जौनपुर - शिराज़-ए-हिंद












जौनपुर की हरियाली में पत्तों का मौन संवाद: जब पौधे एक-दूसरे को देते हैं चेतावनी
व्यवहारिक
By Behaviour
22-08-2025 09:18 AM
Jaunpur District-Hindi

जब जौनपुर की बारिश पहली बार ज़मीन को छूती है, तो मिट्टी से उठने वाली सोंधी खुशबू न सिर्फ लोगों के मन को भिगो देती है, बल्कि पेड़ों और पौधों की दुनिया में भी एक नई हलचल पैदा करती है। यहाँ के खेतों में फैली हरियाली, आम के बाग, बांस की झाड़ियाँ और गेंहू या धान की लहराती फसलें, सब आपस में एक ख़ामोश भाषा में संवाद करती हैं। यह संवाद हमारी तरह सीधा नहीं होता, लेकिन जितना मौन है, उतना ही गहरा और समझदार। जब जौनपुर के किसी खेत या जंगल में किसी एक पौधे पर कीटों का हमला होता है, चाहे वो कचनार हो, पीपल, या गन्ने की बालियाँ, तब वह पौधा अपने आसपास के साथियों को चेतावनी देता है। यह चेतावनी शब्दों से नहीं, बल्कि एक विशेष रसायन, मिथाइल जैस्मोनेट (methyl jasmonate), के ज़रिए होती है, जो हवा में घुलकर दूसरों तक पहुँचता है। यह दृश्य हमें दिखाता है कि जौनपुर की मिट्टी सिर्फ अन्न नहीं उगाती, वह रिश्तों और संवाद का भी मैदान है। यहाँ प्रकृति सिर्फ देखने की चीज़ नहीं है, बल्कि वह खुद एक जीवंत चरित्र है, जो सुनती है, समझती है, और संकट के समय अपने साथियों को अकेला नहीं छोड़ती। यह विज्ञान और भावनाओं का वह संगम है, जो केवल गाँव की मिट्टी में महसूस किया जा सकता है।
इस लेख में हम पाँच प्रमुख विषयों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। पहले, हम समझेंगे कि पौधे किस प्रकार मिथाइल जैस्मोनेट जैसे रसायनों के माध्यम से संकट की चेतावनी साझा करते हैं। फिर, हम जानेंगे कि यह रसायन दूसरी पौधों तक कैसे पहुंचता है और संचार को कैसे सक्रिय करता है। तीसरे भाग में, हम लड़ेंगे कि माइकोराइज़ल कवक (mycorrhizal fungi) की भूमिका पौधों के बीच "भूमि के नीचे" नेटवर्क बनाने में कितनी महत्वपूर्ण होती है। इसके बाद, हम यह जानेंगे कि क्या सभी पौधे इस कवक के साथ सहजीवी संबंध बनाते हैं, या कुछ पौधों में यह संबंध नहीं होता। अंत में, हम देखेंगे कैसे कुछ पौधे, जैसे क्रोटालारिया (crotalaria) कनिंघमी, पक्षियों या कीटों को धोखा देने के लिए नकल रणनीति का उपयोग करते हैं।
पौधे एक-दूसरे को संकट की चेतावनी कैसे देते हैं?
जैसे ही जौनपुर में सावन की फुहारें खेतों और बाग-बग़ीचों को भिगोती हैं, वैसे ही पौधों की हरियाली नई ऊर्जा से भर जाती है। लेकिन इसी हरियाली में एक अदृश्य संवाद भी चलता है, संकट के समय चेतावनी का संवाद। जब किसी पौधे पर कीट या पशु हमला करता है, तो वह अकेला नहीं लड़ता। वह मिथाइल जैस्मोनेट नामक एक विशेष रसायन छोड़ता है, जो हवा में घुलकर आसपास के पौधों तक पहुंचता है। यह रसायन उन पौधों को सचेत करता है कि खतरा पास है। जवाबी प्रतिक्रिया में, वे पौधे अपने पत्तों में ऐसे यौगिक भर लेते हैं जो कीटों के लिए अपाच्य या विषैले होते हैं, या फिर वे राल जैसी चिपचिपी संरचना छोड़ते हैं जिससे कीट फँस जाएँ। यह पूरा संवाद बिना शब्दों के होता है, लेकिन इसका असर बहुत ठोस और सामूहिक होता है। यह दिखाता है कि जौनपुर के खेतों में सिर्फ किसान ही नहीं, पौधे भी मिलकर रक्षा करते हैं।
मिथाइल जैस्मोनेट और पौधों के बीच रासायनिक संचार का विज्ञान
मिथाइल जैस्मोनेट, एक ऐसा छोटा लेकिन शक्तिशाली अणु है जो पौधों के आपसी संचार का आधार बनता है। जब यह रसायन हवा में उड़ता है और दूसरे पौधों की पत्तियों में प्रवेश करता है, तो वहाँ भी उसी रसायन का उत्पादन शुरू हो जाता है। यह पूरी प्रक्रिया एक चेतावनी श्रृंखला (warning cascade) की तरह काम करती है, जैसे एक पौधा दूसरे को कह रहा हो: “सावधान! मेरी तरफ़ कुछ आ रहा है, तुम तैयार हो जाओ।” जौनपुर जैसे कृषि प्रधान जिले में, जहाँ धान, गन्ना, गेहूँ और सब्जियों की उपज महत्त्वपूर्ण है, ऐसे रासायनिक संवाद फसलों को कीटों से समय रहते बचाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। ये संकेत तात्कालिक और व्यापक होते हैं, और यही कारण है कि कभी-कभी एक खेत का आधा हिस्सा तो संक्रमित हो जाता है, लेकिन बाकी हिस्सा उस संक्रमण से खुद को बचा लेता है।
माइकोराइज़ल कवक: जौनपुर की मिट्टी में पौधों का गुप्त नेटवर्क
अगर आप जौनपुर की मिट्टी को गहराई से देखें तो वहाँ सिर्फ जड़ें नहीं, बल्कि एक अदृश्य लेकिन जीवंत नेटवर्क भी है, माइकोराइज़ल कवक का नेटवर्क। ये कवक, पौधों की जड़ों से जुड़कर एक सहजीवी संबंध (symbiotic relationship) बनाते हैं। कवक, पौधों को मिट्टी से पानी और खनिजों को प्रभावी रूप से लेने में मदद करता है, जबकि बदले में पौधे उसे अपनी उपज से कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) देते हैं। लेकिन यह संबंध सिर्फ पोषण तक सीमित नहीं है, यह एक संवाद माध्यम भी है। जब एक पौधा किसी तनाव से गुजरता है, तो वह माइकोराइज़ल नेटवर्क के ज़रिए पास के पौधों को संकेत भेजता है। इस नेटवर्क को वैज्ञानिकों ने "वुड वाइड वेब" (Wood Wide Web) कहा है। जौनपुर की मिट्टी, जो सदियों से खेती के लिए जानी जाती है, इसी वजह से भी उपजाऊ है क्योंकि वहाँ माइकोराइज़ल कवक का यह तंत्र सशक्त और संतुलित है। यह दिखाता है कि मिट्टी सिर्फ उपज का माध्यम नहीं, बल्कि ज्ञान और चेतावनी का भी वाहक है।

क्या सभी पौधे माइकोराइज़ल कवक से जुड़ते हैं? किन पौधों में यह संबंध नहीं बनता?
हालाँकि माइकोराइज़ल कवक से जुड़ना अधिकांश पौधों के लिए लाभकारी होता है, लेकिन कुछ पौधे इससे अछूते भी रहते हैं। जैसे ऑर्किड (Orchids) या ब्रोमेलियाड (Bromeliads) प्रजातियाँ इस नेटवर्क से स्वाभाविक रूप से नहीं जुड़तीं। ये पौधे या तो अपनी जैविक संरचना की वजह से इस कवक से लाभ नहीं उठा पाते या उनके लिए कवक की ज़रूरत नहीं होती। जौनपुर की प्रमुख फसलें जैसे गन्ना, धान, अरहर, और सब्जियाँ, सभी माइकोराइज़ल कवक से अच्छी साझेदारी करती हैं। यह संबंध न केवल उपज को बढ़ाता है, बल्कि खेती को टिकाऊ (sustainable) भी बनाता है। यही कारण है कि स्थानीय किसान भी अब "कवक-समृद्ध" कम्पोस्ट या जैविक खाद अपनाने लगे हैं। ये अपवाद हमें यह सिखाते हैं कि हर जीव, चाहे वह पौधा हो या मनुष्य, अपनी अनूठी विशेषताओं के साथ ही पारिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखता है।
पौधों की रक्षा की अनोखी तरकीबें: जब पौधे करते हैं पक्षियों की नकल
प्रकृति में आत्मरक्षा की रणनीतियाँ केवल जानवरों तक सीमित नहीं हैं। कुछ पौधे भी अद्भुत नकल रणनीतियों का उपयोग करते हैं ताकि वे शिकारियों या कीटों को भ्रमित कर सकें। ऑस्ट्रेलिया में पाए जाने वाला क्रोटालारिया कनिंघमी (Crotalaria cunninghamii) एक ऐसा ही पौधा है जिसकी शाखाएँ उड़ती चिड़ियों की आकृति जैसी लगती हैं। यह एक मिमिक्री तकनीक है, जिसे बेट्सियन मिमिक्री (Batesian mimicry) कहा जाता है, जहाँ कोई निरपराध जीव खतरनाक दिखने का नाटक करता है। जौनपुर के ग्रामीण इलाकों में भी ऐसे पेड़-पौधों को देखकर कई बार स्थानीय लोग कहते हैं, "ये तो जैसे किसी जानवर की आकृति बना रहे हैं।” यह 'सिमुलैक्रम' (Simulacrum) की एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें हम स्वाभाविक रूप से जटिल आकृतियों में परिचित आकृतियाँ देखने लगते हैं। इन रणनीतियों का उद्देश्य सिर्फ सौंदर्य नहीं होता, बल्कि अपने अस्तित्व की रक्षा करना होता है। यही प्रकृति की सबसे बड़ी सीख है, कि जीवन को बनाए रखने के लिए रचना, मिमिक्री और साझेदारी तीनों जरूरी हैं।
संदर्भ-
https://shorturl.at/9E93s
जौनपुर में बरसात के बाद मच्छरों का बढ़ता ख़तरा, सतर्कता बेहद ज़रूरी
तितलियाँ व कीड़े
Butterfly and Insects
21-08-2025 09:24 AM
Jaunpur District-Hindi

जैसे ही जौनपुर की ज़मीन पर मानसून की पहली फुहार गिरती है, मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू हवाओं में घुल जाती है और गोमती किनारे हरियाली नई जान से भर उठती है। लेकिन इसी खूबसूरत मौसम के साथ एक ख़ामोश ख़तरा भी हमारे आस-पास पलने लगता है, मच्छरों का। बारिश के बाद जौनपुर की गलियों, छतों, टूटी नालियों और पुराने बर्तनों में जो पानी जमा हो जाता है, वहीं मच्छर अपना साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं। यही मच्छर डेंगू (dengue), मलेरिया (malaria) और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों का कारण बनते हैं, जो हर साल सैकड़ों ज़िंदगियों पर असर डालते हैं। जौनपुर जैसे शहरों में, जहाँ जनसंख्या घनत्व और जलनिकासी की समस्याएँ आम हैं, वहाँ यह दिन और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो जाता है। मानसून का मौसम जौनपुर के लिए सौंदर्य और संपदा लाता है, लेकिन तभी तक जब तक हम उसके साथ जिम्मेदारी और सतर्कता भी निभाएँ।
इस लेख में हम मच्छरों से जुड़ी पाँच महत्वपूर्ण बातों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि मानसून के दौरान मच्छर किस प्रकार डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया और ज़िका (Zika) जैसी बीमारियाँ फैलाते हैं। फिर, हम समझेंगे कि मच्छरों की शारीरिक रचना और उनका व्यवहार उन्हें बीमारियों के वाहक कैसे बनाता है। इसके बाद, हम पढ़ेंगे कि कुछ लोग मच्छरों को दूसरों की तुलना में अधिक क्यों आकर्षित करते हैं, इसमें रक्त समूह, गंध और गर्मी जैसी बातें शामिल हैं। आगे, हम चर्चा करेंगे कि आज के वैज्ञानिक मच्छरों को नियंत्रित करने के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) और बैक्टीरिया (bacteria) जैसी तकनीकों का कैसे उपयोग कर रहे हैं। अंत में, हम जानेंगे कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मच्छरों से बचने के व्यावहारिक उपाय कौन-कौन से हैं, जो हर घर और गली में अपनाए जा सकते हैं।

मानसून में मच्छरों से फैलने वाली बीमारियाँ और उनका बदलता स्वरूप
मानसून आते ही जैसे ही पानी गड्ढों, नालियों या छतों पर जमा होता है, मादा मच्छर अंडे देने के लिए जगह तलाशने लगती है। कुछ ही दिनों में ये अंडे नए मच्छरों में बदल जाते हैं और बीमारियों का चक्र शुरू हो जाता है। डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया और ज़िका जैसी बीमारियाँ मच्छरों द्वारा फैलती हैं और इनका प्रभाव केवल बुखार तक सीमित नहीं होता। डेंगू में प्लेटलेट्स (platelets) गिरने लगते हैं, मलेरिया मस्तिष्क तक को प्रभावित कर सकता है, चिकनगुनिया जोड़ों में महीनों तक दर्द पैदा करता है, और ज़िका वायरस गर्भवती महिलाओं के लिए घातक हो सकता है क्योंकि यह भ्रूण के विकास को नुकसान पहुँचाता है। इन बीमारियों का इलाज समय पर न हो तो स्थिति जानलेवा भी हो सकती है। यही कारण है कि हर बारिश के मौसम में हमें मच्छरों को हल्के में नहीं लेना चाहिए।
मच्छरों की बनावट, व्यवहार और संक्रमण फैलाने की क्षमता
मच्छर केवल एक उड़ने वाला कीट नहीं है, यह एक परिष्कृत संक्रमण यंत्र है। मादा मच्छर खून चूसती है क्योंकि उसे अंडों के विकास के लिए प्रोटीन (protein) की ज़रूरत होती है, और इसी प्रक्रिया में वह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक वायरस या परजीवी फैला सकती है। जब वह संक्रमित व्यक्ति का खून चूसती है और फिर किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटती है, तो संक्रमण फैलता है। दिन में मच्छर परदे, फर्नीचर (furniture) या अंधेरी जगहों में छुपते हैं और शाम को सबसे अधिक सक्रिय होते हैं। इनडोर रेजिडुअल स्प्रेइंग (आई.आर.एस.) (Indoor Residual Spraying - IRS) जैसी विधियों से मादा मच्छरों की आबादी को कम किया जा सकता है। लेकिन जब तक उनके प्रजनन के ठिकानों को नष्ट नहीं किया जाता, तब तक यह समस्या हर मानसून दोहराई जाती रहेगी।
क्यों कुछ लोग मच्छरों के लिए 'ज़्यादा स्वादिष्ट' होते हैं?
यह सवाल सबके मन में आता है कि मच्छर कुछ लोगों को ज़्यादा क्यों काटते हैं। विज्ञान बताता है कि इसके पीछे कई वजहें हो सकती हैं। सबसे पहले - रक्त समूह। जिन लोगों का ब्लड ग्रुप (blood group) O होता है, उन्हें मच्छर A या B ग्रुप वालों की तुलना में ज़्यादा काटते हैं। इसके अलावा, शरीर से निकलने वाली गंध, जैसे पसीना, बैक्टीरिया की उपस्थिति, और शरीर की गर्मी - ये सभी मच्छरों को आकर्षित करते हैं। जो लोग अधिक एक्सरसाइज़ (exercise) करते हैं, गर्भवती महिलाएँ या शराब का सेवन करने वाले व्यक्ति, इनकी चयापचय दर ज़्यादा होती है और ये अधिक कार्बन डाइऑक्साइड (carbon dioxide) छोड़ते हैं, जिससे मच्छर इन्हें जल्दी पहचान लेते हैं। साथ ही, गहरे रंग के कपड़े पहनना भी मच्छरों को आकर्षित करता है। इन बातों को समझकर हम खुद को बचाने के और ज़्यादा प्रभावी उपाय अपना सकते हैं।
मच्छरों पर काबू पाने की आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकें
आज मच्छरों से निपटने के लिए केवल दवाओं या जालों पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं है। वैज्ञानिकों ने अब जेनेटिक इंजीनियरिंग और माइक्रोबायोलॉजी (microbiology) की मदद से ऐसे मच्छर विकसित किए हैं जो मादा मच्छरों से प्रजनन नहीं कर पाते। चीन और सिंगापुर में स्थापित "मच्छर फैक्ट्रियों" में ऐसे नर मच्छरों को तैयार किया जाता है जो वोल्बाचिया (Wolbachia) नामक बैक्टीरिया से संक्रमित होते हैं। जब ये मादा मच्छरों से मिलते हैं तो वे अंडे नहीं दे पातीं, जिससे आने वाली पीढ़ी ही समाप्त हो जाती है। यह तकनीक ज़िका और डेंगू जैसे वायरस के प्रसार को रोकने में बड़ी भूमिका निभा रही है। हालांकि ये प्रयास अभी सीमित स्तर पर हैं, लेकिन इनके नतीजे बहुत आशाजनक हैं और भविष्य में व्यापक स्तर पर इस्तेमाल हो सकते हैं।
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मच्छरों से बचाव के व्यावहारिक और प्राकृतिक उपाय
मच्छरों से बचने के लिए सबसे पहला कदम है ,उनके प्रजनन को रोकना। अपने घर और आस-पास पानी को जमा न होने दें, गमलों में पानी न ठहरे, टायर (tire) या पुराने डिब्बों को उल्टा रखें, और छतों की नियमित सफाई करें। खिड़कियों और दरवाज़ों पर मच्छर जाल लगवाएं और रात में सोते समय मच्छरदानी का उपयोग करें। हल्के रंग के ढीले कपड़े पहनें जो शरीर को ढकें और गहरे रंगों से बचें। सिट्रोनेला (Citronella), नीम का तेल और थाइम जैसे प्राकृतिक सुगंधित तेलों का प्रयोग करें जो मच्छरों को दूर रखते हैं। DEET, IR3535 जैसे रसायन भी शरीर पर लगाने के लिए सुरक्षित और प्रभावशाली माने जाते हैं। सबसे बड़ी बात, सुबह और शाम के समय विशेष सावधानी बरतें क्योंकि यह मच्छरों की सबसे सक्रिय अवधि होती है।
सुगंध से संवेदना तक: जौनपुर की फिज़ाओं में घुली स्मृतियों की दुनिया
गंध- ख़ुशबू व इत्र
Smell - Odours/Perfumes
20-08-2025 09:30 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर, वह ऐतिहासिक शहर जहाँ की फिज़ाओं में रची-बसी इत्र की खुशबू सिर्फ हवा में नहीं, लोगों की यादों और ज़िंदगी में भी घुली हुई है। यह खुशबू कोई साधारण सुगंध नहीं, बल्कि सदियों पुरानी एक परंपरा है, जो इस शहर की पहचान बन चुकी है। कभी यहाँ के इत्र का व्यापार भारत के कोने-कोने तक फैला करता था, और आज भी जौनपुर की तंग गलियों में आपको गुलाब, खस, चंदन और केवड़े की वो भीनी-भीनी ख़ुशबू मिलेगी, जो न सिर्फ इंद्रियों को जगाती है, बल्कि आत्मा तक को छू जाती है। लेकिन क्या आपने कभी गहराई से सोचा है कि ये इत्र, ये सुगंध, सिर्फ नाक से महसूस नहीं होती? ये हमें भावनाओं की उस यात्रा पर ले जाती है, जहाँ हर महक के साथ कोई याद, कोई रिश्ता, कोई भाव जुड़ जाता है। दरअसल, हमारी सूंघने की क्षमता सिर्फ एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक अनुभव का एक बेहद गहरा हिस्सा है। जौनपुर की ये सुगंधित विरासत हमें यही याद दिलाती है, कि खुशबूओं का रिश्ता दिल और दिमाग से भी उतना ही गहरा होता है, जितना हमारी इंद्रियों से। जौनपुर की सुगंधित पहचान सिर्फ इत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारी घ्राण प्रणाली से जुड़ी वैज्ञानिक और भावनात्मक प्रक्रियाओं को भी उजागर करती है।
इस लेख में सबसे पहले हम जानेंगे कि जौनपुर में इत्र निर्माण और व्यापार की क्या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है और स्थानीय लोगों के भावनात्मक जुड़ाव में इसकी क्या भूमिका रही है। फिर, हम यह समझेंगे कि हमारी घ्राण प्रणाली कैसे काम करती है और मस्तिष्क की लिम्बिक प्रणाली से गंध का क्या संबंध होता है। इसके बाद, हम सुगंध और मनोदशा के अदृश्य रिश्ते को देखेंगे, और जानेंगे कि गंध हमारी मानसिक स्थिति को कैसे प्रभावित करती है। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि गंध विकार क्या होते हैं, इनके प्रकार क्या हैं और ये जीवन की गुणवत्ता को कैसे प्रभावित कर सकते हैं।

जौनपुर और इत्र संस्कृति - एक सुगंधित विरासत
जौनपुर का नाम जब लिया जाता है, तो वहाँ के ऐतिहासिक किलों, इमामबाड़ों और पुलों के साथ-साथ, एक और चीज़ चुपचाप लोगों की स्मृति में महकने लगती है, यहाँ का पारंपरिक इत्र। जौनपुर में इत्र सिर्फ व्यापार का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा रहा है। पीढ़ियों से स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाए गए इत्रों की महक गुलाब, चंदन, केवड़ा और खस जैसे प्राकृतिक स्रोतों से निकली होती है, जो न केवल इंद्रियों को ताज़ा करती है, बल्कि भावनाओं की तह तक जा पहुँचती है। यह सुगंध जन्मदिन, त्योहार, शादियों और धार्मिक आयोजनों से जुड़कर सामाजिक व्यवहार में गहराई से रच-बस चुकी है। कई परिवारों में तो इत्र को विरासत की तरह सँजोया जाता है, और इसका उपहार स्वरूप आदान-प्रदान, प्रेम और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए, जौनपुर की यह सुगंधित विरासत, केवल व्यापारिक गौरव नहीं, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव और सांस्कृतिक गर्व की मिसाल है।
हमारी घ्राण प्रणाली कैसे काम करती है?
जब आप किसी इत्र को सूंघते हैं और अचानक किसी व्यक्ति, जगह या बीती स्मृति की याद आपके ज़ेहन में कौंध जाती है, तो यह कोई जादू नहीं, बल्कि हमारे मस्तिष्क और घ्राण प्रणाली का अद्भुत तालमेल है। हमारी नाक के भीतर मौजूदघ्राण संवेदी न्यूरॉन्स (olfactory sensory neurons) वातावरण में मौजूद गंध के कणों को पहचानते हैं और उन्हें इलेक्ट्रिकल सिग्नल (electrical signal) में बदलकर सीधे हमारे मस्तिष्क की लिम्बिक प्रणाली (limbic system) तक पहुंचाते हैं। यह वही प्रणाली है जो हमारी भावनाओं, यादों और व्यवहारों को नियंत्रित करती है। यही कारण है कि कुछ विशेष सुगंधें, जैसे मिट्टी की खुशबू या किसी परिचित की खुशबू, हमें अचानक बहुत गहरे भावनात्मक अनुभव दे जाती हैं। यह संवेदी अनुभव बाद में कॉर्टेक्स (cortex) तक पहुंचता है, जहाँ मस्तिष्क उस गंध को एक 'पहचान' देता है। यहीं से शुरू होता है उस गंध के साथ हमारा दीर्घकालिक भावनात्मक संबंध।

सुगंध और मनोदशा का अदृश्य संबंध
हमारे मूड, मानसिक स्थिति और स्मृतियों पर सुगंधों का प्रभाव वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है। जब हम किसी भी मीठी, शांत या ताज़ी सुगंध को सूंघते हैं, तो हमारा मूड स्वतः बेहतर महसूस करने लगता है, तनाव घटता है, स्फूर्ति बढ़ती है और भावनाएं संतुलित होती हैं। यही कारण है कि कई मानसिक स्वास्थ्य प्रक्रियाओं में अब अरोमाथेरेपी का उपयोग किया जा रहा है। खासकर उन लोगों में जो अलेक्सिथिमिया (Alexithymia) जैसी मानसिक स्थिति से ग्रस्त हैं, जिसमें व्यक्ति अपनी भावनाओं को पहचान या व्यक्त नहीं कर पाता, उनके लिए सुखद गंध एक भावनात्मक सेतु का कार्य करती है। ये सुगंध उन्हें उन भावों से जोड़ती हैं, जिन्हें वे शब्दों में बयाँ नहीं कर पाते। इसी वजह से सुगंधों को अब केवल लग्ज़री या विलासिता की चीज़ न मानकर, मानसिक संतुलन और भावनात्मक स्वास्थ्य की दिशा में एक ज़रूरी साधन माना जा रहा है।

गंध विकार क्या हैं और कैसे पहचानें?
गंध को न महसूस कर पाना या विकृत रूप में महसूस करना - ये स्थितियाँ न केवल इंद्रिय अनुभवों को बाधित करती हैं, बल्कि जीवन की गुणवत्ता पर भी गहरा असर डालती हैं। गंध विकार मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं:
- हाइपोसमिया (hyposmia) — गंध की शक्ति में कमी आना,
- एनोस्मिया (anosmia) — गंध को पूरी तरह से न महसूस कर पाना,
- पैरोस्मिया (parosmia) — सामान्य गंध का अजीब, अक्सर अप्रिय रूप में अनुभव होना,
- फैंटोस्मिया (phantosmia) — किसी ऐसी गंध का अनुभव करना जो वास्तव में वहाँ मौजूद नहीं है।
इन विकारों के पीछे कई कारण हो सकते हैं, जैसे नाक में रुकावट, घ्राण रिसेप्टर्स (olfactory receptors) का क्षय, या मस्तिष्क में घ्राण तंत्र के प्रभावित होने से। ख़ासतौर पर कोविड-19 महामारी के बाद से, इन गंध विकारों में तेज़ी से वृद्धि देखी गई है, जिससे लोगों को न सिर्फ खाने के स्वाद की हानि हुई, बल्कि मानसिक तनाव और सामाजिक अलगाव भी महसूस हुआ। इन लक्षणों को गंभीरता से लेना आवश्यक है, क्योंकि गंध केवल एक इंद्रिय नहीं, बल्कि संपूर्ण अनुभव की गहराई है।

गंध की शक्ति और जीवन पर उसका प्रभाव
हमारी सूंघने की क्षमता केवल स्वाद या परफ्यूम तक सीमित नहीं है, यह हमारे जीवन की सुरक्षा, निर्णय और भावनात्मक जुड़ाव से भी गहराई से जुड़ी हुई है। सोचिए अगर आप गैस लीकेज (gas leakage) की गंध न पहचान पाएं, या जलती हुई किसी वस्तु की महक आपको न मिले, तो जोखिम कितना बड़ा हो सकता है। खाना खाते समय भी हम पहले उसकी सुगंध से तय करते हैं कि वह स्वादिष्ट है या नहीं। इसलिए जब गंध चली जाती है, तो न केवल खाने का स्वाद अधूरा रह जाता है, बल्कि हमारा मानसिक और भावनात्मक संतुलन भी प्रभावित होता है। गंधों की अनुपस्थिति में जीवन फीका, असुरक्षित और भावनात्मक रूप से शून्य सा हो सकता है। यही वजह है कि हमें अपनी घ्राण शक्ति को एक अनदेखी इंद्रिय की तरह नहीं, बल्कि एक सजीव अनुभव की तरह देखना चाहिए, जिसकी उपस्थिति हमारे जीवन को गहराई, सुरक्षा और सुंदरता देती है।
संदर्भ-
तस्वीरों की नज़र से जौनपुर: लेंस में थमा हुआ समय और यादें
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
19-08-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हर साल 19 अगस्त को पूरी दुनिया विश्व फोटोग्राफी दिवस मनाती है। यह दिन सिर्फ़ कैमरे, लेंस या तकनीक का उत्सव नहीं है, बल्कि उस अद्भुत कला और जज़्बे का सम्मान है, जो एक साधारण सी तस्वीर को यादों और इतिहास का पुल बना देता है। तस्वीरें समय को थामने का एक जादुई तरीका हैं, वे हमें वही दिखाती हैं जो शब्दों से कह पाना मुश्किल होता है। जब हम जौनपुर की पुरानी तस्वीरों को देखते हैं, अटाला मस्जिद की ऊँची-ऊँची मेहराबें, शाही क़िले की मजबूत दीवारें, गोमती के किनारे का शांत नज़ारा और चौक की गलियों में रौनक से भरी दुकानें, तो ऐसा लगता है जैसे कोई हमें धीरे-धीरे अतीत की गलियों में वापस ले जा रहा हो। उन तस्वीरों में न सिर्फ़ ईंट और पत्थर हैं, बल्कि वहाँ के लोगों की धड़कन, उनकी खुशबू, उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी कैद है। सोचिए, वह दौर जब न मोबाइल थे, न डिजिटल कैमरे (digital camera), फिर भी कुछ जुनूनी लोग भारी-भरकम कैमरों के साथ इन गलियों में घूमते रहे ताकि आने वाली पीढ़ियाँ देख सकें कि उनका शहर कभी कैसा था। हर तस्वीर एक खिड़की है, जो अतीत को खोलकर आज के समय से जोड़ देती है। इसीलिए विश्व फोटोग्राफी दिवस (World Photography Day) हमें यह याद दिलाता है कि तस्वीरें सिर्फ़ तस्वीरें नहीं, बल्कि एक कहानी हैं, जो पीढ़ियों तक चलती रहती है।
इस लेख में हम तस्वीरों की उसी जादुई दुनिया की सैर करेंगे। शुरुआत करेंगे उस समय से, जब कैमरा ऑब्स्क्योरा (camera obscura) जैसी साधारण सी तकनीक ने पहली बार रोशनी को काग़ज़ पर उतारना सीखा और हेलियोग्राफी (heliography) ने तस्वीरों को जन्म दिया। फिर देखेंगे कि 19वीं सदी में कैमरा जब भारत पहुँचा तो कैसे जौनपुर जैसे ऐतिहासिक शहर की पहली झलक कैमरे में क़ैद हुई। हम बात करेंगे उस ब्रिटिश इंजीनियर (British Engineer) और पुरातत्वविद् जोसेफ बेग्लार (Joseph Beglar) की, जिन्होंने 1870 में जौनपुर की जामा मस्जिद और लाल दरवाज़ा मस्जिद को अपने कैमरे से अमर कर दिया। इसके बाद समझेंगे कि कैसे काले-सफेद फ़ोटोग्राफ़ी धीरे-धीरे रंगीन तस्वीरों में बदल गई और लुमिएर बंधुओं (The Lumiere Brothers) तथा कोडक (Kodak) जैसी कंपनियों ने इस बदलाव को नई दिशा दी। और अंत में, हम जानेंगे कि आज के डिजिटल युग में, जब हर हाथ में कैमरा है, तस्वीरों की यह परंपरा कैसे जौनपुर की पहचान और यादों को हमेशा ज़िंदा रख रही है।

फोटोग्राफी का आरंभ : कैमरा ऑब्स्क्योरा से हेलियोग्राफी तक
तस्वीरों की कहानी की शुरुआत बहुत पुरानी है। 11वीं सदी में अरबी वैज्ञानिक इब्न-हैथम (Ibn-Haytham) ने कैमरा ऑब्स्क्योरा का सिद्धांत समझाया, जिसमें अंधेरे कमरे की दीवार पर एक छोटे छेद से आती रोशनी के कारण बाहर का दृश्य उल्टा और सीधा दोनों रूपों में दिखाई देता था। इसी विचार ने आगे चलकर आधुनिक कैमरे की नींव रखी। 18वीं और 19वीं सदी में कई वैज्ञानिकों ने इस विचार को प्रयोगशाला से बाहर निकाला और वास्तविक तस्वीरें कैद करने की कोशिशें शुरू कीं। 1826-27 में फ्रांस के जोसफ नाइसफोर नीप्चे (Joseph Nicephore Niepce) ने आठ घंटे तक रोशनी को एक जस्ते की प्लेट पर पड़ने दिया और पहली स्थायी तस्वीर बनाई, जिसे उन्होंने हेलियोग्राफी यानी “सूरज की लिखावट” नाम दिया। उस तस्वीर का नाम था "व्यू फ्रॉम द विंडो एट ले ग्रास" (View from the Window at Le Gras)। यह कोई आसान प्रक्रिया नहीं थी, न कोई लेंस की सुविधा थी, न फिल्म का आसान उपयोग। उस समय यह तकनीक इतनी कठिन थी कि एक तस्वीर बनाना ही वैज्ञानिक उपलब्धि मानी जाती थी। इस खोज के बाद फोटोग्राफी धीरे-धीरे कला और विज्ञान का संगम बनकर फैलने लगी।

19वीं सदी में कैमरे का भारत आगमन
कैमरा भारत में 19वीं सदी के मध्य में आया। अंग्रेज़ अफ़सरों, खोजकर्ताओं और यात्रियों ने जब इस उपकरण का इस्तेमाल शुरू किया तो भारत की भव्य इमारतें, मंदिर, किले और प्राकृतिक दृश्यों को पहली बार तस्वीरों में कैद किया गया। उन दिनों कैमरा भारी-भरकम होता था, काले कपड़े से ढककर काम करना पड़ता था और तस्वीर खींचने में कई मिनट तक कैमरे को स्थिर रखना पड़ता था। लेकिन इन तस्वीरों ने इतिहास को देखने का तरीका बदल दिया। चित्रकला में जो कल्पना थी, उसे कैमरे ने वास्तविक और प्रमाणिक रूप दे दिया। अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान खींची गई तस्वीरों में भारत की संस्कृति और स्थापत्य की झलक दूर देशों तक पहुँची। इसके चलते फोटोग्राफी केवल एक शौक़ नहीं रही, बल्कि दस्तावेज़ीकरण का अहम माध्यम बन गई।
जौनपुर की शुरुआती तस्वीरें और जोसेफ बेग्लार का योगदान
जौनपुर को कैमरे की आँख ने पहली बार 1870 में देखा। इस काम के पीछे थे जोसेफ बेग्लार, जो इंजीनियर और पुरातत्वविद दोनों थे। उन्होंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के लिए जौनपुर की शाही धरोहरों की तस्वीरें खींचीं। इन तस्वीरों में जामा मस्जिद और लाल दरवाजा मस्जिद प्रमुख हैं, जो शर्की काल की स्थापत्य कला का अद्भुत उदाहरण हैं। बेग्लार की तस्वीरों में केवल इमारतें ही नहीं, बल्कि समय की खुशबू भी है, उनमें मस्जिद की ऊँची मेहराबें, पत्थरों की नक़्काशी और गुम्बदों की छाया एक जीवित इतिहास की तरह दिखती हैं। बेग्लार का योगदान इसलिए भी अहम है कि उस दौर में फोटोग्राफी कठिन और महँगी प्रक्रिया थी, फिर भी उन्होंने इसे एक दस्तावेज़ी साधन बना दिया। आज ये तस्वीरें हमारे लिए अमूल्य धरोहर हैं, क्योंकि उन्होंने न सिर्फ उस समय के जौनपुर को कैद किया बल्कि उस शहर की आत्मा को भी तस्वीरों में उतार दिया।
रंगीन फोटोग्राफी का जन्म और विकास
फोटोग्राफी की शुरुआती तस्वीरें ब्लैक एंड वाइट (Black and White) थीं, जिनमें केवल प्रकाश और छाया का खेल होता था।1861 में थॉमस सटन (Thomas Sutton) ने पहली बार रंगीन तस्वीर खींची और यह एक प्रयोगात्मक उपलब्धि थी। इसके बाद 1907 में लुमियर भाइयों की "ऑटोक्रोम" (autochrome) तकनीक आई, जिसमें छोटे-छोटे रंगीन स्टार्च के दानों से तस्वीरों में रंग भरने का तरीका विकसित किया गया। 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में यह तकनीक फोटोग्राफी को नई दिशा देने लगी। फिर 1935 में कोडक कंपनी ने “कोडाक्रोम”(Kodachrome) फिल्म बनाई, जिसने रंगीन फोटोग्राफी को आम लोगों तक पहुँचा दिया। 1970 के दशक तक रंगीन तस्वीरें सस्ती हो गईं और लगभग हर परिवार के पास कैमरा पहुँच गया। अब दुनिया ब्लैक एंड वाइट की सीमाओं से निकलकर रंगों में ढल चुकी थी। इस विकास ने भारत जैसे देशों में भी तस्वीरों के दस्तावेज़ को और जीवंत बना दिया।

भारतीय शहरों और फोटोग्राफी की विरासत
आज जब हम जौनपुर की पुरानी तस्वीरें देखते हैं, तो लगता है जैसे पुराना शहर अपने बीते समय की कहानियाँ खुद बयां कर रहा हो। कैमरे ने इस शहर की गुम्बददार मस्जिदों, पुलों, किलों और गलियों को हमेशा के लिए सहेज लिया। तस्वीरें केवल पत्थरों का दस्तावेज़ नहीं होतीं, वे उस दौर के लोगों के जीवन, उनके कपड़ों, बाज़ारों और संस्कारों का भी आईना होती हैं। जौनपुर की ऐतिहासिक तस्वीरें यह बताती हैं कि यह शहर कितनी परतों वाले इतिहास को अपने भीतर समेटे है। यही कारण है कि फोटोग्राफी को आज भी एक कला के साथ-साथ इतिहास को सुरक्षित रखने का माध्यम माना जाता है। आने वाले समय में भी यह विरासत हमें याद दिलाती रहेगी कि तस्वीरें केवल देखने की चीज़ नहीं, बल्कि अनुभव करने की खिड़की हैं।
संदर्भ-
https://short-link.me/1a4TX
https://short-link.me/1a4U4
https://short-link.me/15Ia9
गुर्जर–प्रतिहार वंश: उत्तर भारत के वैभव, शक्ति और संस्कृति की कहानी
छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक
Small Kingdoms: 300 CE to 1000 CE
18-08-2025 09:26 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारा शहर जितना मशहूर है अपनी तहज़ीब, इत्र और शर्की दौर की इमारतों के लिए, उतना ही गहराई से जुड़ा है उत्तर भारत के बड़े इतिहास से भी। आज हम आपको ले चलते हैं मौर्यों के लगभग हजार साल बाद के उस समय में, जब उत्तर भारत की धरती पर एक नई शक्ति उभर रही थी - गुर्जर - प्रतिहार वंश। यह वंश केवल युद्धों में अपनी बहादुरी के लिए ही नहीं, बल्कि कला, साहित्य और भव्य मंदिरों के निर्माण के लिए भी जाना जाता है।
इस लेख में हम गुर्जर-प्रतिहार वंश के इतिहास को पाँच प्रमुख पहलुओं में समझेंगे। सबसे पहले, हम इस वंश की उत्पत्ति, काल और विस्तार पर नज़र डालेंगे, जहाँ यह देखेंगे कि किस तरह कन्नौज से उठी यह शक्ति उत्तर और पश्चिम भारत में फैलकर एक बड़े साम्राज्य का रूप लेती है। इसके बाद, हम इनके प्रशासन और शासन प्रणाली का अध्ययन करेंगे, जिसमें राजा से लेकर स्थानीय स्तर तक की संगठित व्यवस्था शामिल थी। तीसरे भाग में हम उन प्रमुख शासकों के योगदान को जानेंगे, जिन्होंने अपने साहस और नीतियों से इस वंश को शिखर तक पहुँचाया। चौथे हिस्से में हम प्रतिहार काल में कला, वास्तुकला और मंदिर निर्माण के शानदार योगदान को देखेंगे, जिसने इस युग को सांस्कृतिक स्वर्णकाल बना दिया। अंत में, हम साहित्य और सांस्कृतिक गतिविधियों के क्षेत्र में इस वंश की उपलब्धियों को समझेंगे, जिसने भारत की विद्या और संस्कृति को समृद्ध बनाया।

गुर्जर-प्रतिहार वंश की उत्पत्ति, काल और विस्तार
गुर्जर-प्रतिहार वंश का उदय 8वीं शताब्दी में भारतीय इतिहास के एक ऐसे दौर में हुआ जब उत्तर और पश्चिम भारत में सत्ता संघर्ष चरम पर था। लगभग 730 ईस्वी में इस वंश का पहला उल्लेख मिलता है। 1036 ईस्वी तक, लगभग तीन शताब्दियों तक, प्रतिहार शासकों ने उत्तर भारत की राजनीति और संस्कृति को आकार दिया। इस वंश की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर उसे मध्यकालीन भारत की सबसे प्रमुख शक्ति केंद्रों में बदल दिया।
नागभट्ट प्रथम, इस वंश के पहले महान शासक, अपने समय के सबसे दूरदर्शी और साहसी शासकों में माने जाते हैं। उन्होंने अरब आक्रमणकारियों को उत्तर भारत की धरती से खदेड़कर अपने राज्य की नींव मजबूत की और सुरक्षा का माहौल बनाया। कालांतर में यह साम्राज्य पश्चिम में गुजरात और सिंध की सीमाओं तक फैल गया, उत्तर में हिमालय के तराई क्षेत्रों तक इसका प्रभाव पहुंचा, और पूर्व की ओर बंगाल तक इसका विस्तार हुआ। उस समय भारत के तीन बड़े शक्तिशाली राज्यों - पाल, राष्ट्रकूट और प्रतिहार - में त्रिकोणीय संघर्ष चलता रहा। इन परिस्थितियों में भी प्रतिहार साम्राज्य ने अपनी पहचान मजबूत की और उत्तरी भारत की संस्कृति, राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था पर अमिट छाप छोड़ी।
प्रशासन व्यवस्था और शासन प्रणाली
गुर्जर-प्रतिहार वंश की प्रशासनिक व्यवस्था बहुत ही संगठित और सुव्यवस्थित थी। उनके शासन में राजा सर्वोच्च स्थान रखता था और राज्य की समस्त शक्ति और जिम्मेदारी उसी के पास होती थी। राजाओं को ‘परमेश्वर’, ‘महाराजाधिराज’ और ‘परमभतेरक’ जैसी उपाधियाँ दी जाती थीं, जो उनकी सर्वोच्च सत्ता का संकेत थीं। राज्य को प्रशासनिक सुविधा के लिए कई ‘भुक्तियों’ में विभाजित किया गया था। प्रत्येक भुक्ति के अंतर्गत 'मंडल' होते थे और मंडलों में गाँव व नगर आते थे। सामंतों को ‘महा-प्रतिहार’ या ‘महा-सामंतपति’ कहा जाता था। ये सामंत राजा को सैन्य सहायता उपलब्ध कराते थे और युद्ध के समय उनके साथ लड़ते थे। प्रशासनिक ढांचे में गाँव का प्रबंधन स्थानीय बुजुर्गों यानी महत्तर के हाथ में होता था, जबकि ग्रामपति ग्राम स्तर पर राजा का प्रतिनिधित्व करते थे और शासन के कार्यों में सलाह देते थे। शहरों के प्रशासन के लिए गोष्ठी, पंचकुला और उत्तरसोभा जैसी परिषदें कार्य करती थीं, जो स्थानीय निर्णय लेती थीं। इस तरह का बहुस्तरीय और संगठित शासन ढांचा प्रतिहार साम्राज्य की स्थिरता और ताकत का मुख्य कारण बना।

प्रमुख शासक और उनके योगदान
प्रतिहार वंश के इतिहास को जानने के लिए इसके प्रमुख शासकों का योगदान सबसे महत्वपूर्ण है।
नागभट्ट प्रथम (730 - 760 ईस्वी): उन्होंने प्रतिहार शक्ति की नींव रखी। उस समय अरब आक्रमण उत्तर-पश्चिम से लगातार बढ़ रहे थे। नागभट्ट प्रथम ने गुजरात और ग्वालियर तक फैले अपने साम्राज्य में अरब सेनाओं को करारी शिकस्त देकर भारत को सुरक्षित रखा।
नागभट्ट द्वितीय (800 - 833 ईस्वी): वत्सराज के उत्तराधिकारी नागभट्ट द्वितीय ने साम्राज्य को नए सिरे से संगठित किया। उन्होंने सिंध, आंध्र, विदर्भ और कलिंग तक विजय प्राप्त की और कन्नौज को भी अपने अधीन कर लिया।
मिहिर भोज (836 - 885 ईस्वी): प्रतिहार इतिहास के स्वर्णिम अध्याय का आरंभ इन्हीं के समय होता है। 46 वर्षों के उनके शासनकाल में साम्राज्य ने नई ऊँचाइयों को छुआ। उन्होंने न केवल सैन्य शक्ति को सुदृढ़ किया बल्कि संस्कृति, कला और साहित्य का संरक्षण भी किया।
महेंद्रपाल (885 - 910 ईस्वी): उनके समय में साम्राज्य का विस्तार उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक हुआ। वे विद्या और कला के महान संरक्षक थे। संस्कृत कवि राजशेखर उनके दरबार को सुशोभित करते थे।
यशपाल (1024 - 1036 ईस्वी): प्रतिहार वंश के अंतिम शासक माने जाते हैं। उनके काल में गढ़वाल वंश ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया, और इस तरह प्रतिहार साम्राज्य का अंत हुआ।
कला, वास्तुकला और मंदिर निर्माण में योगदान
गुर्जर-प्रतिहार काल में कला और स्थापत्य का उत्कर्ष अपने चरम पर था। इस काल की स्थापत्य शैली को ‘महु-गुर्जर शैली’ के नाम से जाना जाता है। इस वंश के संरक्षण में बने मंदिर आज भी उनकी कलात्मक उत्कृष्टता का प्रमाण हैं। राजस्थान के ओसियां स्थित महावीर जैन मंदिर, मध्य प्रदेश के बटेश्वर समूह के मंदिर और चित्तौड़गढ़ के बारोली मंदिर प्रतिहार वास्तुकला के अद्भुत उदाहरण हैं। इन मंदिरों में पत्थर की नक्काशी, शिल्पकला और मूर्तियों का सौंदर्य अद्वितीय है। इन मंदिरों में शिव, विष्णु और शक्ति जैसे देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ स्थापित की गईं। मिहिर भोज ने अपने शासनकाल में सुंदर मुद्रा-सिक्कों का निर्माण भी कराया, जिन पर विष्णु के अवतार और सूर्य के प्रतीकों की छवियाँ उकेरी गईं। ये सिक्के उनके सांस्कृतिक दृष्टिकोण और कलात्मक अभिरुचि को दर्शाते हैं।

साहित्य और सांस्कृतिक योगदान
गुर्जर-प्रतिहार काल में विद्या, साहित्य और संस्कृति का अद्भुत विकास हुआ। इस वंश के शासक स्वयं कला और साहित्य के संरक्षक थे। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि राजशेखर ने इस समय कई अमूल्य कृतियाँ दीं - जिनमें ‘कर्पूरमंजरी’, ‘काव्यमीमांसा’, ‘बाल-रामायण’ और ‘विद्धशालभंजिका’ प्रमुख हैं। विदेशी यात्री सुलेमान ने भी प्रतिहार साम्राज्य का उल्लेख करते हुए लिखा कि उनके राज्य में विशाल सेना थी, ऊँट और घोड़ों की भरमार थी, और यह राज्य इतना सुरक्षित था कि यहाँ लूटपाट की कोई घटना नहीं होती थी। यह टिप्पणी इस बात का प्रमाण है कि यह राजवंश न केवल शक्तिशाली था बल्कि जनता के लिए सुरक्षित और समृद्ध वातावरण प्रदान करता था।
संदर्भ-
https://short-link.me/15HNa
स्वांग लोकनाट्य: भारतीय लोकजीवन की आत्मा और जौनपुर की सांस्कृतिक चेतना के लिए प्रेरणा
द्रिश्य 2- अभिनय कला
Sight II - Performing Arts
17-08-2025 09:10 AM
Jaunpur District-Hindi

भारत में लोक नाट्य (Folk Theatre) एक बहुआयामी कलारूप है, जिसमें संगीत, नृत्य, अभिनय, पद्य-पाठ, महाकाव्य और वीरगाथाओं की प्रस्तुति, चित्र और मूर्तिकला, धार्मिक अनुष्ठान और ग्रामीण उत्सवों का समन्वय देखा जा सकता है। इसकी जड़ें स्थानीय संस्कृति में गहराई से समाई हुई हैं और यह स्थानीय पहचान व सामाजिक मूल्यों को अभिव्यक्त करता है। मनोरंजन के माध्यम के रूप में लोक नाट्य न केवल जनमानस को आनंदित करता है, बल्कि पीढ़ियों से भारत में अंतर-व्यक्तिगत, सामुदायिक और अंतर-ग्राम संप्रेषण का प्रभावी साधन भी रहा है। विशेष रूप से, इसने सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरूकता फैलाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
लोक नाट्य की सबसे सशक्त शैलियों में से एक 'स्वांग' (Swang) है, जिसकी उत्पत्ति हरियाणा में मानी जाती है। कहा जाता है कि किशनलाल भट्ट ने स्वांग के समकालीन रूप की नींव रखी थी, लेकिन इसका सबसे प्रसिद्ध नाम दीपचंद बहमन का है, जो सोनीपत के शिरी खुंडा गाँव से थे। उन्हें हरियाणा का 'शेक्सपियर' (Shakespeare) या 'कालिदास' कहा जाता है। स्वांग की विशिष्टता यह है कि इसके मंचन के लिए आधुनिक नाट्यशालाओं की भांति जटिल मंच-सज्जा, परदा या श्रृंगार-कक्ष की आवश्यकता नहीं होती। खुले मैदान, आँगन या मंदिर की बालकनी में भी इसका प्रदर्शन संभव है। यह भी उल्लेखनीय है कि स्वांग के कलाकार ध्वनि विस्तारक यंत्र (लाउडस्पीकर - loudspeaker) का प्रयोग नहीं करते। संवादों में रस लाने के लिए एकतारा, खड़ता, ढोलक, सारंगी और हारमोनियम (harmonium) जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
पहले वीडियो के ज़रिए हम स्वांग की परंपरा और प्रस्तुति की झलक देखेंगे।
स्वांग की एक रोचक विशेषता यह रही है कि बीसवीं शताब्दी से पहले स्त्री पात्रों की भूमिका पुरुष निभाते थे। लेकिन अब समय के साथ महिलाओं ने भी स्वांग में भाग लेना शुरू किया है, और उन्होंने अपने महिला केंद्रित "सांघ" विकसित किए हैं जिनमें वे पुरुष पात्रों की भूमिकाएँ भी निभाती हैं।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में स्वांग जैसी लोक नाट्य शैलियाँ अलग-अलग नामों से जानी जाती हैं - जैसे ब्रज की रासलीला, गुजरात का भवई, मध्यप्रदेश की पंडवानी, महाराष्ट्र का तमाशा, मैसूर का यक्षगान और उत्तराखंड का पांडव नृत्य। इन सभी में कथानक के स्तर पर पौराणिक प्रेम, लोकप्रिय इतिहास और धार्मिक उपदेशों के साथ-साथ सामाजिक और नैतिक मूल्य भी अंतर्निहित होते हैं। स्वांग, इन सभी शैलियों की भाँति, अच्छाई की बुराई पर विजय की स्थायी छवि के साथ समाप्त होता है, जिससे दर्शकों में आशा, प्रेरणा और नैतिक शिक्षा का संचार होता है। इस प्रकार, स्वांग केवल लोक-मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि लोक-जीवन की आत्मा है, जो संस्कृति, शिक्षा और संवाद का जीवंत माध्यम बनकर आज भी समाज में अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है।
नीचे दिए गए वीडियो के माध्यम से हम स्वांग के बारे में और अधिक जानेंगे।
संदर्भ-
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कृष्ण जन्माष्टमी पर जौनपुर: गली-गली बिखरती है भक्ति और रंगों की छटा
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
16-08-2025 09:00 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों को जन्माष्टमी की मंगलकामनाएँ!
जब भादों की अंधियारी रात में जौनपुर की गलियाँ जगमगाती हैं, जब मंदिरों के घंटे और शंखनादों के साथ "जय कन्हैया लाल की!" की गूंज हर दिशा में फैलती है, तब समझ आता है कि जौनपुर में जन्माष्टमी केवल एक तिथि नहीं, एक जीवंत अनुभव है। यह शहर, जो अपनी शास्त्रीय संगीत परंपरा, ऐतिहासिक धरोहरों और धार्मिक चेतना के लिए जाना जाता है, हर वर्ष जन्माष्टमी के दिन एक अनोखे रंग में रंग जाता है। यहाँ कृष्ण जन्मोत्सव सिर्फ मंदिरों तक सीमित नहीं रहता - यह मोहल्लों, घरों, नुक्कड़ों और जन-जन के मन में बस जाता है। दिन ढलते ही सड़कों पर झांकियाँ सजने लगती हैं, जिनमें बालकृष्ण की लीलाओं से लेकर महाभारत के प्रसंगों तक का मंचन किया जाता है। छोटे-छोटे बच्चे राधा-कृष्ण बनकर जैसे पुरानी कथाओं को सजीव कर देते हैं। शाही पुल, गोपी घाट, शीतला चौक और जालपा देवी मंदिर जैसे स्थानों पर सजने वाली झांकियाँ और रासलीलाएं वर्षों से स्थानीय गौरव रही हैं, जहाँ हर साल हज़ारों श्रद्धालु उमड़ते हैं, न केवल दर्शन के लिए, बल्कि भाव से जुड़ने के लिए। जन्माष्टमी की रात जौनपुर के लिए केवल एक पर्व नहीं, एक जागती हुई आध्यात्मिक यात्रा है - जहाँ नंद के घर जन्मे कृष्ण, हर घर के भीतर उतर आते हैं। यह वह रात होती है जब श्रद्धा, कला, संगीत और लोकसंस्कृति एक साथ झूमते हैं, और जौनपुर खुद श्रीकृष्ण का वृंदावन बन जाता है।
हम इस लेख में सबसे पहले समझेंगे कि श्रीकृष्ण की वेशभूषा और प्रतीकात्मक वस्तुएं जैसे मोरपंख, बांसुरी, मुकुट और पीतांबर क्या दर्शाते हैं। फिर हम देखेंगे कि प्राचीन मूर्तिकला और ग्रंथों में श्रीकृष्ण के स्वरूप को किस प्रकार दर्शाया गया है। इसके बाद, हम इतिहास और पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर जानेंगे कि द्वारका जैसे स्थलों और हेलियोडोरस स्तंभ (Heliodorus Pillar) से हमें उनके ऐतिहासिक अस्तित्व के क्या संकेत मिलते हैं। हम जन्माष्टमी जैसे त्योहारों के वैश्विक रूप को भी देखेंगे, खासकर कैसे दुनिया के अलग-अलग कोनों में यह उत्सव मनाया जाता है।
श्रीकृष्ण के श्रृंगार और वेशभूषा का प्रतीकात्मक अर्थ
श्रीकृष्ण का स्वरूप जितना मनमोहक है, उतना ही वह गहराई से आध्यात्मिक संकेतों से भी भरा हुआ है। मोरपंख, जो उनके मुकुट का हिस्सा है, केवल सजावट नहीं बल्कि एक सांकेतिक प्रतीक है - यह हमें प्रकृति से जुड़ाव, विनम्रता और अहंकार के पूर्ण अभाव की ओर संकेत करता है। बांसुरी उनके होठों से लगकर वह दिव्य संगीत रचती है, जो केवल कानों को ही नहीं, आत्मा को भी झंकृत कर देती है। यह बांसुरी प्रेम, भक्ति और आत्मसमर्पण का प्रतीक है - जैसे भक्त, गोपियाँ, संपूर्ण रूप से उस मधुर स्वर के वश में हो जाती हैं। पीतांबर, अर्थात पीले वस्त्र, जीवन की पवित्रता, सत्वगुण और दिव्यता को दर्शाते हैं, जो श्रीकृष्ण के सहज और निष्कलुष स्वभाव से मेल खाता है। उनकी 'त्रिभंग मुद्रा' - जिसमें कमर, गर्दन और पैर तीन स्थानों पर मुड़ी होती है - भारतीय कला की सौंदर्य चेतना का चरम उदाहरण है। यह मुद्रा लय, संतुलन और प्रेम की जीवंत मूर्ति है। बालकृष्ण का रूप नटखटता और निष्कलंक मासूमियत का प्रतीक है, तो वहीं गोपाल रूप करुणा और संरक्षण का। जन्माष्टमी के अवसर पर जब गलियाँ इन सभी रूपों की झांकियों से सजती हैं, तो हर दर्शक इन प्रतीकों को केवल देखता ही नहीं, उन्हें भीतर तक महसूस करता है।

प्राचीन शिल्प और ग्रंथों में श्रीकृष्ण का स्वरूप
श्रीकृष्ण के स्वरूप की कलात्मक अभिव्यक्ति भारतीय कला के प्रत्येक युग में देखी जा सकती है। मथुरा स्कूल की मूर्तियाँ, गया की प्रस्तर प्रतिमाएं और राजस्थान की पारंपरिक चित्रशैली में कृष्ण का हर भाव उकेरा गया है - बाल्यावस्था की चंचलता, रासलीला की भावविभोरता, और कुरुक्षेत्र के रण में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए उनकी गम्भीरता। मथुरा से प्राप्त कृष्ण मूर्तियों में कहीं वे गोवर्धन उठाए हुए दिखते हैं, तो कहीं चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए विष्णुरूप में। राजस्थान की पिछवाई पेंटिंग्स में उनके रंगों, अलंकरणों और रासलीला के भावों का अद्भुत चित्रण हुआ है। शास्त्रों में श्रीकृष्ण को 'श्यामवर्ण' बताया गया है, यह रंग न केवल उनके शारीरिक स्वरूप का, बल्कि उनकी विराटता, अनंतता और रहस्यात्मकता का भी प्रतीक है। भागवत, विष्णु और महाभारत जैसे ग्रंथों में उनका सौम्य, करुणामयी और कभी-कभी उग्र रूप भी चित्रित है। पुराने मंदिरों और धर्मशालाओं की दीवारों पर आज भी इन रूपों की झलक मिलती है, जो दर्शाती है कि हमारी संस्कृति श्रीकृष्ण से गहराई से जुड़ी हुई है।

इतिहास और पुरातत्व में कृष्ण की उपस्थिति के प्रमाण
ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाण यह दर्शाते हैं कि श्रीकृष्ण केवल भक्ति और साहित्य के पात्र नहीं, बल्कि इतिहास में भी उनके अस्तित्व की गूंज रही है। गुजरात के तट पर स्थित द्वारका - जिसे श्रीकृष्ण की राजधानी कहा जाता है - आज भी समुद्र में जलमग्न अवशेषों के रूप में जीवित है। प्रसिद्ध पुरातत्वविद् डॉ. एस.आर. राव (Dr. S.R. Rao) ने 1980 के दशक में यहाँ जो खोज की, उसने यह साबित किया कि हजारों वर्ष पहले यह नगर वास्तु और विज्ञान में समृद्ध था। मध्यप्रदेश के विदिशा में स्थित हेलियोडोरस स्तंभ एक विदेशी यूनानी राजदूत द्वारा भगवान वासुदेव को समर्पित है - यह एक बड़ा प्रमाण है कि श्रीकृष्ण को तत्कालीन विदेशी सभ्यताओं में भी देवता के रूप में सम्मान मिला। इसके अतिरिक्त, इंडो-यूनानी सिक्कों पर ‘वासुदेव’ का अंकन बताता है कि वे केवल भारत तक सीमित नहीं थे। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि सिंधु घाटी की हड़प्पा सभ्यता की कुछ मुहरों पर कृष्ण के समान नाम या प्रतीक पाए गए हैं। इन ऐतिहासिक प्रमाणों को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि लोकपरंपराओं और मंदिर-इतिहासों में श्रीकृष्ण से जुड़े संकेत सदा मिलते रहे हैं।

दुनियाभर में जन्माष्टमी उत्सव की छटा
जन्माष्टमी आज केवल एक धार्मिक तिथि नहीं, बल्कि वैश्विक सांस्कृतिक आंदोलन बन चुका है। भारत से लेकर न्यूजीलैंड (New Zealand), कनाडा (Canada), फिजी (Fiji), सिंगापुर (Singapore), पेरिस, और बांग्लादेश तक - श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव की छटा सीमाओं को पार कर चुकी है। प्रवासी भारतीयों ने जहां-जहां अपने घर बसाए, वहीं कृष्ण के मंदिर और उत्सवों की परंपरा भी ले गए। आज विदेशों में इस्कॉन (ISKCON) जैसे संस्थान जन्माष्टमी पर जिस भव्यता से आयोजन करते हैं, फूलों की झांकियाँ, सांस्कृतिक नाटक, भजन संध्या और कीर्तन, वे भारत की जड़ों से जुड़े लोगों को नई पीढ़ियों तक संस्कृति पहुंचाने का माध्यम बनते हैं। यह गर्व का विषय है कि भारत के शिल्पकारों, कथावाचकों और आयोजकों की पारंपरिक शैली को अब वैश्विक मंच भी अपनाते हैं। जब भारत के लोग विदेशों में श्रीकृष्ण की लीला का मंचन करते हैं, तो वहां न केवल श्रद्धा, बल्कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र और अध्यात्म की गूंज भी सुनाई देती है।
स्वतंत्र सोच, सशक्त करियर: जौनपुर के युवाओं के लिए एमबीए की राह
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
15-08-2025 09:24 AM
Jaunpur District-Hindi

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जौनपुरवासियों, जब भी 15 अगस्त को पूरा देश आज़ादी का जश्न मनाता है, तब हमारे शहर की गलियों में भी वही जोश, वही देशभक्ति और वही आत्मगौरव उमड़ पड़ता है। तिरंगे की शान, बच्चों की प्रस्तुतियाँ, और शहीदों को दी जाने वाली श्रद्धांजलि, इन सबसे जौनपुर का हर कोना देश की गरिमा में डूब जाता है। लेकिन अगर आज़ादी को केवल ऐतिहासिक संदर्भ तक सीमित कर दिया जाए, तो यह उसकी आत्मा के साथ अन्याय होगा। असली आज़ादी तब होती है जब हमारे युवाओं को अपने जीवन और करियर (career) के रास्ते खुद चुनने की स्वतंत्रता मिले - जब कोई युवा केवल एक डिग्री नहीं, बल्कि नेतृत्व, निर्णय क्षमता और नवाचार की ताकत हासिल कर सके। यही भूमिका निभाता है प्रबंध स्नातकोत्तर (एमबीए)।
आज जौनपुर के अनेक होनहार युवा प्रबंध के क्षेत्र में अपने कदम मज़बूती से जमा रहे हैं, चाहे वह किसी सरकारी क्षेत्र का प्रशासनिक प्रबंधन हो, निजी कंपनियों का संचालन, स्टार्टअप्स (startups) की शुरुआत, या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कॉर्पोरेट (corporate) रणनीति बनाना। यदि आपके परिवार में कोई युवा व्यवसाय, वित्त, विपणन या मानव संसाधन जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़ना चाहता है, तो प्रबंध स्नातकोत्तर की पढ़ाई उनके लिए एक शानदार अवसर बन सकती है। इस क्षेत्र में करियर सिर्फ तनख्वाह तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह व्यक्ति को सोचने, निर्णय लेने और नेतृत्व करने की ताकत भी देता है। यदि कोई छात्र आज से ही लक्ष्य तय करके, सही मार्गदर्शन, अध्ययन की योजना और अनुशासन के साथ आगे बढ़े, तो वह निश्चित ही देश के शीर्ष प्रबंध संस्थानों में स्थान पा सकता है।
इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि एमबीए (MBA) क्या है और आज के प्रतिस्पर्धी युग में इसकी क्यों इतनी आवश्यकता है। हम यह भी देखेंगे कि इस कोर्स (course) के अंतर्गत कौन-कौन से प्रमुख विशेषज्ञता क्षेत्र उपलब्ध हैं और वे छात्रों के करियर को किस दिशा में आगे बढ़ाते हैं। साथ ही, एमबीए डिग्री (Degree) के प्रमुख लाभों पर भी चर्चा करेंगे जो एक पेशेवर के रूप में आपके व्यक्तित्व और संभावनाओं को नई ऊँचाइयाँ दे सकते हैं। इसके बाद हम भारत के कुछ प्रतिष्ठित एमबीए संस्थानों की विशेषताओं को समझेंगे और अंत में, इन कॉलेजों की शैक्षणिक एवं भौतिक सुविधाओं पर नज़र डालेंगे जो छात्रों को एक समग्र विकास का अवसर देती हैं।
एमबीए क्या है और क्यों है यह आज की आवश्यकता?
एमबीए (मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन - Master of Business Administration) केवल एक शैक्षणिक डिग्री नहीं है, बल्कि यह सोचने के एक नए तरीके, नेतृत्व कौशल, रणनीतिक दृष्टिकोण और वैश्विक व्यापारिक समझ का समावेश है। यह कार्यक्रम छात्रों को व्यावसायिक जीवन की जटिलताओं को समझने, समस्याओं का समाधान निकालने और बदलते व्यापारिक परिवेश में निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में केवल तकनीकी ज्ञान या अकादमिक योग्यता पर्याप्त नहीं है। कंपनियाँ ऐसे प्रोफेशनल्स (professional) को प्राथमिकता देती हैं जो विचारशील निर्णय ले सकें, टीमों का नेतृत्व कर सकें, और वैश्विक चुनौतियों को अवसरों में बदल सकें। एमबीए छात्रों को उस मानसिकता और आत्मबल से लैस करता है, जो उन्हें एक सक्षम प्रबंधक, एक संवेदनशील नेता और एक दूरदर्शी नवप्रवर्तनकर्ता बनने की दिशा में मार्गदर्शन करता है। यह डिग्री व्यवसाय, वित्त, विपणन, मानव संसाधन, संचालन और रणनीति जैसे क्षेत्रों की गहन समझ प्रदान करती है। परिणामस्वरूप, छात्र एक पारंपरिक कर्मचारी से आगे बढ़कर एक नीति निर्माता, टीम लीडर (team leader) और संगठन में परिवर्तन लाने वाले व्यक्ति के रूप में उभरते हैं।
एमबीए में प्रमुख विशेषज्ञता क्षेत्र
एमबीए की एक विशेषता यह है कि यह छात्रों को उनके रुचि और करियर लक्ष्यों के अनुसार विशेषज्ञता चुनने की सुविधा देता है। इस लचीलापन के कारण छात्र अलग-अलग उद्योगों और व्यवसाय क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त कर सकते हैं।
कुछ प्रमुख विशेषज्ञता क्षेत्रों में शामिल हैं:
- फाइनेंस (वित्त): इस क्षेत्र में छात्र निवेश प्रबंधन, कॉर्पोरेट फाइनेंस (Corporate Financing), बैंकिंग (Banking), जोखिम विश्लेषण (Risk Analysis) और पोर्टफोलियो प्रबंधन (Portfolio Management) जैसी जटिल अवधारणाओं को सीखते हैं।
- मार्केटिंग (Marketing): इसमें ब्रांड प्रबंधन (Brand Management), ग्राहक व्यवहार विश्लेषण, विज्ञापन रणनीति, डिजिटल मार्केटिंग (Digital Marketing) और मार्केट रिसर्च (Market Research) जैसे विषयों को पढ़ाया जाता है।
- ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट (Human Resource Management): संगठनात्मक संस्कृति, प्रतिभा प्रबंधन, कर्मचारी सगाई और टीम लीडरशिप (team leadership) पर केंद्रित है।
- ऑपरेशन्स (Operations) और सप्लाई चेन मैनेजमेंट (Supply Chain Management): उत्पादकता सुधार, गुणवत्ता नियंत्रण, लॉजिस्टिक्स (Logistics) और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला की रणनीतियों पर केंद्रित है।
- बिजनेस एनालिटिक्स (Business Analytics) और डेटा साइंस (Data Science): आंकड़ों के विश्लेषण, भविष्यवाणी मॉडल (Forecasting Model) और निर्णय लेने की प्रक्रिया में डेटा का उपयोग।
- स्ट्रैटेजिक मैनेजमेंट (Strategic Management) और इंटरनेशनल बिजनेस (International Business): वैश्विक सोच, प्रतिस्पर्धात्मक रणनीति, और नवाचार आधारित दीर्घकालिक योजना पर आधारित।
एमबीए करने से मिलने वाले प्रमुख लाभ
एमबीए के लाभ केवल एक अच्छी नौकरी या आकर्षक वेतन तक सीमित नहीं हैं। यह एक व्यक्तित्व-निर्माण की यात्रा है, जो छात्र को न केवल पेशेवर स्तर पर, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी सशक्त बनाती है।
प्रमुख लाभों में शामिल हैं:
- लीडरशिप और प्रबंधन कौशल का विकास
- टीम वर्क और क्रॉस-कल्चरल (cross cultural) संवाद में दक्षता
- नेटवर्किंग (Networking): सहपाठियों, फैकल्टी, एलुमनाई और उद्योग विशेषज्ञों के साथ जीवनभर का पेशेवर संपर्क
- समस्या समाधान और निर्णय लेने की क्षमता
- प्रभावी संचार और प्रेजेंटेशन स्किल्स
भारत के प्रमुख एमबीए कॉलेज: श्रेष्ठ शिक्षा के केंद्र
एमबीए में गुणवत्ता और सफलता के लिए एक विश्वसनीय संस्थान का चुनाव अत्यंत आवश्यक होता है। भारत में कई प्रबंधन संस्थान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हैं और यहाँ से पढ़े हुए छात्र वैश्विक कंपनियों में नेतृत्व पदों पर कार्यरत हैं।
प्रमुख एमबीए संस्थानों में शामिल हैं:
- IIM Ahmedabad: केस स्टडी (case study) आधारित शिक्षण पद्धति और विश्व स्तरीय फैकल्टी (faculty)।
- IIM Bangalore: टेक्नोलॉजी (technology), नीति निर्माण और रणनीतिक सोच में अग्रणी।
- ISB Hyderabad: कार्य अनुभव रखने वाले पेशेवरों के लिए उत्कृष्ट।
- XLRI Jamshedpur: HRM में विशेषज्ञता और मजबूत इंडस्ट्री कनेक्शन (industry connection)।
- FMS Delhi और SP Jain Muएमबीएi: उच्च ROI और महानगरों में स्थित होने के कारण शानदार इंडस्ट्री एक्सपोजर (industry exposure)।
- NMIMS, MDI Gurgaon, Symbiosis Pune, और अन्य निजी संस्थान भी बेहतरीन विकल्प हैं।
इन संस्थानों में प्रवेश के लिए CAT, XAT, NMAT, GMAT जैसी प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित की जाती हैं, जो छात्रों की विश्लेषणात्मक, तार्किक और प्रबंधकीय योग्यता की जांच करती हैं।
एमबीए कॉलेजों की आधुनिक सुविधाएँ और वातावरण
आधुनिक एमबीए (MBA) कॉलेज अब केवल पढ़ाई तक सीमित नहीं रह गए हैं, बल्कि वे छात्रों के समग्र विकास के केंद्र बन चुके हैं। यहाँ न केवल अकादमिक ज्ञान प्रदान किया जाता है, बल्कि मानसिक, सामाजिक और व्यक्तिगत स्तर पर भी छात्रों को निखारने के लिए सुविधाएं और अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं। स्मार्ट क्लासरूम्स (Smart Classroom) और हाई-टेक लर्निंग सिस्टम (High-Tech Learning System) छात्रों को इंटरैक्टिव (interactive) और व्यावहारिक शिक्षा का अनुभव कराते हैं। ई-लाइब्रेरी (e-Library), MOOC प्लेटफॉर्म (platform) और एडवांस्ड लर्निंग टूल्स (advanced learning tools) छात्रों को वैश्विक स्तर की सामग्री तक पहुँच देते हैं। स्टार्टअप इनक्यूबेशन सेंटर (Startup Incubation Center) में उन्हें उद्यमिता की दिशा में अपने विचारों को आकार देने का मंच मिलता है, वहीं कॉर्पोरेट कनेक्ट प्रोग्राम्स (Corporate Connect Programs) जैसे लाइव प्रोजेक्ट्स (live projects), गेस्ट लेक्चर (guest lecture) और इंडस्ट्री विज़िट (industry visit) उन्हें व्यावसायिक दुनिया से सीधे जोड़ते हैं। इसके साथ ही, पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट (personality development) सत्र - जैसे पब्लिक स्पीकिंग (public speaking), टाइम मैनेजमेंट (time management) और इमोशनल इंटेलिजेंस (emotional intelligence) पर केंद्रित ट्रेनिंग - छात्रों को बेहतर पेशेवर और बेहतर इंसान बनने में मदद करते हैं। योग, मेडिटेशन (meditation), खेल-कूद और हेल्थ सेंटर जैसी सुविधाएँ उनके मानसिक संतुलन और शारीरिक फिटनेस (fitness) को बनाए रखने में सहायक होती हैं। कुल मिलाकर, एमबीए कॉलेजों का यह समृद्ध वातावरण छात्रों को केवल डिग्री धारक नहीं, बल्कि एक जिम्मेदार, जागरूक और प्रेरित नागरिक के रूप में तैयार करता है।
संदर्भ-
जौनपुरवासियों, जानिए कोसल साम्राज्य की वो गाथा जो भारत के अतीत से जुड़ी है
ठहरावः 2000 ईसापूर्व से 600 ईसापूर्व तक
Settlements: 2000 BCE to 600 BCE
14-08-2025 09:23 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारी धरती सिर्फ वर्तमान की नहीं, बल्कि अतीत की भी साक्षी रही है। कोसल न केवल भारतीय इतिहास का एक प्रमुख महाजनपद रहा है, बल्कि यह वह सांस्कृतिक धरोहर भी है, जिससे रामायण, बौद्ध ग्रंथों और ऐतिहासिक सिक्कों तक गहराई से जुड़े साक्ष्य मिलते हैं। आज जब हम अपने अतीत को समझने की कोशिश करते हैं, तो कोसल का अध्ययन केवल एक भूगोलिक इकाई नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को भी जोड़ता है। इसलिए, यह आवश्यक है कि हम इस गौरवशाली इतिहास को समझें और जानें कि यह आज के जौनपुर से कैसे जुड़ता है। इस लेख में हम कोसल साम्राज्य की उत्पत्ति और भूगोलिक सीमाओं पर चर्चा करेंगे। इसके बाद कोसल के एक प्रमुख महाजनपद बनने की प्रक्रिया और उसकी राजनीतिक शक्ति का विश्लेषण करेंगे। तीसरे भाग में बौद्ध और जैन परंपराओं में कोसल की भूमिका को समझेंगे। चौथे भाग में रामायण और महाभारत के संदर्भ में कोसल का सांस्कृतिक महत्व देखेंगे। अंत में, कोसल से जुड़े सिक्कों और ऐतिहासिक प्रमाणों के माध्यम से उसकी पहचान को उजागर करेंगे।

कोसल साम्राज्य की उत्पत्ति और भौगोलिक सीमा
कोसल साम्राज्य का उदय उस भूभाग में हुआ जिसे आज हम अवध कहते हैं, और जिसका ऐतिहासिक प्रभाव जौनपुर तक फैला हुआ माना जाता है। कोसल का भौगोलिक विस्तार उत्तर में नेपाल की तराई से लेकर दक्षिण में गोमती नदी के तटवर्ती इलाकों तक था। यह विस्तार केवल एक भूगोलिक विस्तार नहीं, बल्कि आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण था। इस साम्राज्य की राजधानी सावत्त्थी (वर्तमान में श्रावस्ती) थी, जो सरयू नदी के किनारे बसी थी और आज भी एक प्रमुख पुरातात्विक स्थल है। यह शहर न केवल प्रशासनिक केंद्र था, बल्कि बौद्ध धर्म के शुरुआती प्रचार का भी केंद्र रहा। जौनपुरवासियों के लिए यह जानना रोचक होगा कि जिस कोसल में सावत्त्थी जैसी नगरियां थीं, उसी क्षेत्र में हमारी जड़ें भी कहीं न कहीं जुड़ी हैं। इस क्षेत्र की उपजाऊ ज़मीन, व्यापारिक मार्गों के समीपता और धार्मिक केंद्रों की बहुलता ने कोसल को एक उन्नत सभ्यता बनने में सहायता की। इसने न केवल क्षेत्रीय शक्ति के रूप में ख्याति पाई, बल्कि भारत के प्राचीन इतिहास में स्थायी छवि भी बनाई।
कोसल: एक प्रमुख महाजनपद और उसकी राजनीतिक शक्ति
कोसल, सोलह महाजनपदों में से एक था, जो छठी से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्यकाल में राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया था। उस समय मगध, वत्स, अवंति और कोसल, इन चार महाजनपदों को सर्वाधिक शक्तिशाली माना जाता था। कोसल की राजनीतिक शक्ति का प्रमाण इस बात से मिलता है कि इसने मगध जैसे महाशक्ति के साथ कई बार टकराव किया। इन युद्धों ने न केवल दोनों राज्यों की राजनीति को बदला, बल्कि बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को भी प्रभावित किया। नगर, जो कोसल के उत्तर-पश्चिमी छोर पर स्थित रहे होंगे, इन घटनाओं से अछूते नहीं रहे होंगे। कोसल की सीमाओं में आने वाले ऐसे नगरों में राजनीतिक चेतना और सामाजिक संरचना निश्चित ही इस शक्ति संतुलन से प्रभावित रही होगी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कोसल एक ऐसा महाजनपद था, जिसने भारत की प्राचीन राजनीति में स्वतंत्र सत्ता की अवधारणा को स्थापित किया। उसकी स्थिति और शक्ति ने एक प्रकार की संतुलित व्यवस्था निर्मित की, जिसका प्रभाव आज भी ऐतिहासिक ग्रंथों और स्थानीय लोककथाओं में जीवित है।
बौद्ध और जैन परंपराओं में कोसल की भूमिका
कोसल साम्राज्य का धार्मिक इतिहास भी अत्यंत समृद्ध है। यह वही भूमि थी जहाँ शाक्य वंश का उदय हुआ, यानी वह वंश, जिसमें भगवान बुद्ध ने जन्म लिया। कपिलवस्तु, शाक्य वंश की राजधानी थी, जो कोसल साम्राज्य के अधीन था। जैसे-जैसे बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ, कोसल की भूमि उपदेश, संवाद और संघों की गतिविधियों का केंद्र बन गई। सावत्त्थी, कोसल की राजधानी, वह स्थान था जहाँ बुद्ध ने सबसे अधिक उपदेश दिए और जहाँ जेतवन विहार जैसे स्थलों का निर्माण हुआ। सिर्फ बौद्ध धर्म ही नहीं, जैन धर्म में भी कोसल का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। कहा जाता है कि महावीर ने भी कोसल की भूमि पर धर्म प्रचार किया और यहाँ के नागरिकों को सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी।
कोसल और रामायण: धार्मिक और सांस्कृतिक संदर्भ
कोसल का सांस्कृतिक पक्ष सबसे स्पष्ट रूप से रामायण से जुड़ा है। यही वह भूभाग है जहाँ अयोध्या स्थित है, भगवान राम की जन्मभूमि। जौनपुरवासियों के लिए यह गर्व की बात है कि वे उस सांस्कृतिक परंपरा से जुड़े हैं जो भगवान राम और उनकी कथा से निकलती है। राम की माता कौशल्या, दक्षिण कोसल (वर्तमान छत्तीसगढ़) की राजकुमारी थीं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि कोसल एक विस्तृत और बहु-राज्यीय संरचना थी। राम के पुत्र लव और कुश द्वारा कोसल का विभाजन कर दो कोसल बनाए गए, उत्तर कोसल (अयोध्या) और दक्षिण कोसल (श्रृंगवेरपुर से दक्षिण तक)। इतना ही नहीं, महाभारत काल में भी कोसल का उल्लेख मिलता है, जहाँ इसे एक महत्त्वपूर्ण राज्य के रूप में दर्शाया गया है। इस प्रकार, कोसल केवल धार्मिक केंद्र नहीं, बल्कि साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर का भी जीवंत उदाहरण रहा है।
कोसल के सिक्के: ऐतिहासिक साक्ष्य और पहचान
इतिहास को जब हम मूर्त रूप में देखना चाहते हैं, तो सिक्के और शिलालेख सबसे प्रमुख साक्ष्य होते हैं। कोसल साम्राज्य से संबंधित तांबे के सिक्के अयोध्या और आसपास के क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में पाए गए हैं। विशेष रूप से राजा धनदेव द्वारा जारी किए गए सिक्के और उनके शिलालेख, कोसल की प्रशासनिक प्रणाली और मुद्रा व्यवस्था को उजागर करते हैं। इन सिक्कों पर अंकित प्रतीक, भाषा और लेखन शैली से हमें उस काल की संस्कृति, कला और तकनीकी विकास की झलक मिलती है। इसके अलावा, "-मित्र" नामधारी शासकों (जैसे इन्द्रमित्र, सूर्यमित्र) के सिक्कों से यह जानकारी मिलती है कि कोसल में एक संगठित और निरंतर शासन व्यवस्था विद्यमान थी। जौनपुरवासियों के लिए यह गौरव का विषय है कि जिस क्षेत्र में ये सिक्के पाये गए हैं, वह आज भी हमारी सांस्कृतिक स्मृति का हिस्सा है।
संदर्भ-
जौनपुरवासियों, क्या आपने सच्ची ख़ुशी के पीछे छिपे आनंद को कभी महसूस किया है?
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
13-08-2025 09:25 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, क्या आपने कभी किसी नवजात शिशु के चेहरे को ध्यान से देखा है? वह न बोल सकता है, न चल सकता है, न उसके पास कोई संपत्ति होती है, फिर भी उसका चेहरा मुस्कान से खिला होता है। वहाँ न कोई तनाव की लकीर होती है, न किसी उपलब्धि की उम्मीद। तो यह सुख कहां से आता है? यही वह क्षण होता है, जब हमें समझने की ज़रूरत होती है कि शायद ख़ुशी (happiness) और आनंद (bliss) एक जैसे नहीं हैं। इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि सच्चा आनंद क्या है, और कैसे वह हमारे जीवन का केंद्र बन सकता है, चाहे वह वेदों में हो, गीता में हो, या जापानी दर्शन इकिगाई (Ikigai) में।
इस लेख में हम पाँच अहम विषयों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम समझेंगे कि आनंद और ख़ुशी में क्या अंतर है, और यह अंतर हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करता है। फिर, हम देखेंगे कि हिंदू दर्शन के विविध ग्रंथों में आनंद को कैसे परिभाषित किया गया है और उसे प्राप्त करने के कौन-कौन से मार्ग बताए गए हैं। इसके बाद, हम पढ़ेंगे कि जापान का प्राचीन इकिगाई दर्शन क्या है और कैसे यह उद्देश्य और प्रसन्नता को एक साथ जोड़ता है। आगे, हम चर्चा करेंगे कि इकिगाई के दस नियम जीवन में संतुलन, मानसिक स्वास्थ्य और आत्म-संतुष्टि में कैसे सहायक होते हैं। अंत में, हम जानेंगे कि हिंदू ‘पुरुषार्थ’ और जापानी ‘इकिगाई’ में कितनी गहरी सांस्कृतिक समानताएं हैं और यह दोनों जीवन के उद्देश्य को लेकर क्या सिखाते हैं।

आनंद और ख़ुशी में क्या अंतर है, और यह अंतर जीवन में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
ख़ुशी एक प्रकार की प्रतिक्रिया है, जैसे किसी परीक्षा में अच्छे अंक आ जाएँ, या नया मोबाइल (mobile) मिल जाए। यह क्षणिक होती है और प्रायः बाहरी घटनाओं से जुड़ी होती है। वहीं आनंद, आत्मा की एक स्थायी अवस्था है, जो किसी उपलब्धि या वस्तु से नहीं बल्कि भीतर से उत्पन्न होती है। यह वह स्थिति है जब मन पूर्ण रूप से शांत, संतुष्ट और निर्भरता से मुक्त होता है। जब हम छोटे होते हैं, तब हमारे आनंद का स्रोत बहुत सरल होता है, एक तितली को पकड़ना, मिट्टी में खेलना, या बस माँ की गोद में रहना। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, हमारा ध्यान बाहरी उपलब्धियों पर केंद्रित होने लगता है। महंगी चीज़ें, बड़ी नौकरी, सोशल स्टेटस (social status)। धीरे-धीरे हम भूल जाते हैं कि आनंद वह नहीं है जो हमें मिल जाए, बल्कि वह है जो हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है। यही कारण है कि जीवन में भौतिक सफलता के बावजूद भी लोग खुद को भीतर से खाली महसूस करते हैं। इसलिए यह अंतर समझना बहुत ज़रूरी है। आनंद कोई उद्देश्य नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक अवस्था है, जो तब आती है जब हम स्वयं को स्वीकार कर लेते हैं, अतीत का बोझ उतार देते हैं और वर्तमान में जीना सीख लेते हैं।

हिंदू दर्शन में आनंद की परिभाषा और उसे प्राप्त करने के मार्ग
भारतीय दर्शन शास्त्रों में "आनंद" को जीवन का अंतिम और परम लक्ष्य माना गया है। तैत्तिरीय उपनिषद में आनंद वल्ली नामक खंड में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि ब्रह्मानंद, अर्थात् परम आनंद, सभी सांसारिक सुखों और अनुभवों से परे होता है। यह आनंद उस स्थिति में आता है जब जीवात्मा और परमात्मा का मिलन होता है। भगवद गीता के अनुसार, जब कोई व्यक्ति अपने कर्मों को निष्काम भाव से करता है, यानी बिना फल की आशा के, और उन्हें ईश्वर को समर्पित कर देता है, तब वह मोह, माया और दुःख से परे उठकर आत्मिक शांति और शाश्वत आनंद की प्राप्ति करता है। यह प्रक्रिया "योग" के माध्यम से होती है, जिसमें व्यक्ति स्वयं को ईश्वर से जोड़ता है।
स्वामी विवेकानंद मानते थे कि आनंद पाने का मार्ग हर व्यक्ति के लिए भिन्न होता है, किसी के लिए वह भक्ति योग हो सकता है, किसी के लिए कर्म योग या ज्ञान योग। श्री अरबिंदो ने आनंद को मानव की स्वाभाविक अवस्था कहा, पर साथ ही यह भी स्वीकारा कि आधुनिक समाज में मन की आदतों और सामाजिक अपेक्षाओं के कारण हम आनंद से दूर हो जाते हैं। रमण महर्षि ने तो आनंद की खोज को आत्म-खोज से जोड़ा। उन्होंने कहा कि जब व्यक्ति भीतर जाकर यह जानने की कोशिश करता है कि "मैं कौन हूँ?", तब वह स्वयं के सच्चे स्वरूप से मिल पाता है, और वही मिलन आनंद का द्वार खोलता है।
इकिगाई क्या है और यह जीवन में आनंद और उद्देश्य कैसे लाता है?
इकिगाई, जापान का एक प्राचीन जीवनदर्शन है जो बताता है कि जब आप वह करते हैं जो आपको पसंद है, जिसमें आप अच्छे हैं, जिसके लिए आपको पुरस्कार मिलता है, और जिसकी दुनिया को आवश्यकता है, तब आप अपने जीवन के असली उद्देश्य से जुड़ते हैं। यही जीवन जीने का कारण - यानी इकिगाई - है। इकिगाई में चार मुख्य स्तंभ होते हैं:
- तुम्हें क्या पसंद है?
यानी वो गतिविधि जो करने से आपको आनंद आता है — जैसे गाना, चित्र बनाना या पढ़ाना। - तुम किसमें अच्छे हो?
वह क्षेत्र जिसमें आपकी स्वाभाविक योग्यता है — जिसे करने में आप दक्ष हैं। - क्या इसके लिए आपको भुगतान मिल सकता है?
यानी, क्या यह काम आपके जीवनयापन का आधार बन सकता है? - क्या दुनिया को इसकी आवश्यकता है?
यानी, क्या आपका कार्य समाज या समुदाय को कोई योगदान देता है?
जब ये चारों पहलू एक साथ जुड़ते हैं, तो व्यक्ति का जीवन सिर्फ़ अस्तित्व नहीं, बल्कि उद्देश्यपूर्ण बन जाता है। यही कारण है कि इकिगाई को एक दीर्घायु और संतुष्ट जीवन का रहस्य माना गया है। जापान के ओकिनावा जैसे क्षेत्रों में, जहाँ लोग सौ वर्षों तक जीवित रहते हैं, वहाँ इकिगाई की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

इकिगाई के दस नियम और मानसिक संतुलन, प्रेरणा व आत्म-संतुष्टि में उनकी भूमिका
इकिगाई केवल एक अवधारणा नहीं है, बल्कि जीवन जीने की एक सशक्त प्रणाली है, जो दैनिक व्यवहार और सोच के माध्यम से जीवन को अधिक सजीव, शांत और उद्देश्यपूर्ण बनाती है। इसके दस नियम जीवन के हर क्षेत्र को संतुलित करने में मदद करते हैं।
- सक्रिय रहो: उम्र चाहे जो हो, खुद को अर्थपूर्ण कार्यों में व्यस्त रखो।
- धीरे जियो: भागदौड़ से दूर, हर क्षण को जीने का प्रयास करो।
- अधिक मत खाओ: संयमित भोजन शरीर और मन दोनों के लिए लाभदायक है।
- अच्छे दोस्तों से घिरे रहो: गहरे और सकारात्मक रिश्ते, दीर्घायु और मानसिक स्वास्थ्य में सहायक होते हैं।
- स्वस्थ रहो: नियमित व्यायाम और शारीरिक सक्रियता जीवन में ऊर्जा बनाए रखते हैं।
- मुस्कुराते रहो: मुस्कुराहट से न केवल आप, बल्कि आपके आस-पास का माहौल भी बेहतर होता है।
- प्रकृति से जुड़ो: प्रकृति में समय बिताना तनाव को घटाता है और मानसिक स्फूर्ति लाता है।
- कृतज्ञ बनो: जो है, उसके लिए धन्यवाद देना, यह मानसिक संतुलन का पहला कदम है।
- वर्तमान में जियो: न तो अतीत का पछतावा, न भविष्य की चिंता, यही आनंद का मूलमंत्र है।
- अपनी इकिगाई पहचानो: जब आप हर दिन अपने जीवन के उद्देश्य के साथ जीते हैं, तो हर दिन सार्थक हो जाता है।
भारतीय ‘पुरुषार्थ’ और जापानी ‘इकिगाई’ के बीच गहरे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबंध
भारतीय दर्शन में जीवन को संतुलित और सार्थक बनाने के लिए चार पुरुषार्थ - धर्म (कर्तव्य), अर्थ (धन), काम (इच्छाएँ), और मोक्ष (मुक्ति) - का वर्णन किया गया है। ये चारों मानव जीवन के भौतिक, सामाजिक और आत्मिक पहलुओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने का मार्ग दिखाते हैं। दूसरी ओर, जापानी इकिगाई दर्शन भी इसी तरह से जीवन को एक उद्देश्यपूर्ण यात्रा मानता है, जिसमें आत्म-तृप्ति, सामाजिक योगदान, और आंतरिक शांति का संतुलन आवश्यक होता है। इन दोनों जीवनदर्शन की आत्मा एक ही बात पर टिकी है: जीवन केवल जीने के लिए नहीं, बल्कि अर्थ और आनंद के साथ जीने के लिए है। स्पेनिश (Spanish) लेखक हेक्टर गार्सिया (Hector Garcia) और फ्रांसिस मिरालेस (Francis Miralles) ने अपनी पुस्तक चार पुरुषार्थ (The Four Purusharthas) में यह स्वीकार किया है कि यद्यपि भारत और जापान भौगोलिक रूप से दूर हैं, लेकिन उनके दर्शन, जीवन के प्रति दृष्टिकोण में एक-दूसरे के पूरक हैं। भारतीय विचारों ने उन्हें इकिगाई के सिद्धांतों को गहराई से समझने और जीने की प्रेरणा दी। वास्तव में, जब हम इकिगाई और पुरुषार्थ को एक साथ देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि सच्चा जीवन वही है, जिसमें हम स्वयं को भीतर से तृप्त करें और साथ ही समाज के प्रति भी अपना योगदान दें, यही संतुलन हमें एक पूर्ण और आनंदमय जीवन की ओर ले जाता है।
संदर्भ-
जौनपुर में हाथियों की विरासत और संरक्षण: परंपरा, पर्यावरण और सहअस्तित्व की पुकार
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12-08-2025 09:30 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे शहर की भव्यता और ऐतिहासिक पहचान में हाथियों की प्रत्यक्ष भूमिका भले न दिखे, लेकिन उनकी सांस्कृतिक छाया हर ओर फैली है? शाही किलों के दौर में जब राजाओं की सवारी हाथियों पर निकलती थी, तो वह सिर्फ शोभा नहीं, शक्ति और स्थिरता का प्रतीक भी होती थी। हमारे मंदिरों की मूर्तिकला हो या लोकचित्रकला की स्मृतियाँ, गज का स्वरूप सदैव श्रद्धा और गरिमा से जुड़ा रहा है। विश्व हाथी दिवस के इस मौके पर हमें यह समझना होगा कि हाथी केवल वन्यजीव नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर के प्रतीक हैं। जौनपुर जैसे ऐतिहासिक नगर को न सिर्फ अपनी विरासत में इन प्रतीकों को संभालना चाहिए, बल्कि आज के दौर में उनके संरक्षण के लिए भी संवेदनशील बनना चाहिए। यही हमारी तहज़ीब की असली पहचान है।
इस लेख में हम हाथियों से जुड़ी उन चार महत्वपूर्ण धारणाओं की पड़ताल करेंगे, जो न केवल हमारे अतीत से जुड़ी हैं बल्कि आज के संदर्भ में भी गहरा महत्व रखती हैं। सबसे पहले, हम जानेंगे कि प्राचीन युद्धों में हाथियों ने कैसे निर्णायक भूमिका निभाई और सामरिक संतुलन को प्रभावित किया। इसके बाद हम भारतीय कला और संस्कृति में उनकी गूढ़ प्रतीकात्मक उपस्थिति को समझेंगे। तीसरे पक्ष में हम यह जानेंगे कि हाथी केवल सांस्कृतिक ही नहीं, बल्कि पारिस्थितिकीय दृष्टि से भी कितने उपयोगी हैं, विशेषकर वन प्रणाली और जैव विविधता को बनाए रखने में। अंततः हम समकालीन भारत में तेजी से बढ़ते मनुष्य-हाथी संघर्ष की गंभीरता को समझते हुए इसके संभावित समाधान तलाशेंगे।

हाथी: भारतीय युद्धों के रणनीतिक योद्धा
प्राचीन भारत की चतुरंग सेना - जिसमें पैदल, घुड़सवार, रथ और हाथी शामिल थे - में हाथी सबसे प्रतिष्ठित और निर्णायक भूमिका निभाते थे। ये न सिर्फ आकार और ताकत में विशाल थे, बल्कि मानसिक रूप से भी प्रशिक्षित होते थे ताकि युद्ध के तनावपूर्ण माहौल में भी वे आदेशों का पालन कर सकें। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब हाथियों ने दुश्मन की सेनाओं को चीरते हुए जीत की दिशा बदल दी। विशेष रूप से कलिंग युद्ध में अशोक की सेना के हाथियों ने भयानक तबाही मचाई थी, जिसने अंततः सम्राट अशोक के जीवन में अहिंसा की ओर मोड़ लाया। महाभारत में अभिमन्यु और भीम जैसे योद्धाओं ने हाथियों से भिड़कर वीरता दिखाई, वहीं दुर्योधन और कर्ण जैसे योद्धा हाथियों की ताकत का रणनीतिक इस्तेमाल करते थे। मौर्य और गुप्त साम्राज्य के दौरान युद्ध कौशल में हाथियों की संख्या को राजा की शक्ति का पैमाना माना जाता था। ये हाथी विशेष कवच, भाले और ढालों से सजाए जाते थे और उनके माथे पर प्रतीक चिह्न अंकित किए जाते थे।
भारतीय कला और संस्कृति में हाथियों का प्रतीकात्मक महत्व
भारतीय संस्कृति में हाथी केवल एक जानवर नहीं, बल्कि धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक हैं। गणेश जी का हाथी-सिर हमें यह सिखाता है कि शक्ति के साथ विवेक और विनम्रता का संतुलन होना चाहिए। ऐरावत, इंद्र का हाथी, न केवल बादलों और वर्षा का प्रतीक है बल्कि स्वर्ग की राजसी गरिमा का भी प्रतिनिधित्व करता है। पुराणों और लोक कथाओं में हाथी को 'गज' कहा गया है, जो पृथ्वी की स्थिरता और विशालता का प्रतीक है। भारत की पारंपरिक कलाओं में भी हाथी बार-बार उभरता है। गोंड, मधुबनी, कलमकारी और भील चित्रकला में हाथी को शक्ति, उर्वरता, और संरक्षण के रूप में चित्रित किया जाता है। विशेष अवसरों पर बनाये जाने वाले पारंपरिक 'संजा' और 'मांडना' चित्रों में भी हाथी सौभाग्य और राजसी वैभव का संकेत देते हैं।
राजस्थानी मिनिएचर पेंटिंग्स (miniature paintings) में राजाओं को हाथियों पर सवार दिखाया जाता है, जो सम्मान और सामाजिक स्थिति का प्रतीक होता है। दक्षिण भारत के मंदिरों में हाथियों का विशेष महत्व होता है, वहाँ उन्हें देवता का वाहन माना जाता है और पूजन का अभिन्न हिस्सा बनाया जाता है। कांचीपुरम और त्रिची जैसे शहरों में मंदिर हाथी आज भी धार्मिक परंपराओं को निभाते हुए देखे जा सकते हैं। इतना ही नहीं, भारतीय वस्त्रों और आभूषण डिजाइनों में हाथी एक सौंदर्य प्रतीक के रूप में जीवित हैं, जो यह दर्शाते हैं कि यह जीव केवल पुरानी कथाओं का हिस्सा नहीं, बल्कि आज भी हमारी कल्पनाओं और परंपराओं में गहराई से जुड़ा है।

पारिस्थितिकीय संतुलन के संवाहक: हाथियों की पर्यावरणीय भूमिका
हाथी पर्यावरण के निर्माण और पुनर्स्थापन में एक अदृश्य लेकिन अत्यंत आवश्यक भूमिका निभाते हैं। वे बड़े क्षेत्र में चलते हैं और अपने रास्ते में पेड़ों को गिराकर खुले स्थान बनाते हैं, जिससे छोटे पौधों को सूरज की रोशनी और जल तक पहुँच मिलती है। इसी प्रक्रिया से नई जैव विविधता का जन्म होता है। हाथी के मल में असंख्य बीज होते हैं, जिन्हें वे जंगल में दूर-दूर तक फैला देते हैं। इससे पेड़ों की नई पीढ़ी उगती है, जैसे फाइकस (ficus), बाँस और आम जैसे कई पेड़ हाथियों की मदद से बढ़ते हैं। जब हाथी नदी या तालाब की मिट्टी खोदते हैं, तो वे न सिर्फ अपने लिए पानी निकालते हैं, बल्कि उस जल स्रोत को अन्य जानवरों के लिए भी सुलभ बनाते हैं। एक तरह से वे 'प्राकृतिक जल इंजीनियर' की भूमिका निभाते हैं।
लेकिन मानव अतिक्रमण और जंगलों की कटाई से हाथियों का प्राकृतिक आवास सिकुड़ता जा रहा है। इससे वे अक्सर इंसानी बस्तियों की ओर भटक जाते हैं, जिससे मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही हैं। यदि हाथियों की संख्या में तेज गिरावट आती है, तो पूरा पारिस्थितिक चक्र असंतुलित हो सकता है, जिसका असर हम सभी पर पड़ेगा। इसलिए हाथी केवल जीव-जंतुओं के संसार का हिस्सा नहीं, बल्कि प्रकृति के संतुलनकारी स्तंभ हैं। उनका संरक्षण न केवल उनकी प्रजाति की रक्षा है, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक स्थिर और समृद्ध प्राकृतिक भविष्य की गारंटी है।

मनुष्य और हाथियों के बीच बढ़ता संघर्ष और समाधान की राहें
बढ़ती मानव आबादी और जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने हाथियों और इंसानों के बीच संघर्ष को जन्म दिया है। जब हाथियों का प्राकृतिक आवास कम होता है, तो वे भोजन और पानी की तलाश में गांवों और खेतों की ओर बढ़ते हैं, जिससे फसलें नष्ट होती हैं और कभी-कभी जानमाल का नुकसान भी होता है। भारत, बांग्लादेश और थाईलैंड (Thailand) जैसे देशों में यह समस्या लगातार गहरी होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन और मानसून में अनियमितता ने इस संकट को और गंभीर बना दिया है। हालांकि कुछ इलाकों में जैविक अवरोधक जैसे नींबू, मिर्च और अदरक की फसलों के ज़रिए हाथियों को खेतों से दूर रखने में सफलता मिली है। असम और मानस नेशनल पार्क (national park) जैसे क्षेत्रों में बायोफेंसिंग (biofencing) का प्रयोग कर संघर्ष को काफी हद तक कम किया गया है। इन प्रयासों से पता चलता है कि समाधान संभव हैं, बशर्ते हम सहअस्तित्व की भावना से काम लें। हमें ऐसी योजनाओं की ज़रूरत है जो हाथियों के संरक्षण के साथ किसानों की सुरक्षा और आय का भी ध्यान रखें। जागरूकता और स्थानीय भागीदारी ही इस चुनौती का दीर्घकालिक समाधान दे सकती है।
संदर्भ-
सावन में जौनपुर: हरियाली, शिवभक्ति और लोकजीवन की खुशबू से महकता शहर
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
11-08-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

जब जौनपुर की मिट्टी पर सावन की पहली बूँद गिरती है, तो वह केवल धरती की प्यास नहीं बुझाती, वह मनुष्य के भीतर भी एक शांत, भावनात्मक कंपन जगा देती है। यह महीना सिर्फ़ मानसून का मौसम नहीं, बल्कि एक संपूर्ण सांस्कृतिक और आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ है। जौनपुर, जो अपने सूफी परंपरा, मंदिरों और लोक संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है, सावन में जैसे भक्ति और प्रकृति के रंगों से एक साथ रंग उठता है। कहीं महिलाएं पीपल के पेड़ के नीचे झूला डालती हैं, कहीं मंदिरों में शिव की आरती होती है, और कहीं पुराने घाटों पर घंटियों की आवाज़ गूंजती है। श्रावण मास यहां केवल एक धार्मिक काल नहीं, बल्कि स्मृतियों, रिश्तों और आत्मिक चिंतन का महीना बन जाता है, एक ऐसा समय, जब हर दिल शिव के प्रति थोड़ा और नम्र, और जीवन के प्रति थोड़ा और सजग हो जाता है। सावन का महीना न केवल प्रकृति के नवजीवन का संकेत देता है, बल्कि यह भारतीय सांस्कृतिक चेतना में गहराई से रचा-बसा हुआ समय है।
यह वही समय है जब कृषक अपने हल को खेतों में लेकर उतरता है, और उपासक शिव की शरण में अपने अंतर्मन को साधना की ओर मोड़ता है। पौराणिक कथाओं में वर्णित भगवान शिव के त्याग और नीलकंठ स्वरूप से लेकर, सावन सोमवार के व्रत, रुद्राभिषेक और मंत्रोच्चार तक, यह मास हर स्तर पर जीवन को भीतर से शुद्ध करने का अवसर प्रदान करता है। साथ ही, इसका ज्योतिषीय प्रभाव भी मन और आत्मा को ग्रहों की सकारात्मक ऊर्जा से सिंचित करता है। विशेष रूप से रुद्राक्ष की महत्ता इस समय और भी अधिक बढ़ जाती है, जो शिव के करुणा रूप से निकली एक जीवंत स्मृति मानी जाती है। इन सबके मध्य, सावन न केवल धार्मिक या मौसम आधारित उत्सव है, बल्कि वह एक आध्यात्मिक चक्र है, जो व्यक्ति को प्रकृति, देवता और स्वयं से जोड़ने का माध्यम बनता है।
इस लेख में हम सबसे पहले बात करेंगे इसके सांस्कृतिक और ऋतुजनित महत्व की, जहाँ सावन लोकजीवन, गीतों और परंपराओं से जुड़ता है। इसके बाद भगवान शिव से जुड़ी पौराणिक मान्यताओं को समझेंगे, विशेष रूप से नीलकंठ की कथा के संदर्भ में। फिर हम सावन के आध्यात्मिक अभ्यासों जैसे व्रत, जाप और रुद्राभिषेक पर दृष्टि डालेंगे। इसके साथ ही सावन के ज्योतिषीय और ब्रह्मांडीय महत्व को जानेंगे, जो आत्मिक ऊर्जा को जागृत करने वाला माना जाता है। अंत में, रुद्राक्ष के प्रतीकात्मक महत्व और इसकी शिवभक्ति में भूमिका को समझने का प्रयास करेंगे।

सांस्कृतिक और ऋतुजनित महत्व
सावन का महीना भारतीय मानसून की आत्मा है, और इसका स्वागत केवल बादलों से नहीं, भावनाओं और लोक-परंपराओं से होता है। जब पहली बारिश की बूँदें सूखी ज़मीन को छूती हैं, तो खेतों से लेकर बालकनी (balcony) तक हर कोई जैसे प्रकृति के इस आलिंगन में शामिल हो जाता है। मिट्टी की सौंधी खुशबू पुराने मोहल्लों में बसती हुई, बचपन की खट्टी-मीठी यादें जगा देती है। इस समय खेतों में हल चलने लगते हैं, अमरूद और नींबू के पेड़ हरे हो जाते हैं, और गलियों में लड़कियाँ झूले डालकर सावनी गीत गाने लगती हैं - "कजरारे नयनवा सावन भादो..."। यह केवल मौसम नहीं, बल्कि लोक जीवन में उम्मीदों का प्रवेश है। विवाह योग्य कन्याएँ व्रत रखती हैं, स्त्रियाँ सामूहिक पूजन करती हैं, और बुज़ुर्ग अपने अनुभवों को साझा करते हैं। सावन का महीना सामाजिक जीवन को एक नए रंग में रंग देता है, जहाँ परंपरा और आधुनिकता एक-दूसरे को स्पर्श करती हैं।
भगवान शिव से जुड़ी पौराणिक मान्यताएं
शिव को सृष्टि का संहारक कहा जाता है, लेकिन सावन में वे सृष्टि के सबसे बड़े रक्षक के रूप में पूजे जाते हैं। समुद्र मंथन की कथा से जुड़े हुए शिव के नीलकंठ स्वरूप की स्मृति में हर वर्ष श्रावण मास को समर्पित किया जाता है। यह कहानी केवल एक देवता की नहीं, बल्कि उस चेतना की है जो दूसरों की भलाई के लिए स्वयं को तप्त कर देती है। औघड़नाथ जैसे प्राचीन मंदिर इस कथा के श्रद्धामय साक्षी बनते हैं। यहाँ सुबह 4 बजे से ही शिवभक्तों की कतारें लग जाती हैं, कोई दूध लाया है, कोई गंगाजल, तो कोई बेलपत्र। हर भक्त के मन में एक ही भाव -“हे भोलेनाथ, मेरी सुनो”। मंदिर की घंटियों की आवाज़ पूरे क्षेत्र में एक दिव्यता फैलाती है। इस आस्था में एक अनकहा विश्वास है कि सावन के शिव हमारे भीतर के विष को भी शांत कर सकते हैं - चिंता, ईर्ष्या, द्वेष, और भय के विष को। इसलिए सावन में शिव आराधना केवल कर्मकांड नहीं, एक गहन आत्मीय अनुभव बन जाती है।
सावन के आध्यात्मिक अभ्यास और अनुष्ठान
श्रावण मास के सोमवार साधना और आत्मसंयम के प्रतीक बन जाते हैं। इस दिन लोग न केवल व्रत रखते हैं, बल्कि अपने आचरण, विचार और दिनचर्या को भी अधिक सात्विक और शुद्ध बनाते हैं। महिलाएँ "नंदादीप" जलाती हैं, वह दीप जो सावन भर निर्बाध जलता है, जैसे एक प्रतीक हो स्थिर विश्वास का। घरों में गूंजते शिव चालीसा के स्वर, रुद्राभिषेक की विधियाँ, और "ॐ नमः शिवाय" की गूंज - यह सब मिलकर एक ऐसा वातावरण बनाते हैं जहाँ ईश्वर केवल मंदिरों में नहीं, घरों के हर कोने में बसने लगता है। साधक रुद्राक्ष की माला से जाप करते हैं, छात्र परीक्षा में सफलता के लिए शिव का आशीर्वाद माँगते हैं, और गृहिणियाँ अपने परिवार के कल्याण हेतु व्रत रखती हैं। सावन में, ऐसा लगता है जैसे सारी धड़कनें शिवमय हो जाती हैं। यह साधना केवल धार्मिक नहीं, आत्मिक होती है, एक ऐसा आंतरिक प्रयास जो व्यक्ति को स्वयं के केंद्र से जोड़ता है।
ज्योतिषीय और ब्रह्मांडीय महत्व
श्रावण मास को खगोलीय दृष्टि से भी अत्यंत शक्तिशाली समय माना गया है। सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश, चंद्रमा का बल, और बृहस्पति की स्थिति, ये सब मिलकर आत्मिक ऊर्जा के द्वार खोलते हैं। कई विद्वान पंडितों और ज्योतिषाचार्यों का मानना है कि यह काल आत्मचिंतन, ध्यान, और नए अध्यात्मिक आरंभ के लिए श्रेष्ठ है। ग्रहों की स्थिति केवल खगोल में नहीं, हमारे जीवन की दशा और दिशा में भी परिवर्तन लाती है। यही कारण है कि इस समय ध्यान, मंत्र साधना और व्रतों का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। बहुत से युवा इस समय मोबाइल (mobile) और सोशल मीडिया (social media) से दूरी बनाकर आत्मनिरीक्षण की ओर मुड़ते हैं, जबकि वृद्ध जन इसे आत्मा की परिपक्वता के अवसर के रूप में देखते हैं। सावन केवल बाहर की हरियाली नहीं लाता, यह भीतर की सूखी ज़मीन को भी सींचता है। यह वह समय है जब व्यक्ति स्वयं को पुनः परिभाषित कर सकता है, खगोलीय ऊर्जा की मदद से एक नया अध्याय आरंभ कर सकता है।

सावन में रुद्राक्ष का महत्व और प्रतीकात्मकता
रुद्राक्ष, शिव के करुणा भरे अश्रुओं से उत्पन्न माने जाते हैं, और सावन में यह धारणा और भी प्रगाढ़ हो जाती है। इस समय रुद्राक्ष की विशेष चहल-पहल रहती है, कहीं पाँच मुखी, कहीं एक मुखी; कोई जाप के लिए ले रहा है, कोई रक्षा के लिए। रुद्राक्ष केवल एक माला नहीं, एक ऊर्जा केंद्र है, जो पहनने वाले को सुरक्षा, एकाग्रता और आत्मबल प्रदान करता है। योगी इसे ध्यान की शक्ति बढ़ाने के लिए पहनते हैं, विद्यार्थी इसे पढ़ाई में मन लगाने के लिए, और साधक इसे मंत्र जप की पवित्रता बढ़ाने के लिए। लेकिन रुद्राक्ष का प्रभाव तभी होता है जब वह शुद्ध, प्रमाणित और आस्था के साथ धारण किया जाए। कई जानकार दुकानदार और आचार्य इस विषय में मार्गदर्शन भी देते हैं। सावन के इस ऊर्जावान वातावरण में रुद्राक्ष एक सेतु बन जाता है, भक्त और भगवान के बीच, आत्मा और ऊर्जा के बीच। यह केवल एक बीज नहीं, एक चेतना है, जो सच्चे भाव से धारण करने पर जीवन के हर क्षेत्र को सकारात्मकता से भर सकती है।
संदर्भ-
संस्कृति 2063
प्रकृति 782