प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली: कैसे आदिवासी समुदाय सहेज रहे हैं हमारे जंगल और परंपराएँ

वन
02-12-2025 09:24 AM
प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली: कैसे आदिवासी समुदाय सहेज रहे हैं हमारे जंगल और परंपराएँ

धरती की साँसें अगर कहीं बसती हैं, तो वे वनों में हैं - जहाँ हर पत्ता, हर शाख, और हर हवा का झोंका जीवन की धड़कन बनकर बहता है। वन केवल हरियाली नहीं, बल्कि पृथ्वी का श्वासतंत्र हैं जो जल, वायु, मिट्टी और जलवायु - चारों तत्वों के बीच संतुलन बनाए रखते हैं। ये ऑक्सीजन (Oxygen) प्रदान करते हैं, वर्षा चक्र को नियंत्रित करते हैं, और असंख्य जीव-जंतुओं को आश्रय देते हैं। जब हम किसी घने वन में प्रवेश करते हैं, तो वह शांति केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी होती है - मानो धरती स्वयं अपने अस्तित्व की फुसफुसाहट कर रही हो। आज, जब मानव विकास के नाम पर इन वनों की निरंतर कटाई हो रही है, तो यह समझना पहले से अधिक आवश्यक हो गया है कि उनका संरक्षण केवल पर्यावरण नहीं, बल्कि जीवन की निरंतरता का प्रश्न है।
इस लेख में हम वनों की इसी अनमोल भूमिका को गहराई से समझने की कोशिश करेंगे। हम जानेंगे कि कैसे वन पृथ्वी के पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखते हैं और मानव जीवन के हर पहलू से जुड़े हुए हैं। आगे के भागों में हम वनों के पाँच प्रमुख प्रकारों - उष्णकटिबंधीय, समशीतोष्ण, बोरियल (टैगा), पर्णपाती और उनके पारिस्थितिक योगदान - पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम यह भी समझेंगे कि वनों के अध्ययन और संरक्षण की वैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से क्या आवश्यकता है। यह केवल प्रकृति का अध्ययन नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की जड़ों से जुड़ने की यात्रा है।

आदिवासी समुदायों का प्रकृति से आत्मीय संबंध
आदिवासी समाज के लिए जंगल केवल रहने या संसाधन प्राप्त करने की जगह नहीं हैं, बल्कि उनकी संस्कृति, परंपरा, आध्यात्मिकता और पहचान का जीवंत प्रतीक हैं। वे जंगल को एक जीवित इकाई मानते हैं - जिसमें पेड़ों, नदियों, पहाड़ों, जानवरों और मिट्टी तक में जीवन और आत्मा बसती है। यही कारण है कि वे प्रकृति को “माँ” और “देवता” दोनों के रूप में पूजते हैं। उनके जीवन का हर पहलू - चाहे वह जन्म हो, विवाह हो या मृत्यु - किसी न किसी रूप में प्रकृति से जुड़ा होता है। वे हर पेड़ काटने से पहले अनुमति मांगते हैं, हर नदी को प्रणाम करते हैं, और हर जीव को सम्मान देते हैं। यह गहरा भावनात्मक जुड़ाव ही उन्हें सबसे संवेदनशील पर्यावरण रक्षक बनाता है। आदिवासी समुदायों का यह दृष्टिकोण आधुनिक समाज को यह याद दिलाता है कि प्रकृति केवल उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि हमारी अस्तित्व-श्रृंखला का मूल है।

वन आधारित खाद्य प्रणाली और पोषण सुरक्षा
हाल के वर्षों में हुए शोधों से यह तथ्य सामने आया है कि आदिवासी समुदायों की वन-आधारित खाद्य प्रणाली न केवल पारंपरिक और टिकाऊ है, बल्कि पोषण की दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध है। उनके भोजन में पत्तेदार सब्ज़ियाँ, फल, जड़ें, कंद, मशरूम और जंगली अनाज शामिल होते हैं, जो पोषक तत्वों से भरपूर हैं। उदाहरण के लिए, गांधीरी साग में बीटा-कैरोटीन (beta-carotene) पाया जाता है जो दृष्टि और त्वचा के लिए लाभकारी है; मुंडी कांडा और लंगला कांडा आयरन (Iron) और जिंक (Zinc) के स्रोत हैं; जबकि बौंशो छतु (मशरूम) प्रोटीन (protein) से भरपूर है। सूखे या फसल विफलता के समय, यही वन आधारित खाद्य पदार्थ आदिवासी परिवारों के लिए जीवनरक्षक साबित होते हैं। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों के बीच, यह पारंपरिक खाद्य प्रणाली न केवल खाद्य सुरक्षा का विकल्प है, बल्कि सतत् जीवनशैली का एक अनुकरणीय मॉडल भी है। आज जब शहरी समाज प्रोसेस्ड फूड से स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा है, तब आदिवासियों की प्राकृतिक भोजन पद्धति हमें सादगी और संतुलन की राह दिखाती है।

सामुदायिक वन प्रबंधन और भूमि अधिकारों की भूमिका
जहाँ आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक वन और भूमि अधिकार प्राप्त हैं, वहाँ वनों की कटाई और संसाधनों के दोहन की दर उल्लेखनीय रूप से कम देखी गई है। इसका कारण है - स्वामित्व की गहरी भावना और प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी। आदिवासी समाज वनों को संपत्ति नहीं, बल्कि परिवार की तरह मानता है। वे जंगल से केवल उतना ही लेते हैं जितनी उन्हें आवश्यकता होती है, और उसके पुनर्जनन की प्रक्रिया में भी भागीदारी करते हैं। उनकी “साझेदारी पर आधारित संरक्षण” प्रणाली यह दिखाती है कि जब समुदाय को निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिलती है, तो वे न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा करते हैं, बल्कि पर्यावरण के दीर्घकालिक संतुलन को भी बनाए रखते हैं। भारत में जहाँ सरकारों ने “सामुदायिक वन अधिकार” (CFR) को मान्यता दी है, वहाँ जैव विविधता में वृद्धि और पर्यावरणीय स्थिरता दोनों में सकारात्मक परिवर्तन दर्ज किए गए हैं। यह बताता है कि आदिवासी शासन और लोक सहभागिता ही सच्चे अर्थों में सतत विकास का आधार बन सकती है।

पारंपरिक औषधीय ज्ञान और जैव विविधता का संरक्षण
आदिवासी समुदाय औषधीय पौधों और प्राकृतिक उपचार के क्षेत्र में सदियों पुराना अनुभव रखते हैं। वे जंगलों को अपनी “जीवित दवा की प्रयोगशाला” मानते हैं। हड्डी टूटने, बुखार, घाव या संक्रमण के लिए वे जड़ों, तनों, पत्तियों और छाल से औषधीय लेप तैयार करते हैं। जैसे वांडा टेसाला (Vanda Tesla) और सिडा कॉर्डेटा (Sida Cordata) का उपयोग हड्डी जोड़ने में किया जाता है, वहीं बाउहिनिया पुरपुरिया और अल्बिज़िया लेबेक (Albizia Lebbeck) मांसपेशियों के दर्द और सूजन में लाभकारी हैं। इन पौधों का उपयोग केवल इलाज के लिए नहीं होता - आदिवासी इन्हें संरक्षित भी रखते हैं, ताकि ये अगली पीढ़ियों के लिए उपलब्ध रहें। यह ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक परंपरा के रूप में स्थानांतरित होता है, जिससे उनका पारिस्थितिक संतुलन और औषधीय जैव विविधता दोनों संरक्षित रहते हैं। आधुनिक विज्ञान अब धीरे-धीरे यह स्वीकार कर रहा है कि पारंपरिक हर्बल (herbal) उपचार में वह सामर्थ्य है जो कई बार आधुनिक दवाओं में भी नहीं मिलती। 

पवित्र उपवन और धार्मिक संरक्षण परंपरा
आदिवासी समाज में “पवित्र उपवन” (Sacred Groves) प्रकृति संरक्षण की सबसे प्राचीन और प्रभावशाली परंपराओं में से एक हैं। इन उपवनों को देवी-देवताओं का निवास माना जाता है, इसलिए यहाँ कोई पेड़ काटना, शिकार करना या खेती करना वर्जित होता है। इन क्षेत्रों में प्राकृतिक वनस्पति अपने प्राकृतिक रूप में बनी रहती है, और परिणामस्वरूप यहाँ दुर्लभ प्रजातियों का अद्भुत संरक्षण देखने को मिलता है। इन उपवनों का संरक्षण केवल धार्मिक आस्था का परिणाम नहीं, बल्कि यह एक पारिस्थितिक बुद्धिमत्ता का उदाहरण है। पवित्र उपवनों ने स्थानीय जलवायु, भूजल और मिट्टी की उर्वरता को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ये आज भी यह सिखाते हैं कि आध्यात्मिकता और पर्यावरण जब एक साथ चलते हैं, तो संरक्षण सहज रूप से संभव हो जाता है।

आधुनिक चुनौतियाँ और टिकाऊ संरक्षण की दिशा
आज औद्योगिकीकरण, खनन, वन-व्यवसाय और शहरी विस्तार ने प्रकृति पर अभूतपूर्व दबाव डाला है। वनों की अंधाधुंध कटाई और पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा ने न केवल जैव विविधता को खतरे में डाला है, बल्कि आदिवासी समुदायों की आजीविका और पहचान को भी प्रभावित किया है। यह समय की माँग है कि हम आदिवासी समुदायों की पारंपरिक बुद्धि को आधुनिक पर्यावरण नीति में शामिल करें। साझा प्रबंधन, स्थानीय भागीदारी, टिकाऊ विकास और पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से ही हम इन चुनौतियों से निपट सकते हैं। आधुनिक तकनीक और आदिवासी ज्ञान का संगम हमें यह सिखा सकता है कि “प्रकृति का उपयोग नहीं, संरक्षण ही प्रगति का वास्तविक मार्ग है।”

संदर्भ-  
https://bit.ly/3ENl9Ix 
https://bit.ly/3EHuv8t 
https://bit.ly/3ggcZyX 
https://tinyurl.com/mstefwur 



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