मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












मेरठ सिटी जंक्शन: शहर की धड़कन और रेल यातायात की रीढ़
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
03-08-2025 09:31 AM
Meerut-Hindi

मेरठ, उत्तर भारत का ऐतिहासिक और तेजी से विकसित होता शहर, सिर्फ अपने स्वतंत्रता संग्राम, खेल और शिक्षा के लिए नहीं, बल्कि अपने रेल नेटवर्क (rail network) के लिए भी जाना जाता है। इस शहर की जीवनरेखा बन चुके दो प्रमुख स्टेशन — मेरठ सिटी जंक्शन (MTC) और मेरठ कैंट (MUT) — रोज़ाना लाखों यात्रियों की आवाजाही को सम्भालते हैं, और साथ ही शहर के औद्योगिक और सैन्य पक्ष को भी मज़बूती प्रदान करते हैं।
पहले वीडियो में हम मेरठ सिटी जंक्शन को देखेंगे और उसकी मुख्य विशेषताओं को जानेंगे।
मेरठ सिटी जंक्शन न केवल मेरठ का सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन है, बल्कि यह पूरे क्षेत्र की रेल यात्रा का केंद्रबिंदु भी बन चुका है। 1911 में ब्रिटिश शासन के दौरान स्थापित यह स्टेशन आज उत्तरी रेलवे ज़ोन के अधीन संचालित होता है और दिल्ली–सहारनपुर व मेरठ–खुर्जा रेल मार्गों को जोड़ने वाला अहम जंक्शन है।
प्रमुख विशेषताएँ:
• स्टेशन पर कुल 6 प्लेटफॉर्म (platform) और 13 ट्रैक (track) हैं, जो इलेक्ट्रिक डबल लाइन (electric double line) से सुसज्जित हैं, जिससे ट्रेनों की आवाजाही तेज़ और सुगम हो पाती है।
• 78 से अधिक ट्रेनों का नियमित ठहराव, जिनमें नौचंदी एक्सप्रेस (Express), संगम एक्सप्रेस, राज्य रानी एक्सप्रेस और अत्याधुनिक वंदे भारत एक्सप्रेस जैसी प्रमुख ट्रेनें शामिल हैं।
• यात्रियों की सुविधा के लिए स्टेशन पर कैटरिंग (catering), एटीएम (ATM), वेटिंग रूम (visiting room), डाकघर (पोस्ट ऑफिस) और एक रेलवे अस्पताल जैसी आवश्यक सेवाएँ उपलब्ध हैं।
• वर्ष 2023 से स्टेशन पर आधुनिक रूट रिले इंटरलॉकिंग सिस्टम (Route Relay Interlocking System) और कोच केयर यार्ड (Coach Care Yard) जैसी उन्नत तकनीकी सुविधाएँ भी सक्रिय हैं।
नीचे दिए गए वीडियो के माध्यम से हम मेरठ सिटी जंक्श के बारे में जानेंगे, और इसके बाद भारत के कुछ सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशनों के बारे में जानेंगे।
मेरठ के खेतों में गूंजती मशीनों की आवाज़: गन्ना क्रांति में उपकरणों की भूमिका
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
02-08-2025 09:34 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब भी हमारे आसपास के खेतों में हरियाली लहराती है और गन्ने की पंक्तियाँ दूर-दूर तक फैली दिखाई देती हैं, तो यह नज़ारा न सिर्फ उपज की बात करता है, बल्कि उस मेहनत और तकनीक की कहानी भी कहता है, जो किसान के साथ मिलकर फसल को सफल बनाते हैं। मेरठ और उसके आस-पास के क्षेत्र, जैसे बागपत, मुज़फ्फरनगर और सहारनपुर, उत्तर भारत के गन्ना उत्पादन में अग्रणी रहे हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस ऊँचे और मीठे फसल की इस सफलता के पीछे कौन-कौन से आधुनिक उपकरण और तकनीकी नवाचार शामिल हैं? आज की इस चर्चा में हम जानेंगे कि किस तरह आधुनिक कृषि उपकरणों ने मेरठ क्षेत्र के गन्ना उत्पादन को नई ऊँचाई दी है।
इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश, खासकर मेरठ और उसके आसपास के क्षेत्रों में कृषि को किस तरह ऐतिहासिक और भौगोलिक विशेषताएँ लाभ पहुंचाती हैं। हम यह भी देखेंगे कि गन्ना उत्पादन में मेरठ की क्या खास भूमिका रही है और किस तरह आधुनिक कृषि उपकरणों ने इस खेती को और भी समृद्ध बनाया है। साथ ही, हम समझेंगे कि गन्ने की खेती में कौन-कौन से आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल होता है और कैसे ये उपकरण किसानों की मेहनत को कम करके उनकी आय और उत्पादन क्षमता में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी करते हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृषि का ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्व
पश्चिमी उत्तर प्रदेश सदियों से भारत की कृषि समृद्धि का केंद्र रहा है। विशेष रूप से गंगा और यमुना के दोआब में स्थित मेरठ, सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर जैसे ज़िलों की भूमि इतनी उपजाऊ है कि यहां दालों से लेकर तिलहन तक और गेहूं से लेकर गन्ना तक हर फसल भरपूर होती है। इस क्षेत्र में सिंचाई की समृद्ध व्यवस्था भी कृषि को सहयोग देती है। गंगा नहर प्रणाली और स्थानीय ट्यूबवेल सिस्टम (tube well system) इसके प्रमुख उदाहरण हैं। ब्रिटिश (British) काल से लेकर आज तक, मेरठ को एक प्रमुख कृषि मंडी के रूप में देखा गया है। राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर उर्वरक, बीज और बिजली की उपलब्धता को बेहतर बनाना भी कृषि की वृद्धि में सहायक रहा है। यहीं के किसान सबसे पहले हरित क्रांति की तकनीक को अपनाने वालों में थे, जिससे यह क्षेत्र उत्तर भारत के सबसे उन्नत कृषि क्षेत्र में बदल गया।
गन्ना उत्पादन में मेरठ और आस-पास के क्षेत्रों की विशेष भूमिका
गन्ना, मेरठ मंडल की पहचान बन चुका है। हालांकि बिजनौर और लखीमपुर खीरी जैसे ज़िले भी गन्ना उत्पादन में आगे हैं, परंतु मेरठ का योगदान कम नहीं आँका जा सकता। यहां की जलवायु, सिंचाई व्यवस्था और किसानों की मेहनत इस फसल को सफल बनाने में निर्णायक रही है। मेरठ और इसके आसपास लगभग हर गाँव में कोई न कोई किसान गन्ना जरूर उगाता है। राज्य की 119 चीनी मिलों में कई मेरठ मंडल में स्थित हैं, जो यहाँ की फसल को प्रोसेस (process) कर शक्कर, इथेनॉल (ethanol) और गुड़ में बदलती हैं। 2022-23 की फसल रिपोर्ट (Crop Report) के अनुसार, उत्तर प्रदेश में गन्ने की औसत उपज 70 टन प्रति हेक्टेयर (hectare) रही, जिसमें मेरठ क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान है। यहाँ के किसानों ने मौसम की अनुकूलता के साथ-साथ वैज्ञानिक विधियों और उपकरणों के उपयोग से उत्पादन में निरंतर वृद्धि की है।
आधुनिक कृषि उपकरणों की परिभाषा और उनकी मूलभूत जरूरतें
आज की खेती बिना आधुनिक कृषि उपकरणों के अधूरी है। उपकरण जैसे ट्रैक्टर (Tractor), हार्वेस्टर (Harvester), सीड ड्रिल (Seed Drill), पावर टिलर (Power Tiller), स्प्रिंकलर (Sprinkler) आदि सिर्फ मेहनत कम नहीं करते, बल्कि उत्पादकता और समय दोनों की बचत करते हैं। परंपरागत तरीके जहाँ घंटों लगाते थे, वहीं आधुनिक मशीनें मिनटों में कार्य पूर्ण कर देती हैं। उदाहरण के लिए, जहां पहले खेत की जुताई बैल और हल से होती थी, आज वही कार्य ट्रैक्टर और कल्टीवेटर (cultivator) से कुछ घंटों में संभव है। बीज बोने के लिए ‘सीड ड्रिल’ जैसी मशीनें सटीक और एकसमान बोवाई करती हैं, जिससे फसल की गुणवत्ता और मात्रा दोनों में सुधार आता है। सिंचाई में पंप (pump) और स्प्रिंकलर जैसी तकनीकों ने पानी की बचत और फसल के पूर्ण पोषण को सुनिश्चित किया है। इस प्रकार, उपकरणों ने मेरठ के किसानों को आत्मनिर्भर और अधिक व्यावसायिक बनाया है।
गन्ना उत्पादन में प्रयुक्त प्रमुख उपकरण और तकनीकी नवाचार
गन्ना एक श्रम-प्रधान फसल है, जिसके लिए खेत की गहरी जुताई, सटीक बोवाई, समय पर सिंचाई और प्रभावशाली कटाई आवश्यक होती है। इन सभी कार्यों को करने के लिए अब आधुनिक उपकरणों का सहारा लिया जा रहा है। गन्ने की कटाई के लिए 'सुगरकेन हार्वेस्टर' (sugarcane harvester) मशीनें बड़े पैमाने पर प्रयुक्त हो रही हैं। ये मशीनें एक ही बार में गन्ना काटने, पत्तियों को अलग करने और लोडिंग (loading) तक का कार्य करती हैं। बीजों की रोपाई के लिए 'प्लांटर' (planter) और मिट्टी तैयार करने के लिए 'रोटावेटर' (rotavator) जैसे उपकरण बहुत सहायक साबित हुए हैं। सिंचाई में 'ड्रिप इरिगेशन' (drip irrigation) प्रणाली ने जल संरक्षण के साथ-साथ गन्ने की गुणवत्ता को भी बेहतर बनाया है। मेरठ के किसान इन तकनीकों को तेजी से अपना रहे हैं और प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से नए उपकरणों का उपयोग सीख रहे हैं। इससे खेती की रफ्तार और लाभ में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।

आर्थिक और सामाजिक प्रभाव: लागत में कमी और किसानों की आय में वृद्धि
आधुनिक कृषि उपकरणों के आगमन से मेरठ के किसानों को जो सबसे बड़ा लाभ मिला है, वह है श्रम और समय में कमी और आय में बढ़ोतरी। पहले जो काम 10 मज़दूर करते थे, आज एक मशीन वही कार्य कुछ घंटों में कर देती है। इससे उत्पादन की लागत में भारी कटौती हुई है। साथ ही, गन्ने की अधिक उपज और गुणवत्ता के कारण किसान अब अपनी उपज बेहतर दाम पर बेच पा रहे हैं। सरकारी योजनाओं और अनुदान के चलते गरीब और मध्यम वर्ग के किसान भी इन उपकरणों को किराए पर लेकर उपयोग में ला पा रहे हैं। इससे सामाजिक स्तर पर भी एक सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। किसान तकनीक से जुड़कर नई सोच और नवाचार की ओर बढ़ रहे हैं, जिससे युवा वर्ग भी खेती को रोजगार का विकल्प मानने लगा है।
संदर्भ-
क्या मेरठ भी महसूस कर सकता है ट्यूलिप की वो रंगीन ख़ामोशी?
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
01-08-2025 09:38 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, फूलों की इस रंग-बिरंगी दुनिया में हर पुष्प अपनी एक अलग कहानी कहता है — कहीं गुलाब अपनी खुशबू से दिल जीतता है, कहीं सूरजमुखी सूरज की ओर मुस्कुराता है, और कहीं-कहीं एक ऐसा फूल भी खिलता है जो केवल सुंदर ही नहीं, बल्कि इतिहास में एक पूरे युग का प्रतीक बन चुका है। आपने शायद ट्यूलिप (Tulip) का नाम सुना हो, वह मोहक पुष्प जिसकी एक झलक ने कभी यूरोप (Europe) को दीवाना बना दिया था। यह सिर्फ एक फूल नहीं था, बल्कि प्रेम, वैभव और पागलपन का प्रतीक बन गया था। उसकी लालिमा और पीली रेखाओं वाली पंखुड़ियाँ जैसे किसी चित्रकार की कूंची से निकली हो। आज जब हम मेरठ के अपने पार्कों (parks) और उद्यानों की बात करते हैं, तो यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि फूलों की इस वैश्विक संस्कृति में ट्यूलिप जैसे पुष्प कैसे सौंदर्य, परंपरा और यहाँ तक कि आर्थिक इतिहास का भी हिस्सा बनते हैं। ऐसे में यह लेख ट्यूलिप की उसी मंत्रमुग्ध कर देने वाली यात्रा को आपके सामने लाने का प्रयास है।
इस लेख में हम ट्यूलिप पुष्प की उत्पत्ति और इसके मध्य एशिया से यूरोप तक के ऐतिहासिक सफ़र को जानेंगे। फिर इसकी प्रमुख विशेषताओं जैसे गंधहीनता, रंगों की विविधता और प्रजातियों की विविधता पर चर्चा करेंगे। इसके बाद भारत में विशेष रूप से उत्तराखंड और कश्मीर में इसकी खेती कैसे की जाती है और इसके लिए कैसी जलवायु चाहिए, यह समझेंगे। फिर हम ट्यूलिप मेनिया नामक ऐतिहासिक आर्थिक संकट की कहानी को भी जानेंगे। अंत में, आधुनिक समय में इसकी वैश्विक लोकप्रियता और भारत में इसकी सांस्कृतिक व पर्यटन से जुड़ी भूमिका पर बात करेंगे।
ट्यूलिप पुष्प की उत्पत्ति और ऐतिहासिक यात्रा
ट्यूलिप एक ऐसा पुष्प है जिसकी जड़ें केवल मिट्टी में नहीं, बल्कि इतिहास के पन्नों में भी गहराई से फैली हुई हैं। इसका जन्म मध्य एशिया के ठंडे और पर्वतीय इलाक़ों में हुआ, जहाँ यह एक जंगली फूल के रूप में उगता था। 11वीं सदी के आसपास तुर्कों ने सबसे पहले इसकी सजावटी खेती शुरू की, और इसके सौंदर्य ने देखते ही देखते समूचे साम्राज्य को मंत्रमुग्ध कर दिया। ‘ट्यूलिप’ नाम फारसी शब्द ‘तोलिबन’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है पगड़ी — क्योंकि जब इस पुष्प को उल्टा किया जाए तो इसका आकार पगड़ी जैसा प्रतीत होता है। 1554 में ट्यूलिप ने तुर्की से ऑस्ट्रिया (Austria) की ओर कूच किया, और 1571 में हॉलैंड (Holland) में इसकी उपस्थिति ने फूलों की दुनिया को एक नया आयाम दिया। 1577 में जब यह इंग्लैंड (England) पहुँचा, तब यूरोप के कुलीन वर्गों ने इसे ‘गौरव का प्रतीक’ बना लिया। इसके पहले उल्लेख स्विस वनस्पति विज्ञानी कोनराड गेसेनर (Conrad Gessner) के लेखों और चित्रों में 1559 में मिलते हैं, जिसके आधार पर इसका वानस्पतिक नाम ट्यूलिप गेस्नेरियाना (Tulipa gesneriana) पड़ा। इस फूल की लोकप्रियता केवल बगीचों तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह कविता, चित्रकला और फैशन (fashion) का हिस्सा बन गया — और इसी ने इसे वैश्विक पहचान दिलाई।
ट्यूलिप पुष्प की प्रमुख विशेषताएँ और प्रजातियाँ
ट्यूलिप की सबसे खास बात यह है कि यह अपने रंग और रूप के कारण तो विशेष है ही, साथ ही इसका जैविक और दृश्य सौंदर्य भी अद्वितीय होता है। इसकी 100 से भी अधिक जानी-पहचानी प्रजातियाँ हैं, जिनसे दुनिया भर में लगभग 4000 से अधिक किस्में तैयार की जा चुकी हैं। इन किस्मों में हर एक का रंग, बनावट और आकार अलग होता है, जैसे लाल ट्यूलिप प्रेम का प्रतीक माने जाते हैं, पीले रंग वाले हर्ष और सुख का संकेत देते हैं, जबकि बैंगनी रंग राजसी गरिमा का द्योतक होता है। इन फूलों में एक अनोखी विशेषता यह है कि ये सभी गंधहीन होते हैं, यानी इनमें कोई महक नहीं होती और फिर भी इनका रंगीन आकर्षण ऐसा होता है कि हर किसी का ध्यान खींच लेता है। कुछ ट्यूलिप किस्में मिश्रित रंगों में भी आती हैं, जिनकी पंखुड़ियाँ किसी चित्रकार की कल्पना से कम नहीं लगतीं। ट्यूलिप पुष्प सामान्यतः छोटे होते हैं, लेकिन कुछ प्रजातियों की डंठल 760 मिमी (millimeter) तक लंबी हो सकती हैं। यही विशेषताएँ इन्हें दुनिया भर में हर मौसम और समारोह के लिए पसंदीदा फूल बनाती हैं। मेरठ के बाग़-बग़ीचों में शायद ये न मिलें, लेकिन यहाँ के फूलप्रेमी इनकी कलात्मकता और विविधता से अवश्य प्रेरणा ले सकते हैं।
भारत में ट्यूलिप की खेती और जलवायु आवश्यकताएँ
भारत जैसे विविध जलवायु वाले देश में ट्यूलिप केवल विशेष क्षेत्रों में ही फल-फूल सकता है। मुख्यतः यह उत्तर भारत के ऊँचाई वाले क्षेत्रों — विशेषकर कश्मीर और उत्तराखंड — में उगाया जाता है। यह फूल समुद्र तल से 1500 से 2500 मीटर की ऊँचाई पर अच्छी तरह विकसित होता है, जहाँ मौसम ठंडा, नमीयुक्त और तुलनात्मक रूप से शांत होता है। इसकी खेती अक्टूबर-नवंबर यानी दीपावली के आसपास की जाती है, जब वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी होती है और मिट्टी की जल-धारण क्षमता भी नियंत्रित हो जाती है। ट्यूलिप की बुवाई के लिए रेतीली और अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है। मिट्टी में पूरी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद डाली जाती है, जबकि कच्ची खाद का प्रयोग इसके बीजों के लिए हानिकारक माना जाता है। सिंचाई में भी सावधानी ज़रूरी है — मिट्टी में नमी बनी रहनी चाहिए, परंतु जलजमाव किसी भी सूरत में नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि मैदानों में, विशेषकर मेरठ जैसे शहरों में इसकी खेती चुनौतीपूर्ण है। हालांकि, यहाँ के बागवानी प्रेमी ट्यूलिप को गमलों या ग्रीनहाउस (greenhouse) में सीमित स्तर पर उगाने का प्रयोग ज़रूर कर सकते हैं, जो कि एक नई बागवानी संस्कृति को जन्म दे सकता है।
ट्यूलिप मेनिया: एक आर्थिक संकट की कहानी
ट्यूलिप का इतिहास केवल सौंदर्य और कृषि तक सीमित नहीं है; इस फूल ने 17वीं सदी में यूरोप की अर्थव्यवस्था में ऐसी हलचल मचाई जो आज तक मिसाल बनी हुई है। जब समुद्री व्यापार ने रफ़्तार पकड़ी और अमीर व्यापारी वर्ग का उदय हुआ, तब ट्यूलिप एक विलासिता के प्रतीक के रूप में उभर आया। बाग़ों और उपहारों में इसकी माँग इतनी बढ़ी कि इसकी विशेष किस्मों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं।
इसी दौरान एक विशेष प्रकार का ट्यूलिप — जिसकी पंखुड़ियाँ जलती हुई आग की तरह प्रतीत होती थीं — एक वायरस के कारण बहुत दुर्लभ हो गया। सात वर्षों में एक बार खिलने वाला यह पुष्प इतना अनोखा था कि लोगों ने इसके लिए घर, ज़मीन और पूरी सम्पत्ति दाँव पर लगा दी। लेकिन जैसे ही माँग एकाएक घटी, ट्यूलिप की क़ीमतें भी ज़मीन पर आ गिरीं, और जिन लोगों ने इसे ऊँचे दामों में खरीदा था, वे कंगाल हो गए। इस घटना को इतिहास में “ट्यूलिप मेनिया” (Tulip Mania) के नाम से जाना जाता है — जो आज भी वित्तीय दुनिया में अत्यधिक सट्टा निवेश के ख़तरों की चेतावनी के रूप में देखा जाता है। यह कहानी मेरठ के उद्यमियों और निवेशकों के लिए भी एक सबक है कि किसी भी चीज़ में निवेश करते समय तात्कालिक आकर्षण से अधिक दीर्घकालिक विवेक ज़रूरी होता है।

आधुनिक समय में ट्यूलिप की वैश्विक और भारतीय उपस्थिति
आज ट्यूलिप वैश्विक पुष्प संस्कृति का एक मजबूत स्तंभ बन चुका है। इसकी खेती और बिक्री केवल वाणिज्यिक क्षेत्र तक सीमित नहीं, बल्कि यह फूल प्रेम, कला, समारोह और पर्यटन का एक सुंदर प्रतीक भी बन चुका है। शादी-ब्याह की सजावट, अंतरराष्ट्रीय उपहार, ग्रीनहाउस नर्सरी (greenhouse nursery) और यहां तक कि महंगे परफ्यूम ब्रांड्स (Perfume Brands) में भी इसकी पहचान है। भारत में इसका सबसे भव्य और प्रसिद्ध उदाहरण श्रीनगर स्थित इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्यूलिप गार्डन (Indira Gandhi Memorial Tulip Garden) है, जिसे पहले सिराज बाग़ के नाम से जाना जाता था। यहाँ हर साल वसंत ऋतु में लगभग 64 किस्मों के 15 लाख से अधिक ट्यूलिप खिलते हैं — और यह दृश्य किसी सपने जैसा लगता है। यह गार्डन न केवल कश्मीर की सुंदरता को दर्शाता है, बल्कि देशी और विदेशी पर्यटकों के लिए एक अद्वितीय आकर्षण भी है। मेरठ के प्रकृति प्रेमी और पर्यटक यदि कभी कश्मीर या उत्तराखंड की यात्रा करें, तो ट्यूलिप बाग़ों की सैर अवश्य करें। यह केवल एक फूल देखने का अनुभव नहीं होगा, बल्कि एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भावनात्मक यात्रा भी होगी — जो जीवन भर स्मृति में बसी रहेगी।
संदर्भ-
जहाँ कृष्ण बेटे जैसे हैं: मेरठ की भक्ति में ममता और प्रेम का संगम
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
Sight III - Art/ Beauty
31-07-2025 09:26 AM
Meerut-Hindi

मेरठ की मिट्टी सिर्फ़ इतिहास की कहानियाँ नहीं कहती, बल्कि इसमें भावनाओं, आस्थाओं और रिश्तों की मिठास भी घुली हुई है। इस शहर की धार्मिक संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है वात्सल्य रस, वह भावना जहाँ भक्त भगवान को संतान की तरह अपनाते हैं। यहाँ कृष्ण को केवल पूजा नहीं जाता, बल्कि उन्हें लड्डू गोपाल, बाल गोपाल, नंदलाल जैसे नामों से गोद में खिलाया जाता है, उन्हें झूले में झुलाया जाता है, उनके लिए वस्त्र सिलवाए जाते हैं, और हर दिन उन्हें भोग के रूप में अलग-अलग व्यंजन परोसे जाते हैं। मेरठ के मंदिरों और घरों में यह वात्सल्य रस केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक जीवंत संवेदना है।
ब्रज भूमि से भौगोलिक निकटता के कारण यह क्षेत्र कृष्ण भक्ति की उसी लय में बहता है, जहाँ माखनचोर बालक की शरारतें भी पूजा का हिस्सा हैं और माँ यशोदा की ममता भी भजन बन जाती है।
यहाँ के धार्मिक उत्सव, जैसे झूलन उत्सव, कृष्ण जन्माष्टमी या अन्नकूट, भगवान को एक परिवार के सदस्य की तरह मनाने के अवसर बनते हैं। यहाँ की महिलाओं के गीतों में, लोक कथाओं में, और यहां तक कि बच्चों के खेलों में भी कृष्ण को बेटा, भाई, या मित्र मानकर पुकारा जाता है। मेरठ की यह आध्यात्मिक आत्मीयता ही इसे एक ऐसा सांस्कृतिक केन्द्र बनाती है जहाँ भक्ति में भी माँ की ममता और पिता की चिंता महसूस की जा सकती है। वात्सल्य रस के इस जीवंत स्वरूप ने न केवल लोगों के धार्मिक जीवन को संवारा है, बल्कि यहाँ की कला, संगीत और लोक साहित्य को भी भावनात्मक ऊँचाइयाँ दी हैं। यह भावनात्मक जुड़ाव मेरठ को न केवल भक्ति की भूमि बनाता है, बल्कि एक ऐसा स्थान भी जहाँ श्रद्धा, प्रेम और पारिवारिक आत्मीयता एक साथ झलकती है।
इस लेख में हम मेरठ की धार्मिक और सांस्कृतिक भावना में रचे-बसे वात्सल्य रस को पाँच प्रमुख पहलुओं के माध्यम से समझेंगे। इसमें वात्सल्य रस की परिभाषा और भावात्मक स्वरूप, सूरदास की भक्ति में इसकी भूमिका, कृष्ण और भक्तों के पारलौकिक संबंध, शास्त्रीय ग्रंथों में इसका सिद्धांत, और अंततः आत्मिक प्रेम के रूप में इसका आध्यात्मिक विस्तार शामिल है। यह रस केवल साहित्यिक भाव नहीं, बल्कि मेरठ की श्रद्धा और संवेदना का जीवंत प्रतीक है।

वात्सल्य रस की परिभाषा और भावात्मक स्वरूप
वात्सल्य रस, नवरसों में वह अनुपम रस है जिसमें प्रेम केवल आकर्षण या भावना नहीं, बल्कि गहराई से बहती एक निःस्वार्थ धारा है। यह वह भावना है जहाँ प्रेम करने वाला स्वयं को माता-पिता मानता है और प्रिय पात्र को संतान के रूप में देखता है, निरपेक्ष, निष्कलंक, और पूर्ण रूप से समर्पित। इस रस में स्वार्थ, अपेक्षा या अधिकार की कोई गुंजाइश नहीं होती, केवल ममता, चिंता, सेवा और संरक्षण की सहज लहरें होती हैं। जहाँ पारंपरिक परिवार प्रणाली अब भी जीवित है, वहाँ यह रस केवल भक्ति का विषय नहीं बल्कि जीवन का हिस्सा बन चुका है। विशेषकर मवाना, हस्तिनापुर, परीक्षितगढ़ और खरखौदा जैसे इलाकों के मंदिरों में बालकृष्ण की जो पूजा होती है, वह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, वात्सल्य का जीवंत मंचन है। यहाँ की महिलाएँ बालकृष्ण को गोद में लेती हैं, उन्हें हाथों से झूला झुलाती हैं, सुबह-सुबह उठकर उनके वस्त्र बदलती हैं और उन्हें ताजे दूध से स्नान कराकर मक्खन-मिश्री का भोग लगाती हैं। इन सब क्रियाओं में न पूजा की औपचारिकता है, न ही भय—सिर्फ और सिर्फ एक माँ जैसा भाव है, जो भगवान को भी पुत्र के रूप में देखने में संकोच नहीं करता।
भक्ति साहित्य में वात्सल्य रस: सूरदास की दृष्टि
भक्ति साहित्य में अगर वात्सल्य रस को कोई स्वर मिला है तो वह सूरदास की बांसुरी से निकला है। सूरदास, जिनकी दृष्टि भले ही नेत्रों से रहित थी, लेकिन जिनका अंतरदृष्टि संसार के सबसे कोमल भावों को छूती थी, ने अपने काव्य में वात्सल्य रस को जो स्वरूप दिया, वह आज भी अमर है। उनके पदों में यशोदा और बालकृष्ण के बीच के प्रेम की अनुभूति इतनी गहरी है कि वह पढ़ने वाले को सिर्फ रस में नहीं, माँ की गोद में ले जाकर बैठा देती है। कभी कन्हैया माखन चुराते हैं, कभी यशोदा की डाँट से डरकर भागते हैं, तो कभी नन्हें हाथों से बंसी उठाने की कोशिश करते हैं। इन दृश्यों में ईश्वर नहीं, एक नटखट बच्चा नज़र आता है। मेरठ के भजन मंडलों में आज भी सूरदास के ये पद गाए जाते हैं, चैत्र और श्रावण के मेलों में, जन्माष्टमी की रातों में, या रामलीला में कृष्णलीला के मंचन में। सूरदास की कविता सिर्फ़ कविता नहीं, बल्कि मातृत्व की प्रार्थना बन जाती है, जहाँ हर गायक यशोदा की भावना से भरकर गाता है। मेरठ की स्त्रियाँ आज भी जब बाल गोपाल को पलने में झुलाती हैं, तो उनके शब्दों में सूरदास की आत्मा उतर आती है।
श्रीकृष्ण और भक्तों के संबंध में वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति
श्रीकृष्ण को केवल आराध्य देव नहीं, बल्कि एक बालक के रूप में देखने का भाव ही वात्सल्य रस की आत्मा है। इस रस में भक्त ईश्वर को अपने पुत्र के रूप में देखता है — उसे सुलाता है, जगाता है, खिलाता है, डाँटता भी है, और सबसे ज़्यादा, उसे प्रेम करता है। मेरठ के गाँवों और कस्बों में यह रस किसी दर्शनशास्त्र या ग्रंथ की बात नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में बहने वाली नदी की तरह है। जन्माष्टमी के समय यहाँ घर-घर में नंदलाल के लिए झूला सजता है। महिलाएँ लोरी गाती हैं, "सो जा लाला सो जा…"—और उनकी आँखों में एक माँ की वही चिंता झलकती है जो अपने बच्चे को रात में सोते देखती है। गली के मंदिरों में छोटे-छोटे झूले सजते हैं, जिनमें कृष्ण नहीं, पूरे मोहल्ले का लाडला बालक झूलता है। यह भावना न केवल स्त्रियों में बल्कि पुरुषों में भी होती है, बड़े-बुज़ुर्ग कृष्ण की आरती करते हुए उसी लगाव से भर उठते हैं जैसे कोई पिता अपने बच्चे के माथे पर हाथ फेरता है। यहाँ कृष्ण डर का देव नहीं, बल्कि अपने भक्तों की गोद में मुस्कराता पुत्र है।

शास्त्रीय ग्रंथों में वात्सल्य रस का उल्लेख और सिद्धांत
शास्त्रों में वात्सल्य रस को एक गंभीर और स्थायी भाव के रूप में स्वीकार किया गया है। भक्ति-रसामृत-सिंधु, जो भक्ति रस के सबसे प्रतिष्ठित ग्रंथों में से एक है, उसमें वात्सल्य रति को उस अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ भक्त भगवान को पुत्र मानकर प्रेम करता है। यह रति, यानी प्रेम की स्थिति, सबसे शुद्ध मानी जाती है क्योंकि इसमें अपेक्षा नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का ऐसा विस्तार मिलता है, जो न केवल कथा का हिस्सा हैं, बल्कि एक गहरी भावनात्मक यात्रा भी हैं। यशोदा की ममता, नंद बाबा की चिंता, और गोपियों की देखभाल— एक ऐसा ईश्वर जो अपने भक्तों पर निर्भर है, और यही वात्सल्य की पराकाष्ठा है। मेरठ के धार्मिक शिक्षण केंद्रों, आश्रमों और कथा आयोजनों में इन शास्त्रों की व्याख्या आज भी होती है। वहाँ बैठकर जब कोई वृंदावन से आए संत वात्सल्य रति का पाठ करते हैं, तो वह केवल व्याख्यान नहीं होता, बल्कि आत्मा से आत्मा को जोड़ने वाली संप्रेषणीय ऊर्जा होती है।
पारलौकिक प्रेम की अवधारणा और इसका आध्यात्मिक स्वरूप
वात्सल्य रस अंततः केवल सांसारिक रिश्तों की नकल नहीं है, यह एक पारलौकिक प्रेम है, एक ऐसा प्रेम जो मृत्यु, शरीर, दूरी, समय, और भावना की सीमाओं से परे होता है। यह वह प्रेम है जिसमें ‘तू’ और ‘मैं’ का भेद मिट जाता है। यह प्रेम न संतान की प्राप्ति के लिए है, न कृपा की आशा में यह प्रेम केवल प्रेम के लिए होता है। मेरठ की भजन परंपरा में ऐसे भाव भरे गीत अक्सर गूंजते हैं। यह वह स्थिति है जहाँ भक्त भगवान को पुत्र मानता है, पर वह पुत्र भी अब ईश्वर नहीं, उसका ही अंश बन जाता है। जब यह प्रेम होता है, तब कोई तर्क नहीं बचता, कोई डर नहीं बचता सिर्फ एक मौन, शांत, और दिव्य अनुभूति बचती है। यही वात्सल्य रस का सबसे ऊँचा, सबसे निर्मल और सबसे सच्चा रूप है।
संदर्भ-
भूख से लड़ते मेरठ: क्या हमारी खाद्य सुरक्षा योजनाएँ सच में काम कर रही हैं?
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
30-07-2025 09:31 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे देश में जहाँ अन्न भंडारण के लिए बड़े-बड़े गोदाम हैं, वहीं करोड़ों लोग आज भी भूख से तड़पते हैं? हमारा मेरठ, जो न केवल गंगा-यमुना दोआब की उपजाऊ भूमि पर स्थित है, बल्कि एक समृद्ध कृषि परंपरा का भी वाहक है — वहां भी गरीब परिवारों की थाली अक्सर अधूरी ही रह जाती है। सवाल ये है कि जब हमारे पास खेती, संसाधन और योजनाएं हैं, तब भी भूख क्यों है? इस लेख में हम इसी सवाल की तह तक जाएंगे।
इस लेख में आज हम जानेंगे भारत में खाद्य सुरक्षा की वर्तमान स्थिति के बारे में, फिर भुखमरी और कुपोषण के आंकड़ों को समझेंगे। उसके बाद हम देखेंगे कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और योजनाओं में क्या खामियाँ हैं, कृषि क्षेत्र की क्या समस्याएं हैं और अंत में जानेंगे कि भोजन की बर्बादी और सरकारी प्रयास इस पूरी लड़ाई को कैसे प्रभावित कर रहे हैं।
भारत में खाद्य सुरक्षा की वर्तमान स्थिति
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां हर साल करोड़ों टन (ton) अनाज की पैदावार होती है, वहां भूखमरी का होना एक विडंबना है। खाद्य सुरक्षा का तात्पर्य सिर्फ भोजन की उपलब्धता से नहीं, बल्कि पोषण और पहुँच से भी है। मेरठ जैसे क्षेत्रों में जहाँ खेती मुख्य जीविका है, वहां भी गरीब तबके को समय पर पौष्टिक भोजन मिलना एक चुनौती बना हुआ है। खाद्य सुरक्षा के तीन प्रमुख स्तंभ हैं — उत्पादन, पहुँच और पोषण। भारत ने उत्पादन में तो आत्मनिर्भरता हासिल की है, पर वितरण और पोषण के मोर्चे पर अभी भी हम पिछड़े हुए हैं। ज़्यादातर सरकारी योजनाएं अनाज देने तक सीमित हैं, जबकि पोषण सुरक्षा की बात कम ही होती है। मेरठ जैसे शहरी-ग्रामीण मिले-जुले क्षेत्रों में जहां निर्धन परिवारों की संख्या अधिक है, वहां बच्चों और महिलाओं को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता।

भुखमरी और कुपोषण के आंकड़े
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों (reports) के अनुसार, भारत में लगभग 16% आबादी कुपोषण से ग्रस्त है। इनमें अधिकांश बच्चे और महिलाएं शामिल हैं। मेरठ के सरकारी अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में आने वाले मरीजों में भी कुपोषण के लक्षण साफ देखे जा सकते हैं। यूनिसेफ (UNICEF) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 53% प्रजनन-आयु की महिलाएं एनीमिया (anemia) से ग्रस्त हैं। यह आँकड़े इस ओर इशारा करते हैं कि केवल अनाज देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य और पोषण की दृष्टि से संतुलित भोजन भी आवश्यक है। मेरठ में भी बाल विकास परियोजनाओं के अधीन चल रहे आंगनबाड़ी केंद्रों की स्थिति चिंताजनक है। कई जगह न तो पोषाहार नियमित मिल रहा है और न ही मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य पर पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है।

खाद्य वितरण प्रणाली की खामियाँ
भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) विश्व की सबसे बड़ी योजनाओं में से एक है, लेकिन इसके ज़मीनी हालात उतने संतोषजनक नहीं हैं। कई राशन दुकानों पर मिलने वाले खाद्यान्न की गुणवत्ता और मात्रा दोनों पर सवाल उठते रहे हैं। लाभार्थियों को कभी समय पर राशन नहीं मिलता, तो कभी उनका नाम सूची से बाहर कर दिया जाता है। ग्रामीण बनाम शहरी असमानता भी खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करती है। मेरठ के शहरी क्षेत्रों में कार्डधारकों (cardholders) को फिर भी बेहतर सेवा मिल जाती है, पर ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी खामियों, आधार लिंक न होने या भ्रष्टाचार के कारण पात्र लोगों को भी लाभ नहीं मिल पाता। योजनाओं का क्रियान्वयन केवल कागज़ों पर न हो, इसके लिए नियमित निरीक्षण और पारदर्शिता जरूरी है।
कृषि क्षेत्र की समस्याएं और उनका प्रभाव
मेरठ की पहचान उसकी उपजाऊ ज़मीन और कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था से जुड़ी है। लेकिन यहां भी कृषि संकट साफ देखा जा सकता है। सिंचाई की सीमित सुविधा, मानसून पर निर्भरता, और छोटे किसानों की पूंजी की कमी जैसे मुद्दे खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित करते हैं। भूमि स्वामित्व में असमानता, महंगे बीज और कीटनाशक, और कृषि ऋणों की जटिल प्रक्रिया किसानों की रीढ़ तोड़ देती है। मेरठ ज़िले में भी कई किसान अब खेती छोड़कर मजदूरी या दूसरे छोटे-मोटे काम करने को विवश हैं। जब खेती कमजोर होती है, तो खाद्य सुरक्षा भी चरमराने लगती है।

खाद्य बर्बादी: एक अदृश्य संकट
भारत में प्रतिवर्ष लगभग 67 मिलियन टन (million ton) खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। शहरों में भी शादी-ब्याह, रेस्टोरेंट (restaurant) और सब्ज़ी मंडियों में भोजन की भारी बर्बादी देखी जाती है। यह विडंबना ही है कि एक ओर कुछ लोग भोजन के अभाव में जी रहे हैं, और दूसरी ओर अनगिनत टन खाना यूँ ही फेंक दिया जाता है। सरकारी गोदामों में खराब भंडारण व्यवस्था, अनियमित ट्रांसपोर्ट (transport), और खराब प्रबंधन इस बर्बादी के प्रमुख कारण हैं। मेरठ में स्थित एफसीआई (FCI) गोदामों और स्थानीय मंडियों में भी अक्सर अनाज के सड़ने की खबरें आती हैं। इसके अलावा, हमारे घरों में भी थालियों में बचा खाना एक बड़ा कारण है। अगर हम सब मिलकर थोड़ा-थोड़ा बचाएं, तो बड़ी संख्या में लोगों का पेट भरा जा सकता है।
सरकार की योजनाएं और उनकी सीमाएं
सरकार ने लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Targeted Public Distribution System), एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS), मिड-डे मील (Mid Day meal), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम , और पोषण (POSHAN) अभियान जैसी योजनाएं शुरू की हैं। इन योजनाओं का उद्देश्य था कि गरीब और वंचित वर्गों को पोषक भोजन मिले और कोई भूखा न रहे। लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और कहती है। कई बार देखा गया है कि मिड-डे मील योजना के तहत बच्चों को भोजन की गुणवत्ता अच्छी नहीं होती या समय पर खाना नहीं मिलता। एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) केंद्रों पर पोषण आहार की आपूर्ति अनियमित रहती है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए-NFSA) के तहत मिलने वाला राशन भी सभी तक नहीं पहुंचता। इन योजनाओं की विफलता के पीछे प्रमुख कारण हैं – बजट में कटौती, वितरण में भ्रष्टाचार, निगरानी की कमी और आमजन में जागरूकता का अभाव। अगर इन योजनाओं को ईमानदारी से लागू किया जाए और आम नागरिकों को भी इसमें भागीदार बनाया जाए, तो निश्चित ही बदलाव संभव है।
कोयले की खामोश ताक़त और मेरठ की रोज़मर्रा की रफ्तार
खदान
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29-07-2025 09:34 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि आपके घर की रौशनी, स्कूलों की मशीनें, अस्पतालों का जीवनरक्षक उपकरण, और फैक्ट्रियों की आवाज़ें किस आधार पर चलती हैं? ये सब किसी अदृश्य शक्ति के भरोसे चलते हैं — और वह है ऊर्जा, जो बड़े हिस्से में आज भी कोयले से मिलती है। भारत की कोयला खनन यात्रा केवल खदानों और मशीनों की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस परिवर्तनशील भारत की गाथा है, जिसने अंधेरे से उजाले की ओर कदम बढ़ाए। मेरठ, चाहे खुद कोयले के भंडारों से दूर हो, लेकिन यहां के पंखे, लिफ्ट, ट्रेनें और इंडस्ट्रियल यूनिट्स तक कोयले की ऊर्जा की गर्मी पहुंचती है — यह ऊर्जा भले ही दिखती नहीं, पर हर दिन हमारे जीवन को गति देती है। खासकर रेलवे स्टेशन जैसे प्रमुख केंद्रों पर, जहां कभी कोयले से चलने वाली इंजनें धुआँ उड़ाती थीं, और आज भी बिजली से चलने वाली ट्रेनों के पीछे कहीं-न-कहीं कोयला आधारित पावर प्लांट्स हैं।
हम जब मेरठ में विकास की बात करते हैं — चाहे वह नयी कालोनियाँ हों, नए व्यापारिक संस्थान हों या स्मार्ट मीटरों से सजी गलियाँ — तब यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इन सबकी नींव में ऊर्जा की वह कड़ी मौजूद है, जिसकी शुरुआत कोयला खनन से होती है। इसलिए आज हम जब जलवायु परिवर्तन, नवीकरणीय ऊर्जा और सतत विकास की बात करते हैं, तो यह भी जानना जरूरी है कि कोयला का क्या इतिहास रहा है, उसकी मौजूदा भूमिका क्या है, और क्या वह आने वाले वर्षों में मेरठ जैसे शहरों के ऊर्जा भविष्य को प्रभावित करता रहेगा या नहीं। भारत में कोयला खनन की गहराइयों में न केवल ऊर्जा उत्पादन की क्षमता छिपी है, बल्कि एक ऐतिहासिक यात्रा भी जो हमारे आर्थिक, तकनीकी और सामाजिक विकास की कहानी कहती है। ऐसे में यह जानना ज़रूरी है कि भारत में कोयला खनन कहाँ से शुरू हुआ, उसकी स्थिति क्या है, और भविष्य में यह हमें कैसे प्रभावित करेगा।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले यह समझेंगे कि भारत में कोयला खनन की ऐतिहासिक शुरुआत कैसे हुई और ब्रिटिश शासन में इसके क्या मायने थे। फिर हम जानेंगे कि भारत वैश्विक स्तर पर कोयले के उत्पादन और खपत के संदर्भ में कहाँ खड़ा है। इसके बाद, हम भारत के कुल कोयला भंडार, उसकी गहराई और उपलब्धता की स्थिति पर नज़र डालेंगे और यह देखेंगे कि हमारे पास यह संसाधन कितने समय तक और रहेगा। अंत में, हम कोयला खनन से जुड़ी कुछ पर्यावरणीय व तकनीकी चुनौतियों की चर्चा करेंगे, जो इस क्षेत्र के भविष्य को प्रभावित कर रही हैं।
भारत में कोयला खनन का ऐतिहासिक विकास
भारत में कोयला खनन का इतिहास आधुनिक नहीं, बल्कि गहराई से ऐतिहासिक है। हज़ारों साल पहले चीन और रोमन साम्राज्य में कोयले का प्रयोग सतही खनन के ज़रिए होता था। भारत में कोयले का व्यवस्थित दोहन ब्रिटिश काल में प्रारंभ हुआ। 1774 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों जॉन सुमनेर और सुएटोनियस ग्रांट हीटली ने बिहार के रानीगंज में दामोदर नदी के किनारे पहली कोयला खदान स्थापित की। हालांकि मांग की कमी के कारण लगभग एक शताब्दी तक इस क्षेत्र में धीमी प्रगति रही। लेकिन जैसे ही 1853 में भाप इंजनों का आगमन हुआ, कोयले की माँग में तीव्र वृद्धि हुई और उत्पादन 1 मिलियन मीट्रिक टन सालाना तक पहुँच गया। 1900 तक यह आँकड़ा 6.12 मिलियन मीट्रिक टन और 1920 तक 18 मिलियन मीट्रिक टन तक पहुँच गया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कोयले की आवश्यकता और अधिक बढ़ी। ब्रिटिश भारत में बिहार, बंगाल और ओडिशा में भारतीय खनिकों ने 1894 के बाद खनन के क्षेत्र में प्रवेश किया, जिससे यूरोपीय कंपनियों का एकाधिकार धीरे-धीरे टूटने लगा। खासकर झरिया और धनबाद जैसे क्षेत्रों में कई स्वदेशी खदानें स्थापित की गईं। मेरठ जैसे शहर भले सीधे खनन क्षेत्र में न आते हों, पर इस ऊर्जा की आपूर्ति से इनकी विकास प्रक्रिया जुड़ी रही है — विशेषकर बिजली, परिवहन और उद्योगों में।

भारत का कोयला उत्पादन और वैश्विक स्थिति में उसका स्थान
भारत, कोयला उत्पादन और खपत दोनों के मामले में विश्व के प्रमुख देशों में शामिल है। चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक और उपभोक्ता देश है। वर्ष 2022 में भारत ने 777.31 मिलियन मीट्रिक टन कोयले का खनन किया। वहीं, 2012 में भारत ने 595 मिलियन टन उत्पादन किया था जो कि वैश्विक उत्पादन का लगभग 6% था। भारत में बिजली उत्पादन का लगभग 68% हिस्सा कोयले पर आधारित है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह देश की ऊर्जा रीति का एक केंद्रीय स्रोत है। दुनिया के कुल कोयला भंडार में भारत की हिस्सेदारी लगभग 9% है, जिससे वह अमेरिका, रूस, ऑस्ट्रेलिया और चीन के बाद पाँचवें स्थान पर आता है। दिलचस्प बात यह है कि भारत, कोयला उत्पादक होने के बावजूद, अपनी मांग का लगभग 30% हिस्सा आयात करता है — विशेषकर उच्च GCV (ग्रोस कैलोरिफिक वैल्यू) वाले कोयले की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए। मेरठ जैसे शहरों के उद्योग और रेलवे स्टेशनों की ऊर्जा आवश्यकता भी इस उत्पादन प्रणाली से ही पूरी होती रही है। यह संबंध एक अदृश्य लेकिन मज़बूत ऊर्जा-संरचना बनाता है।
भारत में कोयले का कुल भंडार और भविष्य की ऊर्जा सुरक्षा
2016-17 में किए गए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत के पास 315.149 बिलियन टन अनुमानित कोयला संसाधन हैं। ये भंडार देश के कई हिस्सों में फैले हुए हैं, जिनमें झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ प्रमुख हैं। रिपोर्टों के अनुसार भारत के कुल संसाधनों में से लगभग 60% भंडार 300 मीटर से कम गहराई पर हैं, जिनका अधिकतर दोहन किया जा चुका है या किया जा रहा है। भारत की वर्तमान खपत दर को देखते हुए योजना आयोग ने बताया कि ज्ञात कोयला भंडार अगले 45–50 वर्षों तक ही चल पाएंगे। इस आकलन में यह भी सामने आया है कि यदि कोयले की खपत 5% की वार्षिक दर से बढ़ती है, तो भंडार की उम्र और भी कम हो सकती है। कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) जैसी सरकारी कंपनियों द्वारा अभी अधिकतर सतही कोयला खनन किया जाता है और गहरी खानों की खोज या दोहन की योजना सीमित है। मेरठ जैसे शहरों की ऊर्जा निर्भरता को देखते हुए यह चिंता का विषय है कि भविष्य में कहीं यह आपूर्ति संकट में न आ जाए। इसलिए कोयले की खपत और भंडारण पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

कोयला खनन से जुड़ी पर्यावरणीय और तकनीकी चुनौतियाँ
कोयला खनन जहाँ ऊर्जा का स्रोत है, वहीं यह पर्यावरण के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन चुका है। खुले में खनन के कारण भूमि क्षरण, वनों की कटाई और जल स्रोतों में प्रदूषण जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। भारत में लगभग 90% कोयला उत्पादन 200 मीटर से कम गहराई की खुली खदानों से होता है, जिससे सतह पर पर्यावरणीय असर अधिक होता है। कोल इंडिया जैसी कंपनियाँ गहरी खानों के दोहन में अभी तकनीकी रूप से पिछड़ी हैं या निवेश की कमी से पीछे हैं। तकनीकी रूप से, भारत को उन देशों की तुलना में उन्नति की आवश्यकता है जो भूमिगत खनन के माध्यम से गहराई से कोयले का निष्कर्षण करते हैं। इसके अलावा, अधिक GCV वाले कोयले के लिए आयात पर निर्भरता यह दर्शाता है कि घरेलू कोयले की गुणवत्ता में सुधार की गुंजाइश है। मेरठ जैसे क्षेत्र पर्यावरणीय प्रभावों को भले सीधे न झेलते हों, लेकिन जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा मूल्य में अस्थिरता से अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं। इसलिये, यह आवश्यक है कि कोयला खनन तकनीक को अपग्रेड किया जाए और पर्यावरणीय सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाए।
संदर्भ-
मेरठ में ई-पढ़ाई का बढ़ता चलन और डिजिटल पुस्तकों की बदलती दुनिया
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
28-07-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी देर रात किसी ई-बुक के पन्ने पलटते-पलटते खुद को किसी नई कल्पनाओं की दुनिया में खोया हुआ पाया है? यह अनुभव अब सिर्फ एक या दो लोगों तक सीमित नहीं रहा। हमारा मेरठ, जो अब तक स्वतंत्रता संग्राम, खेल प्रतिभाओं और हस्तशिल्प के लिए प्रसिद्ध था, अब एक और बदलाव की ओर अग्रसर है – डिजिटल पढ़ाई और ई-बुक संस्कृति की ओर। बीते कुछ वर्षों में मेरठ के कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और पुस्तक प्रेमी समुदायों ने पारंपरिक किताबों के साथ-साथ ई-पुस्तकों की ओर भी तेज़ी से कदम बढ़ाया है। डिजिटल लाइब्रेरीज़, मुफ्त ऑनलाइन पाठ्य सामग्री, और मोबाइल एप्स के ज़रिए अब विद्यार्थी और पाठक कहीं भी, कभी भी, अपनी पसंद की सामग्री पढ़ सकते हैं। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से लेकर छोटे-छोटे कोचिंग सेंटरों तक, हर जगह डिजिटल कंटेंट को अपनाया जा रहा है।
मेरठ के चौड़ा बाज़ार, बच्चा पार्क या सूरजकुंड के युवा अब अपने स्मार्टफोन पर केवल सोशल मीडिया नहीं, बल्कि साहित्य, प्रतियोगी परीक्षा सामग्री और इतिहास की किताबें भी पढ़ रहे हैं। डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म जैसे किंडल, गूगल बुक्स और ऑडिबल (Audible) जैसे ऑडियोबुक ऐप्स की लोकप्रियता यहाँ भी तेज़ी से बढ़ रही है। कई स्थानीय शिक्षकों ने खुद के ई-पुस्तक संस्करण जारी किए हैं, जिनमें से कुछ का वितरण हज़ारों में हो चुका है। इस बदलते माहौल में अब घरों में किताबों की अलमारी के साथ-साथ "ई-बुक फोल्डर" भी बन चुके हैं। पारंपरिक पुस्तकालय जहाँ एक शांत अध्ययन का प्रतीक हुआ करते थे, वहीं अब डिजिटल लाइब्रेरी ने 24x7 पढ़ाई की सुविधा दी है। यह खासकर उन विद्यार्थियों के लिए बेहद मददगार है जो सीमित संसाधनों के कारण भौतिक पुस्तकें नहीं खरीद पाते थे।
इस लेख में हम देखेंगे कि मेरठ में डिजिटल पढ़ाई की प्रवृत्ति कैसे बढ़ी है और इसमें पुस्तक मेलों जैसे आयोजनों की क्या भूमिका रही है। हम भारत के ई-पुस्तक बाज़ार की मौजूदा स्थिति और उसकी संभावनाओं पर भी नजर डालेंगे। आगे, हम भौतिक और डिजिटल पुस्तकों की तुलना करते हुए जानेंगे कि पाठकों की प्राथमिकताएं कैसे बदल रही हैं। फिर, हम उन विभिन्न प्रकार की ई-पुस्तकों को समझेंगे जो आजकल लोकप्रिय हो रही हैं। अंत में, भारत के प्रमुख डिजिटल पुस्तकालयों की भूमिका पर रोशनी डालेंगे जो इस बदलाव को और भी सुलभ बना रहे हैं।
मेरठ में डिजिटल पढ़ाई की बढ़ती लहर
मेरठ में शैक्षिक संस्थानों की बड़ी संख्या और छात्रों की पढ़ाई के प्रति रुचि, इस शहर को डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए तैयार बनाती है। यहां के नागरिक विशेष रूप से छात्र और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवा, अब मोबाइल, टैबलेट और लैपटॉप पर पढ़ाई को प्राथमिकता देने लगे हैं। मेरठ के कई कॉलेजों और पुस्तक प्रेमियों ने ई-बुक्स के प्रचार में भाग लिया और स्थानीय पुस्तकालयों में भी डिजिटल संसाधनों को शामिल किया गया। डिजिटल पुस्तकें यहां के युवाओं के लिए विशेष रूप से लाभकारी साबित हो रही हैं, क्योंकि इन्हें कहीं भी, कभी भी पढ़ा जा सकता है। साथ ही, डिजिटल पुस्तक मेलों और ऑनलाइन गाइड बुक्स ने मेरठ के छात्रों को कठिन विषयों में भी सरलता से मार्गदर्शन देना शुरू कर दिया है।
भारत का ई-पुस्तक बाज़ार: आँकड़े, संभावनाएँ और विकास दर
भारत का ई-पुस्तक बाज़ार दिन-ब-दिन विस्तृत होता जा रहा है। स्टैटिस्टा (Statista) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2025 तक इस बाज़ार का राजस्व लगभग 255.40 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच सकता है। 2027 तक यह 279.80 मिलियन डॉलर तक बढ़ने की उम्मीद है, जो कि 4.67% की वार्षिक वृद्धि दर को दर्शाता है। 2027 तक अनुमानित उपयोगकर्ताओं की संख्या 133.3 मिलियन तक पहुंच सकती है। प्रति उपयोगकर्ता औसत आय लगभग 2.16 डॉलर मानी जा रही है। जबकि अमेरिका जैसे देशों में यह संख्या बहुत अधिक है, लेकिन भारत में इसकी तेजी से वृद्धि स्पष्ट करती है कि यहां डिजिटल पढ़ाई का भविष्य उज्ज्वल है। मेरठ जैसे शिक्षित शहर इस क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, जहां युवा अब टेक्नोलॉजी के साथ सीखना अधिक पसंद कर रहे हैं।
डिजिटल बनाम भौतिक पुस्तकें: पढ़ने के तरीके में बदलती प्राथमिकताएं
जहां पहले पुस्तकालय जाकर किताबें पढ़ना एकमात्र विकल्प होता था, वहीं अब डिजिटल पुस्तकें हमें कहीं भी, कभी भी पढ़ने की आज़ादी देती हैं। मेरठ के छात्रों को अब किसी किताब के न मिलने की चिंता नहीं रहती, क्योंकि ई-पुस्तकों की असीमित आपूर्ति उपलब्ध है। विशेष रूप से दृष्टिबाधित छात्रों के लिए ई-पुस्तकें एक वरदान बनकर उभरी हैं। स्क्रीन रीडर टेक्नोलॉजी और ऑडियो बुक्स ने पढ़ाई को समावेशी बना दिया है। इसके अतिरिक्त, ई-पुस्तकों में हाइलाइटिंग, नोट्स, और शेयरिंग जैसी सुविधाएं हैं, जो भौतिक पुस्तकों में संभव नहीं होतीं। हालांकि, इन्हें पढ़ने के लिए उपकरण और इंटरनेट की आवश्यकता होती है, लेकिन यह लागत अब भी भौतिक पुस्तकों की तुलना में काफी कम है।

ई-पुस्तकों के लोकप्रिय प्रकार: मार्गदर्शिका से लेकर दैनिक आदतों तक
आज के दौर की ई-पुस्तकें सिर्फ उपन्यास नहीं हैं। मेरठ के कई छात्र अब "गाइड बुक्स" का उपयोग कर परीक्षा की तैयारी करते हैं। इसके अलावा "टिप्स बुक्स" जैसे – ’पढ़ाई में एकाग्रता बढ़ाने की 20 युक्तियाँ’ या ‘इंटरव्यू में सफलता के 15 तरीके’ भी लोकप्रिय हो रही हैं। "सूची बुक्स" (List books), "दैनिक आदतों वाली किताबें" (Daily Ritual Books), और "प्रश्नोत्तर आधारित ई-पुस्तकें" (Q&A format books) अब स्मार्ट स्टडी का हिस्सा बन गई हैं। मेरठ में डिजिटल पब्लिशिंग से जुड़े कुछ युवाओं ने स्वयं इन प्रारूपों में पुस्तकें लिखनी शुरू की हैं, जिससे स्थानीय कंटेंट भी विकसित हो रहा है।
भारत के प्रमुख डिजिटल पुस्तकालय और उनकी विशेषताएँ
डिजिटल पढ़ाई की दुनिया को विस्तार देने में राष्ट्रीय डिजिटल पुस्तकालय (NDLI) ने अहम भूमिका निभाई है। मेरठ के कई स्कूल और कॉलेज अब इस प्लेटफॉर्म से जुड़े हुए हैं। जेस्टोर (JSTOR) जैसे वैश्विक मंच अब यहां के शोध छात्रों की पहली पसंद बनते जा रहे हैं। भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी - विकिपीडिया
(Indian Science Academy) और ओपन लाइब्रेरी (Open Library) जैसे प्लेटफॉर्म विज्ञान, समाजशास्त्र, गणित और साहित्य से संबंधित सामग्री को उपलब्ध कराते हैं। इनमें हिंदी और अन्य भाषाओं की सामग्री भी उपलब्ध है, जिससे मेरठ जैसे हिंदी-भाषी क्षेत्र के छात्रों को भी आसानी होती है। ये पुस्तकालय न केवल पढ़ाई को सुलभ बनाते हैं, बल्कि ज्ञान को लोकतांत्रिक रूप में हर विद्यार्थी तक पहुंचाते हैं।
संदर्भ-
विरासत, विविधता और परंपरा का संगम है मेरठ का सांस्कृतिक इतिहास
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
27-07-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

मेरठ भारत के इतिहास और संस्कृति की गहराइयों में रचा-बसा एक ऐतिहासिक नगर है, जिसकी जड़ें प्राचीन काल से जुड़ी हुई हैं। महाभारत काल से संबंधित हस्तिनापुर, जो मेरठ से केवल 37 किलोमीटर दूर है, कभी कौरवों और पांडवों की राजधानी माना जाता था। ऐसा माना जाता है कि मेरठ का नाम "मयराष्ट्र" से लिया गया है, जो रावण की पत्नी मंदोदरी के पिता मायासुर से जुड़ा है। इस क्षेत्र पर मौर्य साम्राज्य का शासन रहा, जिसका प्रमाण अशोक कालीन अवशेषों और बौद्ध धरोहरों से मिलता है। इसके बाद मेरठ पर दिल्ली सल्तनत, मुगल साम्राज्य और फिर स्थानीय सरदारों जैसे जाटों, सैय्यदों और गुर्जरों का शासन रहा। अकबर के समय मेरठ में सिक्के ढाले जाते थे और सड़कें बनाई गईं, जिससे यह क्षेत्र समृद्ध हुआ। औरंगज़ेब के बाद यह क्षेत्र कमजोर हुआ और अंततः 1803 में ब्रिटिशों ने यहां छावनी की स्थापना की।
पहली वीडियो में हम मेरठ के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी देखेंगे।
नीचे दी गई वीडियो में हम मेरठ के इतिहास की एक झलक देखेंगे।
1857 का स्वतंत्रता संग्राम, जिसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, मेरठ से ही शुरू हुआ। ब्रिटिशों द्वारा सैनिकों को ऐसे कारतूस उपयोग करने को मजबूर किया गया, जिनमें गाय और सूअर की चर्बी लगी होती थी, जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की आस्था के खिलाफ था। जब भारतीय सैनिकों ने इनकार किया तो उन्हें कैद कर लिया गया, जिससे आक्रोश फैल गया। कोतवाल धन सिंह गुर्जर के नेतृत्व में विद्रोह हुआ, जेल तोड़ी गई और ब्रिटिश अधिकारियों को मारा गया। यहीं से “दिल्ली चलो” का नारा उठा और आंदोलन देशभर में फैल गया।
नीचे दी गई वीडियो में हम मेरठ शहर को ड्रोन के माध्यम से ऊपर से देखेंगे।
आजादी के बाद भी मेरठ राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सुर्खियों में रहा, जैसे 1929 का मेरठ षड्यंत्र केस और 1980 के दशक की सांप्रदायिक घटनाएं। इसके बावजूद, मेरठ ने समय के साथ विकास किया और आज यह शिक्षा, कृषि, खेल सामान निर्माण और सांस्कृतिक विविधता का प्रमुख केंद्र है। ऐतिहासिक नौचंदी मेला इसकी जीवंत परंपरा का प्रमाण है। मेरठ आज भी भारत की संघर्षशील आत्मा और सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रतीक बना हुआ है।
संदर्भ-
मेरठ की रफ्तार बदलने को तैयार मेट्रो व रैपिड रेल: हर घर तक पहुँचेगा सफर का सुकून
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
26-07-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, शहर की तेज़ी से बढ़ती आबादी, नौकरीपेशा जीवनशैली और रोज़मर्रा के संघर्षों के बीच, एक ऐसा बदलाव दस्तक दे रहा है जो न केवल यात्रा को आसान बनाएगा बल्कि आपके जीवन की रफ्तार को भी बदल देगा — मेरठ मेट्रो (Metro) और रैपिड रेल (Rapid Rail) परियोजनाएं। दशकों तक दिल्ली और एनसीआर (NCR) की दूरी को रोज़ तय करने वाले हजारों मेरठवासियों के लिए अब राहत की उम्मीद बनकर यह परियोजनाएं सामने आई हैं। ट्रैफिक जाम (Traffic Jam), समय की बर्बादी और असुविधाजनक सफर को पीछे छोड़, मेरठ एक ऐसे भविष्य की ओर बढ़ रहा है जहाँ स्मार्ट (smart), सुरक्षित और तेज़ यात्रा संभव होगी।
इस लेख में हम जानेंगे कि मेरठ में मेट्रो और रैपिड रेल परियोजनाओं की वर्तमान स्थिति क्या है और यह कितनी दूर तक पहुँच चुकी हैं। साथ ही हम यह भी समझेंगे कि दिल्ली-एनसीआर आने-जाने वाले यात्रियों के लिए यह परियोजनाएं कितनी उपयोगी होंगी और कैसे यह प्रदूषण और यातायात की समस्याओं को कम करने में मदद करेंगी। इसके अतिरिक्त, मेरठ मेट्रो और रैपिड रेल के रोजगार और शहर की आंतरिक गतिशीलता पर पड़ने वाले प्रभावों पर भी विचार करेंगे। अंत में, हम इन परियोजनाओं से जुड़ी सामाजिक, पर्यावरणीय और तकनीकी चुनौतियों पर भी एक समग्र दृष्टिकोण डालेंगे।
मेरठ में मेट्रो व रैपिड रेल परियोजनाओं की पृष्ठभूमि और निर्माण स्थिति
मेरठ में मेट्रो और रैपिड रेल दोनों ही परियोजनाएं उत्तर प्रदेश की शहरी परिवहन नीति के तहत विकसित की जा रही हैं। मेट्रो परियोजना को सबसे पहले जून 2015 में RITES द्वारा व्यवहार्यता अध्ययन के बाद प्रस्तावित किया गया था। बाद में इसे दिल्ली–गाज़ियाबाद–मेरठ रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम (RRTS) के साथ जोड़ा गया। यह परियोजना राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र परिवहन निगम (NCRTC) के अंतर्गत चल रही है और इसका पहला चरण 2025 तक पूरा होने की संभावना है। यह रैपिड रेल कॉरिडोर (Corridor) लगभग 82 किलोमीटर लंबा होगा जिसमें मेरठ शहर के लिए 22 किलोमीटर का अलग मेट्रो कॉरिडोर भी शामिल है। इससे दिल्ली से मेरठ की दूरी मात्र 55 मिनट में पूरी हो सकेगी। यह प्रणाली आधुनिक तकनीकों से लैस है, जैसे एयरोडायनामिक कोच (Aerodynamic Coach), टाइम टेबल (Time Table) आधारित संचालन और ग्रीन बिल्डिंग स्टेशन (Green Building Station)। निर्माण कार्य तेजी से प्रगति पर है और मेरठ शहर के अलग-अलग हिस्सों में स्टेशन, पिलर (pillar) और ट्रैक (track) का ढांचा तैयार किया जा रहा है।
दिल्ली-NCR में कार्यरत मेरठवासियों के लिए परिवहन विकल्प और समय की बचत
हर दिन मेरठ से दिल्ली, नोएडा और गुड़गांव की ओर काम के लिए जाने वाले हजारों लोग समय, धन और ऊर्जा की भारी खपत के साथ यात्रा करते हैं। परंपरागत बस, ट्रेन या निजी वाहनों के माध्यम से यह सफर न केवल थकाऊ होता है बल्कि ट्रैफिक जाम, असुरक्षा और मौसम की मार भी झेलनी पड़ती है। रैपिड रेल इन समस्याओं का समाधान बनकर सामने आ रही है। इसका औसत स्पीड 160 किमी/घंटा तक होगा, जिससे मेरठ से दिल्ली की दूरी 1 घंटे से भी कम समय में तय हो सकेगी। यह न केवल समय की बचत करेगा बल्कि शारीरिक और मानसिक तनाव को भी कम करेगा। इस सुविधा के माध्यम से शहर के युवा पेशेवरों और छात्रों को अब पलायन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वे मेरठ में रहकर ही दिल्ली स्तर के अवसरों का लाभ उठा सकेंगे। एक तरह से यह परियोजना मेरठवासियों के जीवन की गुणवत्ता सुधारने का एक मजबूत आधार बन रही है।
मेट्रो और रैपिड रेल द्वारा शहर में ट्रैफिक व प्रदूषण नियंत्रण में योगदान
सड़क पर बढ़ती गाड़ियों की संख्या, ट्रैफिक जाम और बढ़ता प्रदूषण मेरठ जैसे शहरों के लिए बड़ी चिंता का विषय बन चुका है। मेट्रो और रैपिड रेल एक पर्यावरण–अनुकूल समाधान प्रदान करती हैं। इससे निजी वाहनों पर निर्भरता कम होगी और पब्लिक ट्रांसपोर्ट (public transport) की ओर रुझान बढ़ेगा। मेट्रो रेल विद्युत से संचालित होती है, जिससे ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) का उत्सर्जन न्यूनतम होता है। इसके अलावा, भीड़-भाड़ वाले घंटों में यात्रियों को भीड़ से बचने और तेज़, सुगम यात्रा का विकल्प मिलता है। शहर की सड़कें खाली होंगी, वायु गुणवत्ता में सुधार होगा और ईंधन की खपत भी घटेगी। शहरी नियोजन और सतत विकास की दृष्टि से यह परियोजनाएं मेरठ को स्मार्ट सिटी (Smart City) की दिशा में आगे ले जा रही हैं।

मेरठ मेट्रो बनाम रैपिड रेल: रोजगार व आंतरिक गतिशीलता पर संभावित प्रभाव
जहाँ मेट्रो परियोजना मेरठ शहर के आंतरिक इलाकों को जोड़ने में सहायक होगी, वहीं रैपिड रेल क्षेत्रीय कनेक्टिविटी (connectivity) को बढ़ावा देगी। मेट्रो से स्थानीय व्यापार, कॉलेज, अस्पताल और बाजार क्षेत्रों तक पहुंच आसान होगी जिससे छोटे व्यवसायों को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी ओर, रैपिड रेल मेरठ और दिल्ली के बीच कार्यरत कर्मचारियों के लिए अधिक लाभकारी होगी। इससे शहरी–ग्रामीण क्षेत्र के बीच आवागमन भी आसान होगा और आवासीय निर्णयों पर भी प्रभाव पड़ेगा, जैसे लोग मेरठ में रहकर भी दिल्ली में काम कर सकेंगे। दोनों परियोजनाएं मिलकर न केवल रोजगार के नए अवसर खोलेंगी, बल्कि रोजगार की संरचना में भी बदलाव लाएंगी — यानी अब मेरठ में ही दिल्ली सरीखे अवसर मिलने लगेंगे।

मेट्रो सिस्टम के सामाजिक, पर्यावरणीय और तकनीकी जोखिम
हालांकि इन परियोजनाओं से अनेक लाभ मिलते हैं, लेकिन इनके साथ कुछ जटिलताएँ और जोखिम भी जुड़े हैं। मेट्रो निर्माण के दौरान बड़ी संख्या में पेड़ काटे जाते हैं, जिससे शहरी हरियाली को नुकसान होता है। निर्माण कार्य से पैदा होने वाली धूल, शोर और ट्रैफिक में व्यवधान भी नागरिकों के जीवन को प्रभावित करते हैं। भूमिगत मेट्रो सिस्टम (metro system) की खुदाई से आस-पास की इमारतों में कंपन और संरचनात्मक क्षति की आशंका रहती है। इसके अलावा, कोविड-19 जैसे महामारी के समय में बंद स्थानों में यात्रा संक्रमण का केंद्र बन सकती है। सुरक्षा की दृष्टि से स्टाफ (staff) की कमी और निगरानी की प्रणाली का अभाव अपराध की संभावना को भी बढ़ाता है। इन चुनौतियों का समाधान परियोजना के दीर्घकालिक प्रभाव को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है।
संदर्भ -
मेरठवासियों, क्या हर परजीवी पौधा होता है नुकसानदायक? जानिए छिपे राज़
शारीरिक
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25-07-2025 09:40 AM
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प्रकृति में ऐसे अनेक पौधे मौजूद हैं जो अपने पोषण के लिए सूरज की रोशनी पर निर्भर नहीं रहते, बल्कि दूसरों पर आश्रित रहते हैं। इन्हें ही परजीवी पौधे कहा जाता है। अक्सर हम परजीवी पौधों को हानिकारक और अवांछनीय मानते हैं, क्योंकि ये अपने मेज़बान पौधे से पोषण लेकर उसे कमजोर बना देते हैं। परंतु इन पौधों की दुनिया सिर्फ नुकसान तक सीमित नहीं है—बल्कि उनके पास अनूठे जैविक गुण, औषधीय संभावनाएँ और पारिस्थितिक महत्व भी है, जिसे समझना जरूरी है। इस लेख में हम जानेंगे कि परजीवी पौधों का जीवन कैसे संचालित होता है, ये किस प्रकार अंकुरित होते हैं, कैसे कृषि पर प्रभाव डालते हैं, और इनमें से कई किस प्रकार लाभकारी भी सिद्ध होते हैं।
इस लेख में हम परजीवी पौधों की रहस्यमयी दुनिया की परतें खोलेंगे और जानेंगे कि वे अंकुरित कैसे होते हैं, पोषण कैसे प्राप्त करते हैं, और इस प्रक्रिया में उन्हें कौन-कौन सी जैविक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। फिर, हम कृषि क्षेत्र में इनका विनाशकारी प्रभाव देखेंगे, जहाँ कुछ परजीवी प्रजातियाँ बड़े पैमाने पर खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित कर रही हैं। इसके बाद हम समझेंगे कि ये पौधे कितनी विविधता से विकसित हुए हैं और कैसे इनकी परजीविता ने प्रकृति में अनेक बार स्वतंत्र रूप से जन्म लिया है। लेख में हम ऐसे कई उदाहरण भी देखेंगे जहाँ परजीवी पौधों ने पारंपरिक चिकित्सा और पारिस्थितिक संरक्षण में अपनी उपयोगिता सिद्ध की है। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि इन पौधों का वैश्विक महत्व क्या है।
अंकुरण, पोषण और परजीवी पौधों को मिलने वाली जैविक बाधाएँ
परजीवी पौधों के जीवन का पहला चरण बीजों का अंकुरण होता है, जो कि किसी सामान्य पौधे से बिल्कुल भिन्न है। इन पौधों के बीजों में पोषक तत्व सीमित होते हैं, जिससे वे स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें एक उपयुक्त मेज़बान पौधे की आवश्यकता होती है। इस मेज़बान तक पहुंचने और उसमें घुसपैठ करने के लिए परजीवी पौधे विशेष रासायनिक संकेतों और संरचनाओं का प्रयोग करते हैं।
हस्टोरिया (Haustoria) नामक विशेष जड़-संरचना मेज़बान पौधे की जड़ या तने में प्रवेश करके वहाँ से पोषक तत्वों को अवशोषित करती है। लेकिन यह प्रक्रिया इतनी सरल नहीं होती—मेज़बान पौधे अपनी सुरक्षा के लिए कई जैव-रासायनिक अवरोध उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए, फिनॉलिक यौगिक (Phenolic compounds) छोड़कर वह परजीवी के लिए विषैला वातावरण बना देता है। इसके अलावा, मेज़बान पौधा अंकुरण अवरोधक पदार्थ भी स्रावित करता है, जिससे बीजों का विकास बाधित होता है। यह परजीवी पौधों और मेज़बान के बीच चलने वाली एक जैविक युद्ध की तरह होता है, जहाँ हर कदम पर चुनौती है।

परजीवी पौधों की कृषि में भूमिका और विनाशकारी प्रभाव
यद्यपि परजीवी पौधों की जैविक संरचना अत्यंत रोचक है, फिर भी इनका कृषि पर प्रभाव चिंताजनक है। विशेष रूप से ओरोबैंचेसी (Orobanchaceae) कुल की कुछ प्रजातियाँ जैसे स्ट्रिगा (Striga) और ओरोबांचे (Orobanche) विश्व की कृषि व्यवस्था को भारी नुकसान पहुँचा रही हैं। अकेले स्ट्रिगा ही उप-सहारा अफ्रीका की 500 लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि को नुकसान पहुंचा चुका है, जिससे अरबों डॉलर का सालाना नुकसान होता है। ये परजीवी मकई, चावल, ज्वार, मटर, टमाटर और गोभी जैसी मुख्य खाद्य फसलों पर हमला करते हैं और कभी-कभी फसल की पूरी उपज समाप्त कर देते हैं। कई देशों में किसानों को इन पौधों के डर से प्रमुख फसलों की खेती छोड़नी पड़ी है। इस विषय पर अनेक वैज्ञानिक अध्ययन हुए हैं, लेकिन अब तक कोई भी उपाय पूर्ण रूप से प्रभावी सिद्ध नहीं हुआ है। यह कृषि जगत के लिए एक गंभीर पारिस्थितिक चुनौती है।
परजीवी पौधों की विकासात्मक विविधता और जैविक महत्व
परजीवी पौधों की उत्पत्ति और विकास की प्रक्रिया भी अत्यंत जटिल और रोचक है। वैज्ञानिक रूप से यह प्रमाणित हो चुका है कि परजीवी व्यवहार लगभग 12 से 13 बार स्वतंत्र रूप से एंजियोस्पर्म (angiosperms) में विकसित हुआ है, जो अभिसरण विकास (convergent evolution) का शानदार उदाहरण है। इसका अर्थ यह है कि अलग-अलग वनस्पति परिवारों में परजीविता ने स्वतंत्र रूप से जन्म लिया है। इनमें से कुछ पौधे बाध्यकारी परजीवी होते हैं—जो अपने मेज़बान के बिना जीवित नहीं रह सकते। वहीं कुछ पौधे ऐच्छिक परजीवी होते हैं, जो मेज़बान की अनुपस्थिति में भी किसी हद तक जीवित रह सकते हैं। हीमी-परजीवी (hemiparasites) पौधे भी होते हैं जो आंशिक रूप से प्रकाश संश्लेषण करते हैं लेकिन पोषण के लिए अन्य पौधों पर निर्भर रहते हैं। इस प्रकार की जैव विविधता परजीवी पौधों को एक अनूठा स्थान देती है।
औषधीय एवं पारिस्थितिक रूप से लाभकारी परजीवी पौधे
हर परजीवी पौधा हानिकारक नहीं होता—यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है। कुछ परजीवी पौधों में औषधीय गुण होते हैं, जो मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी के लिए लाभदायक हैं। जैसे अरुगमपुल (Cynodondactylon), जिसे बरमूडा ग्रास कहा जाता है, एक मजबूत घास है जिसका रस रक्त शोधक माना जाता है। मुकीराताई (Boerhavia diffusa) में एंटीऑक्सिडेंट और एंटी-डायबिटिक गुण होते हैं। इसी प्रकार पुलियाराई (Oxalis corniculata) नामक पौधे का उपयोग चटनी व घरेलू औषधियों में किया जाता है। ब्रह्मा थंडू (Argemone mexicana) नामक पौधे की पत्तियाँ शामक और एलर्जीरोधी होती हैं, जबकि बीजों का तेल त्वचा रोगों के उपचार में सहायक होता है। इस प्रकार, परजीवी पौधे पारंपरिक चिकित्सा और जैव विविधता संरक्षण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।

परजीवी पौधों का वैश्विक महत्व और संरक्षण की आवश्यकता
आज जब जैव विविधता के संरक्षण की आवश्यकता दिन-ब-दिन बढ़ रही है, तब परजीवी पौधों को केवल "हानिकारक" मानकर नजरअंदाज़ करना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उचित नहीं। इनमें से कई पौधे वैश्विक स्तर पर विलुप्ति के कगार पर हैं और इनका पारिस्थितिक संतुलन में महत्व भी धीरे-धीरे सामने आ रहा है। जैविक प्रयोगशालाएँ, वनस्पति उद्यान और अनुसंधान केंद्र अब इन पौधों पर अधिक गहराई से कार्य कर रहे हैं। कुछ प्रजातियाँ जैसे भारतीय पाइप (Monotropa uniflora) तो जैविक रहस्यों का भंडार हैं, जिनका उपयोग भावी दवाओं, एंटीबायोटिक्स और पारिस्थितिक संतुलन के अध्ययन में किया जा सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि हम परजीवी पौधों को एक संतुलित दृष्टिकोण से देखें—न सिर्फ एक कृषि चुनौती के रूप में, बल्कि एक जैविक संसाधन के रूप में भी।
संदर्भ-
मेरठ का टाउन हॉल एक इमारत जहां इतिहास और वास्तुकला की विरासत जीवित है
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
24-07-2025 09:26 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी घंटाघर के पास खड़ी उस भव्य और शांत इमारत को गौर से देखा है जिसे हम 'टाउन हॉल' के नाम से जानते हैं? यह इमारत सिर्फ नगर निगम का कार्यालय भर नहीं है, बल्कि मेरठ के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आत्मा का सजीव प्रतीक है। अंग्रेज़ी शासन के दौर में बनी यह इमारत, मेरठ के गौरवशाली अतीत और औपनिवेशिक स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है। इसकी दीवारों में वह समय दर्ज है जब मेरठ सिर्फ एक सैन्य छावनी नहीं, बल्कि विचार, आंदोलन और सामाजिक संवाद का केंद्र था। टाउन हॉल की यह ऐतिहासिक इमारत एक समय वह स्थान थी जहाँ साहित्यिक विमर्श, कानूनी बहसें, प्रशासनिक बैठकें और सांस्कृतिक आयोजन साथ-साथ हुआ करते थे। यहीं स्थित पुस्तकालय में स्वामी विवेकानंद ने छह महीने बिताए और जीवनदृष्टि को गहराई से साधा। यह वही मेरठ है, जिसने 1857 की क्रांति से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन तक में अग्रणी भूमिका निभाई, और उसी ऐतिहासिक चेतना का केंद्र रहा है यह टाउन हॉल। आज जबकि मेरठ एक तेज़ी से बढ़ता महानगर बन रहा है, यह टाउन हॉल हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखता है। यह लेख, मेरठ की इसी धरोहर को समझने का एक प्रयास है।
इस लेख में हम मेरठ के टाउन हॉल को समझेंगे। सबसे पहले, जानेंगे इसकी स्थापना और वह भूमि जिससे यह जुड़ा है। फिर चर्चा करेंगे इस भवन में स्थित ऐतिहासिक पुस्तकालय और स्वामी विवेकानंद की इससे जुड़ी गहरी स्मृतियों की। तीसरे भाग में भारत के अन्य ऐतिहासिक टाउन हॉल्स से इसकी तुलना करेंगे। चौथे हिस्से में देखेंगे इसकी वास्तुकला और सामाजिक उद्देश्यों को। और अंत में जानेंगे, कैसे समय के साथ टाउन हॉल की भूमिका बदली और आधुनिक स्वरूप लिया।
मेरठ के टाउन हॉल का ऐतिहासिक निर्माण और शेख मोहिउद्दीन की भूमि
मेरठ का टाउन हॉल, 1886 में ब्रिटिश शासन के दौरान स्थापित किया गया था, और इसका प्रशासनिक उपयोग 1892 से शुरू हुआ। लेकिन इसकी नींव जिस भूमि पर रखी गई, वह भूमि शेख गुलाम मोहिउद्दीन की निजी संपत्ति थी। ब्रिटिश शासनकाल में इस भूमि को पट्टे पर लेकर नगर निगम को दी गई। शेख साहब के उत्तराधिकारी आज भी कोठी भय्याजी क्षेत्र में रहते हैं, जो इस इमारत के ऐतिहासिक जुड़ाव का प्रमाण है। टाउन हॉल न केवल प्रशासनिक केंद्र बना, बल्कि उस दौर की राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का भी केन्द्र था। यह एक समय का सभ्यता और संगठन का मॉडल बना, जहाँ से शहर की योजनाएं और विकास कार्य संचालित होते थे। यह स्थान मेरठ के नागरिक प्रशासन की नींव रखने वाला बिंदु बन गया था।
ऐतिहासिक पुस्तकालय और स्वामी विवेकानन्द की उपस्थिति
टाउन हॉल परिसर में स्थित पुस्तकालय की स्थापना वर्ष 1886 में कालीपाद बोस नामक सरकारी वकील द्वारा की गई थी। यह स्थान महज किताबों का भंडार नहीं रहा—बल्कि उस दौर के विचारकों और नेताओं का प्रेरणास्थल भी था। यहीं पर महात्मा गांधी, सर सैयद अहमद खान, अली बंधु और जवाहरलाल नेहरू जैसे दिग्गजों की उपस्थिति दर्ज है। लेकिन इस पुस्तकालय के सबसे विशिष्ट पाठक रहे स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने यहाँ लगभग छह महीने व्यतीत किए। कहा जाता है कि उन्होंने यहां की अधिकांश पुस्तकें पढ़ डालीं। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि यह पुस्तकालय केवल एक ज्ञान केंद्र नहीं, बल्कि चेतना का स्रोत भी रहा है। स्वामी जी की उपस्थिति इस भवन को राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक रूप में स्थापित करती है।

औपनिवेशिक काल के अन्य प्रमुख टाउन हॉल्स की तुलना
मेरठ का टाउन हॉल अकेला नहीं था; भारत के कई अन्य शहरों में ब्रिटिश राज ने ऐसे भवन बनवाए जो प्रशासन, संस्कृति और सभ्यता के प्रतीक बने। उदाहरण के लिए—कोलकाता का टाउन हॉल 1813 में रोमन डोरिक शैली में बना और सामाजिक आयोजनों के लिए जाना गया। दिल्ली का पुराना टाउन हॉल, जो पहले पुस्तकालय और संग्रहालय था, बाद में नगर पालिका भवन बना। बंगलोर का टाउन हॉल, मैसूर के महाराजा द्वारा 1933 में स्थापित किया गया और इसकी वास्तुकला ग्रीको-रोमन शैली की अद्भुत मिसाल है। मुंबई का टाउन हॉल 1833 में बना और उसमें दुर्लभ पांडुलिपियों का संग्रह है। इन सब भवनों की स्थापत्य शैली अलग-अलग थी, परंतु सभी में एक साझा ध्येय था—स्थानीय प्रशासन और संस्कृति को संगठित करना। मेरठ का टाउन हॉल भी इसी श्रृंखला का हिस्सा है, लेकिन इसका विशेष महत्व विवेकानंद जैसे महामानवों की उपस्थिति से और बढ़ जाता है।
टाउन हॉल की स्थापत्य शैली और सामाजिक उद्देश्य
मेरठ का टाउन हॉल वास्तुशिल्पीय दृष्टि से यूरोपीय शैली के प्रभाव में बना एक शानदार उदाहरण है। इसकी ऊंची छतें, गहरे बरामदे, और शाही सभागार तत्कालीन ब्रिटिश स्थापत्य के प्रभाव को दर्शाते हैं। टाउन हॉल का निर्माण केवल प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए नहीं किया गया था, बल्कि यह शहर की संस्कृति, कला और विज्ञान के लिए भी एक केंद्र था। इसका पुस्तकालय, सभा-कक्ष, और खुले क्षेत्र उस समय के सामाजिक विमर्श, वाचन सभाओं और सांस्कृतिक आयोजनों का मंच थे। यह स्थान आम जनता के विचारों और स्थानीय सरकार के संवाद का एक माध्यम बन गया था। आज भी इस भवन की बनावट हमें उसके वैभवशाली अतीत की याद दिलाती है।

टाउन हॉल की बदलती भूमिका: औपनिवेशिक युग से वर्तमान तक
19वीं सदी में जहां टाउन हॉल प्रशासन, अध्ययन और सार्वजनिक समारोहों का केंद्र थे, वहीं 20वीं सदी में इनकी भूमिका व्यापक हो गई। अब यह स्थान मतदान केंद्र, आपदा राहत वितरण, और नागरिक जागरूकता अभियानों का हिस्सा बने। धीरे-धीरे जैसे आधुनिक ऑफिस और प्रशासनिक परिसर अस्तित्व में आए, टाउन हॉल का कार्य धीरे-धीरे सीमित होता गया। लेकिन उनका सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व कभी कम नहीं हुआ। आज मेरठ का टाउन हॉल एक ऐतिहासिक धरोहर है, जो प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ शहर के गौरवशाली अतीत की भी गवाही देता है। इसे संरक्षित करना केवल भवन को बचाना नहीं, बल्कि मेरठ की आत्मा को जीवित रखना है।
संदर्भ-
काग़ज़ के नोट और मेरठ की कहानी: भरोसे, बदलाव और भारत की मुद्रा यात्रा
सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)
Concept I - Measurement Tools (Paper/Watch)
23-07-2025 09:36 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी जेब में रखा ₹10 या ₹500 का नोट महज़ काग़ज़ नहीं, बल्कि सालों के इतिहास, बदलाव और विश्वास का प्रतीक है? हमारा शहर मेरठ, जो सिर्फ़ 1857 की क्रांति के लिए नहीं, बल्कि व्यापारी समुदाय, औद्योगिक गतिविधियों और सेना की छावनी के लिए भी जाना जाता है — ऐसे शहर में आर्थिक बदलावों का असर हमेशा गहराई से महसूस किया गया है। काग़ज़ी मुद्रा की यात्रा न केवल लेन-देन के तरीकों को बदला है, बल्कि समाज में भरोसे और शासन की नीतियों को भी दर्शाती है।
आज के इस लेख में हम पाँच गहराईपूर्ण पहलुओं के माध्यम से जानेंगे कि दुनिया में काग़ज़ी मुद्रा की शुरुआत कैसे हुई, भारत में यह कैसे पहुँची और मेरठ जैसे शहरों के जीवन को इसने कैसे बदला। हम पहले इसकी वैश्विक उत्पत्ति पर नज़र डालेंगे, फिर भारत में हुंडी जैसी प्राचीन व्यवस्थाओं से होते हुए इसकी शुरुआत को समझेंगे। तीसरे हिस्से में हम ब्रिटिश भारत के समय लागू किए गए काग़ज़ी मुद्रा अधिनियम और सरकारी नियंत्रण पर बात करेंगे। उसके बाद आज़ादी के बाद की मुद्रा में भारतीय पहचान की झलक देखेंगे और अंत में जानेंगे कि कैसे आधुनिक तकनीक ने नकली नोटों से लड़ने के लिए हमारी मुद्रा को और मज़बूत बनाया।
काग़ज़ी मुद्रा की वैश्विक उत्पत्ति और विकास की शुरुआती झलक
दुनिया में जब आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ने लगीं, तो लोग भारी-भरकम धातु की मुद्रा लेकर चलने लगे — जिसमें सोना, चांदी या तांबा शामिल था। लेकिन जैसे-जैसे व्यापारिक रूट लंबा और ख़तरनाक होता गया, इन सिक्कों को ले जाना असुविधाजनक और जोखिम भरा साबित होने लगा। चोरी, युद्ध और नुकसान की संभावनाओं के कारण एक ऐसा विकल्प खोजा गया जो हल्का हो, सुरक्षित हो और उसी तरह विश्वसनीय भी। काग़ज़ी मुद्रा की पहली झलक हमें चीन में मिलती है, जहाँ तांग वंश के दौरान प्रारंभिक प्रयोग हुए। लेकिन 11वीं सदी में सांग वंश ने “जियाउज़ी” नामक असली काग़ज़ी मुद्रा का विकास किया। बाद में मंगोल और युआन वंशों ने इसे अपनाया। जब यूरोपीय खोजकर्ता मार्कोपोलो चीन पहुँचे, तो उन्होंने इस मुद्रा का उल्लेख अपने यात्रा वृत्तांतों में किया, जिससे यह विचार यूरोप में फैल गया। 14वीं सदी में इटली और फ्लैंडर्स जैसे व्यापारिक क्षेत्रों में वचन-पत्रों (promissory notes) का उपयोग शुरू हुआ — ये काग़ज़ी माध्यम थे जिनके जरिए बिना धातु लिए ही भुगतान किया जा सकता था। धीरे-धीरे ये व्यक्तिगत से सार्वजनिक उपयोग में आए और 17वीं सदी तक बैंक नोटों का दौर शुरू हो गया। इंग्लैंड ने 1694 में फ्रांस से युद्ध के खर्चों को पूरा करने के लिए स्थायी रूप से बैंक नोटों को जारी किया, जिससे आधुनिक काग़ज़ी मुद्रा की नींव पड़ी।

भारत में काग़ज़ी मुद्रा की शुरुआत और हुंडी व्यवस्था की पृष्ठभूमि
भारत में काग़ज़ी मुद्रा का चलन यूरोपीय प्रभाव के ज़रिए भले ही आया हो, पर यहां लेन-देन की परंपराएं बहुत पुरानी थीं। व्यापारी वर्ग और सूदखोरों के बीच “हुंडी” नामक एक बेहद विश्वसनीय प्रणाली थी, जो लिखित आदेश के रूप में कार्य करती थी। एक व्यक्ति, दूसरे को निर्दिष्ट राशि देने का निर्देश देता और इस पर लेन-देन होता। यह भारत की स्थानीय बैंकिंग व्यवस्था थी, जो चेक या ड्राफ्ट के पहले ही सक्रिय थी। 18वीं सदी के मध्य में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में सत्ता मजबूत की, तब बंगाल जैसे क्षेत्रों में आर्थिक अस्थिरता और धातु की कमी महसूस होने लगी। ऐसे में दूर-दराज़ के इलाक़ों में कंपनी के कर्मचारियों को भुगतान देने के लिए काग़ज़ी मुद्रा का प्रयोग प्रारंभ हुआ। 1770 में वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित ‘बैंक ऑफ हिंदोस्तान’ और 1784 में ‘बैंक ऑफ बंगाल’ ने बैंक नोट जारी किए, हालांकि ये नोट सरकारी रूप से मान्य नहीं थे — इन्हें सिर्फ़ निजी लेन-देन में उपयोग किया जाता था।
ब्रिटिश काल में काग़ज़ी मुद्रा का औपचारिक विकास और 1861 का अधिनियम
1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए कई नए क़ानून बनाए। इन्हीं में से एक था 1861 का काग़ज़ी मुद्रा अधिनियम (Paper Currency Act)। इस अधिनियम ने भारत में नोट छापने का एकाधिकार केवल भारत सरकार को दे दिया। इससे पहले विभिन्न निजी और प्रेसीडेंसी बैंक अपने-अपने नोट छाप सकते थे, लेकिन इस अधिनियम के बाद वे यह कार्य नहीं कर पाए। 1862 में रानी विक्टोरिया की तस्वीर वाले पहले सरकारी नोट जारी किए गए, जिन्होंने औपनिवेशिक भारत के हर कोने — दिल्ली, कोलकाता, मद्रास और मेरठ तक — मुद्रा की एकरूपता सुनिश्चित की। इस प्रणाली ने पूरे भारत में एक संगठित मुद्रा तंत्र स्थापित किया, जो अंग्रेज़ों के शासन को आर्थिक दृष्टि से सशक्त करता था। 1935 में रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई, जिसने 1936 में पहली बार ₹5 के नोट पर किंग जॉर्ज VI (King George VI) का चित्र जारी किया। धीरे-धीरे ₹10, ₹100, ₹1000 और ₹10,000 के नोट सामने आए, जो भारत के आर्थिक विकास और लेन-देन की नई पहचान बनते गए।

रिज़र्व बैंक की स्थापना और आज़ाद भारत में मुद्रा की सांस्कृतिक पहचान
15 अगस्त 1947 को जब भारत आज़ाद हुआ, तो आर्थिक आज़ादी भी ज़रूरी थी। इसी सोच के साथ भारतीय मुद्रा में अंग्रेज़ी प्रतीकों की जगह भारतीय संस्कृति को महत्व दिया गया। 1949 में एक रुपये के नोट पर सारनाथ का अशोक स्तंभ — हमारा राष्ट्रीय प्रतीक — छापा गया, जो आज भी हर नोट पर गर्व से अंकित है।
1969 में महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी वर्ष में उन्हें सेवाग्राम आश्रम के सामने बैठे हुए दर्शाने वाला ₹100 का स्मारक नोट जारी किया गया। 1987 में पहली बार मुस्कुराते हुए गांधीजी की तस्वीर ₹500 के नोट पर आई, और आज भारत की हर मुद्रा पर उनकी उपस्थिति एक स्थायी पहचान बन चुकी है।
1953 से नोटों पर हिंदी भाषा को प्रमुखता दी गई और ‘रुपये’ शब्द के प्रयोग को औपचारिक मान्यता मिली। 1954 में ₹1000, ₹5000 और ₹10,000 के उच्च मूल्यवर्ग के नोट जारी किए गए, जिनमें सांस्कृतिक प्रतीक जैसे तंजावुर मंदिर और गेटवे ऑफ इंडिया दर्शाए गए। हालाँकि 1978 में इन ऊँचे मूल्य वाले नोटों को बंद कर दिया गया, जिससे मुद्रा व्यवस्था में पारदर्शिता और नियंत्रण बना रहे।

नकली नोटों की चुनौती और महात्मा गांधी सीरीज़ की सुरक्षा विशेषताएँ
20वीं सदी के अंतिम दशकों में जब मुद्रण और स्कैनिंग तकनीकें उन्नत हुईं, तो नकली नोटों की समस्या गंभीर होती गई। इससे निपटने के लिए 1996 में रिज़र्व बैंक ने ‘महात्मा गांधी श्रृंखला’ शुरू की, जिसमें नई सुरक्षा तकनीकों को शामिल किया गया। इस श्रृंखला के तहत वॉटरमार्क, माइक्रो-लेटरिंग, सिक्योरिटी थ्रेड और गुप्त छवियों के साथ-साथ इंटैग्लियो छपाई (raised printing) को शामिल किया गया, ताकि दृष्टिबाधित लोग भी मुद्रा को पहचान सकें। इन तकनीकों ने न केवल नकली नोटों की पहचान को आसान बनाया, बल्कि लोगों का भरोसा भी बढ़ाया। मेरठ जैसे आर्थिक रूप से सक्रिय शहर में जहाँ नक़दी का भारी उपयोग होता है, वहाँ यह सुरक्षा व्यवस्था विशेष रूप से महत्वपूर्ण साबित हुई।
संदर्भ-
संस्कृति 2065
प्रकृति 745