदले में, मुगल बादशाह ने उन्हें 'बहादुर' की उपाधि दी और कई तोहफे दिए। इस तरह, बाज बहादुर चंद ने बड़ी चालाकी से दिल्ली की ताकत का इस्तेमाल अपने सबसे बड़े क्षेत्रीय दुश्मन, गढ़वाल को कमजोर करने के लिए किया।
चंद राजाओं के शासनकाल में, पिथौरागढ़ शहर एक महत्वपूर्ण सामरिक और प्रशासनिक केंद्र के रूप में उभरा। यह चंद साम्राज्य की एक प्रमुख सत्ता की गद्दी थी। शहर के केंद्र में स्थित पिथौरागढ़ का किला (Pithoragarh Fort) आज भी उस दौर की शान की गवाही देता है। लेकिन इस किले को बनवाया किसने था, यह आज भी एक ऐतिहासिक पहेली है।
इस किले की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों में दो मुख्य मत हैं:
यह ऐतिहासिक बहस जो भी हो, यह इस किले को और भी रहस्यमयी और आकर्षक बना देती है। बाद में जब अंग्रेज यहाँ आए, तो उन्होंने इसे 'लंदन फोर्ट' (London Fort) का नाम दिया, लेकिन आज भी यह पिथौरागढ़ की पहचान का केंद्र है।
18वीं शताब्दी के मध्य तक, चंद राजवंश अपनी पुरानी शान खोने लगा था। बाज बहादुर चंद जैसे शक्तिशाली राजाओं के बाद के उत्तराधिकारी काफी कमज़ोर साबित हुए। दरबार में साजिशें और आपसी लड़ाइयाँ आम हो गई थीं। एक समय का शक्तिशाली और एकजुट राज्य अब अंदर से खोखला हो चुका था।
कमज़ोर हो चुके कुमाऊँ पर उसके पड़ोसी, नेपाल के लड़ाकू गोरखाओं (Gorkhas) की नज़र पड़ी। उन्होंने सही मौके का इंतज़ार किया, और 1790 में, उन्होंने कुमाऊँ पर एक तेज़ और निर्णायक आक्रमण कर दिया। चंदों की कमज़ोर सेना इस आक्रमण का सामना नहीं कर सकी और आसानी से हार गई।
यह आक्रमण एक युग का अंत था। इसने कुमाऊँ में चंद राजवंश के लगभग 700 साल से भी ज़्यादा लंबे शासन को अचानक और नाटकीय रूप से समाप्त कर दिया।
1450 से 1780 तक का यह दौर चंद राजवंश के उत्कर्ष और पतन की कहानी है। यह कहानी है रुद्र चंद जैसे राजाओं की कूटनीतिक सूझ-बूझ की, बाज बहादुर चंद जैसे शासकों की वीरता की, और गढ़वाल के साथ चली लंबी प्रतिद्वंद्विता की। चंद राजाओं ने न सिर्फ युद्ध से, बल्कि सही समय पर सही राजनीतिक गठबंधन करके अपने राज्य को सुरक्षित और समृद्ध रखा।
हालांकि उनका शासन गोरखा आक्रमण के साथ समाप्त हो गया, लेकिन चंद राजवंश ने पिथौरागढ़ पर एक अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने इस क्षेत्र के राजनीतिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को गढ़ा और अपने पीछे पिथौरागढ़ के किले जैसे रहस्य छोड़े, जो आज भी हमें अपने गौरवशाली अतीत की याद दिलाते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/29mh8puo
https://tinyurl.com/243bcxre
https://tinyurl.com/2cmnhcju
https://tinyurl.com/26rqchno
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