जौनपुर - शिराज़-ए-हिंद












जौनपुरवासियों, क्या आप जानते हैं यूरेनियम भंडार कैसे प्रभावित करते हैं हज़ारों ज़िंदगियाँ?
खदान
Mines
29-07-2025 09:30 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हो सकता है कि यूरेनियम खनन की चर्चा हमारे शहर से दूर कहीं झारखंड या आंध्र प्रदेश की खदानों में हो रही हो, लेकिन इसका असर पूरे देश और अंततः हम सबकी ज़िंदगी पर पड़ता है। भारत में यूरेनियम, जो परमाणु ऊर्जा उत्पादन के लिए बेहद अहम खनिज है, तेजी से विकास और रोज़गार के नए रास्ते खोल रहा है। लेकिन इसी के साथ यह भी ज़रूरी है कि हम उसके पर्यावरणीय और सामाजिक दुष्प्रभावों पर गंभीरता से नज़र डालें। जब ज़मीन की तहों से यूरेनियम निकाला जाता है, तो वहाँ की मिट्टी, जल और हवा—तीनों पर असर पड़ता है, और आसपास के लोगों के स्वास्थ्य को भी खतरा होता है। इसलिए यह विषय केवल विज्ञान या ऊर्जा मंत्रालय तक सीमित नहीं है, बल्कि हर जागरूक नागरिक के सोचने और समझने का विषय है, जिसमें जौनपुर जैसे शिक्षित और संवेदनशील शहर की भूमिका अहम हो सकती है। यूरेनियम एक महत्त्वपूर्ण खनिज है जिसका उपयोग परमाणु ऊर्जा जैसे शांतिपूर्ण उद्देश्यों में होता है, परंतु इसके खनन की प्रक्रिया और इसके आसपास के पर्यावरण पर इसके प्रभावों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
आज हम इस लेख में भारत के प्रमुख यूरेनियम भंडारों और उनके स्थानों के बारे में विस्तार से जानेंगे। फिर, हम समझेंगे कि यूरेनियम ज़मीन से कैसे निकाला जाता है — यानी किन प्रमुख खनन तकनीकों का उपयोग किया जाता है। इसके बाद, हम यह देखेंगे कि यह खनन गतिविधियाँ भारत की अर्थव्यवस्था और रोजगार व्यवस्था को कैसे प्रभावित करती हैं। अंत में, हम जानेंगे कि यूरेनियम खदानों के आसपास रहने वाले लोगों के जीवन और स्वास्थ्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है — जिससे इसकी सामाजिक और मानवीय लागतों को समझा जा सके।
भारत में यूरेनियम के प्रमुख भंडार और उनका भौगोलिक वितरण
भारत में यूरेनियम के संसाधन कुल वैश्विक भंडार का लगभग 3%हैं, जो दिखने में कम ज़रूर लग सकते हैं, लेकिन सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन संसाधनों का सबसे बड़ा हिस्सा देश के पूर्वी, दक्षिणी और उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में फैला हुआ है।
1.सबसे बड़ा और सबसे पुराना यूरेनियम क्षेत्र झारखंड का सिंहभूम शियर ज़ोन है, जहाँ 17 से अधिक यूरेनियम खनिज क्षेत्र स्थित हैं। ये क्षेत्र अकेले भारत के 30% यूरेनियम संसाधनों की आपूर्ति करते हैं।
2.आंध्र प्रदेश का कडप्पा बेसिन, विशेष रूप से तुम्मलपल्ले, भविष्य में भारत के लिए ऊर्जा सुरक्षा का केन्द्र बन सकता है। यह क्षेत्र स्ट्रैटबाउंड प्रकार के यूरेनियम जमाओं के लिए जाना जाता है और यहाँ की खदानें 160 किमी तक फैली हुई हैं।
3.इसके अलावा, मेघालय का दक्षिणी भाग, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, और राजस्थान-हरियाणा के अरावली क्षेत्र में भी यूरेनियम की संभावनाएँ खोजी गई हैं।
हालांकि अधिकांश भंडार निम्न श्रेणी के हैं (जिनमें यूरेनियम की सांद्रता कम होती है), फिर भी वैज्ञानिकों और खनन कंपनियों का मानना है कि बेहतर तकनीक और गहन अन्वेषण से इन क्षेत्रों को आर्थिक रूप से उपयोगी बनाया जा सकता है।

यूरेनियम निकालने की मुख्य खनन तकनीकें
यूरेनियम की खोज के बाद सबसे जटिल कार्य होता है – उसे ज़मीन से सुरक्षित और प्रभावी ढंग से निकालना। यूरेनियम खनन की प्रक्रिया बहुत ही तकनीकी, महंगी और पर्यावरण पर असर डालने वाली होती है।
1. खुले गड्ढे की खनन (Open-pit mining)
इसमें खदानों की सतह को खोदकर ऊपर की मिट्टी हटाई जाती है ताकि नीचे मौजूद अयस्क तक पहुँचा जा सके। यह तब अपनाया जाता है जब अयस्क सतह के पास होता है (400 फीट से कम गहराई पर)। इस प्रक्रिया में बड़ी-बड़ी मशीनें और विस्फोटक उपकरण इस्तेमाल किए जाते हैं, जिससे पर्यावरण पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।
2. भूमिगत खनन (Underground mining)
यह तकनीक तब अपनाई जाती है जब यूरेनियम अयस्क गहराई में स्थित हो। इसमें सुरंगें बनाकर अयस्क को खोदा जाता है और फिर ऊपर लाया जाता है। इसके बाद यह अयस्क मिलिंग यूनिट में भेजा जाता है जहाँ से यूरेनियम निकाला जाता है।
3. मिलिंग प्रक्रिया (Milling)
मिलिंग एक रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें अयस्क को पीसकर पाउडर में बदला जाता है और सल्फ्यूरिक एसिड या क्षारीय घोल से मिलाया जाता है। यह घोल चट्टान से यूरेनियम को अलग करता है और 'येलोकेक' (U3O8) बनता है — जो यूरेनियम का सांद्रित रूप होता है।
4. इन-सीटू रिकवरी (In-situ leaching)
यह तकनीक ज़मीन के भीतर ही रसायन इंजेक्ट करके यूरेनियम को घोलने और फिर उसे वापस पाइप के ज़रिए निकालने की विधि है। इसे सबसे अधिक पर्यावरण-अनुकूल तरीका माना जाता है क्योंकि इसमें सतह पर खुदाई नहीं होती, लेकिन इसकी सीमाएँ भी हैं – हर अयस्क इस प्रक्रिया के अनुकूल नहीं होता।
इन सभी प्रक्रियाओं में रेडिएशन का रिसाव और रासायनिक अपशिष्ट एक गंभीर समस्या होती है, जिससे पर्यावरणीय और मानवीय जोखिम जुड़ा रहता है।
यूरेनियम खनन का भारत की अर्थव्यवस्था और रोज़गार पर प्रभाव
यूरेनियम भारत की ऊर्जा नीति का अभिन्न हिस्सा है। परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को ईंधन की निरंतर आपूर्ति देने के लिए खनन गतिविधियों का विस्तार आवश्यक है। इससे देश की ऊर्जा आत्मनिर्भरता बढ़ती है और जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम होती है। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो यूरेनियम खनन क्षेत्रीय विकास का केंद्र बनते जा रहे हैं। झारखंड, आंध्र प्रदेश और मेघालय जैसे राज्यों में खनन परियोजनाओं से हज़ारों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोज़गार मिला है। इसमें खनिक, इंजीनियर, तकनीशियन, सुरक्षा गार्ड, ट्रांसपोर्ट वर्कर, हेल्थ स्टाफ और स्थानीय सेवा उद्योग शामिल हैं। तुम्मलपल्ले खदानों से जुड़े अनुमान दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र भारत के सबसे बड़े यूरेनियम भंडारों में से एक बनने की ओर अग्रसर है। यहाँ खनन के बढ़ते कार्य से स्थानीय व्यापार और इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के संकेत मिल रहे हैं। हालांकि, इन अवसरों के साथ-साथ सामाजिक चुनौतियाँ भी हैं — विस्थापन, भूमि अधिग्रहण, पारंपरिक आजीविकाओं में हस्तक्षेप, और स्वास्थ्य जोखिम। ये सभी मुद्दे सामाजिक न्याय और दीर्घकालिक नीति के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

खदानों के पास रहने वाले लोगों पर रेडिएशन का प्रभाव और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं
यूरेनियम खनन का सबसे संवेदनशील और कम चर्चा में रहने वाला पक्ष है — इसके आसपास रहने वाले समुदायों पर असर। विशेष रूप से झारखंड का जादूगुड़ा क्षेत्र इस बात का जीवंत उदाहरण है कि कैसे एक चमकता उद्योग स्थानीय जीवन को अंधकार में बदल सकता है। जादूगुड़ा खदानों से निकलने वाले अपशिष्ट (टेलिंग्स) खुले में जमा किए जाते हैं या स्थानीय जल स्रोतों में छोड़ दिए जाते हैं। इनमें भारी मात्रा में रेडियोधर्मी तत्व होते हैं, जो मिट्टी, जल और वायु को प्रदूषित करते हैं।
इसका असर लोगों के स्वास्थ्य पर भयानक रूप से पड़ा है:
- नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में वृद्धि
- जन्मजात विकृतियाँ
- महिलाओं में बार-बार गर्भपात
- थकान, कमजोरी और कैंसर जैसी बीमारियाँ
टीआईएसएस (TISS (Tata Institute of Social Sciences) के एक अध्ययन के अनुसार, 1998 से 2003 के बीच 18% महिलाओं को गर्भपात या मृत प्रसव का सामना करना पड़ा। 30% महिलाओं ने गर्भधारण में कठिनाइयों की शिकायत की। कई बच्चों का विकास रुक जाता है, कुछ को तंत्रिका विकार होते हैं, और कुछ जीवन भर विकलांग हो जाते हैं। यह सिर्फ चिकित्सा नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक त्रासदी भी है — जो पीढ़ियों तक चलता है।
मुख्य चित्र में यूरेनियम अयस्क को दर्शाता चित्रण।
संदर्भ-
इंटरनेट की राह पर जौनपुर: बदलते ज़माने की नई पहचान
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
28-07-2025 09:27 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के किसान, जो कभी मौसम या बाजार भाव की जानकारी के लिए स्थानीय मंडी या रेडियो पर निर्भर रहते थे, आज मोबाइल एप्लिकेशन और इंटरनेट पोर्टल्स से रियल-टाइम डेटा प्राप्त कर रहे हैं, जिससे वे अधिक सूझबूझ से कृषि निर्णय ले पा रहे हैं। वहीं स्थानीय दुकानदार और व्यवसायी, जो पहले केवल मोहल्ले तक सीमित रहते थे, अब व्हाट्सऐप बिज़नेस, फेसबुक मार्केटप्लेस और ई-कॉमर्स वेबसाइटों के ज़रिए अपने उत्पादों और सेवाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा रहे हैं। इसके अलावा, सरकारी सेवाओं की डिजिटल पहुंच — जैसे राशन कार्ड, पेंशन, बिजली बिल भुगतान, और आयुष्मान भारत जैसी स्वास्थ्य योजनाओं की जानकारी — अब ग्रामीण और शहरी जौनपुर, दोनों क्षेत्रों में ऑनलाइन उपलब्ध है। इंटरनेट ने न केवल जौनपुर के युवाओं के लिए करियर के नए द्वार खोले हैं, बल्कि महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों को भी डिजिटल मंचों के माध्यम से जागरूकता, आत्मनिर्भरता और सुविधा का अनुभव कराया है। आज के डिजिटल युग में इंटरनेट केवल एक तकनीकी साधन नहीं, बल्कि हमारे जीवन का अनिवार्य आधार बन चुका है। यह हमारी शिक्षा, व्यवसाय, स्वास्थ्य सेवाओं, बैंकिंग, संचार और मनोरंजन से लेकर सरकारी सेवाओं तक — हर क्षेत्र की रीढ़ बन गया है। जौनपुर जैसे उभरते हुए शहर में, जहाँ परंपरा और प्रगति का सुंदर मेल देखने को मिलता है, इंटरनेट ने सामाजिक और आर्थिक विकास की गति को कई गुना बढ़ा दिया है। अब यहाँ के छात्र सिर्फ स्कूल या कॉलेज तक सीमित नहीं हैं — वे ऑनलाइन पाठ्यक्रमों, वर्चुअल क्लासेस और वैश्विक ज्ञान संसाधनों तक पहुँच बना रहे हैं।
इस लेख में हम जानेंगे कि इंटरनेट की शुरुआत अरपानेट (ARPANET) से कैसे हुई और यह वैश्विक तकनीकी क्रांति में कैसे बदला। फिर, हम समझेंगे कि इंटरनेट कैसे काम करता है — जैसे डेटा का आदान-प्रदान, वेब ब्राउज़र और सर्वर का संबंध। इसके बाद, भारत में 1995 से शुरू हुई इंटरनेट यात्रा को देखेंगे। अंत में, 5G, डिजिटल शिक्षा और ई-गवर्नेंस जैसे भविष्य के अवसरों और जौनपुर जैसे शहरों की इसमें भागीदारी पर चर्चा करेंगे।
आधुनिक जीवन में इंटरनेट का महत्व
21वीं सदी में इंटरनेट हमारे जीवन का केवल एक तकनीकी साधन नहीं, बल्कि एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। आज यह हमारी दिनचर्या में इस तरह समा गया है कि जागने से लेकर सोने तक हम बार-बार इसकी ओर रुख करते हैं — चाहे मोबाइल पर न्यूज़ चेक करना हो, किसी से चैट करना हो या ऑनलाइन खरीदारी करना हो। शिक्षा, व्यवसाय, स्वास्थ्य सेवाएँ, मनोरंजन, बैंकिंग या सरकारी सुविधाएँ — हर क्षेत्र में इंटरनेट की भूमिका अब केंद्रीय हो गई है।
भारत में इंटरनेट का प्रसार अब सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं है। जौनपुर जैसे विकासशील शहरों में भी इंटरनेट ने अभूतपूर्व परिवर्तन लाया है। जहाँ पहले सीमित संसाधनों और पारंपरिक ढाँचों के भरोसे जीवन चलता था, वहीं आज ऑनलाइन शिक्षा, डिजिटल मार्केटिंग, टेलीमेडिसिन और सरकारी योजनाओं की ऑनलाइन पहुँच ने यहाँ के लोगों के जीवन को एक नई दिशा दी है। छोटे दुकानदार अब ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के ज़रिए ग्राहकों तक पहुँच रहे हैं, और छात्र यूट्यूब (YouTube), बायजूस (Byju's) और अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से घर बैठे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ले रहे हैं।
विश्व स्तर पर, इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 4.8 अरब से भी अधिक हो चुकी है। भारत में यह संख्या 800 मिलियन (80 करोड़) को पार कर चुकी है। दिलचस्प बात यह है कि रामपुर जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहरों में भी इंटरनेट ने गहरी पैठ बना ली है — उदाहरण के लिए, 2025 में, जौनपुर में 2.6 लाख से अधिक इंटरनेट कनेक्शन दर्ज किए गए, और यहाँ फेसबुक उपयोगकर्ताओं की संख्या 1.4 लाख से अधिक होने का अनुमान है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत का डिजिटल भविष्य अब केवल महानगरों तक सीमित नहीं रहा।

इंटरनेट का आरंभ: एक तकनीकी क्रांति की नींव
इंटरनेट की कहानी कोई एक दिन की नहीं है — इसकी नींव 1960 के दशक में पड़ी, जब अमेरिका में वैज्ञानिक और शोधकर्ता एक ऐसी प्रणाली विकसित करना चाहते थे, जिससे दूर-दराज़ के कंप्यूटर एक-दूसरे से डेटा साझा कर सकें। उस समय कंप्यूटर विशालकाय होते थे और एक-दूसरे से जुड़े नहीं होते थे। शीत युद्ध के दौर में अमेरिका को यह डर था कि किसी परमाणु हमले की स्थिति में उसकी संचार प्रणाली ध्वस्त हो सकती है। इस समस्या से निपटने के लिए अमेरिका के रक्षा विभाग ने एक ऐसा नेटवर्क तैयार करने का निर्णय लिया, जो विकेन्द्रीकृत हो — यानी अगर एक हिस्सा बंद भी हो जाए, तो संचार बाकी हिस्सों से चलता रहे। इसी उद्देश्य से अरपानेट (Advanced Research Projects Agency Network) की स्थापना हुई, जिसे आधुनिक इंटरनेट का पहला स्वरूप माना जाता है।
अरपानेट की शुरुआत 1969 में केवल चार कंप्यूटरों के नेटवर्क से हुई थी। लेकिन अगले एक दशक में यह नेटवर्क कई विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में फैल गया। वर्ष 1983 में जब TCP/IP प्रोटोकॉल को मानक के रूप में अपनाया गया, तब इंटरनेट को तकनीकी रूप से "जनम" मिला। यही प्रोटोकॉल आज भी इंटरनेट की रीढ़ है।
इंटरनेट की कार्यप्रणाली: डेटा कैसे पहुँचता है आप तक
जब आप अपने फोन या लैपटॉप से कोई वेबसाइट खोलते हैं, तो वह एक सरल प्रक्रिया जैसा दिखता है — लेकिन वास्तव में यह एक जटिल तकनीकी चमत्कार है। इंटरनेट का संचालन एक पैकेट-आधारित प्रणाली के ज़रिए होता है। जब आप कोई जानकारी मांगते हैं, जैसे किसी वेबसाइट को खोलना, तो आपका अनुरोध छोटे-छोटे डेटा पैकेट्स में विभाजित होकर कई रास्तों से सर्वर तक पहुँचता है और फिर वहीं से उत्तर (डाटा) आपके पास वापस आता है। हर डिवाइस का एक अद्वितीय आईपी एड्रेस (IP Address) होता है — ठीक उसी तरह जैसे किसी घर का पता होता है। इस पते के आधार पर यह तय होता है कि कौन-सा डेटा किस स्थान पर पहुँचना है। टीसीपी/आईपी (TCP/IP) प्रोटोकॉल यह सुनिश्चित करता है कि यह डेटा सही रूप में, सुरक्षित और व्यवस्थित ढंग से पहुँचे।
जब आप अपने वेब ब्राउज़र (जैसे गूगल क्रोम (Google Chrome), फ़ायरफ़ॉक्स (Firefox) आदि) में किसी वेबसाइट का नाम टाइप करते हैं, तो ब्राउज़र एक अनुरोध भेजता है, जिसे सर्वर प्राप्त करता है और फिर वह एचटीएमएल फॉर्मेट (HTML Format) में डेटा वापस भेजता है। एचटीटीपी (HTTP) या एचटीटीपीएस (HTTPS) प्रोटोकॉल (protocol) यह प्रक्रिया सुरक्षित और सुव्यवस्थित बनाते हैं। सिर्फ वेबसाइट ही नहीं, ईमेल, वीडियो कॉलिंग, ऑनलाइन बैंकिंग, क्लाउड स्टोरेज — सब कुछ इसी नेटवर्किंग सिद्धांत पर आधारित है।

भारत में इंटरनेट का आगमन और विस्तार
भारत में इंटरनेट की शुरुआत 1986 में हुई, जब शिक्षा और अनुसंधान के लिए कुछ विशेष नेटवर्क बनाए गए। लेकिन आम जनता को पहली बार इंटरनेट का स्वाद 15 अगस्त 1995 को मिला, जब वीएसएनएल-विदेश संचार निगम लिमिटेड (VSNL- Videsh Sanchar Nigam Limited) ने इंटरनेट सेवा शुरू की। यह सेवा मॉडेम के जरिए मिलती थी, जिसमें डायल-अप कनेक्शन के लिए लंबा इंतजार और 'बीप-बीप' की आवाज़ें आम थीं। 1996 में भारत का पहला साइबर कैफ़े मुंबई में रीडिफ (Rediff) द्वारा शुरू किया गया। धीरे-धीरे इंटरनेट बैंकिंग, रेलवे आरक्षण, ई-मेल और समाचार पोर्टल जैसे डिजिटल नवाचार भारत में दिखाई देने लगे। उस दौर में इंटरनेट को एक लग्ज़री सुविधा माना जाता था, लेकिन आज यह एक बुनियादी आवश्यकता बन चुका है।
भारत में डिजिटल विकास की प्रमुख घटनाएँ
2000 से 2020 के बीच भारत में डिजिटल क्षेत्र में कई क्रांतिकारी परिवर्तन हुए:
2000: केबल इंटरनेट सेवाओं और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT Act) की शुरुआत हुई, जिसने साइबर अपराधों के खिलाफ कानूनी ढांचा तैयार किया।
2004: गूगल (Google) ने भारत में अपना पहला ऑफिस खोला, जिससे डिजिटल नवाचार को और गति मिली।
2005: ऑर्कुट (Orkut) के ज़रिए भारत में सोशल नेटवर्किंग का पहला अनुभव आया, जिसे बाद में Facebook और Twitter ने आगे बढ़ाया।
2008-2010: 2G और 3G सेवाओं की शुरुआत ने मोबाइल इंटरनेट को आम लोगों तक पहुँचाया।
2011-2014: बीएसएनएल (BSNL) और एयरटेल (Airtel) जैसी कंपनियों ने 4G सेवाएं शुरू कीं।
2016: रिलायंस जियो (Reliance Jio) ने जबरदस्त डाटा क्रांति लाई, जिससे इंटरनेट हर हाथ में पहुँचा।
2020: कोविड महामारी के दौरान डिजिटल शिक्षा, टेलीमेडिसिन और ऑनलाइन खरीदारी में अभूतपूर्व उछाल आया।

डिजिटल भारत की दिशा: भविष्य की संभावनाएँ
भारत अब डिजिटल क्रांति के अगले चरण में प्रवेश कर चुका है। 5G सेवाओं का तेजी से विस्तार, स्टार्टअप कल्चर को बढ़ावा, ई-गवर्नेंस की पहल, और डिजिटल शिक्षा के माध्यम से देश एक नए युग की ओर अग्रसर है। इससे न केवल शहरी, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों को भी फायदा पहुँच रहा है। सरकार और निजी कंपनियाँ मिलकर यह सुनिश्चित कर रही हैं कि ग्रामीण भारत — जिसमें जौनपुर जैसे जिले भी शामिल हैं — डिजिटल रूप से सशक्त बनें। अब किसान मोबाइल ऐप्स से मंडी भाव और मौसम की जानकारी पाते हैं, छात्र स्मार्टफोन पर सरकारी पोर्टल से पढ़ाई कर सकते हैं, और महिलाएँ घर बैठे डिजिटल स्किल्स सीखकर स्वरोज़गार की ओर कदम बढ़ा रही हैं। डिजिटल भारत की इस यात्रा में एक और जरूरी पहलू है — साइबर सुरक्षा और डिजिटल साक्षरता। जैसे-जैसे तकनीक का प्रसार हो रहा है, वैसे-वैसे लोगों को इससे सुरक्षित रूप से जुड़ना भी सीखना होगा।
संदर्भ-
जौनपुर: शिराज-ए-हिंद की तहज़ीब, इतिहास और सांस्कृतिक विरासत की ज़िंदा मिसाल
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
27-07-2025 09:26 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर, उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है, जिसे 1359 ईस्वी में दिल्ली के सुल्तान फिरोज़ शाह तुगलक ने अपने चचेरे भाई मोहम्मद बिन तुगलक की स्मृति में बसाया था। यह नगर केवल एक प्रशासनिक केंद्र नहीं रहा, बल्कि एक समय में कला, संस्कृति और शिक्षा का समृद्ध केंद्र भी था। 1394 ईस्वी में मलिक सरवर ने यहाँ शर्क़ी सल्तनत की स्थापना की, जो इब्राहिम शाह शर्क़ी के शासनकाल (1402–1440) में अपने चरम पर पहुँची। उस समय जौनपुर की सीमाएँ बिहार से लेकर कन्नौज और दिल्ली से बंगाल तक फैली हुई थीं। यहाँ का शासन धार्मिक सहिष्णुता, सांस्कृतिक समन्वय और स्थापत्य के अद्भुत उदाहरणों के लिए जाना गया। हुसैन शाह के काल में जौनपुर की सैन्य ताकत इतनी बढ़ गई थी कि यह भारत की सबसे बड़ी सेनाओं में गिना जाने लगा। हालाँकि दिल्ली पर अधिकार की उनकी कोशिशें असफल रहीं और अंततः सिकंदर लोदी ने 1493 में इस पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद 1779 ईस्वी में जौनपुर को स्थायी बंदोबस्त की संधि के तहत ब्रिटिश शासन में मिला लिया गया। शर्क़ी काल में जौनपुर एक प्रमुख सूफी केंद्र भी था, जहाँ हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच अद्वितीय सांप्रदायिक सौहार्द देखने को मिलता था।
पहली वीडियो के माध्यम से हम जौनपुर के गौरवशाली इतिहास को जानने का प्रयास करेंगे।
नीचे दी गई वीडियो में हम जौनपुर शहर और उसके इतिहास की एक झलक देखेंगे।
जौनपुर की मस्जिदें, जैसे अटाला मस्जिद, जामा मस्जिद और लाल दरवाज़ा मस्जिद, आज भी उस दौर की वास्तुकला की भव्यता को जीवित रखे हुए हैं। ये संरचनाएँ न केवल धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं, बल्कि एक ऐसे युग की गवाही भी देती हैं, जहाँ कला और संस्कृति का गहरा सम्मान था। साथ ही, गोमती नदी पर 1564 में बना ऐतिहासिक शाही पुल और जौनपुर का किला आज भी इस नगर की ऐतिहासिक पहचान को संजोए हुए हैं। जौनपुर वास्तव में एक ऐसा नगर है जहाँ इतिहास आज भी साँस लेता है।
नीचे दिए गए लिंक के माध्यम से हम जौनपुर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों की झलक देखेंगे।
संदर्भ-
जौनपुर से उजाले तक: मिट्टी के तेल की वो रौशनी जो कभी हर घर में थी
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
26-07-2025 09:23 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे दादा-परदादाओं के समय में रौशनी का मुख्य साधन क्या था? वह समय जब शहर की गलियां बिजली से नहीं, बल्कि मिट्टी के तेल की लौ से जगमगाया करती थीं। मिट्टी का तेल, जिसे हम 'केरोसिन' कहते हैं, केवल एक ईंधन नहीं बल्कि भारत में ऊर्जा क्रांति की पहली सीढ़ी था। जौनपुर की पुरानी हवेलियों में आज भी लालटेन और स्टोव रखे हुए मिल जाएंगे, जो इस बात की गवाही देते हैं कि किस तरह केरोसिन ने हमारे शहर की रोशनी, रसोई और रोज़मर्रा के जीवन में अहम भूमिका निभाई। आइए, आज हम इसी केरोसिन की वैश्विक और भारतीय यात्रा को पांच प्रमुख पहलुओं में समझने की कोशिश करें।
इस लेख में हम केरोसिन की ऐतिहासिक और सामाजिक यात्रा को पांच दृष्टिकोणों से जानने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि केरोसिन का आविष्कार कैसे और किसने किया और किस रूप में यह पहली बार उपयोग में आया। इसके बाद, हम समझेंगे कि विश्व स्तर पर यह ईंधन कितने नामों और रूपों में इस्तेमाल हुआ और कैसे यह हर महाद्वीप के जीवन में घुल-मिल गया। तीसरे खंड में हम जानेंगे कि 19वीं सदी में किस प्रकार केरोसिन ने घरेलू, परिवहन और चिकित्सा क्षेत्रों में क्रांति ला दी। फिर हम भारत में इसके आगमन और विस्तार की कहानी को जानेंगे—कैसे यह विदेशी कंपनियों से निकल कर भारतीय घरों तक पहुंचा। और अंत में, हम देखेंगे कि कैसे यह ईंधन भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा बना और आम लोगों की आर्थिक पहुंच में आया।

केरोसिन का आविष्कार: कोयले से जन्मा यह अद्भुत ईंधन
केरोसिन का आविष्कार 19वीं शताब्दी के मध्य में एक क्रांतिकारी घटना थी, जिसने दुनिया की ऊर्जा जरूरतों को एक नई दिशा दी। कनाडा के भूवैज्ञानिक और आविष्कारक अब्राहम गेस्नर (Abraham Gesner) ने 1846 में बिटुमिनस (Bituminous) कोयले और ऑयल शेल के आसवन (distillation) की प्रक्रिया से एक हल्का, स्वच्छ और अत्यंत उपयोगी द्रव तैयार किया जिसे बाद में 'केरोसिन' नाम दिया गया। यह शब्द ग्रीक भाषा के 'केरोस' (मोम) शब्द से निकला था। गेस्नर की खोज से पहले प्रकाश के लिए मुख्य रूप से व्हेल का तेल इस्तेमाल होता था, जो महंगा और सीमित मात्रा में उपलब्ध था। केरोसिन ने इस आवश्यकता को न केवल पूरा किया बल्कि इसे किफायती और टिकाऊ भी बनाया। इसकी विशेषता थी कि यह धीमी गति से जलता था और कम धुआं उत्पन्न करता था, जिससे यह लैंपों के लिए एक उपयुक्त ईंधन बन गया। 1854 में केरोसिन का व्यावसायिक उत्पादन प्रारंभ हुआ, जिसने कई देशों को प्रकाश और ईंधन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने का रास्ता दिखाया। यह आविष्कार केवल एक तकनीकी खोज नहीं था, बल्कि उसने लाखों लोगों के जीवन को रात में रोशन कर दिया और औद्योगिक युग की ऊर्जा आवश्यकता को नया आयाम प्रदान किया।
विश्व स्तर पर केरोसिन की लोकप्रियता: नामों, उपयोगों और इतिहास की विविधता
केरोसिन की वैश्विक स्वीकार्यता ने इसे एक बहुप्रयोजनीय और बहुपरिभाषित ईंधन बना दिया। अलग-अलग देशों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है—भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में इसे 'केरोसिन', तो वहीं यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) और दक्षिण अफ्रीका में 'पैराफिन' (Paraffin) के नाम से जाना जाता है। दक्षिण-पूर्व एशिया में कई बार इसे 'लैंप ऑयल' (lamp oil) कहा जाता है। इसका उपयोग भी विविध क्षेत्रों में होता है—घरेलू खाना पकाने से लेकर हवाई जहाजों में जेट ईंधन के रूप में, आउटबोर्ड मोटरों (outboard motors), मोटरसाइकिलों और रॉकेट प्रोपेलेंट (rocket propellant) के रूप में भी केरोसिन का प्रयोग होता है। इतना ही नहीं, दूरदराज़ के ग्रामीण इलाकों में जहाँ बिजली नहीं पहुँच पाई थी, वहाँ केरोसिन ही रौशनी का एकमात्र स्रोत बना रहा। आज भी अनुमान है कि दुनिया भर में हर दिन लगभग 11 लाख घन मीटर केरोसिन (cubic meters of kerosene) की खपत होती है, जो इसकी निरंतर उपयोगिता का प्रमाण है। केरोसिन ने वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति की प्रणाली को न केवल सरल बनाया, बल्कि उन क्षेत्रों तक ऊर्जा पहुंचाई जहाँ तक अन्य विकल्प नहीं पहुँच सकते थे।
19वीं सदी का क्रांतिकारी परिवर्तन: लाइट, परिवहन और चिकित्सा में केरोसिन
19वीं सदी के उत्तरार्ध में केरोसिन ने जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन की लहर ला दी। इससे पहले जहां रात का मतलब अंधकार होता था, वहीं केरोसिन लैंप ने घरों, दुकानों, स्कूलों और अस्पतालों को रोशनी से भर दिया। केरोसिन से जलने वाले लैंपों का उपयोग न केवल घरेलू कार्यों में बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा और चिकित्सा सेवाओं में भी होने लगा। पुलिस विभाग की गश्त लाइट, अस्पतालों की आपातकालीन रोशनी और यहां तक कि ट्रेनों की सिग्नलिंग प्रणाली में भी केरोसिन लैंपों का व्यापक उपयोग हुआ। किसानों ने इसे खेतों में देर रात तक काम करने के लिए इस्तेमाल किया, जिससे कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई। इसके अलावा, केरोसिन का उपयोग घरेलू चिकित्सा में भी देखा गया—जैसे कि जूं मारने के उपाय में या हल्के त्वचा संक्रमणों के उपचार में। सामाजिक आयोजनों और मेलों में भी केरोसिन से जलने वाली लालटेनें एक सामान्य दृश्य थीं। इस प्रकार, केरोसिन सिर्फ एक ईंधन नहीं, बल्कि 19वीं सदी के विकास और जनजीवन के विस्तार का प्रतीक बन गया।
भारत में केरोसिन का आगमन और विस्तार: विदेशी कंपनियों से गांव तक
भारत में केरोसिन की कहानी, विदेशी निवेश और ग्रामीण भारत की ज़रूरतों के अद्भुत संगम की कहानी है। सर्वप्रथम इसे केरल के अलाप्पुझा बंदरगाह पर मैसर्स अर्नोल्ड चेनी एंड कंपनी द्वारा आयात किया गया था। इसके बाद बर्मा शेल, रिप्ले एंड मैके और ईएसएसओ (ISSO) जैसी विदेशी कंपनियों ने भारतीय बाजार में केरोसिन का गहन विस्तार किया। उन्होंने न केवल इसे शहरी भारत में लोकप्रिय किया बल्कि गांव-गांव तक पहुँचाया। 1952 में भारत में स्टैंडर्ड वैक्यूम रिफाइनिंग कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड (Standard Vacuum Refining Company of India Ltd.) के रूप में ईएसएसओ की स्थापना, केरोसिन के भारतीय इतिहास का एक प्रमुख अध्याय बना। इससे लालटेनें, स्टोव (stove), पंखे और यहां तक कि इस्त्री करने वाले उपकरण तक विकसित हुए, जो केरोसिन पर आधारित थे। ग्रामीण भारत में बिजली की अनुपलब्धता के दौर में, यह ईंधन जीवन का आधार बन गया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि केरोसिन ने आधुनिक भारत के निर्माण में एक मौन लेकिन स्थायी योगदान दिया है।
आर्थिक पहुँच और सरकारी वितरण: राशन प्रणाली में केरोसिन की जगह
केरोसिन की कीमतें शुरू में इतनी अधिक थीं कि यह केवल विशेष वर्ग के लिए ही सुलभ था। परंतु जब पेट्रोलियम रिफाइनरियों (petroleum refineries) ने इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू किया और इसकी लागत कम हुई, तो सरकार ने इसे आमजन तक पहुँचाने का निर्णय लिया। भारत में इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत राशन की दुकानों में उपलब्ध कराया गया, जिससे गरीब और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए यह आवश्यक ईंधन बन गया। स्कूलों, आंगनबाड़ियों और अन्य सामुदायिक केंद्रों में भी केरोसिन से जलने वाले स्टोवों और लालटेन का उपयोग आम हो गया। यह न केवल ऊर्जा का स्रोत था, बल्कि सरकार की सामाजिक न्याय नीति का भी हिस्सा बना। धीरे-धीरे जैसे-जैसे बिजली, एलपीजी (LPG)और अन्य आधुनिक ईंधनों की पहुँच बढ़ी, केरोसिन की खपत में कमी आई, लेकिन आज भी यह भारत के दूरस्थ ग्रामीण इलाकों और असंगठित क्षेत्रों में एक सस्ता, सुलभ और उपयोगी ईंधन बना हुआ है। इसका ऐतिहासिक महत्व और सामाजिक भूमिका, भारतीय ऊर्जा इतिहास का एक अमिट अध्याय है।
सन्दर्भ -
जौनपुर की मिट्टी में छिपा ज्ञान: मायसीलियम और कवक की अद्भुत दुनिया
शारीरिक
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25-07-2025 09:36 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, जब हम अपने खेतों की मिट्टी को पलटते हैं या बारिश के बाद धरती से उठती सोंधी महक को महसूस करते हैं, तो क्या आपने कभी सोचा है कि इस धरती में कुछ ऐसा भी है जो पौधों से भी पहले जन्मा था? ऐसा जीव जो न केवल सबसे पुराना है, बल्कि आज भी हमारे खेतों, जंगलों और वातावरण में चुपचाप अपना कार्य कर रहा है। यह है—कवक (Fungi) और उसका फैला हुआ अदृश्य संसार, मायसीलियम (Mycelium)। ये जीव न केवल जीवन की शुरुआत के साक्षी हैं, बल्कि आज भी हमारी पृथ्वी को स्वच्छ, उपजाऊ और संतुलित बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि कवक कितने पुराने हैं, मायसीलियम क्या है, यह कैसे काम करता है, और कैसे यह आज के प्रदूषित समय में भी पर्यावरण को पुनर्जीवित करने की ताक़त रखता है।
इस लेख में हम पांच प्रमुख पहलुओं के माध्यम से कवक और मायसीलियम की रहस्यमयी दुनिया की गहराई में उतरेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि कवक का विकास पौधों से पहले कैसे हुआ और किस तरह यह पृथ्वी के सबसे पुराने जीवों में गिना जाता है। फिर, हम मायसीलियम की संरचना और कार्यप्रणाली को समझेंगे, जो धरती के नीचे फैले अदृश्य जीवनजाल की तरह काम करता है। इसके बाद, हम जानेंगे कि कैसे कवक प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरणीय पुनर्स्थापन में मदद कर रहे हैं। चौथे हिस्से में, कवक और पौधों की साझेदारी पर नज़र डालेंगे, जिसे मायकोरिजा कहते हैं और जो कृषि में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है। अंत में, हम देखेंगे कि कैसे मायसीलियम अब फर्नीचर, पैकेजिंग और अन्य उद्योगों के लिए एक वैकल्पिक जैविक सामग्री बनता जा रहा है।

धरती पर जीवन से भी पहले आए कवक: सबसे पुराना जीव कौन?
विज्ञान कहता है कि जीवन की शुरुआत समुद्रों में सूक्ष्म जीवों से हुई थी, लेकिन क्या आप जानते हैं कि कवक (Fungi) पौधों से भी पहले इस धरती पर अस्तित्व में आ चुके थे? हाल के अध्ययनों से पता चला है कि जब पृथ्वी पर पौधे लगभग 700 मिलियन वर्ष पहले उगने लगे, तब तक कवक लगभग 1300 मिलियन वर्ष पहले ही विकसित हो चुके थे। इसका मतलब यह हुआ कि धरती पर जीवन की संरचना में कवक का योगदान सबसे प्रारंभिक और मौलिक रहा है। आज भी, दुनिया का सबसे बड़ा जीव कोई व्हेल नहीं, बल्कि एक विशाल कवक है, जो अमेरिका के ओरेगन (Oregon) राज्य के ब्लू माउंटेन (Blue Mountains) में पाया गया है। इस शहद कवक (Honey Fungus) का मायसीलियम पूरे 3.8 किलोमीटर (2400 एकड़) में फैला हुआ है और इसकी आयु अनुमानतः 2200 वर्ष मानी जाती है। यह केवल आकार ही नहीं, बल्कि इतिहास और जैविक अस्तित्व की दृष्टि से भी एक चमत्कार है।
मायसीलियम: धरती के नीचे फैला अदृश्य जीवनजाल
मायसीलियम (Mycelium) एक ऐसा अद्भुत जैविक ढांचा है, जो कवक का वास्तविक शरीर होता है। यह हायफे (Hyphae) नामक सूक्ष्म तंतुओं का जाल होता है, जो मिट्टी में, लकड़ी के भीतर, या किसी भी कार्बनिक माध्यम में फैला रहता है। यह जाल हर उस स्थान में मौजूद होता है, जहाँ कवक जीवित है—लेकिन हमें केवल सतह पर उगे मशरूम ही दिखते हैं। मायसीलियम की भूमिका केवल पोषक तत्वों को अवशोषित करने तक सीमित नहीं है। यह दो-चरणीय प्रक्रिया में कार्य करता है: पहले, यह एंजाइम छोड़ता है जो कार्बनिक पदार्थों को छोटे-छोटे अणुओं (Monomers) में तोड़ता है; फिर यह उन अणुओं को अवशोषित करता है। यह प्रक्रिया न केवल कवक को भोजन देती है, बल्कि मृत जैविक पदार्थों को अपघटित कर पर्यावरण को साफ़ और पुनः उपजाऊ भी बनाती है। अमेरिका के जिस शहद कवक का उल्लेख हमने पहले किया, उसका मायसीलियम धरती के नीचे फैला हुआ है, लेकिन उसकी उपस्थिति पूरे पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करती है। यह मिट्टी की उर्वरता, पौधों की वृद्धि और यहां तक कि कार्बन चक्र को भी नियंत्रित करता है।

बायोरेमेडिएशन और माइकोफिल्ट्रेशन: कवक द्वारा प्रदूषण नियंत्रण
आज जब दुनिया प्रदूषण से जूझ रही है, तब कवक एक प्राकृतिक समाधान बनकर उभरा है। कवक द्वारा किया गया जैविक क्षरण (Bioremediation) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें यह कार्बनिक प्रदूषकों—जैसे पेट्रोलियम उत्पाद, प्लास्टिक और कीटनाशक—को तोड़कर उन्हें निरापद बना देता है। कवक के एंजाइम इन विषैले अणुओं को विघटित कर उन्हें मिट्टी और जल के लिए फिर से उपयुक्त बना सकते हैं। मायसेलियल मैट्स (Mycelial Mats) का उपयोग मिट्टी और पानी से विषैले रसायनों और सूक्ष्मजीवों को हटाने में होता है। इस तकनीक को माइकोफिल्ट्रेशन (Mycofiltration) कहा जाता है। इससे न केवल खेती योग्य भूमि पुनः उर्वर बन सकती है, बल्कि औद्योगिक और घरेलू कचरे से उत्पन्न समस्याओं का हल भी संभव हो सकता है। ये तकनीकें अब दुनिया भर में प्रयोग की जा रही हैं, और आने वाले समय में यह पर्यावरणीय पुनर्स्थापन की एक मुख्य कुंजी बन सकती हैं—बिना किसी भारी मशीनरी या रासायनिक प्रक्रियाओं के।

मायकोरिजा: कवक और पौधों की पारस्परिक साझेदारी
प्राकृतिक जगत में कवक और पौधों के बीच का मायकोरिज़ल (Mycorrhizal) संबंध सबसे अद्भुत पारस्परिक सहयोगों में से एक है। मायकोरिजल कवक, पौधों की जड़ों के साथ सहजीवी संबंध स्थापित करते हैं, जिससे पौधों को जल और पोषक तत्वों की अधिकतम उपलब्धता मिलती है, जबकि बदले में कवक को पौधे से कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate) मिलते हैं। यह संबंध न केवल पौधों की विकास क्षमता को बढ़ाता है, बल्कि उन्हें सूखे और मृदासंक्रमण से भी लड़ने में सहायता करता है। वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि फसल उत्पादन में बढ़ोत्तरी के लिए मायकोरिजल कवकों का प्रयोग एक कृषि क्रांति ला सकता है। यह संबंध एक जैविक इंटरनेट (Internet) जैसा काम करता है, जहाँ पेड़ों की जड़ें और कवक आपस में जुड़े रहते हैं और जल, खनिज, और रासायनिक संकेतों का आदान-प्रदान करते हैं—जैसे एक स्मार्ट फसल नेटवर्क (Smart Crop Network)।
वैकल्पिक सामग्रियों की क्रांति: माइसीलियम से फर्नीचर से लेकर पैकेजिंग तक
आज प्लास्टिक और सिंथेटिक सामग्रियों के विकल्प की आवश्यकता जितनी पहले कभी नहीं थी, उतनी अब है। इस संकट में मायसीलियम एक समाधान बनकर उभरा है। वैज्ञानिक अब कृषि अपशिष्ट में माइसीलियम उगाकर उससे बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग (Biodegradable Packaging), कृत्रिम चमड़ा, ईंटें और फर्नीचर (Furniture) बना रहे हैं। मायसीलियम से बने उत्पाद न केवल पर्यावरण के अनुकूल होते हैं, बल्कि वे थर्मल, संरचनात्मक और सौंदर्यात्मक दृष्टि से भी टिकाऊ होते हैं। यह तकनीक अब पॉलीस्टाइरीन (Polystyrene) और अन्य पेट्रोलियम-आधारित उत्पादों का विकल्प बन रही है। इसका अर्थ यह है कि कवक अब केवल जंगलों में छिपा जैविक घटक नहीं, बल्कि हरित उद्योग (Green Industry) की रीढ़ बन सकता है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय रोजगार, सतत कृषि और नवाचार आधारित उद्यमिता को भी बल मिलेगा।
संदर्भ-
शिराज-ए-हिंद की स्थापत्य विरासत: जौनपुर और शर्की काल की बेजोड़ कला
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
24-07-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारा शहर केवल गोमती नदी के तट पर बसा कोई शांत नगर नहीं, बल्कि यह एक जीवित विरासत है—जहाँ इतिहास सिर्फ किताबों में नहीं, बल्कि मस्जिदों की दीवारों, दरवाज़ों की मेहराबों और गलियों की खामोशी में गूंजता है। यह वही भूमि है जहाँ शर्की सुल्तानों ने एक अनोखी स्थापत्य शैली को जन्म दिया, जो ना केवल इस्लामी आस्था की सौम्यता को दर्शाती है, बल्कि स्थानीय कारीगरी की प्रतिभा और सांस्कृतिक समरसता को भी अपने भीतर समेटे हुए है। उस दौर में जब दिल्ली सल्तनत की भव्यता, गुजरात की नक्काशी और दक्कन की राजसी बनावटें अपने उत्कर्ष पर थीं, तब जौनपुर ने अपनी अलग पहचान बनाई—एक ऐसी पहचान जो आज भी अटाला मस्जिद की ऊँची मेहराबों और लाल दरवाज़ा मस्जिद की गंभीर चुप्पियों में साफ झलकती है। यह स्थापत्य केवल पत्थरों का जोड़ नहीं, यह एक सोच थी—एक दृष्टिकोण, जो धर्म को सौंदर्य, सामुदायिकता को वास्तुकला और परंपरा को नवाचार से जोड़ता था। जब आप इन मस्जिदों की ओर देखते हैं, तो यूं लगता है मानो इतिहास आपके सामने खड़ा हो, शांत लेकिन मुखर, जैसे कोई बुज़ुर्ग अपनी कहानी सुना रहा हो। हर ईंट, हर मेहराब, हर नक्काशी में वह आत्मा समाई है जिसने जौनपुर को 'शिराज-ए-हिंद' बना दिया—एक ऐसा शहर जो कला, संस्कृति और सूफियाना विरासत की संगम स्थली बन गया।
इस लेख में हम पहले भाग में शहर के इतिहास और शर्की वंश के उदय की बात करेंगे। फिर वास्तुशिल्प विशेषताओं और मेहराबों के स्थापत्य रूपों का विश्लेषण करेंगे। इसके बाद हम प्रमुख मस्जिदों की चर्चा करेंगे और शर्की शैली की तुलना दिल्ली, फारसी और गोथिक प्रभावों से करेंगे। अंत में शैक्षिक और धार्मिक संस्थानों में स्थापत्य समन्वय की पड़ताल करेंगे।
जौनपुर का ऐतिहासिक परिचय और शर्की वंश का उदय
जौनपुर की स्थापना फिरोजशाह तुगलक के समय में हुई थी, लेकिन इस शहर को असली पहचान मिली शर्की वंश के उदय से। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मलिक सरवर शर्की ने स्वतंत्र शासन की नींव रखी, जो आगे चलकर एक सांस्कृतिक आंदोलन में बदल गई। यह युग साहित्य, संगीत, दर्शन और स्थापत्य के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति का युग था। ‘शिराज-ए-हिंद’ की उपाधि फारसी नगर शिराज से तुलना करते हुए दी गई थी, जो उस समय का सांस्कृतिक और साहित्यिक केन्द्र था।
शर्की सुल्तानों ने धार्मिक सहिष्णुता और ज्ञान के प्रचार में गहरी रुचि ली। सुल्तान इब्राहीम शर्की जैसे नरेश खुद विद्वान थे और उनकी रुचि वास्तुकला के साथ-साथ तर्कशास्त्र, संगीत और कविता में भी थी। यह वह दौर था जब जौनपुर की पहचान केवल एक सैन्य शक्ति नहीं, बल्कि एक गूढ़ सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में बनने लगी। मस्जिदों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना के साथ शहर की आत्मा एक नई दिशा में चली गई।

शर्की वास्तुकला की प्रमुख विशेषताएं
शर्की वास्तुकला को समझने के लिए हमें तुगलक शैली से उसकी प्रेरणा को देखना होगा, लेकिन शर्की निर्माण इससे आगे निकलता है। तुगलक शैली के ठोस, आत्मरक्षात्मक ढांचे को शर्की काल में एक कलात्मक, धार्मिक और सौंदर्यपरक दिशा दी गई। मुख्य रूप से शर्की इमारतों के अग्रभाग में 'तोरण' यानी विशिष्ट द्वार शैली देखी जाती है, जो हिंदू मंदिरों से ली गई थी। यह शैली स्थानीय शिल्पकारों की देन थी, जो हिंदू स्थापत्य परंपरा के ज्ञाता थे। ट्रैबीट प्रणाली यानी बीम और ब्रैकेट्स के माध्यम से छतें रखने की तकनीक ने इन इमारतों को मजबूत ही नहीं, बल्कि विशिष्ट बनाया। इसके साथ-साथ, इन इमारतों में गहरे रंग के पत्थर, सादे किन्तु प्रभावशाली सजावटी तत्व, और ज्यामितीय पैटर्न का सधा हुआ प्रयोग हुआ। इन सबका समन्वय स्थानीय कारीगरों और इस्लामी स्थापत्य परंपरा के बीच एक अद्वितीय संवाद को दर्शाता है। यही संवाद जौनपुर की स्थापत्य भाषा को अलग पहचान देता है।
मेहराब का स्थापत्य महत्व और विविध रूप
मेहराब सिर्फ एक स्थापत्य तत्व नहीं है, बल्कि वह एक बौद्धिक चुनौती और सौंदर्यबोध का उदाहरण है। इसकी उत्पत्ति रोमन और बीजान्टिन परंपराओं से मानी जाती है, जिसे इस्लामी दुनिया ने कई रूपों में विकसित किया। जौनपुर की मस्जिदों में प्रयोग हुई मेहराबें कई वैश्विक स्वरूपों का समावेश दिखाती हैं—जैसे घोड़े की नाल जैसी स्पैनिश शैली की मेहराब, नुकीली और चार-केंद्रीय मेहराबें जो फारसी और ममलुक प्रभाव दर्शाती हैं। शर्की इमारतों में इन मेहराबों का सबसे बड़ा योगदान यह था कि वे वास्तु संरचना के साथ-साथ धार्मिकता और सौंदर्य का प्रतीक बन गईं। इन मेहराबों का निर्माण एक प्रकार की गणितीय जटिलता से होता था जिसमें हर कोण और घटक का सटीक भार संतुलन जरूरी था। यही कारण है कि इन इमारतों ने समय की मार झेली और आज भी खड़ी हैं—गौरव के साथ।

जौनपुर की प्रमुख शर्की मस्जिदें और उनकी वास्तुकला
शर्की मस्जिदें केवल इबादत के स्थान नहीं थीं—वे शक्ति, संस्कृति और कला की प्रयोगशाला थीं।
अटाला मस्जिद, जो शर्की स्थापत्य का शिखर मानी जाती है, एक अधूरे मंदिर ढांचे पर बनी थी। इसके मुख्य द्वार का तोरण और ऊपर उठती हुई छतें स्थापत्य सृजन की पराकाष्ठा हैं।
खालिस मुखलिस मस्जिद अपेक्षाकृत सादी मगर अत्यंत संतुलित रचना है। इसका सौंदर्य उसकी सादगी में है।
जहांगीरी मस्जिद धनुषाकार मेहराबों और महीन कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है, जो तत्कालीन शिल्प की परिपक्वता को दर्शाती है।
लाल दरवाजा मस्जिद को स्त्रियों के धार्मिक स्थल के रूप में बनाया गया था, जिसमें ज़नाना कक्ष जैसी संरचनाएं विशिष्ट हैं।
जामी मस्जिद, जिसे बारी मस्जिद भी कहते हैं, अपनी ऊँचाई, चबूतरे और विशाल प्रवेश द्वारों के लिए जानी जाती है। ये मस्जिदें आज भी न सिर्फ धार्मिक पहचान हैं, बल्कि स्थापत्य शिक्षण का केंद्र भी बन सकती हैं।
शर्की शैली और उसकी तुलनात्मक विशेषता
जब हम शर्की शैली को दिल्ली की तुगलक वास्तुकला से तुलना करते हैं, तो शर्की शैली कहीं अधिक कलात्मक और सजीव लगती है। तुगलक शैली कठोर और संरचनात्मक रही, जबकि शर्की शैली में सौंदर्य, स्थानीय कला और भव्यता का समावेश था। यूरोपीय गोथिक शैली की ऊँचाई और मेहराबों के आकारों से कुछ समानताएं जरूर दिखाई देती हैं, विशेषकर ऊंचे प्रवेश द्वारों और ट्रैसरियों में। वहीं फारसी और अब्बासिड परंपराओं से लिए गए आभूषणशैली और चौकटी निर्माण ने इसे अंतरराष्ट्रीय स्पर्श दिया। हालांकि इन सभी प्रभावों के बावजूद, शर्की स्थापत्य पूरी तरह से स्थानीय मिट्टी में रचा-बसा था। इसकी पहचान 'बाहरी प्रभावों का समन्वित स्थानीय पुनःसृजन' के रूप में की जा सकती है।
शिक्षा, संस्कृति और धार्मिक संस्थान
शर्की शासकों ने केवल मस्जिदें ही नहीं बनवाईं, उन्होंने मदरसों की एक परंपरा शुरू की जो जौनपुर को ज्ञान का केन्द्र बनाती है। जामिया हुसैनिया जैसे संस्थान तात्कालिक बौद्धिक विमर्श के केन्द्र थे। इन संस्थानों में इस्लामी दर्शन, कानून, गणित और खगोलशास्त्र जैसे विषय पढ़ाए जाते थे, जिनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों वर्गों के छात्र शामिल होते थे। वास्तुकला में भी यह समन्वय स्पष्ट था—जहां मस्जिदों के अंदरूनी खंभे मंदिर निर्माण शैली की याद दिलाते हैं। धार्मिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक कार्यों, चर्चा सभाओं और न्यायिक कार्यों के लिए भी मस्जिदें केंद्र थीं। इस तरह शर्की मस्जिदें सिर्फ पूजा स्थल नहीं, एक जीवंत सार्वजनिक जीवन का हिस्सा थीं।
संदर्भ-
क्या जौनपुरवासी अब पैडोमीटर और फिटनेस तकनीक से बेहतर स्वास्थ्य की ओर बढ़ रहे हैं?
सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)
Concept I - Measurement Tools (Paper/Watch)
23-07-2025 09:32 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, आज की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में जहाँ हम दिन भर की थकान और व्यस्तता से घिरे रहते हैं, वहीं स्वास्थ्य को समय देना एक चुनौती बनता जा रहा है। ऐसे समय में "चलना" — यह सबसे सरल, सुलभ और प्राकृतिक व्यायाम — हमारे लिए वरदान साबित हो सकता है। खासकर जब मधुमेह जैसी बीमारियाँ हमारे समाज में बढ़ रही हैं, तो पैदल चलना और उसकी निगरानी करना और भी ज़रूरी हो जाता है। इसी ज़रूरत को पूरा करने में पैडोमीटर और स्मार्ट फिटनेस डिवाइस हमारी मदद करते हैं, जो हमें हमारे कदमों की सही जानकारी देकर सेहत के प्रति जागरूक बनाते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले यह समझेंगे कि कैसे नियमित रूप से चलना हमारे स्वास्थ्य में सुधार लाता है, विशेषकर मधुमेह जैसी बीमारियों में इसकी भूमिका क्या है। फिर हम जानेंगे कि पैडोमीटर वास्तव में कैसे काम करता है — उसकी यांत्रिक बनावट से लेकर आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक रूप तक। इसके बाद हम बात करेंगे स्मार्टफोन और जीपीएस (GPS) जैसी तकनीकों की, जो आज हमारे कदमों की गिनती को बेहद आसान और सटीक बना चुकी हैं। हम पैडोमीटर के इतिहास को भी छुएंगे — लियोनार्डो दा विंची से लेकर आज के फिटबिट जैसे उपकरणों तक की यात्रा। और अंत में, कोविड-19 के बाद भारत में स्मार्टवॉच और फिटनेस डिवाइसेज़ के बढ़ते बाज़ार को देखेंगे, जो अब हर स्वास्थ्य-प्रेमी की ज़रूरत बन चुके हैं।

दैनिक चलने का स्वास्थ्य पर प्रभाव और मधुमेह में इसकी भूमिका
चलना एक बेहद सरल लेकिन अत्यंत प्रभावी व्यायाम है, जिसका हमारे संपूर्ण स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर पड़ता है। वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का मानना है कि दिन में कम से कम 30 मिनट तेज़ गति से चलना हृदय, फेफड़ों, पाचन और मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है। विशेष रूप से मधुमेह के रोगियों के लिए यह जीवनशैली में बदलाव लाने का सबसे आसान उपाय माना जाता है।
2016–18 के दौरान कोयंबटूर में किए गए एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि नियमित चलने से पूर्व-मधुमेह और मधुमेह दोनों ही स्थितियों में सुधार आता है। अध्ययन ने यह भी दर्शाया कि चलना दुनियाभर में बढ़ती चिरकालिक बीमारियों को कम करने की क्षमता रखता है। जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच सीमित हो सकती है, वहाँ चलना एक सस्ता, सरल और कारगर समाधान है। यह न केवल शरीर को चुस्त बनाता है बल्कि मानसिक तनाव को भी कम करता है। बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक, सभी के लिए यह व्यायाम उपयुक्त है — और यही इसकी सबसे बड़ी खूबी है।
पैडोमीटर कैसे काम करता है: यांत्रिक से लेकर इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रिया तक
पैडोमीटर (Pedometer) एक ऐसा यंत्र है जो हमारे द्वारा उठाए गए कदमों की गिनती करता है। इसकी कार्यप्रणाली सरल लगती है, लेकिन इसके पीछे की तकनीक काफ़ी दिलचस्प है। पारंपरिक पैडोमीटर में एक छोटा पेंडुलम या लेड गेंद होती थी, जो चलने पर हिलती थी और प्रत्येक झटका एक कदम के रूप में गिना जाता था।
हालाँकि इस यांत्रिक प्रणाली में कई त्रुटियाँ होती थीं, विशेषकर ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते समय। आधुनिक पैडोमीटर अब इलेक्ट्रॉनिक हो चुके हैं, जिनमें एक पतली स्प्रिंग, इलेक्ट्रॉनिक सर्किट और सेंसर होते हैं। जब व्यक्ति कदम बढ़ाता है, तो यह स्प्रिंग संचालित हथौड़ा सर्किट को पूरा करता है, जिससे विद्युत प्रवाह होता है और वह कदम दर्ज हो जाता है। इस तकनीक से कदमों की गणना ज़्यादा सटीक हो गई है।
आजकल पहनने योग्य डिवाइसेज़ (devices) में यह तकनीक और अधिक परिष्कृत हो गई है, जो हर एक कदम को मापने में सक्षम हैं — चाहे आप कहीं भी हों, जौनपुर की गलियों में टहल रहे हों या अपने घर की छत पर।

स्मार्टफोन और जीपीएस (GPS) आधारित कदम मापने की आधुनिक तकनीकें
जब हमारे पास स्मार्टफोन (Smartphone) है, तो कदम गिनने के लिए अलग डिवाइस की ज़रूरत भी नहीं। आधुनिक स्मार्टफोन में इनबिल्ट एक्सेलेरोमीटर होते हैं, जो हमारे पैरों की गति का सूक्ष्मता से विश्लेषण करके हर कदम को गिन सकते हैं। कई पेडोमीटर ऐप्स अब बाजार में उपलब्ध हैं, जैसे गूगल फिट (Google Fit), सैमसंग हेल्थ (Samsung Health), आदि, जो आपकी गतिविधि को ट्रैक कर सकते हैं। इनमें से कुछ ऐप्स जीपीएस का भी प्रयोग करते हैं, जिससे आपकी कुल दूरी और रूट को भी ट्रैक किया जा सकता है।
जीपीएस आधारित ट्रैकिंग में उपग्रह संकेतों की मदद से दूरी मापी जाती है, और यह उन गतिविधियों के लिए उपयोगी होती है जहाँ पैरों की गति से ज़्यादा स्थान परिवर्तन महत्वपूर्ण होता है, जैसे दौड़ना या साइकिलिंग। जौनपुर जैसे शहर में, जहाँ लोग सुबह टहलने के लिए घाटों, बागों और सड़कों का इस्तेमाल करते हैं, इन तकनीकों से जुड़े ऐप्स (apps) उन्हें न केवल जागरूक बनाते हैं बल्कि नियमितता बनाए रखने में भी सहायक होते हैं।
पेडोमीटर का इतिहास: लियोनार्डो दा विंची (Leonardo Da Vinci) से लेकर फिटबिट तक
पैडोमीटर कोई नया आविष्कार नहीं है। इसकी कल्पना 15वीं शताब्दी में लियोनार्डो दा विंची ने की थी, जिन्होंने रोमन सैनिकों की दूरी मापने के लिए इस यंत्र की योजना बनाई थी। इसके बाद स्विस घड़ी निर्माताओं ने स्व-घुमावदार घड़ियों से प्रेरित होकर कदम गिनने की तकनीक विकसित की।
थॉमस जेफरसन के बारे में भी यह कहा जाता है कि उन्होंने फ्रांसीसी डिज़ाइन को आधार बनाकर पहला आधुनिक पैडोमीटर तैयार किया।
समय के साथ यह यंत्र यांत्रिक से इलेक्ट्रॉनिक होता चला गया, और आज हम फिटबिट, गार्मिन, अमेज़फिट जैसी कंपनियों के पहनने योग्य उपकरणों का उपयोग कर रहे हैं, जो न केवल कदमों को गिनते हैं, बल्कि हृदय गति, नींद की गुणवत्ता और कैलोरी बर्न तक की जानकारी भी देते हैं।
यह तकनीकी यात्रा दर्शाती है कि कैसे एक साधारण विचार आधुनिक स्वास्थ्य की दिशा में क्रांतिकारी साबित हो सकता है — और अब जौनपुर के लोग भी इस डिजिटल यात्रा का हिस्सा बन चुके हैं।

कोविड-19 के बाद भारत में स्मार्टवॉच और फिटनेस डिवाइस का बढ़ता बाज़ार
कोविड-19 महामारी ने न केवल हमारी जीवनशैली बदल दी, बल्कि स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता को भी बहुत अधिक बढ़ाया। ऐसे समय में जब जिम और सार्वजनिक स्थान बंद थे, तब लोगों ने घर पर फिट रहने के लिए फिटनेस डिवाइस और ऐप्स का सहारा लिया।
आईडीसी (IDC)की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2023 की तीसरी तिमाही में 23.8 मिलियन पहनने योग्य डिवाइस बिके। इनमें स्मार्टवॉच सबसे अधिक लोकप्रिय रही, जो अब सिर्फ समय दिखाने का यंत्र नहीं रह गई, बल्कि एक स्वास्थ्य साथी बन गई है। कान के उपकरण (Earwear), रिस्टबैंड (wristband) और ऐप्स ने भी बाज़ार में अपनी जगह बना ली है। जौनपुर जैसे शहरों में भी युवाओं और मध्यम वर्ग में फिटनेस डिवाइसेज़ (fitness device) की मांग तेजी से बढ़ी है। लोग अब अपने स्वास्थ्य डेटा को ट्रैक करने में रुचि ले रहे हैं और यह बदलाव भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में एक नई क्रांति को दर्शाता है।
संदर्भ-
जौनपुरवासियों, जानिए कैसे कोंडापल्ली के खिलौने बने आंध्र की पहचान और हमारी प्रेरणा
हथियार व खिलौने
Weapons and Toys
22-07-2025 09:24 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारे शहर की गलियों में लकड़ी के खिलौनों की दुकानों की चहल-पहल अब केवल व्यापार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बनती जा रही है। आपने भी देखा होगा कि कैसे बच्चों की आंखों में चमक भर देने वाले रंग-बिरंगे लकड़ी के खिलौने फिर से लोकप्रिय हो रहे हैं। इस पुनरुत्थान की प्रेरणा अगर कहीं से आई है, तो वह है आंध्र प्रदेश का प्रसिद्ध कोंडापल्ली। कोंडापल्ली खिलौने न केवल एक हस्तशिल्प हैं, बल्कि यह भारत की जीवंत परंपराओं, रंगों और जीवन के विविध पहलुओं को प्रदर्शित करने वाली चलती-फिरती कहानियां हैं। आज के लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि इन खिलौनों की ऐतिहासिक उत्पत्ति क्या है, कैसे इनका निर्माण होता है, इनका सांस्कृतिक महत्व क्या है, कौन-कौन से खिलौने सबसे प्रसिद्ध हैं, और इन सबके बीच भारत के पारंपरिक खिलौना उद्योग की स्थिति कैसी है।
इस लेख में हम कोंडापल्ली खिलौनों की अनोखी दुनिया को पाँच पहलुओं में समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि इन खिलौनों की शुरुआत कहाँ से हुई और इन्हें गढ़ने वाले कारीगरों की परंपरा कितनी समृद्ध है। फिर हम जानेंगे कि इनका निर्माण कैसे होता है—कौन-सी खास लकड़ी, रंग और तकनीकें इसमें इस्तेमाल होती हैं। तीसरे भाग में हम समझेंगे कि त्योहारों और धार्मिक आयोजनों में इन खिलौनों की क्या भूमिका होती है। इसके बाद, हम देखेंगे कि कोंडापल्ली खिलौनों के कौन-कौन से प्रकार हैं और उनमें कैसे लोकजीवन और पौराणिक कथाएँ जीवंत हो उठती हैं। अंत में, हम जानेंगे कि आज के तेज़ी से बदलते खिलौना उद्योग में इस पारंपरिक शिल्प की क्या स्थिति है और इसे संरक्षित रखने के लिए क्या किया जा रहा है।

कोंडापल्ली खिलौनों की ऐतिहासिक उत्पत्ति और कारीगर परंपरा
कोंडापल्ली खिलौनों की कहानी केवल लकड़ी या रंगों की नहीं, बल्कि सदियों पुराने शिल्प कौशल की कहानी है। 16वीं शताब्दी में राजस्थान से आए आर्य क्षत्रिय कारीगरों का एक समुदाय, आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के कोंडापल्ली क्षेत्र में आकर बसा। यह प्रवास सामान्य नहीं था—इन्हें अनवेमा रेड्डी नामक स्थानीय शासक ने आमंत्रित किया था ताकि वे अपनी शिल्प परंपरा को दक्षिण भारत में स्थापित कर सकें। इन कारीगरों की विरासत का उल्लेख ‘ब्रह्माण्ड पुराण’ तक में मिलता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह कला केवल व्यावसायिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी जुड़ी हुई है।
किंवदंती है कि इन कारीगरों के पूर्वज ‘मुक्थर्षि’ नामक एक ऋषि थे, जिन्हें स्वयं भगवान शिव ने यह कौशल प्रदान किया था। इस कारण, खिलौनों का निर्माण केवल एक हस्तकला नहीं, बल्कि एक धार्मिक कर्म की भांति भी किया जाता था। कोंडापल्ली के कारीगर, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘नक्काशी’ या ‘बोम्मालु’ बनाने वाले कहा जाता है, आज भी इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं, जो उनकी पीढ़ियों के अनुभव, आस्था और कल्पना से उपजी है।
कोंडापल्ली खिलौनों का निर्माण: टेला पोनिकी लकड़ी से लेकर चमकीली रंगाई तक
कोंडापल्ली खिलौनों का निर्माण, तकनीक और कल्पना का ऐसा संगम है, जो प्रत्येक खिलौने को जीवंत बना देता है। यह प्रक्रिया शुरू होती है ‘टेला पोनिकी’ नामक विशेष प्रकार की लकड़ी से, जो हल्की, मुलायम और आसानी से तराशी जा सकने वाली होती है। यह लकड़ी विशेष रूप से आंध्र प्रदेश के जंगलों में पाई जाती है और पर्यावरण के अनुकूल भी होती है।
सबसे पहले, लकड़ी को कुछ समय के लिए सुखाया जाता है ताकि उसकी नमी निकल जाए और उसमें कीड़े न लगे। फिर इसे छोटे टुकड़ों में काटकर खिलौने के अंगों जैसे सिर, धड़, हाथ-पैर आदि के आकार में तराशा जाता है। इन अंगों को गोंद से जोड़कर खिलौने का ढांचा तैयार किया जाता है। इसके बाद खिलौनों को गर्म किया जाता है ताकि वे टिकाऊ हो जाएं। इसके बाद आता है ‘आकड़ा’ पेस्ट का चरण, जो दरारों को भरता है और सतह को चिकना बनाता है।
अब बारी होती है रेत के कागज से घिसाई की, और फिर एक बेस कोट या प्राइमर की। इसके बाद खिलौने को जीवंत बनाता है रंग—चटकीले, बोलते हुए रंग। लाल, पीला, हरा, नीला और काला—हर रंग एक कहानी बयां करता है। पहले ये रंग प्राकृतिक होते थे, पर अब इनमे एनामेल और सिंथेटिक रंगों का भी प्रयोग होता है, जो चमकदार और टिकाऊ होते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में एक कारीगर कई दिनों तक एक ही खिलौने पर काम करता है, जिससे हर टुकड़ा अनोखा बन जाता है।

कोंडापल्ली खिलौनों का सांस्कृतिक महत्त्व और त्योहारों में इनकी भूमिका
कोंडापल्ली के खिलौने सिर्फ बच्चों के खेलने की वस्तुएँ नहीं हैं, वे भारतीय जीवनशैली, धार्मिक परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों के वाहक हैं। हर साल आंध्र प्रदेश में मकर संक्रांति के अवसर पर ‘बोम्मला कोलुवु’ नामक प्रदर्शनी आयोजित की जाती है, जहाँ घर-घर में रंग-बिरंगे कोंडापल्ली खिलौनों की सीढ़ीदार सजावट की जाती है। यह सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि महिलाओं और बच्चों के बीच संवाद और रचनात्मकता का जरिया भी होता है। इन खिलौनों का उपयोग लोककथाओं और पुराण कथाओं को सुनाने में भी होता है। जब एक दादी अपने पोते को महाभारत की कोई कहानी सुनाते हुए अर्जुन की लकड़ी की मूर्ति दिखाती है, तो वह क्षण केवल कहानी नहीं, एक संस्कार बन जाता है। कोंडापल्ली के कारीगर इन खिलौनों को कभी-कभी अपने पारिवारिक अनुभवों और सामुदायिक संस्कृति से भी जोड़ते हैं, जिससे उनमें मानवीय गहराई आ जाती है। कोंडापल्ली का ऐतिहासिक किला भी इन खिलौनों की पहचान में एक भूमिका निभाता है। यह 14वीं शताब्दी का किला, जहां से इन खिलौनों की लोकप्रियता फैली, खुद भी इस क्षेत्र की सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक है। ऐसे में, ये खिलौने केवल सजावटी वस्तुएँ नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा के संवाहक हैं।
कोंडापल्ली खिलौनों के प्रमुख प्रकार और उनकी विशिष्टता
कोंडापल्ली के खिलौनों की विविधता देखने लायक होती है। हर खिलौना, एक अलग कहानी और एक विशिष्ट शैली को दर्शाता है। उदाहरण के लिएं:
गांव का सेट – इसमें 24 गुड़ियाँ होती हैं जो ग्रामीण जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे किसान, मछुआरे, संगीतकार, पुजारी आदि को दर्शाती हैं।
अम्बारी हाथी – यह एक राजसी हाथी होता है जिस पर राजा सवारी करते हुए दिखाया जाता है। इसकी नक्काशी अत्यंत बारीक और सुंदर होती है।
राजा और रानी – ये खिलौने पारंपरिक पोशाकों और गहनों के साथ होते हैं, जो शाही जीवनशैली को दर्शाते हैं।
ऋषि – इन खिलौनों में एक ध्यानस्थ ऋषि को अग्निवेदी के सामने बैठे दिखाया जाता है, जो धार्मिक आस्था को मजबूत करता है।
मछली बेचने वाली महिला – यह खिलौना आंध्र के तटीय जीवन को दर्शाता है, जिसमें एक महिला अपने सिर पर मछलियों की टोकरी लिए बाज़ार जाती है।
कामकाजी लोग – जैसे कुम्हार, बुनकर, लोहार आदि के चित्रण वाले खिलौने बच्चों को परंपरागत कामों से जोड़ते हैं।
इन खिलौनों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे न केवल सुंदर होते हैं, बल्कि सामाजिक ज्ञान और जीवन-मूल्यों को भी प्रस्तुत करते हैं। एक प्रकार से ये खिलौने बच्चों के लिए ‘खेल के साथ ज्ञान’ का माध्यम बन जाते हैं।

भारतीय खिलौना उद्योग: पारंपरिक शिल्प बनाम मशीन निर्मित विकल्पों की प्रतिस्पर्धा
भारत का खिलौना निर्माण उद्योग कोई नया नहीं, बल्कि 8,000 वर्षों पुराना है। हड़प्पा काल से लेकर आज तक, भारत में मिट्टी, बांस, कपड़े और लकड़ी से बने खिलौनों की परंपरा रही है। लेकिन आज, ग्लोबल मार्केट और चीनी मशीन-निर्मित खिलौनों की बाढ़ के बीच, पारंपरिक हस्तशिल्प खिलौनों की पहचान और अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है।
कोंडापल्ली जैसे शिल्प क्षेत्रों को यह चुनौती दोहरी है—एक ओर सस्ते आयातित उत्पाद, दूसरी ओर आधुनिक बच्चों की तकनीकी रुचि। लेकिन सरकार द्वारा ‘वोकल फॉर लोकल’ जैसी योजनाओं से हस्तनिर्मित खिलौनों को फिर से बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही, GI टैग जैसी पंजीकरण व्यवस्थाएं इन शिल्पों की पहचान को कानूनी संरक्षण देती हैं।
वर्तमान में भारत का खिलौना उद्योग 1.5 बिलियन डॉलर का है, और इसके 2025 तक 3 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। जौनपुर जैसे शहरों में, जहाँ परंपरागत शिल्प को नया जीवन दिया जा रहा है, वहाँ यदि स्थानीय हस्तकला को संगठित रूप में बढ़ाया जाए, तो यह न केवल रोजगार का साधन बनेगा, बल्कि सांस्कृतिक गर्व का विषय भी बनेगा।
संदर्भ-
जौनपुर का मौसम, काराकोरम की छाया: पानी, पर्वत और परस्पर जुड़ाव
पर्वत, चोटी व पठार
Mountains, Hills and Plateau
21-07-2025 09:24 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारे शहर की पहचान भले ही समतल ज़मीन, खेतों की हरियाली और गोमती नदी की शांति से जुड़ी हो, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे जीवन को आकार देने वाले कई प्राकृतिक संसाधनों की शुरुआत दूर-दराज़ के पर्वतों से होती है? हमारे खेतों तक बहकर आने वाला मीठा पानी, हवा में ठंडक का एहसास, और यहाँ तक कि कुछ मौसमीय बदलाव भी — सब कुछ कहीं न कहीं पर्वतीय क्षेत्रों की देन है। ऐसे ही पर्वतों में एक है काराकोरम पर्वत श्रृंखला, जो हिमालय की सबसे ऊँची और कठोर पर्वतमालाओं में गिनी जाती है। यह श्रृंखला भारत, पाकिस्तान और चीन की सीमाओं तक फैली है, और अपने विस्तार में अफ़ग़ानिस्तान व ताजिकिस्तान को भी समेटे हुए है। जौनपुर से हज़ारों किलोमीटर दूर होने के बावजूद, काराकोरम की बर्फ़ीली चोटियाँ हमारे शहर के मौसम और जलचक्र को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं।
आज हम जानेंगे कि काराकोरम पर्वतमाला की विस्तार, “काराकोरम विसंगति” के रहस्यों और उसके पीछे के संभावित कारणों आदि को समझेंगे। फिर, हम विश्व के कुछ प्रसिद्ध पर्वतों की विशेषताओं—जैसे माउंट डेनाली, माउंट फ़ूजी, जबल मूसा, एटलस और टेबल माउंटेन—का विश्लेषण करेंगे, ताकि इनकी भौगोलिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्ता हमारे सामने आए। अंत में हम गहराई से जानेंगे कि पामीर पर्वत और उसका काराकोरम से क्या संबंध है, और क्यों यह क्षेत्र विश्वभर में ‘पर्वतीय अभिसरण का केंद्र’ कहलाता है।
काराकोरम पर्वत श्रृंखला: स्थिति, विस्तार और भौगोलिक महत्त्व
काराकोरम पर्वतमाला हिमालय की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर स्थित वह विशाल पर्वत श्रृंखला है जिसे विश्व का “तीसरा ध्रुव” भी कहा जाता है। यह न केवल भूगोल की दृष्टि से, बल्कि रणनीतिक, सांस्कृतिक और जलवायविक दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। काराकोरम भारत, पाकिस्तान और चीन की सीमाओं को एक प्राकृतिक दीवार की तरह जोड़ती है, जिससे यह भू-राजनीतिक दृष्टि से भी संवेदनशील बनती है। इसका विस्तार अफ़ग़ानिस्तान और ताजिकिस्तान तक होता है और इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 2,07,000 वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ है। इसे "कृष्णगिरि" भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी काली चट्टानें प्राचीन ज्वालामुखीय संरचनाओं की याद दिलाती हैं। यह पर्वत माला पामीर पठार से जुड़कर और भी अधिक ऊँचाई और विस्तार प्राप्त करती है। औसतन इसकी चौड़ाई 120–140 किलोमीटर तक होती है और अधिकांश चोटियाँ 5,500 मीटर से ऊँची हैं। यहाँ स्थित है के2 (8,611 मीटर), जिसे 'सावाग माउंटेन' भी कहा जाता है क्योंकि इसकी चढ़ाई अत्यंत कठिन और खतरनाक मानी जाती है। यह चोटी विश्व की दूसरी सबसे ऊँची लेकिन तकनीकी रूप से सबसे चुनौतीपूर्ण मानी जाती है। काराकोरम की चोटियाँ साल भर बर्फ से ढकी रहती हैं और इसके ग्लेशियर भारतीय उपमहाद्वीप की बड़ी नदियों — जैसे सिंधु — का स्रोत बनते हैं। इस प्रकार, जौनपुर जैसे गंगा-घाटी क्षेत्रों की समृद्धि भी इन ऊँचाईयों से निकलने वाली नदियों की देन है। हम भले ही इन पर्वतों से हजारों किलोमीटर दूर हों, परंतु हमारी धरती, हमारी खेती और हमारा मौसम इन्हीं बर्फीले पहाड़ों की छाया में फलते-फूलते हैं।

काराकोरम विसंगति क्या है और इसके संभावित कारण
दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग के कारण पर्वतीय हिमनद तेजी से सिकुड़ रहे हैं — यह विज्ञान की एक सर्वमान्य सच्चाई बन चुकी है। लेकिन इस वैश्विक प्रवृत्ति से विपरीत, काराकोरम क्षेत्र में एक अनोखी भौगोलिक घटना देखी गई है, जिसे वैज्ञानिकों ने “काराकोरम विसंगति” का नाम दिया है। यहाँ के कुछ हिमनद या तो स्थिर हैं या आश्चर्यजनक रूप से विस्तार भी कर रहे हैं। इसका पहला कारण है हिमनदों पर पड़ी मोटे मलबे की परत, जो सूरज की ऊष्मा को बर्फ़ तक नहीं पहुँचने देती। जबकि स्वच्छ बर्फ़ सूर्य की 90% रोशनी परावर्तित करती है और शीघ्र पिघल सकती है, वहीं मलबे से ढकी बर्फ़ सूर्य की गर्मी को अवशोषित होने से रोकती है, जिससे हिमनद अपेक्षाकृत स्थिर बने रहते हैं। दूसरा प्रमुख कारण है पश्चिमी विक्षोभों का प्रभाव। भूमध्यसागर और कैस्पियन सागर से आने वाली ठंडी, आर्द्र हवाएँ इस क्षेत्र में वर्षभर हल्की बर्फ़बारी करती रहती हैं, विशेषकर सर्दियों में। इससे हिमनदों में लगातार नयी बर्फ़ जुड़ती जाती है और पिघलने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। इसके अतिरिक्त, यहाँ की ऊँचाई, तापमान और स्थानीय जलवायु की अनिश्चितता भी इस विसंगति में भूमिका निभाती है। यह विसंगति वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझने के लिए वैज्ञानिकों के लिए शोध का महत्वपूर्ण केंद्र बन चुकी है। यह हमें याद दिलाती है कि पृथ्वी की हर जगह एक-सी प्रतिक्रिया नहीं देती; कभी-कभी प्रकृति अपने ही नियम बदलकर हमें सोचने पर मजबूर कर देती है।

विश्व के कुछ प्रसिद्ध पर्वत और उनकी विशेषताएं
पर्वत पृथ्वी की वह ऊँचाई हैं जहाँ प्रकृति, अध्यात्म, रोमांच और संस्कृति आपस में मिलते हैं। दुनिया भर में कई पर्वत अपनी विशिष्ट भौगोलिक बनावट और ऐतिहासिक या धार्मिक महत्त्व के लिए प्रसिद्ध हैं। उदाहरणस्वरूप, माउंट डेनाली (6,190 मीटर), जिसे पहले माउंट मैकिनली कहा जाता था, अमेरिका की सबसे ऊँची चोटी है। यह आर्कटिक के नज़दीक स्थित होने के कारण कठोर जलवायु के लिए जाना जाता है। फिर आता है जबल मूसा, मिस्र का वह पवित्र पर्वत जहाँ बाइबिल के अनुसार पैगंबर मूसा को ईश्वर से दस आज्ञाएँ प्राप्त हुईं — यह धार्मिक तीर्थयात्रियों का प्रमुख स्थल है। अफ्रीका में फैला एटलस पर्वत लगभग 2,500 किलोमीटर लंबा है और इसकी सबसे ऊँची चोटी ट्यूबकल (4,167 मीटर) मोरक्को में स्थित है। यह पर्वतमाला बर्बर संस्कृति की परंपराओं से भरी हुई है। जापान का माउंट फ़ूजी, 3,776 मीटर ऊँचा एक सक्रिय ज्वालामुखी है, जो जापानी कला, कविता और लोककथाओं का अभिन्न हिस्सा है। यह पर्वत अपने सौंदर्य और स्थिर आकार के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है और इसके चारों ओर स्थित ‘फ़ूजी फाइव लेक्स’ पर्यटन और आध्यात्मिक ध्यान केंद्र हैं। अंत में, टेबल माउंटेन — दक्षिण अफ़्रीका का वह पर्वत जिसकी सपाट चोटी इसे विश्व के सबसे अनोखे पर्वतों में शामिल करती है। यह पर्वत जैव विविधता का खजाना है और इसके ऊपर से केप टाउन का नज़ारा देखने लायक होता है। ये सभी पर्वत हमें यह सिखाते हैं कि प्रकृति की हर ऊँचाई अपने साथ ज्ञान, संघर्ष और सौंदर्य की एक नई कहानी लेकर आती है — जैसे जौनपुर की ऐतिहासिकता हमारे गौरव की कहानी कहती है।

पामीर पर्वत: काराकोरम से संबंध और पर्वतीय अभिसरण का वैश्विक केंद्र
पामीर पर्वतों को दुनिया का "पर्वतीय चौराहा" कहा जाता है, क्योंकि यह वह क्षेत्र है जहाँ से एशिया की कई प्रमुख पर्वतमालाएँ — जैसे हिंदू कुश, तियान शान, कालाकुनलुन, सुलेमान और हिमालय — मिलती हैं। यह पर्वतीय अभिसरण ताजिकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और चीन की सीमाओं पर फैला हुआ है और लगभग 1,00,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है। इस क्षेत्र की ऊँचाइयाँ इतनी अधिक हैं कि यहाँ 1,530 से भी अधिक हिमनद फैले हुए हैं, जिनका कुल क्षेत्रफल 2,361.4 वर्ग किलोमीटर से अधिक है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि विश्व के आठ सबसे लंबे (>50 किमी) हिमनदों में से छह यहीं स्थित हैं — विशेषकर काराकोरम क्षेत्र में। यह क्षेत्र वैज्ञानिकों के लिए जलवायु अध्ययन, ग्लेशियर विज्ञान (Glaciology) और पर्वतीय पारिस्थितिकी के अध्ययन का जीवंत प्रयोगशाला बन चुका है। पामीर और काराकोरम का सीधा संबंध इनकी भूगोलिक स्थिति से जुड़ा है, जिससे यह क्षेत्र एशिया के जलवायु इंजन की तरह कार्य करता है। भारत के मानसून, उत्तर भारत की नदियाँ और यहाँ तक कि जौनपुर की ज़मीन में नमी का बड़ा हिस्सा इसी पर्वतीय संरचना से आता है। इन पर्वतों के बिना हमारी खेती, हमारी नदियाँ और यहाँ तक कि हमारे मौसम की नियमितता की कल्पना अधूरी है। इस प्रकार, पामीर और काराकोरम न केवल भौगोलिक, बल्कि हमारे अस्तित्व के लिए आधारस्तंभ हैं।
संदर्भ-
जौनपुर में बदलती मिठास: चॉकलेट कैसे बनती है, जानिए पूरी प्रक्रिया
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
20-07-2025 09:30 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, मिठास की बात हो और चॉकलेट का ज़िक्र न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? गोमती नदी के किनारे बसी हमारी यह ऐतिहासिक नगरी जहाँ एक ओर इमली, आम और गन्ने की मिठास के लिए जानी जाती है, वहीं अब नई पीढ़ी के दिलों में चॉकलेट ने भी अपनी खास जगह बना ली है। बच्चों की जेब में टॉफी की जगह अब मिनी चॉकलेट्स हैं, और त्योहारों में परंपरागत मिठाइयों के साथ चॉकलेट गिफ्ट पैक्स भी शामिल हो गए हैं। स्कूलों, शादी-ब्याह या बाजार की चहल-पहल — हर मौके पर चॉकलेट ने हमारी ज़िंदगी में मिठास और आधुनिकता का नया स्वाद घोल दिया है।
पहले वीडियो में हम चॉकलेट बनने की प्रक्रिया को देखेंगे।
चलिए जानते हैं कि चॉकलेट कैसे बनाई जाती है-
1. कोको की खेती (Cacao Cultivation)
चॉकलेट की शुरुआत थियोब्रोमा कोको (Theobroma Cacao) नामक पेड़ की खेती से होती है, जो उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगता है। इसके फलों को कोको पॉड्स (Cacao Pods) कहते हैं, जिनमें 30–50 तक बीज (Beans) होते हैं।
2. कटाई और बीज निकालना (Harvesting & Bean Extraction)
कोको पॉड्स को हाथ से तोड़ा जाता है ताकि पेड़ को नुकसान न पहुंचे। फिर पॉड्स को खोलकर बीज और सफेद गूदा (Pulp) निकाला जाता है।
3. किण्वन (Fermentation)
बीजों को लकड़ी के बक्सों में रखा जाता है और ऊपर केले के पत्ते ढके जाते हैं। इस प्रक्रिया में 5–8 दिन लगते हैं। यह स्वाद बढ़ाने और हानिकारक सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने का कार्य करता है।
4. धूप में सुखाना (Drying)
फर्मेंटेशन के बाद बीजों में उच्च नमी होती है, जिसे हटाना ज़रूरी होता है। इन्हें धूप में सुखाया जाता है और नियमित रूप से पलटा जाता है। फिर इन्हें बोरे (Hessian Sacks) में भरकर एक्सपोर्ट के लिए तैयार किया जाता है।
5. भूनना (Roasting)
फैक्ट्री में सबसे पहले बीजों को साफ कर भुना जाता है। इससे न केवल स्वाद गहराता है बल्कि बैक्टीरिया (Bacteria) भी नष्ट होते हैं।
6. विनोइंग (Winnowing)
भुने हुए बीजों की बाहरी परत (Shell) को हटाया जाता है, जिससे सिर्फ कोको निब्स (Cocoa Nibs) बचते हैं। यह प्रक्रिया विनोइंग मशीन (Winnowing Machine) द्वारा की जाती है।
7. ग्राइंडिंग (Grinding into Chocolate Liquor)
निब्स को मेलांजर ग्राइंडर (Melangeur Grinder) में पीसकर कोको पेस्ट या लिकर (Chocolate Liquor) बनाया जाता है, जिसमें कोको सॉलिड्स (Cocoa Solids) और कोको बटर (Cocoa Butter) होते हैं। इसमें शक्कर (Sugar), दूध पाउडर (Milk Powder) और वनीला (Vanilla) जैसे स्वाद मिलाए जाते हैं।
8. टेम्परिंग (Tempering)
चॉकलेट को सही तापमान पर गर्म व ठंडा करके टेम्पर किया जाता है। यह प्रक्रिया क्रिस्टल संरचना (Crystal Structure) को स्थिर बनाती है, जिससे चॉकलेट चमकदार (Glossy), कड़क (Firm) और "स्नैप" वाली बनती है।
9. मोल्डिंग और पैकेजिंग (Molding & Packaging)
टेम्पर्ड चॉकलेट को मोल्ड्स (Molds) में डाला जाता है, बुलबुले (Air Bubbles) हटाने के लिए हिलाया जाता है, फिर ठोस होने के बाद इसे फॉयल या पेपर (Foil or Paper) में पैक किया जाता है।
नीचे दिए गए लिंक के ज़रिए हम देखेंगे कि चॉकलेट कैसे बनाई जाती है और इसे घर पर कैसे बनाया जा सकता है।
संदर्भ-
हस्तशिल्प की ज़मीन, जौनपुर की पहचान: मशीनों के युग में एक जीवंत विरासत
घर- आन्तरिक साज सज्जा, कुर्सियाँ तथा दरियाँ
Homes-Interiors/Chairs/Carpets
19-07-2025 09:30 AM
Jaunpur District-Hindi

जब आप जौनपुर की पुरानी गलियों से गुज़रते हैं, तो हर मोड़ पर कोई न कोई कला आपकी नज़रें खींच लेती है। कभी किसी लकड़ी के दरवाज़े की बारीक नक्काशी, तो कभी मिट्टी से बने दीयों की सादगी—यह सब उस विरासत की निशानियाँ हैं जिसे यहाँ के कारीगर पीढ़ी दर पीढ़ी जीते आए हैं। जौनपुर में हस्तशिल्प केवल एक पेशा नहीं, बल्कि जीवन की एक शैली है—जिसमें भावनाएँ, परंपरा, धैर्य और रचनात्मकता एक साथ सांस लेते हैं। यहाँ के शिल्पकार अपने हाथों से जो कुछ भी गढ़ते हैं, उसमें सिर्फ आकार नहीं, बल्कि आत्मा भी गढ़ी जाती है। मशीनें तेज़ी से सामान बना सकती हैं, पर वे उस प्रेम, उस धड़कन को नहीं रच सकतीं जो एक कारीगर अपने हर काम में पिरोता है। जौनपुर के हर मोहल्ले में आज भी कोई न कोई कारीगर बैठा है, जो लकड़ी, कपड़े, धातु या मिट्टी को संवारते हुए अपने पूर्वजों की कला को आगे बढ़ा रहा है। यह नगर भले ही तकनीक की दुनिया में धीमे कदमों से आगे बढ़ रहा हो, लेकिन इसकी आत्मा अब भी हस्तशिल्प की धीमी, गहरी रचनात्मक लय में ही धड़कती है। और जब दुनिया मशीनों के आगे झुकती जा रही है, तब जौनपुर के यह कारीगर हमें याद दिलाते हैं कि सच्ची सुंदरता उसी चीज़ में है, जिसमें इंसान का दिल, मेहनत और संवेदनाएँ बसी हों—और यही भारतीय हस्तशिल्प की असली पहचान है।
इस लेख में हम यह जानेंगे कि भारतीय हस्तशिल्प, विशेषकर जौनपुर जैसे शहरों में, केवल पारंपरिक कला नहीं बल्कि संस्कृति, भावना और रोज़गार का ज़रिया भी है—जो आज भी मशीनों की तेज़ रफ्तार दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। हम यह भी देखेंगे कि कैसे एकरूप मशीनों के दौर में कारीगर अपने हाथों की मेहनत और दिल की गहराई से बनी रचनाओं में आत्मा भर देते हैं। साथ ही, हम उन चुनौतियों की भी चर्चा करेंगे जो इस विरासत को धीरे-धीरे संकट में डाल रही हैं—जैसे युवाओं की घटती रुचि और बाज़ार की अस्थिरता। लेख के अंत में हम यह भी जानेंगे कि डिजिटल तकनीक, सरकारी प्रयास और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार किस तरह इस कला को फिर से उड़ान देने में सहायक बन रहे हैं।

भारतीय हस्तशिल्प की आत्मा: कला, संस्कृति और भावना का संगम
भारतीय हस्तशिल्प केवल एक वस्तु निर्माण प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह सदियों से चली आ रही एक जीवंत सांस्कृतिक परंपरा है। यह कला हमारे कारीगरों के दिल, मन और आत्मा से उत्पन्न होती है, जहाँ हर रेखा, हर बुनावट और हर रंग में जीवन की एक कहानी समाई होती है। जौनपुर जैसे ऐतिहासिक शहरों में यह परंपरा आज भी जीवित है, जहाँ घरों के आँगन में बुज़ुर्गों की निगरानी में युवा कारीगर अपना हुनर सीखते हैं। यह केवल हाथ की कला नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही विरासत का विस्तार है। एक काष्ठ शिल्पी जब लकड़ी को आकार देता है या कोई बुनकर धागों में चित्र उकेरता है, तो वह केवल वस्तु नहीं बनाता, वह अपने अनुभवों, आस्थाओं और सामाजिक परिवेश को उसमें गूंथ देता है। मशीनें इन भावनाओं को कभी नहीं पकड़ सकतीं। हस्तशिल्प में भावनाएँ होती हैं, कहानियाँ होती हैं, जो उसे विशिष्ट बनाती हैं। यह कला आत्मा का स्पर्श है, न कि केवल कौशल का प्रदर्शन। जौनपुर की ज़मीन इस सांस्कृतिक सौंदर्य की साक्षी रही है, जहाँ कारीगरों की उँगलियाँ धड़कती परंपरा को जीवित रखती हैं। यह न केवल आजीविका का स्रोत है, बल्कि आत्मसम्मान और सामाजिक पहचान का भी माध्यम है। जब तक यह भावना जीवित है, तब तक हस्तशिल्प एक अमर परंपरा बना रहेगा।

मशीन युग में हस्तशिल्प की मौलिकता बनाम मशीनी एकरूपता
मशीनें तेज़ होती हैं, समानता बनाए रखती हैं, और कम समय में अधिक उत्पादन देती हैं। लेकिन उनकी इस सुविधा के पीछे वो आत्मा नहीं होती जो किसी हस्तनिर्मित वस्तु में होती है। जौनपुर जैसे शहरों के कारीगर जब किसी लकड़ी पर नक्काशी करते हैं या धातु को गढ़ते हैं, तो उसमें एक अनोखी मौलिकता होती है। हर रचना अलग, हर डिज़ाइन नया होता है। इसके विपरीत मशीनें केवल एक डिज़ाइन की प्रतिलिपि बनाती हैं, जिनमें भावना या रचनात्मकता नहीं होती। हाथ से बनी वस्तुएं हर बार एक नई कहानी कहती हैं, जबकि मशीनी उत्पाद एक जैसे और भावनाहीन लगते हैं। हस्तशिल्प कारीगर की सोच, उसकी संस्कृति और उसकी आत्मा का प्रतिबिंब होता है। इन कलाओं में प्रयुक्त रंग, रूप और सामग्री उस क्षेत्र की पहचान बनती है। जौनपुर के हस्तशिल्प में स्थानीय जीवन, त्योहार, लोककथाएँ और मौसम तक की झलक मिलती है। यही विविधता उसे विशेष बनाती है। जब हम मशीनी उत्पादों की तुलना हस्तशिल्प से करते हैं, तो हमें यह समझना होगा कि हम केवल वस्तु नहीं, उस भावना की भी तुलना कर रहे हैं जो कारीगर उसमें उकेरता है। यह भावना ही हस्तशिल्प की सबसे बड़ी शक्ति है।

डिजिटल युग में हस्तशिल्प का पुनरुत्थान: ई-कॉमर्स और नवाचार
ई-कॉमर्स और डिजिटल तकनीकों ने हस्तशिल्प क्षेत्र के लिए एक नई सुबह की शुरुआत की है। अब जौनपुर के किसी गाँव का कारीगर भी अपने उत्पाद को दिल्ली, मुंबई या विदेशों तक पहुँचा सकता है।अमेज़न कारीगर (Amazon Karigar), फ्लिपकार्ट समर्थ (Flipkart Samarth) जैसे प्लेटफॉर्म अब भारतीय हस्तशिल्पियों को ग्लोबल मार्केट में स्थान दे रहे हैं। इससे न केवल बिक्री बढ़ी है, बल्कि कलाकारों को अपनी कला का मूल्य भी मिलने लगा है। सोशल मीडिया जैसे इंस्टाग्राम और फेसबुक भी एक प्रकार का वर्चुअल शोरूम बन चुके हैं। अब कारीगर अपने उत्पादों की प्रस्तुति, कहानी और तकनीक को सीधे ग्राहकों तक पहुँचा सकते हैं। डिज़ाइन के क्षेत्र में भी नए प्रयोग हो रहे हैं—जैसे पारंपरिक डिज़ाइनों को आधुनिक जरूरतों के अनुरूप ढालना। उदाहरणस्वरूप, जौनपुर की लकड़ी नक्काशी से बने मोबाइल स्टैंड या लैपटॉप टेबल जैसे उत्पाद आज के उपभोक्ताओं को आकर्षित कर रहे हैं। यह नवाचार पारंपरिकता को जीवित रखते हुए उपयोगिता बढ़ाता है। डिजिटल कौशल, जो पहले सीमित था, अब प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से कारीगरों तक पहुँच रहा है। इन सबके बावजूद, पूर्ण सफलता तभी संभव है जब डिजिटल पहुँच ग्रामीण क्षेत्रों में भी समान रूप से सुनिश्चित की जाए।

सरकारी योजनाएँ और संस्थागत समर्थन: हस्तशिल्प को संबल देने की पहलें
हस्तशिल्प उद्योग की रक्षा और उन्नयन के लिए सरकार ने अनेक योजनाएँ आरंभ की हैं, जिनका लाभ जौनपुर जैसे जिलों तक पहुँचाना अत्यंत आवश्यक है। 'दस्तकार सशक्तिकरण योजना' कारीगरों को तकनीकी सहायता, डिज़ाइन प्रशिक्षण और बाज़ार से जोड़ने में मदद करती है। 'अम्बेडकर हस्तशिल्प विकास योजना' विशेष रूप से वंचित समुदायों के कारीगरों के लिए शुरू की गई है, जिससे वे आर्थिक रूप से सशक्त बन सकें। 'मेगा क्लस्टर योजना' में कारीगरों के लिए साझा कार्यस्थल, सामग्री बैंक और विपणन सहायता प्रदान की जाती है। 'विपणन सहायता योजना' के तहत शिल्पकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मेलों में भाग लेने का अवसर मिलता है। जौनपुर जैसे क्षेत्रों में यदि स्थानीय प्रशासन इन योजनाओं को गंभीरता से लागू करे, तो यहाँ की कारीगरी एक बार फिर देशभर में चमक सकती है। GI टैग जैसी पहलें भी क्षेत्रीय शिल्प को कानूनी और ब्रांडिंग समर्थन देती हैं। साथ ही, शिल्प मेले, प्रदर्शनी, और वर्कशॉप्स के माध्यम से कारीगरों को मंच देने की आवश्यकता है। इन नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने से हस्तशिल्प का भविष्य सुरक्षित किया जा सकता है।
भारत का हस्तशिल्प उद्योग: आर्थिक योगदान और निर्यात क्षमता
भारतीय हस्तशिल्प उद्योग, कृषि के बाद सबसे बड़ा रोज़गार सृजनकर्ता है। यह क्षेत्र केवल कला और संस्कृति का ही नहीं, बल्कि आर्थिक प्रगति का भी आधार बन चुका है। लगभग 68.86 लाख शिल्पकार देशभर में कार्यरत हैं, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएँ, ग्रामीण परिवार और वंचित वर्ग शामिल हैं। इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन के अनुसार, इस क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर लगभग 20% है, जो किसी भी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए प्रेरणादायक आंकड़ा है। हस्तशिल्प उत्पादों का निर्यात भी लगातार बढ़ रहा है—जैसे कि कढ़ाईयुक्त वस्त्र, जूट उत्पाद, लकड़ी की कलाकृतियाँ, और टेराकोटा मूर्तियाँ। जौनपुर जैसे क्षेत्रों से भी अब छोटे कारीगर अपने उत्पाद ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स और सरकारी मेलों के ज़रिए निर्यात कर पा रहे हैं। वैश्विक रिपोर्ट्स के अनुसार, 2026 तक वैश्विक हस्तशिल्प बाज़ार 1,204.7 बिलियन डॉलर तक पहुँचने की संभावना रखता है। यदि भारत इस बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहता है, तो इसे अपने कारीगरों में निवेश करना होगा। स्थानीय से वैश्विक स्तर पर पहुँच बनाना अब असंभव नहीं, बल्कि एक सुनियोजित रणनीति की माँग है।
संदर्भ-
जौनपुर से दक्कन तक: शिराज-ए-हिंद की मस्जिदों में गूंजती स्थापत्य कला
मघ्यकाल के पहले : 1000 ईस्वी से 1450 ईस्वी तक
Early Medieval:1000 CE to 1450 CE
18-07-2025 09:35 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, क्या कभी आपने अपनी अटाला मस्जिद की ऊँची मेहराबों या लाल दरवाज़ा मस्जिद की सादगी में वह गूंज महसूस की है, जो दिल्ली की कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद या हैदराबाद के चारमीनार में भी सुनाई देती है? ये सिर्फ इमारतें नहीं हैं – ये हमारे पुरखों की सोच, कारीगरी और सांस्कृतिक संवाद की जीवित मिसालें हैं। जब आप जौनपुर की जामा मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं, तो वो आपको सिर्फ अतीत में नहीं ले जाती, बल्कि एक ऐसे समय में पहुंचाती हैं जब भारत में स्थापत्य केवल धार्मिक या राजनीतिक प्रदर्शन का साधन नहीं, बल्कि विविध संस्कृतियों के मिलन का माध्यम था। शर्की राजाओं ने जौनपुर को केवल मस्जिदों का शहर नहीं, बल्कि एक ऐसी सांस्कृतिक प्रयोगशाला बना दिया था, जहाँ इस्लामी स्थापत्य और भारतीय शिल्पकला का अद्भुत संगम हुआ। ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली सल्तनत ने उत्तर भारत में और दक्कन सल्तनतों ने दक्षिण में अपनी-अपनी कला शैलियों को क्षेत्रीय प्रभावों के साथ पिरोया। इन तीनों सल्तनतों की स्थापत्य यात्रा, भले ही भौगोलिक दृष्टि से अलग रही हो, पर उनके पत्थरों में एक जैसी भाषा है — सौंदर्य, शक्ति और संवाद की। आज जब हम अटाला मस्जिद की दीवारों को छूते हैं या लाल दरवाज़ा मस्जिद के आंगन में खड़े होते हैं, तो वह हमें दिल्ली के पुराने कुतुब परिसर की ओर ले जाते हैं या बीजापुर के गोल गुंबज की गूंज याद दिलाते हैं। आइए, इस लेख में हम मिलकर इस स्थापत्य यात्रा को समझें — जौनपुर से दिल्ली और फिर दक्कन तक — और जानें कि कैसे इन सल्तनतों की मस्जिदें, मकबरे और महल, केवल इतिहास नहीं बल्कि हमारी साझा पहचान के पत्थर हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले शर्की शासकों के अधीन जौनपुर की मस्जिदों और स्थापत्य विशेषताओं की चर्चा करेंगे। फिर, दिल्ली सल्तनत की वास्तुकला शैली और प्रमुख स्मारकों की गहराई से समझ बनाएंगे। तीसरे उपविषय में दक्कन सल्तनत के स्थापत्य का जिक्र होगा जो दक्षिण भारत में इस्लामी और स्थानीय शैली के अद्भुत समन्वय को दर्शाता है। चौथा भाग तीनों सल्तनतों की स्थापत्य समानताओं और अंतर के विश्लेषण पर केंद्रित होगा। अंत में हम यह देखेंगे कि ये स्थापत्य किस प्रकार हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बने हुए हैं और उन्हें संरक्षित रखने की आवश्यकता क्यों है।

शर्की वंश और जौनपुर का स्थापत्य गौरव
जौनपुरवासियों, जब हम अपने शहर की प्राचीन मस्जिदों की ओर नज़र उठाते हैं, तो हमें सिर्फ पत्थर की दीवारें नहीं, बल्कि शर्की वंश की सांस्कृतिक दूरदृष्टि और स्थापत्य गहराई की झलक मिलती है। 1394 से 1479 तक शासक रहे शर्की राजाओं ने जौनपुर को ‘शिराज-ए-हिंद’ बना दिया — एक ऐसा नगर जो धर्म, शिक्षा और वास्तुकला का संगम बन गया। अटाला मस्जिद, लाल दरवाजा मस्जिद और जामा मस्जिद जैसे स्मारक केवल धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि स्थापत्य प्रयोगशाला थे। अटाला मस्जिद का डिज़ाइन एक पूर्ववर्ती हिंदू मंदिर पर आधारित था, जिसमें विशाल मेहराब, सादा अग्रभाग, और गुंबद का अभाव – ये सभी उसे विशिष्ट बनाते हैं। लाल दरवाजा मस्जिद, जिसे रानी बीबी राजी ने बनवाया, महिलाओं के लिए एक मदरसा और प्रार्थना स्थल के रूप में कल्पित किया गया – यह मध्यकालीन भारत में स्त्री-सशक्तिकरण की एक मिसाल है। शर्की शैली की खासियत इसकी मजबूत दीवारें, ऊँचे प्लिंथ, सीमित शिल्प सज्जा और धर्मनिष्ठ उद्देश्य थे।
इसके अलावा, इन मस्जिदों में प्रयुक्त स्थानीय निर्माण सामग्री और शिल्प कौशल ने जौनपुर की वास्तुकला को एक विशिष्ट स्थान दिलाया। शर्की शासकों ने धार्मिक, शैक्षणिक और नागरिक भवनों के निर्माण में गहरी रुचि दिखाई, जिससे यह शहर कला और विद्या का केंद्र बन गया। मस्जिदों के आंतरिक गलियारे, स्तंभों की व्यवस्था और द्वारों की ऊँचाई आज भी मध्यकालीन स्थापत्य सोच का अध्ययन करने वालों को आकर्षित करती है। अटाला मस्जिद के कोनों की कारीगरी और लाल दरवाजा मस्जिद की शांतिपूर्ण योजना इस बात का प्रमाण हैं कि शर्की राजाओं ने केवल धर्म नहीं, बल्कि सुंदरता को भी महत्व दिया।

दिल्ली सल्तनत की वास्तुकला: सत्ता और सूफी संस्कृति का संगम
दिल्ली सल्तनत की स्थापत्य कला सिर्फ शासकीय गौरव का प्रतीक नहीं, बल्कि धार्मिक चेतना और सांस्कृतिक नवाचार का भी सजीव उदाहरण है। 1206 से 1526 तक फैले इस शासनकाल में ममलुक, खिलजी, तुगलक, सैयद और लोदी वंशों ने स्थापत्य के ज़रिए सत्ता को आकार दिया। कुतुब मीनार, अढ़ाई दिन का झोंपड़ा, अलाई दरवाजा, मोठ की मस्जिद, और हौज खास कॉम्प्लेक्स जैसे स्मारकों में एक ओर राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन होता है, तो दूसरी ओर इनकी दीवारों में सूफी संतों की आध्यात्मिक ऊर्जा भी महसूस होती है। लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर का विरोधाभासी उपयोग, जटिल मेहराब, विशाल गुम्बद और कुरानिक शिलालेख इस शैली की विशेष पहचान हैं। निजामुद्दीन दरगाह जैसे सूफी स्थलों ने इस स्थापत्य को मानवीयता और आध्यात्मिकता का स्पर्श दिया। दिलचस्प बात यह है कि इन स्मारकों में कई डिज़ाइन ऐसे हैं जो जौनपुर की मस्जिदों से मेल खाते हैं — जैसे कि मेहराबों की गहराई और शिलालेखों की पंक्तियाँ। दिल्ली सल्तनत ने इस्लामी शैली को भारतीय शिल्प कौशल के साथ जोड़कर एक ऐसी वास्तुशैली प्रस्तुत की जो शक्ति, भक्ति और संस्कृति तीनों को साथ लेकर चलती थी।
दिल्ली सल्तनत की स्थापत्य योजनाएँ अक्सर रणनीतिक दृष्टिकोण से बनती थीं – मस्जिदें केवल इबादतगाह नहीं थीं, बल्कि सत्ता के प्रभाव का स्थापत्य विस्तार भी थीं। उदाहरण के लिए, कुतुब मीनार परिसर में शिलालेखों और आक्रामक स्थापत्य भाषा से सत्ताधारी शक्ति का प्रदर्शन किया गया है। लोदी गार्डन की कब्रों में, एक तरफ इस्लामी भावनाओं की झलक है तो दूसरी ओर भारतीय बागवानी परंपरा का समावेश है। यही मिश्रण इसे स्थापत्य संवाद का एक उत्कृष्ट उदाहरण बनाता है। दिल्ली में निर्मित स्मारक, शासन और धर्म दोनों की संयुक्त आवश्यकता और प्रेरणा से बने, जो आज भी हमें उस समय की राजनीति और आध्यात्मिकता के संबंधों को समझने में सहायता करते हैं।

दक्कन सल्तनत: इस्लामी और द्रविड़ीय शैलियों का अद्भुत संगम
जब हम भारत के दक्षिणी भाग की स्थापत्य विरासत पर नज़र डालते हैं, तो दक्कन सल्तनत की अनदेखी नहीं की जा सकती। बीजापुर, बीदर, गुलबर्गा और गोलकोंडा जैसे शहरों में फैली इन सल्तनतों ने 14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच एक ऐसी शैली विकसित की जो इस्लामी वास्तुकला को द्रविड़, तेलुगु और कन्नड़ शिल्प-परंपराओं से जोड़ती है। गोल गुंबज, जिसकी गूंज चार बार लौटती है, केवल स्थापत्य ही नहीं, ध्वनिक इंजीनियरिंग का चमत्कार भी है। बीदर का मदरसा महमूद गवाँ, जो इस्लामी शिक्षा का गढ़ रहा, फारसी टाइलवर्क और दक्षिण भारतीय चूना पत्थर की अनूठी संगति प्रस्तुत करता है। गुलबर्गा की जामी मस्जिद बिना स्तंभों के विशाल हॉल के लिए प्रसिद्ध है, जो किसी भी उत्तर भारतीय मस्जिद से वास्तुशास्त्र में भिन्न होते हुए भी उसी धार्मिक भक्ति की भावना को अभिव्यक्त करती है। दक्कन की स्थापत्य शैली में हमें जल-प्रणालियाँ, गुप्त मार्ग, और रक्षात्मक दीवारें देखने को मिलती हैं — यह शैली अधिक युद्ध-सामर्थ्य और सजावटी तालमेल का प्रतीक बन गई। जौनपुर और दक्कन की वास्तुशैली में भले ही क्षेत्रीय अंतर हों, लेकिन दोनों में स्थानीय और इस्लामी शैलियों के अनूठे संगम की भावना समान है।
दक्कन की स्थापत्य विशेषता उसकी बहुस्तरीय परंपरा में छिपी है – यहां तुर्की, फारसी और अरब प्रभाव, द्रविड़ एवं तेलुगु निर्माण प्रणाली के साथ मिलकर एक नया सौंदर्यशास्त्र रचते हैं। मकबरों की छतों पर उकेरे गए पुष्पाकार चित्रण, प्रवेशद्वारों पर जटिल शिल्प, और आंतरिक भागों में की गई रंगीन टाइलिंग, इसकी पहचान हैं। चारमीनार जैसे प्रतीकात्मक स्मारक, धार्मिक स्थलों और बाज़ारों को जोड़ने वाले केंद्रीय वास्तु अवयव रहे हैं। दक्कन की स्थापत्य विरासत, उसकी राजनीतिक आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक लचीलापन दोनों का प्रतीक है – और यही तत्व उसे जौनपुर व दिल्ली से अलग बनाते हुए भी जोड़ता है।

तीनों सल्तनतों की स्थापत्य शैलियों में समानताएँ और भिन्नताएँ
जौनपुर, दिल्ली और दक्कन — ये तीनों सल्तनतें यद्यपि भौगोलिक रूप से अलग थीं, परन्तु उनके स्थापत्य विचार कहीं न कहीं एक साझा सांस्कृतिक संवाद का हिस्सा रहे। तीनों में मस्जिदों, मदरसों, मकबरों और किलों का निर्माण सत्ता, भक्ति और शिक्षा के केंद्र के रूप में किया गया। इन सभी शैलियों में मेहराब, शिलालेख, ऊँचे प्लिंथ और धार्मिक उद्देश्यों के अनुरूप स्थानिक विभाजन मिलते हैं। जौनपुर की मस्जिदें बिना गुम्बदों के होते हुए भी गहराई और गूंज का प्रभाव पैदा करती हैं, वहीं दिल्ली की मस्जिदें भव्य गुम्बदों और पत्थरों की जटिलता से सज्जित हैं। दक्कन की स्थापत्य शैली इन दोनों से अधिक प्रयोगशील और सजावटी है, जिसमें ध्वनि, जल, और प्रकाश तक के पहलुओं को गहराई से सोचा गया है। तीनों में समान तत्वों का पुनः प्रयोग इस बात का प्रमाण है कि स्थापत्य केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि विचारों का आदान-प्रदान भी होता है। जौनपुर के लिए यह गर्व का विषय है कि उसकी स्थापत्य शैली ने न केवल दिल्ली और दक्कन के साथ संवाद किया, बल्कि उसमें अपनी विशिष्ट पहचान भी बनाए रखी — एक ऐसी पहचान, जो आज भी उसकी मस्जिदों की दीवारों में गूंजती है।
तीनों स्थापत्य परंपराओं ने अपने-अपने युग की सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक जरूरतों को वास्तुकला के ज़रिए व्यक्त किया। चाहे वह शर्की मस्जिदों की सादगी हो, दिल्ली की मस्जिदों का शाही आभामंडल, या दक्कन की रचनात्मक प्रयोगशीलता – सभी ने अपने समाजों की विविधता को दर्शाया। इन तीनों सल्तनतों की तुलना हमें यह सिखाती है कि वास्तुकला केवल ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि विचार, आदान-प्रदान और समरसता का माध्यम है। यही कारण है कि जौनपुर जैसे नगर, जो कभी सीमित भूगोल में बसे थे, आज स्थापत्य संवाद के वैश्विक मानचित्र पर अमिट स्थान रखते हैं।
संदर्भ-
संस्कृति 2046
प्रकृति 774