लखनऊ - नवाबों का शहर












भारत में कपास: कृषि, रोजगार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका
पेड़, झाड़ियाँ, बेल व लतायें
Trees, Shrubs, Creepers
13-06-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती होती है। इन्हीं में से एक है कपास, जो न केवल एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है, बल्कि इससे जुड़ी उद्योग श्रृंखला भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था, रोजगार और वस्त्र उद्योग की रीढ़ भी मानी जाती है। कपास का उपयोग कपड़ा निर्माण के लिए प्रमुख रूप से किया जाता है, और इससे जुड़े सभी क्षेत्र – जैसे कि खेती, प्रसंस्करण, बुनाई, रंगाई और निर्यात – करोड़ों लोगों की आजीविका का साधन बनते हैं। भारत विश्व में कपास उत्पादन, खपत और निर्यात – तीनों में अग्रणी है। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भारत में कपास की खेती का क्या महत्व है। हम जानेंगे कि कपास की कौन-कौन सी किस्में और प्रकार भारत में प्रचलित हैं, और उनकी विशेषताएँ क्या हैं। इसके साथ ही, यह भी देखेंगे कि कपास का क्षेत्र किस प्रकार बड़े पैमाने पर रोजगार उत्पन्न करता है और कितने स्तरों पर लोग इससे जुड़े हैं। इसके बाद, हम उत्तर प्रदेश में कपास की खेती की वर्तमान स्थिति और भविष्य की संभावनाओं पर ध्यान देंगे। साथ ही, कपास उत्पादन से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ जैसे—कीट प्रकोप, जलवायु परिवर्तन, और बढ़ती लागत—भी चर्चा में शामिल होंगी। अंत में, हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि सरकार किस प्रकार की योजनाएँ और प्रयास कर रही है।
भारत में कपास की खेती का महत्व
भारत में कपास एक प्रमुख नकदी फसल है, जो न केवल वस्त्र उद्योग की रीढ़ है, बल्कि देश की कृषि अर्थव्यवस्था में भी इसकी गहरी भागीदारी है। कपास की खेती का ऐतिहासिक महत्व भी है, और यह सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आज तक भारतीय कृषि संस्कृति का हिस्सा रही है। यह फसल देश के लाखों किसानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आजीविका प्रदान करती है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां सिंचाई की सुविधा सीमित होती है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ-साथ घरेलू और निर्यात बाजार में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है।

भारत में उगाई जाने वाली कपास की किस्में
भारत में कपास की चार प्रमुख प्रजातियाँ उगाई जाती हैं: गॉसिपियम हिर्सूटम (G. hirsutum), गॉसिपियम बारबाडेंस (G. barbadense), गॉसिपियम अर्बोरियम (G. arboreum), और गॉसिपियम हर्बेसियम (G. herbaceum)। इनमें से G. hirsutum को अपलैंड या अमेरिकन कॉटन कहा जाता है और यह सबसे अधिक उत्पादित किस्म है जो वैश्विक उत्पादन का लगभग 90% हिस्सा देती है। भारत उन गिने-चुने देशों में है जहां इन सभी किस्मों की व्यावसायिक खेती की जाती है। इन किस्मों की खेती देश की विभिन्न जलवायु परिस्थितियों के अनुसार की जाती है, जो इसे एक कृषि विविधता का अनूठा उदाहरण बनाता है।
भारत में कपास को फाइबर की लंबाई और गुणवत्ता के आधार पर तीन प्रमुख वर्गों में बांटा गया है - लॉन्ग स्टेपल, मीडियम स्टेपल और शॉर्ट स्टेपल। लॉन्ग स्टेपल कॉटन की लंबाई 24-27 मिमी तक होती है और इससे उच्च गुणवत्ता के वस्त्र बनते हैं, जो निर्यात के लिए आदर्श होते हैं। मीडियम स्टेपल कॉटन की लंबाई 20-24 मिमी होती है और यह भारतीय बाजार में सर्वाधिक प्रयोग होता है क्योंकि यह संतुलित गुणवत्ता और कीमत प्रदान करता है। शॉर्ट स्टेपल कॉटन की लंबाई 20 मिमी से कम होती है और इसका उपयोग निम्न गुणवत्ता के उत्पादों के लिए किया जाता है। यह वर्गीकरण भारतीय वस्त्र उद्योग की बहुपरतीय आवश्यकता को पूरा करता है।

कपास से मिलने वाला रोजगार
भारत में कपास उद्योग लगभग 6 मिलियन किसानों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार देता है और 40-50 मिलियन लोग इसके प्रसंस्करण, विपणन और व्यापार में संलग्न हैं। यह फसल ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से महिलाओं और भूमिहीन मजदूरों को आजीविका का साधन प्रदान करती है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे राज्यों में कपास उद्योग ने ग्रामीण श्रमिकों के लिए बड़ी संख्या में रोज़गार के अवसर पैदा किए हैं। कपास से जुड़े कार्य जैसे जिनिंग, स्पिनिंग, बुनाई और वस्त्र निर्माण से लेकर परिवहन और निर्यात तक लाखों परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार आता है।

कपास उत्पादन में आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ
भारत में कपास उत्पादन के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ हैं जैसे – जलवायु परिवर्तन, कीट प्रकोप (विशेषकर सफेद मक्खी), उच्च रासायनिक उपयोग और पारंपरिक खेती की पद्धतियाँ। किसानों को अक्सर कम उपज, अधिक लागत और विपणन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। साथ ही, गुणवत्ता युक्त बीजों की अनुपलब्धता और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में पारदर्शिता की कमी भी एक बड़ी समस्या है। इन समस्याओं का समाधान किये बिना कपास की उत्पादकता और किसानों की आय में सुधार नहीं किया जा सकता।
सरकार द्वारा की जा रही पहलें और योजनाएँ
सरकार ने कपास उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए टेक्नोलॉजी मिशन ऑन कॉटन (TMC), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM) जैसी योजनाएँ शुरू की हैं। इन योजनाओं के माध्यम से उन्नत बीज, सिंचाई तकनीक, जैविक कीटनाशकों का उपयोग, और किसानों को प्रशिक्षण दिया जाता है। साथ ही, क्षेत्रीय स्तर पर कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से तकनीकी सलाह और फसल निगरानी की व्यवस्था की गई है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर किसानों को जागरूक बनाने और उन्हें आधुनिक कृषि तकनीकों से जोड़ने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं।
हर बच्चे के लिए सुरक्षित और शिक्षित बचपन
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
Concept II - Identity of Citizen
12-06-2025 09:11 AM
Lucknow-Hindi

बाल श्रम एक वैश्विक समस्या है, जो आज भी करोड़ों बच्चों के बचपन, शिक्षा और भविष्य को अंधकार में धकेल रही है। विश्व भर में ऐसे असंख्य बच्चे हैं जिन्हें खेलने-कूदने और पढ़ाई करने की उम्र में मजबूरन मजदूरी करनी पड़ती है। इसी गंभीर स्थिति की ओर समाज और सरकारों का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 12 जून को "बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस" मनाया जाता है। यह दिन न केवल बाल श्रम के खतरों और इसके प्रभावों के प्रति जागरूकता फैलाने का माध्यम है, बल्कि यह वैश्विक समुदाय को यह संकल्प दिलाता है कि हर बच्चे को शिक्षा, सुरक्षा और सम्मानपूर्ण जीवन का अधिकार मिलना चाहिए। इस लेख में हम जानेंगे कि बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस क्या होता है और इसे क्यों मनाया जाता है। हम समझेंगे कि इसका इतिहास क्या है और यह कैसे विकसित हुआ है। हम बाल श्रम के विभिन्न प्रकारों के बारे में पढ़ेंगे और जानेंगे कि बच्चे बाल श्रम में क्यों फँसते हैं, इसके पीछे कौन-कौन से सामाजिक और आर्थिक कारण होते हैं। अंत में, हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रम के खिलाफ बनाए गए महत्वपूर्ण नियमों और कानूनों के बारे में जानेंगे, जो इस गंभीर समस्या से निपटने में मदद करते हैं।
बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस क्या है और इसे क्यों मनाया जाता है
बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस (World Day Against Child Labour) हर वर्ष 12 जून को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य उन बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना है जो बाल श्रम की अमानवीय परिस्थितियों में फंसे हुए हैं। इस दिवस की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने वर्ष 2002 में की थी, ताकि दुनिया भर में लोगों को यह समझाया जा सके कि किस प्रकार बाल श्रम बच्चों के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास को बाधित करता है। इस दिवस के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि बच्चों का स्थान स्कूल और खेल के मैदान में है, न कि फैक्ट्रियों, खानों या खेतों में।
आज भी लगभग 100 से अधिक देश इस दिवस को जागरूकता अभियान, रैलियों, पोस्टरों, मीडिया कैंपेन और संगोष्ठियों के माध्यम से मनाते हैं। शोध के अनुसार, हर दसवां बच्चा दुनिया में बाल श्रम के चंगुल में है। लगभग 152 मिलियन बच्चे वर्तमान में बाल श्रम कर रहे हैं, जिनमें से 72 मिलियन खतरनाक परिस्थितियों में कार्यरत हैं। इन बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सुरक्षित बचपन से वंचित कर दिया गया है। यह दिवस इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सरकारों, संगठनों और आम जनता को एक साथ मिलकर बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने की प्रेरणा देता है, ताकि एक ऐसा समाज बन सके जहां हर बच्चा स्वतंत्रता, शिक्षा और सम्मान के साथ अपना बचपन जी सके।

बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस का इतिहास
बाल श्रम के विरुद्ध विश्व दिवस का इतिहास अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की लंबी यात्रा से जुड़ा हुआ है, जिसकी स्थापना 1919 में वैश्विक सामाजिक न्याय और श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए की गई थी। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने श्रमिकों, विशेषकर बच्चों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए समय-समय पर कई महत्वपूर्ण कन्वेंशन (अंतरराष्ट्रीय समझौते) बनाए।
साल 1973 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने कन्वेंशन संख्या 138 पारित किया, जिसका उद्देश्य था सदस्य देशों को यह बाध्य करना कि वे बच्चों के लिए न्यूनतम कार्य आयु निर्धारित करें और स्कूल जाने की उम्र से पहले उन्हें किसी भी प्रकार के रोजगार में न लगाया जाए। इसके बाद 1999 में कन्वेंशन संख्या 182 लागू किया गया, जिसे बाल श्रम के सबसे बुरे स्वरूपों पर कन्वेंशन (Worst Forms of Child Labour Convention) के नाम से जाना जाता है। इसका लक्ष्य था दुनिया भर से सबसे खतरनाक और शोषणकारी बाल श्रम जैसे—मानव तस्करी, वेश्यावृत्ति, जबरन श्रम और खतरनाक उद्योगों में बच्चों के कार्य को खत्म करना।
इन सभी प्रयासों के परिणति के रूप में वर्ष 2002 में विश्व बाल श्रम निषेध दिवस (World Day Against Child Labour) की शुरुआत हुई। इसका मकसद था विश्व समुदाय का ध्यान बाल श्रम की गंभीरता की ओर आकर्षित करना और इसके उन्मूलन के लिए ठोस कार्रवाई को प्रेरित करना। यह दिन अब वैश्विक मंच पर एक ऐसा अवसर बन गया है जब सरकारें, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, गैर-सरकारी संगठन और आम नागरिक एकजुट होकर बच्चों के लिए एक सुरक्षित और गरिमामय जीवन सुनिश्चित करने की दिशा में काम करते हैं। आईएलओ के अनुसार, जब तक हर बच्चा शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकारों से सशक्त नहीं होता, तब तक विकास अधूरा है।

बाल श्रम के प्रकार
बाल श्रम एक ऐसी सामाजिक बुराई है जो विभिन्न रूपों में दुनिया के अनेक देशों में व्याप्त है, विशेषकर विकासशील और गरीब देशों में। इसके कई प्रकार होते हैं, जो बच्चों की उम्र, कार्य की प्रकृति, और उस कार्य की परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं। सामान्यतः बाल श्रम को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है — सामान्य कार्य और खतरनाक कार्य।
(1) घरेलू बाल श्रम: इसमें बच्चे घरों में नौकर के रूप में काम करते हैं, जैसे सफाई, बर्तन धोना, बच्चों की देखभाल आदि। उन्हें अक्सर मामूली वेतन पर 10–12 घंटे काम करना पड़ता है और कई बार शारीरिक एवं मानसिक शोषण का भी सामना करना पड़ता है।
(2) खतरनाक श्रम: फैक्ट्रियों, खदानों, ईंट-भट्टों, पटाखा उद्योग, रसायन उद्योग, या निर्माण स्थलों पर बच्चों से कराए जाने वाले कार्य जो उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुँचा सकते हैं। इस श्रेणी में काम करने वाले बच्चों का जीवन हमेशा जोखिम में होता है।
(3) कृषि आधारित श्रम: ग्रामीण क्षेत्रों में कई बच्चे खेतों में काम करते हैं, बीज बोने, फसल काटने, कीटनाशकों के छिड़काव जैसे कार्यों में उन्हें लगाया जाता है। लंबे समय तक स्कूल से दूर रहने के कारण उनकी शिक्षा बाधित होती है।
(4) औद्योगिक एवं हस्तशिल्प कार्य: कालीन बुनाई, बीड़ी निर्माण, चूड़ी उद्योग, पटाखा निर्माण और चमड़ा उद्योग में भी बच्चों का बड़े पैमाने पर उपयोग होता है। ये काम कठिन, शारीरिक रूप से थकाने वाले और जोखिम भरे होते हैं।
(5) यौन शोषण से संबंधित श्रम: कुछ बच्चे जबरन वेश्यावृत्ति, बाल पोर्नोग्राफी, और मानव तस्करी में धकेले जाते हैं, जो सबसे भयावह, अमानवीय और अपराध की श्रेणी में आने वाला बाल श्रम है।
इन सभी श्रम रूपों में बच्चों का शोषण होता है और यह उनके जीवन, स्वास्थ्य, शिक्षा और भविष्य दोनों को खतरे में डालता है। इन परिस्थितियों से बच्चों को निकालना एक नैतिक और कानूनी दायित्व होना चाहिए।

बच्चे बाल श्रम में क्यों फँसते हैं?
बाल श्रम के पीछे कई गहरे और जटिल सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं, जो केवल एक पहलू तक सीमित नहीं रहते।
(1) गरीबी: यह सबसे बड़ा और प्रमुख कारण है। जब परिवारों की आर्थिक स्थिति खराब होती है और माता-पिता के पास पर्याप्त आय के साधन नहीं होते, तो वे बच्चों को कम उम्र में ही काम पर भेज देते हैं ताकि वे पारिवारिक आय में योगदान दे सकें।
(2) शिक्षा की कमी और स्कूलों की अनुपलब्धता: कई क्षेत्रों में शिक्षा की सुविधाएं या तो पर्याप्त नहीं होतीं, या स्कूल बहुत दूर होते हैं। कुछ स्कूलों की गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि बच्चे वहाँ रुचि नहीं लेते। नतीजतन, वे स्कूल छोड़कर काम में लग जाते हैं।
(3) सामाजिक कुरीतियाँ और परंपराएँ: कुछ समुदायों में यह धारणा होती है कि बच्चा जितनी जल्दी कमाना शुरू करे, उतना ही परिवार के लिए बेहतर है। यह सोच बच्चों को शिक्षा से दूर कर देती है।
(4) मानव तस्करी और जबरन मजदूरी: कई बार संगठित अपराध और मानव तस्करी नेटवर्क के तहत बच्चों को अगवा कर जबरन खतरनाक कामों में लगाया जाता है। इनमें बच्चे मानसिक, शारीरिक और यौन शोषण के शिकार होते हैं।
(5) कानूनों का कमजोर क्रियान्वयन: बाल श्रम के खिलाफ कई सशक्त कानून मौजूद हैं, लेकिन उनकी निगरानी और पालन सही रूप से नहीं होता। कई बार भ्रष्टाचार और प्रशासनिक उदासीनता के कारण दोषी बच निकलते हैं, और बच्चे शोषण के चक्रव्यूह में फँसे रह जाते हैं।
इन कारणों से लाखों बच्चे अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था — बचपन — को कठिनाइयों, शोषण और शिक्षा से वंचित रहकर व्यतीत करते हैं, जो उनके संपूर्ण विकास को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।

अंतरराष्ट्रीय नियम और कानून
विश्व स्तर पर बाल श्रम एक गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन माना जाता है। इसी को ध्यान में रखते हुए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने बाल श्रम के विरुद्ध कई महत्वपूर्ण कानून और नीतियाँ बनाई हैं।
(1) अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization - ILO): यह संस्था 1919 में स्थापित की गई थी और इसका उद्देश्य दुनिया भर में श्रमिकों के लिए न्यायसंगत और गरिमापूर्ण कार्य परिस्थितियाँ सुनिश्चित करना है। आईएलओ के पास अब 187 सदस्य देश हैं।
(2) आईएलओ कन्वेंशन 138 (Convention No. 138): इस कन्वेंशन के अनुसार सदस्य देशों को न्यूनतम कार्य आयु तय करनी होती है और इसे धीरे-धीरे बढ़ाकर शिक्षा की प्राथमिकता सुनिश्चित करनी होती है।
(3) आईएलओ कन्वेंशन 182 (Convention No. 182): यह कन्वेंशन बाल श्रम के सबसे खराब रूप (Worst Forms) को समाप्त करने पर केंद्रित है, जैसे — गुलामी, वेश्यावृत्ति, मादक पदार्थों की तस्करी में जबरन संलिप्तता आदि।
(4) UN Convention on the Rights of the Child (UNCRC): यह संधि बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा और गरिमा के अधिकारों की रक्षा करती है।
(5) World Day Against Child Labour (12 जून): वर्ष 2002 में आईएलओ ने इस दिन की स्थापना की थी ताकि वैश्विक स्तर पर बाल श्रम के खिलाफ जन जागरूकता बढ़ाई जा सके। यह दिन बच्चों को गरिमापूर्ण जीवन, शिक्षा और बचपन देने के लिए प्रतिबद्धता को दोहराने का अवसर है।
(6) Sustainable Development Goal 8.7 (SDG 8.7): यह लक्ष्य 2025 तक खतरनाक बाल श्रम के सभी रूपों को समाप्त करने की दिशा में काम करता है और सदस्य देशों को सहयोगात्मक प्रयासों के लिए प्रेरित करता है।
संदर्भ-
लखनऊ और अउद की खुशबू: एक ऐतिहासिक इत्र यात्रा
गंध- ख़ुशबू व इत्र
Smell - Odours/Perfumes
11-06-2025 09:15 AM
Lucknow-Hindi

इत्र, केवल एक सुगंध नहीं बल्कि संस्कृति, विरासत और परंपरा की महक है। लखनऊ, जिसे नवाबों का शहर कहा जाता है, वहां इत्र न केवल एक सजावटी वस्तु रहा है, बल्कि एक जीवनशैली का हिस्सा भी। वहीं दूसरी ओर, अउद तेल—जो दुनिया का सबसे महंगा प्राकृतिक इत्र तेल माना जाता है—भारत सहित दक्षिण एशिया की परंपरा और भव्यता का प्रतीक रहा है। यह लेख लखनऊ की इत्र परंपरा, अउद की उत्पत्ति, उपयोग और वैश्विक पहचान, तथा इन दोनों के आपसी संबंध पर विस्तार से प्रकाश डालता है।
इस लेख में सबसे पहले हम लखनऊ में इत्र के ऐतिहासिक महत्व और इसकी सांस्कृतिक जड़ों को जानेंगे। इसके बाद हम अउद तेल की उत्पत्ति, उसका वैज्ञानिक निर्माण और व्यावसायिक मूल्य समझेंगे। लेख में लखनऊ की विशेष इत्र परंपराओं—जैसे ‘शम्मा’ और ‘मजमुआ’—का भी उल्लेख होगा, जो इस शहर की अनूठी पहचान हैं। अंत में हम आज के आधुनिक दौर में लखनऊ के इत्र व्यवसाय की स्थिति और प्रसिद्ध दुकानों पर भी चर्चा करेंगे।

लखनऊ और इत्र का ऐतिहासिक रिश्ता
लखनऊ की पहचान अगर तहज़ीब, अदब और शायरी है, तो इत्र उसकी आत्मा है। इस नवाबी शहर में इत्र न केवल सौंदर्य का प्रतीक रहा है, बल्कि यह धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी महत्वपूर्ण रहा है। माना जाता है कि भारत में इत्र का प्रयोग सिंधु घाटी सभ्यता (3000 ईसा पूर्व) से होता आया है। धर्मग्रंथों, पुराणों, और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भी इत्र के प्रयोग का वर्णन मिलता है। मुगल काल में विशेषकर गुलाब जल और इत्र के अनेक प्रकारों का प्रचलन हुआ। लखनऊ में हजरतगंज के पास स्थित 'इत्र साज' आज भी उन ऐतिहासिक इत्रों को जीवित रखे हुए है। यहाँ मिलने वाले इत्रों में 'गुलाम', 'मलक', 'नेमत', 'चाहत', आदि लोकप्रिय हैं।

अउद तेल: तरल सोने जैसी कीमती सुगंध
अउद तेल, जिसे अगरवुड या एलोसवुड तेल भी कहा जाता है, विश्व के सबसे महंगे इत्र घटकों में से एक है। यह तेल अगर के पेड़ से प्राप्त होता है, जो मूलतः भारत, बांग्लादेश, चीन और जापान जैसे एशियाई देशों में पाया जाता है। इसकी खासियत यह है कि जब पेड़ की लकड़ी पर एक विशेष प्रकार का कवक (फिआलोफोरा पैरासिटिका) हमला करता है, तब उसमें एक गाढ़ी सुगंधित राल उत्पन्न होती है। यही राल बाद में आसवन (डिस्टिलेशन) प्रक्रिया द्वारा तेल में बदली जाती है। इस प्रक्रिया की कठिनाई, पेड़ की दुर्लभता और सुगंध की विशिष्टता के कारण इसकी कीमत प्रति पौंड लगभग $5000 तक पहुंच जाती है। इसीलिए इसे 'तरल सोना' भी कहा जाता है।
धार्मिक, सांस्कृतिक और चिकित्सीय महत्व
अउद और इत्र का प्रयोग केवल सजावटी या व्यक्तिगत उपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह धार्मिक और चिकित्सकीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। भारत में इसे देवताओं की पूजा में धूप और अगरबत्ती के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस्लामी दुनिया में यह व्यक्तिगत इत्र के रूप में अत्यधिक लोकप्रिय है। आयुर्वेद में भी इसकी सुगंध को मानसिक शांति और शारीरिक संतुलन के लिए उपयोगी माना गया है। यही कारण है कि यह सिर्फ एक व्यापारिक उत्पाद नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव का माध्यम भी बन चुका है।
लखनऊ का योगदान: ‘शम्मा’ और ‘मजमुआ’ जैसे इत्र का आविष्कार
लखनऊ ने इत्र की दुनिया को कई अनूठे और आकर्षक प्रकार दिए हैं। इनमें से 'शम्मा' और 'मजमुआ' विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। ‘शम्मा’ में मोहक, मीठी और सुलगती हुई सुगंध का संगम होता है, जबकि ‘मजमुआ’ चार अलग-अलग इत्रों का मिश्रण है जो एक परिष्कृत और परतदार सुगंध बनाता है। इन इत्रों में तीव्रता और सौम्यता का संतुलन लाजवाब होता है, जो लखनऊ की सांस्कृतिक बारीकी को दर्शाता है। यह इत्र न केवल घरेलू उपयोग में आते हैं, बल्कि विदेशों में भी उपहार और संग्रहणीय वस्तुओं की तरह खरीदे जाते हैं।

आधुनिक युग में लखनऊ का इत्र व्यवसाय
आज के समय में जहां रासायनिक परफ्यूम का चलन बढ़ा है, वहीं लखनऊ ने अपने पारंपरिक इत्र निर्माण को जीवित रखा है। शहर के प्रतिष्ठित इत्र प्रतिष्ठान जैसे ‘सुगंधकों’, ‘फ्राग्रंटो अरोमा लैब’ और ‘सुगंध वाइपर’ न केवल इत्र बेचते हैं, बल्कि संस्कृति और परंपरा को भी संजोए हुए हैं। यहाँ 150 रुपए से लेकर 12,000 रुपए तक के इत्र उपलब्ध हैं, जो ग्राहकों की अलग-अलग पसंद और बजट के अनुसार खरीदे जा सकते हैं। लखनऊ का इत्र आज केवल एक उत्पाद नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक धरोहर और यादगार उपहार बन चुका है।
कोबरा से पाइथन तक: भारतीय सर्पों की रहस्यमयी और विविध दुनिया
रेंगने वाले जीव
Reptiles
10-06-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

भारत विविध जैविक संपदा वाला देश है, जहां असंख्य प्रकार के जीव-जंतु पाए जाते हैं। इन जीवों में सर्पों का विशेष स्थान है। भारतीय संस्कृति, इतिहास और लोककथाओं में सर्पों को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। विशेषकर, कोबरा और पाइथन जैसे सर्प न केवल जैव विविधता का हिस्सा हैं, बल्कि धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक प्रतीकों के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।
यद्यपि दोनों सर्प विशाल और प्रभावशाली माने जाते हैं, फिर भी उनकी जीवनशैली, शरीर संरचना, आहार और व्यवहार में महत्वपूर्ण भिन्नताएँ हैं।
आज हम कोबरा और पाइथन के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले हम कोबरा के स्वरूप, रहन-सहन और सांस्कृतिक महत्व को समझेंगे। फिर हम पाइथन की भव्यता और उसकी विशिष्ट जीवनशैली पर नज़र डालेंगे। इसके बाद हम देखेंगे कि इन दोनों सर्पों की रक्षा व संरक्षण हेतु भारत में क्या प्रयास किए जा रहे हैं। अंततः, हम दोनों सर्प प्रजातियों के बीच मूलभूत भिन्नताओं को भी जानेंगे। इसके अतिरिक्त, हम यह भी जानेंगे कि यदि कोबरा या पाइथन के काटने की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो तत्काल कौन-से उपचार और प्राथमिक चिकित्सा उपाय अपनाए जाने चाहिए।

कोबरा: शक्ति और रहस्य का प्रतीक
कोबरा, जिसे भारतीय संदर्भ में नाग या नागराज भी कहा जाता है, भारत का सबसे प्रसिद्ध सर्प है। वैज्ञानिक दृष्टि से, भारतीय कोबरा (Naja naja) 'एलापिडे' कुल का सदस्य है। इसकी सबसे प्रमुख पहचान इसके फन या हुड से होती है, जिसे खतरा महसूस होने पर यह फैलाकर अपने आकार को बड़ा और भयावह बना लेता है।
कोबरा का विष अत्यंत शक्तिशाली होता है और यह मुख्यतः तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) पर प्रभाव डालता है। हालाँकि कोबरा स्वभावतः शांतिप्रिय होता है और तभी आक्रमण करता है जब वह स्वयं को संकट में महसूस करता है।
भारत में कोबरा का धार्मिक महत्व भी अत्यधिक है। हिंदू धर्म में भगवान शिव के गले में सर्प लिपटा हुआ दिखाया जाता है, जो जीवन-मृत्यु के चक्र का प्रतीक है। नाग पंचमी जैसे पर्व विशेषतः सर्पों को समर्पित हैं, जहाँ कोबरा की पूजा की जाती है।
कोबरा विभिन्न प्रकार के आवासों में पाया जा सकता है — जंगल, खेतों, यहाँ तक कि मानव बस्तियों के निकट भी। इसकी भोजन श्रृंखला में मुख्यतः छोटे स्तनधारी, मेंढक, अन्य सर्प और कभी-कभी पक्षी आते हैं।

पाइथन: विशालता और धैर्य का प्रतीक
पाइथन, विशेषतः भारतीय अजगर (Python molurus), भारत के सबसे बड़े गैर-विषैले सर्पों में से एक है। इसकी लंबाई प्रायः 10-20 फीट तक हो सकती है और इसका शरीर मजबूत, भारी तथा सुगठित होता है।
पाइथन विषहीन होते हैं, लेकिन अपने शिकार को पकड़ने और दम घोटकर मारने में माहिर होते हैं। वे अत्यंत धैर्यशील शिकारी होते हैं, जो अपने शिकार का चुपचाप इंतजार करते हैं और सही समय पर आक्रमण करते हैं। भारतीय अजगर नदियों के किनारे, दलदली इलाकों, घने जंगलों और घास के मैदानों में पाए जाते हैं। इनका मुख्य आहार छोटे स्तनधारी, पक्षी और सरीसृप होते हैं। अपने आकार के कारण वे बड़े शिकार जैसे हिरण या जंगली सुअर को भी निगल सकते हैं।
पाइथन भारतीय लोककथाओं और परंपराओं में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। कई आदिवासी समुदायों में पाइथन को वनदेवता का रूप माना जाता है और उसकी पूजा की जाती है।

भारतीय सर्पों का संरक्षण
भारत में सर्प संरक्षण एक गंभीर और आवश्यक विषय बनता जा रहा है। वनों की कटाई, शहरीकरण और मानव-सर्प संघर्ष के कारण इनकी आबादी पर संकट मंडरा रहा है। कोबरा और पाइथन, दोनों ही वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत संरक्षित प्रजातियाँ हैं।
विशेष रूप से कोबरा की त्वचा और पाइथन की खाल के लिए अवैध शिकार किया जाता रहा है। हालाँकि सरकार और कई गैर-सरकारी संगठनों ने सर्प संरक्षण के लिए जागरूकता अभियानों और बचाव कार्यक्रमों की शुरुआत की है। इसके अतिरिक्त, सर्प विशेषज्ञों और 'रेसक्यू टीमों' द्वारा सर्पों को सुरक्षित स्थानों पर पुनर्स्थापित करने का कार्य भी किया जाता है, ताकि मानव-सर्प संघर्ष को न्यूनतम किया जा सके।

सर्पदंश के उपचार और प्राथमिक चिकित्सा
यदि कोबरा जैसे विषैले सर्प का डंक लग जाए या किसी भी प्रकार का सर्पदंश हो, तो तत्काल सही कदम उठाना जीवन रक्षक सिद्ध हो सकता है।
नीचे सर्पदंश के उपचार और प्राथमिक चिकित्सा के मुख्य उपाय दिए गए हैं:
• शांत रहें और घबराएँ नहीं: घबराने से हृदय गति तेज हो सकती है, जिससे विष का शरीर में तेजी से प्रसार होता है। शांत रहने का प्रयास करें।
• दंश वाले अंग को स्थिर रखें: जिस अंग को सर्प ने काटा है, उसे दिल के नीचे के स्तर पर स्थिर रखें। अधिक हिलाने-डुलाने से विष का प्रसार तेज हो सकता है।
• तुरंत चिकित्सकीय सहायता लें: सर्पदंश के बाद बिना देरी किए नजदीकी अस्पताल जाएं। विशेषकर कोबरा के विष के लिए एंटी-वेनम (सर्प विष प्रतिशोधी इंजेक्शन) जरूरी होता है।
• दंश स्थल को न काटें या चूसें नहीं: पुराने समय की मान्यताओं के विपरीत, काटने या चूसने से संक्रमण बढ़ सकता है। ऐसा न करें।
• पट्टी का हल्का दबाव डालें: यदि संभव हो, तो एक साफ पट्टी से हल्का दबाव दें, लेकिन रक्त संचार को पूरी तरह बंद न करें। यह विष के प्रसार को धीमा कर सकता है।
• पाइथन के काटने के मामले में: यद्यपि पाइथन विषहीन होते हैं, उनके काटने से घाव, संक्रमण या आंतरिक चोटें हो सकती हैं। अतः घाव को साफ पानी से धोकर एंटीसेप्टिक लगाएँ और चिकित्सक से संपर्क करें।
महत्वपूर्ण:
सर्प का प्रकार पहचानने का प्रयास करें (यदि संभव हो) लेकिन सर्प को पकड़ने या मारने की कोशिश न करें। प्राथमिकता तुरंत उपचार प्राप्त करने की होनी चाहिए।
कोबरा और पाइथन में प्रमुख अंतर
यद्यपि दोनों सर्प विशाल और प्रभावशाली हैं, फिर भी उनमें कुछ मूलभूत भिन्नताएँ हैं।
• विष और विषहीनता: कोबरा जहरीला होता है, जबकि पाइथन विषहीन होता है।
• शिकार की विधि: कोबरा अपने विष से शिकार को मारता है, जबकि पाइथन शिकार को जकड़ कर दम घोटता है।
• आकार: पाइथन का आकार आमतौर पर कोबरा से कहीं बड़ा और भारी होता है।
• रहन-सहन: कोबरा अपेक्षाकृत शहरी क्षेत्रों के आसपास भी पाया जा सकता है, जबकि पाइथन अधिकतर दूरदराज के वनों और जलाशयों के पास रहता है।
• सांस्कृतिक महत्व: कोबरा विशेष रूप से धार्मिक प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित है, जबकि पाइथन को मुख्यतः लोकमान्यताओं और पारंपरिक विश्वासों में स्थान मिला है।
प्राचीन भारतीय गणित और वास्तुकला: जब संख्याएं बनीं सौंदर्य का आधार
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
09-06-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

भारत का गणितीय इतिहास केवल अंकगणना की सीमा तक नहीं सिमटा है, बल्कि यह एक जीवंत परंपरा है जिसने विज्ञान, दर्शन, कला और स्थापत्य को समान रूप से प्रभावित किया है। प्राचीन भारत में गणित को न केवल एक बौद्धिक अभ्यास के रूप में देखा गया, बल्कि इसे जीवन के सौंदर्य और संतुलन से जोड़कर भी समझा गया। भारतीय गणितज्ञों के नवाचारों से लेकर भव्य मंदिरों और वेधशालाओं तक, हर पहलु यह सिद्ध करता है कि गणित भारत की सांस्कृतिक चेतना में गहराई से समाया हुआ है। इस लेख में हम इस सांस्कृतिक विरासत को समझने के लिए चार मुख्य पहलुओं की चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम प्राचीन भारतीय गणित की नींव और इसके ऐतिहासिक विकास की दिशा में झांकेंगे, जहां संख्याओं ने एक दार्शनिक और व्यावहारिक आधार प्राप्त किया। उसके बाद, हम उन महान गणितज्ञों के योगदानों की चर्चा करेंगे, जिन्होंने विश्व गणित को नई दिशाएं दीं और जटिल अवधारणाओं को सरल सूत्रों में बांधा। इसके आगे, हम जानेंगे कि भारतीय स्थापत्य में किस प्रकार गणितीय सटीकता और ज्यामितीय सौंदर्य को आधार बनाकर भव्य मंदिरों और संरचनाओं की रचना की गई। अंत में, हम यह विचार करेंगे कि भारत की गणित और वास्तुकला की यह ज्ञान परंपरा किस प्रकार आज भी वैश्विक जगत को प्रेरित कर रही है।

प्राचीन भारतीय गणित की नींव और ऐतिहासिक विकास
भारत की गणितीय परंपरा का आरंभ सिंधु घाटी सभ्यता से माना जाता है, जहां 3000 ईसा पूर्व के दौरान माप-तौल की प्रणालियों में परिपक्वता दिखाई देती है। मोहनजो-दारो और हड़प्पा जैसे नगरों में समान आकार की ईंटें, जल निकासी योजनाएं और ज्यामितीय सड़कों की रूपरेखा इस बात का प्रमाण हैं कि गणित का व्यावहारिक प्रयोग समाज के निर्माण में गहराई से जुड़ा था। वैदिक युग के ‘शुल्ब सूत्रों’ में यज्ञ वेदियों के निर्माण हेतु जटिल ज्यामिति का उल्लेख मिलता है। इन सूत्रों में वृत्त, त्रिकोण और वर्ग जैसे आकृतियों का प्रयोग यज्ञ के आध्यात्मिक अर्थ के साथ किया गया। यह ज्ञान न केवल धार्मिक उद्देश्यों तक सीमित था, बल्कि खगोलशास्त्र और समय निर्धारण में भी प्रयुक्त होता था, जिससे गणना प्रणाली एक जीवंत परंपरा बन गई।

महान गणितज्ञों के योगदान
भारत ने विश्व को अनेक ऐसे गणितज्ञ प्रदान किए हैं, जिन्होंने गणित को एक विज्ञान से कहीं अधिक—एक दर्शन और जीवनशैली के रूप में प्रस्तुत किया। आर्यभट्ट, जिन्होंने 5वीं शताब्दी में 'आर्यभटीय' ग्रंथ की रचना की, ने दशमलव प्रणाली को स्थापित किया और π (पाई) के सटीक मान का अनुमान लगाया। ब्रह्मगुप्त ने ऋणात्मक संख्याओं और शून्य के व्यवहार को स्पष्ट किया, जो आधुनिक बीजगणित की नींव बने। भास्कराचार्य द्वितीय की ‘लीलावती’ और ‘बीजगणित’ जैसी कृतियां गणित को एक रोचक और सौंदर्यात्मक भाषा में प्रस्तुत करती हैं। इन गणितज्ञों के कार्यों में कलन, त्रिकोणमिति, खगोलगणना जैसी जटिल अवधारणाओं की प्रारंभिक झलक मिलती है—वे सिद्धांत जो यूरोपीय पुनर्जागरण से सदियों पहले ही भारत में मौजूद थे।

वास्तुकला में गणित की झलक और अनुप्रयोग
भारतीय स्थापत्य कला न केवल धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति है, बल्कि यह एक गणितीय समझ का भी प्रतिरूप है। खजुराहो, कोणार्क, तंजावुर और मदुरै जैसे स्थानों पर बने मंदिरों की संरचनाएं अत्यंत सटीक अनुपात, सममिति और ज्यामिति पर आधारित हैं। उदाहरणस्वरूप, कोणार्क का सूर्य मंदिर, जो एक विशाल रथ के आकार में निर्मित है, 24 पहियों के माध्यम से समय चक्र और सौर गति को दर्शाता है। इन पहियों की नक्काशी और उनका व्यास स्पष्ट रूप से गणितीय गणनाओं पर आधारित हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों की गोपुरम संरचनाओं की ऊंचाई, चरणों की संख्या और वास्तु योजना सभी कुछ गणितीय सूत्रों के अनुसार तय किए जाते थे। यहां गणित न केवल योजना में, बल्कि स्थापत्य की आत्मा में समाहित होता था—जहां प्रत्येक ईंट और कोण एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक संवाद बनाता था।

भारत की गणित और वास्तुकला दृष्टि की वैश्विक प्रेरणा
प्राचीन भारतीय गणित और वास्तुकला का प्रभाव आज भी केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि समकालीन वैश्विक सोच को भी प्रभावित कर रहा है। भारतीय गणना प्रणाली ने शून्य और दशमलव प्रणाली जैसी मौलिक अवधारणाएं विश्व को दीं, जिनके बिना आधुनिक कंप्यूटिंग की कल्पना असंभव है। वास्तुकला की दृष्टि से, ऊर्जा प्रवाह, सममिति और प्राकृतिक तत्वों के संतुलन को ध्यान में रखकर बनाई गई भारतीय संरचनाएं आज के स्थायी और हरित निर्माण मॉडल के लिए आदर्श मानी जा रही हैं। जयपुर की जंतर मंतर वेधशाला, जो बिना किसी आधुनिक उपकरण के खगोलीय गणनाएं करती थी, इस बात की प्रतीक है कि भारत में वैज्ञानिक चेतना कितनी उन्नत थी। दुनिया भर में पुनः भारतीय वास्तुशास्त्र और गणितीय अवधारणाओं पर शोध हो रहे हैं। यह विरासत आज भी विज्ञान और सौंदर्य का मार्गदर्शन करती है।
लाइफ़ ऑफ़ पाई: आस्था, संघर्ष और साहस की एक रूपक यात्रा
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
08-06-2025 09:08 AM
Lucknow-Hindi

कभी-कभी एक कहानी सिर्फ कल्पना नहीं होती, वह हमारी आस्था, अस्तित्व और साहस की असली तस्वीर बन जाती है। यान मार्टेल ((Yann Martel)) द्वारा 2001 में प्रकाशित उपन्यास 'लाइफ़ ऑफ़ पाई' (Life of Pi) ऐसी ही एक अविस्मरणीय यात्रा है, जिसमें धर्म, प्रकृति और मानव आत्मा का अद्वितीय संगम देखने को मिलता है।
यह कहानी है पाई पटेल नामक एक 16 वर्षीय भारतीय किशोर की, जो एक जहाज़ दुर्घटना में जीवित बचता है। लेकिन असली संघर्ष तो तब शुरू होता है, जब वह प्रशांत महासागर में एक बड़ी लाइफबोट पर अकेला रह जाता है—साथ में होते हैं कुछ जंगली जानवर: एक ज़ेब्रा, एक ऑरंगुटान (Orangutan), एक हिंसक लकड़बग्घा और अंततः केवल एक जीवित साथी बचता है—रिचर्ड पार्कर (Richard Parker), एक खूंखार बंगाल टाइगर।
227 दिनों तक पाई समुद्र में उसी टाइगर के साथ जीवन और मृत्यु के बीच झूलता है। वह न केवल शारीरिक रूप से जीवित रहता है, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी एक नई समझ तक पहुंचता है। उसकी धार्मिक आस्था जिसमें ईसाई धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म का समावेश है, उसे हर दिन प्रार्थना करने और खुद को मानसिक रूप से मजबूत बनाए रखने में मदद करती है। उसकी मां का कहना कि “या तो एक धर्म में विश्वास करो, या किसी में नहीं,” उसके जीवन की विचारधारा पर सवाल उठाती है, परंतु पाई का उत्तर उसकी जीवन शैली और जीने के जज़्बे में छिपा है।
लाइफ़ ऑफ़ पाई केवल एक रोमांचक जीवित रहने की कहानी नहीं है, यह एक गहराई से भरी रूपक कथा (allegory) भी है। इसमें विलियम ब्लेक की प्रसिद्ध कविता "The Tyger" की प्रतिध्वनि मिलती है, जो प्रकृति की हिंसा और सौंदर्य दोनों को दर्शाती है। उपन्यास में मार्टेल समय-समय पर अपनी टिप्पणियाँ जोड़ते हैं, जिससे कहानी और भी अधिक जीवन्त और चिंतनशील हो जाती है।
यह उपन्यास 2002 में प्रतिष्ठित हुआ और इसे बुकर पुरस्कार (Booker Prize) से भी सम्मानित किया गया। इसके बाद 2012 में अंग ली द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लाइफ़ ऑफ़ पाई’ आई, जिसने इस कहानी को एक नया दृष्टिकोण दिया। सूरज शर्मा ने पाई की भूमिका में अपनी पहली फिल्म से ही दर्शकों का दिल जीत लिया। फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सराहना मिली—11 ऑस्कर नामांकन और 4 पुरस्कारों के साथ, जिसमें अंग ली को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का अकादमी अवॉर्ड भी मिला।
चाहे वह किताब हो या फिल्म, लाइफ़ ऑफ़ पाई हमें यह सिखाती है कि कभी-कभी एक भयावह संघर्ष में भी आस्था और कल्पना के सहारे जीवन को नया अर्थ दिया जा सकता है। यह एक ऐसी यात्रा है जो हमें खुद से जुड़ने, प्रकृति को समझने और जीवन की असली परीक्षा को स्वीकारने की प्रेरणा देती है।
संदर्भ-
लखनऊ, चलिए आज ईद उल अज़हा पर जानते हैं, 'कुर्बानी' का धार्मिक महत्व
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
07-06-2025 09:05 AM
Lucknow-Hindi

हमारे लखनऊ शहर में, ईद उल अज़हा / ईद-उल-अधा (बकरीद) के अवसर परप्रातः काल की प्रार्थनाएं, ऐशबाग ईदगाह, आसिफ़ी मस्ज़िद(बड़ा इमामबाड़ा), टीले वाली मस्ज़िद, ईदगाह खदर और ईदगाह उजरियांव जैसी मस्ज़िदों में अदा की जाती हैं, जहाँहज़ारों लोग शांतिपूर्ण वातावरण में एकत्रित होते हैं।इन प्रार्थनाओं के बाद घर लौटने पर, सब परिवार के सदस्य ‘बलिदान अनुष्ठान’ करते हैं। बकरी के मांस को परिवार, रिश्तेदारों और ज़रूरतमंद लोगों के बीच बांटा जाता है। बकरीद का दिन, पूरे शहर में विश्वास, एकजुटता और शांत उत्सव द्वारा चिह्नित है। यह त्योहार, हमें विश्वास का मूल्य, एक उच्च उद्देश्य, निस्वार्थता और दूसरों के साथ आनंद साझा करना सिखाता है। तो आज, आइए इस त्योहार के पीछे छिपे अर्थों के बारे में विस्तार से बात करते हैं।अल्लाह के प्रति विनयशीलता के बारे में बात करने के अलावा, हमें यह भी पता चलेगा कि, बकरीद प्रायश्चित और आध्यात्मिक शुद्धता के साथ-साथ, एकता और भाईचारे का भी प्रतीक है। उसके बाद, हम कुर्बानी या बलिदान से संबंधित कुछ आवश्यक नियमों का पता लगाएंगे। फिर, हम कुर्बानी मांस वितरण के लिए मौजूद,विशिष्ट दिशानिर्देशों पर प्रकाश डालेंगे। अंत में, हम इस बात पर ध्यान देंगे कि, इस मांस को कितने भागों में विभाजित किया जाना चाहिए।
ईद उल अज़हा का प्रतीकात्मक अर्थ:
1.अल्लाह के लिए विनयशीलता:
अल्लाह की आज्ञा पर,पैगंबर इब्राहिम द्वारा अपने प्यारे पुत्र का बलिदान देना,परमात्मा की इच्छा के प्रति पूर्ण रूप से प्रस्तुत होने और आज्ञाकारिता के महत्व को दर्शाती है। ईद-उल-अधा पर बलिदान का अनुष्ठान, मुसलमानों के लिए एक स्मरण के रूप में कार्य करता है, ताकि अल्लाह में उनके विश्वास को प्राथमिकता दी जा सके।
2.विश्वास:
पैगंबर इब्राहिम का अल्लाह की योजना में अटूट विश्वास, और उनकी इच्छा के लिए अपने बेटे का बलिदान, उनके विश्वास की गहराई को प्रदर्शित करता है। ईद-उल-अधा,कठिन परिस्थितियों में भी अल्लाह की योजना में पूर्ण विश्वास रखने के महत्व पर ज़ोर देता है।
3.कृतज्ञता और स्मरण:
मुसलमान लोग, एक जानवर की कुर्बानी देकर, परिवार, दोस्तों और ज़रूरतमंदों के साथ उसका मांस साझा करके, अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। यह प्रथा, उन्हें उन चीज़ों की सराहना करना सिखाती है, जो उन्हें प्राप्त हुई हैं, और दूसरों को नहीं।
4.निस्वार्थता और उदारता:
ज़रूरतमंद लोगों के साथ बलिदान दिए गए जानवर का मांस साझा करना, समुदाय के भीतर करुणा, सहानुभूति और एकजुटता की भावना को बढ़ावा देता है। यह प्रथा लोगों को दूसरों की भलाई और कल्याण को प्राथमिकता देने की याद दिलाता है।
5.प्रायश्चित और आध्यात्मिक शुद्धता:
बलिदान के कार्य को, क्षमा और आध्यात्मिक शुद्धि के साधन के रूप में भी देखा जाता है। एक जानवर का बलिदान करके, मुसलमान लोग अपनी कमियों और पापों को स्वीकार करते हैं, अल्लाह से क्षमा मांगते हैं, और पवित्रता एवं धार्मिकता की नई भावना के लिए प्रयास करते हैं।
6.एकता और भाईचारा:
यह बलिदान, सामूहिक रूप से किया जाता है। यह अभ्यास, लोगों के बंधनों को मज़बूत करता है, सामाजिक सामंजस्य को प्रोत्साहित करता है, और एक दूसरे के प्रति अपनी साझा ज़िम्मेदारियों की याद दिलाता है।
कुर्बानी से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण नियम:
•पात्रता:
प्रत्येक पात्र मुस्लिम व्यक्ति को एक बार कुर्बानी देनी चाहिए, और माता-पिता को भी अपने बच्चों के नाम पर हिस्सेदारी देनी चाहिए। बकरी या भेड़ जैसा एक छोटा जानवर, एक कुर्बानी हिस्से के बराबर है, जबकि भैंस या ऊंट जैसा एक बड़ा जानवर,सात हिस्सों के बराबर है, और सात व्यक्तियों के बीच विभाजित किया जा सकता है।
बलिदान दिए जाने वाले जानवरों का स्वास्थ्य:
१.उनके सींगों को नहीं तोड़ा जा सकता है।
२.उनके पास कम से कम आधे दांत होने चाहिए।
३.उनके कानों या पूंछ का एक तिहाई या अधिक हिस्सा खोया हुआ नहीं होना चाहिए।
४.वे अंधे नहीं होने चाहिए, या उनकी एक तिहाई या अधिक दृष्टि खराब नहीं होनी चाहिए।
५.वे लंगड़ाहट के बिना चलने में सक्षम होने चाहिए।
६.उन्हें अच्छी तरह से खिलाया जाना चाहिए, और उनकी देखभाल की जानी चाहिए।
बलिदान दिए जाने वाले जानवरों की उम्र:
•भेड़ और बकरियों के लिए, एक वर्ष की उम्र (एक व्यक्ति के कुर्बानी हिस्से के बराबर)।
•भैंस के लिए, दो साल की उम्र (सात लोगों के कुर्बानी हिस्से के बराबर)।
•ऊंटों के लिए, पांच साल की उम्र (सात व्यक्तियों के कुर्बानी हिस्से के बराबर)।
कुर्बानी दिए गए जानवर के मांस वितरण के लिए नियम:
•सभी योग्य प्राप्तकर्ता,किसी भी पूर्वाग्रह या भेदभाव के बिना, समान और निष्पक्ष रूप से मांस प्राप्त करेंगे।
•मांस ताज़ा होना चाहिए। बलिदान के बाद इसे जल्द से जल्द वितरित किया जाना चाहिए।
•यदि आप मांस को कहीं दूर पहुंचाने के लिए संग्रहित करते हैं, तो उसे उचित देखभाल के साथ संभालें। इसे खराब होने से बचाने के लिए, मांस को उचित तापमान पर बनाए रखा जाना चाहिए।
•इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार, जो लोग पात्र हैं, उन्हें ही मांस दिया जाना चाहिए।
•मांस को इस तरीके से वितरित करना महत्वपूर्ण है, जो प्राप्तकर्ताओं की गोपनीयता और गरिमा का सम्मान करता है।
मांस को कितने भागों में विभाजित किया जाना चाहिए?
कुर्बानी मांस वितरण के सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि, इसे तीन समान भागों में विभाजित किया जाना चाहिए। कुर्बानी देने वाले के लिए एक तिहाई, आपके परिवार और दोस्तों के लिए एक तिहाई, और गरीबों के लिए एक तिहाई भाग विभाजित किया जाना चाहिए। इन सबसे ऊपर, पात्र के धर्म की परवाह किए बिना, किसी भी व्यक्ति को कुर्बानी मांस प्रदान कर सकते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में नमाज़ अदायगी का स्रोत : Wikimedia
डीएनए: जीवन के मूल रहस्यों की पहचान और चिकित्सा विज्ञान में संभावनाओं का विस्तार
डीएनए
By DNA
06-06-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

डीएनए (DNA), यानी डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (Deoxyribonucleic acid), एक ऐसा अणु है जो सभी जीवों की आनुवंशिक जानकारी का भंडार है। यह घुमावदार सीढ़ी जैसी संरचना जीवन के अनगिनत रहस्यों को अपने भीतर समेटे हुए है, जैसे कि क्यों बच्चे अपने माता-पिता से मिलते-जुलते हुए भी अलग दिखते हैं, क्यों एक जीव दूसरे से भिन्न होता है, और कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी बीमारियाँ या विशिष्ट लक्षण स्थानांतरित होते हैं। कुछ विषाणुओं को छोड़कर, पृथ्वी पर मौजूद सभी सजीवों में यह महत्वपूर्ण अणु पाया जाता है, जो आनुवंशिक कोड (Genetic code) के रूप में जीवन के ब्लूप्रिंट को संग्रहीत करता है।
इस लेख में, हम डीएनए की संरचना और कार्यप्रणाली को विस्तार से समझेंगे। इसके बाद, हम डीएनए की प्रतिकृति (Replication) और विभिन्नता (Variation) की प्रक्रिया पर चर्चा करेंगे, जो जीवों में विविधता का आधार है। फिर, हम इलेक्ट्रोपोरेशन (Electroporation) नामक एक आधुनिक तकनीक का परिचय देंगे जो चिकित्सा विज्ञान के भविष्य को बदल रही है, और अंत में, हम जीवों में जीन स्थानांतरण (Gene transfer) की अन्य तकनीकों पर एक नज़र डालेंगे।

डीएनए की संरचना और कार्यप्रणाली
डीएनए अणु एक घुमावदार सीढ़ी के समान दिखता है, जिसे डबल हेलिक्स (Double helix) कहा जाता है। यह अणु न्यूक्लियोटाइड (Nucleotide) नामक छोटी इकाइयों से बना होता है। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड में तीन भाग होते हैं: एक शर्करा अणु (डीऑक्सीराइबोस: Deoxyribose), एक फॉस्फेट (Phosphate) समूह, और एक नाइट्रोजन युक्त क्षार (Nitrogenous base)। डीएनए में चार प्रकार के नाइट्रोजन क्षार पाए जाते हैं: एडेनिन (Adenine) (A), ग्वानिन (Guanine) (G), थाइमिन (Thymine) (T), और साइटोसिन (Cytosine) (C)। ये क्षार एक विशिष्ट क्रम में जुड़े होते हैं, और यह क्रम आनुवंशिक गुणों के लिए कोड बनाता है, जिसे आनुवंशिक कूट (Genetic code) कहा जाता है। एडेनिन हमेशा थाइमिन के साथ जोड़ी बनाता है (A-T), और ग्वानिन हमेशा साइटोसिन के साथ (G-C), और ये जोड़े फॉस्फेट अणुओं द्वारा एक श्रृंखला में जुड़े रहते हैं, जिसे पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला (Polynucleotide chain) कहते हैं। कोशिका के केंद्रक में, डीएनए गुणसूत्रों (क्रोमोजोम: Chromosome) के रूप में व्यवस्थित होता है, जो सभी आनुवंशिक गुणों को निर्धारित और संचारित करते हैं। प्रत्येक प्रजाति में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित होती है; मनुष्यों में 23 जोड़े यानी 46 गुणसूत्र होते हैं।

डीएनए की प्रतिकृति और विभिन्नता का महत्व
जनन के समय, कोशिकाएँ जटिल रासायनिक प्रक्रियाओं का उपयोग करके डीएनए की प्रतिकृति (Replication) बनाती हैं ताकि नई कोशिकाओं में भी आनुवंशिक सामग्री समान रूप से स्थानांतरित हो सके। हालांकि यह प्रतिकृति प्रक्रिया उच्च सटीकता वाली होती है, लेकिन इसमें कभी-कभी त्रुटियां हो जाती हैं, जिन्हें उत्परिवर्तन (Mutation) कहा जाता है। इसके अलावा, लैंगिक प्रजनन में, माता और पिता दोनों के गुणसूत्रों का मिश्रण होता है, जिसके कारण संतानों में माता-पिता के समान गुण होते हुए भी कुछ भिन्नताएँ दिखाई देती हैं। यह आनुवंशिक विभिन्नता (Genetic variation) ही जीवों को बदलते हुए वातावरण के अनुकूल होने और विकास की प्रक्रिया से गुजरने में सक्षम बनाती है। यदि सभी जीव आनुवंशिक रूप से समान होते, तो किसी भी पर्यावरणीय परिवर्तन से पूरी प्रजाति के विलुप्त होने का खतरा बढ़ जाता। इस प्रकार, डीएनए में निहित प्रतिकृति (Replication) और विभिन्नता (Variation) की क्षमता जीवन की निरंतरता और विविधता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इलेक्ट्रोपोरेशन: चिकित्सा विज्ञान में क्रांति
इलेक्ट्रोपोरेशन, जिसे इलेक्ट्रोजीन ट्रांसफर (Electro Gene Transfer - EGT) भी कहा जाता है, एक आधुनिक तकनीक है जिसका उपयोग विद्युत तरंगों की मदद से आनुवंशिक सामग्री, जैसे डीएनए (DNA) या आरएनए (RNA), को कोशिकाओं में प्रवेश कराने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया में, कोशिकाओं को क्षणिक विद्युत क्षेत्र के संपर्क में लाया जाता है, जिससे उनकी कोशिका झिल्ली (Cell membrane) में अस्थायी छिद्र बन जाते हैं। इन छिद्रों के माध्यम से, डीएनए या आरएनए अणु कोशिकाओं के अंदर प्रवेश कर सकते हैं। इलेक्ट्रोपोरेशन की सफलता आनुवंशिक सामग्री के प्रकार और लक्ष्य ऊतक की विशेषताओं पर निर्भर करती है। इस तकनीक के कई फायदे हैं, जिनमें विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में आनुवंशिक सामग्री को सफलतापूर्वक स्थानांतरित करने की क्षमता, अन्य विधियों की तुलना में कम जटिलता, और लगातार व विश्वसनीय परिणाम शामिल हैं। चिकित्सा विज्ञान में, इलेक्ट्रोपोरेशन का उपयोग कैंसर के ट्यूमर में एंटी-कैंसर दवाओं को पहुंचाने, जीन थेरेपी (Gene therapy) में जीन को कोशिकाओं तक पहुंचाने और हृदय संबंधी अनियमितताओं के इलाज में किया जा रहा है। हालांकि इसके लिए विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है और उच्च वोल्टेज के उपयोग से कोशिकाओं को नुकसान पहुंचने का खतरा रहता है, लेकिन यह तकनीक चिकित्सा के भविष्य के लिए एक आशाजनक विकल्प के रूप में उभर रही है।

जीवों में जीन स्थानांतरण की अन्य तकनीकें
इलेक्ट्रोपोरेशन के अलावा, जीवों में जीन स्थानांतरित करने के लिए कई अन्य तकनीकों का उपयोग किया जाता है। रासायनिक ट्रांसफेक्शन (Chemical transfection) में, डीएनए (DNA) को सकारात्मक चार्ज वाले अणुओं के साथ मिलाया जाता है या फ्यूजोनिक कैप्सूल (Fusogenic capsule) में रखा जाता है ताकि यह नकारात्मक चार्ज वाली कोशिका झिल्ली (Cell membrane) को पार कर सके और नाभिक (Nucleus) तक पहुंच सके। कैल्शियम फॉस्फेट ट्रांसफेक्शन (Calcium phosphate transfection) में, डीएनए को कैल्शियम क्लोराइड (Calcium chloride) और फॉस्फेट (Phosphate) समाधान के मिश्रण के साथ उपचारित किया जाता है, जिससे डीएनए कोशिकाओं पर बैठ जाता है और एंडोसाइटोसिस (Endocytosis) के माध्यम से प्रवेश करता है। भौतिक ट्रांसफेक्शन (Physical transfection) में, डीएनए को सीधे कोशिका के साइटोप्लाज्म (Cytoplasm) या नाभिक में भौतिक बल का उपयोग करके पहुंचाया जाता है, जैसे कि माइक्रोपोरेशन (Microporation) या जीन गन (Gene gun)। सूक्ष्म इंजेक्शन (Microinjection) एक और विधि है जिसमें डीएनए को सीधे व्यक्तिगत कोशिकाओं, विशेष रूप से अंडों या भ्रूणों में इंजेक्ट किया जाता है। प्रत्येक तकनीक के अपने फायदे और नुकसान हैं, और उनका चुनाव विशिष्ट अनुप्रयोग और कोशिका प्रकार पर निर्भर करता है। हाल ही में, जापान के नागोया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि इलेक्ट्रिक ईल्स (Electric eels) प्राकृतिक रूप से इलेक्ट्रोपोरेशन के माध्यम से छोटी मछलियों के लार्वा में जीन स्थानांतरित कर सकते हैं, जो जीन स्थानांतरण की प्राकृतिक संभावनाओं को दर्शाता है।
लखनऊ के मूल्यवान ग्राहकों को लुभाने में क्या भूमिका निभाती हैं, विज्ञापन एजेंसियाँ ?
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
05-06-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

अपनी तहज़ीब और नवाबी अंदाज़ के लिए मशहूर "लखनऊ" आज भारत के सबसे रचनात्मक विज्ञापन केंद्रों में से एक बन गया है! आजकल बड़े शहरों में विज्ञापन केवल प्रचार का माध्यम ही नहीं रहे, बल्कि लखनऊ में तो यह स्थानीय संस्कृति, परंपराओं और लोगों की सोच को ज़ाहिर करने का दमदार ज़रिया बन गया है। लखनऊ की " ओरिजिन्स एडवरटाइजिंग प्राइवेट लिमिटेड" (Origins Advertising Pvt Ltd) जैसी कंपनियों की कामयाबी इसी बात का सबूत है!
महज़ चार लोगों की एक छोटी टीम के साथ 24 मार्च 2000 को शुरू हुई यह कंपनी, आज 150 से ज़्यादा पेशेवरों के साथ 400 करोड़ रुपये से ज़्यादा का कारोबार कर रही है। यह दिखाता है कि जब विज्ञापन हमारी भावनाओं और संस्कृति से जुड़ते हैं, तो वे सीधे दिल पर असर करते हैं।
लखनऊ की विज्ञापन एजेंसियाँ अब महज़ विज्ञापन नहीं बनातीं। वे बाज़ार की नब्ज़ पकड़ती हैं, ग्राहकों की सोच, ज़रूरतें और उम्मीदें समझती हैं। इसी समझ से जन्म लेते हैं ऐसे लाजवाब विज्ञापन जो लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं और ब्रांड और ग्राहक के बीच भरोसे का रिश्ता बनाते हैं। इसलिए आज के इस लेख में हम जानेंगे कि ये एजेंसियाँ व्यवसायों की मार्केटिंग योजनाओं को कैसे बनाती हैं, उन्हें कैसे लागू करती हैं और पूरे कैंपेन को असरदार तरीके से कैसे चलाती हैं। इसके बाद हम भारत में अलग-अलग तरह की एजेंसियों पर भी नज़र डालेंगे। साथ ही, हम ओगिल्वी इंडिया (Ogilvy India), मैककेन एरिक्सन इंडिया (McCann Erickson India) और ग्रुपएम (GroupM) जैसी देश की टॉप एजेंसियों की सफलता की कहानियाँ भी जानेंगे, जिन्होंने भारत के विज्ञापन जगत को एक नई दिशा दी है। आखिर में, हम यह भी समझेंगे कि किसी भी बिज़नेस के लिए सही विज्ञापन एजेंसी चुनते वक़्त किन बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है।
एक विज्ञापन एजेंसी करती क्या है ?
जब कोई कंपनी अपना सामान या सर्विस आम लोगों तक पहुँचाना चाहती है, तो वो एक बढ़िया विज्ञापन एजेंसी की मदद लेती है। लेकिन ये एजेंसियां केवल विज्ञापन नहीं बनाती बल्कि एक ब्रांड को बुलंदियों तक पहुँचा सकती हैं।
आइये जानते हैं कैसे:
- सबसे पहले, सही जानकारी जुटाना: कोई भी विज्ञापन बनाने से पहले, एजेंसी ये पता लगाती है कि विज्ञापन किसके लिए बन रहा है। यानी, उनके ग्राहक कौन हैं? वे कहाँ रहते हैं, उन्हें क्या पसंद है, और वे ऑनलाइन कहाँ सबसे ज़्यादा एक्टिव रहते हैं? साथ ही, मार्केट में उनके मुकाबले कौन खड़ा है? बाज़ार के ताज़ा हालात क्या हैं? और भविष्य में क्या चीज़ें बदल सकती हैं? इन सभी सवालों की गहराई से पड़ताल की जाती है। यही सारी जानकारी आगे चलकर विज्ञापन का पूरा प्लान बनाने में मदद करती है।
- सोशल मीडिया का इस्तेमाल: आज का ज़माना सोशल मीडिया का है। लोग फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स पर काफ़ी समय बिताते हैं। इसलिए, विज्ञापन एजेंसी अपने क्लाइंट के सोशल मीडिया अकाउंट्स को भी संभालती है। वे तय करते हैं कि कब और किस तरह की पोस्ट डाली जाए, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग उसे देखें और ब्रांड से जुड़ें।
- क्लाइंट्स से रिश्ते बनाना और निभाना: एजेंसी के लिए नए क्लाइंट्स लाना और पुराने क्लाइंट्स के साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखना बहुत ज़रूरी है। आख़िरकार, सारा काम क्लाइंट्स पर ही टिका होता है। इसलिए, एजेंसी अपनी स्किल और अनुभव से क्लाइंट्स का भरोसा जीतती है और उन्हें यकीन दिलाती है कि उनका ब्रांड सही हाथों में है।
- सबका ध्यान खींचने वाला जनसंपर्क (PR): अच्छा पब्लिक रिलेशन (PR) भी एक अहम ज़िम्मेदारी है। इसका मुख्य काम कंपनी या ब्रांड की एक अच्छी और भरोसेमंद पहचान बनाना होता है। जब लोग किसी ब्रांड के बारे में अच्छा सुनते हैं, तो उसे ज़्यादा पसंद करते हैं और उस पर भरोसा भी करते हैं। एक विज्ञापन एजेंसी इसी भरोसे को बनाने और बनाए रखने में माहिर होती है।
- पूरी प्लानिंग के साथ आगे बढ़ना: एक सफल विज्ञापन बिना सोची-समझी योजना के नहीं बनता। एजेंसी ये तय करती है कि कौन-सा विज्ञापन कहाँ और कैसे दिखाया जाएगा। वे देखती हैं कि कौन-सा टीवी चैनल, अख़बार या सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स उनके क्लाइंट के लिए सबसे सही रहेगा। पहले जुटाई गई जानकारी के आधार पर एजेंसी पूरी रणनीति बनाती है, ताकि विज्ञापन सही लोगों तक पहुँचे और अपना असर दिखाए।
विज्ञापन एजेंसियां कई प्रकार की होती हैं, आइए अब कुछ खास तरह की एजेंसियों के बारे में जानते हैं:
- 1. फ़ुल -सर्विस एजेंसियां (Full Service Agencies): ये आमतौर पर सबसे बड़ी और सबसे अनुभवी एड एजेंसियां होती हैं। जैसा कि इनके नाम से ही पता चलता है, ये विज्ञापन से जुड़ा सारा काम संभाल लेती हैं। इनके पास हर काम के माहिर लोग होते हैं! रिसर्च करने वाले, रचनात्मक विचार सोचने वाले, और मीडिया में ऐड लगाने वाले, सबकी अपनी-अपनी टीमें होती हैं। इनका काम डेटा जुटाने से लेकर बिलिंग तक सब कुछ कवर करता है। ये भले ही एक बड़ा और उलझा हुआ काम हो, पर ये एजेंसियां इसे बड़े आराम से मैनेज कर लेती हैं।
- 2. इंटरैक्टिव एजेंसियां (Interactive Agencies) : डिजिटल दुनिया ने विज्ञापन के तरीके पूरी तरह से बदल दिए हैं! इंटरैक्टिव एजेंसियां इसी नई लहर पर सवार हैं। ये ऑनलाइन ऐड्स, मोबाइल मेसेजिंग जैसे नए ज़माने की तकनीक इस्तेमाल करती हैं! ये ऐसे दिलचस्प विज्ञापन बनाती हैं जो लोगों को न सिर्फ़ खींचे, बल्कि उनसे कनेक्ट भी करें। ये नए विचार लाने और उन्हें असरदार ढंग से लोगों तक पहुँचाने में एक्सपर्ट होती हैं।
- 3. क्रिएटिव बुटीक (Creative Boutique): इनका सारा ज़ोर सिर्फ़ और सिर्फ़ विज्ञापन बनाने की कला पर होता है। इनका एक ही मकसद होता है - "ऐसे विज्ञापन तैयार करना जो एकदम हटके, रचनात्मक और नए हों।" इनमें आमतौर पर छोटी टीमें होती हैं, जिनमें बेहतरीन कॉपीराइटर, डायरेक्टर और दूसरे रचनात्मक दिमाग वाले लोग शामिल होते हैं। ये बस कमाल के विज्ञापन बनाने पर ही अपना पूरा ध्यान लगाते हैं और इसमें अपना सब कुछ झोंक देते हैं।
- 4. मीडिया बाइंग एजेंसियां (Media Buying Agencies): इन एजेंसियों का मुख्य काम होता है:- "विज्ञापन दिखाने के लिए सही जगह (मीडिया स्पेस) खरीदना।" ये तय करती हैं कि ऐड कहाँ (जैसे टीवी चैनल, रेडियो स्टेशन) और कितनी देर के लिए दिखेगा। ये मीडिया स्लॉट्स बुक करती हैं और पक्का करती हैं कि विज्ञापन सही वक़्त और सही जगह पर चले, ताकि वो ठीक लोगों तक पहुँच सके।
- 5. इन-हाउस एजेंसियां (In-House Agencies) : जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, ये ऐसी विज्ञापन एजेंसियां होती हैं जिन्हें कुछ बड़ी कंपनियां खुद ही चलाती हैं। ये सिर्फ़ अपनी ही कंपनी के लिए काम करती हैं। क्योंकि ये कंपनी का ही हिस्सा होती हैं, इसलिए ये कंपनी की सोच, कल्चर और ज़रूरतों को किसी भी बाहरी एजेंसी से बेहतर समझती हैं और उसी हिसाब से काम करती हैं।
इसलिए, अपनी कंपनी के लिए सही तरह की विज्ञापन एजेंसी चुनना बहुत अहम् होता है।
अगर आप भी एक अच्छी एजेंसी ढूंढ रहे हैं, तो इन पाँच ज़रूरी बातों पर गौर ज़रूर करें:
- उनका पिछला काम परखें: किसी भी एजेंसी को फ़ाइनल करने से पहले, उनका पोर्टफ़ोलियो देखना बेहद ज़रूरी है। इससे आपको उनकी काबिलियत, क्लाइंट लिस्ट और काम करने के अंदाज़ का पता चलेगा, क्या वे आपकी सोच से मेल खाते हैं? उनका काम देखकर ही आप समझ पाएँगे कि वे आपके लिए सही फिट हैं या नहीं।
- टीम को पहचानें: पता करें कि एजेंसी में काम करने वाले लोग कितने अनुभवी हैं और उन्होंने पहले कैसे प्रोजेक्ट्स संभाले हैं। याद रखें, आप अपनी कंपनी की साख और पैसा उनके हाथों में दे रहे हैं। इसलिए, यह जानना अहम है कि आपकी कंपनी की तरक्की के लिए वहाँ कितने हुनरमंद लोग मौजूद हैं।
- बजट पर पैनी नज़र रखें: मार्केटिंग में पैसों का सही तालमेल बहुत मायने रखता है। अपने बजट और एजेंसी की फीस की तुलना करें। पहले से तय कर लें कि आप कितना खर्च करने को तैयार हैं और यह भी समझें कि आपके निवेश पर आपको कितना फायदा मिलने की उम्मीद है। सोच-समझकर ही फ़ैसला लें।
- सेवाओं की पूरी जानकारी लें: आदर्श रूप से एजेंसी को आपकी सारी विज्ञापन संबंधी ज़रूरतें पूरी करनी चाहिए। जैसा कि हमने जाना, बाज़ार में अलग-अलग तरह की एजेंसियां हैं। इसलिए पहले अपनी ज़रूरतों को समझें, फिर उसी के मुताबिक सही आकार (छोटी, मध्यम या बड़ी) की एजेंसी चुनें।
- नज़दीकी लोकेशन भी फ़ायदेमंद है: हो सके तो ऐसी एजेंसी चुनें जो आपके ऑफ़िस के पास हो। पास होने से मिलना-जुलना, बातचीत करना, फॉलो-अप लेना और काम पर नज़र रखना आसान हो जाता है। साथ ही, नज़दीकी से एजेंसी का आपकी कंपनी के साथ जुड़ाव भी बेहतर महसूस होता है।
इन बातों का ध्यान रखकर आप अपनी कंपनी के लिए वह सही विज्ञापन एजेंसी चुन पाएँगे, जो आपके बिज़नेस को आगे बढ़ाने में सच्ची साथी बनेगी।
आइए, भारत की कुछ सबसे जानी-मानी एडवरटाइजिंग कंपनियों पर एक नज़र डालते हैं:
- ओग्लिवी इंडिया (Ogilvy India): जब बात नए और अनोखे विज्ञापनों की होती है, तो ओग्लिवी इंडिया का नाम सबसे पहले आता है। ये न सिर्फ़ मज़बूत रणनीतियाँ बनाती है, बल्कि डिजिटल दुनिया में भी अपने असरदार विज्ञापनों से छाई रहती है। अपने विज्ञापनों को और ज़्यादा लुभावना बनाने के लिए ये आँकड़ों का भी बखूबी इस्तेमाल करते हैं। ये हमेशा बाज़ार की नब्ज़ टटोलते रहते हैं और समझते हैं कि लोग क्या देखना चाहते हैं, ताकि इनके विज्ञापन हमेशा ताज़गी भरे और दिलचस्प लगें।
- इनके कुछ क्लाइंट्स: आई बी एम (IBM), डव (Dove), नैस्कार (NASCAR), कैडबरी (Cadbury), नेशनवाइड टिफ़नी एंड कंपनी (Nationwide Tiffany & Co.), सेवलॉन (Savlon), अमेरिकन एक्सप्रेस (American Express), आइकिया (IKEA), यू पी एस (UPS), फ़िलिप्स (Philips), कोक ज़ीरो (Coke Zero)।
- मैककैन एरिक्सन इंडिया (McCann Erickson India): मैककैन एरिक्सन इंडिया सीधे लोगों के दिलों में उतरने वाले विज्ञापन बनांते हैं। इसके लिए ये बाज़ार को गहराई से समझते हैं और ग्राहकों की सोच को पकड़ते हैं। ब्रांड को एक अलग पहचान देना, असरदार डिजिटल मार्केटिंग करना और विज्ञापन के लिए सही मीडिया चुनना इनकी ताक़त है। ये सुनिश्चित करते हैं कि इनका हर कैंपेन न सिर्फ़ असरदार हो, बल्कि पूरी तरह कामयाब भी हो।
- इनके कुछ क्लाइंट्स: एयर इंडिया (Air India), ज्ञान डायरी (Gyan Dairy), माइक्रोसॉफ़्ट (Microsoft), लोरियाल ( L'Oréal ), कोका-कोला (Coca-Cola), मेबेलिन (Maybelline), स्प्राइट (Sprite), मास्टर कार्ड (Master Card), और कई अन्य।
- मुलेन लो लिंटास ग्रुप (MullenLowe Lintas Group): यह ग्रुप इस बात पर ज़ोर देता है कि ग्राहकों का व्यवहार कैसा है और बाज़ार किस तरफ़ जा रहा है। इसी गहरी समझ के साथ ये ऐसे विज्ञापन बनाते हैं जो टीवी, प्रिंट और ऑनलाइन, हर जगह अपना असर दिखाते हैं। ये सिर्फ़ विज्ञापन बनाते ही नहीं, बल्कि उनकी पूरी प्लानिंग से लेकर उन्हें सही तरीके से लागू करने तक की ज़िम्मेदारी उठाते हैं। ये पक्का करते हैं कि विज्ञापन सही प्लैटफ़ॉर्म पर दिखें और बिल्कुल सही लोगों तक पहुँचें।
- इनके कुछ क्लाइंट्स: एक्सिस बैंक (Axis Bank), बजाज (Bajaj), ब्रिटानिया (Britannia), हिंदुस्तान यूनिलीवर (Hindustan Unilever), हैवेल्स (Havells), जॉनसन बेबी (Johnson Baby), मारुति सुजुकी (Maruti Suzuki), माइक्रोमैक्स (Micromax), टाटा टी (Tata Tea) आदि।
- ग्रुप एम मीडिया इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (GroupM Media India Pvt. Ltd.): ग्रुप एम मीडिया इंडिया विज्ञापन जगत का एक जाना-माना पावरहाउस है, जिसके बैनर तले माइंडशेयर (Mindshare), मीडियाकॉम (MediaCom), वेवमेकर (Wavemaker) और एसेंस (Essence) जैसी दुनिया की टॉप मीडिया एजेंसियाँ आती हैं। भारत में विज्ञापन से जुड़ी हर ज़रूरत को पूरा करने वाली ये एक बेहतरीन कंपनी है। सालों के अनुभव और ढेरों सफलताओं के दम पर, ये भारत में विज्ञापन के लिए एक शानदार विकल्प बन गए हैं।
- इनके कुछ क्लाइंट्स: गूगल (Google), फ़ोर्ड (Ford), नेस्ले (Nestlé), कोका-कोला (Coca-Cola), यूनिलीवर (Unilever) और भी बहुत।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : प्रारंग चित्र संग्रह
चलिए जानते हैं, तकनीकी नवाचार, लखनऊ व उत्तर प्रदेश के पशुधन क्षेत्र को कैसे बदल रहे हैं
स्तनधारी
Mammals
04-06-2025 09:25 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ वासियों, क्या आप जानते हैं कि, हमारे देश में दुनिया की सबसे बड़ी पशुधन (livestock) आबादी है। 2019 में की गई बीसवीं पशुधन गणना के अनुसार, भारत में कुल 535.78 मिलियन पालतू जानवर हैं। 2012 की पशुधन गणना की तुलना में, यह 4.6% की वृद्धि है। इसके अलावा, इसी गणना के अनुसार भारत की कुल गोजातीय आबादी (मवेशी, भैंस, मिथुन और याक), 302.79 मिलियन थी। उस समय के दौरान, हमारे लखनऊ ज़िले में कुल 280140 गायें और 274625 भैंसें थीं। यह कहते हुए जान लें कि, “मवेशी” (cattle) शब्द, विशेष रूप से पालतू गोजातीय जानवरों (जैसे कि, गाय और बैल) को संदर्भित करता है। जबकि “पशुधन” एक व्यापक शब्द है, जो मवेशियों सहित, भेड़, बकरियां, सूअर, घोड़े और पोल्ट्री, आदि सभी पालतू जानवरों को संदर्भित करता है। इसलिए आज, आइए उत्तर प्रदेश में मवेशियों की वर्तमान स्थिति के बारे में कुछ महत्वपूर्ण विवरण देखें। फिर, हम भारत के पशुधन क्षेत्र के व्यापक आर्थिक महत्व पर प्रकाश डालेंगे, और जानेंगे कि यह देश में लाखों लोगों की आजीविका का समर्थन कैसे करता है। उसके बाद, हम 2019 में हुई भारत की बीसवीं पशुधन गणना (20th Livestock Census) के अनुसार, लखनऊ ज़िले में पशुधन आबादी पर नज़र डालेंगे। अंत में, हम जांच करेंगे कि, कैसे तकनीकी नवाचार एवं प्रौद्योगिकियां, भारत के पशुधन क्षेत्र के भविष्य को बदल रही हैं।
हमारे राज्य उत्तर प्रदेश में मवेशियों की वर्तमान स्थिति:
बीसवीं पशुधन गणना, 2019 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 1.90 करोड़ से अधिक मवेशी हैं, जिनमें 62,04,304 दुधारू गायें और 23,36,151 आम गायें शामिल हैं। 2012 में हुई पिछली गणना की तुलना में, 2019 में स्वदेशी मादा मवेशियों की आबादी में 10% की वृद्धि हुई। एक तरफ़, विदेशी और संकर मवेशियों की आबादी, 2012 से 2019 तक 26.9% बढ़ गई।
भारत के पशुधन क्षेत्र के आर्थिक महत्व की खोज:
पशुधन, भारतीय अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लगभग 20.5 मिलियन भारतीय लोग अपनी आजीविका के लिए पशुधन पर निर्भर हैं। सभी छोटे किसान घरों की आय में, पशुधन ने 16% का योगदान दिया हैं। यह क्षेत्र दो-तिहाई ग्रामीण समुदाय को आजीविका प्रदान करता है, इस प्रकार, यह भारत में लगभग 8.8% आबादी को रोज़गार प्रदान करता है।
राष्ट्रीय आय, खपत व्यय और राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के 2021-22 के लिए, पूंजी निर्माण के पहले संशोधित अनुमान के अनुसार, पशुधन क्षेत्र का सकल मूल्य लगभग 12,27,766 करोड़ रुपए था। पशुधन क्षेत्र का स्थिर कीमतों पर सकल मूल्य, वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान, लगभग 6,54,937 करोड़ रुपए था, जो ‘कृषि और संबद्ध क्षेत्र सकल मूल्य’ का लगभग 30.47% है।
बीसवीं पशुधन गणना के आधार पर, हमारे लखनऊ ज़िले में पशुधन आबादी:
श्रेणी | आबादी |
संकर गाय | 41682 |
स्वदेशी गाय | 238458 |
कुल गाय | 280140 |
भैंस | 274625 |
बकरी | 182769 |
भेड़ | 1878 |
सूअर | 25697 |
खरगोश | 1416 |
मुर्गी | 25745 |
बत्तख | 18162 |
अन्य | 2190 |
तकनीकी नवाचार भारत के पशुधन क्षेत्र को कैसे बढ़ावा दे सकते हैं?
•सटीक पशुधन खेती (Precision Livestock Farming):
सटीक पशुधन खेती, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (Artificial intelligence), इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (Internet of Things) और डेटा एनालिटिक्स (Data analytics) जैसी अत्याधुनिक तकनीकों को एकीकृत करके, इस क्षेत्र का रूप बदल रहा है।
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर आधारित एल्गोरिदमों और इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स उपकरणों का उपयोग, अब वास्तविक समय में पालतू जानवरों के स्वास्थ्य की निगरानी के लिए किया जा रहा है। पशुधन कृषि में प्रयुक्त किए गए सेंसर (Sensor), जानवरों की हृदय गति, शरीर के तापमान और गतिविधि के स्तर, जैसे महत्वपूर्ण संकेतों को ट्रैक कर सकते हैं। यह डेटा, मशीन लर्निंग एल्गोरिदमों (Machine learning algorithms) का उपयोग करके संसाधित किया जाता है, जिससे रोगों का उनके प्रारंभिक चरण में ही पता लगाने और खाद्य प्रथाओं के अनुकूलन की अनुमति मिलती है। उदाहरण के लिए, डेयरी कृषि में इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स उपकरण, जानवरों द्वारा दूध देने की प्रक्रिया को ट्रैक कर सकते हैं, और दूध की उपज की निगरानी कर सकते हैं। जबकि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तंत्र, दुग्दपान पैटर्न की निगरानी करते हैं, जिससे दूध उत्पादन की समग्र दक्षता में सुधार होता है।
•जीनोमिक प्रौद्योगिकी (Genomic Technologies):
आई वी एफ़ या इन-विट्रो फ़र्टिलाइज़ेशन (In-Vitro Fertilisation) और भ्रूण स्थानांतरण (Embryo transfer) जैसी उन्नत प्रजनन प्रौद्योगिकियां भी, भारत में प्रमुखता प्राप्त कर रही हैं। ये तकनीक बेहतर आनुवंशिक लक्षणों के चयन की अनुमति देती हैं, जिससे पशुधन की समग्र गुणवत्ता में सुधार होता है। भारत सरकार द्वारा जारी किए गए, ‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’ (Rashtriya Gokul Mission) ने मवेशियों में कृत्रिम गर्भाधान, आई वी एफ़ और भ्रूण स्थानांतरण को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे दूध उत्पादन और पशु समूह की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। इसके अतिरिक्त, उभरती हुई जीन संपादन प्रौद्योगिकियां (Gene editing technologies), रोग प्रतिरोध और उत्पादकता में सुधार करके, पशुपालन क्षेत्र में क्रांति लाने का वादा करती हैं। हालांकि, सी आर आई एस पी आर (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats (CRISPR)) जैसी ये तकनीकें, अभी भी उनके शुरुआती चरणों में हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
पौधों पर आधारित मांस के साथ बदल रहा है लखनऊ का ज़ायका, जानिए इस चलन के पीछे की खास वजहें
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
03-06-2025 09:25 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ अपने स्वादिष्ट अवधी खाने के लिए बहुत मशहूर है। यहाँ कबाब, बिरयानी और तरह-तरह की मटन या चिकन की डिशें बहुत पसंद की जाती हैं। ये नॉन-वेज खाना लखनऊ की परंपरा और स्वाद को दिखाते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आ रहा है। लेकिन क्या आपने कभी पौधों पर आधारित मांस या “प्लांट-बेस्ड मीट (plant based meat)” के बारे में सुना है? इसे मांस का विकल्प या नकली मांस भी कहा जाता है। यह ऐसा खाना होता है जो दिखने, चखने और खाने में मांस जैसा लगता है, लेकिन इसमें कोई जानवर नहीं होता। इसे सोया, गेहूँ, मसूर या मटर जैसे शाकाहारी चीज़ों से बनाया जाता है।
भारत में यह नया तरह का खाना अब धीरे-धीरे मशहूर हो रहा है। साल 2024 में भारत में इसका बाज़ार 98.6 मिलियन अमेरिकी डॉलर का था, और 2033 तक यह 737.9 मिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है। इसमें हर साल 22.3% की बढ़ोतरी हो रही है। भारत में इसे बनाने वाली कुछ बड़ी कंपनियाँ हैं – गुडडॉट (GoodDot), इमैजिन मीट्स (Imagine Meats) और ब्लू ट्राइब फ़ूड्स (Blue Tribe Foods)। तो चलिए आज हम समझते हैं कि यह प्लांट-बेस्ड मीट क्या होता है, इसमें क्या-क्या चीज़ें डाली जाती हैं और यह स्वाद में कैसा लगता है। फिर हम जानेंगे कि इसे भारत में कैसे बनाया जाता है। उसके बाद हम यह भी देखेंगे कि आजकल भारत में लोग असली मांस छोड़कर इस तरह के नकली मांस की ओर क्यों जा रहे हैं। आख़िर में, हम जानेंगे कि क्या प्लांट-बेस्ड मीट असली मांस से ज़्यादा हेल्दी होता है? और रिसर्च इस बारे में क्या कहती है।
प्लांट-बेस्ड मीट से जुड़ी कुछ अहम बातें:
सामग्री: प्लांट-बेस्ड मीट में असली मांस जैसा स्वाद और टेक्सचर लाने के लिए अक्सर सोया प्रोटीन और मटर प्रोटीन का इस्तेमाल किया जाता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ कंपनियाँ, जैसे ‘इम्पॉसिबल फ़ूड्स (Impossible Foods)’, ऐसे सोया का इस्तेमाल करती हैं जो जीएमओ (GMO) होता है यानी जिसे वैज्ञानिक तरीक़े से बदला गया होता है। इसके अलावा, इस तरह के मांस को बनाने में दालें, टेम्पे (एक तरह का फर्मेंटेड सोया प्रोडक्ट), टोफ़ू (Tofu), मसूर(lentils), कटहल (jackfruit), चना (chickpeas), क्विनोआ (Quinoa) और कई रंग-बिरंगी सब्जियाँ भी मिलाई जाती हैं।
स्वाद: इस मांस का स्वाद ज़्यादातर उसमें मौजूद तेलों की चिकनाई और मसालों से आता है। इसमें अलग-अलग तरह के मसाले, नेचुरल फ्लेवर (Natural Flavour) और ख़मीर (Yeast Extract) डाले जाते हैं ताकि इसका स्वाद असली मांस जैसा लगे।
बनावट: मांस का इस विकल्प की सबसे ख़ास बात इसकी बनावट होता है, जो असली मांस की तरह नरम और रेशेदार होता है। यह एक ख़ास तकनीक से तैयार किया जाता है जिसे “एक्सट्रूज़न प्रोसेस (extrusion process)” कहते हैं। कुछ कंपनियाँ इसमें और नमी जोड़ती हैं ताकि मांस और भी असली जैसा लगे।
दिखने में कैसा लगता है: सही सामग्री और बनाने के तरीक़ों की मदद से ये दिखने में भी असली मांस जैसा लगता है। इसकी शक्ल को बेहतर दिखाने के लिए कई बार नर्म चर्बी को एक मशीन के ज़रिए अंदर डाला जाता है। कुछ ब्रांड ऐसे जूस या लिक्विड का इस्तेमाल करते हैं जिससे यह लाल और ताज़ा मांस जैसा दिखे।
भारत में पौधों पर आधारित मांस कैसे बनाया जाता है ?
भारत में बिना जानवरों के बने मांस जैसे उत्पाद ( Vegetarian Meat) बनाने के लिए सबसे पहले ऐसे अनाज उगाए जाते हैं जो इसमें काम आते हैं, जैसे सोयाबीन और गेहूं। जब ये फसलें तैयार हो जाती हैं, तब उन्हें मशीनों और रासायनिक तरीक़ों से प्रोसेस किया जाता है। इस प्रक्रिया में फ़सल के सिर्फ़ ज़रूरी हिस्से, जैसे प्रोटीन, फैट और फ़ाइबर को निकाला जाता है और बाक़ी के अनचाहे हिस्सों को हटा दिया जाता है। इसके बाद इन ज़रूरी हिस्सों को मिलाकर एक ऐसा मिश्रण तैयार किया जाता है, जिसमें मांस जैसी खुशबू और स्वाद मिलाए जाते हैं। फिर अलग-अलग तकनीकों से इस मिश्रण को इस तरह प्रोसेस किया जाता है कि उसका रेशा (Fibre) असली मांस जैसा महसूस हो।
इस रेशेदार बनावट को तैयार करने के दो तरीके होते हैं — टॉप-डाउन (Top-down) तकनीक और बॉटम-अप (Bottom-up) तकनीक।
टॉप-डाउन में एक्सट्रूज़न नाम की एक मशीन से सामग्री को दबाकर उसमें रेशे बनाए जाते हैं। जबकि बॉटम-अप तकनीक में छोटे-छोटे रेशे पहले तैयार किए जाते हैं और फिर उन्हें जोड़कर मांस जैसा बड़ा टुकड़ा बनाया जाता है। इसे ही कभी-कभी ‘कल्चर्ड मीट (Cultured Meat)’ भी कहा जाता है।
जब बनावट तैयार हो जाती है, तब उसमें अलग-अलग रासायनिक प्रक्रियाएँ की जाती हैं, जैसे मैलार्ड रिएक्शन (mallard reaction), लिपिड ऑक्सिडेशन (lipid oxidation), और थायमिन ब्रेकडाउन (thiamine breakdown)। इन प्रक्रियाओं से मांस जैसी खुशबू आती है। इसके साथ ही यीस्ट एक्स्ट्रैक्ट , खमीर वाली चीज़ें (जैसे अचार या फर्मेंटेड फूड), और हाइड्रोलाइज़्ड वेजिटेबल प्रोटीन (hydrolyzed vegetable proteins) जैसी चीज़ों का इस्तेमाल भी किया जाता है, जिससे इसका स्वाद और सुगंध और ज़्यादा असली मांस जैसा लगता है।
भारत में लोग पौधों पर आधारित मांस की तरफ़ क्यों बढ़ रहे हैं ?
भारत में ज़्यादातर लोग शाकाहारी होते हैं। यहाँ पर लोग धार्मिक कारणों से मांस नहीं खाते, इसलिए सब्ज़ियों से बना खाना मांस से ज़्यादा बिकता है। अब बाजार में ऐसे मांस जैसे प्रोडक्ट भी मिलने लगे हैं, जो पौधों से बनाए जाते हैं और जिन्हें शाकाहारी लोग भी खा सकते हैं। यह उन लोगों के लिए अच्छा विकल्प है जो स्वाद के लिए मांस खाना चाहते हैं, लेकिन अपने धर्म की वजह से असली मांस नहीं खा पाते।
अब भारत में ज़्यादा लोग सेहतमंद, पर्यावरण के लिए अच्छे और जानवरों को नुकसान न पहुँचाने वाले विकल्प ढूंढ रहे हैं। यही वजह है कि लोग पौधों पर आधारित मांस में ज़्यादा रुचि दिखा रहे हैं।
मांस से भोजन बनाने से पर्यावरण पर भी बुरा असर पड़ता है, ख़ासकर लाल मांस (Red Meat) से। जैसे-जैसे लोग इसके बारे में जानने लगे हैं, वे मांस खाना कम कर रहे हैं या पूरी तरह से बंद कर रहे हैं।
इस बदलते रुझान को देखते हुए कई कंपनियाँ अब ऐसे प्लांट-बेस्ड प्रोडक्ट बना रही हैं जो असली मांस की तरह दिखते हैं, वैसा ही स्वाद और पोषण भी देते हैं।
क्या पौधों पर आधारित मांस, असली मांस से ज़्यादा सेहतमंद होता है ?
आम तौर पर देखा जाए तो हाँ, प्लांट-बेस्ड मीट ज़्यादा सेहतमंद माना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसमें सब्ज़ियाँ और तरह-तरह के पौधों से मिले प्रोटीन होते हैं। इसमें असली मांस की तरह ज़्यादा संतृप्त वसा (saturated fat) नहीं होती, और कई बार इसमें कैलोरी भी कम होती है। इसके साथ ही, इसमें रेशे यानी फ़ाइबर भी ज़्यादा होते हैं, जो हमारे पाचन के लिए अच्छे माने जाते हैं।
कुछ प्लांट-बेस्ड मीट में तो असली मांस से भी ज़्यादा प्रोटीन होता है। इससे लोगों को दिन भर में ज़रूरी प्रोटीन मिल पाता है और भूख भी देर से लगती है। लेकिन एक बात ध्यान रखने वाली है — असली मांस में कुछ ज़रूरी अमीनो एसिड (Amino Acid) होते हैं, जो हर प्लांट-बेस्ड मीट में नहीं मिलते। इसलिए कोशिश करनी चाहिए कि ऐसे प्रोडक्ट चुने जाएँ जो “पूरा प्रोटीन” (complete protein) देते हों, जैसे कि सोयाबीन या क्विनोआ।
एक और बात — कई बार कंपनियाँ इन प्लांट-बेस्ड मीट को ज़्यादा समय तक अच्छा बनाए रखने और स्वाद बेहतर करने के लिए बहुत प्रोसेस कर देती हैं। इस वजह से, जो लोग बिल्कुल प्राकृतिक (whole food) खाना पसंद करते हैं, उनके लिए ये प्रोडक्ट सबसे शुद्ध विकल्प नहीं माने जाते।
संदर्भ
मुख्य चित्र में एक वनस्पति-आधारित पोर्क की बनावट का प्रदर्शन कर रहे व्यक्ति का स्रोत : Wikimedia
लखनऊ सहित भारत में 3698 केंद्रीय ऐतिहासिक स्थलों का संरक्षण करता है ए एस आई
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
02-06-2025 09:24 AM
Lucknow-Hindi

अपनी नवाबी विरासत के लिए प्रसिद्ध हमारा शहर लखनऊ, बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा और रूमी दरवाज़ा जैसे ऐतिहासिक स्मारकों का घर है, जो इसकी समृद्ध मुगल-अवधी वास्तुकला और जीवंत सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं। लखनऊ के इन ऐतिहासिक स्थलों के साथ-साथ, देश के अन्य प्राचीन स्मारकों एवं पुरातात्विक स्थलों सहित देश की सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा तथा संरक्षण और भारत में पुरातात्विक अनुसंधान का कार्य और ज़िम्मेदारी, संस्कृति मंत्रालय (Ministry of Culture) के अधीन 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India (ASI))' की है। यह संस्थान बहुआयामी दृष्टिकोण के माध्यम से भारत में स्मारकों का संरक्षण करता है, जिसमें संरचनात्मक मरम्मत, वैज्ञानिक अध्ययन, कानूनी सुरक्षा और अन्य एजेंसियों के साथ सहयोग शामिल है, जो सभी 'प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958' (Ancient Monuments and Archaeological Sites and Remains Act (AMASR)) द्वारा निर्देशित हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकार क्षेत्र के तहत देश में 3698 केंद्रीय संरक्षित स्मारक/स्थल आते हैं। तो आइए, आज ए एम ए एस आर अधिनियम, 1958 के बारे में विस्तार से जानते हुए, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कार्यों पर प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम ए एस आई द्वारा प्रबंधित कुछ सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों जैसे सांची स्तूप, एलोरा गुफ़ाएं और कुतुब मीनार के बारे में जानेंगे। इसके अलावा, हम अपने ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण के लिए भारत के बजट और भारत के विश्व धरोहर स्थलों पर खर्च के बारे में चर्चा करेंगे। अंत में, हम भारत के ऐतिहासिक स्मारकों के संरक्षण के लिए ए एस आई द्वारा उपयोग की जाने वाली कुछ महत्वपूर्ण विधियों और तकनीकों की जांच करेंगे।
प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम या ए एम ए एस आर अधिनियम भारतीय संसद द्वारा 1958 में पारित एक अधिनियम है जो राष्ट्रीय महत्व के प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्मारकों और पुरातात्विक स्थलों तथा अवशेषों के संरक्षण, पुरातात्विक उत्खनन के विनियमन और मूर्तियों, नक्काशी और अन्य समान वस्तुओं की सुरक्षा का प्रावधान करता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत कार्य करता है। इस नियम के अनुसार, किसी ऐतिहासिक स्मारक के 100 मीटर के दायरे का क्षेत्र निषिद्ध क्षेत्र है। इसके अलावा, उस स्मारक के 200 मीटर के भीतर का क्षेत्र एक विनियमित क्षेत्र है। इस क्षेत्र में किसी भी इमारत की मरम्मत या संशोधन के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कार्य:
- नियमित रूप से पुरातत्व अन्वेषण और उत्खनन का संचालन।
- पुरालेख अनुसंधान, साइट संग्रहालयों की स्थापना और पुनर्गठन एवं पुरातत्व में प्रशिक्षण का विकास कार्य।
- स्मारकों के साथ एकीकरण कर सांस्कृतिक एवं पर्यावरण-पर्यटन का विकास।
- विश्व धरोहर स्थलों (World Heritage Sites) और पुरावशेषों सहित केंद्रीय संरक्षित स्मारकों का संरक्षण और पर्यावरणीय विकास।
- पुरातत्व के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान एवं प्रशिक्षण का संचालन।
- केंद्रीय संरक्षित स्मारकों और स्थलों के आसपास उद्यानों का रखरखाव और नए उद्यानों का विकास।
- पुरावशेष और कला खज़ाना अधिनियम (1972) का कार्यान्वयन।
- देश में सभी पुरातात्विक गतिविधियों को प्राचीन प्रावधानों के अनुसार विनियमित करना।
ए एस आई द्वारा प्रबंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल:
ए एस आई भारत भर में कई पुरातात्विक स्थलों का प्रबंधन करता है। यहां भारत में सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों की सूची दी गई है:
पुरातात्विक स्थल | स्थान | महत्व | खोज का वर्ष | युग | यूनेस्को विश्व धरोहर |
सांची स्तूप | मध्य प्रदेश | सम्राट अशोक द्वारा निर्मित प्रतिष्ठित बौद्ध स्तूप, जो बौद्ध शिक्षाओं का प्रतीक है। | 1818 | तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व | 1989
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एलोरा गुफ़ाएं | महाराष्ट्र | हिंदू, बौद्ध और जैन वास्तुकला वाली रॉक-कट गुफ़ाएं; कैलाश मंदिर का घर। | 1819
| 600-1000 ईसवी | 1983 |
अजंता गुफ़ाएं | महाराष्ट्र | बौद्ध गुफ़ाएं, जो उत्कृष्ट भित्तिचित्रों और मूर्तियों के साथ, प्राचीन भारतीय कला का प्रतिनिधित्व करती हैं। | 1819 | दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व-480 ईसवी | 1983
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हम्पी | कर्नाटक | विजयनगर साम्राज्य की राजधानी, द्रविड़ वास्तुकला और भव्य मंदिरों के लिए प्रसिद्ध। | 1800 | 14वीं-16वीं शताब्दी ईसवी | 1986
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खजुराहो के मंदिर | मध्य प्रदेश | हिंदू और जैन मंदिरों पर जटिल नक्काशी और प्रतीकात्मक मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध। | 1838 | 950-1050 ईसवी | 1986
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नालंदा विश्वविद्यालय | बिहार | दुनिया का सबसे पुराना विश्वविद्यालय; शिक्षा और बौद्ध धर्म के लिए केंद्र। | 1915 | 5वीं-12वीं शताब्दी | 2016
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कोणार्क सूर्य मंदिर | ओडिशा | जटिल नक्काशी और पहियों के साथ एक रथ के आकार का मंदिर, जो सूर्य देवता को समर्पित है। | 19वीं सदी की शुरुआत | 13वीं शताब्दी | 1984 |
राखीगढ़ी | हरियाणा | सिंधु घाटी शहरीकरण और प्रथाओं को प्रदर्शित करने वाला भारत में सबसे बड़ा हड़प्पा स्थल । | 1960 | 2600-1900 ईसा पूर्व | अभी तक नहीं
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महान जीवित चोल मंदिर | द्रविड़ वास्तुकला और चोल सांस्कृतिक उपलब्धियों के प्रतीक | प्रारंभिक 20वीं शताब्दी | 10वीं-12वीं शताब्दी | 1987
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कुतुब मीनार | दिल्ली | दुनिया की सबसे ऊंची ईंट की मीनार, जो इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का प्रतिनिधित्व करती है। | 1871-72 | प्रारंभिक 13वीं शताब्दी | 1993
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ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण के लिए भारत का बजट:
वित्तीय वर्ष 2023-2024 के लिए, भारत सरकार द्वारा ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण के लिए संस्कृति मंत्रालय को ₹1102.83 करोड़ आवंटित किए गए। इस बजट में संरचनात्मक बहाली, पर्यावरण उन्नयन और आगंतुक सुविधा संवर्द्धन सहित विभिन्न गतिविधियाँ शामिल थे। हालाँकि, यह आवंटन सभी साइटों को पर्याप्त रूप से बनाए रखने और पुनर्स्थापित करने के लिए विशेषज्ञों के अनुसार आवश्यकता का केवल एक अंश मात्र है।
भारत में विश्व धरोहर स्थलों पर व्यय:
दिसंबर 2022 में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षण के तहत 24 विश्व धरोहर स्थलों के संरक्षण और सुविधाओं के विकास पर ₹32.6 करोड़ खर्च किए गए। संभवतः कोविड-19 (COVID-19) के प्रभाव के कारण, यह राशि, 2021-22 में खर्च किए गए ₹44.5 करोड़ से कम थी। 2017-18 से 2021-22 तक के पांच वर्षों में सबसे अधिक खर्च 55.32 करोड़ रुपये 2018-19 में किया गया था। यह खर्च अधिकतर हम्पी और लाल किला परिसर जैसे स्थलों पर किया गया।
ऐतिहासिक स्मारकों के संरक्षण के लिए ए एस आई द्वारा उपयोग की जाने वाली कुछ महत्वपूर्ण विधियाँ और तकनीकें:
- जलवायु-लचीले संरक्षण तरीके (Climate-Resilient Conservation Methods): ए एस आई ने स्मारकों की सुरक्षा के लिए वैज्ञानिक संरक्षण तकनीकों को अपनाया है।
- स्वचालित मौसम स्टेशन (Automated Weather Stations (AWS)): कुछ महत्वपूर्ण विरासत स्थलों पर तापमान, हवा, वर्षा और वायुमंडलीय दबाव की निगरानी के लिए, इसरो (ISRO) के सहयोग से ये स्टेशन स्थापित किए गए हैं।
- वायु प्रदूषण निगरानी प्रयोगशालाएं (Air Pollution Monitoring Labs): प्रदूषण के स्तर पर नज़र रखने के लिए ताज महल (आगरा) और बीबी का मकबरा (औरंगाबाद) जैसे स्मारकों के पास वायु प्रदूषण निगरानी प्रयोगशालाएं स्थापित की गईं हैं।
- अन्य एजेंसियों के साथ सहयोग: ए एस आई, सांस्कृतिक स्थलों के आपदा प्रबंधन के लिए रणनीति विकसित करने हेतु 'राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण' और यूनेस्को के साथ मिलकर काम करता है।
- कानूनी सुरक्षा को मज़बूत करना: प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम (1958) के तहत, स्मारकों को अतिक्रमण और दुरुपयोग से संरक्षित किया जाता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में ए एस आई के लोगो और लखनऊ के बड़ा इमामबाड़ा का स्रोत : Wikimedia, flickr
संस्कृति 2058
प्रकृति 704