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जब हम अपने पूर्वजों के बारे में सोचते हैं, तो सवाल उठता है कि हम उन लोगों के बारे में कैसे जानते हैं जो हज़ारों साल पहले रहते थे और जिन्होंने अपने पीछे कोई किताब या लिखित दस्तावेज़ नहीं छोड़ा? इसका जवाब हमें विज्ञान की एक रोमांचक शाखा देती है, जिसे हम पुरातत्व (Archaeology) कहते हैं।
पुरातत्व एक जासूस की तरह काम करता है। एक पुरातत्वविद् ज़मीन के नीचे दबे मिट्टी के एक टूटे बर्तन, धातु के एक पुराने औज़ार, या किसी भुली-बिसरी कब्र से मिली हड्डियों के टुकड़ों को जोड़कर अतीत की एक पूरी तस्वीर बना देता है। ये चीज़ें सिर्फ़ वस्तुएँ नहीं हैं; ये हमारे पूर्वजों के जीवन, उनकी तकनीक, उनके विश्वास और उनके समाज की कहानियाँ कहती हैं। पिथौरागढ़ और उसके आस-पास का कुमाऊँ क्षेत्र ऐसे ही पुरातात्विक खज़ानों से भरा पड़ा है, जो हमें 4000 साल पुराने एक सुनहरे युग की दास्ताँ सुनाते हैं।
हमारे सबसे पुराने पूर्वजों ने गुफाओं की दीवारों पर चित्र बनाकर अपनी दुनिया को दर्शाया था। लाखुडियार से लेकर हाल ही में कसानी गाँव में मिली चित्रकारी तक, इन सभी में एक बात आम थी - सामुदायिक जीवन के दृश्य। एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते हुए इंसान यह दिखाते हैं कि उस समय तक एक संगठित समाज की नींव पड़ चुकी थी। यह आपसी सहयोग और सामाजिक एकता ही वह शक्ति थी, जिसने हमारे पूर्वजों को इतिहास की अगली और सबसे बड़ी छलाँग लगाने के लिए तैयार किया, यह छलाँग थी ‘धातु युग में प्रवेश।’
लगभग 2000 ईसा पूर्व के आसपास, पिथौरागढ़ और पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में एक बहुत बड़ी तकनीकी क्रांति हुई। इंसान ने पहली बार पत्थर से आगे बढ़कर धातु का उपयोग करना सीखा, और वह पहली धातु थी ताँबा (Copper)। इस युग को हम "ताम्र निधि संस्कृति" (Copper Hoard Culture) के नाम से जानते हैं। गंगा-यमुना के मैदानी इलाकों से लेकर हिमालय की पहाड़ियों तक, ज़मीन के नीचे कई जगहों पर ताँबे की बनी चीज़ों के ढेर (hoards) मिले हैं, जो इस संस्कृति की पहचान हैं।
पिथौरागढ़-अल्मोड़ा का क्षेत्र इस संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ के प्राचीन निवासियों ने धातु-कर्म (Metallurgy) की जटिल कला में महारत हासिल कर ली थी। यह कोई मामूली बात नहीं थी। इसके लिए उन्हें पहले धातु अयस्क (ore) खोजना पड़ता था, फिर उसे उच्च तापमान पर गलाकर शुद्ध धातु निकालना और अंत में उसे साँचों में ढालकर अपनी ज़रूरत के औज़ार और आकृतियाँ बनाना पड़ता था।
इन ताम्र निधियों में कई तरह के उपकरण मिले हैं, जैसे भाले, तलवारें, लेकिन जो चीज़ सबसे अनोखी और रहस्यमयी है, वह है एक खास मानवाकृति (Anthropomorphic Figure)। यह ताँबे से बनी एक इंसान जैसी आकृति है, जिसके दोनों हाथ फैले हुए हैं और एक स्पष्ट सिर है। आज तक पुरातत्वविद् निश्चित रूप से यह नहीं कह पाए हैं कि यह क्या था।
यह रहस्य जो भी हो, एक बात साफ़ है: इन जटिल आकृतियों को बनाने वाले लोग सिर्फ़ साधारण किसान नहीं थे, बल्कि वे कुशल कारीगर और इंजीनियर थे, जिनका एक विकसित समाज और गहरा आध्यात्मिक विश्वास था।
जिस समय हमारे कुमाऊँ के पूर्वज ताँबे की धातु से ये चमत्कार कर रहे थे, उसी वैदिक काल में, हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में भी इस क्षेत्र का उल्लेख मिलता है। वेदों और पुराणों में हिमालय के इस हिस्से को एक दिव्य भूमि, "उत्तरकुरु" (Uttarakuru) राज्य का हिस्सा बताया गया है। इसे देवताओं और समृद्ध लोगों की भूमि के रूप में वर्णित किया गया है।
यह एक अद्भुत संयोग है कि जिस समय हमारे ग्रंथ इस क्षेत्र का गौरवगान कर रहे हैं, उसी समय पुरातत्व हमें यहाँ एक उन्नत ताम्र संस्कृति के ठोस सबूत दे रहा है। यह साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्यों का एक सुंदर मेल है, जो इस बात की पुष्टि करता है कि प्राचीन काल से ही उत्तराखंड एक महत्वपूर्ण और सम्मानित क्षेत्र रहा है।
ताँबे ने इंसान को बहुत कुछ दिया, लेकिन उसकी अपनी सीमाएँ थीं। वह एक नरम धातु थी। लगभग 1000 ईसा पूर्व के आसपास, एक नई और ज़्यादा शक्तिशाली धातु का आगमन हुआ - लोहा (Iron)। लोहे के आगमन ने एक और क्रांति को जन्म दिया। लोहा ताँबे से ज़्यादा कठोर, ज़्यादा टिकाऊ था और इसके अयस्क भी ज़्यादा आसानी से उपलब्ध थे।
लौह युग (Iron Age) के आने से जीवन में कई बदलाव आए:
लेकिन इस युग की सबसे हैरान करने वाली खोज है कुमाऊँ क्षेत्र में मिली महापाषाणिक समाधियाँ (Megalithic Burial Sites)। 'मेगालिथ' का अर्थ है 'बड़े पत्थर'। इस युग के लोग अपने मृतकों को दफनाने के लिए बड़े-बड़े पत्थरों की संरचनाएँ बनाते थे। अल्मोड़ा के पास नौला-जैनल जैसे स्थलों पर इन कब्रों के सबूत मिले हैं। इन समाधियों में, बड़े-बड़े चपटे पत्थरों को जोड़कर एक संदूक जैसी कब्र (Cist Burial) बनाई जाती थी और फिर उसे एक बड़े पत्थर से ढक दिया जाता था।
ये पत्थर की समाधियाँ हमें उस समाज के बारे में बहुत कुछ बताती हैं:
2000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व का यह कालखंड पिथौरागढ़ और कुमाऊँ के इतिहास का एक सुनहरा दौर था। इस दौर में हमारे पूर्वजों ने धातु की शक्ति को पहचाना, सुंदर कलाकृतियाँ बनाईं, उन्नत समाज बसाए और अपने मृतकों को सम्मान देने के लिए विशाल स्मारक खड़े किए।
लेकिन यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई है। जैसा कि हाल ही में कसानी गाँव में मिली प्रागैतिहासिक चित्रकारी की खोज ने दिखाया है, हमारे इस क्षेत्र की धरती के नीचे आज भी न जाने कितने रहस्य दबे पड़े हैं। हर नई पुरातात्विक खोज हमारे इतिहास की किताब में एक नया, रोमांचक पन्ना जोड़ देती है। पिथौरागढ़ का अतीत एक खुली किताब की तरह है, जिसके कई पन्ने अभी पढ़े जाने बाकी हैं, और यह भविष्य के खोजकर्ताओं और पुरातत्वविदों का इंतज़ार कर रही है।
संदर्भ
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