लखनऊ - नवाबों का शहर












लखनऊ की रचनात्मक परंपरा में नयी जान भरती क्रोशिया सिलाई की खूबसूरत कला
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
06-08-2025 09:32 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियों, नवाबी तहज़ीब, चिकनकारी और कलात्मक शिल्प के लिए मशहूर हमारे शहर में एक ऐसी कला चुपचाप अपनी पहचान बना रही है, जो न सिर्फ़ धागों को गूंथती है, बल्कि रचनात्मकता, धैर्य और आत्मिक संतुलन को भी एक नया रूप देती है, क्रोशिया सिलाई (crochet stitching) कोई साधारण कारीगरी नहीं, बल्कि एक ऐसी साधना है जो हर फंदे के साथ मन को स्थिरता और आत्मा को सुकून देती है, जिसमें हर गाँठ, हर डिज़ाइन (design) एक कहानी कहती है। लखनऊ की पहचान जहां ज़री-ज़रदोज़ी, चिकन और मीनाकारी जैसे पारंपरिक हस्तशिल्पों से रही है, वहीं अब क्रोशिया जैसी विदेशी जड़ों वाली कला भी इस सांस्कृतिक गहने में चमकदार मोती की तरह जुड़ रही है। आज की इस बदलती पीढ़ी में, जहां एक ओर विरासतों को सहेजने की चाह है, वहीं दूसरी ओर नई तकनीकों के प्रति उत्सुकता भी है, ऐसे में क्रोशिया दोनों का सेतु बनता दिख रहा है।
आज हम जानेंगे कि क्रोशिया सिलाई वास्तव में होती क्या है, और किस तरह क्रोकेट हुक (crochet hook) व धागे की मदद से रंग-बिरंगी आकृतियाँ बनाई जाती हैं। फिर, हम इतिहास के झरोखे से देखेंगे कि यह कला यूरोप (Europe) से निकलकर भारत और विशेष रूप से लखनऊ जैसे शहरों तक कैसे पहुँची। इसके बाद, हम समझेंगे कि यह बुनाई कला हमारे धार्मिक व सांस्कृतिक जीवन में किस रूप में रच-बस चुकी है, मंदिरों की पिछवाइयों से लेकर प्रार्थना की टोपियों तक। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि क्रोशिया सिलाई मानसिक स्वास्थ्य के लिए कितनी उपयोगी हो सकती है, और कैसे यह तनाव, चिंता व अवसाद को कम करने में मदद करती है।
क्रोशिया सिलाई क्या है और इसे कैसे किया जाता है?
क्रोशिया, जिसे अंग्रेज़ी में (Crochet) कहा जाता है, सिलाई की एक बेहद विशिष्ट और कलात्मक तकनीक है, जिसमें धागे को एक विशेष हुक - क्रोकेट हुक - की मदद से बुनकर विभिन्न आकृतियाँ बनाई जाती हैं। यह कोई साधारण कढ़ाई नहीं है, इसमें हर गाँठ, हर मोड़ में एक तरह की रचनात्मकता झलकती है। क्रोशिया हुक अक्सर धातु, लकड़ी, बांस, हाथी दांत या प्लास्टिक (plastic) जैसी सामग्रियों से बनाए जाते हैं, और इन्हें विभिन्न आकारों में तैयार किया जाता है ताकि मोटे से पतले धागों तक का काम सुगमता से हो सके।
लखनऊ जैसे पारंपरिक और सौंदर्यप्रिय शहर में महिलाएँ अब इस तकनीक को सिर्फ एक घरेलू काम नहीं, बल्कि एक रचनात्मक हस्तशिल्प के रूप में देखती हैं। क्रोशिया से बनने वाली वस्तुओं में केवल लेस (lace), मेज़पोश, परदे, या तकिए की खोलें ही नहीं, बल्कि नवजात शिशुओं के कपड़े, हाथ से बने खिलौने, जानवरों की आकृतियाँ, हेडबैंड्स, बुने हुए बैग्स, और मोबाइल कवर तक शामिल हैं। आधुनिक लखनऊ की महिलाएँ सोशल मीडिया (social media) और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स (online platforms) का प्रयोग करते हुए अपने डिज़ाइनों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँचा रही हैं। यही कारण है कि यह कला एक बार फिर जीवंत हो उठी है, पुराने और नए का सुंदर संगम बनकर।

क्रोशिया कला का ऐतिहासिक सफर - यूरोप से भारत तक
क्रोशिया सिलाई की जड़ें यूरोप के मध्ययुगीन इतिहास से जुड़ी हैं। 15वीं शताब्दी में फ्रांस (France) और आयरलैंड (Ireland) जैसे देशों में यह कला मुख्यतः महिलाओं द्वारा धार्मिक वस्त्रों, रूमालों, और परदों को सजाने के लिए प्रयोग की जाती थी। धीरे-धीरे रूस, इटली और अन्य यूरोपीय देशों में भी इसका प्रसार हुआ, जहाँ इसने एक सजावटी और सांस्कृतिक हस्तकला का रूप ले लिया। वहाँ से यह सिलाई की तकनीक भारत में यूरोपीय मिशनरियों के माध्यम से पहुँची, जो न केवल अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे, बल्कि स्थानीय महिलाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में भी प्रशिक्षित कर रहे थे। भारत में इसका पहला औपचारिक दस्तावेज़ी उल्लेख 1818 में मिलता है, जब श्रीमती माल्ट (Mrs. Malt) नामक एक यूरोपीय महिला ने केरल के क्विलन (Quilon) और तिरुवनंतपुरम में क्रोशिया कार्यशालाओं की शुरुआत की। वहाँ से यह सिलाई तिनेवेली, मबुराई और आंध्र प्रदेश के पालकोल्लु व नरसापुर तक पहुँची, जहाँ यह एक पूर्ण कुटीर उद्योग बन गई। उत्तर भारत में यह कला दिल्ली, हैदराबाद और विशेष रूप से मिर्ज़ापुर में फैल गई। लखनऊ, जो अपने ज़रदोज़ी, चिकनकारी और पारंपरिक कढ़ाई के लिए प्रसिद्ध है, वहाँ क्रोशिया एक पूरक कला के रूप में उभर रही है, जो अब पारंपरिक और आधुनिक डिज़ाइनों के संलयन का प्रतीक बन चुकी है।

क्रोशिया सिलाई का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व
भारत जैसे विविध धार्मिक और सांस्कृतिक देश में, क्रोशिया सिलाई केवल एक सजावटी हस्तकला नहीं रही, यह हमारी परंपराओं और आस्थाओं से भी जुड़ गई है। उदाहरण के लिए, राजस्थान और गुजरात में वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण के लिए पिछवाइयाँ (दीवार पर टांगे जाने वाले सजावटी वस्त्र) क्रोशिया से बनाते हैं। ये पिछवाइयाँ अक्सर जटिल फूल-पत्तियों, मोर, और गोपियों की आकृतियों से सजी होती हैं और इन्हें महीनों की मेहनत से तैयार किया जाता है। इसी तरह मुस्लिम समुदाय में नमाज़ के दौरान पहनी जाने वाली जालीदार टोपियाँ, जिन्हें बड़े आदर और श्रद्धा के साथ बुना जाता है, भी क्रोशिया सिलाई का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। लखनऊ जैसे शहर में, जहाँ विभिन्न धर्मों का सहअस्तित्व है, वहाँ यह कला दोनों समुदायों में अपनाई जाती है। विवाह के उपहारों में हाथ से बनी थालपोश, दूल्हे की साफे की लेस, दुल्हन की साड़ियों के बॉर्डर (border), या सजावटी पर्दे, ये सभी वस्तुएँ अब फिर से प्रचलन में आ रही हैं। यह दर्शाता है कि क्रोशिया केवल फैशन (fashion) का हिस्सा नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर का भी अभिन्न अंग है।
क्रोशिया और मानसिक स्वास्थ्य का संबंध
आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में मानसिक स्वास्थ्य एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। ऐसे में क्रोशिया जैसी पारंपरिक हस्तकला आश्चर्यजनक रूप से थैरेप्यूटिक (चिकित्सात्मक) (Therapeutic) साबित हो रही है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार जब हम हाथों से कोई दोहराव वाला कार्य करते हैं, जैसे क्रोशिया की गाँठें बनाना, डिज़ाइन पर ध्यान केंद्रित करना, या पैटर्न का अनुसरण करना, तो हमारे मस्तिष्क में सेरोटोनिन (serotonin) नामक हार्मोन (hormone) का स्राव होता है, जो तनाव और चिंता को कम करता है, और हमारे मूड (mood) को बेहतर बनाता है। लखनऊ की कई गृहणियाँ और रिटायर्ड (retired) महिलाएँ अब इसे 'मन की शांति' का साधन मानती हैं। लॉकडाउन (lockdown) के दौरान जब बाहर निकलना संभव नहीं था, तब क्रोशिया एक सुकून देने वाली गतिविधि बनकर उभरी। महिलाएँ अकेले बैठकर घंटों तक रंग-बिरंगे धागों से आकृतियाँ बनाती रहीं, जिससे उनका मन एकाग्र और शांत रहा। यही नहीं, यह कला अब युवाओं में भी लोकप्रिय हो रही है, जो इसे एक क्लिक-एंड-क्रिएट (Click-and-Create) दुनिया के विकल्प के रूप में देख रहे हैं। कुछ ऐसा जिसे आप अपने हाथों से गढ़ते हैं, और जिससे न केवल सुंदर वस्तुएँ बनती हैं, बल्कि मन भी स्थिर होता है।
संदर्भ-
लखनऊवासियो, जानिए जंगली जानवरों की माताओं में छिपे वात्सल्य के अद्भुत रूप
व्यवहारिक
By Behaviour
05-08-2025 09:30 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, हमारे शहर की पहचान केवल नवाबी तहज़ीब, इमामबाड़ों या चिकनकारी तक सीमित नहीं है, हमारी सोच, संवेदनशीलता और परिवारों के प्रति जुड़ाव भी उतना ही गहरा है। इंसानों की तरह ही जानवरों की दुनिया में भी कुछ रिश्ते इतने भावुक और जटिल होते हैं, जो हमें हैरान कर सकते हैं। जंगलों में रहने वाले जानवर, जिनकी ज़िंदगी संघर्षों और ख़तरों से भरी होती है, वे भी अपने बच्चों की परवरिश में असाधारण समर्पण और ममता दिखाते हैं। कुछ जानवर तो अपने बच्चों के लिए खुद को जोखिम में डाल देते हैं, जबकि कुछ उन्हें जीवन जीने के हुनर सिखाने में वर्षों लगा देते हैं। आज का लेख इसी प्रकृति के अनदेखे और अविस्मरणीय पहलू को आपके सामने रखेगा।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि जानवरों में पालन-पोषण की कौन-कौन सी शैलियाँ देखने को मिलती हैं और वे एक-दूसरे से कैसे भिन्न होती हैं। फिर हम एलोपेरेंटिंग (alloparenting) यानी गैर-जैविक माता-पिता द्वारा बच्चों की परवरिश की अवधारणा को समझेंगे और देखेंगे कि यह व्यवहार प्रजातियों के लिए क्यों महत्वपूर्ण है। अंत में, हम उन विशेष जानवरों से परिचित होंगे, जो ममत्व, सुरक्षा और समर्पण के अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं — जैसे ओरंगुटान (Orangutan), मगरमच्छ, चीता और कंगारू (Kangaroo)।
जानवरों में पालन-पोषण की विभिन्न शैलियाँ
प्रकृति के विशाल संसार में जानवरों के पालन-पोषण की शैलियाँ बेहद विविध, जटिल और दिलचस्प होती हैं। कुछ जानवर अपने बच्चों के लिए जीवन भर समर्पित रहते हैं, उन्हें सुरक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, तो कुछ केवल जन्म देने के बाद उन्हें स्वाभाविक विकास की ओर छोड़ देते हैं। यह अंतर न केवल प्रजातियों की ज़रूरतों को दर्शाता है, बल्कि उनकी जीवनशैली, पर्यावरण और सामाजिक संरचना को भी उजागर करता है। उदाहरण के लिए, गिलहरी को एक "कृपालु माता-पिता" (Indulgent Parent) के रूप में देखा जाता है। वह अपने बच्चों के लिए घोंसला बनाती है, भोजन का भंडार करती है और अत्यंत सतर्कता से उनकी देखभाल करती है। इसके विपरीत, खरगोश जैसे जानवर "लेज़े फ़ेयर" (Laissez-faire) शैली अपनाते हैं। वे बच्चों को जन्म देकर उनका ज़्यादा हस्तक्षेप नहीं करते। माँ खरगोश बच्चों को अपने बिल में छोड़कर दिन में केवल एक या दो बार उन्हें दूध पिलाने आती है।
अब बात करते हैं रासू (Weasel) जैसे जानवरों की, जो सही मायनों में "टाइगर पेरेंट्स" (tiger parents) कहलाते हैं। ये जानवर अपने बच्चों को जीवित रहने की जटिल रणनीतियाँ सिखाते हैं, जैसे शिकार करना, छुपना, और खतरे से निपटना। कुछ पक्षी, जैसे किंगफ़िशर (Kingfisher), पालन-पोषण में नर और मादा दोनों की बराबर भागीदारी से उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। अंडों को सेने से लेकर चूज़ों को खाना खिलाने तक, दोनों मिलकर यह ज़िम्मेदारी निभाते हैं। यह "लोकतांत्रिक पालन" की शैली है, जो संतुलन और समन्वय की मिसाल पेश करती है। सबसे अनूठी शैली देखने को मिलती है बिज्जू जैसे जानवरों में, जो विस्तारित, सामाजिक और सहायक पारिवारिक समूहों में रहते हैं। यहाँ हर सदस्य, चाहे वह माँ, पिता, भाई, बहन या चाचा-चाची हों, बच्चों की परवरिश में योगदान देता है। यह सामूहिक प्रयास बच्चों को सामाजिक मूल्यों, सहयोग, और साझा ज़िम्मेदारियों की शिक्षा देता है, जो किसी भी समुदाय के लिए अमूल्य धरोहर है।
एलोपेरेंटिंग क्या है और जानवरों में इसका सामाजिक महत्व
एलोपेरेंटिंग वह प्रक्रिया है जिसमें बच्चों की देखभाल केवल जैविक माँ-बाप ही नहीं, बल्कि समुदाय के अन्य सदस्य भी करते हैं। यह व्यवहार उन जानवरों में पाया जाता है जो सामाजिक संरचना में रहते हैं और सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना रखते हैं। इंसानी समाज में जैसे दादी-दादा, मौसी, मामा या बड़े भाई-बहन बच्चों की परवरिश में हाथ बंटाते हैं, ठीक उसी प्रकार कुछ जानवरों में भी यह व्यवस्था देखने को मिलती है।
प्राइमेट्स (Primates) की कई प्रजातियों में एलोपेरेंटिंग आम है। रीसस मैकाक (rhesus macaque) इसका स्पष्ट उदाहरण है, जहाँ युवा मादाएँ छोटे बच्चों की देखभाल करना सीखती हैं, उन्हें संभालती हैं, खिलाती हैं और सामाजिक व्यवहारों में प्रशिक्षित करती हैं। इससे न केवल बच्चों को सुरक्षा और प्यार मिलता है, बल्कि युवा मादाओं को भविष्य के लिए माँ बनने की तैयारी भी होती है। कुछ पक्षी जैसे फ्लेमिंगो (Flamingo) में एलोपेरेंटिंग का एक अनूठा स्वरूप देखने को मिलता है, जहाँ समलैंगिक जोड़े भी बच्चों की परवरिश करते हैं। वे बच्चों को अपने अंडों की तरह ही पालते हैं, उन्हें भोजन देते हैं और उड़ना सिखाते हैं। यह दिखाता है कि प्रकृति में पालन-पोषण की भावना केवल जैविक संबंधों तक सीमित नहीं है।
लेकिन एलोपेरेंटिंग का सबसे मार्मिक उदाहरण हाथियों में मिलता है। हाथियों के झुंड मातृसत्तात्मक होते हैं, जहाँ कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं। मादा हाथी अपने बच्चों के लिए बहुत स्नेही और सुरक्षात्मक होती है, लेकिन जब किसी कारणवश बच्चा अपनी माँ या झुंड से बिछुड़ जाता है, तो पूरा समूह शोक में डूब जाता है। यह सामाजिक जुड़ाव न केवल संरक्षण का प्रतीक है, बल्कि उस गहरे भावनात्मक रिश्ते को भी दर्शाता है, जो इंसानों के पारिवारिक रिश्तों से कम नहीं है। एलोपेरेंटिंग से प्रजातियों में न केवल सामाजिक स्थायित्व आता है, बल्कि यह बच्चों के लिए विविध दृष्टिकोण और सुरक्षा का एक मज़बूत ढाँचा भी बनाता है। यह व्यवहार यह भी दर्शाता है कि प्रकृति में "पालन" केवल एक जैविक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक सामूहिक सामाजिक दायित्व है।
जंगली जानवरों में मातृत्व और समर्पण के अद्वितीय उदाहरण
माँ का रिश्ता दुनिया में सबसे निष्कलंक और निःस्वार्थ माना जाता है, और यह सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं है। जंगली जानवरों की दुनिया में भी कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ माताएँ अपने बच्चों की सुरक्षा और विकास के लिए अनोखा समर्पण और भावनात्मक गहराई दिखाती हैं।
ओरंगुटान मादा का उदाहरण लें, वह एक समय में केवल एक ही बच्चे को जन्म देती है और उसे लगभग सात से आठ वर्षों तक अपने साथ रखती है। इस दौरान वह न केवल बच्चे को पेड़ों पर चढ़ना, खाना ढूँढना, और ख़तरों से बचना सिखाती है, बल्कि 200 से अधिक पौधों की पहचान कराती है ताकि बच्चा स्वतंत्र रूप से जीवित रह सके। यह निरंतर साथ और प्रशिक्षण किसी शिक्षक और माता दोनों का संगम है।
मगरमच्छ, जिन्हें अक्सर केवल हिंसक शिकारी समझा जाता है, अपनी संतानों के लिए बेहद संवेदनशील होते हैं। मादा मगरमच्छ अपने अंडों को सही तापमान पर रखने के लिए मिट्टी की ऊपरी परत को बार-बार समायोजित करती है, क्योंकि तापमान से ही बच्चों का लिंग निर्धारित होता है। जब अंडे फूटते हैं, तो वह अपने बच्चों को अपने जबड़ों में उठाकर सावधानी से पानी तक ले जाती है — और यह कोई छोटी बात नहीं है, क्योंकि ये वही जबड़े हैं जो किसी शिकार को चीर सकते हैं। दो साल तक वह बच्चों की हर खतरे से रक्षा करती है, चाहे खुद को ही खतरे में क्यों न डालना पड़े।

चीता की मादा अपने बच्चों को हर दिन एक सुरक्षित स्थान पर ले जाती है, ताकि शिकारी उनकी गंध न पकड़ सकें। वह बच्चों को शिकार करना, छिपना और दौड़ना सिखाती है। जब वह खुद शिकार से थककर लौटती है, तो बच्चों से लिपटकर उन्हें स्नेह देती है, जैसे कोई माँ दिन भर की थकान के बाद अपने बच्चों की मुस्कान में राहत ढूँढती हो।

कंगारू की माँ तो मातृत्व की मिसाल बन चुकी है। वह अपने एक साथ तीन बच्चों की देखभाल करती है — एक गर्भ में, एक थैली में और एक थैली से बाहर। उसका शरीर इस तरह अनुकूलन करता है कि वह तीनों को अलग-अलग ज़रूरत के अनुसार दूध दे सके। यह निरंतर देखभाल और पोषण उसकी मातृत्व क्षमता की अद्वितीयता को दर्शाता है।
संदर्भ-
लखनऊ की हरित राह पर छाया पक्षी संकट: पवन ऊर्जा की अनदेखी कीमत
पंछीयाँ
Birds
04-08-2025 09:30 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए जब हम हरित ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ते हैं, तो हमें गर्व होता है कि हम धरती को बचाने के काम में भाग ले रहे हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये पवन टरबाइन (wind turbine), जो हमें स्वच्छ ऊर्जा देते हैं, प्रकृति के एक और नाज़ुक संतुलन - पक्षियों के जीवन - को कैसे प्रभावित कर रहे हैं? लखनऊ और उसके आसपास के प्राकृतिक परिक्षेत्रों में भी पक्षियों की गतिविधियाँ, पर्यावरणीय संतुलन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ऐसे में यह सवाल और भी ज़रूरी हो जाता है कि क्या हम अपनी नीतियों में संतुलन साध पा रहे हैं?
इस लेख में हम छह उपविषयों के माध्यम से यह जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे पवन टर्बाइनों से पक्षियों को खतरा उत्पन्न हो रहा है। हम अमेरिका (America) और भारत के अध्ययन के आंकड़ों को देखेंगे, कच्छ और कर्नाटक में हुए पक्षी मृत्यु आंकड़ों पर चर्चा करेंगे, रैप्टर्स (reports) की संवेदनशीलता को समझेंगे, और अंत में सुझाव देंगे कि कैसे इस संकट को कम किया जा सकता है।

स्वच्छ ऊर्जा के पीछे छिपा पक्षी संकट
पवन ऊर्जा को आमतौर पर स्वच्छ और टिकाऊ ऊर्जा स्रोत के रूप में देखा जाता है, जो पारंपरिक जीवाश्म ईंधन की तुलना में वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gas) उत्सर्जन को कम करता है। यही कारण है कि दुनियाभर की सरकारें इसे प्रोत्साहित कर रही हैं। लेकिन इसका एक अनदेखा पक्ष भी है, इसका प्रतिकूल प्रभाव वन्यजीवों, विशेषकर पक्षियों पर। पवन टरबाइनों के विशाल ब्लेड (blade), जो लगातार घूर्णन करते हैं, पक्षियों के लिए एक अदृश्य खतरा बन जाते हैं। अमेरिका के आंकड़ों के अनुसार, 2012 में लगभग 3.66 लाख पक्षी केवल पवन टरबाइनों से टकराकर मारे गए, और विशेषज्ञ मानते हैं कि 2024 तक यह संख्या 5.38 लाख से अधिक हो सकती है। यह आंकड़ा सिर्फ अमेरिका का है। भारत में भले ही इतने व्यापक आँकड़े न हों, लेकिन अध्ययन यह दर्शाते हैं कि हमारे देश में भी पक्षियों के लिए यह समस्या तेजी से बढ़ रही है। विशेष रूप से प्रवासी पक्षी, जो हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर भारत आते हैं, उन्हें टरबाइनों के बीच सुरक्षित मार्ग नहीं मिल पाता, जिससे उनकी प्राकृतिक उड़ान प्रणाली बाधित होती है और मृत्यु की संभावना बढ़ती है।

अमेरिका और भारत के अध्ययन: आंकड़ों में छिपी चेतावनी
2014 के एक अमेरिकी अध्ययन ने यह गंभीर संकेत दिया था कि लगभग 25.5 मिलियन (million) पक्षी हर वर्ष केवल बिजली लाइनों से टकराकर मारे जाते हैं, जबकि 5.6 मिलियन पक्षी बिजली के झटकों से मारे जाते हैं। जब इस आंकड़े को भारत के संदर्भ में देखा जाए, तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है क्योंकि भारत में कई क्षेत्रों में जैव विविधता अधिक है और निगरानी संसाधन सीमित हैं। गुजरात के कच्छ और कर्नाटक के हरपनहल्ली क्षेत्रों में किए गए दो महत्वपूर्ण अध्ययनों में यह सामने आया कि टरबाइनों से 50 से अधिक पक्षियों की मौतें हुईं, जिनमें डेलमेटियन पेलिकन (Dalmatian Pelican) और चित्रित सारस जैसी संकटग्रस्त प्रजातियाँ शामिल थीं। इन अध्ययनों में बताया गया कि पवन टरबाइनों की ऊँचाई, गति, और दिशा पक्षियों के उड़ान मार्गों के अनुरूप होती है, जिससे टकराव की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। इससे न केवल पक्षियों की जान जाती है, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर इसका गहरा असर पड़ता है।
रैप्टर्स की प्रजातियाँ सबसे अधिक संवेदनशील
रैप्टर्स (Raptors), यानी शिकारी पक्षी जैसे ईगल्स (Eagles), हैरियर्स (Harriers) और केस्ट्रेल्स (Kestrels), आमतौर पर ऊँचाई पर उड़ते हैं और खुले मैदानों या जंगलों में शिकार खोजते हैं। उनकी उड़ान ऊँचाई पवन टरबाइनों के संचालन क्षेत्र से मेल खाती है, जिससे वे सीधे ब्लेड से टकरा जाते हैं। इन पक्षियों का जीवन चक्र धीमा होता है। वे कम संतानें उत्पन्न करते हैं और लंबी उम्र तक जीवित रहते हैं। ऐसे में यदि किसी वर्ष थोड़े से पक्षियों की मृत्यु भी हो जाए, तो अगली पीढ़ी का विकास रुक सकता है और पूरी प्रजाति खतरे में पड़ सकती है। कच्छ जैसे क्षेत्रों में जहां रैप्टर्स बड़ी संख्या में पाए जाते हैं, पवन टरबाइनों की मौजूदगी उनकी प्रजातिगत सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बनती जा रही है। यह खतरा सिर्फ इन पक्षियों तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी चक्र को प्रभावित करता है क्योंकि ये शिकारी पक्षी पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं।

प्रवासी पक्षियों के लिए टरबाइन बनते हैं जानलेवा पड़ाव
प्रवासी पक्षी हर साल हजारों किलोमीटर की उड़ान भरकर भारत के अनुकूल मौसम और समृद्ध पारिस्थितिकी का लाभ उठाने आते हैं। ये पक्षी भारत के आर्द्रभूमि, जलाशयों, घास के मैदानों और नदी किनारों में रुकते हैं और वहां प्रजनन भी करते हैं। लेकिन जब इन स्थलों के बीच पवन टरबाइनों की कतार लग जाती है, तो यह उनके पारंपरिक मार्गों को काट देती है। कच्छ में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 47 पक्षी मौतों में से 43 प्रवासी मौसम के दौरान हुईं, जो यह दर्शाता है कि ये टरबाइन इन प्रजातियों के लिए सीधे तौर पर घातक सिद्ध हो रहे हैं। चित्रित सारस और डेलमेटियन पेलिकन जैसे दुर्लभ प्रवासी पक्षियों की मृत्यु न केवल उनकी प्रजातियों के लिए खतरा है, बल्कि उन स्थानों के लिए भी चिंता का विषय है जहां पक्षी पर्यटन एक स्थानीय अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन चुका है।
निगरानी की कमी और निजी आंकड़ों की गोपनीयता
भारत में पवन ऊर्जा क्षेत्र में निगरानी की प्रक्रिया बेहद कमजोर है। अधिकांश पवन टरबाइन परियोजनाएं निर्माण से पूर्व पक्षियों के उड़ान मार्ग और जैव विविधता की समुचित जाँच नहीं करतीं। जो कंपनियां कुछ अध्ययन करवाती भी हैं, वे अपने डेटा को सार्वजनिक नहीं करतीं, जिससे पारदर्शिता की कमी होती है और वैज्ञानिक समाज के लिए प्रभावी संरक्षण योजना बनाना मुश्किल हो जाता है। जैसे हरपनहल्ली के अध्ययन में हर टरबाइन से औसतन 0.5 मौत दर्ज की गई, वह भी 40 दिनों के अंतराल पर किए गए सीमित निरीक्षणों के आधार पर — इसका मतलब है कि वास्तविक आंकड़ा कई गुना अधिक हो सकता है। अगर कंपनियां अपने अध्ययन रिपोर्टों को साझा करें, तो पक्षियों की मौत की प्रवृत्ति को समझकर प्रभावी उपायों को लागू किया जा सकता है।
समाधान की दिशा: संतुलित विकास ही उपाय
हम पवन ऊर्जा के उपयोग को पूरी तरह नकार नहीं सकते, क्योंकि यह स्वच्छ ऊर्जा के लक्ष्यों को प्राप्त करने में अहम भूमिका निभा रही है। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि इसके पर्यावरणीय प्रभावों को कम किया जाए। सबसे पहला कदम होगा टरबाइन लगाने के स्थानों का वैज्ञानिक मूल्यांकन। जैव विविधता हॉटस्पॉट (hotspot) और प्रवासी पक्षियों के उड़ान पथ से दूर टरबाइन लगाना जरूरी है। इसके अलावा, टरबाइनों की गति को नियंत्रित करने, ब्लेड डिज़ाइन (blade design) में बदलाव लाने, राडार (Radar) आधारित पक्षी ट्रैकिंग तकनीकों (Bird Tracking Techniques) का उपयोग, और प्रवासी मौसम के दौरान कुछ टरबाइनों को अस्थायी रूप से बंद करना जैसे उपाय उठाए जा सकते हैं। साथ ही, सरकार को कंपनियों को उनके पर्यावरणीय डेटा (data) सार्वजनिक करने के लिए बाध्य करना चाहिए, जिससे वैज्ञानिक समुदाय पारिस्थितिक संकटों को समय रहते पहचान सके और उन्हें टाल सके।
संदर्भ-
चारबाग रेलवे स्टेशन: लखनऊ की विरासत, आवाजाही और बदलाव की गाथा
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
03-08-2025 09:34 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, अगर आपने कभी चारबाग रेलवे स्टेशन से यात्रा की है, तो आप जानते होंगे कि यह सिर्फ एक स्टेशन नहीं, बल्कि हमारे शहर की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान का अटूट हिस्सा है। यह वही जगह है जहाँ इतिहास ने करवटें लीं, आधुनिकता ने पंख फैलाए, और आज भी हज़ारों यात्रियों की गंतव्य यात्रा यहीं से शुरू होती है। पर क्या आप जानते हैं कि यह भव्य स्टेशन कभी एक बाग़ हुआ करता था?
पहले वीडियो और नीचे दिए गए वीडियो की मदद से हम लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन को देखेंगे और इसके बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
चारबाग रेलवे स्टेशन का इतिहास 19वीं सदी के मध्य से शुरू होता है। वर्ष 1867 में जब लखनऊ-कानपुर रेल लाइन का उद्घाटन हुआ, तब यह क्षेत्र एक बाग़ हुआ करता था, जहाँ चार अलग-अलग उद्यान थे — जिनसे इसका नाम 'चारबाग' पड़ा। यह स्टेशन "औध एंड रोहिलखंड रेलवे" (Oudh and Rohilkhand Railway - O&RR) का मुख्यालय बना और दिल्ली के बाद उत्तरी भारत का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण रेलवे केंद्र बन गया। वर्तमान में यह 'नॉर्दर्न रेलवे' का हिस्सा है, और उसके समीप स्थित लखनऊ जंक्शन 'नॉर्थ-ईस्टर्न रेलवे' के अंतर्गत आता है। दोनों स्टेशन एक ही परिसर में स्थित होने के बावजूद, उनकी पहचान और टर्मिनल भवन (Terminal Building) अलग हैं। चारबाग स्टेशन की मौजूदा इमारत का निर्माण 1926 में हुआ था, और इसकी वास्तुकला मुग़ल एवं राजपूत शैली की मिश्रित छवि प्रस्तुत करती है। कहा जाता है कि अगर इसे ऊपर से देखा जाए तो यह एक विशाल शतरंज की बिसात जैसा दिखाई देता है — जहाँ गुंबद और स्तंभ मोहरों की तरह प्रतीत होते हैं। इसकी एक और विशेष बात यह है कि ट्रेनों के आने-जाने की आवाज़ स्टेशन परिसर के बाहर नहीं सुनाई देती, जो इसकी बेजोड़ वास्तुकला का प्रमाण है। यह न केवल यात्रियों को भव्यता का अनुभव देता है, बल्कि लखनऊ की विरासत को जीवित भी रखता है।
चारबाग रेलवे स्टेशन को भारत के उन कुछ चुनिंदा स्टेशनों में गिना जाता है जिन्हें 'बालश्रम मुक्त स्टेशन' का दर्जा प्राप्त हुआ है। वर्ष 2002 से 2014 तक चले प्रयासों के परिणामस्वरूप यह सुनिश्चित किया गया कि स्टेशन परिसर में किसी भी विक्रेता या दुकानदार द्वारा बालश्रम का प्रयोग न हो।
नीचे दिए गए वीडियो लिंक (video link) की मदद से हम भारत के 10 सबसे बड़े रेलवे स्टेशनों के बारे में विस्तार से जानेंगे।
लखनऊ की खेती की कहानी: जब हल बना इतिहास और मेंथा बना नया अवसर
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
02-08-2025 09:38 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ न केवल अपनी नवाबी तहज़ीब, अदब और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसकी मिट्टी में किसानों की मेहनत और नवाचार की भी लंबी परंपरा रही है। परंपरागत हल से खेतों की जुताई हो या आज मेंथा (पुदीना) जैसी नकदी फसलों की खेती लखनऊ के ग्रामीण अंचलों ने हमेशा कृषि की दिशा को नया मोड़ देने में भूमिका निभाई है। एक ओर जहां हमारे पूर्वजों ने खेती को अपनी संस्कृति और जीवनशैली में आत्मसात किया, वहीं आज के किसान नई तकनीकों और फसलों के ज़रिए आत्मनिर्भरता की राह पर अग्रसर हैं। यह लेख लखनऊ की कृषि परंपरा को व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखते हुए, हल जैसे ऐतिहासिक औजारों से लेकर मेंथा जैसी आधुनिक फसलों तक की यात्रा को रेखांकित करता है।
आज हम जानेंगे कि भारत में कृषि की ऐतिहासिक जड़ें कैसे सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ी रही हैं और कैसे ‘हल’ जैसे कृषि औजारों ने इस परंपरा को मजबूत किया। हम देखेंगे कि भारतीय कृषि में ‘हल’ का तकनीकी और सामाजिक महत्व क्या रहा है और यह कैसे बदलते समय के साथ विकसित होता गया। इसके बाद हम लखनऊ और आसपास के क्षेत्रों में मेंथा (पुदीना) की खेती का प्रसार और उसमें छिपी आर्थिक संभावनाओं को समझेंगे। अंत में हम जानेंगे कि आधुनिक कृषि तकनीक के बावजूद हमारे पूर्वजों का पारंपरिक ज्ञान आज भी कैसे प्रासंगिक बना हुआ है और किसानों के लिए लाभकारी सिद्ध हो रहा है।

भारत में कृषि की ऐतिहासिक जड़ें
भारत में कृषि का इतिहास अत्यंत प्राचीन है, जिसकी शुरुआत लगभग 9000 ईसा पूर्व मानी जाती है। यह वह दौर था जब मानव समुदाय शिकार और संग्रह से आगे बढ़कर स्थायी बस्तियों की ओर अग्रसर हो रहा था। सबसे पुराने प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता (3300–1300 ईसा पूर्व) से मिलते हैं, जहाँ व्यवस्थित सिंचाई प्रणालियाँ, कृषि उपकरण और अनाज भंडारण के प्रमाण मिलते हैं। यह सभ्यता केवल खेती की शुरुआत नहीं थी, बल्कि सामाजिक संरचना में कृषि की गहरी पैठ को भी दर्शाती है। कृषि को केवल एक जीविकोपार्जन का साधन नहीं, बल्कि धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य से भी महत्वपूर्ण माना गया। खेत की पूजा, बैलों का धार्मिक महत्व और ऋतुओं के आधार पर त्योहार इसी परंपरा के उदाहरण हैं। भारत की दोहरी मानसूनी (monsoon) प्रणाली, दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पूर्व मानसून, ने किसानों को वर्ष में दो बार फसलें उगाने की क्षमता दी। गेंहू, जौ, बाजरा, चना जैसी पारंपरिक फसलें, बाद में चावल, कपास और गन्ने के रूप में विविध हो गईं। समय के साथ भारत का कृषि व्यापार मेसोपोटामिया (Mesopotamia), रोम (Rome) और चीन तक फैला।
भारतीय कृषि में ‘हल’ का ऐतिहासिक और तकनीकी महत्व
कृषि के क्षेत्र में ‘हल’ को एक क्रांतिकारी आविष्कार के रूप में देखा जाता है। इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी आता है, जो इसे एक पवित्र कर्म के रूप में देखता है। हल का प्रारंभिक रूप 'आर्ड' या 'स्क्रैच प्लो' (scratch plow) था, जिसे बैलों की मदद से चलाया जाता था। इसका उपयोग मिट्टी को खुरचने और बीज बोने के लिए भूमि तैयार करने में होता था। मिट्टी की ऊपरी परत को पलटना, पोषक तत्वों को सतह पर लाना, और खरपतवार को दबाना, ये सभी कार्य हल द्वारा किए जाते थे। यह केवल मिट्टी जोतने का यंत्र नहीं, बल्कि किसानों के लिए आत्मनिर्भरता और श्रम की पहचान था। समय के साथ हलों का विकास हुआ और विभिन्न प्रकारों जैसे एकतरफा और दोतरफा हलों का प्रयोग शुरू हुआ। उत्तर वैदिक काल में लोहे के हलों का चलन बढ़ा, जिससे अधिक गहराई तक जुताई संभव हो सकी और फसल उत्पादन में भी भारी वृद्धि हुई। आज हल के आधुनिक संस्करण ट्रैक्टरों के साथ उपयोग होते हैं, परंतु पारंपरिक हल की उपयोगिता अभी भी ग्रामीण भारत में देखने को मिलती है।

मेंथा (पुदीना) की खेती: लखनऊ के किसानों की नई पहचान
जहां एक ओर पारंपरिक कृषि उपकरण भारत की विरासत हैं, वहीं दूसरी ओर आधुनिक कृषि नवाचार किसानों की आज की आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं। ऐसा ही एक उदाहरण है, मेंथा (पुदीना) की खेती। उत्तर प्रदेश में, विशेष रूप से लखनऊ, बाराबंकी, और सीतापुर जैसे क्षेत्रों में, मेंथा की खेती तेजी से लोकप्रिय हो रही है। मेंथा एक औषधीय और सुगंधित पौधा है, जिसकी पत्तियों से भाप के ज़रिए मेंथा तेल निकाला जाता है। फरवरी (February) में बोई जाने वाली यह फसल मई के मध्य तक तैयार हो जाती है। मेंथा की किस्मों में मेन्था आर्वेन्सिस (Mentha arvensis) सबसे ज्यादा प्रचलित है, जो अपने अधिक मेन्थॉल (menthol) प्रतिशत के लिए जानी जाती है। लखनऊ के किसान पारंपरिक फसलों के अलावा अब मेंथा की ओर रुख कर रहे हैं क्योंकि यह अपेक्षाकृत कम समय में अधिक लाभ देता है। सिंचाई की सीमित आवश्यकता और स्थानीय जलवायु के अनुकूल होने के कारण यह फसल छोटे किसानों के लिए भी व्यवहारिक है।
मेंथा तेल: आर्थिक और औद्योगिक संभावनाएं
मेंथा तेल की मांग भारत ही नहीं, वैश्विक बाजार में भी अत्यधिक है। यह तेल मुख्य रूप से मेन्थॉल के लिए जाना जाता है, जिसका उपयोग टूथपेस्ट (toothpaste), च्युइंग गम (chewing gum), मिठाइयों, सौंदर्य प्रसाधनों और दवाओं में किया जाता है। फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री (Pharmaceutical Industry) में यह एक अनिवार्य घटक बन चुका है। भारत, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, मेंथा तेल का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। किसानों ने जब देखा कि पारंपरिक गेंहू-धान की खेती की तुलना में मेंथा से अधिक आय हो सकती है, तब उन्होंने इसे अपनाना शुरू किया। मेंथा उत्पादन में लगी डिस्टिलेशन यूनिट्स (distillation units) स्थानीय स्तर पर रोजगार का भी बड़ा स्रोत बन रही हैं। एक किसान के लिए मेंथा की एक एकड़ फसल से औसतन 40-50 किलो तेल प्राप्त हो सकता है, जो बाज़ार में अच्छी कीमत पर बिकता है। इससे ग्रामीण युवाओं के लिए स्वरोज़गार का एक नया द्वार खुला है।

कृषि तकनीक में बदलाव और पारंपरिक ज्ञान की प्रासंगिकता
हालांकि हम आज अत्याधुनिक कृषि यंत्रों, ट्रैक्टरों, ड्रोन (drone), और ऑटोमेटेड सिंचाई प्रणालियों (Automated irrigation systems) की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन फिर भी यह सच है कि भारत की पारंपरिक कृषि तकनीकों में एक गहरी समझ और स्थायित्व था। ‘हल’ जैसे उपकरणों का डिज़ाइन (design) मौसम, मिट्टी और पौधों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए विकसित किया गया था। आज भी जब खेती में समस्याएं आती हैं, तो किसान परंपरागत विधियों की ओर लौटते हैं, जैसे कि जैविक खाद, फसल चक्र और मौसम-आधारित बुवाई। यह स्पष्ट है कि हमारे पूर्वजों के कृषि ज्ञान में केवल विज्ञान ही नहीं, बल्कि पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी, स्थायित्व और सामुदायिक जुड़ाव भी शामिल था। इसी ज्ञान का उपयोग आज लखनऊ के किसान मेंथा जैसी फसलों के लिए कर रहे हैं — जहाँ आधुनिक मशीनों के साथ परंपरा का भी स्थान है।
संदर्भ-
लखनऊ में गेंदे की ख़ुशबू: संस्कृति, खेती और सशक्तिकरण का संगम
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
01-08-2025 09:40 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, क्या आपने कभी गौर किया है कि जब भी कोई शुभ कार्य होता है, चाहे वह मंदिर में पूजा हो, किसी विवाह का मंडप सजे या फिर त्योहारों की रंग-बिरंगी रौनक हो तो एक खास पीले-नारंगी फूल की उपस्थिति हर बार अनिवार्य नज़र आती है? यही है हमारा अपना ‘गेंदा’ फूल, जो सिर्फ़ शोभा या सुगंध तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारे धार्मिक संस्कारों, सांस्कृतिक परंपराओं और अब तेजी से बदलते ग्रामीण और शहरी जीवन की रीढ़ बन चुका है। लखनऊ जैसे कृषि और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध जिले में, जहाँ किसान और शहरी उद्यमी पारंपरिक सीमाओं से बाहर निकलकर नए विकल्प अपना रहे हैं, वहाँ गेंदा केवल खेतों और मंडपों की सुंदरता नहीं बढ़ा रहा, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी नया रंग दे रहा है। खासकर लखनऊ की ग्रामीण और नगरीय महिलाएं, जो पहले घरेलू कार्यों तक सीमित थीं, अब गेंदा फूल की खेती, माला बनाने और स्थानीय बाज़ार में बिक्री के ज़रिए आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश कर रही हैं। गेंदा अब हमारे लिए सिर्फ एक फूल नहीं, बल्कि अवसर बन चुका है—सजावट का, समर्पण का और सशक्तिकरण का।
इस लेख में हम गेंदा फूल के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व पर चर्चा करेंगे, साथ ही इसके वैज्ञानिक गुणों और वैश्विक आध्यात्मिक संदर्भों को भी समझने का प्रयास करेंगे। हम यह भी जानेंगे कि लखनऊ जैसे क्षेत्रों में इसकी खेती कैसे आर्थिक संभावनाओं का नया रास्ता खोल रही है और किस तरह यह महिलाओं के सशक्तिकरण में सहायक बन रहा है।
धार्मिक और आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में गेंदे का फूल
भारत में फूलों का धार्मिक महत्व केवल सौंदर्य या श्रद्धा तक सीमित नहीं है, यह भावनाओं, आस्था और आत्मिक ऊर्जा का प्रत्यक्ष रूप है। उन फूलों में से सबसे सहज, सुलभ और फिर भी अत्यंत प्रभावशाली है — गेंदा। इसकी पीली और नारंगी आभा में सूर्य जैसी ऊर्जा और जीवन शक्ति का संचार होता है। यह न केवल श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि त्याग, समर्पण और विजय जैसे गहरे आध्यात्मिक मूल्यों को भी अभिव्यक्त करता है।
हिंदू धर्म में देवी लक्ष्मी, विष्णु, और दुर्गा जैसे देवताओं की पूजा में गेंदे की माला चढ़ाना अत्यंत शुभ माना जाता है। यह माला न केवल श्रद्धा का भाव लिए होती है, बल्कि यह उस दिव्य ऊर्जा का माध्यम भी बनती है जिससे मन और वातावरण दोनों शुद्ध हो जाते हैं। गेंदे और आम के पत्तों से बने तोरण को घर के दरवाज़े पर लगाया जाता है। यह एक सुंदरता की रचना नहीं, बल्कि एक शुभ संकेत होता है, जिससे घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश और नकारात्मक शक्तियों का निष्कासन होता है। इसकी गंध को 'शुद्ध', 'पवित्र', और 'ऊर्जावान' माना गया है, जो मन और स्थान दोनों को प्रफुल्लित करती है। ईसाई परंपरा में भी गेंदे की प्रजाति 'कैलेंडुला' (Calendula) का एक विशेष स्थान है। घोषणा का पर्व (Annunciation Day) के अवसर पर इसे मदर मैरी (Mother Mary) की करुणा और पवित्रता का प्रतीक मानकर अर्पित किया जाता है। 'मैरीगोल्ड' (Marigold) नाम अपने आप में इस फूल की आध्यात्मिक गहराई और श्रद्धा से जुड़ी पहचान का परिचायक है।
भारतीय परंपराओं और सांस्कृतिक आयोजनों में गेंदे की भूमिका
भारत में गेंदा सिर्फ एक फूल नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। देश की विविधता भरी परंपराओं में शायद ही कोई धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक आयोजन ऐसा हो जहाँ गेंदा नज़र न आए। चाहे शादी-ब्याह की हल्दी रस्म हो, माँ दुर्गा की आराधना हो या दीपावली की सजावट — गेंदा हर अवसर की आत्मा बन चुका है। घर के प्रवेशद्वार पर गेंदे और आम के पत्तों से बना तोरण लगाया जाता है, जो केवल सजावट नहीं बल्कि अतिथि के लिए सम्मान और स्वागत का प्रतीक होता है। यह हमारी सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा है, जो अनकहे भावों को बिना शब्दों के प्रकट करता है। त्योहारों जैसे नवरात्रि, दीपावली, रामनवमी, गणेश चतुर्थी और रक्षाबंधन के दौरान, मंदिरों से लेकर घरों तक, गेंदे के फूलों से सजी आरतियाँ, पूजा थाल और पंडाल न केवल स्थान की शोभा बढ़ाते हैं, बल्कि वातावरण में एक सकारात्मक ऊर्जा भी भरते हैं। धार्मिक जुलूस, झांकियाँ और उत्सवों की साज-सज्जा में गेंदे की माला से बनी झालरें हर रंग, हर भावना को समर्पित करती हैं — ये हमें जोड़ती हैं, सजग करती हैं और हमारी परंपराओं से जोड़े रखती हैं।

गेंदे के फूल की वैज्ञानिक विशेषताएँ और कीट प्रतिरोधक गुण
गेंदा जितना धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण है, उतना ही वैज्ञानिक दृष्टि से भी उपयोगी है। इसकी तीव्र गंध में प्राकृतिक कीट प्रतिरोधक गुण होते हैं, जो मच्छरों और अन्य हानिकारक कीटों को दूर रखने में मदद करते हैं। इसीलिए यह फूल केवल पूजा या सजावट तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गेंदे को ‘स्थूलपुष्प’ माना जाता है, यानी मोटा, घना, और लंबे समय तक ताज़ा रहने वाला। इसकी बनावट इसे गर्मी, धूप और वर्षा जैसे परिवर्तित मौसमों में भी टिकाऊ बनाती है। यही कारण है कि इसे मंदिरों, घरों, कृषि मेड़ों, और सार्वजनिक स्थलों पर लगाया जाता है। कई किसान अब गेंदे को ‘बॉर्डर क्रॉप’ (Border Crop) की तरह उपयोग कर रहे हैं, यानि मुख्य फसल के चारों ओर इसे लगाकर प्राकृतिक रूप से कीटों को दूर रखते हैं। इससे रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग घटता है और पर्यावरण भी संतुलित रहता है। साथ ही गेंदे में कई औषधीय गुण भी होते हैं। इसकी पंखुड़ियों में एंटीसेप्टिक (antiseptic) और एंटीफंगल (antifungal) तत्व पाए जाते हैं, जो त्वचा रोगों में उपयोगी होते हैं। पारंपरिक चिकित्सा में इसके अर्क का उपयोग घाव भरने, सूजन कम करने और सर्दी-खांसी से राहत के लिए किया जाता है।
गेंदे की वैश्विक आध्यात्मिकता और ऐतिहासिक संदर्भ
गेंदा एक ऐसा फूल है जिसे केवल भारतीय संस्कृति तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह विश्व भर की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में एक विशेष स्थान रखता है। पश्चिमी देशों में कैलेंडुला प्रजाति को ‘मैरीगोल्ड’ कहा जाता है, और इसे मदर मैरी की पवित्रता से जोड़ा जाता है। ईसाई धर्म में विशेष पर्वों पर इस फूल को चर्च में चढ़ाया जाता है और यह आध्यात्मिक समर्पण का प्रतीक माना जाता है। यही नहीं, इतिहास में भी गेंदा श्रद्धांजलि और स्मृति का प्रतीक बन चुका है। 2018 में प्रथम विश्व युद्ध की 100वीं वर्षगांठ के मौके पर, यूरोपीय देशों ने शहीदों की याद में गेंदे के फूलों का उपयोग किया और यह दर्शाता है कि यह फूल केवल धार्मिक नहीं, बल्कि संवेदनशील ऐतिहासिक घटनाओं में भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बन चुका है। आज भी विभिन्न संस्कृतियों में यह फूल प्रेम, बलिदान, पुनर्जन्म और शांति का प्रतीक माना जाता है। इसकी सार्वभौमिकता इसे विश्व के अनेक समुदायों से जोड़ती है।

भारत में गेंदे की खेती की आर्थिक प्रासंगिकता
गेंदे की खेती अब एक परंपरागत फूल से निकलकर आर्थिक रूप से लाभदायक नकदी फसल का रूप ले चुकी है। इसकी दो प्रमुख किस्में — अफ्रीकन गेंदा (African Marigold) (बड़े आकार और चमकदार रंग वाला) और फ्रेंच गेंदा (French Marigold) (छोटा, अधिक सुगंधित और रंगीन) — देशभर में किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही हैं। यह फूल कम समय में तैयार होता है (60–90 दिन), सिंचाई की अधिक आवश्यकता नहीं होती और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बेहतर होती है। इसकी लगातार बनी रहने वाली मांग, विशेषकर त्योहारों, शादियों और धार्मिक आयोजनों के कारण, इसे पूरे वर्ष लाभ देने वाली फसल बना देती है। छोटे और सीमांत किसान भी इसे सीमित भूमि पर उगाकर मंडियों, सड़क किनारे, स्थानीय बाजारों या पूजा सामग्री की दुकानों में बेच सकते हैं। फूलों की मालाएँ, सजावट सामग्री और पुष्प-थालियों की बढ़ती मांग ने इस फूल को आय का स्थायी स्रोत बना दिया है। इसके साथ ही फूलों की खेती से जैव विविधता को बढ़ावा मिलता है, खेतों का सौंदर्य बढ़ता है, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नए अवसर पैदा होते हैं।
महिलाओं की आत्मनिर्भरता और सामाजिक बदलाव में गेंदे की भूमिका
गेंदे की खेती ने ग्रामीण भारत की महिलाओं के जीवन में आशाजनक परिवर्तन लाया है। पहले जहां महिलाएं केवल घरेलू भूमिकाओं तक सीमित थीं, वहीं अब वे खेतों में सक्रिय भागीदारी निभा रही हैं। बीज बोने से लेकर कटाई, मालाएँ बनाने से लेकर मंडी में बेचने तक। स्वयं सहायता समूह बनाकर महिलाएं फूलों से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों को स्वरोज़गार में बदल रही हैं, जैसे पूजा माला बनाना, सजावटी तोरण तैयार करना, सूखे फूलों से घरेलू उत्पाद बनाना आदि। इससे न केवल उनकी आमदनी बढ़ी है, बल्कि उनके आत्मविश्वास और सामाजिक पहचान में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। आज महिलाएं न केवल फूल उगाती हैं, बल्कि वे निर्णय लेने, बाजार से जुड़ने और परिवार की आय का प्रबंधन करने में भी बराबरी की भागीदारी निभा रही हैं। गेंदे का फूल उनके लिए अब सिर्फ़ एक पौधा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता, सम्मान और परिवर्तन का प्रतीक बन गया है — एक ऐसा माध्यम जो उन्हें घर की चौखट से निकालकर समाज की मुख्यधारा में ला रहा है।
संदर्भ-
लखनऊ के रंग: हरे और लाल रंगों में छिपे भाव और पहचान
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
Sight III - Art/ Beauty
31-07-2025 09:27 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ—जहाँ तहज़ीब हवा में घुली होती है, और हर रंग में एक दास्तान छिपी होती है। इस शहर की गलियों में चलते हुए सिर्फ़ रास्ते नहीं बदलते, भावनाएँ भी रंगों के साथ करवट लेती हैं। चौक की पुरानी बाज़ारों में टँगी गोटेदार चूनरें, इत्र की शीशियों पर लगे लाल-हरे रिबन, और इमामबाड़ों की संगमरमरी दीवारों पर पड़ती रोशनी—हर दृश्य जैसे एक ख़ामोश कविता बन जाता है। लखनऊ की संस्कृति में रंग केवल आँखों के लिए नहीं होते, वे आत्मा से संवाद करते हैं। हरा रंग यहाँ सिर्फ़ पेड़ों की हरियाली नहीं, बल्कि अमन, ताजगी और आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक है। वहीं लाल रंग सिर्फ़ शादी-ब्याह की पोशाकों या मंदिरों के ध्वजों तक सीमित नहीं, वह प्रेम, बलिदान और परंपरा की लपट भी है। इन रंगों की उपस्थिति लखनऊ के धार्मिक समारोहों से लेकर घरेलू सजावट और खान-पान तक, हर पहलू में महसूस होती है। यहाँ रंगों का चयन एक सौंदर्य निर्णय से अधिक, एक भावनात्मक निर्णय होता है। हरा रंग दिल को ठंडक देता है, लाल रंग धड़कनें तेज़ करता है और यही लखनऊ की पहचान है, जहाँ रंगों के ज़रिए लोग संवाद करते हैं, अपने इतिहास को जीते हैं, और अपनी भावनाओं को सजाते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले, हम रंगों की सामाजिक और भावनात्मक भूमिका को समझने की कोशिश करेंगे। इसके बाद हम देखेंगे कि हरा रंग पर्यावरण और मानसिक स्वास्थ्य से कैसे जुड़ा है। फिर हम हरे रंग की आध्यात्मिक गहराइयों की पड़ताल करेंगे। चौथे हिस्से में हम लाल रंग के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रभाव पर चर्चा करेंगे। और अंत में, इन दोनों रंगों—लाल और हरे, की प्रतीकात्मक तुलना करेंगे, ताकि लखनऊ के रंगों में छिपी भावनाओं और परंपराओं को बेहतर समझा जा सके।
रंग केवल दृश्य नहीं—भाव और संकेत भी हैं
रंगों की सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका सदियों से मनुष्य की पहचान और जीवनशैली से जुड़ी रही है। लखनऊ में रंगों का विशेष स्थान है। चाहे वह इमामबाड़े में झिलमिलाती रोशनियों के बीच चमकते झंडे हों या रमजान की रातों में लगाए गए रंगीन बल्ब (bulb)। हरा रंग यहाँ इस्लामी परंपराओं से जुड़ा है, तो लाल रंग शादियों, विदाई और प्यार के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। रोज़मर्रा के जीवन में भी रंग हमें भावनात्मक संकेत देते हैं। ट्रैफिक लाइट (Traffic Light) का "हरा" रंग आगे बढ़ने की अनुमति देता है, जिससे हममें सकारात्मक ऊर्जा और उत्साह का संचार होता है, जबकि "लाल" रंग रुकने का संकेत देता है और सतर्कता जगाता है। मानव मस्तिष्क रंगों से बहुत गहराई से प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए, एक हरे बाग में टहलने से तनाव कम हो सकता है, जबकि लाल रंग की दीवारों से उत्तेजना या बेचैनी महसूस हो सकती है। इसीलिए लखनऊ के कई पार्क (park) और बाग हरेपन से भरपूर रखे जाते हैं।

हरा रंग: प्रकृति, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन का प्रतीक
लखनऊ की पहचान उसके हरियाले बागों, बागवानी परंपराओं और प्राकृतिक शांति से भी है। नवाबी दौर से लेकर आज तक हरा रंग इस शहर के जीवन का हिस्सा रहा है। बॉटनिकल गार्डन (Botanical Garden) हो या गोमती नदी किनारे की हरियाली, हरा रंग आँखों को सुकून देता है और मन को शांत करता है। वैज्ञानिक शोधों के अनुसार हरे रंग का प्रभाव तनाव को कम करने, ध्यान केंद्रित करने और रचनात्मकता बढ़ाने में सहायक होता है। यही कारण है कि लखनऊ के अस्पतालों और विद्यालयों में हरे रंग की सजावट को प्राथमिकता दी जाती है। इसके अलावा हरा रंग जीवन और पुनरुत्थान का प्रतीक भी है, जो लखनऊ की पुनरुत्थानशील संस्कृति, तहज़ीब और लोक परंपराओं को भी दर्शाता है। शहर में मनाए जाने वाले पर्वों- जैसे ईद, होली और बासंती त्योहारों में हरा रंग विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यह उमंग, हरियाली और सामूहिकता का संदेश देता है।
हरा रंग: प्रेम, हृदय चक्र और आध्यात्मिक ऊर्जा
चक्रों की भारतीय प्रणाली में हरे रंग का संबंध अनाहत चक्र से है, जो हृदय का प्रतीक है। यह चक्र प्रेम, करुणा और क्षमा से जुड़ा हुआ है। लखनऊ की सूफी परंपराएँ, जैसे अमीनाबाद की दरगाहें या शाह मीना की मज़ार, हरे चादरों और इत्र की खुशबू से सजी होती हैं, जो आध्यात्मिक प्रेम और आंतरिक शांति का प्रतीक मानी जाती हैं। यह रंग व्यक्ति के भीतर संतुलन, संबंधों में सहानुभूति और मानसिक स्वास्थ्य को स्थिर करने का भी कारक है। लखनऊ की परवरिश में बच्चों को उदारता, दया और संयम की शिक्षा दी जाती है, जो अनजाने में हरे रंग की ही मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। चिकित्साशास्त्र में भी हरे रंग को शांति प्रदायक और रक्तचाप को संतुलित करने वाला माना गया है। यही कारण है कि कई मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा केंद्रों में हरे रंग का उपयोग थैरेपी (therapy) के लिए किया जाता है। योग और ध्यान केंद्रों में हरे रंग की उपस्थिति भी यही संदेश देती है।

लाल रंग: शक्ति, प्रेम और सांस्कृतिक परंपराएँ
लाल रंग लखनऊ के सामाजिक जीवन में विशेष स्थान रखता है। शादियों में दुल्हन की चुनरी, सिंदूर और चूड़ियाँ—सभी प्रेम और निष्ठा का प्रतीक होती हैं। नवाबी दौर की पेंटिंग्स (paintings) में भी लाल रंग को रॉयल्टी (royalty), ताक़त और जुनून के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है। इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो लाल रंग का प्रयोग शिकार के झंडों से लेकर दरबारों की सजावट तक में होता रहा है। यह शक्ति और अधिकार का प्रतीक रहा है। लखनऊ के पुराने भवनों में प्रयुक्त लाल बलुआ पत्थर भी उसी गौरव और भव्यता का परिचायक है। विश्व की अधिकांश संस्कृतियों में लाल रंग को जीवन, ऊर्जा और बलिदान से जोड़ा गया है। भारत में यह देवी पूजा, विवाह और युद्ध—सभी मुख्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में उपस्थित रहता है। रामलीला, मुहर्रम, और होली जैसे पर्वों में लाल रंग एक मुख्य भावनात्मक माध्यम बनता है।

लाल और हरे रंग के बीच तुलनात्मक दृष्टिकोण
हरे और लाल—दोनों रंग एक-दूसरे के विपरीत प्रतीत होते हैं, परंतु उनके भावनात्मक अर्थ परस्पर जुड़े हुए हैं। हरा रंग जहाँ शांति, संतुलन और करुणा का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं लाल रंग प्रेम, ऊर्जा और साहस का प्रतीक है। लखनऊ की नाट्य परंपराओं, पेंटिंग्स और शायरी में इन दोनों रंगों की यह द्वंद्वात्मकता बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त होती है। इन दोनों रंगों की प्रतीकात्मकता बाज़ार में भी देखी जाती है। उदाहरण के लिए, हरे लेबल (label) वाली खाद्य सामग्री स्वास्थ्यवर्धक मानी जाती है, जबकि लाल लेबल से उत्पाद तुरंत ध्यान खींचते हैं। यही रणनीति लखनऊ के पारंपरिक उत्पादों जैसे अत्तर की शीशियाँ या चिकनकारी के कपड़े के डिज़ाइन (design) में भी अपनाई जाती है। इस तुलना से यह स्पष्ट होता है कि रंग केवल सजावटी तत्त्व नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं और सामाजिक संवाद के माध्यम हैं, जो सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर की आत्मा से जुड़े हुए हैं।
संदर्भ-
शहर की रौशनी के पीछे छिपी भूख: लखनऊ और भुखमरी पर एक नज़र
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
30-07-2025 09:34 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, नवाबी तहज़ीब और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए प्रसिद्ध हमारा शहर, अब डिजिटल (digital) और आर्थिक प्रगति की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि चमचमाते बाज़ारों, कैफ़े (café) और मॉल्स (malls) के इस शहर में भी ऐसे कोने मौजूद हैं, जहाँ हर रात कुछ लोग भूखे पेट सो जाते हैं? भुखमरी की समस्या सिर्फ़ दूरदराज़ के इलाक़ों तक सीमित नहीं है — यह एक ऐसी सच्चाई है जो लखनऊ जैसे विकसित होते शहरों में भी मौजूद है, बस हमारे नज़रअंदाज़ कर देने के कारण यह उतनी स्पष्ट नहीं दिखती। आज हम इस लेख में विस्तार से समझेंगे कि भारत में भुखमरी की स्थिति कितनी गंभीर है और क्यों हम सभी को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। हम जानेंगे कि देश में खाद्य सुरक्षा के लिए कृषि क्षेत्र की क्या भूमिका है, भुखमरी के मुख्य कारण कौन-कौन से हैं, अल्पपोषण की स्थिति क्या है, और अंत में, सरकार द्वारा इस दिशा में किए गए प्रयास कौन से हैं।
भारत में भुखमरी की वर्तमान स्थिति और वैश्विक भूख सूचकांक में स्थान
भारत, जो एक उभरती हुई वैश्विक आर्थिक शक्ति है, वहाँ भुखमरी जैसी समस्या का अस्तित्व होना अपने आप में एक विडंबना है। 2024 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स (Global Hunger Index) में भारत 127 देशों में 105वें स्थान पर है। यह सिर्फ़ एक आँकड़ा नहीं, बल्कि उस असमानता का परिचायक है जो हमारे समाज में गहराई से जमी हुई है। देश की विशाल जनसंख्या के चलते खाद्यान्न की मांग अत्यधिक है, लेकिन भोजन की उपलब्धता और पहुँच समान रूप से नहीं हो पा रही है। अनुमान है कि भारत की 74.1% आबादी ऐसा भोजन नहीं कर पा रही है जो पोषण के मानकों पर खरा उतरता हो। इसका सीधा असर सबसे पहले उन वर्गों पर पड़ता है जो हाशिए पर हैं — जैसे गरीब मज़दूर, आदिवासी समुदाय, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग और शहरों के छिपे हुए ग़रीब तबके। शहर जो बाहर से समृद्ध और व्यवस्थित दिखते हैं, वहाँ भी कई इलाक़े ऐसे हैं जहाँ भूख रोज़मर्रा की सच्चाई है। रेलवे ट्रैक (railway track) के किनारे बसे अनौपचारिक घरों, शहरी झुग्गियों और बेघर बच्चों की स्थिति भूख और कुपोषण के शिकार भारत की सच्ची तस्वीर सामने लाती है। इस स्थिति को सुधारने के लिए नीतियाँ जितनी ज़रूरी हैं, उतनी ही ज़रूरी है ज़मीन पर उनकी निष्पक्ष पहुँच।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और कृषि क्षेत्र की भूमिका
भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में खाद्य सुरक्षा का सबसे गहरा संबंध कृषि क्षेत्र की स्थिति और उत्पादकता से है। कृषि न केवल रोज़गार देती है, बल्कि यह देश की खाद्य आपूर्ति की रीढ़ है। लेकिन आज यह क्षेत्र कई तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है — जैसे उर्वरता की कमी, मानसून (monsoon) पर निर्भरता, सीमित सिंचाई संसाधन और किसान आय में अस्थिरता। खाद्य सुरक्षा (Food Security) का अर्थ है कि हर व्यक्ति को हर समय पर्याप्त, सुरक्षित और पोषणयुक्त भोजन मिले। लखनऊ और आस-पास के जिलों में कृषि भूमि के शहरीकरण, बिचौलियों के हस्तक्षेप और उपज का उचित मूल्य न मिलने के कारण कई छोटे किसान खेती छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं। इसका सीधा असर खाद्य आपूर्ति श्रृंखला पर पड़ता है। अगर कृषि को तकनीक, ऋण और बाज़ार तक सीधी पहुँच से जोड़ा जाए तो उत्पादन तो बढ़ेगा ही, साथ ही यह सुनिश्चित होगा कि ज़रूरतमंदों तक खाद्य वस्तुएँ समय पर और उचित मूल्य पर पहुँचें। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम इसी दिशा में एक बड़ा क़दम है, लेकिन इसके कार्यान्वयन की निगरानी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। सरकार, किसान और उपभोक्ता — तीनों की एक साझी ज़िम्मेदारी है इस चक्र को सशक्त बनाने की।
भुखमरी और कुपोषण को बढ़ाने वाले प्रमुख कारण
भुखमरी की समस्या केवल खाद्यान्न की कमी से नहीं, बल्कि उससे जुड़ी हुई संरचनात्मक कमजोरियों से भी पैदा होती है। सबसे पहली चुनौती है — कृषि उत्पादन का असंतुलन। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते बार-बार बेमौसम बारिश, सूखा या अत्यधिक तापमान जैसी स्थितियाँ किसानों की फसलों को सीधे तौर पर नुकसान पहुँचा रही हैं। इससे देश के खाद्य भंडार पर भी असर पड़ता है।
दूसरी ओर, भंडारण और वितरण प्रणाली का अभाव भी एक गंभीर समस्या है। अनुमान है कि हर साल लाखों टन (ton) अनाज गोदामों में खराब हो जाता है या माफ़ियाओं के नियंत्रण में चला जाता है। वहीं दूसरी ओर, गरीबों को आवश्यक मात्रा में राशन (ration) तक नहीं मिल पाता। यह एक विडंबना है कि जहाँ एक ओर अनाज बर्बाद हो रहा है, वहीं दूसरी ओर करोड़ों लोग भूख से जूझ रहे हैं। इसके अलावा, असंगठित रोज़गार, महँगाई, शिक्षा की कमी और सरकारी योजनाओं की जानकारी के अभाव से भी खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है। हमें समस्या की जड़ तक जाकर इसके हल खोजने होंगे।

अल्पपोषण और किफ़ायती पोषण की चुनौतियाँ
भारत में भुखमरी का एक बड़ा चेहरा है — अल्पपोषण (Malnutrition)। इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति भूखा है, बल्कि यह कि उसका भोजन पोषक तत्वों से रहित है। आज देश में लाखों लोग ऐसे हैं जो सिर्फ़ पेट भरने लायक भोजन कर पा रहे हैं, लेकिन वह शरीर के विकास और स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त नहीं है। एक रिपोर्ट (report) के अनुसार, भारत की 16.6% आबादी कुपोषण का शिकार है और 2030 तक 600 मिलियन (million) लोगों के भूखे रहने की संभावना जताई गई है। ये आंकड़े डराने वाले इसलिए भी हैं क्योंकि इनमें सबसे अधिक संख्या बच्चों और महिलाओं की है। गर्भवती महिलाओं को यदि पर्याप्त पोषण न मिले तो उनके बच्चों का विकास भी प्रभावित होता है। लखनऊ में बाल विकास योजनाएँ चल रही हैं, लेकिन इनमें वास्तविक सफलता तब ही मुमकिन है जब इन योजनाओं की पहुँच ज़रूरतमंद वर्ग तक नियमित हो और पोषण स्तर का मूल्यांकन समय-समय पर हो। किफ़ायती और पौष्टिक भोजन की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर सामुदायिक किचन, पोषण आहार जागरूकता अभियान और स्कूल स्तर पर भोजन की गुणवत्ता पर निगरानी अनिवार्य है।

भारत सरकार की प्रमुख योजनाएँ और प्रयास
भारत सरकार ने भुखमरी से लड़ने के लिए कई योजनाएँ बनाई हैं, जो अगर सही ढंग से लागू हों तो यह समस्या काफ़ी हद तक नियंत्रित की जा सकती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) और लक्षित PDS के ज़रिए गरीबों को सस्ता राशन उपलब्ध कराया जाता है। लेकिन कई बार राशन दुकानों में भ्रष्टाचार, कालाबाज़ारी और वितरण में देरी जैसी समस्याएँ सामने आती हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA 2013) ने खाद्य अधिकार को एक कानूनी रूप दिया है, जिससे लगभग 80 करोड़ लोगों को सब्सिडी (subsidy) वाला अनाज मिलता है। मिड-डे मील (Mid-day Meal) योजना, स्कूली बच्चों (school children) को न केवल भोजन देती है, बल्कि उन्हें स्कूल में बनाए रखने का भी एक ज़रिया बनती है।
लखनऊ में चल रही आँगनबाड़ी सेवाएँ, पोषण अभियान (Poshan Abhiyan) और मनरेगा (MGNREGA) जैसी योजनाओं को और पारदर्शी और ज़मीनी स्तर पर प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। इसके अलावा, अंत्योदय अन्न योजना जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सरकार सबसे गरीब परिवारों को भी समर्थन दे रही है। इन सभी योजनाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि शासन व्यवस्था में कितनी पारदर्शिता और जवाबदेही है, और आम लोग कितने जागरूक होकर अपने अधिकारों की माँग करते हैं।
संदर्भ-
पेंसिल से ग्रेफीन तक: लखनऊ के बचपन की पहचान ग्रेफाइट का भविष्य की ओर सफर
खदान
Mines
29-07-2025 09:36 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियों, क्या आपने कभी बचपन की उस पहली पेंसिल को याद किया है। क्या आपको याद है वो बचपन की पहली पेंसिल, जिसे पकड़ते ही आप दुनिया को समझने और उसे अपने शब्दों में ढालने लगे थे? अमीनाबाद, निशातगंज या रकाबगंज की किसी पुरानी स्टेशनरी की दुकान से बड़ी शिद्दत से चुनी गई वो मामूली-सी पेंसिल, जिसकी नुकीली सीसे ने आपके ख्वाबों को आकार दिया। वो पेंसिल सिर्फ एक चीज़ नहीं थी — वो एक शुरुआत थी। वो पहला औज़ार था, जिससे आपने अपने अंदर के विचारों को बाहर लाना सीखा। हममें से कई लोग उसे 'सीसा' कहते रहे, लेकिन असल में उसमें भरा होता था ग्रेफाइट — एक ऐसा खनिज, जो उस समय तो सिर्फ लिखने का ज़रिया लगता था, लेकिन आज की दुनिया में टेक्नोलॉजी का एक आधार बन चुका है। ग्रेफाइट का सफर एक पेंसिल से शुरू होकर अब स्पेस रॉकेट्स, इलेक्ट्रिक कारों की बैटरियों, सोलर पैनलों और हाई-टेक इंडस्ट्रीज़ तक पहुँच चुका है। सोचिए, जो चीज़ कभी आपकी उंगलियों के बीच खेलती थी, वही अब दुनिया के भविष्य को आकार दे रही है।
इस लेख में हम जानेंगे कि ग्रेफाइट क्या है और इसका विज्ञान में क्या महत्व है। हम चर्चा करेंगे कि कैसे यही ग्रेफाइट पेंसिल की नोक से हमारी यादों और रचनात्मकता का हिस्सा बना। फिर हम देखेंगे कि यह कैसे उद्योग, ऊर्जा और परमाणु रिएक्टरों में काम आता है। हम ग्रेफीन जैसे आधुनिक अविष्कारों की भूमिका पर भी नज़र डालेंगे। अंत में भारत में ग्रेफाइट के खनन और वैश्विक आपूर्ति में उसकी स्थिति को समझेंगे।

ग्रेफाइट का परिचय और पेंसिल से जुड़ी भावनात्मक भूमिका
ग्रेफाइट, कार्बन का एक क्रिस्टलीय और रासायनिक रूप से अत्यंत स्थिर रूप है, जिसकी विशेषता इसकी हेक्सागोनल संरचना होती है — एक ऐसी बनावट जो इसे न केवल मजबूत बनाती है, बल्कि इसे विद्युत और ऊष्मा का उत्कृष्ट संवाहक भी बनाती है। हालांकि इसकी वैज्ञानिक खूबियाँ प्रभावशाली हैं, परंतु आम आदमी के लिए ग्रेफाइट सबसे पहले उस पेंसिल में बसता है, जिससे हमने अक्षर जोड़ने और शब्दों की दुनिया में कदम रखा। लखनऊ के किसी मोहल्ले के सरकारी स्कूल में, जब कोई बच्चा पहली बार "अ आ इ ई" लिखता है, तो उसकी उंगलियों में थमी वह पेंसिल सिर्फ एक उपकरण नहीं होती — वह एक शुरुआत होती है, एक भरोसेमंद साथी, जो गिरने पर टूटता नहीं, बल्कि फिर से तेज किया जा सकता है। यही भावनात्मक जुड़ाव ग्रेफाइट को केवल एक खनिज नहीं, बल्कि हमारी स्मृतियों का हिस्सा बनाता है। यह वही साधारण-सा दिखने वाला तत्व है, जो न सिर्फ हमारी शिक्षा की नींव रखता है, बल्कि आज विज्ञान, ऊर्जा और तकनीक की ऊँचाइयों तक जा पहुँचा है।
इतिहास के आईने में ग्रेफाइट: नवपाषाण युग से आधुनिक उद्योगों तक
ग्रेफाइट का इतिहास मानव सभ्यता जितना ही पुराना है। चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की मारिआ संस्कृति ने मिट्टी के बर्तनों को सजाने के लिए पहली बार इसका उपयोग किया था। यह खनिज केवल लेखन या पेंटिंग का माध्यम नहीं रहा, बल्कि इंग्लैंड के बोरोडेल क्षेत्र में 16वीं सदी में मिली ग्रेफाइट की विशाल खान ने इसे औद्योगिक महत्ता दी। यहां इसे पहले चरवाहों ने भेड़ों को चिह्नित करने में इस्तेमाल किया और बाद में तोपों के साँचे बनाने में भी। एलिज़ाबेथ युग में यह युद्ध सामग्री के निर्माण में काम आया। 19वीं सदी तक आते-आते ग्रेफाइट ने औद्योगिक उत्पादों में जैसे स्टोव पॉलिश, पेंट, रिफ्रैक्ट्री सामग्री और शैक्षिक उपकरणों में एक अहम स्थान बना लिया। लखनऊ जैसे शिक्षित और सांस्कृतिक नगरी में ग्रेफाइट का प्रवेश पेंसिलों के रूप में हुआ, जो शिक्षा की नई लहर लेकर आई। यह खनिज धीरे-धीरे एक वैश्विक औद्योगिक आधार बनता गया, लेकिन उसकी जड़ें अब भी उस मिट्टी से जुड़ी हैं जिसमें बच्चों की पहली पेंसिल बनी थी।
ग्रेफाइट के प्रमुख उपयोग: लेखन सामग्री से लेकर परमाणु रिएक्टर तक
ग्रेफाइट जितना सरल दिखता है, उसकी उपयोगिता उतनी ही गहन और विविध है। पेंसिल में कोर के रूप में इसका सबसे आम उपयोग हमें ज्ञात है, परंतु यही तत्व आज भारी मशीनरी और हाई-टेक इंडस्ट्री में अनिवार्य बन चुका है। इसका प्रयोग ग्रीस और स्नेहक के रूप में घर्षण को कम करने के लिए किया जाता है, जिससे वाहन और मशीनें अधिक कुशलतापूर्वक काम कर सकें। पेंट इंडस्ट्री में, दीवारों को सुरक्षित रखने वाले कोटिंग्स में ग्रेफाइट का मिश्रण होता है। रिफ्रैक्ट्री यानी उच्च तापमान सहन करने वाले पदार्थों में भी ग्रेफाइट का प्रयोग स्टील, कांच और फाउंड्री उद्योग में किया जाता है। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि ग्रेफाइट न्यूट्रॉन अवशोषण की अपनी क्षमता के कारण परमाणु रिएक्टरों में भी उपयोग किया जाता है, जहां यह क्रियाओं को स्थिर बनाए रखने में मदद करता है। इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में, यह बैटरियों, इलेक्ट्रोड्स और ब्रश जैसे अवयवों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लिथियम आयन बैटरियों में इसकी मात्रा लिथियम से भी कहीं अधिक होती है — जो यह दर्शाता है कि ग्रेफाइट अब ऊर्जा नवाचार की भी रीढ़ बन चुका है।

ग्रेफाइट आधारित ग्रेफीन: भविष्य की ऊर्जा और तकनीकी क्रांति का आधार
ग्रेफीन को वैज्ञानिक जगत में ‘सुपर मिनरल’ का दर्जा यूं ही नहीं मिला। यह ग्रेफाइट की मात्र एक परमाणु मोटी परत है, लेकिन इसकी शक्ति, लचीलापन और चालकता इतनी अधिक है कि यह ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स, निर्माण और संचार जैसे क्षेत्रों में क्रांति ला सकता है। मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा खोजे गए ग्रेफीन ने वैश्विक तकनीकी कंपनियों का ध्यान खींचा है। टेस्ला, सैमसंग जैसी अग्रणी कंपनियाँ ग्रेफीन आधारित बैटरियों पर काम कर रही हैं, जो ना केवल अधिक ऊर्जा स्टोर कर सकती हैं, बल्कि तेजी से चार्ज भी होती हैं। भारत में टाटा स्टील ने ग्रेफीन अनुसंधान की दिशा में अग्रसर होते हुए डिजिटल यूनिवर्सिटी केरल के साथ साझेदारी की है — एक ऐसा कदम जो भारत को इस क्षेत्र में वैश्विक नेतृत्व दिला सकता है। लखनऊ जैसे शहर में, जहाँ नवाचार और शिक्षा की परंपरा रही है, युवाओं और शोधकर्ताओं के लिए ग्रेफीन एक नई दिशा हो सकती है — एक ऐसा विषय जिसमें विज्ञान, ऊर्जा और आर्थिक विकास, तीनों की संभावनाएँ समाहित हैं।
भारत में ग्रेफाइट का खनन और उत्पादन परिदृश्य
भारत, ग्रेफाइट खनन में धीरे-धीरे एक सशक्त भूमिका निभा रहा है। झारखंड, ओडिशा और तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसके समृद्ध भंडार पाए जाते हैं। हालांकि वैश्विक उत्पादन में चीन अब तक शीर्ष पर रहा है, परंतु हाल के वर्षों में प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरणीय नियमों के चलते वहां की आपूर्ति में गिरावट आई है — जिससे भारत जैसे देशों के लिए एक नया अवसर खुला है। ब्राजील और मेडागास्कर भी ग्रेफाइट के बड़े उत्पादक हैं, परंतु भारत की भौगोलिक विविधता और खनिज संपन्नता इसे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में नई जगह दिला सकती है। सरकार और निजी कंपनियाँ यदि शोध और विनिर्माण में सही निवेश करें, तो यह क्षेत्र न केवल आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देगा, बल्कि उच्च गुणवत्ता वाले रोजगार भी उत्पन्न करेगा।
संदर्भ-
पोस्टकार्ड की दुनिया से लखनऊ की नवाबी विरासत और ऐतिहासिक झलकियों की कहानी
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
28-07-2025 09:32 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियों, एक समय था जब चौक, अमीनाबाद, रकाबगंज और हजरतगंज की गलियों में डाकिए की सीटी गूंजते ही लोग अपनी छतों और बरामदों से झांकने लगते थे — शायद किसी अपने की चिट्ठी आई हो, या कोई पोस्टकार्ड जो दिल की बात कहने आया हो। नवाबी तहज़ीब से सजी इस तहज़ीबपरस्त नगरी में, जहां हर बात में नज़ाकत और हर अंदाज़ में नफासत हो, वहीं पोस्टकार्ड ने भी रिश्तों को बेमिसाल गहराई दी। एक साधारण सा कागज़ का टुकड़ा, जिस पर न कोई लिफाफा होता था, न कोई औपचारिकता — बस सीधे दिल से निकले शब्द होते थे। वह शब्द, जो लखनऊ की गलियों से निकलकर भारत के कोने-कोने में अपनों तक पहुँचते थे। इस शहर में, जहां हर गली एक किस्सा सुनाती है और हर इमारत अपने भीतर इतिहास संजोए बैठी है, वहीं पोस्टकार्ड भी एक मौन गवाह बना रहा — प्रेम-पत्रों का, समाचारों का, त्योहारों की शुभकामनाओं का और युद्धकालीन संदेशों का। आज भले ही हम हाई-स्पीड इंटरनेट, ईमेल और सोशल मीडिया की दुनिया में जी रहे हों, परंतु पोस्टकार्ड की वह सादगी, वह आत्मीयता और वह प्रतीक्षा का आनंद अब भी हमारे बुजुर्गों की स्मृतियों में बसा हुआ है।
इस लेख में हम आपको ले चलेंगे उस ऐतिहासिक यात्रा पर, जहाँ से पोस्टकार्ड का विचार जन्मा, फिर कैसे यह यूरोप से होते हुए भारत पहुँचा, और लखनऊ जैसे सांस्कृतिक केंद्र में अपना गहरा स्थान बना गया। साथ ही, हम देखेंगे कि कैसे आज भी दुनिया भर में लोग पोस्टकार्ड को एक अमूल्य विरासत के रूप में सहेज कर रखते हैं, और कैसे कुछ पुस्तकों के ज़रिये इस छोटे से कागज़ के टुकड़े ने इतिहास के कुछ सबसे खूबसूरत पलों को सहेज रखा है।
पोस्टकार्ड का आविष्कार: एक किफायती और सरल संचार माध्यम की शुरुआत
1869 में ऑस्ट्रिया-हंगरी में डॉ. इमानुएल अलेक्जेंडर हेरमैन ने एक ऐसा विचार प्रस्तुत किया जिसने डाक संचार की दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि एक ऐसा कार्ड हो जो बिना लिफाफे के, सीमित शब्दों में संदेश भेजने की अनुमति दे और जिसे कोई भी व्यक्ति सस्ते दामों पर प्रयोग कर सके। उनका यह विचार न केवल अभिनव था, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से बेहद व्यावहारिक भी। इसी प्रस्ताव के आधार पर केवल 2-क्रूज़र डाक दर में पोस्टकार्ड को औपचारिक रूप से स्वीकार किया गया और पहली बार जनता के लिए उपलब्ध कराया गया। यह नया संचार माध्यम खासतौर पर उन लोगों के लिए एक वरदान बन गया, जो सीमित संसाधनों में भी अपनों से जुड़े रहना चाहते थे। पोस्टकार्ड ने पत्राचार को न केवल सरल और किफायती बनाया, बल्कि औपचारिक पत्रों के बोझिलपन से मुक्त करते हुए संवाद को भावनात्मक और आत्मीय भी बना दिया। लखनऊ जैसे शहरों, जहां रिश्तों को निभाने का खास सलीका रहा है, वहां पोस्टकार्ड जैसी चीज़ ने निजी संवाद को और भी सुंदर और सहज बना दिया।

यूरोप में पोस्टकार्ड की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता और डाक संचार में क्रांति
19वीं सदी के उत्तरार्ध में यूरोप के कई देशों में पोस्टकार्ड ने डाक सेवाओं को एक नई दिशा दी। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और ऑस्ट्रिया जैसे विकसित देशों में इसने पारंपरिक पत्राचार को गति दी और आम जनता को संवाद की स्वतंत्रता प्रदान की। 1871 में ब्रिटेन में 75 मिलियन पोस्टकार्ड भेजे गए, जो यह दर्शाता है कि किस तीव्रता से इस माध्यम को अपनाया गया। 1910 तक यह संख्या 800 मिलियन के पार पहुंच गई — एक ऐसा आंकड़ा जो किसी भी संचार माध्यम के लिए उस समय अकल्पनीय था। पोस्टकार्ड केवल संचार का जरिया नहीं रहा, बल्कि उसने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को छूने वाले संदेशों, चित्रों और घटनाओं को भी दर्ज करना शुरू कर दिया। त्योहारों की शुभकामनाओं से लेकर युद्धकालीन सूचना तक, और शहरों के दृश्यों से लेकर जीवनशैली के चित्रण तक, पोस्टकार्ड एक प्रकार का लघु ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया। इसके माध्यम से लोगों ने दूर बैठे अपने प्रियजनों से भावनात्मक संवाद बनाए रखा, और इसने धीरे-धीरे कला, संस्कृति और इतिहास का भी प्रतिनिधित्व करना शुरू कर दिया।

भारत में पोस्टकार्ड का आगमन और कर्नल फ्रेडरिक ब्राइन की ऐतिहासिक पहल
भारत में पोस्टकार्ड का औपचारिक आगमन 1879 में हुआ, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि इससे पहले ही तैयार हो चुकी थी। कर्नल फ्रेडरिक ब्राइन ने भारत में निजी तौर पर पोस्टकार्ड छपवाने का कार्य शुरू किया और सरकार को इसे स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया। प्रारंभ में, इन कार्डों पर टिकट लगाकर भेजा जाता था, लेकिन ‘पोस्ट ऑफिस कार्ड’ की शुरुआत के बाद इस पर नियत दर निर्धारित कर दी गई, जिससे यह आम जनता के लिए सुलभ और लोकप्रिय हो गया। लखनऊ जैसे सांस्कृतिक और साहित्यिक केंद्र में पोस्टकार्ड ने संवाद के स्वरूप को बिल्कुल बदल दिया। यहाँ की तहज़ीब में जब शायरी और अदब का स्थान गहरा रहा हो, तो पोस्टकार्ड जैसे माध्यम ने रिश्तों को संजोने का अनोखा अवसर दिया। चाहे स्वतंत्रता आंदोलन के सन्देश हों या पारिवारिक प्रेम-प्रसंग, पोस्टकार्ड ने हर भावना को सरलता से व्यक्त करने का ज़रिया बनाया। जन आंदोलनों, धार्मिक मेलों, व्यापारिक संवाद और भावनात्मक रिश्तों — हर क्षेत्र में पोस्टकार्ड ने जगह बनाई।
पोस्टकार्ड संग्रहण की परंपरा और डेल्टियोलॉजी का विकास
समय के साथ पोस्टकार्ड केवल संवाद का माध्यम नहीं रहा, बल्कि यह एक संग्रहणीय वस्तु बन गया। इस संग्रहण कला को डेल्टियोलॉजी (deltology) कहा जाता है और यह आज विश्व भर में एक अत्यंत लोकप्रिय शौक बन चुका है। पोस्टकार्ड संग्रहकर्ता ऐसे दुर्लभ पोस्टकार्डों की खोज में रहते हैं जो ऐतिहासिक घटनाओं, सांस्कृतिक स्थलों, त्योहारों या प्रसिद्ध व्यक्तियों से जुड़े होते हैं। इनकी कीमत उनकी स्थिति, दुर्लभता, छवि, छपाई और विषयवस्तु पर निर्भर करती है। कई पुराने पोस्टकार्ड अब नीलामियों में लाखों रुपये तक में बिकते हैं। भारत में भी यह परंपरा विशेष रूप से लखनऊ, कोलकाता, मुंबई, मद्रास और बनारस जैसे शहरों में खूब देखी जाती है। लखनऊ के ऐतिहासिक इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा, रेजीडेंसी, कैसरबाग जैसे स्थलों की तस्वीरें यदि पोस्टकार्ड के रूप में मिलें, तो वे केवल स्मृति नहीं, बल्कि एक दस्तावेज़ बन जाती हैं — जो हमारी सांस्कृतिक धरोहर की अमिट छाप लिए हुए होती हैं।

पिक्चरेस्क इंडिया पुस्तक द्वारा भारत के पोस्टकार्ड इतिहास की झलक
पिक्चरेस्क इंडिया: अ जर्नी इन अर्ली पिक्चर पोस्टकार्ड्स (Picturesque India: A Journey in Early Picture Postcards (1896–1947)) एक ऐसी पुस्तक है जो भारत के इतिहास को पोस्टकार्डों के ज़रिये देखने और समझने का शानदार प्रयास है। रत्नेश माथुर और संगीता माथुर द्वारा संकलित इस पुस्तक में भारत के सभी राज्यों और प्रमुख शहरों से संबंधित 500 दुर्लभ पोस्टकार्डों को संकलित किया गया है। ये पोस्टकार्ड औपनिवेशिक काल के भारत की संस्कृति, स्थापत्य, जीवनशैली और धार्मिक स्थलों को दर्शाते हैं।
इस संग्रह की विशेष बात यह है कि इसमें लखनऊ के कुछ बेहद दुर्लभ और पुराने पोस्टकार्डों की झलक भी मिलती है, जो शहर के ऐतिहासिक सौंदर्य को जीवंत कर देते हैं। इन चित्रों में 1900 के दशक की शुरुआत का रूमी दरवाज़ा, नवाबों के समय का बड़ा इमामबाड़ा आदि शामिल हैं। ये चित्र सिर्फ दृश्य नहीं, बल्कि लखनऊ के ऐतिहासिक एहसास और जीवनशैली का दर्पण हैं। ऐसे पोस्टकार्ड न केवल संग्रहणीय धरोहर हैं, बल्कि शहर की उस गौरवशाली विरासत का दस्तावेज़ भी हैं जिसे आज की पीढ़ी भूलती जा रही है।
संदर्भ-
लखनऊ का इतिहास: पुरानी कहानियों और दुर्लभ वीडियो में बसता अतीत
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
27-07-2025 09:32 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ का इतिहास केवल एक शहर की कहानी नहीं, बल्कि अवध की उस समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का दर्पण है जिसने भारतीय उपमहाद्वीप की तहज़ीब, कला और स्थापत्य को एक नया आयाम दिया। यह नगर अपनी जड़ों में उतना ही पुराना है जितनी अयोध्या की महिमा, क्योंकि मान्यता है कि इसे लक्ष्मण ने बसाया था — इसीलिए इसका प्रारंभिक नाम लक्ष्मणपुरी था। कालांतर में यह नाम बदलते-बदलते लखनऊ बन गया।
पहली वीडियो में हम लखनऊ को करीब से देखेंगे।
नीचे दिए गए लिंक में हम यह देखेंगे कि ब्रिटिश शासन के समय लखनऊ कैसा था।
लेकिन लखनऊ को असली पहचान मिली जब अवध के नवाबों ने इसे अपनी राजधानी बनाया। 1775 में नवाब आसफ-उद-दौला ने फैज़ाबाद से राजधानी लखनऊ स्थानांतरित की और यहीं से शुरू हुआ लखनऊ का स्वर्णिम युग। इस युग ने केवल राजनीतिक बदलाव नहीं लाए, बल्कि लखनऊ को कला, संगीत, नृत्य, कविता और स्थापत्य का जीवंत केंद्र बना दिया। अवध के नवाबों की शानो-शौकत, मेहमाननवाज़ी और सूफ़ियाना अंदाज़ ने लखनऊ को एक ऐसी तहज़ीबी राजधानी में बदल दिया, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है। बड़ा इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा, छतर मंज़िल, क़ैसरबाग़ जैसे स्थापत्य चमत्कार इस बात की गवाही हैं कि नवाब केवल शासक नहीं, बल्कि कला के संरक्षक भी थे। यह शहर न केवल ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि भावनात्मक रूप से भी देश के सांस्कृतिक दिल की तरह है। अवध की राजधानी लखनऊ ने सदियों तक प्रेम, सौहार्द और नज़ाकत को जिया है — और आज भी, इस विरासत को संभालते हुए आधुनिकता से कदम से कदम मिला रहा है।
नीचे दी गई वीडियो में हम 1800 के समय का लखनऊ और उसका संक्षिप्त इतिहास देखेंगे।
संदर्भ-
लखनऊवासियों, क्या गगनचुंबी इमारतें हमारे शहर की आत्मा से मेल खाती हैं?
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
26-07-2025 09:29 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ, एक ओर अपनी नज़ाकत, तहज़ीब और ऐतिहासिक हवेलियों के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर अब यह आधुनिक शहरीकरण की ऊँचाइयों को भी छू रहा है। तेजी से बढ़ती आबादी, सीमित भूमि संसाधन और समृद्ध जीवनशैली की खोज ने लखनऊ को भी ऊँची इमारतों की दिशा में धकेल दिया है। गोमती नगर, हजरतगंज, चिनहट, शाहिद पथ और आशियाना जैसे क्षेत्र अब बहुमंजिला टावरों (towers) की ऊंचाइयों से बदलते जा रहे हैं। जहां कभी लोग अपनी ‘जमीन’ के मालिक बनकर फख्र महसूस करते थे, अब वहां ‘ऊंचाई’ ही आधुनिक जीवन का प्रतीक बन गई है। इस शहरी बदलाव के बीच यह सवाल उठना लाजिमी है—क्या ये गगनचुंबी इमारतें लखनऊ के सामाजिक और भौगोलिक ताने-बाने के अनुकूल हैं? आइए इस लेख में पाँच पहलुओं से इस पर विचार करें।
इस लेख में हम लखनऊ जैसे ऐतिहासिक और विकसित होते महानगर में ऊँची इमारतों के बढ़ते प्रभाव को पाँच महत्वपूर्ण पहलुओं में समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम जनसंख्या दबाव और सीमित भूमि संसाधनों के कारण बहुमंजिला इमारतों की आवश्यकता को समझेंगे। इसके बाद, हम देखेंगे कि ये इमारतें कैसे आधुनिक जीवनशैली, सामाजिक मेलजोल और सांस्कृतिक समावेश को नया आकार दे रही हैं। तीसरे भाग में हम उन स्वास्थ्य, मानसिक और आपदा प्रबंधन संबंधी चुनौतियों की चर्चा करेंगे जो ऊँचाई के साथ आती हैं। फिर हम जानेंगे कि ऊँची इमारतों में मरम्मत, रखरखाव और स्वामित्व के स्तर पर किस प्रकार की व्यावहारिक दिक्कतें आती हैं। अंत में, हम यह विचार करेंगे कि लखनऊ के शहरी नियोजन को कैसे ऊँचाई और विरासत के बीच संतुलन साधना चाहिए।

जनसंख्या दबाव और भूमि की कमी में ऊँची इमारतों की उपयोगिता
लखनऊ जैसे तेजी से बढ़ते शहरों में आबादी का घनत्व निरंतर बढ़ रहा है। हर वर्ष लाखों लोग काम, शिक्षा और बेहतर जीवन की तलाश में इस शहर की ओर खिंचे चले आते हैं। इसके परिणामस्वरूप आवासीय जमीन की मांग तो बढ़ती है, लेकिन भूमि सीमित होने के कारण उसकी आपूर्ति संभव नहीं होती। ऐसे में ‘ऊँचाई’ को ‘विकास’ का समाधान माना जा रहा है। बहुमंजिला इमारतें एक ही भूखंड में सैकड़ों परिवारों को समाहित कर सकती हैं, जिससे शहरी विस्तार पर नियंत्रण बना रहता है। इन इमारतों में कम जगह में अधिक लोगों को आवास देने की क्षमता होती है, जो ज़मीन के सीमित संसाधनों वाले शहरों के लिए व्यावहारिक समाधान है। साथ ही इन इमारतों से बिजली, जल, और ड्रेनेज (drainage) जैसी मूलभूत सुविधाएं केंद्रीकृत रूप से प्रबंधित की जा सकती हैं, जिससे शहरी ढांचे पर पड़ने वाला दबाव कम होता है।
सामाजिक जीवन, संस्कृति और उच्च जीवनशैली के समन्वय
ऊँची इमारतें सिर्फ रहने का स्थान नहीं, बल्कि एक साझा जीवन का अनुभव बन चुकी हैं। अपार्टमेंट (Apartment) संस्कृति में लोग पास-पास रहते हैं, जिससे त्योहारों, मेलों और दैनिक जीवन में सामाजिक जुड़ाव बढ़ता है। लखनऊ जैसे सांस्कृतिक शहर में यह एक नया सामाजिक ताना-बाना गढ़ रहा है, जहाँ हर जाति, धर्म और पेशे के लोग एक साथ रहते हैं। आधुनिक टावरों में जिम (gym), स्विमिंग पूल (swimming pool), क्लब हाउस (club house), मिनी थियेटर (mini theater) जैसी सुविधाएं एक ही परिसर में उपलब्ध होती हैं, जो न केवल सुविधाजनक हैं, बल्कि सामाजिक एकजुटता भी बढ़ाती हैं। बच्चों के खेलने के मैदान और बुजुर्गों के लिए बाग-बगिचे अब इमारतों की ऊपरी मंजिलों तक पहुंच गए हैं। ऊंचे फ्लैटों (apartment flats) से शहर के सुरम्य दृश्य दिखते हैं, जिससे रहने वालों को एक मानसिक सुकून और निजीपन का अहसास होता है। लखनऊ के ‘वेलेंसिया टावर्स’ (Valencia Towers) और जयप्रकाश नारायण इंटरनेशनल सेंटर (JPNIC) जैसे प्रोजेक्ट (project) इसका प्रमाण हैं, जहां आधुनिकता और आराम एक साथ चलते हैं।

ऊँचाई में छिपे जोखिम: स्वास्थ्य, आपदा प्रबंधन और मानसिक अलगाव
जैसे-जैसे इमारतें ऊँचाई छूती हैं, वैसे-वैसे कुछ अनदेखे खतरे भी सामने आते हैं। उदाहरण के लिए, वृद्ध या बीमार लोगों के लिए ऊपरी मंजिलों पर रहना कई बार असुविधाजनक और खतरनाक साबित होता है। लिफ्ट (Lift) की असफलता, बिजली की कटौती, या अग्निशमन जैसी आपात स्थितियों में जब सीढ़ियों का सहारा लेना पड़ता है, तो यह और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। एक्रोफोबिया (ऊंचाई का डर), गठिया, उच्च रक्तचाप जैसे रोगियों के लिए ऊंची इमारतों का जीवन मानसिक और शारीरिक तनाव ला सकता है। इसके अलावा, गगनचुंबी अपार्टमेंट्स के निवासी अक्सर एक ‘सामाजिक बुलबुले’ में जीते हैं—जहां वे अपने समुदाय तक सीमित रह जाते हैं और नीचे धरती पर होने वाले सामाजिक जीवन से कटने लगते हैं। बच्चों का खुली जगहों से रिश्ता कमजोर होता है और प्रकृति से सीधा संपर्क कम होता है। यह मानसिक स्वास्थ्य और समाजिक सहभागिता के लिए खतरे की घंटी है।
रखरखाव, मरम्मत और स्वामित्व संबंधी चुनौतियाँ
ऊँची इमारतों की सुंदरता और आधुनिकता जितनी आकर्षक लगती है, उनका प्रबंधन और रखरखाव उतना ही जटिल होता है। पाइपलाइन की लीकेज (Pipeline Leakage), बाहरी दीवारों की पेंटिंग (exterior wall paintings), एयर कंडीशनर इंस्टॉलेशन (air conditioner installation), खिड़कियों की मरम्मत जैसे कार्य बहुमंजिला इमारतों में बहुत महंगे और जोखिम भरे हो सकते हैं। फ्लैट मालिकों को अक्सर सोसाइटी (society) की सहमति या बिल्डर (builder) पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे व्यक्तिगत नियंत्रण की भावना कमजोर होती है। कई बार रखरखाव शुल्क भी बहुत अधिक होता है, जो मध्यमवर्गीय परिवारों के बजट को प्रभावित करता है। इसके अलावा, पालतू जानवरों के साथ रहना, लिफ्ट में सामान लाना या आपातकालीन सेवाएं प्राप्त करना भी ऊपरी मंजिलों पर रहने वालों के लिए चुनौतीपूर्ण बन जाता है। यदि टावर बहुत पुराने हो जाएं और बिल्डर सक्रिय न हो, तो इमारत का प्रबंधन और भी जटिल हो जाता है।

लखनऊ के शहरी नियोजन को चाहिए संतुलित दृष्टिकोण
जहां एक ओर बहुमंजिला इमारतें शहरी विस्तार को नियंत्रित करने का एक प्रभावी साधन बन रही हैं, वहीं दूसरी ओर यह ज़रूरी है कि लखनऊ का शहरी नियोजन केवल ऊंचाई तक सीमित न रहे। हमारी ऐतिहासिक वास्तुकला, हवेलियों की विरासत, और सामाजिक घनिष्ठता को बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है। आज जब दिल्ली, मुंबई और शंघाई जैसे शहरों ने ऊँची इमारतों के नकारात्मक प्रभावों से सीख ली है, तब लखनऊ को भी ‘मिश्रित विकास’ (mixed-use planning) की ओर बढ़ना चाहिए, जहां ऊँचाई, हरियाली और खुली ज़मीन का संतुलन बना रहे। नए टाउनशिप (township) में भीड़, प्रदूषण और आपात स्थितियों के प्रबंधन को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बननी चाहिए। लखनऊ की आत्मा केवल आधुनिक अपार्टमेंट्स में नहीं, बल्कि उसकी गलियों, तहज़ीब और परंपराओं में भी बसती है।
संदर्भ -
संस्कृति 2088
प्रकृति 727