मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












मेरठवासियो, जानिए कैसे नवरात्रि पूरे भारत में भक्ति और उत्सव के अनोखे रंग बिखेरती है
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
28-09-2025 09:03 AM
Meerut-Hindi

नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं मेरठ!
नवरात्रि केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति में नारी शक्ति की दिव्यता और प्रकृति के चक्रों के साथ सामंजस्य का उत्सव है। ‘नवरात्रि’ शब्द संस्कृत के “नव” यानी नौ और “रात्रि” यानी रात से मिलकर बना है। यह पर्व देवी दुर्गा के नौ रूपों को समर्पित होता है। हर दिन एक अलग रूप की पूजा होती है, और भक्त उपवास, ध्यान और पूजा के ज़रिए माँ दुर्गा से आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। नवरात्रि साल में पाँच बार मनाई जाती है - चैत्र, शारदीय, आषाढ़, पौष और माघ माह में। हालांकि इनमें से चैत्र और शारदीय नवरात्रि को ही व्यापक रूप से मनाया जाता है। ये दोनों पर्व मौसम के बदलाव के समय आते हैं, और आत्मिक नवीनीकरण का अवसर प्रदान करते हैं।
चैत्र नवरात्रि वसंत ऋतु में, मार्च-अप्रैल के महीने में आती है। यह कई क्षेत्रों में हिंदू नववर्ष की शुरुआत मानी जाती है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में इसे 'गुड़ी पड़वा', कश्मीर में 'नवरेह' और दक्षिण भारत में 'उगादि' के रूप में मनाया जाता है। चैत्र नवरात्रि का समापन राम नवमी के दिन होता है, जो भगवान राम के जन्म का पर्व है। वहीं दूसरी ओर, शारदीय नवरात्रि सबसे प्रसिद्ध और व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व है। यह सितंबर-अक्टूबर के महीनों में आता है, जब वर्षा ऋतु समाप्त हो रही होती है और शरद ऋतु का आरंभ होता है। इस नवरात्रि में माँ दुर्गा के महिषासुर पर विजय की कथा के माध्यम से बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश दिया जाता है। दसवें दिन विजयादशमी या दशहरा मनाया जाता है, जो भगवान राम की रावण पर विजय का प्रतीक है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/4s3xpcb5
https://tinyurl.com/3juvve9e
https://tinyurl.com/yjb3n3k2
https://tinyurl.com/44supk7v
https://tinyurl.com/ykpjm7xf
मेरठ के ऊर्जा भविष्य की कुंजी: कार्बन तय करता है कोयले की असली गुणवत्ता
खनिज
Minerals
27-09-2025 09:11 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब हम अपने शहर की गलियों में जलती स्ट्रीट लाइटों (street lights), दिन-रात चलती मशीनों, और घरों में गर्मी से राहत देती पंखों की हवा को महसूस करते हैं, तो शायद ही कभी ठहरकर सोचते हैं कि इन सबके पीछे काम कर रही असली शक्ति कहाँ से आती है। ऊर्जा - जो हमारे जीवन की धड़कन है - वह केवल एक बटन दबाते ही नहीं आती, बल्कि उसके पीछे एक विशाल वैज्ञानिक, प्राकृतिक और औद्योगिक प्रक्रिया होती है। भारत जैसे विशाल देश में, और ख़ासतौर पर मेरठ जैसे तेज़ी से बढ़ते शहर में, इस ऊर्जा की रीढ़ आज भी एक पारंपरिक संसाधन है - कोयला। कोयला कोई साधारण पदार्थ नहीं है; यह लाखों वर्षों से पृथ्वी के भीतर दबे जैविक अवशेषों का परिणाम है, जो अब हमारी आर्थिक और तकनीकी प्रगति का आधार बन चुका है। मेरठ, जहाँ छोटे-बड़े उद्योग, शिक्षा संस्थान और तेज़ी से फैलती शहरी आबादी है, वहाँ बिजली की माँग केवल सुविधा नहीं, बल्कि ज़रूरत बन चुकी है। ऐसे में यह जानना बेहद ज़रूरी है कि जिस कोयले से यह ऊर्जा निकलती है, उसकी गुणवत्ता किस बात पर निर्भर करती है? और इसका उत्तर एक ही शब्द में छिपा है - कार्बन (carbon)। कार्बन ही वह तत्व है जो कोयले की असली पहचान तय करता है - वह कोयला उच्च गुणवत्ता वाला है या साधारण, वह ऊर्जा ज़्यादा देगा या कम, वह साफ़ जलेगा या धुएँ से भरा होगा। यह लेख, इस सूक्ष्म लेकिन बेहद महत्वपूर्ण तत्व पर केंद्रित है। इसमें हम समझेंगे कि कोयले के भीतर मौजूद कार्बन की मात्रा किस तरह से न केवल ऊर्जा उत्पादन को प्रभावित करती है, बल्कि हमारे पर्यावरण, हमारी जेब और हमारे शहर के विकास की दिशा भी तय करती है।
इस लेख में हम यह समझेंगे कि कार्बन क्या है और इसके कौन-कौन से प्रमुख रूप - एलोट्रोप्स (Allotropes) - होते हैं, जो कोयले की संरचना से भी जुड़े हैं। इसके बाद हम जानेंगे कि कोयला कैसे कार्बन का एक अनाकार अपरूप है और इसकी संरचना किन-किन तत्वों से मिलकर बनी होती है। आगे विस्तार से समझेंगे कि कोयले की गुणवत्ता को निर्धारित करने में कार्बन की मात्रा किस तरह मुख्य भूमिका निभाती है। साथ ही चर्चा करेंगे कोयले के विभिन्न प्रकारों पर - जैसे एन्थ्रेसाइट (Anthracite), बिटुमिनस (Bituminous), उप-बिटुमिनस (Sub-bituminous) और लिग्नाइट (Lignite) - तथा इनमें उपस्थित कार्बन की प्रतिशतता किस प्रकार इनकी उपयोगिता तय करती है।

कार्बन क्या है और इसके कौन-कौन से रूप होते हैं?
कार्बन प्रकृति में पाया जाने वाला एक अत्यंत बहुमुखी और प्रचुर मात्रा में उपस्थित तत्व है, जिसे अक्सर "कोयले की रीढ़" के रूप में जाना जाता है। यह पृथ्वी पर पाया जाने वाला सत्रहवाँ सबसे प्रचुर तत्व है, जो जीवित जीवों के साथ-साथ अनेक निर्जीव वस्तुओं में भी पाया जाता है। पौधे, जानवर, इंसान, और यहाँ तक कि हवा में भी कार्बन उपस्थित होता है - कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide - CO₂) - के रूप में। रसायन विज्ञान में इसके यौगिकों के अध्ययन के लिए एक अलग शाखा "कार्बनिक रसायन विज्ञान" (Organic Chemistry) बनाई गई है, जो दर्शाता है कि यह तत्व वैज्ञानिक दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है। कार्बन के कुछ प्रमुख मुक्त रूप हीरा (Diamond), ग्रेफाइट (Graphite), और कोयला (Coal) हैं। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने हाल के वर्षों में कार्बन के और भी जटिल रूपों की खोज की है, जैसे - बकमिनस्टरफुलरीन (Buckminsterfullerene), ग्राफीन (Graphene), नैनोट्यूब्स (Nanotubes), नैनोबड्स (Nanobuds) और नैनोरिबन्स (Nanoribbons)। ये सभी एलोट्रोप्स यानी एक ही तत्व के विभिन्न संरचनात्मक रूप हैं, जिनके भौतिक गुण एक-दूसरे से बेहद भिन्न हो सकते हैं। हीरा जहाँ अत्यंत कठोर होता है, वहीं ग्रेफाइट बिजली का अच्छा सुचालक है। ग्राफीन को अब तक का सबसे पतला और मजबूत पदार्थ माना जाता है। एलोट्रोप्स को दो श्रेणियों में बाँटा जाता है - क्रिस्टलीय और अनाकार। क्रिस्टलीय रूप में अणु एक नियमित संरचना में रहते हैं, जैसे हीरा और ग्रेफाइट, जबकि अनाकार रूप में अणु अनियमित होते हैं - जैसे कोयला। कोयले को इसी कारण अनाकार अपरूप की श्रेणी में रखा जाता है।

कोयला: कार्बन का एक अनाकार अपरूप
कोयला एक जटिल और दहनशील ठोस है जो मुख्यतः कार्बन से बना होता है और इसे पृथ्वी के भीतर लाखों वर्षों तक जैविक पदार्थों पर उच्च दबाव और तापमान के प्रभाव से निर्मित माना जाता है। यह एक गैर-नवीकरणीय जीवाश्म ईंधन है, जिसकी संरचना पूर्णतः क्रिस्टलीय न होकर अनाकार होती है। इसीलिए इसे कार्बन का एक अनाकार अपरूप कहा जाता है। कोयले के अंदर कार्बन के अतिरिक्त हाइड्रोजन (Hydrogen), सल्फर (Sulfur), नाइट्रोजन (Nitrogen) और ऑक्सीजन (Oxygen) जैसे तत्व भी पाए जाते हैं, जिनकी मात्रा कोयले के प्रकार और उसकी गुणवत्ता के अनुसार बदलती रहती है। यह तथ्य कोयले की विविधता को दर्शाता है। कोयले की रासायनिक रचना इतनी विविध और जटिल होती है कि इसे किसी एक निश्चित संरचना में परिभाषित करना कठिन होता है। कोयले का निर्माण सामान्य रासायनिक सूत्रों की तरह दोहराए जाने वाले एकक (monomers) से नहीं होता, बल्कि यह कई भिन्न प्रकार के अणुओं का मिश्रण होता है। वैज्ञानिक इसे अक्सर इसके संरचनात्मक मापदंडों के आधार पर समझते हैं। ‘वैन क्रेवेलन’ (Van Krevelen) के अनुसार, कोयला एक असंगठित बहुलक संरचना वाला उच्च आणविक भार पदार्थ है, जिसमें अत्यधिक सुगंधित यौगिक होते हैं। कोयले का उत्पादन आम तौर पर पायरोलिसिस (pyrolysis) नामक प्रक्रिया से होता है, जिसमें किसी कार्बनिक पदार्थ को बहुत ऊँचे तापमान पर गर्म किया जाता है, जिससे वह विघटित होकर कोल टार (tar), गैस और शेष कार्बन बनाता है। हालाँकि, कालिख या कार्बन ब्लैक (carbon black) जैसे पदार्थों को भी अनाकार कार्बन कहा जाता है, लेकिन ये पूरी तरह से वास्तविक अनाकार कार्बन नहीं होते। इस प्रक्रिया में भी कोयले जैसी जटिलता और विशेषताएँ नहीं पाई जातीं। इन सभी गुणों के कारण कोयला न केवल ऊर्जा उत्पादन का प्रमुख स्रोत बनता है, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी शोध का विषय बना रहता है।

कोयले की गुणवत्ता को निर्धारित करने वाला प्रमुख तत्व: कार्बन की मात्रा
किसी कोयले की गुणवत्ता को निर्धारित करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उसमें उपस्थित कार्बन की मात्रा निभाती है। कोयले में जितनी अधिक कार्बन सांद्रता होती है, उसकी ऊर्जा उत्पादन क्षमता उतनी ही अधिक होती है। यही कारण है कि कोयले की गुणवत्ता - जिसे हम ग्रेड (grade) के रूप में जानते हैं - मुख्यतः उसमें मौजूद कार्बनिक पदार्थ की मात्रा पर आधारित होती है। उच्च गुणवत्ता वाले कोयले में न केवल कार्बन की प्रतिशतता अधिक होती है, बल्कि उसमें वाष्पशील पदार्थ (volatile matter) की मात्रा कम होती है, जिससे उसका दहन अधिक कुशल और प्रदूषण न्यूनतम होता है। यह विशेषता उसे औद्योगिक उपयोग, विशेष रूप से बिजली उत्पादन, इस्पात उद्योग और भट्टियों में इस्तेमाल के लिए उपयुक्त बनाती है। उच्च कार्बन सामग्री वाले कोयले को जलाना अधिक स्थिर होता है, जिससे दहन प्रक्रिया में ऊर्जा का अधिकतम उपयोग संभव हो पाता है। इसके विपरीत, कम कार्बन वाले कोयले में जलने पर अधूरी दहन की संभावना बढ़ जाती है, जिससे प्रदूषण अधिक होता है और ऊर्जा की बर्बादी होती है। इसके अतिरिक्त, कोयले की कठोरता, रंग, चमक, और तापमान सहन करने की क्षमता भी कार्बन की उपस्थिति से प्रभावित होती है। यही वजह है कि कोयला उद्योगों और ऊर्जा नीति निर्धारण में, कोयले की गुणवत्ता का विश्लेषण अत्यंत आवश्यक होता है।

कोयले के प्रकार और उनमें कार्बन का अनुपात
कोयले को उसकी गुणवत्ता और कार्बन की सांद्रता के आधार पर चार मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है - एन्थ्रेसाइट, बिटुमिनस, उप-बिटुमिनस, और लिग्नाइट। प्रत्येक प्रकार की अपनी विशिष्ट ऊर्जा क्षमता और उपयोगिता होती है।
- एन्थ्रेसाइट को सबसे उच्च श्रेणी का कोयला माना जाता है, जिसमें 92–98% कार्बन होता है। यह अत्यंत कठोर, चमकदार और उच्चतम तापमान पर जलने में सक्षम होता है। इसकी कम वाष्पशीलता और उच्च तापमान क्षमता के कारण इसे औद्योगिक भट्टियों और उच्च तापीय संयंत्रों में उपयोग किया जाता है।
- बिटुमिनस कोयला भारत में सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला कोयला है, जिसमें 70 - 90% कार्बन होता है। इसका प्रयोग मुख्यतः भाप-विद्युत उत्पादन, कोकिंग कोल (coking coal) के रूप में इस्पात निर्माण में और घरेलू उपयोग के लिए भी होता है।
- उप-बिटुमिनस कोयला, जिसमें 35–45% कार्बन होता है, अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता वाला होता है लेकिन यह बिजली उत्पादन जैसे कार्यों में उपयोगी सिद्ध होता है। इसका रंग काला परंतु फीका होता है, और ऊर्जा क्षमता बिटुमिनस से कम होती है।
- लिग्नाइट सबसे निम्न गुणवत्ता का कोयला है, जिसमें 25–35% कार्बन होता है। यह अत्यधिक नमी युक्त होता है और इसकी ऊर्जा उत्पादकता बहुत कम होती है। इसे अक्सर स्थानीय स्तर पर विद्युत उत्पादन के लिए प्रयोग में लाया जाता है, क्योंकि इसके परिवहन और भंडारण में अधिक लागत आती है।
इस प्रकार कोयले के इन विभिन्न प्रकारों को उनकी ऊर्जा क्षमता, दहन गुण और कार्बन सामग्री के आधार पर विश्लेषित किया जाता है, ताकि उचित औद्योगिक या घरेलू उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।
संदर्भ-
https://shorturl.at/HvWyL
मेरठ में राशन कार्ड: ज़रूरत से अधिकार और पहचान से गरिमा तक की सशक्त यात्रा
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
26-09-2025 09:17 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी गहराई से सोचा है कि वह छोटा-सा राशन कार्ड (Ration Card), जिसे हम अकसर सिर्फ सस्ते गेहूं, चावल या चीनी पाने का ज़रिया मानते हैं, असल में हमारे जीवन का कितना बड़ा सहारा बन चुका है? मेरठ जैसे ज़िले में, जहाँ एक ओर तेज़ी से फैलता शहरी विस्तार है और दूसरी ओर गांवों में अब भी आर्थिक संघर्ष बना हुआ है, वहाँ राशन कार्ड न सिर्फ रसोई भरने का साधन है, बल्कि यह सामाजिक सुरक्षा, पहचान और सरकारी अधिकारों तक पहुँच का सशक्त माध्यम बन गया है। आज राशन कार्ड एक ऐसा दस्तावेज़ है जो आपके बच्चे की पढ़ाई में छात्रवृत्ति दिला सकता है, आपके घर की महिला को प्रमुख मानकर सशक्त बना सकता है, और बैंक खाता खोलने से लेकर मोबाइल सिम कार्ड (Mobile SIM card) लेने तक, आपके हर कदम में साथ निभा सकता है। यह सिर्फ एक सरकारी योजना का हिस्सा नहीं, बल्कि आपके परिवार की ज़रूरतों, अस्मिता और अवसरों को सुरक्षित रखने वाला औज़ार बन चुका है। मेरठ के चौक-चौराहों से लेकर देहात की गलियों तक, राशन कार्ड ने न जाने कितने परिवारों को खाद्य सुरक्षा, गरिमा और आत्मनिर्भरता की नई राह दिखाई है। खासतौर पर निम्न और मध्यम आय वर्ग के लोगों के लिए यह कार्ड जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने का प्रवेश-द्वार है। इससे मिलने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली की सेवाएँ सिर्फ अनाज नहीं देतीं, बल्कि यह विश्वास दिलाती हैं कि इस देश में हर व्यक्ति को भरपेट भोजन और सम्मान से जीने का हक है।
इस लेख में हम जानने का प्रयास करेंगे कि भारत में राशन कार्ड प्रणाली का विकास किस तरह स्वतंत्रता के बाद से डिजिटलीकरण (Digitization) तक पहुँचा। हम यह भी समझेंगे कि इसकी संरचना, श्रेणियाँ और आवंटन की प्रक्रिया क्या है। साथ ही, हम देखेंगे कि राशन कार्ड कैसे अनेक सरकारी सेवाओं का प्रवेश-द्वार बन चुका है, और कैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली हमारे समाज में खाद्य सुरक्षा और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करती है। अंत में, हम मौजूदा चुनौतियों और तकनीकी सुधारों की बात करेंगे, जो इस व्यवस्था को और अधिक पारदर्शी और न्यायसंगत बना सकते हैं।
स्वतंत्रता से डिजिटलीकरण तक: भारत में राशन कार्ड प्रणाली का ऐतिहासिक विकास
भारत में राशन कार्ड प्रणाली की शुरुआत का मूल आधार द्वितीय विश्व युद्ध के समय पड़ा, जब ब्रिटिश (British) औपनिवेशिक सरकार ने खाद्यान्न, मिट्टी का तेल और चीनी जैसी आवश्यक वस्तुओं के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए एक संगठित राशनिंग प्रणाली को लागू किया। युद्ध के बाद के वर्षों में यह व्यवस्था देश में बनी रही, और स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने इसे जनसंख्या में बढ़ती खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने तथा गरीबी से जूझ रहे तबकों तक पहुंच सुनिश्चित करने के एक साधन के रूप में बनाए रखा। राशनिंग बोर्डों (Rationing Boards) की स्थापना कर राज्यों में वितरण को व्यवस्थित किया गया और पात्र परिवारों को राशन कार्ड जारी किए गए। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, देश की सामाजिक और आर्थिक जरूरतों में भी बदलाव आता गया, और उसी के अनुसार इस प्रणाली में परिवर्तन किए गए। 1990 और 2000 के दशक में कम्प्यूटरीकरण (computerization) के ज़रिए इस प्रणाली में तकनीकी सुधार हुए जिससे पारदर्शिता बढ़ी और भ्रष्टाचार की संभावना में कमी आई। 1997 में शुरू की गई 'लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली' (TPDS) ने सबसे गरीब वर्ग तक सहायता पहुँचाने की दिशा में एक निर्णायक कदम उठाया। 2013 में लागू ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ ने राशन प्रणाली को एक कानूनी ढांचे में समाहित किया, जिससे लोगों को खाद्य अधिकार मिला। हालिया समय में 'एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड' योजना के तहत नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में अपने राशन कार्ड के ज़रिए अनाज प्राप्त करने की सुविधा दी गई है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति मेरठ से बाहर किसी अन्य शहर में जाकर काम करता है, तो वह वहाँ भी अपने कार्ड का प्रयोग कर सस्ती दरों पर अनाज प्राप्त कर सकता है।

राशन कार्ड की संरचना, वर्गीकरण और जारी करने की प्रक्रिया
भारत में राशन कार्ड प्रणाली को अलग-अलग वर्गों के अनुकूल बनाने के लिए इसे मुख्यतः तीन श्रेणियों में बाँटा गया है - गरीबी रेखा से ऊपर (APL), गरीबी रेखा के नीचे (BPL), और अंत्योदय अन्न योजना (AAY)। इन श्रेणियों का निर्धारण सरकार द्वारा नागरिकों की आर्थिक स्थिति के आधार पर किया जाता है और प्रत्येक श्रेणी के लिए अलग-अलग लाभ निर्धारित होते हैं। मेरठ जैसे जिलों में जहाँ शहरी और ग्रामीण आबादी दोनों हैं, इन कार्डों की उपस्थिति एक प्रकार की सामाजिक पहचान भी बन जाती है। स्थायी राशन कार्ड के अतिरिक्त, राज्य सरकारें अस्थायी राशन कार्ड भी जारी करती हैं, जो विशेष परिस्थितियों में सीमित समय के लिए उपयोग में आते हैं - जैसे कि आपातकालीन राहत या प्रवासी श्रमिकों के लिए। वर्ष 2013 के ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ के बाद यह निर्देशित किया गया कि राशन कार्ड परिवार की सबसे बड़ी महिला को जारी किया जाएगा, जिससे महिला सशक्तिकरण को भी बल मिला। यदि परिवार में ऐसी महिला नहीं है, तो फिर सबसे बड़ा पुरुष सदस्य कार्ड का प्रमुख माना जाता है। कार्ड बनाने की प्रक्रिया राज्यवार अलग हो सकती है, और इसमें ऑनलाइन (online) एवं ऑफलाइन (offline) दोनों विकल्प शामिल हैं। आधार कार्ड को राशन कार्ड से जोड़ने के बाद, पात्रता निर्धारण और वितरण प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता और नियंत्रण संभव हुआ है। राशन कार्ड में आवश्यक संशोधन करने की सुविधा भी सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती है, और निर्धारित समयसीमा के भीतर कार्ड जारी किया जाता है, जो अधिकतम एक महीने के भीतर किया जाना आवश्यक है।
सरकारी योजनाओं में प्रवेश द्वार: राशन कार्ड के विविध उपयोग और लाभ
राशन कार्ड का उपयोग केवल अनाज प्राप्त करने तक सीमित नहीं है; यह एक ऐसा महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन चुका है जो सरकारी और गैर-सरकारी सेवाओं की पहुँच का प्रवेश द्वार है। सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त दस्तावेज़ होने के कारण, यह पहचान प्रमाण के रूप में विभिन्न स्थानों पर मान्य है। इसका उपयोग पैन कार्ड (Pan Card) प्राप्त करने, बैंक खाता खोलने, पासपोर्ट (Passport) के लिए आवेदन करने, मोबाइल सिम कार्ड लेने, ड्राइविंग लाइसेंस (Driving License) प्राप्त करने और यहां तक कि एलपीजी कनेक्शन (LPG Connection) लेने जैसे विभिन्न कार्यों में किया जाता है। आयकर रिटर्न (Income Tax Return - ITR) भरने या जीवन बीमा योजनाओं के लिए भी इसका उपयोग होता है। मेरठ जैसे शहरों में, जहाँ बड़ी संख्या में लोग नौकरी या शिक्षा के लिए दस्तावेज़ी प्रमाण की आवश्यकता महसूस करते हैं, वहाँ राशन कार्ड उनकी पहचान और पात्रता का प्रमाण बनता है। इसके अतिरिक्त, डिजिटलीकरण की प्रक्रिया ने इस कार्ड को और अधिक उपयोगी बना दिया है - अब लाभार्थी अपने कार्ड की जानकारी ऑनलाइन देख सकते हैं, जरूरत होने पर उसे डाउनलोड (download) कर सकते हैं, और विभिन्न सेवाओं से जुड़े अपडेट (update) प्राप्त कर सकते हैं। डिजिटल इंडिया अभियान के अंतर्गत राशन कार्ड को तकनीकी रूप से सशक्त बनाकर नागरिकों को और अधिक सुलभ सेवाओं से जोड़ने की दिशा में निरंतर प्रयास हो रहे हैं।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS): खाद्य सुरक्षा और सामाजिक न्याय का आधार
भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस. - PDS) दुनिया की सबसे बड़ी खाद्य वितरण व्यवस्थाओं में से एक मानी जाती है, जिसका प्रमुख उद्देश्य देश के गरीब और निम्न आय वर्ग को खाद्य सुरक्षा प्रदान करना है। इस प्रणाली के माध्यम से गेहूं, चावल, चीनी और अन्य आवश्यक वस्तुएँ उचित मूल्य की दुकानों के ज़रिए सब्सिडी (subsidy) पर उपलब्ध कराई जाती हैं। यह प्रणाली न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से खरीदे गए अनाज को पहले सुरक्षित रूप से गोदामों में संग्रहित करती है, फिर उसका वितरण लाभार्थियों तक सुनिश्चित करती है। इससे न केवल किसानों को उनकी उपज की उचित कीमत मिलती है, बल्कि उपभोक्ताओं को भी सस्ती दरों पर खाद्य उपलब्ध होता है। मेरठ जैसे कृषि उत्पादक क्षेत्र में यह व्यवस्था किसानों और आम नागरिकों, दोनों के लिए अत्यंत लाभकारी है। यह प्रणाली खाद्यान्न की स्थिर आपूर्ति, मूल्य नियंत्रण और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का एक सशक्त उपकरण बन चुकी है। इसके ज़रिए ना केवल सामान्य परिस्थितियों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है, बल्कि आपात स्थितियों जैसे बाढ़, सूखा या महामारी के दौरान भी यह प्रणाली राहत पहुँचाने का कार्य करती है। यह सामाजिक सुरक्षा का एक ऐसा आधार है, जिस पर करोड़ों लोगों का जीवन निर्भर करता है।
मौजूदा चुनौतियाँ और सुधार की दिशा: पी.डी.एस. प्रणाली में दक्षता और पारदर्शिता के उपाय
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विशालता के बावजूद इसमें कई प्रकार की चुनौतियाँ भी देखी गई हैं। सबसे प्रमुख समस्याओं में समावेशन (inclusion) और बहिष्करण (exclusion) की त्रुटियाँ हैं, जहाँ वास्तविक लाभार्थियों को अनाज नहीं मिल पाता जबकि अपात्र लोग लाभ उठा लेते हैं। इसके अलावा, अनाज के परिवहन के दौरान भारी मात्रा में बर्बादी, गोदामों की अपर्याप्त क्षमता और वितरण में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी पीडीएस की कार्यकुशलता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। उदाहरण के तौर पर, पूर्व योजना आयोग के एक अध्ययन के अनुसार, देशभर में 36% गेहूं और चावल की बर्बादी दर्ज की गई थी। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने विभिन्न तकनीकी उपाय अपनाए हैं, जैसे - आधार से लिंक राशन कार्ड, ई-पीओएस मशीनें (e-POS Machines), जीपीएस ट्रैकिंग सिस्टम (GPS Tracking System), और नागरिकों द्वारा एसएमएस (SMS) के माध्यम से निगरानी। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इन तकनीकों ने अच्छे परिणाम दिए हैं और अन्य राज्यों को भी इस मॉडल से प्रेरणा मिल रही है। मेरठ में भी डिजिटलीकरण और निगरानी के ये प्रयास तेज़ी से अपनाए जा रहे हैं, जिससे वितरण प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ी है। आने वाले समय में यदि तकनीक और नीति को एक-दूसरे के पूरक रूप में इस्तेमाल किया जाए, तो यह प्रणाली देश के हर नागरिक तक न केवल भोजन, बल्कि गरिमा और अधिकार की पूर्ति भी कर सकेगी।
संदर्भ-
https://shorturl.at/uwPZG
क्या आप जानते हैं हर साल उत्तर प्रदेश में बाढ़ की मार क्यों बढ़ती जा रही है?
नदियाँ
Rivers and Canals
25-09-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों,क्या आपने भी कभी बरसात के मौसम में खबरों में ये सुना है कि "हमीरपुर, प्रयागराज या वाराणसी के सैकड़ों गाँव जलमग्न हो गए"? क्या आपने कभी यह सोचा है कि आज जब विज्ञान और तकनीक इतनी आगे बढ़ चुकी है, तब भी हर साल उत्तर प्रदेश के दर्जनों ज़िले बाढ़ की मार क्यों झेलते हैं? गंगा, यमुना, शारदा और घाघरा जैसी जीवनदायिनी नदियाँ, जो हमारी आस्था और कृषि की रीढ़ रही हैं, अब मानसून में जब अपना रौद्र रूप दिखाती हैं, तो वे खेतों, घरों और सपनों को लील लेती हैं। यह सिर्फ कुदरत का क्रोध नहीं है - बल्कि इसमें हमारी लापरवाहियों, अनियंत्रित शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन की गहरी छाया भी है। मेरठ भले ही उन जिलों में नहीं आता जो हर साल सीधे तौर पर बाढ़ से प्रभावित होते हैं, लेकिन क्या हम इससे अछूते हैं? बिलकुल नहीं। जब राज्य के दूसरे हिस्सों में फसलें डूबती हैं, सड़कों का संपर्क टूटता है, और सैकड़ों परिवार अपने घरों से उजड़ते हैं - तो उसकी आर्थिक और मानवीय गूंज मेरठ तक भी पहुँचती है।
इस लेख में हम उत्तर प्रदेश की बाढ़ समस्या को व्यापक पहलुओं में समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि नदियाँ हमारे पारिस्थितिक तंत्र में क्या भूमिका निभाती हैं और बाढ़ वास्तव में क्या होती है। इसके बाद, हम उन जिलों की पहचान करेंगे जो हर साल इस आपदा से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं और किन आँकड़ों से इस संकट की गंभीरता का आकलन किया जा सकता है। आगे हम जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming), और बारिश-बर्फबारी के बदलते पैटर्न (pattern) के कारणों पर बात करेंगे, जिनकी वजह से बाढ़ अब अधिक तीव्र और अनियंत्रित हो गई है। इसके साथ ही हम विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के उन जिलों का विश्लेषण करेंगे जहाँ बाढ़ सबसे गंभीर रूप में सामने आती है। अंत में, हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि वर्तमान समय में कौन-से आधुनिक समाधान और नीतियाँ अपनाकर इस समस्या को नियंत्रित किया जा सकता है।
नदियों की पारिस्थितिक भूमिका और बाढ़ की परिभाषा
नदियाँ केवल जल की धाराएं नहीं होतीं, वे जीवनदायिनी शक्ति हैं, जो हमारी कृषि, संस्कृति और आस्था की नींव रखती हैं। उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना, शारदा जैसी नदियाँ न केवल खेती के लिए पानी का स्रोत हैं, बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत पवित्र मानी जाती हैं। ये नदियाँ लाखों लोगों के दैनिक जीवन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई हैं - चाहे वह काशी के घाटों पर सुबह की आरती हो या बुंदेलखंड के खेतों की सिंचाई। किंतु जब इनका जलस्तर संतुलन खो देता है, विशेषकर मानसून के महीनों में, तब यही नदियाँ विनाश का रूप ले लेती हैं। बाढ़ एक ऐसी स्थिति है, जब पानी अपने नियत रास्ते को छोड़कर आस-पास की ज़मीन को डुबो देता है। यह डूबाव प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों को क्षति पहुँचाता है, मिट्टी को बहा ले जाता है, और ग्रामीण तथा शहरी जीवन को स्थिर कर देता है। जब तक नदियों के साथ मानवीय संतुलन नहीं साधा जाएगा, तब तक यह पारिस्थितिक वरदान, अभिशाप बनता रहेगा।

उत्तर प्रदेश में बाढ़ से प्रभावित जिले और वार्षिक आंकड़े
उत्तर प्रदेश देश के सबसे बाढ़ संवेदनशील राज्यों में गिना जाता है। हर वर्ष यहाँ के लगभग 18 जिले बाढ़ की विभीषिका का सामना करते हैं। वर्ष 2023 में हमीरपुर के 114, वाराणसी के 107, प्रयागराज के 96, जालौन के 74और इटावा के 49 गाँव बाढ़ की चपेट में आए। यह केवल एक आँकड़ा नहीं, बल्कि हजारों परिवारों के उजड़ने की कहानी है। सिंचाई विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में औसतन 27 लाख हेक्टेयर (hectare) भूमि बाढ़ से प्रभावित होती है, जिससे 432 करोड़ रुपए तक की वार्षिक क्षति होती है। गंगा, यमुना, चंबल, घाघरा और शारदा नदियाँ वर्षा ऋतु में बार-बार खतरे के निशान को पार कर जाती हैं। इन नदियों के किनारे बसे गाँवों में जनजीवन रुक जाता है, स्कूल बंद हो जाते हैं, फसलें बर्बाद होती हैं और लोग सुरक्षित स्थानों पर पलायन के लिए विवश हो जाते हैं। यह स्थिति दर्शाती है कि राज्य को बाढ़ के स्थायी समाधान की सख्त ज़रूरत है।

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से बाढ़ का बढ़ता खतरा
आज जलवायु परिवर्तन कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि हमारे दरवाज़े पर दस्तक दे चुकी हकीकत है। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) की अत्यधिक वृद्धि के कारण तापमान लगातार बढ़ रहा है, जिससे हिमालय के ग्लेशियर (glacier) पिघल रहे हैं और समुद्री तथा नदी जलस्तर बढ़ते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, वातावरण में हर 1°C वृद्धि से हवा में 7% अधिक नमी समा सकती है, जिससे अत्यधिक वर्षा की संभावना बढ़ जाती है। यही कारण है कि आज बाढ़ की घटनाएं पहले की तुलना में अधिक तीव्र और व्यापक हो चुकी हैं। ऑस्ट्रेलिया, पश्चिमी यूरोप, भारत और चीन जैसे देश जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न अतिवृष्टि और बाढ़ से प्रभावित हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। यदि इस दिशा में समय रहते ठोस नीति नहीं बनाई गई, तो ये बाढ़ की घटनाएँ सालाना आपदा बन जाएँगी, और हम केवल राहत शिविरों में असहाय लोगों की भीड़ देखते रहेंगे।
वर्षा और हिमपात के बदलते पैटर्न का बाढ़ पर प्रभाव
पहले वर्षा और हिमपात के मौसम स्पष्ट और नियमित थे, लेकिन अब मौसम विज्ञानियों के अनुसार यह पैटर्न तेजी से बिगड़ रहा है। विशेषकर पर्वतीय और ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बर्फ का गिरना कम हो गया है और बारिश की मात्रा बढ़ गई है। यह परिवर्तन दोहरा खतरा बन गया है। पहले बर्फ धीरे-धीरे पिघलकर नदियों में समाहित होती थी, जिससे जलप्रवाह नियंत्रित रहता था। अब बारिश सीधे बर्फ पर गिरती है, जिससे तत्काल और तीव्र अपवाह (Runoff) उत्पन्न होता है और अचानक बाढ़ आती है। यह प्रक्रिया अब अधिक सामान्य होती जा रही है, जिससे न केवल पहाड़ी राज्य, बल्कि उत्तर प्रदेश जैसे मैदानी राज्य भी प्रभावित हो रहे हैं। बारिश और बर्फ का यह खतरनाक मेल अपार जलराशि को एकसाथ नीचे धकेलता है, जिससे नदियाँ रातोंरात उफान पर आ जाती हैं। यह बदलता प्रकृति-चक्र हमारी पारंपरिक बाढ़ पूर्वानुमान पद्धति को भी चुनौती दे रहा है।

उत्तर प्रदेश के विशेष जिलों में खतरे की स्थिति
बाढ़ की तीव्रता केवल आँकड़ों से नहीं, बल्कि प्रभावित जिलों के हालात से समझी जा सकती है। हमीरपुर, प्रयागराज, वाराणसी, जालौन, इटावा, मिर्जापुर और आगरा जैसे जिले हर साल बाढ़ की चपेट में आते हैं। इन जिलों में बहने वाली शारदा, यमुना, चंबल और गंगा नदियाँ अक्सर खतरे के निशान से ऊपर बहती हैं। वाराणसी और प्रयागराज जैसे तीर्थ नगरों में गंगा और यमुना का उफान न केवल जनजीवन को बाधित करता है, बल्कि काशी विश्वनाथ से लेकर संगम तट तक के धार्मिक आयोजनों को भी ठप कर देता है। गांवों में स्कूल बंद हो जाते हैं, अस्पतालों की पहुँच कट जाती है और बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं ठप्प हो जाती हैं। यही कारण है कि इन जिलों को प्राथमिकता देते हुए दीर्घकालिक बाढ़ प्रबंधन योजनाओं की आवश्यकता है।
संभावित समाधान और बाढ़ प्रबंधन की आधुनिक रणनीतियाँ
बाढ़ से निपटना केवल राहत पैकेज (relief package) और नावों से संभव नहीं है। इसके लिए वैज्ञानिक सोच, पूर्वानुमान तकनीक और स्थानीय भागीदारी की ज़रूरत है। सबसे पहले बांधों, रिटेंशन बेसिन (Retention basin) और बैराज जैसी संरचनाओं का निर्माण करके जल प्रवाह को नियंत्रित किया जा सकता है। नदियों के किनारे मजबूत तटबंध बनाकर उनके विस्तार को सीमित किया जा सकता है। वृक्षारोपण से वर्षा जल का अवशोषण बढ़ता है और मृदा कटाव रुकता है। इसके साथ-साथ फ्लड फोरकास्टिंग सिस्टम (flood forecasting system), रेन वॉटर हार्वेस्टिंग (rain water harvesting), और समुदाय-आधारित चेतावनी प्रणाली जैसे आधुनिक उपाय भी अपनाने चाहिए। स्थानीय ग्रामीणों को जागरूक करना, स्कूलों में आपदा शिक्षा देना और तकनीक से जुड़े डैशबोर्ड्स का विकास करना भी एक अहम कदम होगा। बाढ़ की आपदा को हम तभी नियंत्रित कर सकते हैं, जब इसे केवल संकट नहीं, बल्कि साझा जिम्मेदारी मानकर समग्र समाधान की दिशा में काम करें।
संदर्भ-
https://shorturl.at/VGfmW
भारत का कैंसर संकट: इलाज से पहले ज़रूरत है हमारी जागरूकता और सहानुभूति
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
24-09-2025 09:09 AM
Meerut-Hindi

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे आस-पास कितने ऐसे परिवार हैं जो कैंसर (cancer) जैसी गंभीर और लंबी बीमारी से चुपचाप लड़ रहे हैं? कहीं जानकारी की कमी उन्हें रोक देती है, तो कहीं सही इलाज तक न पहुँच पाने की मजबूरी उनकी राह कठिन बना देती है। यह बीमारी अब सिर्फ़ बड़े शहरों या बुज़ुर्गों तक सीमित नहीं रही, बल्कि हमारे घरों, पड़ोस और रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी है। हर साल लाखों भारतीय कैंसर का सामना करते हैं, और दुर्भाग्य से कई लोग समय पर इलाज न मिल पाने के कारण अपनी जान गंवा बैठते हैं। इस कठिनाई के बीच यह याद रखना ज़रूरी है कि कैंसर से जूझ रहे लोग केवल “मरीज़” नहीं, बल्कि हमारे अपने समाज का हिस्सा हैं। उन्हें दवाइयों से कहीं अधिक ज़रूरत है सहारे, संवेदनशीलता और अपनापन महसूस कराने की। जब परिवार और समाज उनके साथ मज़बूती से खड़े होते हैं, तो उनकी हिम्मत और जीने की चाह कई गुना बढ़ जाती है। कैंसर से लड़ाई सिर्फ़ अस्पतालों और दवाओं तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। असली जीत तभी संभव है जब हम सब मिलकर जागरूकता फैलाएँ, समय पर पहचान सुनिश्चित करें और इलाज की सुविधाएँ हर व्यक्ति तक पहुँचाएँ। आखिरकार, इस बीमारी से जंग केवल विज्ञान से नहीं, बल्कि उम्मीद, सहानुभूति और सामूहिक प्रयासों से जीती जाती है।
इस लेख में हम कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जुड़ी महत्वपूर्ण पहलुओं की गहराई से पड़ताल करेंगे। सबसे पहले, जानेंगे कि भारत में कैंसर का मौजूदा परिदृश्य क्या है और इससे जुड़ी ताज़ा आँकड़ों की क्या तस्वीर है। फिर चर्चा करेंगे कि किस तरह जागरूकता की कमी और सामाजिक चुनौतियाँ इसकी रोकथाम में बाधा बन रही हैं। आगे हम कैंसर की समय पर पहचान और शुरुआती निदान से जुड़ी समस्याओं को समझेंगे। इसके बाद जानेंगे कि इलाज की उपलब्धता और स्वास्थ्य ढांचे में किस तरह की असमानताएँ मौजूद हैं। अंत में, विचार करेंगे कि इलाज की महंगाई और नीतिगत कमज़ोरियाँ लोगों को किस तरह इस बीमारी से लड़ने में असमर्थ बना रही हैं।
भारत में कैंसर का वर्तमान परिदृश्य और बढ़ते आँकड़े
भारत आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ कैंसर न केवल एक चिकित्सा समस्या है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक संकट का रूप ले चुका है। हालिया आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2022 में देशभर में अनुमानित 14.6 लाख नए कैंसर मामले सामने आए और 8 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु कैंसर से हुई। यह केवल संख्या नहीं, बल्कि लाखों परिवारों की कहानियाँ हैं - जिनमें संघर्ष, आर्थिक तंगी, और समय पर न मिल पाने वाले इलाज का दर्द समाहित है। स्तन कैंसर, ग्रीवा कैंसर, मुंह और फेफड़ों का कैंसर भारत में सबसे आम प्रकार हैं। खासकर स्त्रियों में स्तन और गर्भाशय ग्रीवा का कैंसर तेजी से बढ़ रहा है, जिसके पीछे सामाजिक बदलाव, देर से विवाह, स्तनपान न कराना और बदलती जीवनशैली प्रमुख कारण हैं। पुरुषों में तंबाकू सेवन और प्रदूषण फेफड़ों और मुंह के कैंसर को जन्म दे रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो 2025 तक भारत में कैंसर के मामले 15.7 लाख से अधिक हो सकते हैं। इस बढ़ते बोझ को समझना और समय रहते प्रतिक्रिया देना अब केवल स्वास्थ्य नीति की नहीं, बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व की भी आवश्यकता बन चुका है।

कैंसर की रोकथाम और जागरूकता की गंभीर चुनौतियाँ
कैंसर को अक्सर एक 'अचानक होने वाली' बीमारी माना जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि इसके कई रूपों को समय रहते रोका जा सकता है - बशर्ते लोगों को सही जानकारी और संसाधन मिलें। लेकिन भारत में कैंसर को लेकर जनमानस में जागरूकता बेहद कम है, खासकर ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में। कई महिलाएँ अब भी ग्रीवा कैंसर जैसे आम कैंसर के शुरुआती लक्षणों को नहीं पहचानतीं। इसी तरह, धूम्रपान और तंबाकू के दुष्प्रभावों के बारे में जानने के बावजूद इनका सेवन व्यापक रूप से जारी है। स्कूलों और कॉलेजों में स्वास्थ्य शिक्षा का अभाव, सामाजिक संकोच, और पारिवारिक संवाद की कमी इस जागरूकता को और कमज़ोर बनाते हैं। इसके अतिरिक्त, स्क्रीनिंग (screening) और परामर्श सेवाओं की पहुंच सीमित है, जिससे आम लोग समय पर जांच और इलाज नहीं करवा पाते। अगर रोकथाम और जागरूकता को एक राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाया जाए - जैसे कि घर-घर जागरूकता अभियान, सामुदायिक रेडियो और मोबाइल हेल्थ क्लिनिक (Community Radio and Mobile Health Clinic) - तो कैंसर के मामलों में महत्वपूर्ण कमी लाई जा सकती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि लोगों को न केवल कैंसर से डराया जाए, बल्कि उन्हें सशक्त बनाया जाए कि वे इसे समय रहते पहचान सकें और आवश्यक कदम उठा सकें।

शीघ्र पहचान और निदान में मौजूद बाधाएँ
कैंसर के इलाज में सबसे महत्वपूर्ण हथियार उसका समय पर पता लगाना है, लेकिन भारत में इसका सबसे बड़ा अभाव भी यहीं है। कई बार बीमारी तब तक बढ़ चुकी होती है जब तक मरीज अस्पताल पहुँचता है, और तब इलाज बेहद महंगा और जटिल हो जाता है। यह स्थिति इसलिए पैदा होती है क्योंकि देश के अधिकांश क्षेत्रों में स्क्रीनिंग की सुविधाएँ या तो सीमित हैं या उपलब्ध ही नहीं हैं। जहां सुविधाएँ मौजूद हैं, वहां प्रशिक्षित स्टाफ (staff), नियमित उपकरणों की मरम्मत, और जागरूकता की कमी के कारण वे भी उपयोग में नहीं आ पाते। इसके अलावा, सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में कैंसर की जांच को प्राथमिकता नहीं दी जाती। स्क्रीनिंग कार्यक्रम केवल कुछ स्थानों तक ही सीमित हैं और आम जनमानस तक इनकी जानकारी नहीं पहुँचती। कई बार सामाजिक संकोच या गलत धारणाएँ भी लोगों को समय रहते जाँच नहीं कराने देतीं। यह स्थिति तब तक नहीं सुधरेगी जब तक कैंसर की जांच को सामुदायिक स्वास्थ्य का नियमित हिस्सा न बनाया जाए - जैसे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में नियमित कैंसर जांच, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण, और मोबाइल डायग्नोस्टिक यूनिट्स (Mobile Diagnostic Units) का संचालन। साथ ही, शुरुआती लक्षणों की पहचान करने और गंभीरता को समझाने के लिए जन संवाद को मज़बूती देना ज़रूरी है।
उपचार की असमानता और चिकित्सा बुनियादी ढांचे की कमी
भारत में कैंसर उपचार सेवाएं क्षेत्रीय और सामाजिक असमानताओं से जूझ रही हैं। देश में उपलब्ध कैंसर उपचार केंद्रों में से लगभग 40% महानगरों में केंद्रित हैं, जिससे छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों के मरीजों को इलाज के लिए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। रेडियोथेरेपी (radiotherapy), कीमोथेरेपी (chemotherapy) और सर्जिकल (surgical) सेवाएं हर जगह नहीं उपलब्ध हैं - और जहां हैं भी, वहां या तो अत्यधिक भीड़ होती है या उपकरण पुराने हो चुके होते हैं। भारत में प्रति मिलियन (million) जनसंख्या पर केवल 0.4 रेडियोथेरेपी यूनिट है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह संख्या कम से कम 1 होनी चाहिए। यह साफ संकेत है कि हम बुनियादी ढांचे की दृष्टि से पीछे हैं। यही नहीं, कैंसर उपचार के लिए प्रशिक्षित डॉक्टरों, नर्सों और तकनीशियनों की भारी कमी है। मेडिकल कॉलेजों और नर्सिंग स्कूलों में विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रमों की कमी भी इस समस्या को और गहरा करती है। यदि भारत को इस संकट से उबरना है, तो उसे कैंसर उपचार को प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली का हिस्सा बनाना होगा और हर जिले में क्षेत्रीय कैंसर केंद्र स्थापित करने होंगे। साथ ही, टेलीमेडिसिन (Telemedicine) और ई-हेल्थ प्लेटफॉर्म (E-Health Platform) जैसे तकनीकी उपायों के ज़रिए दूरदराज के क्षेत्रों तक विशेषज्ञता पहुंचानी होगी।

उपचार की सामर्थ्यता और बेहतर नीति की आवश्यकता
कैंसर के इलाज की लागत आज भी अधिकांश भारतीय परिवारों के लिए एक आर्थिक आपदा के समान है। दवाएं, जांच, यात्रा, हॉस्पिटल चार्ज (hospital charge) और देखभाल - सब मिलाकर यह खर्च लाखों में पहुँच जाता है। कई परिवार अपनी बचत, ज़मीन और जेवर तक बेचकर इलाज करवाते हैं, और तब भी पूरा इलाज नहीं हो पाता। आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं ने कुछ राहत जरूर दी है, लेकिन इसकी पहुंच हर मरीज तक नहीं हो पाई है - खासकर उन तक जो अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करते हैं या जिनके पास पहचान पत्र नहीं है। इसके अलावा, निजी अस्पतालों में इलाज बेहद महंगा होता है और बीमा योजनाएँ हर प्रकार की सेवाओं को कवर नहीं करतीं। इसी वजह से बहुत से मरीज इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं। नीति-निर्माताओं को कैंसर के इलाज को स्वास्थ्य का मौलिक अधिकार मानते हुए मुफ्त या रियायती इलाज की व्यवस्था करनी चाहिए। इसके अलावा, गैर-सरकारी संगठनों, धर्मार्थ संस्थाओं और कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) के ज़रिए सामुदायिक सहयोग तंत्र बनाना आवश्यक है। एक समावेशी, न्यायसंगत और सहानुभूतिपूर्ण स्वास्थ्य नीति ही कैंसर की लड़ाई में देश को आगे ले जा सकती है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/r8TX5
मेरठ में आवारा मवेशियों का संकट: कारण, प्रभाव और समाधान की राह
निवास स्थान
By Habitat
23-09-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठ समेत देश के कई शहरों में आवारा मवेशियों की समस्या अब एक गंभीर सामाजिक और प्रशासनिक चुनौती बन चुकी है। सड़कों पर बेखौफ घूमते और बीच सड़क बैठने वाले गाय-बैल न केवल यातायात बाधित करते हैं, बल्कि कई बार जानलेवा हादसों का कारण भी बन जाते हैं। यह समस्या केवल शहरों तक सीमित नहीं है, बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी किसान इनसे भारी नुकसान झेल रहे हैं। हाल की कुछ दर्दनाक घटनाओं ने इस खतरे को और उजागर कर दिया है, जिससे आम जनता और प्रशासन दोनों की चिंता बढ़ गई है। आवारा मवेशियों की बढ़ती संख्या के पीछे आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक कारणों का जटिल मेल है। खेतों में मशीनीकरण के चलते बैलों की जरूरत कम हो गई है, और जब गाय दूध देना बंद कर देती है तो उसका पालन-पोषण किसानों के लिए बोझ बन जाता है। गौहत्या पर प्रतिबंध और गो रक्षकों की हिंसा के डर से अनुत्पादक मवेशियों का व्यापार लगभग ठप हो गया है, जिसके चलते इन्हें आवारा छोड़ने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। नतीजतन, ये मवेशी सड़कों और खेतों में पहुंचकर न केवल दुर्घटनाओं और यातायात अवरोध का कारण बनते हैं, बल्कि किसानों की मेहनत से उगाई गई फसलों को भी नष्ट कर देते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले मेरठ में आवारा मवेशियों का बढ़ता खतरा और हालिया घटनाएं समझेंगे, जिससे समस्या की गंभीरता साफ़ होगी। इसके बाद, हम आवारा मवेशियों के कारण और पृष्ठभूमि पर नज़र डालेंगे, जिसमें आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक पहलू शामिल होंगे। फिर, हम देखेंगे कि सड़क दुर्घटनाएं और यातायात अवरोध किस तरह से इन जानवरों के कारण बढ़ रहे हैं। इसके साथ ही, हम कृषि पर इनके प्रभाव और किसानों की परेशानी का विश्लेषण करेंगे। अंत में, हम कानूनी व सामाजिक पहलू और सरकारी प्रयास व नीतिगत समाधान पर चर्चा करेंगे, जिससे इस बढ़ती समस्या के संभावित हल सामने आ सकें।

मेरठ में आवारा मवेशियों का बढ़ता खतरा - हालिया घटनाएं और मौत के मामले
मेरठ की सड़कों और गलियों में आवारा मवेशियों का खतरा अब एक गंभीर और लगातार बढ़ती हुई समस्या बन गया है। हाल के महीनों में घटी कुछ दर्दनाक घटनाओं ने इस खतरे को और स्पष्ट कर दिया है। मीरापुर गांव में हुई एक घटना में, एक महिला को आवारा सांड ने अचानक हमला कर सींगों से उठा लिया और जमीन पर पटक दिया, जिससे उसकी रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट आई और अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। दूसरी घटना में, एक 25 वर्षीय युवक की बाइक एक सांड से टकरा गई, जिसके बाद वह पूरी रात सड़क पर घायल अवस्था में पड़ा रहा, लेकिन समय पर मदद न मिलने से उसकी भी जान चली गई। ये घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि यह समस्या अब केवल असुविधा तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह लोगों की जान लेने वाली त्रासदी का रूप ले चुकी है।

आवारा मवेशियों के कारण और पृष्ठभूमि - आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक कारण
आवारा मवेशियों की समस्या का संबंध कई गहरे और परस्पर जुड़े कारकों से है। आर्थिक दृष्टि से देखें तो, जब गाय दूध देना बंद कर देती है या बैल खेतों में काम करने लायक नहीं रहता, तो उनका पालन-पोषण करना किसानों के लिए भारी आर्थिक बोझ बन जाता है। पहले, ऐसे मवेशियों को बूचड़खानों में बेचकर किसान अपने खर्च का कुछ हिस्सा निकाल लेते थे, लेकिन 2014 के बाद उत्तर प्रदेश सहित देश के 18 राज्यों में गौहत्या पर सख्त प्रतिबंध लगने के कारण यह रास्ता बंद हो गया। सामाजिक और धार्मिक कारण भी इस समस्या को बढ़ाते हैं - गाय को पवित्र मानने के कारण लोग उन्हें मारना तो दूर, कई बार बांधकर रखने में भी लापरवाही बरतते हैं, जिससे वे सड़कों और खेतों में घूमने लगते हैं। मशीनीकरण ने बैलों की खेतों में जरूरत को लगभग खत्म कर दिया है, जिससे इनका आर्थिक महत्व घटा और परित्याग के मामले बढ़े।
सड़क दुर्घटनाएं और यातायात अवरोध – शहरी क्षेत्रों में आवारा जानवरों की समस्या
शहरों में आवारा मवेशियों की मौजूदगी सिर्फ दृश्य प्रदूषण नहीं, बल्कि एक गंभीर यातायात समस्या भी है। ये मवेशी सड़क के बीच, किनारे या डिवाइडर (divider) पर आराम से बैठ जाते हैं। तेज गति से गुजरते वाहनों के कारण मक्खियां और कीड़े अपने आप दूर हो जाते हैं, जिससे इन्हें सड़क पर बैठना और भी आसान और आरामदायक लगता है। यह "आदत" कई बार जानलेवा साबित होती है, क्योंकि ड्राइवर (driver) अचानक सामने आ गए मवेशी को देखकर गाड़ी संभाल नहीं पाते, खासकर रात में जब रोशनी कम होती है। इसके कारण न केवल वाहन चालकों की जान खतरे में पड़ती है, बल्कि आम राहगीरों के लिए भी यह खतरा बना रहता है।
कृषि पर प्रभाव और किसानों की परेशानी - फसलों को होने वाला नुकसान
ग्रामीण इलाकों में, जहां खेती ही किसानों की आजीविका का मुख्य साधन है, आवारा मवेशी एक बड़ी चुनौती बन चुके हैं। ये मवेशी खेतों में घुसकर पूरी फसल चर जाते हैं या रौंद देते हैं, जिससे महीनों की मेहनत बर्बाद हो जाती है। कई बार किसान अपनी फसल बचाने के लिए रातभर खेतों में पहरा देते हैं, जिससे उनका शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक शांति दोनों प्रभावित होती हैं। यह समस्या विशेष रूप से फसल कटाई के समय गंभीर हो जाती है, जब खेतों में पकी हुई फसल मवेशियों के लिए आसान शिकार बन जाती है।

कानूनी और सामाजिक पहलू - गौहत्या पर प्रतिबंध और गो रक्षक मुद्दा
भारत में गाय को धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पवित्र माना जाता है, जिसके चलते कई राज्यों में गौहत्या पर सख्त प्रतिबंध लागू है। हालांकि, इस कानून ने अनुत्पादक मवेशियों की समस्या को अनजाने में और गंभीर बना दिया है। पहले किसान बूढ़ी गायों को बेच देते थे, जिससे उनकी देखभाल का बोझ कम हो जाता था, लेकिन अब यह विकल्प बंद हो गया है। इसके अलावा, कुछ स्थानों पर गो रक्षक दलों द्वारा हिंसा, उत्पीड़न और लिंचिंग (lynching) की घटनाओं ने पशु व्यापार को लगभग ठप कर दिया है। इससे किसान मजबूरी में अपने मवेशियों को आवारा छोड़ने लगे हैं, जिससे समस्या का दायरा बढ़ता जा रहा है।
सरकारी प्रयास और नीतिगत समाधान - पशु आश्रय और अन्य विकल्प
सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर पशु आश्रय गृह (गौशालाओं) के निर्माण की योजना बनाई है, जहां इन मवेशियों को सुरक्षित रखा जा सके। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि यह केवल एक अस्थायी समाधान है, क्योंकि आश्रय गृहों की क्षमता सीमित होती है और उनका रखरखाव भी महंगा है। स्थायी समाधान के लिए राष्ट्रीय स्तर पर "आवारा पशु बोर्ड" का गठन जरूरी है, जो न केवल इन मवेशियों के पुनर्वास की योजना बनाए, बल्कि किसानों और आम जनता को भी इनके खतरों से बचाने के उपाय करे। इसके साथ ही, प्रजनन नियंत्रण, मवेशियों के लिए चिकित्सा सुविधाएं, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में इनके उपयोग के नए तरीके खोजने पर भी जोर देना होगा।
संदर्भ-
महाराजा अग्रसेन जयंती: समानता, सहयोग और आदर्शों की जीवंत परंपरा
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
Concept II - Identity of Citizen
22-09-2025 09:12 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, हमारे देश के इतिहास में ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपने जीवन और आदर्शों से समाज को नई दिशा दी। इन महापुरुषों ने यह सिखाया कि सत्ता या वैभव ही महानता का मापदंड नहीं होता, बल्कि सच्ची महानता इस बात में है कि समाज के हर व्यक्ति को समान अवसर मिले और सबके बीच सहयोग और भाईचारे की भावना बनी रहे। इन्हीं महान विभूतियों में से एक हैं महाराजा अग्रसेन, जिनका नाम न्याय, समानता और समाज सुधार की मिसाल के रूप में लिया जाता है। हर साल हम उनकी जयंती, यानी अग्रसेन जयंती, बड़े हर्ष और श्रद्धा के साथ मनाते हैं। यह दिन केवल एक धार्मिक या सांस्कृतिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह हमें उन मूल्यों की याद दिलाता है जिन पर एक मजबूत और संवेदनशील समाज की नींव रखी जा सकती है। इस अवसर पर लोग न केवल महाराजा अग्रसेन को श्रद्धांजलि देते हैं, बल्कि उनके आदर्शों को अपनाने और समाज सेवा की परंपरा को आगे बढ़ाने का संकल्प भी लेते हैं।
इस लेख में हम महाराजा अग्रसेन के जीवन और उनके आदर्शों को समझेंगे, जहाँ से हमें समानता और सहयोग का संदेश मिलता है। आगे हम अग्रसेन जयंती के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को जानेंगे और देखेंगे कि यह दिन समुदाय के लिए क्यों विशेष है। इसके साथ ही यह भी जानेंगे कि यह पर्व किस तरह उत्सव और सामाजिक सेवा का माध्यम बनता है। अंततः हम समझेंगे कि आज के दौर में महाराजा अग्रसेन की शिक्षाएँ और परंपराएँ किस प्रकार समाज के लिए प्रासंगिक रहेंगी।

महाराजा अग्रसेन का जीवन और आदर्श
भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक राजा हुए, जिन्होंने अपने शासन से लोगों का मार्गदर्शन किया, परंतु महाराजा अग्रसेन उन चुनिंदा शासकों में गिने जाते हैं जिन्होंने अपने जीवन और आदर्शों से समाज को नई दिशा दी। उनका जन्म सूर्यवंशी क्षत्रिय वंश में हुआ था और वे अपने बचपन से ही करुणा, न्यायप्रियता और समानता की भावना से ओत-प्रोत थे। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि एक आदर्श राजा केवल युद्ध कौशल से महान नहीं बनता, बल्कि अपने प्रजाजनों के सुख-दुख में सहभागी होकर ही वह सच्चा नेतृत्व स्थापित करता है। महाराजा अग्रसेन का जीवन दर्शन सरल लेकिन अत्यंत गहरा था। वे मानते थे कि समाज की असली ताकत जाति, धर्म या वर्ग में बंटने में नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलने में है। उनकी प्रसिद्ध परंपरा “एक ईंट और एक रुपया” इसी सोच की झलक थी। जब भी कोई नया परिवार नगर में बसने आता, तो प्रत्येक घर से एक ईंट और एक रुपया उसे दिया जाता ताकि वह अपना घर बना सके और जीवनयापन शुरू कर सके। यह व्यवस्था केवल आर्थिक सहयोग नहीं थी, बल्कि यह उस समय की समाज व्यवस्था में भाईचारे और सामूहिकता की मजबूत नींव थी। यह परंपरा आज भी सामाजिक सहयोग की मिसाल मानी जाती है और यह दिखाती है कि यदि समाज साथ खड़ा हो, तो कोई भी अकेला नहीं रहता।
अग्रसेन जयंती का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
महाराजा अग्रसेन की स्मृति में हर वर्ष अश्विन माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को अग्रसेन जयंती बड़े हर्ष और श्रद्धा के साथ मनाई जाती है। यह दिन विशेष रूप से अग्रवाल, अग्रहरी और जैन समुदाय के लिए अत्यंत महत्व रखता है, क्योंकि वे महाराजा अग्रसेन को अपना आदर्श पूर्वज मानते हैं। इस अवसर पर लोग उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अपने समाज में समानता, भाईचारा और सहयोग की भावना को आगे बढ़ाने का संकल्प लेते हैं। धार्मिक दृष्टि से भी यह दिन अत्यंत विशेष है। मान्यता है कि माता लक्ष्मी महाराजा अग्रसेन की आराध्य थीं और वे सदैव उनके आशीर्वाद से समृद्ध रहे। यही कारण है कि अग्रसेन जयंती पर लक्ष्मी जी की पूजा बड़े विधि-विधान से की जाती है। इस पूजा का उद्देश्य केवल धन और ऐश्वर्य प्राप्त करना नहीं है, बल्कि यह संदेश देना है कि सच्चा वैभव तभी मिलता है जब समाज में न्याय, करुणा और सेवा की भावना कायम हो। इस प्रकार, अग्रसेन जयंती धर्म, आस्था और संस्कृति का संगम बनकर लोगों को आध्यात्मिक शांति और सामाजिक एकता की राह दिखाती है।

अग्रसेन जयंती के उत्सव और आयोजन
अग्रसेन जयंती का पर्व केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह एक विशाल सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव का रूप ले चुका है। इस दिन विभिन्न नगरों और कस्बों में मंदिरों को विशेष रूप से सजाया जाता है। सुबह से ही पूजा-पाठ, हवन और विशेष दर्शन का आयोजन होता है। कई स्थानों पर भव्य शोभा यात्राएँ निकाली जाती हैं, जिनमें बैंड-बाजे, झाँकियाँ और सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ शामिल होती हैं। इन शोभा यात्राओं में न केवल अग्रवाल और अग्रहरी समुदाय के लोग, बल्कि अन्य समाज के लोग भी उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं, जो इस पर्व को सार्वभौमिक बना देता है। इसके अतिरिक्त, इस दिन सामाजिक सेवा की परंपरा भी निभाई जाती है। जगह-जगह भोजन वितरण, निःशुल्क चिकित्सा शिविर, गरीब बच्चों के लिए शिक्षा संबंधी सहयोग, और वस्त्र वितरण जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इन कार्यों के माध्यम से महाराजा अग्रसेन की “एक ईंट, एक रुपया” वाली सोच आज भी जीवंत रहती है। यह उत्सव इस बात का सशक्त प्रमाण है कि महाराजा अग्रसेन का संदेश केवल अतीत का गौरव नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए भी प्रेरणा है।

आधुनिक समय में महाराजा अग्रसेन के आदर्शों की प्रासंगिकता
21वीं सदी की दुनिया जहाँ असमानता, आपसी विभाजन और आर्थिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है, वहाँ महाराजा अग्रसेन के आदर्श और भी प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। उनका संदेश था कि समाज तभी आगे बढ़ सकता है जब उसमें सहयोग और भाईचारे की भावना हो। यदि आज हम उनके सिद्धांतों को अपनाएँ, तो न केवल सामाजिक विषमताओं को कम कर सकते हैं, बल्कि एक संतुलित और सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण भी कर सकते हैं। महाराजा अग्रसेन का जीवन युवाओं के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायक है। वे यह सिखाते हैं कि नेतृत्व का अर्थ केवल सत्ता प्राप्त करना नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति की भलाई को ध्यान में रखकर काम करना ही सच्चा नेतृत्व है। आज जब विश्व कई चुनौतियों से जूझ रहा है - चाहे वह गरीबी हो, भेदभाव हो या पर्यावरण संकट - ऐसे समय में अग्रसेन का सहयोग और समानता का मार्ग ही वास्तविक समाधान हो सकता है। यही कारण है कि महाराजा अग्रसेन केवल इतिहास के एक महान सम्राट नहीं, बल्कि एक ऐसे युगपुरुष हैं जिनकी सोच और दर्शन आधुनिक युग में भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। उनका जीवन हम सबको यह प्रेरणा देता है कि यदि हम समानता और भाईचारे का मार्ग चुनें, तो समाज को न केवल न्यायपूर्ण, बल्कि समृद्ध और खुशहाल भी बनाया जा सकता है।
संदर्भ-
https://short-link.me/17Rtx
https://tinyurl.com/4dnup86s
https://tinyurl.com/3jyjjuxr
https://tinyurl.com/3ya2r25c
सिंगापुर का राष्ट्रीय बाग: पौधों की प्रयोगशाला से विश्व धरोहर तक का सफर
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
21-09-2025 09:26 AM
Meerut-Hindi

सिंगापुर के नेशनल बॉटैनिक गार्डन (Singapore Botanic Gardens) की नींव 1822 में सर स्टैमफोर्ड रैफल्स (Sir Stamford Raffles) ने रखी थी, जब उन्होंने बॉटैनिकल एंड एक्सपेरिमेंटल गार्डन (Botanical and Experimental Garden) की स्थापना फोर्ट कैनिंग (Fort Canning) में की। वर्तमान स्थान पर बाग का निर्माण 1859 में इंग्लिश लैंडस्केप मूवमेंट (English Landscape Movement) की शैली में एग्री-हॉर्टीकल्चर सोसाइटी (Agri-Horticultural Society) द्वारा किया गया। 1874 में यह बाग ब्रिटिश (British) औपनिवेशिक सरकार को सौंप दिया गया और इसके विकास में कई क्यू गार्डन (Kew Garden)-प्रशिक्षित वनस्पति वैज्ञानिकों का योगदान रहा। शुरुआती वर्षों में यह बाग सिंगापुर और आसपास के क्षेत्रों में कृषि विकास को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाता रहा। यहाँ पौधों को एकत्रित कर, उनकी खेती कर, प्रयोग कर और उपयोगी पौधों को फैलाया जाता था। बाग की एक बड़ी उपलब्धि रही - पारा रबर (Para rubber) का सफल प्रयोग और प्रचार, जो 20वीं सदी की शुरुआत में दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए आर्थिक समृद्धि का स्रोत बना।
1928 से बाग ने ऑर्किड प्रजनन कार्यक्रम (Orchid Hybridisation) की शुरुआत की, जिसे इन विट्रो तकनीकों द्वारा सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया गया। आज भी यह बाग 'गार्डन सिटी' कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और नए पौधों के माध्यम से शहर को और हरित बनाने में भूमिका निभाता है। 82 हेक्टेयर में फैला यह बाग न केवल वनस्पति विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सिंगापुर की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत का गौरव भी है। 4 जुलाई 2015 को इसे यूनेस्को (UNESCO) की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया, और यह दुनिया का पहला उष्णकटिबंधीय बॉटैनिक गार्डन है जिसे यह सम्मान प्राप्त हुआ। यह बाग आज भी शोध, संरक्षण और पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र में सिंगापुर के लिए प्रेरणास्त्रोत बना हुआ है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/t77tT
https://tinyurl.com/4zff4be5
https://tinyurl.com/mry66vpt
मेरठ जानिए प्रकृति के रंगों का विज्ञान, क्यों खिलते हैं फूल इतने रंगीन?
कोशिका के आधार पर
By Cell Type
20-09-2025 09:20 AM
Meerut-Hindi

जब हम में से ज़्यादातर लोग सुबह मेरठ की गलियों, बाग-बगीचों या मंदिरों के पास से गुजरते हैं, तो एक खास बात अक्सर अनकही रह जाती है - फूलों की वह रंग-बिरंगी दुनिया, जो न केवल आँखों को सुकून देती है, बल्कि मन को भी भीतर से ताज़गी और आनंद से भर देती है। गुलाब की लालिमा, गेंदा की सुनहरी चमक, सूरजमुखी की आभा या किसी मौसमी फूल की नर्म मुस्कान - ये सभी रंग जैसे जीवन को एक नई ऊर्जा से भर देते हैं। मेरठ जैसे शहर, जहाँ हर मोहल्ले में कोई न कोई बगिया महकती है, जहाँ धार्मिक स्थलों के आंगन फूलों की सजावट से जीवंत हो जाते हैं - वहाँ इन फूलों का महत्व सिर्फ सजावटी नहीं, बल्कि भावनात्मक भी हो जाता है। लेकिन क्या आपने कभी रुककर यह सोचा है कि इन फूलों को उनका यह अद्भुत रंग आखिर मिलता कैसे है? क्या ये रंग केवल देखने के लिए होते हैं, या इनके पीछे प्रकृति की कोई सूक्ष्म और गहरी योजना भी है? क्या मधुमक्खियों, तितलियों और परागणकर्ताओं के लिए इन रंगों का कोई विशेष संदेश छुपा होता है? दरअसल, फूलों के रंग केवल आकर्षण का माध्यम नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति द्वारा रची गई एक सुव्यवस्थित वैज्ञानिक भाषा का हिस्सा हैं, जिसमें प्रकाश, वर्णक और जीवन की आवश्यकता की जटिलता एक साथ काम करती है।
इस लेख में हम इसी अद्भुत रहस्य को समझने का प्रयास करेंगे। सबसे पहले हम जानेंगे कि फूलों के रंग वास्तव में कैसे बनते हैं - इसमें वर्णकों और प्रकाश की भूमिका किस तरह से होती है और हमारी आँखों को वह रंग क्यों दिखाई देता है। इसके बाद हम प्रमुख पुष्प वर्णकों जैसे फ्लेवोनॉइड्स (flavonoids), कैरोटेनॉयड्स (carotenoids) और टैनिन (tannins) की चर्चा करेंगे, जो अलग-अलग रंगों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इसके बाद हम यह देखेंगे कि फूलों के रंग केवल सुंदरता नहीं, बल्कि परागणकर्ताओं को आकर्षित करने की प्रकृति की एक रणनीति भी हैं, जिससे पौधे अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाते हैं। इसके साथ ही हम पुष्प वर्णकों के वैज्ञानिक और व्यावसायिक अनुप्रयोगों को समझेंगे - जैसे कि उनका उपयोग औषधियों, सौंदर्य प्रसाधनों और खाद्य उद्योग में कैसे होता है। अंत में, हम दुनिया के कुछ बेहद रंगीन और अद्भुत फूलों के उदाहरणोंके ज़रिए जानेंगे कि रंगों की इस विविधता का प्राकृतिक सौंदर्य और जैविक महत्व कितना गहरा है।
फूलों के रंग कैसे बनते हैं: वर्णक और प्रकाश की भूमिका
क्या आपने कभी मेरठ के बाग-बगीचों में खिले गुलाब, गेंदा या बेला को देखकर सोचा है कि इन फूलों को उनके चमकदार रंग कैसे मिलते हैं? असल में यह कोई जादू नहीं बल्कि विज्ञान की अद्भुत प्रक्रिया है। फूलों की पंखुड़ियों में मौजूद वर्णक अणु (pigments) प्रकाश की कुछ विशिष्ट तरंगदैर्ध्यों को अवशोषित करते हैं और बाकी को परावर्तित करते हैं। जो तरंगें परावर्तित होती हैं, उन्हें हम रंग के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई फूल लाल दिख रहा है, तो इसका मतलब है कि वह लाल तरंगदैर्ध्य को परावर्तित कर रहा है और बाकी को सोख ले रहा है। कुछ फूलों में केवल एक प्रकार का वर्णक होता है, जिससे वे एकल रंग में खिलते हैं, जबकि कुछ फूलों में कई वर्णकों के सम्मिलन से मिश्रित रंग दिखाई देते हैं। मेरठ की सुबह की धूप में जब फूल चटख रंगों के साथ खिले होते हैं और शाम ढलते-ढलते उनका रंग मद्धम पड़ जाता है, तो उसके पीछे प्रकाश की तीव्रता और वर्णकों की सक्रियता का ही विज्ञान छिपा होता है। फूलों की बनावट जितनी जटिल होती है, उतनी ही जटिल होती है उसकी रंगों की दुनिया।

प्रमुख पुष्प वर्णक: फ्लेवोनॉइड्स, कैरोटेनॉयड्स और टैनिन
फूलों में रंग भरने का मुख्य श्रेय जिन वर्णकों को जाता है, उनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं - फ्लेवोनॉइड्स, कैरोटेनॉयड्स और टैनिन। फ्लेवोनॉइड्स के अंतर्गत दो प्रमुख वर्णक आते हैं: एंथोसायनिन (Anthocyanin) और एंथोक्सैन्थिन (Anthoxanthin)। एंथोसायनिन फूलों में लाल, नीला और बैंगनी रंग लाता है, जैसे कि मेरठ के किसी मंदिर परिसर में खिला गहरा लाल गुलाब। वहीं एंथोक्सैन्थिन से पीले और सफ़ेद रंग के फूल, जैसे गेंदा और डैफ़ोडिल्स (Daffodils), रंग प्राप्त करते हैं। दूसरा प्रमुख वर्णक परिवार है कैरोटेनॉयड्स, जो सूरजमुखी या कैलिफ़ोर्निया पॉप्पी (California Poppy) जैसे फूलों में चमकीला पीला और नारंगी रंग पैदा करता है। यह वर्णक न केवल रंग देता है, बल्कि प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में सहायक होकर पौधे की कोशिकाओं को सूरज की क्षति से भी बचाता है। टैनिन (Tannin), एक और वर्णक समूह, भूरे और गहरे रंग के लिए ज़िम्मेदार होता है और विशेष रूप से कम चर्चित लेकिन अद्भुत फूलों में दिखाई देता है। कुछ विशिष्ट पौधों में बेटुलिन (Betulin) और क्लोरोफिल (chlorophyll) जैसे वर्णक भी मौजूद होते हैं, जो उनके रंग और जीवन क्रियाओं दोनों को प्रभावित करते हैं। इन वर्णकों के सामूहिक कार्य से ही हमें प्रकृति की यह रंग-बिरंगी सौगात मिलती है।
फूलों के रंग और परागण का संबंध: प्रकृति की अद्भुत रणनीति
फूलों की रंग-बिरंगी दुनिया का केवल एक ही उद्देश्य नहीं होता कि वे देखने में सुंदर लगें; उनका सबसे बड़ा उद्देश्य परागणकर्ताओं को आकर्षित करना होता है। फूलों के ये चमकीले रंग कीटों, पक्षियों और अन्य जीवों के लिए संकेत की तरह काम करते हैं कि यहाँ अमृत और पराग उपलब्ध है। जैसे मेरठ की सरसों की खेती में मधुमक्खियाँ पीले फूलों की ओर खिंची चली आती हैं, वैसे ही तितलियाँ और हमिंगबर्ड्स (Hummingbirds) भी कुछ खास रंगों की ओर आकर्षित होते हैं। पराबैंगनी रंग, जो इंसानी आँखों से नहीं दिखते, मधुमक्खियाँ उसे देख सकती हैं और फूल के भीतर छिपे अमृत की दिशा जान जाती हैं। रात को खिलने वाले हल्के रंग के फूल जैसे चमेली या ब्रह्मकमल चमगादड़ों जैसे रात्रिचर परागणकर्ताओं के लिए बने होते हैं। यह संबंध केवल आकर्षण का नहीं, बल्कि प्रजातियों के अस्तित्व और विकास की कुशल जैविक रणनीति का हिस्सा है। रंगों के माध्यम से फूल न केवल अपने आप को बचाए रखते हैं, बल्कि पूरी पारिस्थितिकी तंत्र को जीवन शक्ति प्रदान करते हैं।

पुष्प वर्णकों के वैज्ञानिक और व्यावसायिक अनुप्रयोग
आज के समय में फूलों के रंग केवल प्राकृतिक सौंदर्य तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनका उपयोग विज्ञान और व्यवसाय दोनों क्षेत्रों में तेजी से बढ़ रहा है। आनुवंशिक विज्ञान ने यह संभव बना दिया है कि हम प्राकृतिक वर्णकों के जीन में परिवर्तन करके नई किस्म के रंगीन फूल तैयार कर सकें, जो बाज़ार में विशेष आकर्षण बनें। मेरठ जैसे शहर, जहाँ बागवानी की परंपरा धीरे-धीरे फिर से उभर रही है, वहां पुष्प वर्णकों पर आधारित उत्पाद और खेती स्थानीय उद्यमियों के लिए नए अवसर खोल सकती है। सौंदर्य प्रसाधनों में फ्लावोनॉइड्स का उपयोग त्वचा की सुरक्षा और रंगत सुधारने में किया जा रहा है, वहीं खाद्य उद्योग में प्राकृतिक कैरोटेनॉयड्स को रंगों के सुरक्षित विकल्प के रूप में अपनाया जा रहा है। दवाओं में भी कुछ पुष्प वर्णक एंटीऑक्सीडेंट (antioxidants) और सूजन-निवारक गुणों के कारण उपयोग में लाए जा रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि फूलों के रंग न केवल आंखों को सुख देते हैं, बल्कि आर्थिक और वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं।

दुनिया के कुछ अद्भुत रंगीन फूल और उनके प्राकृतिक गुण
विश्वभर में अनेक फूल ऐसे हैं जो केवल अपने सुंदर रंगों के लिए नहीं, बल्कि अपनी अनूठी बनावट और सांस्कृतिक प्रतीकात्मकता के लिए भी प्रसिद्ध हैं। जापान का व्हाइट एगरेट ऑर्किड (White Egret Orchid), अपनी सफेद पंखुड़ियों और उड़ते पक्षी जैसी आकृति से हर दर्शक को मंत्रमुग्ध कर देता है। भारत का सेक्रेड लोटस (Sacred Lotus) कीचड़ में खिलता है, फिर भी पूर्ण सौंदर्य और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है, यह संघर्ष और आत्मशुद्धि का प्रतीक है। पॉम्पॉन डहलिया (Pompon Dahlia) अपने गोल और घने रूप में, जैसे-जैसे मौसम बदलता है, बाग़ को जीवंत कर देता है। फ्यूशिया (Fuchsia), अपने गहरे गुलाबी और बैंगनी रंगों से, बाल्कन क्षेत्रों से लेकर भारत के पर्वतीय हिस्सों तक, सौंदर्य और सजावट का लोकप्रिय माध्यम बन गया है। सैफ़्रन क्रोकस (Saffron Crocus) न केवल अपने खूबसूरत फूल के लिए जाना जाता है, बल्कि इसके केसर वर्तिकाग्र से प्राप्त मसाले के लिए भी बहुमूल्य है। इन फूलों की विविधता इस बात का प्रमाण है कि प्रकृति हर रंग, आकार और सुगंध के माध्यम से जीवन की जटिलता और सौंदर्य को दर्शाती है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/OPCe5
मानव जीनोम परियोजना: स्वास्थ्य से समाज तक बदलाव की वैज्ञानिक क्रांति
डीएनए
By DNA
19-09-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, विज्ञान की दुनिया में कुछ खोजें ऐसी होती हैं जो केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि मानव जीवन, समाज और भविष्य को गहराई से प्रभावित करती हैं। ऐसी ही एक अद्भुत वैज्ञानिक यात्रा रही है - मानव जीनोम परियोजना (Human Genome Project)। यह वह वैश्विक पहल थी जिसने पहली बार इंसान के पूरे डीएनए अनुक्रम को समझने और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने का संकल्प लिया। इस परियोजना ने यह सिद्ध कर दिया कि हम न केवल बीमारी और स्वास्थ्य को बेहतर समझ सकते हैं, बल्कि पर्यावरणीय सफाई, ऊर्जा उत्पादन और यहां तक कि सामाजिक न्याय के क्षेत्रों में भी नई दिशाएं खोल सकते हैं। मेरठ जैसे शहरी और शैक्षिक रूप से विकसित होते शहर में, जीनोम अनुसंधान से जुड़ी जानकारी का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि यह नई पीढ़ी को विज्ञान, स्वास्थ्य और समाज के भीतर आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देता है।
इस लेख में हम मानव जीनोम परियोजना के कुछ प्रमुख पहलुओं पर गहराई से विचार करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि इस परियोजना का मूल उद्देश्य क्या था और इसे वैश्विक सहयोग से कैसे आगे बढ़ाया गया। इसके बाद, हम यह समझेंगे कि जीनोम डेटा (genome data) को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने से विज्ञान और समाज को क्या-क्या लाभ हुए। आगे, हम परियोजना से जुड़े नैतिक, कानूनी और सामाजिक निहितार्थों (ELSI) की पड़ताल करेंगे, जो जीनोम जानकारी की गोपनीयता और इसके दुरुपयोग की संभावनाओं से जुड़ी चिंताओं को दर्शाते हैं। इसके साथ ही, हम देखेंगे कि यह परियोजना कैसे चिकित्सा विज्ञान में नई राहें खोलती है, और डीएनए फोरेंसिक (DNA Forensic) तकनीक के माध्यम से न्याय व्यवस्था को भी सशक्त बनाती है। अंत में, हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि जीनोम अनुक्रमण ने पर्यावरणीय सफाई और स्वच्छ जैव ऊर्जा के क्षेत्र में कौन-कौन सी संभावनाएँ पैदा की हैं।

मानव जीनोम परियोजना का उद्देश्य और वैश्विक सहयोग
मानव जीनोम परियोजना (एचजीपी - HGP) 20वीं सदी के अंत की उन ऐतिहासिक वैज्ञानिक उपलब्धियों में से एक थी जिसने "मानव जीवन का खाका" खोलकर रख दिया। इसका उद्देश्य था इंसानी डीएनए की पूरी अनुक्रमण (sequencing) करना, यानी उस कोड को पढ़ना जिससे हर व्यक्ति की जैविक पहचान बनती है। इस परियोजना की औपचारिक शुरुआत अमेरिका के नेशनल इंस्टिट्यूट्स ऑफ़ हेल्थ (NIH) और डिपार्टमेंट ऑफ़ एनर्जी (DOE) ने 1990 में की थी। लेकिन यह प्रयास जल्दी ही एक अंतरराष्ट्रीय विज्ञान आंदोलन में बदल गया, जिसमें 18 से अधिक देशों ने योगदान दिया - इंग्लैंड, फ्रांस (France), जापान, चीन, जर्मनी (Germany) समेत कई अन्य। इसका खास पहलू यह था कि इसे केवल विज्ञान की प्रयोगशालाओं तक सीमित न रखकर एक साझा मानव प्रयास के रूप में देखा गया। इसका मूल विचार था - "हम सबका डीएनए भिन्न ज़रूर है, लेकिन मूलतः हम सब एक जैसे हैं।" इसने वैश्विक वैज्ञानिक सहयोग को नई परिभाषा दी। मेरठ जैसे शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में आगे बढ़ते शहर के लिए यह उदाहरण प्रेरणादायक है कि जब ज्ञान को साझा किया जाए, तो उसकी पहुँच सीमाओं से परे होती है।

जीनोम डेटा की सार्वजनिक पहुंच और वैज्ञानिक लाभ
मानव जीनोम परियोजना ने एक क्रांतिकारी सिद्धांत अपनाया - जो भी डीएनए अनुक्रमण डेटा प्रतिदिन तैयार होगा, वह 24 घंटे के भीतर सार्वजनिक किया जाएगा। यह निर्णय आज की डिजिटल दुनिया में आम लग सकता है, लेकिन 1990 के दशक में यह वैज्ञानिक पारदर्शिता का अभूतपूर्व उदाहरण था। इससे दुनिया के किसी भी कोने में बैठे वैज्ञानिक, चिकित्सक, शिक्षक और छात्र बिना किसी शुल्क के इस ज्ञान का उपयोग कर सकते थे। इस खुले डेटा नीति ने बायोटेक्नोलॉजी (biotechnology), फार्मास्युटिकल रिसर्च (pharmaceutical research), जीनोम आधारित शिक्षा और जन स्वास्थ्य नीति जैसे क्षेत्रों में तेज़ विकास को संभव बनाया। आज जब मेरठ के कई स्कूलों और कॉलेजों में जैव प्रौद्योगिकी और बायोइन्फॉर्मेटिक्स (bioinformatics) जैसे विषय पढ़ाए जा रहे हैं, तो यह ज़रूरी हो जाता है कि छात्र इस डेटा को एक्सेस (access) कर, आधुनिक शोध में भागीदारी कर सकें। यह परियोजना यह सिखाती है कि जब ज्ञान को सीमित नहीं किया जाता, तब नवाचार को सीमाएं भी नहीं रोक पातीं।

नैतिक, कानूनी और सामाजिक निहितार्थ (ईएलएसआई - ELSI)
जब हम इंसान के डीएनए जैसे व्यक्तिगत और संवेदनशील डेटा को सार्वजनिक करते हैं, तब यह केवल वैज्ञानिक मामला नहीं रह जाता - यह नैतिक, कानूनी और सामाजिक ज़िम्मेदारी बन जाता है। इसी विचार को ध्यान में रखते हुए एचजीपी के अंतर्गत ईएलएसआई कार्यक्रम की स्थापना की गई, जो इन पहलुओं पर शोध करता था। प्रश्न उठे - क्या कोई व्यक्ति किसी की आनुवंशिक जानकारी का दुरुपयोग कर सकता है? क्या कंपनियाँ इस आधार पर नौकरी या बीमा देने से इंकार कर सकती हैं? क्या समाज में नई तरह के भेदभाव जन्म लेंगे? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिए अमेरिका में कार्यशालाएं, पाठ्यक्रम, डॉक्युमेंट्री फ़िल्में (documentary films) और संवाद कार्यक्रम शुरू हुए। भारत के परिप्रेक्ष्य में, जहाँ सामाजिक संरचना पहले से ही जाति, वर्ग और आर्थिक भेदभाव से जूझ रही है, वहाँ जीनोम डेटा को संवेदनशीलता और जागरूकता के साथ ही उपयोग किया जा सकता है। मेरठ जैसे शहर, जहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ तेज़ी से बढ़ रही हैं, वहां आम नागरिकों को यह समझाना जरूरी है कि आपके जीन की जानकारी आपकी शक्ति है, कमजोरी नहीं - बशर्ते इसे ज़िम्मेदारी से इस्तेमाल किया जाए।

परियोजना के अनुप्रयोग: चिकित्सा और डीएनए फोरेंसिक
मानव जीनोम परियोजना ने चिकित्सा विज्ञान को निदान और उपचार के नए युग में प्रवेश दिलाया। पहले जिन बीमारियों को ‘भाग्य’ का नाम दिया जाता था - जैसे थैलेसीमिया (Thalassemia), हीमोफीलिया (hemophilia), ब्रैका (Brca) जीन से जुड़ा स्तन कैंसर (breast cancer) या अल्ज़ाइमर (Alzheimer's) - अब उन्हें जीन स्तर पर समझा और समय रहते पहचाना जा सकता है। इससे निजीकृत चिकित्सा (Personalized Medicine) का युग शुरू हुआ, जहां इलाज व्यक्ति की आनुवंशिक संरचना के आधार पर तय किया जाता है। साथ ही, फोरेंसिक विज्ञान में इस परियोजना ने एक बड़ी क्रांति की। अब अपराधियों की पहचान केवल फिंगरप्रिंट (fingerprint) से नहीं, बल्कि डीएनए प्रोफाइल (DNA profile) के आधार पर होती है - जो व्यक्ति-विशेष के लिए उतना ही अनूठा है जितना उसकी आंखों का रंग या आवाज़। भारत की अदालतों में अब डीएनए सबूतों को मान्यता मिलने लगी है। मेरठ, जहाँ फोरेंसिक साइंस (forensic science) की शिक्षा और क्राइम इन्वेस्टिगेशन (crime investigation) का दायरा बढ़ रहा है, वहां जीनोम आधारित सबूतों का उपयोग न्याय प्रणाली में पारदर्शिता और गति लाने में मदद कर सकता है।

पर्यावरणीय सफाई और जैव ऊर्जा में संभावनाएँ
मानव जीनोम परियोजना केवल स्वास्थ्य और चिकित्सा तक सीमित नहीं थी - इसका एक हरित पहलू भी है। 1994 में शुरू की गई माइक्रोबियल जीनोम इनिशिएटिव (Microbial Genome Initiative) के तहत वैज्ञानिकों ने ऐसे सूक्ष्म जीवों के जीनोम का अध्ययन किया जो ज़हरीले अपशिष्टों को तोड़ सकते हैं या गंदे जल को साफ करने में मदद करते हैं। इससे बायोरिमेडिएशन (bioremediation) जैसी तकनीकों का विकास हुआ, जहां बैक्टीरिया (bacteria) और फफूंदों का प्रयोग औद्योगिक सफाई में किया जाने लगा। साथ ही, बायो-एनर्जी (bio-energy) जैसे विकल्पों की खोज तेज़ हुई - जैसे एल्गी (algae - काई) से ईंधन बनाना, या अपशिष्ट से बायोगैस (biogas)। यह केवल पर्यावरणीय समाधान नहीं, बल्कि ऊर्जा की आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम है। मेरठ जैसे शहर, जहाँ उद्योग और ऊर्जा की खपत दोनों अधिक है, वहां इस तकनीक का उपयोग वायु और जल प्रदूषण को कम करने और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ ऊर्जा पहुंचाने में किया जा सकता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/4pkncnza
क्यों मेरठवासियों को हवाई यात्रा से बढ़ते प्रदूषण और उसके असर पर ध्यान देना ज़रूरी है?
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
18-09-2025 09:22 AM
Meerut-Hindi

मेरठ जैसे गतिशील और तेजी से उभरते शहर में हवाई यात्रा की आवश्यकता अब केवल एक लग्ज़री (luxury) नहीं, बल्कि एक आवश्यकता बनती जा रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और पर्यटन के क्षेत्र में सक्रिय मेरठवासियों के लिए दिल्ली, इंदौर या देहरादून जैसे प्रमुख हवाई अड्डों तक बार-बार की आवाजाही अब सामान्य बात हो गई है। परंतु जिस गति से हवाई यातायात का विस्तार हो रहा है, उसी अनुपात में इसके पीछे छिपे पर्यावरणीय प्रभावों पर सोचने की ज़रूरत भी बढ़ गई है। क्या आपने कभी इस पर विचार किया है कि एक लंबी दूरी की उड़ान से जितनी कार्बन डाइऑक्साइड (carbon dioxide) वातावरण में घुलती है, वह हमारे शहर की हवा को कितना प्रभावित कर सकती है? यह केवल आंकड़ों की बात नहीं है - यह हमारे फेफड़ों, हमारे जल स्रोतों, और हमारे बच्चों के भविष्य से जुड़ा हुआ मुद्दा है। हवाई जहाजों से निकलने वाली हानिकारक गैसें, ज़हरीले कण और शोर हमारे आस-पास की पारिस्थितिकी को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं। और जब मेरठ जैसे शहर में एयर कनेक्टिविटी (air connectivity) बढ़ाने की योजनाएँ बन रही हों, तब यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि हम इस मुद्दे की पर्यावरणीय कीमत को भी समझें। ऐसे समय में जब हम विकास की उड़ान भरना चाहते हैं, हमें यह भी तय करना होगा कि यह उड़ान हमारे आसमान को और काला न कर दे। इस लेख के माध्यम से हमारा प्रयास है कि हम इस ज़रूरी विषय को आपके सामने मानवीय और वैज्ञानिक दोनों दृष्टिकोणों से रखें - ताकि विमानन की गति और प्रकृति की शांति में संतुलन बना रहे।
इस लेख में हम कुछ प्रमुख बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करेंगे। सबसे पहले, हम समझेंगे कि विमानन उद्योग का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है और यह वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कैसे योगदान देता है। इसके बाद, हम वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और स्वास्थ्य पर होने वाले जोखिमों का विश्लेषण करेंगे। आगे, विमानों में उत्सर्जन कम करने की तकनीकों और ऊर्जा दक्षता बढ़ाने वाले उपायों पर चर्चा होगी। हम जैव ईंधन और हरित ऊर्जा के योगदान तथा अंतरराष्ट्रीय उदाहरणों की भी पड़ताल करेंगे। इसके साथ ही भारत में विमानन क्षेत्र के सतत विकास हेतु चल रहे प्रयासों को समझेंगे। अंत में, हम उन नीति संबंधी उपायों पर ध्यान देंगे जो पर्यावरण संरक्षण और विमानन विकास के बीच संतुलन बना सकते हैं।

विमानन उद्योग और पर्यावरण पर प्रभाव
आज का विमानन उद्योग आधुनिक जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। यह हमारी गति, संपर्क और वैश्विक व्यापार के लिए एक अत्यंत आवश्यक साधन है, लेकिन इसके पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में विमानन उद्योग का लगभग 2% योगदान है, जो आंकड़ों में छोटा लग सकता है, लेकिन इसका जलवायु पर प्रभाव कहीं अधिक व्यापक और गंभीर है। विमानों के जेट इंजन (jet engine) भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड (nitrogen oxide), वाष्प पुंज और अन्य सूक्ष्म कण उत्सर्जित करते हैं, जो वातावरण की ऊपरी परतों में जाकर ग्लोबल वार्मिंग (global warming) के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि एक लंबी दूरी की उड़ान से जितना उत्सर्जन होता है, उतना उत्सर्जन कई लोग एक वर्ष में नहीं करते। उड़ानों के दौरान होने वाला ध्वनि प्रदूषण भी एक बड़ी चिंता का विषय है, जिससे हवाई अड्डों के आसपास के निवासियों की जीवन गुणवत्ता प्रभावित होती है। वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के इस प्रत्यक्ष संबंध को समझते हुए अब समय आ गया है कि हम विमानन को केवल सुविधा की नज़र से न देखकर, उसे एक जिम्मेदार उद्योग के रूप में देखें जो पृथ्वी के पर्यावरण के प्रति जवाबदेह है।
वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य जोखिम
विमानन उद्योग का प्रभाव केवल वातावरण तक सीमित नहीं है, यह हमारे स्वास्थ्य पर भी प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। उड़ानों के समय उत्पन्न होने वाला ध्वनि प्रदूषण इतना तीव्र होता है कि इससे बच्चों की एकाग्रता भंग होती है, नींद में खलल आता है और वृद्धों को हृदय संबंधित बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। उच्च आवृत्ति की ध्वनि हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डालती है, जो धीरे-धीरे अवसाद और तनाव जैसी समस्याओं को जन्म दे सकती है। इसके अलावा, विमानों के ईंधन में प्रयुक्त होने वाले रसायनों में सीसा, सल्फर (sulfur) और कई विषैले तत्त्व होते हैं जो वायुमंडल में फैलने के बाद हमारे फेफड़ों, रक्तचाप और संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करते हैं। हवाई अड्डों से निकलने वाले ईंधन अपशिष्ट और रासायनिक जल, पास के जलस्रोतों को दूषित कर सकते हैं, जिससे स्थानीय आबादी और जैवविविधता को गंभीर खतरा होता है। अति सूक्ष्म कण (PM2.5 और PM0.1) श्वसन तंत्र में गहराई तक प्रवेश कर शरीर में दीर्घकालिक बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं। इसलिए विमानन उद्योग को केवल आर्थिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी पुनर्विचार की आवश्यकता है।
विमानन उद्योग में उत्सर्जन कम करने की तकनीकें
भविष्य के लिए एक हरित विमानन प्रणाली बनाना संभव है, बशर्ते हम तकनीकी नवाचार और व्यवहारिक रणनीतियों को अपनाएं। आज अनेक विमान कंपनियां ईंधन दक्षता में सुधार लाने वाले तकनीकों पर कार्य कर रही हैं। नए युग के जेट इंजन पुराने इंजनों की तुलना में कम ईंधन जलाते हैं और अपेक्षाकृत कम प्रदूषण फैलाते हैं। इसके अतिरिक्त, टर्बोफैन इंजन (turbofan engine) और कम नॉइज़ वाली डिज़ाइनें (low noise designs) भी पर्यावरण पर असर घटाने में मदद करती हैं। उड़ान मार्गों का अनुकूलन (Flight Path Optimization) और एयर ट्रैफिक मैनेजमेंट (air traffic management) में सुधार करके, उड़ानों की देरी और अनावश्यक ईंधन दहन को कम किया जा सकता है। छोटी दूरी की उड़ानों को तेज़ रेल सेवाओं से बदलने की योजना भी अब व्यवहारिक बन रही है, जिससे कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी। हाइब्रिड (Hybrid), इलेक्ट्रिक (Electric) और हाइड्रोजन (Hydrogen) से चलने वाले विमानों पर हो रहा वैश्विक अनुसंधान आने वाले दशक में क्रांति ला सकता है। इन सभी प्रयासों से न केवल पर्यावरण को लाभ होगा, बल्कि एयरलाइन कंपनियों की लागत भी घटेगी, जिससे उद्योग और उपभोक्ता दोनों को फायदा होगा।

जैव ईंधन और हरित ऊर्जा का योगदान
विमानन में जैव ईंधन का उपयोग वर्तमान समय में सबसे प्रभावी और व्यवहारिक समाधान माना जा रहा है। जैव ईंधन पौधों, वनस्पति तेलों, और जैविक अपशिष्ट से बनाया जाता है, जो कार्बन-तटस्थ (Carbon Neutral) होता है। जैव ईंधन के उपयोग से सीओ2 (CO2) उत्सर्जन में 60–80% तक की कमी लाई जा सकती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नॉर्वे (Norway) के ओस्लो हवाई अड्डे (Oslo Airport) और फ्लोरिडा (Florida, USA) के टाम्पा हवाई अड्डे (Tampa Airport) जैव ईंधन अपनाकर उदाहरण बन चुके हैं। भारत में भी यह संभावना तेज़ी से विकसित हो रही है। भारतीय हवाई अड्डे और विमान कंपनियां यदि हरित ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश करें, तो न केवल उनका पर्यावरणीय प्रभाव घटेगा, बल्कि उनकी ब्रांड (brand) छवि भी सुधरेगी। जैव ईंधन का प्रयोग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी मज़बूती दे सकता है क्योंकि इसके लिए किसान जैविक अपशिष्ट और फसलों से अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं। यदि नीतिगत सहयोग मिले, तो भारत एक वैश्विक हरित विमानन नेतृत्वकर्ता बन सकता है।
भारत में विमानन उद्योग के सतत विकास प्रयास
भारत में विमानन का विस्तार अभूतपूर्व है, लेकिन इसके साथ-साथ सतत विकास की चुनौतियाँ भी जुड़ी हुई हैं। ईंधन दक्षता बढ़ाने के लिए सरकार और निजी विमानन कंपनियाँ मिलकर कई योजनाओं पर काम कर रही हैं। कई नए विमानों को केवल इस दृष्टि से खरीदा गया है कि वे पर्यावरण पर कम दुष्प्रभाव डालें। उड़ान मार्गों को व्यवस्थित करके, टैक्सी (taxi) समय घटाकर और हवाई यातायात प्रणाली को डिजिटल बनाकर ईंधन की खपत को कम किया जा रहा है। भारतीय प्रबंधन संस्थान इंदौर और लिवरपूल विश्वविद्यालय के संयुक्त अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि हवाई अड्डों और विमान कंपनियों के बीच राजस्व साझेदारी से हरित निवेश को बढ़ावा मिल सकता है। यदि हवाई अड्डा अपने मुनाफे का एक भाग विमान कंपनियों को वापस दे, और कंपनियाँ उसे हरित तकनीक पर खर्च करें, तो यह पारस्परिक सहयोग पूरे उद्योग को हरित दिशा में ले जा सकता है। भारत में यह मॉडल (model) अभी प्रारंभिक अवस्था में है, लेकिन इसकी संभावनाएँ बेहद मजबूत हैं।
सतत विकास और नीति संबंधी उपाय
सतत विमानन केवल तकनीक से नहीं, नीति और शासन की मजबूती से भी संभव है। भारत सरकार और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियाँ मिलकर हरित विमानन के लिए नियम और प्रोत्साहन नीति बना रही हैं। जैसे - कार्बन टैक्स (carbon tax), हरित प्रमाणपत्र, जैव ईंधन अनुदान, और हरित इनफ्रास्ट्रक्चर क्रेडिट (Green Credit Programme) जैसी पहलें। पेरिस समझौता, 2050 तक शुद्ध-शून्य कार्बन उत्सर्जन (Net Zero Emissions) का लक्ष्य निर्धारित करता है, जिसे आईएटीए (IATA) ने अपनाया है। भारत भी इस दिशा में अपने प्रयास बढ़ा रहा है, जिससे आर्थिक वृद्धि और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के बीच संतुलन बने। नीति निर्माण में नागरिक भागीदारी, पारदर्शिता और स्थानीय पर्यावरण हितधारकों को शामिल करना आवश्यक है। जब शासन, तकनीक और जनचेतना साथ काम करें, तभी विमानन का भविष्य वास्तव में ‘सतत’ बन सकेगा।
संदर्भ-
मेरठवासियों के लिए साधारण लौकी से कला और स्वरोज़गार की संभावनाएँ
म्रिदभाण्ड से काँच व आभूषण
Pottery to Glass to Jewellery
17-09-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके खेतों में उगने वाली साधारण-सी लौकी, सिर्फ रसोई की सब्ज़ी नहीं बल्कि एक सुंदर आभूषण, कलात्मक मुखौटा या दीवार की सजावट बन सकती है? हमारे मेरठ की धरती केवल गेहूँ, गन्ना या खेल प्रतिभाओं के लिए नहीं जानी जाती, बल्कि यहाँ की सांस्कृतिक चेतना और लोककला की परंपराएँ भी उतनी ही समृद्ध रही हैं। कभी यहाँ की गलियों में मिट्टी के खिलौने गढ़े जाते थे, तो कभी लकड़ी और धातु पर नक्काशी होती थी। आज उसी लोककला के पुनरुत्थान की एक अनूठी झलक लौकी शिल्पकला के रूप में हमारे सामने है। यह शिल्पकला न केवल परंपरा और प्रकृति का मेल है, बल्कि यह आधुनिकता और आत्मनिर्भरता की राह भी दिखाती है। कठोर छिलके वाली लौकी, जो अक्सर खेतों में बेकार पड़ी रह जाती है या बाजार में कम दाम में बिकती है, वह अब एक ऐसी कच्ची सामग्री बन गई है जिससे गहने, दीवार सज्जा, संगीत वाद्य और यहाँ तक कि घरेलू उपयोग की वस्तुएँ भी तैयार हो रही हैं। इस कला के माध्यम से न सिर्फ हमारे किसान अपनी उपज का नया मूल्य पा सकते हैं, बल्कि मेरठ के युवाओं और महिलाओं के लिए यह स्वरोज़गार और रचनात्मकता का एक नया मंच बन सकता है।
इस लेख में हम लौकी शिल्पकला के कुछ प्रमुख पहलुओं को समझेंगे। इसमें इसके सांस्कृतिक महत्व, भारत में खेती और आर्थिक अवसर, प्रमुख तकनीकें, बस्तर का प्रसिद्ध ‘तुमा शिल्प’, आभूषण निर्माण की विधियाँ और आवश्यक औजारों की जानकारी शामिल है। यह लेख दिखाएगा कि कैसे साधारण लौकी, कला और रोजगार का स्रोत बन सकती है और पारंपरिक शिल्प को आधुनिक रूप में जीवित रखा जा सकता है।

लौकी शिल्पकला का परिचय और सांस्कृतिक महत्व
लौकी को अक्सर केवल एक साधारण सब्ज़ी के रूप में देखा जाता है, लेकिन इसके कठोर छिलके वाली प्रजातियाँ असाधारण कलात्मक माध्यम बन सकती हैं। लौकी शिल्पकला एक ऐसी कला है जिसमें सूखी, कठोर लौकी को तराशकर विभिन्न आकृतियों, रंगों और सजावटी तत्वों से सजाया जाता है। यह केवल सौंदर्यबोध नहीं देती, बल्कि हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास को भी जीवंत रखती है। प्राचीन भारत में लौकी से बने बर्तन, टोपी, मुखौटे और संगीत वाद्ययंत्र धार्मिक अनुष्ठानों और उत्सवों का हिस्सा हुआ करते थे। इनका उपयोग न केवल दैनिक जीवन में होता था, बल्कि ये शिल्पकला की पारंपरिक परंपराओं और स्थानीय मान्यताओं का प्रतीक भी होते थे। आज लौकी शिल्पकला में आधुनिक डिज़ाइन (design) और नवाचार को जोड़कर इसे नए आयाम दिए जा रहे हैं। हर तराशी गई लौकी अपने आप में एक कहानी, संस्कृति और रचनात्मकता का मिश्रण होती है। यह कला यह सिखाती है कि साधारण वस्तुएँ भी सही दृष्टिकोण और प्रयास से असाधारण बन सकती हैं।
भारत में लौकी की खेती और आर्थिक पक्ष
लौकी की खेती कई राज्यों में प्राचीनकाल से होती आ रही है, लेकिन इसका आर्थिक मूल्य अक्सर सीमित रहता है। अधिकांश किसान इसे सिर्फ सब्ज़ी के रूप में ही बेचते हैं, जिससे इसकी कीमत 40-50 रुपये प्रति लौकी के आसपास ही रहती है। छोटे परिवारों में बड़ी लौकी की मांग कम होने के कारण अक्सर बड़ी लौकी बेकार रह जाती है। साथ ही, हाइब्रिड बीजों (Hybrid Seeds) और मोनोक्रॉपिंग (Monocropping) के बढ़ते चलन से पारंपरिक लौकी की कई किस्में विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन परिस्थितियों में लौकी शिल्पकला एक नई राह प्रस्तुत करती है। कलात्मक रूप से तैयार किए गए लौकी के उत्पादों की कीमत मूल सब्ज़ी की तुलना में कई गुना अधिक होती है। इससे किसानों और शिल्पकारों को एक नया बाजार और स्थायी आय का अवसर मिलता है। इसके अतिरिक्त, यह विधा ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में स्वरोज़गार के अवसर बढ़ाती है, महिलाओं और युवाओं को सशक्त बनाती है और पारंपरिक कला के संरक्षण में मदद करती है। लौकी शिल्पकला एक ऐसा माध्यम बनती है जो न केवल आर्थिक लाभ देती है बल्कि संस्कृति और कौशल को भी आगे बढ़ाती है।
लौकी शिल्पकला की प्रमुख तकनीकें
लौकी को कलात्मक रूप देने के लिए कई तकनीकें अपनाई जाती हैं, जो इसे केवल सजावटी कला से कहीं अधिक मूल्यवान बनाती हैं। सबसे पहले, सूखी लौकी को अच्छी तरह सुखाया जाता है और फिर उसे रेतने (sanding) की प्रक्रिया से चिकना किया जाता है। यह सतह को परिष्कृत और रंगों के लिए अनुकूल बनाती है। इसके बाद नक्काशी (carving) की जाती है, जिसमें लकड़ी या धातु के औजारों से सुंदर और जटिल आकृतियाँ उकेरी जाती हैं। जलाना (pyrography) तकनीक में गर्म धातु उपकरणों की नोक से डिज़ाइन जलाकर उकेरे जाते हैं, जिससे हर टुकड़ा जीवंत और प्रभावशाली बनता है। रंगाई और पॉलिशिंग (polishing) की प्रक्रिया में ऐक्रेलिक रंग (Acrylic colors), प्राकृतिक सजावटी तत्व, मोती, धातु की पत्तियाँ और पेंटिंग (painting) का उपयोग किया जाता है। ये सभी तकनीकें मिलकर लौकी को एक अनूठी और दीर्घकालिक कलाकृति में परिवर्तित कर देती हैं। इस कला की खूबी यह है कि हर टुकड़ा अलग होता है, और इसे बनाने वाला शिल्पकार अपनी कल्पना और रचनात्मकता का पूर्ण प्रयोग कर सकता है।

बस्तर का तुमा शिल्प: लौकी कला का अनूठा उदाहरण
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र से जन्मा ‘तुमा शिल्प’ लौकी कला का एक जीवंत उदाहरण है। इसे कोंडागांव के शिल्पकार जगत राम देवांगन ने विकसित किया, और यह शिल्प अब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो चुका है। तुमा शिल्प में सूखी लौकी को गर्म चाकू या अन्य औजारों से उकेरा जाता है और उससे दीवार सजावट, मास्क (mask), पॉट्स (pots), लैंपशेड (lampshade) और आभूषण बनाए जाते हैं। पहले जहां बेकार समझी जाने वाली लौकी फेंक दी जाती थी, वहीं अब इसे विशेष रूप से शिल्प उद्देश्यों के लिए उगाया जाता है। यह तकनीक न केवल शिल्पकारों के लिए आय का स्रोत बनती है, बल्कि युवाओं और महिलाओं के लिए स्वरोज़गार का अवसर भी प्रस्तुत करती है। तुमा शिल्प कला, लोक संस्कृति और आधुनिक नवाचार का उत्कृष्ट मिश्रण है, जो यह दिखाता है कि परंपरागत कला को सही दृष्टिकोण और कौशल से कितना समृद्ध बनाया जा सकता है।
लौकी से आभूषण निर्माण की विधियाँ
लौकी से गहनों का निर्माण एक आकर्षक और पर्यावरण-सम्मत कला है। इसके लिए छोटी और कठोर लौकी का चयन किया जाता है। इसे पूरी तरह सुखाया और रेतकर चिकना किया जाता है। पेंडेंट (pendant) बनाने के लिए लौकी पर डिज़ाइन उकेरे जाते हैं और पेंट, पॉलिश या डाई (dye) का उपयोग कर रंग भरा जाता है। हार बनाने के लिए लौकी में छेद किए जाते हैं और डोरी के माध्यम से मोती या छोटी लौकियाँ पिरोकर सुंदर हार तैयार किया जाता है। इसी तरह, ब्रेसलेट (bracelet) और बालियाँ बनाने के लिए लौकी को पतले छल्लों में काटा जाता है और पॉलिश और सजावट की जाती है। यह कला न केवल सौंदर्य और रचनात्मकता को प्रकट करती है, बल्कि पहनने वाले की व्यक्तिगत शैली और प्रकृति से जुड़ाव का संदेश भी देती है। प्रत्येक टुकड़ा अनूठा होता है और यह पहनने वाले को पारंपरिक कला के साथ जोड़ता है।

आवश्यक औजार और सामग्री
लौकी शिल्पकला की सुंदरता इसकी सादगी में भी छिपी है। इसे सीखने और अपनाने के लिए बहुत महंगे उपकरणों की आवश्यकता नहीं होती। एक शुरुआत करने वाले शिल्पकार के लिए छोटी आरी, शिल्प चाकू या बैंड आरा (band saw), सैंडपेपर (sandpaper), ड्रिल (drill) और लकड़ी जलाने वाले बर्नर पर्याप्त होते हैं। सजावट के लिए ऐक्रेलिक पेंट, मोती, धागे, प्राकृतिक सजावटी वस्तुएँ और धातु की पत्तियाँ उपयोग में लाई जा सकती हैं। डिज़ाइन के लिए इंटरनेट (internet) से प्रेरणा ली जा सकती है या स्वयं की कल्पना से नए पैटर्न (pattern) बनाए जा सकते हैं। इसे घर पर ही आसानी से सीखा जा सकता है। यह कला न केवल रचनात्मकता को बढ़ाती है, बल्कि स्वरोज़गार और आत्मनिर्भरता का मार्ग भी खोलती है।
संदर्भ-
संस्कृति 2100
प्रकृति 765