लखनऊ - नवाबों का शहर












लखनऊ चिड़ियाघर समेत देशभर के ज़ू हैं दुर्लभ और स्थानिक प्रजातियों के सुरक्षित आश्रय
निवास स्थान
By Habitat
19-06-2025 09:14 AM
Lucknow-Hindi

भारत एक ऐसा देश है जो भौगोलिक, जलवायु और पारिस्थितिक विविधताओं से भरपूर है। यहां के घने वनों, ऊँचे हिमालयी क्षेत्रों, विस्तृत रेगिस्तानों, समुद्री तटों और मैदानी क्षेत्रों में अद्वितीय जैव विविधता पाई जाती है। भारत में विश्व की कुल जैव विविधता का लगभग 8% हिस्सा पाया जाता है, जिसमें हजारों प्रकार की पशु, पक्षी, कीट, वनस्पतियाँ और सूक्ष्मजीव शामिल हैं। खास बात यह है कि इनमें से अनेक प्रजातियाँ केवल भारत में ही पाई जाती हैं, जिन्हें स्थानिक प्रजातियाँ (Endemic Species) कहा जाता है। ये प्रजातियाँ भारत की पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले भारत की जैव विविधता की विशेषताओं और स्थानिक प्रजातियों की अहमियत को समझेंगे। फिर हम लखनऊ चिड़ियाघर की संरचना और उसकी भूमिका की चर्चा करेंगे। उसके बाद हम कुछ प्रसिद्ध स्थानिक प्रजातियों की सूची देखेंगे, इनके विलुप्त होने के कारणों को जानेंगे, भारत के अन्य प्रमुख चिड़ियाघरों की विशेषताओं पर विचार करेंगे और अंत में चिड़ियाघरों की सामाजिक, शैक्षणिक और पारिस्थितिकीय भूमिका को समझेंगे।
भारत की जैव विविधता और स्थानिक प्रजातियों की महत्ता
भारत को "मेगाडायवर्स देश" (Megadiverse Country) के रूप में जाना जाता है क्योंकि यहां 4 जैव विविधता हॉटस्पॉट हैं—हिमालय, पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह। ये क्षेत्र ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र को जन्म देते हैं जहाँ जीवों की बहुतायत और विशिष्टता दोनों देखने को मिलती हैं। स्थानिक प्रजातियाँ, जैसे कि नीलगिरी तहर या मलाबार सिवेट, केवल एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में सीमित होती हैं। इनका महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यदि ये विलुप्त हो जाती हैं, तो वैश्विक स्तर पर उनका कोई विकल्प नहीं होता। इनके संरक्षण से न केवल उस विशेष पारिस्थितिकी तंत्र को बल मिलता है, बल्कि जैव विविधता का संतुलन भी बना रहता है। भारत में कई वन्यजीव राष्ट्रीय प्रतीकों के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं—जैसे कि बाघ (राष्ट्रीय पशु), मोर (राष्ट्रीय पक्षी), और नीम/पीपल जैसे वृक्ष जो सांस्कृतिक और औषधीय दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। इन प्रजातियों का संरक्षण, हमारे देश की सामाजिक-धार्मिक पहचान को भी सुदृढ़ करता है।

लखनऊ चिड़ियाघर: जीव-जंतुओं का अद्भुत संसार
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ स्थित नवाब वाजिद अली शाह प्राणी उद्यान (पूर्व नाम: प्रिंस ऑफ वेल्स जूलॉजिकल गार्डन), 1921 में स्थापित हुआ था। यह देश के सबसे सुंदर और सुव्यवस्थित चिड़ियाघरों में से एक है, जो लगभग 72 एकड़ में फैला हुआ है। यह चिड़ियाघर भारत सरकार की "जन-जागरूकता एवं संरक्षण मिशन" का अहम हिस्सा है। यहाँ पर लगभग 100 से अधिक प्रजातियों के 1000+ जीव-जंतु पाए जाते हैं, जिनमें शेर, बाघ, दरियाई घोड़ा, हिमालयी काला भालू, घड़ियाल, कछुए और अनेक विदेशी पक्षी शामिल हैं। चिड़ियाघर में वनस्पति उद्यान, नक्षत्र वाटिका, और भू-विज्ञान संग्रहालय भी हैं, जो इसे सामान्य चिड़ियाघरों से अलग बनाते हैं। लखनऊ चिड़ियाघर बच्चों और युवाओं के लिए शिक्षा का केंद्र भी है। यहाँ वाइल्डलाइफ फिल्म शो, प्रदर्शनी, और विज्ञान कार्यशालाएं नियमित रूप से आयोजित की जाती हैं। यह चिड़ियाघर स्थानीय प्रजातियों की प्रजनन योजना और पुनर्स्थापन में भी सक्रिय भूमिका निभा रहा है।
केवल भारत में पाई जाने वाली प्रमुख स्थानिक प्रजातियाँ
भारत में पाई जाने वाली कुछ प्रमुख स्थानिक प्रजातियाँ इस प्रकार हैं:
- नीलगिरी तहर (Nilgiri Tahr): यह केवल तमिलनाडु और केरल के पश्चिमी घाटों में पाया जाता है। इसकी संख्या तेजी से घट रही है।
- गोल्डन लैंगूर (Golden Langur): असम और भूटान के सीमावर्ती क्षेत्रों में पाया जाने वाला यह बंदर धार्मिक रूप से भी पूजनीय है।
- हिमालयी मोनाल (Himalayan Monal): उत्तराखंड और हिमाचल के ऊँचे क्षेत्रों में पाया जाने वाला रंग-बिरंगा पक्षी।
- मलाबार सिवेट (Malabar Civet): दक्षिण भारत में पाई जाने वाली यह दुर्लभ प्रजाति IUCN की रेड लिस्ट में 'Critically Endangered' के अंतर्गत है।
- गंगा नदी डॉल्फिन: केवल गंगा-घाघरा-ब्रह्मपुत्र की नदियों में पाई जाने वाली यह डॉल्फिन अब भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव है।
इन स्थानिक प्रजातियों की रक्षा न केवल भारत की जैव विविधता के लिए, बल्कि वैश्विक पारिस्थितिकी के लिए भी जरूरी है।

स्थानिक प्रजातियों के विलुप्त होने के खतरे और कारण
स्थानिक प्रजातियाँ अत्यंत संवेदनशील होती हैं क्योंकि वे केवल एक सीमित क्षेत्र में पाई जाती हैं। इनके विलुप्त होने के पीछे कई प्रमुख कारण हैं:
- वन कटाई और भूमि परिवर्तन: शहरीकरण, सड़क निर्माण, और खेती के लिए भूमि उपयोग में परिवर्तन इनका निवास क्षेत्र नष्ट कर देता है।
- जलवायु परिवर्तन: तापमान और वर्षा पैटर्न में परिवर्तन के कारण इनका प्रजनन और भोजन चक्र प्रभावित होता है।
- प्रदूषण और जल स्रोतों का क्षरण: नदियों में प्रदूषण, प्लास्टिक, रसायनों के प्रभाव से जलजीव प्रभावित होते हैं।
- अवैध शिकार और व्यापार: कई स्थानिक प्रजातियाँ औषधीय उपयोग या सजावटी कारणों से शिकार की जाती हैं।
- जीव-जंतुओं के बीच प्रतिस्पर्धा: जब विदेशी प्रजातियाँ किसी क्षेत्र में प्रवेश करती हैं, तो वे स्थानिक प्रजातियों से भोजन और संसाधनों की होड़ में उन्हें पीछे छोड़ देती हैं।
अगर समय रहते उपाय नहीं किए गए, तो आने वाले दशकों में भारत कई अमूल्य प्रजातियों को खो सकता है।
भारत के प्रमुख चिड़ियाघर और उनकी विशेषताएँ
भारत में लगभग 150 से अधिक चिड़ियाघर हैं, जिन्हें केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (Central Zoo Authority (CZA)) द्वारा मान्यता प्राप्त है। ये न केवल जैव विविधता को दिखाने का माध्यम हैं, बल्कि संरक्षण, शिक्षा और अनुसंधान के लिए भी कार्यरत हैं। कुछ प्रमुख चिड़ियाघर:
- मैसूर चिड़ियाघर (Karnataka): भारत का सबसे पुराना और सुसंगठित चिड़ियाघर, प्रसिद्ध है सफाई और जानवरों के बेहतर रख-रखाव के लिए।
- नंदनकानन चिड़ियाघर (Odisha): यहाँ सफेद बाघों की प्रजनन योजना सफल रही है। यह जंगली जंगल से जुड़ा हुआ है, जो इसे विशेष बनाता है।
- अरिगनर अन्ना जूलॉजिकल पार्क, चेन्नई: भारत का सबसे बड़ा चिड़ियाघर, जो प्राकृतिक आवास आधारित एनक्लोजर अपनाता है।
- पटना जैविक उद्यान (बिहार): यह चिड़ियाघर पशु चिकित्सा सुविधाओं और आधुनिक विज्ञान अनुसंधान के लिए जाना जाता है।
- नेहरू जूलॉजिकल पार्क, हैदराबाद: जैव विविधता के संरक्षण, पक्षियों के लिए विशेष एवियरी, और शैक्षणिक सफर के लिए प्रसिद्ध।

चिड़ियाघरों की भूमिका: संरक्षण, शिक्षा और जन-जागरूकता
आज के चिड़ियाघर केवल जीवों को पिंजरे में देखने तक सीमित नहीं हैं। इनका दायित्व व्यापक है:
- संरक्षण कार्य: संकटग्रस्त प्रजातियों की प्रजनन योजना (Captive Breeding) द्वारा उनकी संख्या बढ़ाना और प्राकृतिक आवासों में पुनर्स्थापित करना।
- शिक्षा और अनुसंधान: चिड़ियाघर जीवविज्ञान के छात्रों के लिए प्रयोगशाला के रूप में कार्य करते हैं। यहाँ व्यवहार विज्ञान, जैव अभियांत्रिकी और पारिस्थितिकी पर शोध होता है।
- जन-जागरूकता अभियान: पोस्टर, सेमिनार, बाल मेले, डॉक्यूमेंट्री आदि के माध्यम से आम जनता को जागरूक किया जाता है।
- पर्यटन के माध्यम से वित्तीय स्थिरता: चिड़ियाघर पर्यावरणीय पर्यटन (eco-tourism) का हिस्सा हैं, जिससे स्थानीय रोजगार और अर्थव्यवस्था को बल मिलता है।
लखनऊ कथक घराना व् दक्षिणी भरतनाट्यम:दोनों नृत्य शैलियों में झलकती भारत की समृद्ध परंपराएँ
द्रिश्य 2- अभिनय कला
Sight II - Performing Arts
18-06-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

भारतीय शास्त्रीय नृत्य, सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा है, जो न केवल कला के विभिन्न रूपों को प्रदर्शित करता है, बल्कि प्रत्येक नृत्य शैली अपने विशेष इतिहास और सांस्कृतिक महत्व के साथ भारतीय समाज की विविधता को भी दर्शाती है। भारत में कई शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें से कथक और भरतनाट्यम प्रमुख हैं। ये दोनों नृत्य शैलियाँ भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा मानी जाती हैं, और हर एक की अपनी अलग परंपरा, इतिहास और संगीत है। हालांकि कथक और भरतनाट्यम दोनों शास्त्रीय नृत्य रूप हैं, लेकिन इनकी शैली, भावनात्मक अभिव्यक्ति और प्रदर्शन में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं।आज हम कथक और भरतनाट्यम के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। पहले हम कथक का उद्भव और विकास देखेंगे, और जानेंगे कि यह नृत्य शैली किस तरह विभिन्न दरबारों, खासकर मुग़ल दरबारों से जुड़ी थी। फिर हम भरतनाट्यम की भक्ति और सांस्कृतिक समृद्धि के प्रतीक के रूप में बदलने की यात्रा पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, हम लखनऊ के कथक घराने की भूमिका पर ध्यान देंगे, जहां इस नृत्य शैली ने न केवल शुद्धता पाई, बल्कि एक नए आयाम में विकसित हुई। अंत में, हम दोनों शैलियों की कला और प्रदर्शन तकनीकों में अंतर समझेंगे, और यह देखेंगे कि किस प्रकार इन दोनों शैलियों ने समय के साथ समकालीन मंचों पर अपनी पहचान बनाई।
कथक का उद्भव और विकास
कथक का इतिहास भारतीय नृत्य परंपराओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह नृत्य शैली विशेष रूप से उत्तर भारत से जुड़ी है, जहां इसका विकास प्राचीन समय में हुआ। कथक शब्द का अर्थ है 'कथा' (कहानी) और यह नृत्य रूप मुख्य रूप से कहानी कहने की कला के रूप में विकसित हुआ। कथक की शुरुआत मंदिरों में धार्मिक कथाओं को प्रस्तुत करने से हुई थी। धीरे-धीरे यह मुग़ल दरबारों तक पहुंची और वहां इसे एक शाही नृत्य के रूप में मान्यता मिली। मुग़ल दरबारों में कथक का रूप बदलकर एक अधिक नृत्यकला के रूप में विकसित हुआ, जिसमें विशेष रूप से तात्कालिक मुग़ल संस्कृति और संगीत का प्रभाव दिखाई दिया।
कथक में संगीत, नृत्य और अभिनय का संगम होता है। इस शैली में नर्तक/नर्तकी कथा के पात्रों को नृत्य के माध्यम से जीवंत करते हैं, जिससे दर्शकों को एक नई दुनिया का अहसास होता है। कथक नृत्य में पांवों की गति और मुद्राएँ अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं, जो कथानक के अनुरूप होती हैं।

भरतनाट्यम: भक्ति और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक
भरतनाट्यम भारतीय शास्त्रीय नृत्य का एक अन्य महत्वपूर्ण रूप है, जिसे विशेष रूप से दक्षिण भारत में उत्पन्न माना जाता है। यह नृत्य कला शुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों से जुड़ी हुई है। इसके मूल में भक्ति है, और इसका उद्देश्य ईश्वर की पूजा और उसे श्रद्धा के रूप में प्रस्तुत करना है। पहले इसे मंदिरों में पुजारियों और भक्तों द्वारा किया जाता था, लेकिन समय के साथ यह एक प्रमुख सांस्कृतिक कला रूप में विकसित हो गया।
भरतनाट्यम की परंपरा में नृत्य, संगीत और अभिनय का मिश्रण होता है, जिसमें 'अभिनय' (हाव-भाव) का महत्वपूर्ण स्थान है। इस नृत्य में नर्तक/नर्तकी अपने शरीर की मुद्राओं और हाथों की कलाओं के माध्यम से भावनाओं और विचारों को व्यक्त करते हैं। भरतनाट्यम की प्रस्तुति में संगीत का विशेष महत्व है, और इसमें 'ताल' और 'राग' का गहरा समावेश होता है। यह नृत्य न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक भी है।
लखनऊ के कथक घराने की भूमिका
लखनऊ का कथक घराना भारतीय शास्त्रीय नृत्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस घराने का इतिहास बहुत समृद्ध और गौरवमयी है। लखनऊ में कथक को एक उच्च कला रूप के रूप में मान्यता प्राप्त है, और यहां के नर्तकियों ने इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। लखनऊ के कथक घराने में 'ताली' और 'जवाब' की तकनीक विशेष रूप से प्रमुख रही है, जिसमें नर्तक अपनी गति और पैरों की ताल के माध्यम से संगीत को पूरी तरह से जीते हैं।
लखनऊ के घराने के योगदान से कथक को एक नई दिशा मिली, और यह नृत्य शैली अधिक शुद्ध और पारंपरिक रूप में विकसित हुई। लखनऊ के कथक घराने ने कथक को एक धार्मिक, सांस्कृतिक और शाही नृत्य रूप में पेश किया। इस घराने के नर्तकियों ने कथक में अभिनय और भावनाओं के महत्व को पूरी तरह से समझा और इस कला को एक उच्च स्तर तक पहुँचाया।

कथक और भरतनाट्यम की कला और प्रदर्शन तकनीकों में अंतर
कथक और भरतनाट्यम, दोनों शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन इन दोनों के बीच कुछ प्रमुख अंतर भी हैं। कथक में मुख्य रूप से गति, ताल और अभिनय की अधिकता होती है। इसके प्रदर्शन में मुग़ल प्रभाव साफ़ देखा जा सकता है, और यह अधिक गतिशील और उत्तेजक होता है। भरतनाट्यम, हालांकि एक शांत और भक्ति प्रधान नृत्य शैली है, जिसमें पंक्ति और 'अभिनय' का विशेष ध्यान रखा जाता है।
कथक में 'ताली' और 'कुच' की तकनीक का प्रयोग होता है, जबकि भरतनाट्यम में 'अधिर' और 'नृत्य मुद्राएँ' प्रमुख होती हैं। कथक में पांवों की ताल की ध्वनि पर अधिक जोर दिया जाता है, जबकि भरतनाट्यम में 'हाथों की मुद्रा' और 'नज़ाकत' प्रमुख होती है।
कुल मिलाकर, कथक और भरतनाट्यम दोनों शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ भारतीय नृत्य परंपराओं की गहरी धरोहर हैं। इन दोनों शैलियों में नृत्य, संगीत और अभिनय का एक अद्भुत संगम होता है, जो न केवल भारतीय संस्कृति को प्रदर्शित करता है, बल्कि यह दर्शकों को भारतीय कला की गहरी समझ और सम्मान भी प्रदान करता है। समय के साथ इन शैलियों ने अपनी पहचान बनाई और आज भी वैश्विक मंचों पर यह दोनों शैलियाँ भारतीय शास्त्रीय नृत्य की महिमा को बढ़ा रही हैं।
लखनऊ और उसकी ऐतिहासिक मुद्रण कला: संस्कृति, शिल्प और धरोहर की यात्रा
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
17-06-2025 09:19 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ और मुद्रण कला की ऐतिहासिक यात्रा
भारत में मुद्रण कला का इतिहास केवल एक तकनीकी क्रांति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण की कहानी है। इस कला ने न केवल शिक्षा के प्रचार-प्रसार में क्रांति लाई, बल्कि भाषाओं के विकास, जन-जागरण और सामाजिक सुधार आंदोलनों को भी गति दी। लखनऊ, एक समृद्ध सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपरा वाला शहर, इस क्रांति का एक प्रमुख केंद्र बना। यहां से प्रकाशित ग्रंथों और समाचारपत्रों ने उर्दू भाषा को साहित्यिक और बौद्धिक पटल पर स्थापित किया। यह लेख लखनऊ की मुद्रण कला पर केंद्रित है, जिसमें मुंशी नवल किशोर के ऐतिहासिक योगदान, उर्दू प्रकाशन के विकास, मिशनरियों द्वारा भारतीय भाषाओं में मुद्रण के प्रयास और मुद्रण विरासत के संरक्षण की आधुनिक पहलों का विवरण दिया गया है। लेख अंत में अमीर-उद-दौला पुस्तकालय और 'ले प्रेस' जैसे संग्रहालय प्रयासों का उल्लेख करता है, जो लखनऊ की छपाई परंपरा को जीवंत बनाए रखने में सहायक हैं।
लखनऊ में मुद्रण कला की शुरुआत
लखनऊ में मुद्रण कला का आरंभ भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेजों के प्रभाव और स्थानीय नवाबों के सांस्कृतिक प्रेम का परिणाम था। 18वीं सदी के उत्तरार्ध में जब नवाबी लखनऊ संस्कृति, संगीत, और साहित्य का केंद्र बन रहा था, तब वहाँ छपाई तकनीक धीरे-धीरे प्रवेश कर रही थी। प्रारंभिक दौर में फारसी साहित्य की पुस्तकों की नकल हाथ से होती थी, लेकिन जैसे ही उर्दू भाषा ने आम बोलचाल और साहित्य में स्थान पाया, मुद्रण की आवश्यकता और महत्ता दोनों बढ़ गईं। उस दौर में शिक्षा का प्रसार सीमित था, पर मुद्रणकला ने ज्ञान को जनसामान्य तक पहुँचाने की भूमिका निभाई। लखनऊ का पहला प्रिंटिंग प्रेस नवाबी शासन के संरक्षण में स्थापित हुआ और यहीं से छपाई की दिशा में नया अध्याय शुरू हुआ।

मुंशी नवल किशोर और एशिया का पहला आधुनिक मुद्रणालय
मुंशी नवल किशोर, जिनका जन्म 1836 में हुआ था, ने पत्रकारिता और मुद्रणकला को एक नई ऊंचाई दी। उन्होंने न केवल एक व्यवसायी के रूप में बल्कि एक सांस्कृतिक योद्धा के रूप में कार्य किया। 1858 में स्थापित उनका "नवल किशोर प्रेस" उस समय एशिया का सबसे बड़ा और आधुनिक मुद्रणालय था, जहाँ से विविध भाषाओं में ग्रंथ प्रकाशित होते थे। संस्कृत के शास्त्रीय ग्रंथ, फारसी की कविता, उर्दू की कहानियाँ, हिंदी धार्मिक साहित्य और यहाँ तक कि अरबी व्याकरण तक, सभी कुछ यहाँ से छपता था। उन्होंने मुद्रण में गुणवत्ता, विषय की विविधता और कीमत की सुलभता का अद्भुत संयोजन प्रस्तुत किया। उनकी प्रेरणा से हजारों पांडुलिपियाँ लुप्त होने से बच गईं और भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने का एक मजबूत माध्यम मिला।

उर्दू प्रकाशन का विकास और प्रमुख अखबार
लखनऊ में उर्दू भाषा का साहित्यिक और सामाजिक प्रभाव निरंतर बढ़ रहा था, और मुद्रणकला ने इसे गति दी। 19वीं सदी के मध्य में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम की लहरें उठ रही थीं, उसी समय उर्दू अखबारों ने विचारों के संप्रेषण का महत्वपूर्ण दायित्व निभाया। ‘अवध अख़बार’, ‘अख़बार-ए-आम’, ‘तिलिस्म-ए-लखनऊ’ जैसे समाचारपत्रों ने तत्कालीन समाज, राजनीति और संस्कृति पर लेख प्रकाशित किए। ये अखबार जनता की आवाज बने और कई बार ब्रिटिश सरकार की नजरों में देशद्रोही भी कहे गए। उर्दू पत्रकारिता ने तत्कालीन सामाजिक असमानता, धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक दमन के विरुद्ध जनता को जागरूक किया। इन समाचारपत्रों के संपादक शिक्षित, निडर और बौद्धिक दृष्टि से समृद्ध व्यक्ति थे, जिनका उद्देश्य केवल समाचार देना नहीं, बल्कि जनमत निर्माण करना था।
मिशनरियों का योगदान और भारतीय भाषाओं में मुद्रण
भारतीय भाषाओं में मुद्रण की शुरुआत यूरोपीय मिशनरियों के हाथों हुई, जिन्होंने धर्म प्रचार के साथ-साथ शिक्षा को भी अपनाया। 16वीं सदी में गोवा में छपे पहले कैथोलिक कैटेकिज़्म से लेकर सेरामपुर मिशन तक, मिशनरियों ने स्थानीय भाषाओं को सीखकर उनमें बाइबिल, व्याकरण, शब्दकोश और पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित कीं। विलियम कैरी ने बंगाली भाषा में पहली बाइबिल का अनुवाद और मुद्रण किया, जबकि रेव. झाइगेनबल्ग ने तमिल में धार्मिक ग्रंथ प्रकाशित किए। इन प्रयासों से भारतीय भाषाओं को लिपिबद्ध स्वरूप मिला और मुद्रण तकनीक में लिपि सुधार तथा टाइप कास्टिंग की दिशा में प्रगति हुई। लखनऊ में भी मिशनरियों की उपस्थिति ने आधुनिक मुद्रण मशीनों और तकनीकों के आगमन को संभव बनाया। हालांकि उनके उद्देश्य धार्मिक थे, लेकिन उन्होंने भारतीय भाषाओं के मुद्रण को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई।

मुद्रण विरासत का संरक्षण और पुनर्संस्थापन के प्रयास
मुद्रण इतिहास की धरोहर को संरक्षित रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है, विशेषकर तब जब डिजिटल युग में प्रिंट का महत्व घटता जा रहा है। लेकिन लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की विरासत को पुनर्जीवित करने के कई सार्थक प्रयास हुए हैं। 1970 में भारत सरकार द्वारा मुंशी नवल किशोर पर डाक टिकट जारी करना उनके योगदान की राष्ट्रीय मान्यता थी। 2015 में रेख़ता फाउंडेशन ने उनके द्वारा छपी सैकड़ों पुस्तकों को स्कैन कर डिजिटलीकृत किया और जनता के लिए ऑनलाइन उपलब्ध कराया। वहीं, उनके वंशजों द्वारा प्रेस की पुरानी इमारत को पुनर्स्थापित कर ‘Le Press’ नाम से नया जीवन दिया गया, जहाँ अब साहित्यिक कार्यक्रम, किताबों की पुनः छपाई और प्रदर्शनी आयोजित की जाती हैं। यह प्रयास न केवल एक ऐतिहासिक स्मृति को संजोता है, बल्कि नई पीढ़ी को इसकी महत्ता से जोड़ने का भी माध्यम है।
अमीर-उद-दौला पुस्तकालय और मुद्रण संग्रहालय
लखनऊ के हज़रतगंज क्षेत्र में स्थित अमीर-उद-दौला सार्वजनिक पुस्तकालय केवल एक वाचनालय नहीं, बल्कि इतिहास और ज्ञान की गवाही देता एक जीवंत स्मारक है। यहाँ हाल ही में एक विशेष कक्ष ‘प्रिंटिंग हेरिटेज गैलरी’ के रूप में विकसित किया गया है, जहाँ मुंशी नवल किशोर के जीवन और कार्यों से संबंधित दुर्लभ वस्तुएं जैसे – उनकी हस्तलिपियाँ, मुद्रण यंत्र, टाइपकास्टिंग ब्लॉक, प्रेस के दस्तावेज़, विज्ञापन, किताबों के पहले संस्करण आदि संग्रहित हैं। यह संग्रहालय मुद्रणकला के तकनीकी पहलुओं को भी समझाता है – जैसे हॉट मेटल प्रिंटिंग, लेटरप्रेस और स्टीरियोटाइपिंग। साथ ही यहां प्रोजेक्टर आधारित इंटरैक्टिव डिस्प्ले, ऑडियो-विजुअल प्रस्तुतियाँ और बच्चों के लिए कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं। यह संग्रहालय लखनऊ की छपाई विरासत को संरक्षित रखने के साथ-साथ नवाचार के साथ जोड़ने का भी सशक्त प्रयास है।
लखनऊ का दशहरी आम: परंपरा की जड़ें, स्वाद की उड़ान और दुनिया में पहचान
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
16-06-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ की पहचान नवाबी तहज़ीब, चिकनकारी और इत्र के साथ-साथ दशहरी आम से भी होती है। दशहरी सिर्फ एक फल नहीं, बल्कि अवध की सांस्कृतिक और स्वादिष्ट विरासत का प्रतीक है। लखनऊ के मलिहाबाद क्षेत्र में पैदा होने वाला यह आम, अपनी खास सुगंध, गूढ़ मिठास और रेशम जैसे गूदे के कारण देश-विदेश में प्रसिद्ध है। यह आम न केवल स्वाद में अद्वितीय है, बल्कि इसकी खेती और संरक्षण भी एक समृद्ध परंपरा का हिस्सा हैं।इस लेख में हम दशहरी आम के ऐतिहासिक उद्भव से लेकर इसके स्वाद की विशेषताएं, वैश्विक व्यापार, लखनऊ की अर्थव्यवस्था में योगदान, इसके जियो टैगिंग स्टेटस और बदलते समय में किसानों की चुनौतियों पर चर्चा करेंगे। यह लेख दशहरी आम को एक फल नहीं, बल्कि एक परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में प्रस्तुत करता है, जो समय के साथ और भी प्रासंगिक होती जा रही है।
दशहरी आम की ऐतिहासिक शुरुआत
दशहरी आम की शुरुआत 18वीं शताब्दी में लखनऊ के काकोरी क्षेत्र के दशेरी गांव में हुई मानी जाती है। कहा जाता है कि यहां के एक बाग में सबसे पहले यह खास किस्म का आम उगा, जिसने अपने अनूठे स्वाद और बनावट से लोगों का ध्यान खींचा। बाद में नवाबों के संरक्षण में यह आम मलिहाबाद और आसपास के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर उगाया जाने लगा।नवाबी दौर में दशहरी आम की मांग दरबारों में बढ़ी और यह राजसी भोजनों का हिस्सा बन गया। इसकी पहचान धीरे-धीरे स्थानीय सीमाओं को पार कर देश के अन्य हिस्सों तक फैलने लगी। दशहरी आम की इस ऐतिहासिक यात्रा में कृषि ज्ञान, परंपरागत विधियों और समाजिक स्वीकृति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दशेरी गांव की मिट्टी, जलवायु और किसानों की पीढ़ी दर पीढ़ी की मेहनत ने इस आम को विश्वप्रसिद्ध बनाया।
दशहरी आम की विशेषताएं
दशहरी आम की सबसे बड़ी खासियत इसका स्वाद और सुगंध है। इसके छिलके को हटाकर सीधे खाया जा सकता है क्योंकि इसका गूदा बिना रेशों के बेहद मुलायम होता है। इसका स्वाद संतुलित मिठास लिए होता है जो न तो अत्यधिक मीठा होता है और न ही फीका। आमतौर पर यह जून के मध्य से जुलाई के मध्य तक बाजारों में उपलब्ध रहता है।इस आम का रंग पीलेपन की ओर झुकता है और पकने के बाद यह हल्की हरियाली लिए सुनहरा दिखाई देता है। इसकी खुशबू इतनी तीव्र और विशिष्ट होती है कि यह बिना काटे ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता है। दशहरी आम का आकार आमतौर पर लंबा और थोड़े नुकीले सिरे वाला होता है, जो इसे बाकी किस्मों से भिन्न बनाता है। यही विशेषताएं इसे देश के अन्य आमों से अलग और सबसे प्रिय बनाती हैं।
वैश्विक पहचान और निर्यात
दशहरी आम की लोकप्रियता अब केवल भारत तक सीमित नहीं रही। यह अमेरिका, खाड़ी देश, यूरोप और सिंगापुर जैसे देशों में भी निर्यात किया जाता है। भारत सरकार और राज्य सरकारों की सहायता से दशहरी आम को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बढ़ावा देने के लिए कई प्रदर्शनियों और मेलों में शामिल किया जाता है।
निर्यात प्रक्रिया में विशेष देखभाल की जाती है—फल को समय से पहले तोड़ा जाता है, वैज्ञानिक ढंग से पैक किया जाता है, और फिर एयर फ्रेट द्वारा भेजा जाता है ताकि उसकी ताजगी बनी रहे। दशहरी आम की मांग प्रवासी भारतीयों के बीच विशेष रूप से अधिक है जो अपनी मिट्टी के स्वाद को विदेशों में ढूंढ़ते हैं। इसके अलावा, GI टैग मिलने के बाद विदेशी आयातकों के लिए इसकी गुणवत्ता और स्रोत की प्रामाणिकता भी सुनिश्चित होती है, जिससे इसका बाजार और अधिक विस्तृत हुआ है।
लखनऊ की अर्थव्यवस्था में योगदान
मलिहाबाद क्षेत्र में हजारों एकड़ भूमि पर दशहरी आम की खेती होती है। यहां के सैकड़ों किसान दशहरी आम की बागवानी पर निर्भर हैं। आम की पैकिंग, ट्रांसपोर्ट, निर्यात और स्थानीय बिक्री से जुड़ी पूरी एक आर्थिक श्रंखला लखनऊ और आसपास के इलाकों में रोज़गार का स्रोत बनी हुई है।
हर साल आम के मौसम में अस्थायी श्रमिकों को भी काम मिलता है जो पेड़ से फल तोड़ने, साफ करने, छांटने और ट्रकों में लोड करने जैसे कार्यों में लगे रहते हैं। लखनऊ और विशेषकर मलिहाबाद के छोटे व्यवसायी इस आम से जुड़ी औद्योगिक गतिविधियों—जैसे जैम, स्क्वैश, ड्राय फ्रूट्स वगैरह—से भी लाभ कमाते हैं। आम पर्यटन, यानी “मैंगो टूरिज्म”, एक नया क्षेत्र है जो पर्यटकों को बागों में ले जाकर आम का स्वाद चखवाने और अनुभव प्रदान करने की दिशा में विकसित हो रहा है।
जियो टैगिंग का महत्व
2010 में मिले GI (Geographical Indication) टैग के बाद दशहरी आम की पहचान और मजबूत हुई। इस टैग का अर्थ है कि दशहरी आम की यह किस्म केवल मलिहाबाद क्षेत्र में ही पाई जाती है और वहीं की मिट्टी, जलवायु और पारंपरिक विधियों से इसकी असली गुणवत्ता प्राप्त होती है।GI टैग ने नकली या अन्य क्षेत्रों के आमों को “दशहरी” नाम से बेचने पर रोक लगाई, जिससे मूल उत्पादकों को लाभ मिला। इसके साथ ही यह टैग किसानों को बाज़ार में अपनी उपज के लिए बेहतर मूल्य दिलाने का एक कानूनी उपकरण भी बन गया है। कई अंतरराष्ट्रीय खरीदार विशेष रूप से GI टैग वाले उत्पादों को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि वे गुणवत्ता और प्रामाणिकता की गारंटी देते हैं। इससे न केवल किसानों को फायदा हुआ है, बल्कि दशहरी आम की साख भी विश्व स्तर पर मजबूत हुई है।
बदलती परिस्थितियों में चुनौतियां
दशहरी आम की खेती अब नई चुनौतियों का सामना कर रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण असमय बारिश और बढ़ते तापमान ने आम के फूलने और फलने की प्रक्रिया को प्रभावित किया है। इसके अलावा कीट और फफूंद का प्रकोप भी उत्पादन को घटा रहा है, जिससे किसानों को आर्थिक नुकसान होता है।बाजार में उचित मूल्य न मिलना, बिचौलियों का हस्तक्षेप, और भंडारण व प्रसंस्करण की सुविधाओं की कमी भी किसानों के सामने बड़ी समस्या है। कई युवा किसान अब आम की परंपरागत खेती छोड़कर अन्य विकल्पों की ओर रुख कर रहे हैं। सरकार की ओर से चल रही योजनाएं जैसे शीतगृहों का निर्माण, जैविक खेती को प्रोत्साहन, और ई-कॉमर्स प्लेटफार्मों से सीधा उपभोक्ता तक पहुंच—अगर सही ढंग से लागू हों, तो दशहरी आम की खेती को फिर से नई ऊर्जा मिल सकती है।
लखनऊ की खुशबू में बसा गुलाब: प्रेम और संस्कृति की अनमोल पहचान
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
15-06-2025 08:50 AM
Lucknow-Hindi

गुलाब दुनिया के सबसे प्रिय फूलों में से एक हैं, जो हजारों वर्षों से मानव सभ्यता का हिस्सा बने हुए हैं। ये मोहक और सुगंधित फूल प्रेम के प्रतीक माने जाते हैं और अपने सौंदर्य, विविधता व उपयोगों के कारण विश्वभर में लोकप्रिय हैं।
गुलाब की सैकड़ों प्रजातियाँ और हजारों संकरण प्रजातियाँ (कल्टीवेटर) पाई जाती हैं। ये पौधे पारंपरिक झाड़ियों और बेलों से लेकर छोटे गमलों में उगने वाले मिनिएचर पौधों तक कई रूपों में मिलते हैं। इनके तनों पर अक्सर कांटे होते हैं और पत्तियाँ चमकदार हरी व दाँतेदार किनारों वाली होती हैं। गुलाब के फूल आकार और आकृति में विविध होते हैं तथा इनका रंग हल्के गुलाबी, पीच क्रीम से लेकर चमकीले पीले, नारंगी और लाल तक होता है। कई गुलाब सुगंधित होते हैं और कुछ में "हिप्स" नामक फल भी लगते हैं।
पहले वीडियो लिंक में आप दुनियाभर की सबसे खूबसूरत और दुर्लभ गुलाब की किस्मों की झलक पा सकते हैं, जो इसके रंगों और विविधताओं का अद्भुत संगम पेश करता है।
सौंदर्य और सुगंध में उपयोग
गुलाब के फूलों से प्राप्त आवश्यक तेल (essential oil) का उपयोग इत्र, मोमबत्तियों और कॉस्मेटिक उत्पादों में किया जाता है। इसके अर्क और तेल बालों के लिए पौष्टिक व मॉइस्चराइजिंग माने जाते हैं, इसलिए इन्हें हेयर केयर उत्पादों में भी मिलाया जाता है। गुलाब जल, जो गुलाब तेल निर्माण की प्रक्रिया का एक उपोत्पाद होता है, टोनर और चेहरे की धुंध (facial mist) के रूप में खूब प्रचलित है।
इस वीडियो में आप गुलाब के फूलों को धीरे-धीरे खिलते हुए देख सकते हैं — यह दृश्य इसकी प्राकृतिक सुंदरता और जीवनचक्र को मंत्रमुग्ध कर देने वाले अंदाज़ में दर्शाता है।
सांस्कृतिक महत्व
लाल गुलाब प्रेम का सार्वभौमिक प्रतीक हैं। प्राचीन ग्रीक मिथक के अनुसार, गुलाब की उत्पत्ति प्रेम की देवी एफ़्रोडाइट ने की थी। प्राचीन रोम में नवविवाहित जोड़ों को गुलाबों से सजाया जाता था। मध्यकालीन युग में गुलाब शक्ति और युद्ध विजय का प्रतीक माना जाता था। इंग्लैंड के "वार ऑफ़ द रोज़ेज़" (गृह युद्ध) में गुलाब यॉर्क और लैंकेस्टर घरानों का प्रतीक बने। आज भी गुलाब सजावटी पौधों के रूप में बाग-बगीचों, घरों और फूलों की सजावट में प्रमुखता से उपयोग किए जाते हैं।
जापान में, गुलाब समलैंगिकता का प्रतीक भी माने जाते हैं, जो इसकी सांस्कृतिक बहुआयामीता को दर्शाता है।
गुलाब न केवल अपनी सुंदरता और सुगंध से लोगों को आकर्षित करते हैं, बल्कि उनके ऐतिहासिक, सौंदर्य और सांस्कृतिक महत्व ने उन्हें अनंत काल तक प्रिय बनाए रखा है।
नीचे दिए गए वीडियो के ज़रिए आप गुलाब की कलियों का फूल बनना और फिर मुरझाना एक संपूर्ण चक्र के रूप में दिखता है।
अगर आप गुलाब उगाने में रुचि रखते हैं तो अगला वीडियो में आप इसकी सरल और प्रभावी तकनीक सीख सकते हैं, जिससे आप घर पर ही सुंदर गुलाब उगा सकते हैं।
संदर्भ-
लखनऊ की चिकनकारी और ज़रदोज़ी: पूरब का स्वर्णिम हस्तशिल्प
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
14-06-2025 09:23 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ, जिसे अपनी नवाबी विरासत, ऐतिहासिक स्मारकों और गंगा-जमुनी संस्कृति के लिए जाना जाता है, एक और विशिष्ट पहचान रखता है जिसने इसे "पूरब का स्वर्ण" की उपाधि दिलाई है - यहाँ की उत्कृष्ट चिकनकारी और ज़रदोज़ी कढ़ाई। भारत के समृद्ध वस्त्र उद्योग में इस शहर का एक अद्वितीय और महत्वपूर्ण स्थान है, जहाँ सदियों से चली आ रही यह कला न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाए हुए है। कपास उत्पादन में भारत की वैश्विक पहचान के बावजूद, लखनऊ ने इन जटिल और सुंदर कढ़ाई शैलियों के माध्यम से अपनी एक अलग पहचान स्थापित की है।
इस लेख में, हमने चिकनकारी और ज़रदोज़ी की उत्पत्ति और भारत में उनके आगमन पर प्रकाश डाला। इसके बाद, हमने उन विशिष्ट कारणों का विश्लेषण किया जिनके कारण लखनऊ इन दोनों कलाओं का एक प्रमुख केंद्र बन गया। फिर, हमने चिकनकारी की नाज़ुक शिल्प कौशल और ज़रदोज़ी की भव्य अलंकरण कला की तकनीकों और उनके महत्व पर विस्तार से चर्चा की।
कब और कहाँ से आयीं चिकनकारी और ज़रदोज़ी?
चिकनकारी, जिसका शाब्दिक अर्थ 'कढ़ाई' होता है, की उत्पत्ति के बारे में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह कला फारस से भारत आई और मुगल काल में इसे संरक्षण मिला। विशेष रूप से मुगल बादशाह जहांगीर की पत्नी नूरजहाँ को चिकनकारी को बढ़ावा देने का श्रेय दिया जाता है। लखनऊ में इस कला का विकास 18वीं और 19वीं शताब्दी में अवध के नवाबों के शासनकाल में हुआ, जिन्होंने इसे शाही संरक्षण प्रदान किया।
ज़रदोज़ी, जिसका अर्थ फ़ारसी में 'सोने की कढ़ाई' होता है, भी भारत में प्राचीन काल से मौजूद है। ऋग्वेद में सोने के धागों से बने वस्त्रों का उल्लेख मिलता है, जो इस कला की प्राचीनता को दर्शाता है। मुगल काल में ज़रदोज़ी अपनी चरम सीमा पर थी, जब सोने और चांदी के तारों से शाही वस्त्रों और सजावटी सामानों को अलंकृत किया जाता था। लखनऊ, वाराणसी और हैदराबाद जैसे शहर ज़रदोज़ी के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरे।

किस कारण लखनऊ बना इन कलाओं का केंद्र?
लखनऊ इन दोनों ही उत्कृष्ट कढ़ाई कलाओं का प्रमुख केंद्र बनने के कई कारण हैं। अवध के नवाबों का कला और संस्कृति के प्रति गहरा प्रेम और उदार संरक्षण ने कारीगरों को प्रोत्साहित किया और उन्हें अपनी रचनात्मकता को निखारने का अवसर प्रदान किया। लखनऊ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और कलात्मक माहौल ने भी इन शिल्पों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त, लखनऊ में उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे माल की उपलब्धता और कुशल कारीगरों की पीढ़ियों ने इस शहर को इन विशिष्ट कलाओं का गढ़ बना दिया। आज भी, लखनऊ में इन पारंपरिक तकनीकों का उपयोग करके उत्कृष्ट गुणवत्ता वाले उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जिनकी देश और विदेश में भारी मांग है।

चिकनकारी और ज़रदोज़ी: तकनीकें और उनका महत्व
चिकनकारी: नाज़ुक शिल्प कौशल
चिकनकारी, जिसका अर्थ है 'कढ़ाई', एक सदियों पुरानी हस्तकला है जो अपनी नाज़ुक और जटिल सिलाई के लिए प्रसिद्ध है। इस कला में, पहले कपड़े पर लकड़ी के ब्लॉक से डिज़ाइन छापा जाता है। फिर, कुशल कारीगर विभिन्न प्रकार के लगभग 36 विशिष्ट टाँकों का उपयोग करके इन छापों को जीवंत करते हैं। इनमें टप्पा, बखिया ('शैडो वर्क' जो कपड़े के उल्टी तरफ से किया जाता है और जिसकी छाया सीधी तरफ दिखती है), हूल (बारीक अलग किए गए आईलेट स्टिच), ज़ंजीरा (चेन स्टिच), जाली (खुली जाली जैसा काम जिसमें धागा कपड़े से पूरी तरह नहीं निकाला जाता), और टेपची (लंबा रनिंग स्टिच) प्रमुख हैं। कारीगर कपड़े की बनावट, डिज़ाइन की बारीकियों और वांछित प्रभाव के अनुसार इन टाँकों का चुनाव करते हैं। चिकनकारी मुख्य रूप से हल्के और आरामदायक कपड़ों जैसे मलमल, रेशम, शिफॉन और जॉर्जेट पर सफेद या हल्के रंग के धागों से की जाती है, हालांकि आजकल फैशन के रुझानों के अनुसार रंगीन धागों का भी प्रयोग होने लगा है। इस कढ़ाई में अक्सर फूलों, पत्तियों और बेलों के प्राकृतिक रूपांकनों का उपयोग किया जाता है, जो इस पर फारसी सौंदर्यशास्त्र के गहरे प्रभाव को दर्शाते हैं। तैयार कपड़े को धोकर ब्लॉक प्रिंट के निशान हटा दिए जाते हैं, फिर स्टार्च करके इस्त्री किया जाता है, जिससे यह बाज़ार में बिक्री के लिए तैयार हो जाता है। चिकनकारी के वस्त्र अपनी सुंदरता, आरामदायकता और गर्मियों के लिए उपयुक्तता के कारण बहुत लोकप्रिय हैं।
ज़रदोज़ी: भव्यता और अलंकरण की कला
ज़रदोज़ी, जिसका फ़ारसी में अर्थ 'सोने की कढ़ाई' है, एक अत्यंत अलंकृत और भव्य कढ़ाई शैली है। इस तकनीक में सोने और चांदी के असली या नकली तारों के साथ-साथ मोती, कीमती और अर्ध-कीमती पत्थर, सितारे और अन्य चमकदार तत्वों का उपयोग किया जाता है। ज़रदोज़ी मुख्य रूप से रेशम, मखमल, साटन और ऑर्गेंज़ा जैसे भारी और समृद्ध कपड़ों पर की जाती है, जो इसे एक शाही और शानदार रूप प्रदान करती है। इस कढ़ाई में जटिल फूलदार पैटर्न, ज्यामितीय आकृतियाँ और दरबारी रूपांकन प्रमुखता से दर्शाए जाते हैं।
ज़रदोज़ी की प्रक्रिया में, सबसे पहले कपड़े को एक लकड़ी के फ्रेम पर कसकर बांधा जाता है। फिर, डिज़ाइन को कपड़े पर ट्रेस किया जाता है। कुशल कारीगर एक विशेष प्रकार की सुई का उपयोग करके धातु के तारों और अन्य अलंकरणों को कपड़े पर टाँकते हैं। इस काम में काफ़ी कुशलता, धैर्य और समय लगता है, जिसके परिणामस्वरूप एक उत्कृष्ट और प्रभावशाली कलाकृति तैयार होती है।
ज़रदोज़ी का उपयोग ऐतिहासिक रूप से शाही वस्त्रों, दरबार की सजावट, हाथी के हौदे और धार्मिक वस्त्रों को सजाने के लिए किया जाता था। आज भी, यह दुल्हन के लिबास, उत्सव के परिधान, घर की सजावट की वस्तुओं और फैशन एक्सेसरीज़ में अपनी भव्यता और शानदार उपस्थिति के कारण बहुत लोकप्रिय है। लखनऊ, वाराणसी और कुछ अन्य शहर आज भी ज़रदोज़ी के महत्वपूर्ण केंद्र बने हुए हैं, जहाँ कुशल कारीगर इस पारंपरिक कला को जीवित रखे हुए हैं।
भारत में कपास: कृषि, रोजगार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका
पेड़, झाड़ियाँ, बेल व लतायें
Trees, Shrubs, Creepers
13-06-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती होती है। इन्हीं में से एक है कपास, जो न केवल एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है, बल्कि इससे जुड़ी उद्योग श्रृंखला भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था, रोजगार और वस्त्र उद्योग की रीढ़ भी मानी जाती है। कपास का उपयोग कपड़ा निर्माण के लिए प्रमुख रूप से किया जाता है, और इससे जुड़े सभी क्षेत्र – जैसे कि खेती, प्रसंस्करण, बुनाई, रंगाई और निर्यात – करोड़ों लोगों की आजीविका का साधन बनते हैं। भारत विश्व में कपास उत्पादन, खपत और निर्यात – तीनों में अग्रणी है। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भारत में कपास की खेती का क्या महत्व है। हम जानेंगे कि कपास की कौन-कौन सी किस्में और प्रकार भारत में प्रचलित हैं, और उनकी विशेषताएँ क्या हैं। इसके साथ ही, यह भी देखेंगे कि कपास का क्षेत्र किस प्रकार बड़े पैमाने पर रोजगार उत्पन्न करता है और कितने स्तरों पर लोग इससे जुड़े हैं। इसके बाद, हम उत्तर प्रदेश में कपास की खेती की वर्तमान स्थिति और भविष्य की संभावनाओं पर ध्यान देंगे। साथ ही, कपास उत्पादन से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ जैसे—कीट प्रकोप, जलवायु परिवर्तन, और बढ़ती लागत—भी चर्चा में शामिल होंगी। अंत में, हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि सरकार किस प्रकार की योजनाएँ और प्रयास कर रही है।
भारत में कपास की खेती का महत्व
भारत में कपास एक प्रमुख नकदी फसल है, जो न केवल वस्त्र उद्योग की रीढ़ है, बल्कि देश की कृषि अर्थव्यवस्था में भी इसकी गहरी भागीदारी है। कपास की खेती का ऐतिहासिक महत्व भी है, और यह सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आज तक भारतीय कृषि संस्कृति का हिस्सा रही है। यह फसल देश के लाखों किसानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आजीविका प्रदान करती है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां सिंचाई की सुविधा सीमित होती है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ-साथ घरेलू और निर्यात बाजार में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है।

भारत में उगाई जाने वाली कपास की किस्में
भारत में कपास की चार प्रमुख प्रजातियाँ उगाई जाती हैं: गॉसिपियम हिर्सूटम (G. hirsutum), गॉसिपियम बारबाडेंस (G. barbadense), गॉसिपियम अर्बोरियम (G. arboreum), और गॉसिपियम हर्बेसियम (G. herbaceum)। इनमें से G. hirsutum को अपलैंड या अमेरिकन कॉटन कहा जाता है और यह सबसे अधिक उत्पादित किस्म है जो वैश्विक उत्पादन का लगभग 90% हिस्सा देती है। भारत उन गिने-चुने देशों में है जहां इन सभी किस्मों की व्यावसायिक खेती की जाती है। इन किस्मों की खेती देश की विभिन्न जलवायु परिस्थितियों के अनुसार की जाती है, जो इसे एक कृषि विविधता का अनूठा उदाहरण बनाता है।
भारत में कपास को फाइबर की लंबाई और गुणवत्ता के आधार पर तीन प्रमुख वर्गों में बांटा गया है - लॉन्ग स्टेपल, मीडियम स्टेपल और शॉर्ट स्टेपल। लॉन्ग स्टेपल कॉटन की लंबाई 24-27 मिमी तक होती है और इससे उच्च गुणवत्ता के वस्त्र बनते हैं, जो निर्यात के लिए आदर्श होते हैं। मीडियम स्टेपल कॉटन की लंबाई 20-24 मिमी होती है और यह भारतीय बाजार में सर्वाधिक प्रयोग होता है क्योंकि यह संतुलित गुणवत्ता और कीमत प्रदान करता है। शॉर्ट स्टेपल कॉटन की लंबाई 20 मिमी से कम होती है और इसका उपयोग निम्न गुणवत्ता के उत्पादों के लिए किया जाता है। यह वर्गीकरण भारतीय वस्त्र उद्योग की बहुपरतीय आवश्यकता को पूरा करता है।

कपास से मिलने वाला रोजगार
भारत में कपास उद्योग लगभग 6 मिलियन किसानों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार देता है और 40-50 मिलियन लोग इसके प्रसंस्करण, विपणन और व्यापार में संलग्न हैं। यह फसल ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से महिलाओं और भूमिहीन मजदूरों को आजीविका का साधन प्रदान करती है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे राज्यों में कपास उद्योग ने ग्रामीण श्रमिकों के लिए बड़ी संख्या में रोज़गार के अवसर पैदा किए हैं। कपास से जुड़े कार्य जैसे जिनिंग, स्पिनिंग, बुनाई और वस्त्र निर्माण से लेकर परिवहन और निर्यात तक लाखों परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार आता है।

कपास उत्पादन में आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ
भारत में कपास उत्पादन के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ हैं जैसे – जलवायु परिवर्तन, कीट प्रकोप (विशेषकर सफेद मक्खी), उच्च रासायनिक उपयोग और पारंपरिक खेती की पद्धतियाँ। किसानों को अक्सर कम उपज, अधिक लागत और विपणन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। साथ ही, गुणवत्ता युक्त बीजों की अनुपलब्धता और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में पारदर्शिता की कमी भी एक बड़ी समस्या है। इन समस्याओं का समाधान किये बिना कपास की उत्पादकता और किसानों की आय में सुधार नहीं किया जा सकता।
सरकार द्वारा की जा रही पहलें और योजनाएँ
सरकार ने कपास उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए टेक्नोलॉजी मिशन ऑन कॉटन (TMC), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM) जैसी योजनाएँ शुरू की हैं। इन योजनाओं के माध्यम से उन्नत बीज, सिंचाई तकनीक, जैविक कीटनाशकों का उपयोग, और किसानों को प्रशिक्षण दिया जाता है। साथ ही, क्षेत्रीय स्तर पर कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से तकनीकी सलाह और फसल निगरानी की व्यवस्था की गई है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर किसानों को जागरूक बनाने और उन्हें आधुनिक कृषि तकनीकों से जोड़ने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं।
हर बच्चे के लिए सुरक्षित और शिक्षित बचपन
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
Concept II - Identity of Citizen
12-06-2025 09:11 AM
Lucknow-Hindi

बाल श्रम एक वैश्विक समस्या है, जो आज भी करोड़ों बच्चों के बचपन, शिक्षा और भविष्य को अंधकार में धकेल रही है। विश्व भर में ऐसे असंख्य बच्चे हैं जिन्हें खेलने-कूदने और पढ़ाई करने की उम्र में मजबूरन मजदूरी करनी पड़ती है। इसी गंभीर स्थिति की ओर समाज और सरकारों का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 12 जून को "बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस" मनाया जाता है। यह दिन न केवल बाल श्रम के खतरों और इसके प्रभावों के प्रति जागरूकता फैलाने का माध्यम है, बल्कि यह वैश्विक समुदाय को यह संकल्प दिलाता है कि हर बच्चे को शिक्षा, सुरक्षा और सम्मानपूर्ण जीवन का अधिकार मिलना चाहिए। इस लेख में हम जानेंगे कि बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस क्या होता है और इसे क्यों मनाया जाता है। हम समझेंगे कि इसका इतिहास क्या है और यह कैसे विकसित हुआ है। हम बाल श्रम के विभिन्न प्रकारों के बारे में पढ़ेंगे और जानेंगे कि बच्चे बाल श्रम में क्यों फँसते हैं, इसके पीछे कौन-कौन से सामाजिक और आर्थिक कारण होते हैं। अंत में, हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रम के खिलाफ बनाए गए महत्वपूर्ण नियमों और कानूनों के बारे में जानेंगे, जो इस गंभीर समस्या से निपटने में मदद करते हैं।
बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस क्या है और इसे क्यों मनाया जाता है
बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस (World Day Against Child Labour) हर वर्ष 12 जून को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य उन बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना है जो बाल श्रम की अमानवीय परिस्थितियों में फंसे हुए हैं। इस दिवस की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने वर्ष 2002 में की थी, ताकि दुनिया भर में लोगों को यह समझाया जा सके कि किस प्रकार बाल श्रम बच्चों के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास को बाधित करता है। इस दिवस के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि बच्चों का स्थान स्कूल और खेल के मैदान में है, न कि फैक्ट्रियों, खानों या खेतों में।
आज भी लगभग 100 से अधिक देश इस दिवस को जागरूकता अभियान, रैलियों, पोस्टरों, मीडिया कैंपेन और संगोष्ठियों के माध्यम से मनाते हैं। शोध के अनुसार, हर दसवां बच्चा दुनिया में बाल श्रम के चंगुल में है। लगभग 152 मिलियन बच्चे वर्तमान में बाल श्रम कर रहे हैं, जिनमें से 72 मिलियन खतरनाक परिस्थितियों में कार्यरत हैं। इन बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सुरक्षित बचपन से वंचित कर दिया गया है। यह दिवस इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सरकारों, संगठनों और आम जनता को एक साथ मिलकर बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने की प्रेरणा देता है, ताकि एक ऐसा समाज बन सके जहां हर बच्चा स्वतंत्रता, शिक्षा और सम्मान के साथ अपना बचपन जी सके।

बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस का इतिहास
बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस का इतिहास अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की लंबी यात्रा से जुड़ा हुआ है, जिसकी स्थापना 1919 में वैश्विक सामाजिक न्याय और श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए की गई थी। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने श्रमिकों, विशेषकर बच्चों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए समय-समय पर कई महत्वपूर्ण कन्वेंशन (अंतरराष्ट्रीय समझौते) बनाए।
साल 1973 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने कन्वेंशन संख्या 138 पारित किया, जिसका उद्देश्य था सदस्य देशों को यह बाध्य करना कि वे बच्चों के लिए न्यूनतम कार्य आयु निर्धारित करें और स्कूल जाने की उम्र से पहले उन्हें किसी भी प्रकार के रोजगार में न लगाया जाए। इसके बाद 1999 में कन्वेंशन संख्या 182 लागू किया गया, जिसे बाल श्रम के सबसे बुरे स्वरूपों पर कन्वेंशन (Worst Forms of Child Labour Convention) के नाम से जाना जाता है। इसका लक्ष्य था दुनिया भर से सबसे खतरनाक और शोषणकारी बाल श्रम जैसे—मानव तस्करी, वेश्यावृत्ति, जबरन श्रम और खतरनाक उद्योगों में बच्चों के कार्य को खत्म करना।
इन सभी प्रयासों के परिणति के रूप में वर्ष 2002 में विश्व बाल श्रम निषेध दिवस (World Day Against Child Labour) की शुरुआत हुई। इसका मकसद था विश्व समुदाय का ध्यान बाल श्रम की गंभीरता की ओर आकर्षित करना और इसके उन्मूलन के लिए ठोस कार्रवाई को प्रेरित करना। यह दिन अब वैश्विक मंच पर एक ऐसा अवसर बन गया है जब सरकारें, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, गैर-सरकारी संगठन और आम नागरिक एकजुट होकर बच्चों के लिए एक सुरक्षित और गरिमामय जीवन सुनिश्चित करने की दिशा में काम करते हैं। आईएलओ के अनुसार, जब तक हर बच्चा शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकारों से सशक्त नहीं होता, तब तक विकास अधूरा है।

बाल श्रम के प्रकार
बाल श्रम एक ऐसी सामाजिक बुराई है जो विभिन्न रूपों में दुनिया के अनेक देशों में व्याप्त है, विशेषकर विकासशील और गरीब देशों में। इसके कई प्रकार होते हैं, जो बच्चों की उम्र, कार्य की प्रकृति, और उस कार्य की परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं। सामान्यतः बाल श्रम को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है — सामान्य कार्य और खतरनाक कार्य।
(1) घरेलू बाल श्रम: इसमें बच्चे घरों में नौकर के रूप में काम करते हैं, जैसे सफाई, बर्तन धोना, बच्चों की देखभाल आदि। उन्हें अक्सर मामूली वेतन पर 10–12 घंटे काम करना पड़ता है और कई बार शारीरिक एवं मानसिक शोषण का भी सामना करना पड़ता है।
(2) खतरनाक श्रम: फैक्ट्रियों, खदानों, ईंट-भट्टों, पटाखा उद्योग, रसायन उद्योग, या निर्माण स्थलों पर बच्चों से कराए जाने वाले कार्य जो उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुँचा सकते हैं। इस श्रेणी में काम करने वाले बच्चों का जीवन हमेशा जोखिम में होता है।
(3) कृषि आधारित श्रम: ग्रामीण क्षेत्रों में कई बच्चे खेतों में काम करते हैं, बीज बोने, फसल काटने, कीटनाशकों के छिड़काव जैसे कार्यों में उन्हें लगाया जाता है। लंबे समय तक स्कूल से दूर रहने के कारण उनकी शिक्षा बाधित होती है।
(4) औद्योगिक एवं हस्तशिल्प कार्य: कालीन बुनाई, बीड़ी निर्माण, चूड़ी उद्योग, पटाखा निर्माण और चमड़ा उद्योग में भी बच्चों का बड़े पैमाने पर उपयोग होता है। ये काम कठिन, शारीरिक रूप से थकाने वाले और जोखिम भरे होते हैं।
(5) यौन शोषण से संबंधित श्रम: कुछ बच्चे जबरन वेश्यावृत्ति, बाल पोर्नोग्राफी, और मानव तस्करी में धकेले जाते हैं, जो सबसे भयावह, अमानवीय और अपराध की श्रेणी में आने वाला बाल श्रम है।
इन सभी श्रम रूपों में बच्चों का शोषण होता है और यह उनके जीवन, स्वास्थ्य, शिक्षा और भविष्य दोनों को खतरे में डालता है। इन परिस्थितियों से बच्चों को निकालना एक नैतिक और कानूनी दायित्व होना चाहिए।

बच्चे बाल श्रम में क्यों फँसते हैं?
बाल श्रम के पीछे कई गहरे और जटिल सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं, जो केवल एक पहलू तक सीमित नहीं रहते।
(1) गरीबी: यह सबसे बड़ा और प्रमुख कारण है। जब परिवारों की आर्थिक स्थिति खराब होती है और माता-पिता के पास पर्याप्त आय के साधन नहीं होते, तो वे बच्चों को कम उम्र में ही काम पर भेज देते हैं ताकि वे पारिवारिक आय में योगदान दे सकें।
(2) शिक्षा की कमी और स्कूलों की अनुपलब्धता: कई क्षेत्रों में शिक्षा की सुविधाएं या तो पर्याप्त नहीं होतीं, या स्कूल बहुत दूर होते हैं। कुछ स्कूलों की गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि बच्चे वहाँ रुचि नहीं लेते। नतीजतन, वे स्कूल छोड़कर काम में लग जाते हैं।
(3) सामाजिक कुरीतियाँ और परंपराएँ: कुछ समुदायों में यह धारणा होती है कि बच्चा जितनी जल्दी कमाना शुरू करे, उतना ही परिवार के लिए बेहतर है। यह सोच बच्चों को शिक्षा से दूर कर देती है।
(4) मानव तस्करी और जबरन मजदूरी: कई बार संगठित अपराध और मानव तस्करी नेटवर्क के तहत बच्चों को अगवा कर जबरन खतरनाक कामों में लगाया जाता है। इनमें बच्चे मानसिक, शारीरिक और यौन शोषण के शिकार होते हैं।
(5) कानूनों का कमजोर क्रियान्वयन: बाल श्रम के खिलाफ कई सशक्त कानून मौजूद हैं, लेकिन उनकी निगरानी और पालन सही रूप से नहीं होता। कई बार भ्रष्टाचार और प्रशासनिक उदासीनता के कारण दोषी बच निकलते हैं, और बच्चे शोषण के चक्रव्यूह में फँसे रह जाते हैं।
इन कारणों से लाखों बच्चे अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था — बचपन — को कठिनाइयों, शोषण और शिक्षा से वंचित रहकर व्यतीत करते हैं, जो उनके संपूर्ण विकास को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।

अंतरराष्ट्रीय नियम और कानून
विश्व स्तर पर बाल श्रम एक गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन माना जाता है। इसी को ध्यान में रखते हुए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने बाल श्रम के विरुद्ध कई महत्वपूर्ण कानून और नीतियाँ बनाई हैं।
(1) अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization - ILO): यह संस्था 1919 में स्थापित की गई थी और इसका उद्देश्य दुनिया भर में श्रमिकों के लिए न्यायसंगत और गरिमापूर्ण कार्य परिस्थितियाँ सुनिश्चित करना है। आईएलओ के पास अब 187 सदस्य देश हैं।
(2) आईएलओ कन्वेंशन 138 (Convention No. 138): इस कन्वेंशन के अनुसार सदस्य देशों को न्यूनतम कार्य आयु तय करनी होती है और इसे धीरे-धीरे बढ़ाकर शिक्षा की प्राथमिकता सुनिश्चित करनी होती है।
(3) आईएलओ कन्वेंशन 182 (Convention No. 182): यह कन्वेंशन बाल श्रम के सबसे खराब रूप (Worst Forms) को समाप्त करने पर केंद्रित है, जैसे — गुलामी, वेश्यावृत्ति, मादक पदार्थों की तस्करी में जबरन संलिप्तता आदि।
(4) UN Convention on the Rights of the Child (UNCRC): यह संधि बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा और गरिमा के अधिकारों की रक्षा करती है।
(5) World Day Against Child Labour (12 जून): वर्ष 2002 में आईएलओ ने इस दिन की स्थापना की थी ताकि वैश्विक स्तर पर बाल श्रम के खिलाफ जन जागरूकता बढ़ाई जा सके। यह दिन बच्चों को गरिमापूर्ण जीवन, शिक्षा और बचपन देने के लिए प्रतिबद्धता को दोहराने का अवसर है।
(6) Sustainable Development Goal 8.7 (SDG 8.7): यह लक्ष्य 2025 तक खतरनाक बाल श्रम के सभी रूपों को समाप्त करने की दिशा में काम करता है और सदस्य देशों को सहयोगात्मक प्रयासों के लिए प्रेरित करता है।
संदर्भ-
लखनऊ और अउद की खुशबू: एक ऐतिहासिक इत्र यात्रा
गंध- ख़ुशबू व इत्र
Smell - Odours/Perfumes
11-06-2025 09:15 AM
Lucknow-Hindi

इत्र, केवल एक सुगंध नहीं बल्कि संस्कृति, विरासत और परंपरा की महक है। लखनऊ, जिसे नवाबों का शहर कहा जाता है, वहां इत्र न केवल एक सजावटी वस्तु रहा है, बल्कि एक जीवनशैली का हिस्सा भी। वहीं दूसरी ओर, अउद तेल—जो दुनिया का सबसे महंगा प्राकृतिक इत्र तेल माना जाता है—भारत सहित दक्षिण एशिया की परंपरा और भव्यता का प्रतीक रहा है। यह लेख लखनऊ की इत्र परंपरा, अउद की उत्पत्ति, उपयोग और वैश्विक पहचान, तथा इन दोनों के आपसी संबंध पर विस्तार से प्रकाश डालता है।
इस लेख में सबसे पहले हम लखनऊ में इत्र के ऐतिहासिक महत्व और इसकी सांस्कृतिक जड़ों को जानेंगे। इसके बाद हम अउद तेल की उत्पत्ति, उसका वैज्ञानिक निर्माण और व्यावसायिक मूल्य समझेंगे। लेख में लखनऊ की विशेष इत्र परंपराओं—जैसे ‘शम्मा’ और ‘मजमुआ’—का भी उल्लेख होगा, जो इस शहर की अनूठी पहचान हैं। अंत में हम आज के आधुनिक दौर में लखनऊ के इत्र व्यवसाय की स्थिति और प्रसिद्ध दुकानों पर भी चर्चा करेंगे।

लखनऊ और इत्र का ऐतिहासिक रिश्ता
लखनऊ की पहचान अगर तहज़ीब, अदब और शायरी है, तो इत्र उसकी आत्मा है। इस नवाबी शहर में इत्र न केवल सौंदर्य का प्रतीक रहा है, बल्कि यह धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी महत्वपूर्ण रहा है। माना जाता है कि भारत में इत्र का प्रयोग सिंधु घाटी सभ्यता (3000 ईसा पूर्व) से होता आया है। धर्मग्रंथों, पुराणों, और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भी इत्र के प्रयोग का वर्णन मिलता है। मुगल काल में विशेषकर गुलाब जल और इत्र के अनेक प्रकारों का प्रचलन हुआ। लखनऊ में हजरतगंज के पास स्थित 'इत्र साज' आज भी उन ऐतिहासिक इत्रों को जीवित रखे हुए है। यहाँ मिलने वाले इत्रों में 'गुलाम', 'मलक', 'नेमत', 'चाहत', आदि लोकप्रिय हैं।

अउद तेल: तरल सोने जैसी कीमती सुगंध
अउद तेल, जिसे अगरवुड या एलोसवुड तेल भी कहा जाता है, विश्व के सबसे महंगे इत्र घटकों में से एक है। यह तेल अगर के पेड़ से प्राप्त होता है, जो मूलतः भारत, बांग्लादेश, चीन और जापान जैसे एशियाई देशों में पाया जाता है। इसकी खासियत यह है कि जब पेड़ की लकड़ी पर एक विशेष प्रकार का कवक (फिआलोफोरा पैरासिटिका) हमला करता है, तब उसमें एक गाढ़ी सुगंधित राल उत्पन्न होती है। यही राल बाद में आसवन (डिस्टिलेशन) प्रक्रिया द्वारा तेल में बदली जाती है। इस प्रक्रिया की कठिनाई, पेड़ की दुर्लभता और सुगंध की विशिष्टता के कारण इसकी कीमत प्रति पौंड लगभग $5000 तक पहुंच जाती है। इसीलिए इसे 'तरल सोना' भी कहा जाता है।
धार्मिक, सांस्कृतिक और चिकित्सीय महत्व
अउद और इत्र का प्रयोग केवल सजावटी या व्यक्तिगत उपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह धार्मिक और चिकित्सकीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। भारत में इसे देवताओं की पूजा में धूप और अगरबत्ती के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस्लामी दुनिया में यह व्यक्तिगत इत्र के रूप में अत्यधिक लोकप्रिय है। आयुर्वेद में भी इसकी सुगंध को मानसिक शांति और शारीरिक संतुलन के लिए उपयोगी माना गया है। यही कारण है कि यह सिर्फ एक व्यापारिक उत्पाद नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव का माध्यम भी बन चुका है।
लखनऊ का योगदान: ‘शम्मा’ और ‘मजमुआ’ जैसे इत्र का आविष्कार
लखनऊ ने इत्र की दुनिया को कई अनूठे और आकर्षक प्रकार दिए हैं। इनमें से 'शम्मा' और 'मजमुआ' विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। ‘शम्मा’ में मोहक, मीठी और सुलगती हुई सुगंध का संगम होता है, जबकि ‘मजमुआ’ चार अलग-अलग इत्रों का मिश्रण है जो एक परिष्कृत और परतदार सुगंध बनाता है। इन इत्रों में तीव्रता और सौम्यता का संतुलन लाजवाब होता है, जो लखनऊ की सांस्कृतिक बारीकी को दर्शाता है। यह इत्र न केवल घरेलू उपयोग में आते हैं, बल्कि विदेशों में भी उपहार और संग्रहणीय वस्तुओं की तरह खरीदे जाते हैं।

आधुनिक युग में लखनऊ का इत्र व्यवसाय
आज के समय में जहां रासायनिक परफ्यूम का चलन बढ़ा है, वहीं लखनऊ ने अपने पारंपरिक इत्र निर्माण को जीवित रखा है। शहर के प्रतिष्ठित इत्र प्रतिष्ठान जैसे ‘सुगंधकों’, ‘फ्राग्रंटो अरोमा लैब’ और ‘सुगंध वाइपर’ न केवल इत्र बेचते हैं, बल्कि संस्कृति और परंपरा को भी संजोए हुए हैं। यहाँ 150 रुपए से लेकर 12,000 रुपए तक के इत्र उपलब्ध हैं, जो ग्राहकों की अलग-अलग पसंद और बजट के अनुसार खरीदे जा सकते हैं। लखनऊ का इत्र आज केवल एक उत्पाद नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक धरोहर और यादगार उपहार बन चुका है।
कोबरा से पाइथन तक: भारतीय सर्पों की रहस्यमयी और विविध दुनिया
रेंगने वाले जीव
Reptiles
10-06-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

भारत विविध जैविक संपदा वाला देश है, जहां असंख्य प्रकार के जीव-जंतु पाए जाते हैं। इन जीवों में सर्पों का विशेष स्थान है। भारतीय संस्कृति, इतिहास और लोककथाओं में सर्पों को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। विशेषकर, कोबरा और पाइथन जैसे सर्प न केवल जैव विविधता का हिस्सा हैं, बल्कि धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक प्रतीकों के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।
यद्यपि दोनों सर्प विशाल और प्रभावशाली माने जाते हैं, फिर भी उनकी जीवनशैली, शरीर संरचना, आहार और व्यवहार में महत्वपूर्ण भिन्नताएँ हैं।
आज हम कोबरा और पाइथन के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले हम कोबरा के स्वरूप, रहन-सहन और सांस्कृतिक महत्व को समझेंगे। फिर हम पाइथन की भव्यता और उसकी विशिष्ट जीवनशैली पर नज़र डालेंगे। इसके बाद हम देखेंगे कि इन दोनों सर्पों की रक्षा व संरक्षण हेतु भारत में क्या प्रयास किए जा रहे हैं। अंततः, हम दोनों सर्प प्रजातियों के बीच मूलभूत भिन्नताओं को भी जानेंगे। इसके अतिरिक्त, हम यह भी जानेंगे कि यदि कोबरा या पाइथन के काटने की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो तत्काल कौन-से उपचार और प्राथमिक चिकित्सा उपाय अपनाए जाने चाहिए।

कोबरा: शक्ति और रहस्य का प्रतीक
कोबरा, जिसे भारतीय संदर्भ में नाग या नागराज भी कहा जाता है, भारत का सबसे प्रसिद्ध सर्प है। वैज्ञानिक दृष्टि से, भारतीय कोबरा (Naja naja) 'एलापिडे' कुल का सदस्य है। इसकी सबसे प्रमुख पहचान इसके फन या हुड से होती है, जिसे खतरा महसूस होने पर यह फैलाकर अपने आकार को बड़ा और भयावह बना लेता है।
कोबरा का विष अत्यंत शक्तिशाली होता है और यह मुख्यतः तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) पर प्रभाव डालता है। हालाँकि कोबरा स्वभावतः शांतिप्रिय होता है और तभी आक्रमण करता है जब वह स्वयं को संकट में महसूस करता है।
भारत में कोबरा का धार्मिक महत्व भी अत्यधिक है। हिंदू धर्म में भगवान शिव के गले में सर्प लिपटा हुआ दिखाया जाता है, जो जीवन-मृत्यु के चक्र का प्रतीक है। नाग पंचमी जैसे पर्व विशेषतः सर्पों को समर्पित हैं, जहाँ कोबरा की पूजा की जाती है।
कोबरा विभिन्न प्रकार के आवासों में पाया जा सकता है — जंगल, खेतों, यहाँ तक कि मानव बस्तियों के निकट भी। इसकी भोजन श्रृंखला में मुख्यतः छोटे स्तनधारी, मेंढक, अन्य सर्प और कभी-कभी पक्षी आते हैं।

पाइथन: विशालता और धैर्य का प्रतीक
पाइथन, विशेषतः भारतीय अजगर (Python molurus), भारत के सबसे बड़े गैर-विषैले सर्पों में से एक है। इसकी लंबाई प्रायः 10-20 फीट तक हो सकती है और इसका शरीर मजबूत, भारी तथा सुगठित होता है।
पाइथन विषहीन होते हैं, लेकिन अपने शिकार को पकड़ने और दम घोटकर मारने में माहिर होते हैं। वे अत्यंत धैर्यशील शिकारी होते हैं, जो अपने शिकार का चुपचाप इंतजार करते हैं और सही समय पर आक्रमण करते हैं। भारतीय अजगर नदियों के किनारे, दलदली इलाकों, घने जंगलों और घास के मैदानों में पाए जाते हैं। इनका मुख्य आहार छोटे स्तनधारी, पक्षी और सरीसृप होते हैं। अपने आकार के कारण वे बड़े शिकार जैसे हिरण या जंगली सुअर को भी निगल सकते हैं।
पाइथन भारतीय लोककथाओं और परंपराओं में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। कई आदिवासी समुदायों में पाइथन को वनदेवता का रूप माना जाता है और उसकी पूजा की जाती है।

भारतीय सर्पों का संरक्षण
भारत में सर्प संरक्षण एक गंभीर और आवश्यक विषय बनता जा रहा है। वनों की कटाई, शहरीकरण और मानव-सर्प संघर्ष के कारण इनकी आबादी पर संकट मंडरा रहा है। कोबरा और पाइथन, दोनों ही वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत संरक्षित प्रजातियाँ हैं।
विशेष रूप से कोबरा की त्वचा और पाइथन की खाल के लिए अवैध शिकार किया जाता रहा है। हालाँकि सरकार और कई गैर-सरकारी संगठनों ने सर्प संरक्षण के लिए जागरूकता अभियानों और बचाव कार्यक्रमों की शुरुआत की है। इसके अतिरिक्त, सर्प विशेषज्ञों और 'रेसक्यू टीमों' द्वारा सर्पों को सुरक्षित स्थानों पर पुनर्स्थापित करने का कार्य भी किया जाता है, ताकि मानव-सर्प संघर्ष को न्यूनतम किया जा सके।

सर्पदंश के उपचार और प्राथमिक चिकित्सा
यदि कोबरा जैसे विषैले सर्प का डंक लग जाए या किसी भी प्रकार का सर्पदंश हो, तो तत्काल सही कदम उठाना जीवन रक्षक सिद्ध हो सकता है।
नीचे सर्पदंश के उपचार और प्राथमिक चिकित्सा के मुख्य उपाय दिए गए हैं:
• शांत रहें और घबराएँ नहीं: घबराने से हृदय गति तेज हो सकती है, जिससे विष का शरीर में तेजी से प्रसार होता है। शांत रहने का प्रयास करें।
• दंश वाले अंग को स्थिर रखें: जिस अंग को सर्प ने काटा है, उसे दिल के नीचे के स्तर पर स्थिर रखें। अधिक हिलाने-डुलाने से विष का प्रसार तेज हो सकता है।
• तुरंत चिकित्सकीय सहायता लें: सर्पदंश के बाद बिना देरी किए नजदीकी अस्पताल जाएं। विशेषकर कोबरा के विष के लिए एंटी-वेनम (सर्प विष प्रतिशोधी इंजेक्शन) जरूरी होता है।
• दंश स्थल को न काटें या चूसें नहीं: पुराने समय की मान्यताओं के विपरीत, काटने या चूसने से संक्रमण बढ़ सकता है। ऐसा न करें।
• पट्टी का हल्का दबाव डालें: यदि संभव हो, तो एक साफ पट्टी से हल्का दबाव दें, लेकिन रक्त संचार को पूरी तरह बंद न करें। यह विष के प्रसार को धीमा कर सकता है।
• पाइथन के काटने के मामले में: यद्यपि पाइथन विषहीन होते हैं, उनके काटने से घाव, संक्रमण या आंतरिक चोटें हो सकती हैं। अतः घाव को साफ पानी से धोकर एंटीसेप्टिक लगाएँ और चिकित्सक से संपर्क करें।
महत्वपूर्ण:
सर्प का प्रकार पहचानने का प्रयास करें (यदि संभव हो) लेकिन सर्प को पकड़ने या मारने की कोशिश न करें। प्राथमिकता तुरंत उपचार प्राप्त करने की होनी चाहिए।
कोबरा और पाइथन में प्रमुख अंतर
यद्यपि दोनों सर्प विशाल और प्रभावशाली हैं, फिर भी उनमें कुछ मूलभूत भिन्नताएँ हैं।
• विष और विषहीनता: कोबरा जहरीला होता है, जबकि पाइथन विषहीन होता है।
• शिकार की विधि: कोबरा अपने विष से शिकार को मारता है, जबकि पाइथन शिकार को जकड़ कर दम घोटता है।
• आकार: पाइथन का आकार आमतौर पर कोबरा से कहीं बड़ा और भारी होता है।
• रहन-सहन: कोबरा अपेक्षाकृत शहरी क्षेत्रों के आसपास भी पाया जा सकता है, जबकि पाइथन अधिकतर दूरदराज के वनों और जलाशयों के पास रहता है।
• सांस्कृतिक महत्व: कोबरा विशेष रूप से धार्मिक प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित है, जबकि पाइथन को मुख्यतः लोकमान्यताओं और पारंपरिक विश्वासों में स्थान मिला है।
प्राचीन भारतीय गणित और वास्तुकला: जब संख्याएं बनीं सौंदर्य का आधार
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
09-06-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

भारत का गणितीय इतिहास केवल अंकगणना की सीमा तक नहीं सिमटा है, बल्कि यह एक जीवंत परंपरा है जिसने विज्ञान, दर्शन, कला और स्थापत्य को समान रूप से प्रभावित किया है। प्राचीन भारत में गणित को न केवल एक बौद्धिक अभ्यास के रूप में देखा गया, बल्कि इसे जीवन के सौंदर्य और संतुलन से जोड़कर भी समझा गया। भारतीय गणितज्ञों के नवाचारों से लेकर भव्य मंदिरों और वेधशालाओं तक, हर पहलु यह सिद्ध करता है कि गणित भारत की सांस्कृतिक चेतना में गहराई से समाया हुआ है। इस लेख में हम इस सांस्कृतिक विरासत को समझने के लिए चार मुख्य पहलुओं की चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम प्राचीन भारतीय गणित की नींव और इसके ऐतिहासिक विकास की दिशा में झांकेंगे, जहां संख्याओं ने एक दार्शनिक और व्यावहारिक आधार प्राप्त किया। उसके बाद, हम उन महान गणितज्ञों के योगदानों की चर्चा करेंगे, जिन्होंने विश्व गणित को नई दिशाएं दीं और जटिल अवधारणाओं को सरल सूत्रों में बांधा। इसके आगे, हम जानेंगे कि भारतीय स्थापत्य में किस प्रकार गणितीय सटीकता और ज्यामितीय सौंदर्य को आधार बनाकर भव्य मंदिरों और संरचनाओं की रचना की गई। अंत में, हम यह विचार करेंगे कि भारत की गणित और वास्तुकला की यह ज्ञान परंपरा किस प्रकार आज भी वैश्विक जगत को प्रेरित कर रही है।

प्राचीन भारतीय गणित की नींव और ऐतिहासिक विकास
भारत की गणितीय परंपरा का आरंभ सिंधु घाटी सभ्यता से माना जाता है, जहां 3000 ईसा पूर्व के दौरान माप-तौल की प्रणालियों में परिपक्वता दिखाई देती है। मोहनजो-दारो और हड़प्पा जैसे नगरों में समान आकार की ईंटें, जल निकासी योजनाएं और ज्यामितीय सड़कों की रूपरेखा इस बात का प्रमाण हैं कि गणित का व्यावहारिक प्रयोग समाज के निर्माण में गहराई से जुड़ा था। वैदिक युग के ‘शुल्ब सूत्रों’ में यज्ञ वेदियों के निर्माण हेतु जटिल ज्यामिति का उल्लेख मिलता है। इन सूत्रों में वृत्त, त्रिकोण और वर्ग जैसे आकृतियों का प्रयोग यज्ञ के आध्यात्मिक अर्थ के साथ किया गया। यह ज्ञान न केवल धार्मिक उद्देश्यों तक सीमित था, बल्कि खगोलशास्त्र और समय निर्धारण में भी प्रयुक्त होता था, जिससे गणना प्रणाली एक जीवंत परंपरा बन गई।

महान गणितज्ञों के योगदान
भारत ने विश्व को अनेक ऐसे गणितज्ञ प्रदान किए हैं, जिन्होंने गणित को एक विज्ञान से कहीं अधिक—एक दर्शन और जीवनशैली के रूप में प्रस्तुत किया। आर्यभट्ट, जिन्होंने 5वीं शताब्दी में 'आर्यभटीय' ग्रंथ की रचना की, ने दशमलव प्रणाली को स्थापित किया और π (पाई) के सटीक मान का अनुमान लगाया। ब्रह्मगुप्त ने ऋणात्मक संख्याओं और शून्य के व्यवहार को स्पष्ट किया, जो आधुनिक बीजगणित की नींव बने। भास्कराचार्य द्वितीय की ‘लीलावती’ और ‘बीजगणित’ जैसी कृतियां गणित को एक रोचक और सौंदर्यात्मक भाषा में प्रस्तुत करती हैं। इन गणितज्ञों के कार्यों में कलन, त्रिकोणमिति, खगोलगणना जैसी जटिल अवधारणाओं की प्रारंभिक झलक मिलती है—वे सिद्धांत जो यूरोपीय पुनर्जागरण से सदियों पहले ही भारत में मौजूद थे।

वास्तुकला में गणित की झलक और अनुप्रयोग
भारतीय स्थापत्य कला न केवल धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति है, बल्कि यह एक गणितीय समझ का भी प्रतिरूप है। खजुराहो, कोणार्क, तंजावुर और मदुरै जैसे स्थानों पर बने मंदिरों की संरचनाएं अत्यंत सटीक अनुपात, सममिति और ज्यामिति पर आधारित हैं। उदाहरणस्वरूप, कोणार्क का सूर्य मंदिर, जो एक विशाल रथ के आकार में निर्मित है, 24 पहियों के माध्यम से समय चक्र और सौर गति को दर्शाता है। इन पहियों की नक्काशी और उनका व्यास स्पष्ट रूप से गणितीय गणनाओं पर आधारित हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों की गोपुरम संरचनाओं की ऊंचाई, चरणों की संख्या और वास्तु योजना सभी कुछ गणितीय सूत्रों के अनुसार तय किए जाते थे। यहां गणित न केवल योजना में, बल्कि स्थापत्य की आत्मा में समाहित होता था—जहां प्रत्येक ईंट और कोण एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक संवाद बनाता था।

भारत की गणित और वास्तुकला दृष्टि की वैश्विक प्रेरणा
प्राचीन भारतीय गणित और वास्तुकला का प्रभाव आज भी केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि समकालीन वैश्विक सोच को भी प्रभावित कर रहा है। भारतीय गणना प्रणाली ने शून्य और दशमलव प्रणाली जैसी मौलिक अवधारणाएं विश्व को दीं, जिनके बिना आधुनिक कंप्यूटिंग की कल्पना असंभव है। वास्तुकला की दृष्टि से, ऊर्जा प्रवाह, सममिति और प्राकृतिक तत्वों के संतुलन को ध्यान में रखकर बनाई गई भारतीय संरचनाएं आज के स्थायी और हरित निर्माण मॉडल के लिए आदर्श मानी जा रही हैं। जयपुर की जंतर मंतर वेधशाला, जो बिना किसी आधुनिक उपकरण के खगोलीय गणनाएं करती थी, इस बात की प्रतीक है कि भारत में वैज्ञानिक चेतना कितनी उन्नत थी। दुनिया भर में पुनः भारतीय वास्तुशास्त्र और गणितीय अवधारणाओं पर शोध हो रहे हैं। यह विरासत आज भी विज्ञान और सौंदर्य का मार्गदर्शन करती है।
लाइफ़ ऑफ़ पाई: आस्था, संघर्ष और साहस की एक रूपक यात्रा
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
08-06-2025 09:08 AM
Lucknow-Hindi

कभी-कभी एक कहानी सिर्फ कल्पना नहीं होती, वह हमारी आस्था, अस्तित्व और साहस की असली तस्वीर बन जाती है। यान मार्टेल ((Yann Martel)) द्वारा 2001 में प्रकाशित उपन्यास 'लाइफ़ ऑफ़ पाई' (Life of Pi) ऐसी ही एक अविस्मरणीय यात्रा है, जिसमें धर्म, प्रकृति और मानव आत्मा का अद्वितीय संगम देखने को मिलता है।
यह कहानी है पाई पटेल नामक एक 16 वर्षीय भारतीय किशोर की, जो एक जहाज़ दुर्घटना में जीवित बचता है। लेकिन असली संघर्ष तो तब शुरू होता है, जब वह प्रशांत महासागर में एक बड़ी लाइफबोट पर अकेला रह जाता है—साथ में होते हैं कुछ जंगली जानवर: एक ज़ेब्रा, एक ऑरंगुटान (Orangutan), एक हिंसक लकड़बग्घा और अंततः केवल एक जीवित साथी बचता है—रिचर्ड पार्कर (Richard Parker), एक खूंखार बंगाल टाइगर।
227 दिनों तक पाई समुद्र में उसी टाइगर के साथ जीवन और मृत्यु के बीच झूलता है। वह न केवल शारीरिक रूप से जीवित रहता है, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी एक नई समझ तक पहुंचता है। उसकी धार्मिक आस्था जिसमें ईसाई धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म का समावेश है, उसे हर दिन प्रार्थना करने और खुद को मानसिक रूप से मजबूत बनाए रखने में मदद करती है। उसकी मां का कहना कि “या तो एक धर्म में विश्वास करो, या किसी में नहीं,” उसके जीवन की विचारधारा पर सवाल उठाती है, परंतु पाई का उत्तर उसकी जीवन शैली और जीने के जज़्बे में छिपा है।
लाइफ़ ऑफ़ पाई केवल एक रोमांचक जीवित रहने की कहानी नहीं है, यह एक गहराई से भरी रूपक कथा (allegory) भी है। इसमें विलियम ब्लेक की प्रसिद्ध कविता "The Tyger" की प्रतिध्वनि मिलती है, जो प्रकृति की हिंसा और सौंदर्य दोनों को दर्शाती है। उपन्यास में मार्टेल समय-समय पर अपनी टिप्पणियाँ जोड़ते हैं, जिससे कहानी और भी अधिक जीवन्त और चिंतनशील हो जाती है।
यह उपन्यास 2002 में प्रतिष्ठित हुआ और इसे बुकर पुरस्कार (Booker Prize) से भी सम्मानित किया गया। इसके बाद 2012 में अंग ली द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लाइफ़ ऑफ़ पाई’ आई, जिसने इस कहानी को एक नया दृष्टिकोण दिया। सूरज शर्मा ने पाई की भूमिका में अपनी पहली फिल्म से ही दर्शकों का दिल जीत लिया। फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सराहना मिली—11 ऑस्कर नामांकन और 4 पुरस्कारों के साथ, जिसमें अंग ली को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का अकादमी अवॉर्ड भी मिला।
चाहे वह किताब हो या फिल्म, लाइफ़ ऑफ़ पाई हमें यह सिखाती है कि कभी-कभी एक भयावह संघर्ष में भी आस्था और कल्पना के सहारे जीवन को नया अर्थ दिया जा सकता है। यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें खुद से जुड़ने, प्रकृति को समझने और जीवन की असली परीक्षा को स्वीकारने की प्रेरणा देती है।
संदर्भ-
संस्कृति 2060
प्रकृति 708