समय - सीमा 267
मानव और उनकी इंद्रियाँ 1050
मानव और उनके आविष्कार 813
भूगोल 260
जीव-जंतु 315
वारली कला भारत की प्राचीन जनजातीय कलाओं में से एक है, जो महाराष्ट्र के सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला के उत्तर भाग में बसे आदिवासी समुदाय द्वारा पीढ़ियों से संरक्षित की गई है। यह कला विशेष रूप से ठाणे, दहानू, पालघर, जव्हार और मोखाड़ा क्षेत्रों के वारली जनजातियों में पाई जाती है। मुंबई जैसे महानगर के निकट होने के बावजूद, वारली समुदाय ने अपने पारंपरिक जीवन, संस्कृति और कला को शहरी प्रभावों से काफी हद तक बचाए रखा है। यही कारण है कि वारली चित्रकला आज भी अपनी मौलिकता और सरलता के लिए प्रसिद्ध है। वारली चित्रकला का आरंभ कब हुआ, इसका सटीक प्रमाण नहीं है, लेकिन इसके चिन्ह ईसा पूर्व 2500-3000 के बीच के माने जाते हैं। इसकी शैली प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों से मिलती-जुलती है। इस कला में तीन मुख्य आकृतियों-वृत्त, त्रिकोण और वर्ग-का प्रयोग किया जाता है। वृत्त सूर्य और चंद्रमा का प्रतीक है, त्रिकोण पर्वतों और वृक्षों का, जबकि वर्ग मानव सृजन है जो किसी पवित्र स्थान या भूमि को दर्शाता है। पारंपरिक रूप से, ये चित्र मिट्टी की दीवारों पर सफेद रंग से बनाए जाते थे, जो चावल के पेस्ट और पानी से तैयार किया जाता था। दीवारें लाल गेरू और गोबर से रंगी जाती थीं, जिससे सफेद रंग की आकृतियाँ उभरकर आती थीं।
वारली चित्रों का मुख्य विषय “प्रकृति” और “मानव जीवन” है। वारली जनजाति खेती पर निर्भर है, इसलिए उनके चित्रों में खेती, पशुपालन, नृत्य, विवाह समारोह और शिकार जैसे दृश्य प्रमुख होते हैं। इन चित्रों में देवी-देवताओं के रूप कम ही मिलते हैं; इसके बजाय, वे प्रकृति को ही ईश्वर का रूप मानते हैं। मानव आकृतियों को दो त्रिकोणों के संयोग से बनाया जाता है - ऊपरी भाग धड़ को और निचला भाग कमर को दर्शाता है। यह संरचना जीवन के संतुलन और गति का प्रतीक मानी जाती है।
1970 के दशक में कलाकार जीव्या सोमा माशे ने वारली कला को नए आयाम दिए। उन्होंने इसे दीवारों से निकालकर कागज़ और कैनवास (canvas) पर उकेरा, जिससे यह कला वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध हुई। उनके चित्रों में ग्रामीण जीवन की गतिविधियाँ, प्रकृति की लय और समुदाय की एकजुटता झलकती है। जीव्या माशे की रचनात्मकता और योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने यह साबित किया कि यह केवल दीवारों की रस्म नहीं, बल्कि एक जीवंत कला परंपरा है।
आज वारली कला न केवल दीवारों तक सीमित है, बल्कि वस्त्रों, गृह सजावट, हस्तशिल्प और आधुनिक डिजाइनों में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है। इसकी सरल रेखाएँ, सीमित रंग और गहरी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति इसे विशिष्ट बनाती हैं। वारली कला केवल चित्रकला नहीं, बल्कि यह जनजातीय जीवन, प्रकृति के प्रति सम्मान और सामूहिकता की भावना का प्रतीक है - एक ऐसा जीवंत दस्तावेज़ जो भारतीय लोकसंस्कृति की आत्मा को दर्शाता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/bdfk36nt
https://tinyurl.com/bdz4v87r
https://tinyurl.com/ybfmdndh
https://tinyurl.com/44s96h2j