लखनऊ - नवाबों का शहर












अंतरिक्ष से भारत: हिमालय की भव्यता और रोशनियों से जगमगाता नज़ारा
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
14-09-2025 09:05 AM
Lucknow-Hindi

भारत अंतरिक्ष से कैसा दिखता है? चार दशक पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने इस प्रश्न का उत्तर कवि मुहम्मद इक़बाल की पंक्ति "सारे जहाँ से अच्छा" से दिया था। आज, भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स (Sunita Williams) ने भी अंतरिक्ष से भारत के नज़ारे को याद करते हुए कहा कि जब वे अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से हिमालय के ऊपर से गुज़रती थीं, तो वह दृश्य "अविश्वसनीय और अद्भुत" लगता था।
सुनीता विलियम्स के अनुसार, भारत ऊपर से देखने पर रंगों और विविधता से भरा हुआ दिखाई देता है। उन्होंने इसकी तुलना धरती की परतों के टकराने से बनी लहरदार आकृति से की। हिमालय इस परिदृश्य का सबसे भव्य और आकर्षक हिस्सा है, जो भारत की ओर बहता हुआ दिखाई देता है। उन्होंने आगे बताया कि जब पूर्व से पश्चिम की ओर आते हैं और गुजरात व मुंबई के ऊपर पहुँचते हैं, तो समुद्र तट पर मछली पकड़ने वाले जहाज़ों का बेड़ा मानो एक "प्रकाश स्तंभ" (beacon) जैसा दिखता है, जो अंतरिक्ष यात्रियों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है। दिन में भारत की भौगोलिक संरचना, उसकी विविधता और रंगीन धरती मन मोह लेती है, जबकि रात में बिखरी हुई रोशनियाँ - बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों तक - एक अनोखा जाल बनाती हैं। सुनीता विलियम्स के अनुसार, भारत का यह दृश्य दिन और रात दोनों समय ही अद्भुत प्रतीत होता है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/gDwuV
https://short-link.me/17PJh
https://short-link.me/1ciO1
https://short-link.me/17PJv
लखनऊवासियो, जानिए हिंदी और देवनागरी का सफ़र - इतिहास से वर्तमान मैं हमारी सांस्कृतिक पहचान
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
13-09-2025 09:26 AM
Lucknow-Hindi

हिंदी दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ!
लखनऊवासियो, हमारी मातृभाषा हिंदी और उसकी देवनागरी लिपि सिर्फ़ संवाद का ज़रिया नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक जड़ों, इतिहास और आत्मसम्मान का जीता-जागता प्रतीक हैं। हिंदी का सफर प्राचीन संस्कृत और प्राकृत से शुरू होकर, समय के साथ अनेक भाषाओं, बोलियों और संस्कृतियों के मेल से निखरता गया। दिल्ली सल्तनत और मुग़ल काल में यह नई ध्वनियों, शब्दों और अभिव्यक्तियों से समृद्ध हुई, और आज यह केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई हिस्सों में बोली और समझी जाती है। देवनागरी लिपि, जो हिंदी की आत्मा मानी जाती है, अपनी स्पष्ट ध्वनि संरचना, शुद्ध उच्चारण और अद्वितीय सौंदर्य के कारण विश्व की सबसे वैज्ञानिक और सुंदर लिपियों में से एक है। इसके हर अक्षर के पीछे एक तार्किक और ऐतिहासिक आधार छिपा है, जो इसे सिर्फ़ लेखन का साधन नहीं बल्कि एक कला बनाता है। हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाकर हम न केवल अपनी भाषा और लिपि का सम्मान करते हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश भी देते हैं कि मातृभाषा का संरक्षण और संवर्धन हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है। लखनऊ जैसे साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर वाले शहर में, यह दिन और भी विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यहां की मिट्टी में भाषा और साहित्य की खुशबू बसी है।
इस लेख में हम हिंदी और देवनागरी लिपि को गहराई से समझेंगे। सबसे पहले, हम हिंदी की उत्पत्ति और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, हम हिंदी और उर्दू के साझा इतिहास को समझेंगे। फिर हम देवनागरी लिपि के विकास और उसके ऐतिहासिक आधार की चर्चा करेंगे। अंत में, हम इसकी संरचना, लेखन प्रणाली और वर्णमाला के उच्चारण से जुड़ी बारीकियों को जानेंगे और देखेंगे कि कौन-सी विशेषताएँ इसे सिर्फ़ एक लिपि नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर बनाती हैं।

हिंदी भाषा की उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
हिंदी की जड़ें प्राचीन भारत की दो प्रमुख भाषाओं - संस्कृत और प्राकृत - में गहराई से जुड़ी हुई हैं। संस्कृत, जो वैदिक काल से लेकर शास्त्रीय युग तक विद्या, धर्म और साहित्य की मुख्य भाषा रही, समय के साथ आम बोलचाल की सरल प्राकृत भाषाओं में परिवर्तित होती गई। इन्हीं प्राकृत भाषाओं से अपभ्रंश का विकास हुआ, और अपभ्रंश से धीरे-धीरे हिंदी के प्रारंभिक रूप ने जन्म लिया। 7वीं से 10वीं शताब्दी के बीच, उत्तर भारत के कई क्षेत्रों, विशेषकर दिल्ली, कन्नौज और आसपास, में हिंदी का आरंभिक स्वरूप, जिसे पुरानी हिंदी कहा गया, प्रचलित हुआ। मध्यकाल में मुस्लिम शासकों के आगमन के बाद, फ़ारसी और अरबी भाषाओं का प्रभाव तेजी से बढ़ा। अफ़गान, फ़ारसी और तुर्क शासकों के दरबार, प्रशासन और व्यापार में इन भाषाओं का उपयोग होता था, जिससे हिंदी में नए शब्द, उच्चारण और अभिव्यक्तियां जुड़ गईं। यह समय हिंदी के स्वरूप को गढ़ने और उसे विविधता देने का निर्णायक दौर था।

हिंदी और उर्दू का साझा इतिहास
हिंदी और उर्दू को अक्सर अलग भाषाएं माना जाता है, लेकिन दोनों का मूल स्रोत दिल्ली क्षेत्र की खड़ी बोली है। 13वीं शताब्दी में जब दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई, तो स्थानीय बोली में फ़ारसी और अरबी के अनेक शब्दों का प्रवेश हुआ। यही मिश्रित भाषा बाद में हिंदुस्तानी नाम से पहचानी गई। हिंदुस्तानी का एक रूप, जो देवनागरी लिपि में और संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ लिखा जाता था, वह हिंदी कहलाया; जबकि दूसरा रूप, जो फ़ारसी लिपि में और अरबी-फ़ारसी शब्दावली के साथ विकसित हुआ, वह उर्दू बना। दोनों भाषाओं ने साहित्य में अमूल्य योगदान दिया, अमीर खुसरो के गीत, कबीर और रहीम के दोहे, तथा पृथ्वीराज रासो जैसे ग्रंथ इसके उदाहरण हैं। यह साझा इतिहास साबित करता है कि भाषाएं केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मिलन का परिणाम हैं।
देवनागरी लिपि का विकास और ऐतिहासिक आधार
देवनागरी लिपि का इतिहास लगभग 2000 साल पुराना है और इसकी उत्पत्ति ब्राह्मी लिपि से मानी जाती है। गुप्तकाल (4वीं–6वीं शताब्दी) में इसका प्रारंभिक रूप देखा गया, जबकि 7वीं शताब्दी में इसके संरचनात्मक नियम स्पष्ट होने लगे। समय के साथ इसमें सुधार होते गए और 11वीं शताब्दी तक यह पूर्ण विकसित और मानकीकृत हो गई। देवनागरी केवल हिंदी की ही लिपि नहीं है - यह संस्कृत, मराठी, कोंकणी, नेपाली जैसी भाषाओं के लिए भी आधिकारिक लेखन प्रणाली है। धार्मिक ग्रंथों से लेकर आधुनिक साहित्य और शिक्षा तक, देवनागरी ने हमेशा एक सुसंगत, वैज्ञानिक और पठनीय लिपि का रूप प्रदान किया।

देवनागरी लिपि की संरचना और लेखन प्रणाली
देवनागरी की सबसे अनूठी बात यह है कि यह शब्दांश-आधारित लिपि है, न कि केवल वर्ण-आधारित। इसमें कुल 13 स्वर और 33 व्यंजन हैं, जो मात्राओं, विरामचिह्नों और हलंत (्) के साथ मिलकर अनगिनत ध्वनियों का निर्माण करते हैं। इसका लेखन बाएं से दाएं होता है और हर शब्द के ऊपर एक शिरोरेखा खिंचती है, जो अक्षरों को आपस में जोड़ती है और शब्द की पहचान को स्पष्ट बनाती है। इसके अलावा, देवनागरी में स्वर और व्यंजन अलग-अलग चिह्नों के रूप में मौजूद होते हैं, लेकिन लिखते समय वे मिलकर एक सटीक ध्वनि उत्पन्न करते हैं। यह व्यवस्था न केवल पढ़ने में सहज है, बल्कि ध्वन्यात्मक सटीकता भी प्रदान करती है।
देवनागरी वर्णमाला के उच्चारण और विशेष नियम
देवनागरी में हर व्यंजन के साथ एक अंतर्निहित स्वर ‘अ’ जुड़ा होता है, जिसे मात्रा चिह्नों के माध्यम से बदला या हटाया जाता है। उदाहरण के लिए, ‘क’ में अंतर्निहित ‘अ’ है, लेकिन ‘कि’ में ‘इ’ मात्रा इसे बदल देती है। उच्चारण का क्रम इस तरह से व्यवस्थित है कि ध्वनियां कंठ, तालु, मूर्धा, दंत और ओष्ठ, यानी मुंह के विभिन्न हिस्सों से उत्पन्न होती हैं। यह क्रम न केवल ध्वन्यात्मक रूप से तार्किक है, बल्कि भाषा सीखने वालों के लिए भी आसान है। इसी कारण देवनागरी में उच्चारण और लिखावट के बीच असमानता बहुत कम है, जो इसे लैटिन (Latin) जैसी लिपियों से अलग बनाती है।

देवनागरी लिपि की अनूठी विशेषताएं
देवनागरी को अबुगिडा लिपि कहा जाता है, जिसमें व्यंजन मूल अक्षर होते हैं और स्वर उनके साथ जुड़े चिह्न के रूप में आते हैं। इस संरचना के कारण यह लिपि न तो पूरी तरह वर्णमाला है और न ही मात्राक्षर - बल्कि दोनों का संगम है। इसमें अनुनासिक स्वर (ँ, ँ) के लिए विशेष चिह्न, संयुक्त व्यंजन (त्र, क्ष, ज्ञ) के लिए विशिष्ट संयोजन, और विशेषक चिह्नों का प्रयोग देखने को मिलता है। शीर्ष रेखा (शिरोरेखा) इसे दृश्य रूप से एकरूप बनाती है, जबकि ध्वनियों का सटीक प्रतिनिधित्व इसे वैज्ञानिक और कलात्मक दोनों दृष्टियों से श्रेष्ठ बनाता है। यही कारण है कि देवनागरी को दुनिया की सबसे व्यवस्थित लिपियों में गिना जाता है।
संदर्भ-
सोयाबीन का सफर: पूर्वी एशिया से दुनिया तक, सेहत और स्वाद का अनोखा संगम
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
12-09-2025 09:24 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, अगर आपने कभी टोफू (tofu), सोया दूध (soya milk), सोया चंक्स (soya chunks), सोया सॉस (soya sauce) या टेम्पेह (Tempeh) का स्वाद लिया है, तो समझ लीजिए कि आप पहले ही सोयाबीन (soybean) के अनोखे और पोषक संसार से जुड़ चुके हैं। यह साधारण-सा दिखने वाला दाना सिर्फ एक फसल नहीं, बल्कि पोषण, सेहत और स्वाद का ऐसा संगम है, जिसने पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बना ली है। इसका सफर सदियों पहले पूर्वी एशिया की उपजाऊ ज़मीनों से शुरू हुआ था, और आज यह विश्वभर में सबसे ज़्यादा उगाई और खाई जाने वाली फसलों में से एक बन चुका है सोयाबीन में मौजूद उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन (protein) हमारे शरीर को मांसपेशियों की मजबूती और ऊतकों की मरम्मत के लिए ज़रूरी आधार देता है। इसमें पाए जाने वाले सभी नौ आवश्यक अमीनो एसिड (amino acid), ओमेगा-3 (Omega-3) और ओमेगा-6 (Omega-6) फैटी एसिड (fatty acid), विटामिन (vitamin), खनिज और आइसोफ्लेवोन्स (Isoflavones) इसे एक सम्पूर्ण पोषण स्रोत बना देते हैं। यह हृदय के स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, खराब कोलेस्ट्रॉल - एलडीएल (Cholesterol - LDL) को घटाता है, पाचन को मज़बूत करता है और हड्डियों को मज़बूती प्रदान करता है। इतना ही नहीं, रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं के लिए इसके हार्मोन-संतुलनकारी (Hormone-balancing) गुण विशेष रूप से लाभकारी साबित होते हैं। आज के समय में, जब लोग स्वस्थ जीवनशैली और संतुलित आहार को लेकर जागरूक हो रहे हैं, सोयाबीन शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के आहार में बराबर महत्व पा रहा है। इसके विविध व्यंजन और व्युत्पाद न केवल स्वाद में लाजवाब हैं, बल्कि सेहतमंद विकल्प भी प्रदान करते हैं। यही कारण है कि यह दाना, जिसे कभी सिर्फ किसान के खेतों तक सीमित समझा जाता था, अब आधुनिक रसोईघरों और वैश्विक खाद्य उद्योग का एक अहम हिस्सा बन चुका है।
इस लेख में हम क्रमवार रूप से सोयाबीन से जुड़ी विभिन्न जानकारियों को समझेंगे। सबसे पहले हम इसके परिचय और वैश्विक लोकप्रियता पर नज़र डालेंगे, ताकि यह समझ सकें कि यह फसल विश्वभर में क्यों इतनी महत्वपूर्ण है। इसके बाद हम इसके प्रमुख स्वास्थ्य लाभों को विस्तार से जानेंगे और समझेंगे कि यह हमारे आहार में क्यों विशेष स्थान रखती है। आगे चलकर हम जीएमओ (GMO) सोयाबीन के फायदे और इससे जुड़े विवादों की चर्चा करेंगे। इसके बाद हम इसके पोषण मूल्य और इसमें पाए जाने वाले विभिन्न पोषक तत्वों की विस्तृत जानकारी प्राप्त करेंगे। अंत में हम दुनिया के शीर्ष सोयाबीन उत्पादक देशों के आँकड़ों के साथ-साथ भारत की स्थिति और योगदान पर भी प्रकाश डालेंगे।
सोयाबीन का परिचय और वैश्विक लोकप्रियता
सोयाबीन (ग्लाइसिन मैक्स - Glycine max) फलियों के परिवार का एक बहुमूल्य पौधा है, जिसकी उत्पत्ति पूर्वी एशिया में हुई मानी जाती है। यह केवल एक साधारण दाल नहीं, बल्कि एक बहुमुखी खाद्य स्रोत है, जिसने विश्वभर की रसोइयों और खाद्य उद्योग में अपनी अलग पहचान बनाई है। आज यह दुनिया के सबसे अधिक उगाए और खाए जाने वाले पौधों में शामिल है। टोफू, सोया दूध, सोया सॉस और टेम्पेह जैसे व्युत्पादों ने इसके स्वाद और उपयोग को रसोई से लेकर अंतरराष्ट्रीय बाजार तक फैला दिया है। इसकी बढ़ती लोकप्रियता का एक बड़ा कारण है कि यह प्रोटीन का सस्ता, टिकाऊ और पौष्टिक स्रोत है, खासकर उन देशों के लिए जहां मांस का उपभोग कम होता है। शाकाहारी और वीगन (vegan) जीवनशैली अपनाने वालों के लिए सोयाबीन ने प्रोटीन की कमी को दूर करने का एक भरोसेमंद और स्थायी समाधान प्रदान किया है।

सोया के प्रमुख स्वास्थ्य लाभ
सोयाबीन को स्वास्थ्य का खजाना कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन और सभी नौ आवश्यक अमीनो एसिड पाए जाते हैं, जो शरीर की वृद्धि, मांसपेशियों की मरम्मत और हड्डियों की मजबूती के लिए आवश्यक हैं। इसमें मौजूद असंतृप्त वसा, विशेष रूप से ओमेगा-3 और ओमेगा-6 फैटी एसिड, हृदय को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, क्योंकि ये रक्त में ट्राइग्लिसराइड (Triglyceride) और “खराब” कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करते हैं। यह स्वाभाविक रूप से कोलेस्ट्रॉल मुक्त है, जिससे यह हृदय रोगियों और फिटनेस प्रेमियों दोनों के लिए उपयुक्त है। सोयाबीन का उच्च फाइबर पाचन को बेहतर बनाता है, रक्त शर्करा को नियंत्रित करने में मदद करता है और आंतों के स्वास्थ्य को मजबूत करता है। इसमें पोटैशियम (potassium) की प्रचुरता रक्तचाप को संतुलित रखने में सहायक है, जबकि आयरन (iron) शरीर में ऑक्सीजन (oxygen) के प्रभावी परिवहन के लिए जरूरी है। साथ ही, इसमें मौजूद आइसोफ्लेवोन्स, जो पौधों से प्राप्त प्राकृतिक यौगिक हैं, हड्डियों की घनत्व को बनाए रखने में मदद करते हैं और रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं में हार्मोनल बदलाव से होने वाली समस्याओं को कम कर सकते हैं।

जीएमओ सोयाबीन: लाभ और विवाद
सोयाबीन आज दुनिया की सबसे अधिक उगाई जाने वाली आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएमओ) फ़सल है, जिसे आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के ज़रिए विकसित किया गया है। इसके जीन में इस तरह के बदलाव किए जाते हैं कि पौधा कीटों, बीमारियों, खरपतवार-नाशकों और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों का सामना कर सके। समर्थकों का तर्क है कि जीएमओ सोयाबीन की उपज अधिक होती है, उत्पादन लागत कम होती है, और फसल की गुणवत्ता भी स्थिर रहती है। इससे वैश्विक खाद्य मांग को पूरा करना आसान होता है। हालांकि, इसके विरोधी इसे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए संभावित जोखिम मानते हैं। उनका कहना है कि लंबे समय तक जीएमओ खाद्य पदार्थों के सेवन के प्रभावों पर अभी पर्याप्त शोध नहीं हुआ है। अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए - FDA) का दावा है कि जीएमओ सोयाबीन पारंपरिक सोयाबीन की तरह ही सुरक्षित है, लेकिन सार्वजनिक बहस और उपभोक्ता की चिंता अब भी बनी हुई है। यह विवाद जीएमओ सोयाबीन को कृषि और खाद्य सुरक्षा की राजनीति का केंद्र बना देता है।
सोयाबीन का पोषण मूल्य
सोयाबीन का पोषण प्रोफ़ाइल (nutritional profile) इसे सुपरफ़ूड (superfood) की श्रेणी में लाने के लिए पर्याप्त है। 100 ग्राम उबले सोयाबीन में लगभग 16.6 ग्राम उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन होता है, जो मांसपेशियों और ऊतकों की मरम्मत के लिए आवश्यक है। इसमें 9 ग्राम स्वस्थ वसा होती है, जो ऊर्जा का अच्छा स्रोत है, और 9.9 ग्राम कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) शरीर को तुरंत ऊर्जा प्रदान करते हैं। 6 ग्राम आहार फाइबर पाचन को सुचारु रखता है और आंतों में अच्छे बैक्टीरिया (bacteria) के विकास को बढ़ावा देता है। इसके अलावा, सोयाबीन में विटामिन B समूह, पोटैशियम, आयरन, कैल्शियम (calcium), मैग्नीशियम (magnesium) और एंटीऑक्सीडेंट (antioxidant) भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। यह पोषण संतुलन इसे न केवल शाकाहारियों बल्कि खिलाड़ियों, जिम करने वालों और स्वास्थ्य-सचेत लोगों के बीच भी लोकप्रिय बनाता है। नियमित सेवन से यह शरीर की ऊर्जा, रोग प्रतिरोधक क्षमता और मानसिक सतर्कता बनाए रखने में मदद करता है।

दुनिया के शीर्ष सोयाबीन उत्पादक देश (2023/24)
सोयाबीन का उत्पादन एक वैश्विक कृषि उद्योग का महत्वपूर्ण हिस्सा है। 2023/24 के आँकड़ों के अनुसार, ब्राज़ील (Brazil) 153 मिलियन मीट्रिक (million metric) टन (39%) उत्पादन के साथ दुनिया का सबसे बड़ा सोयाबीन उत्पादक देश है। उसके बाद अमेरिका 113.34 मिलियन मीट्रिक टन (29%) के साथ दूसरे स्थान पर है, जबकि अर्जेंटीना (Argentina) 48.1 मिलियन मीट्रिक टन (12%) उत्पादन करता है। इन तीन देशों की संयुक्त हिस्सेदारी वैश्विक उत्पादन का लगभग 80% है, जो इस बात को दर्शाता है कि सोयाबीन व्यापार में कुछ ही देश प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। इसके अलावा, चीन, भारत, पैराग्वे (Paraguay) और कनाडा भी सोयाबीन उत्पादन में योगदान करते हैं। भारत करीब 11.88 मिलियन मीट्रिक टन (3%) उत्पादन के साथ विश्व सूची में शामिल है, और यहाँ यह मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में उगाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोयाबीन के बढ़ते दाम और मांग को देखते हुए, भारत के पास आने वाले वर्षों में अपने उत्पादन और निर्यात को बढ़ाने के बड़े अवसर हैं।
संदर्भ-
लखनऊवासियो, जानिए भोजन से कोशिकाओं तक ऊर्जा पहुंचाने की अद्भुत जैविक यात्रा
कोशिका के आधार पर
By Cell Type
11-09-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, हमारे शरीर के भीतर हर क्षण एक ऐसी अदृश्य लेकिन चमत्कारिक प्रक्रिया चल रही है, जो हमारी जिंदगी को हर पल ऊर्जा देती है, ऊर्जा उत्पादन। जैसे लखनऊ की गलियां, बाजार और घर रोशनी और बिजली से जगमगाते रहते हैं, वैसे ही हमारी हर कोशिका ऊर्जा से जीवित और सक्रिय रहती है। यह ऊर्जा हमें भोजन से मिलती है, लेकिन यह सीधे हमारे काम नहीं आती; इसके पीछे एक लंबा, जटिल और बेहद सटीक जैव-रासायनिक सफर होता है। इस सफर में सबसे अहम भूमिका निभाता है चयापचय (Metabolism), एक ऐसी प्रक्रिया जो हमारे खाने को छोटे-छोटे अणुओं में तोड़कर उन्हें ऊर्जा में बदल देती है, और फिर उसी ऊर्जा से हमारी मांसपेशियां चलती हैं, दिमाग सोचता है, दिल धड़कता है और अंग सुचारू रूप से काम करते हैं। इसे यूं समझिए, जैसे एक रसोई में कच्ची सामग्री को पकाकर स्वादिष्ट और पोषक भोजन तैयार किया जाता है, बस, यहां ‘रसोई’ हमारी कोशिका है और ‘भोजन’ से बनने वाला ‘ऊर्जा व्यंजन’ है एटीपी (ATP), जो हमें जीवित और सक्रिय रखता है।
इस लेख में हम ऊर्जा उत्पादन की उस अद्भुत प्रक्रिया को समझेंगे, जो हमारी हर कोशिका में चलती है। शुरुआत करेंगे यह जानने से कि कोशिकाओं को ऊर्जा क्यों चाहिए और इसमें चयापचय (Metabolism) की क्या भूमिका है। फिर समझेंगे शर्करा, प्रोटीन (protein) और अमीनो एसिड (amino acid) का महत्व, और भोजन से ऊर्जा पाने की पाचन प्रक्रिया। इसके बाद देखेंगे ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) से पाइरूवेट (Pyruvate) निर्माण तक के चरण, माइटोकॉन्ड्रिया (Mitochondria) में साइट्रिक एसिड (citric acid) चक्र से एटीपी उत्पादन का रहस्य, और अंत में ऑक्सीजन (Oxygen) व किण्वन की भूमिका।
मानव कोशिकाओं में ऊर्जा की आवश्यकता और चयापचय की भूमिका
हमारे शरीर की हर कोशिका दिन-रात काम में लगी रहती है, दिल की धड़कन बनाए रखना, सांस लेना, मांसपेशियों को चलाना, दिमाग को विचार और यादों के लिए सक्रिय रखना, यहां तक कि सोते समय भी शरीर के अंदर लाखों सूक्ष्म प्रक्रियाएं चलती रहती हैं। इन सभी कार्यों के लिए ऊर्जा की लगातार जरूरत होती है। यह ऊर्जा हमें चयापचय (Metabolism) नामक प्रक्रिया से मिलती है, जो दो हिस्सों में बंटी है, कैटोबोलिक (Catabolic) प्रतिक्रियाएं, जिनमें बड़े अणुओं को तोड़कर ऊर्जा मुक्त की जाती है, और एनाबॉलिक (Anabolic) प्रतिक्रियाएं, जिनमें ऊर्जा का इस्तेमाल करके नई संरचनाएं और अणु बनाए जाते हैं। यह कुछ वैसा ही है जैसे एक फैक्ट्री में पुराने हिस्सों को पिघलाकर नया सामान बनाया जाए, एक संतुलित व्यवस्था जो हमें ज़िंदा, स्वस्थ और सक्रिय रखती है।
शर्करा, प्रोटीन और अमीनो एसिड का महत्व
हमारे शरीर के लिए शर्करा (कार्बोहाइड्रेट - Carbohydrates) सबसे तेज़ और आसान ऊर्जा स्रोत है, जैसे कार के लिए पेट्रोल। ग्लूकोज, जो एक सरल शर्करा है, तुरंत ऊर्जा में बदलकर हमें दौड़ने, सोचने, बोलने, यहां तक कि पलक झपकाने की भी शक्ति देता है। प्रोटीन (protein) हमारे शरीर की इमारत के ईंट-पत्थर हैं, ये हमारी मांसपेशियों, त्वचा, बाल, नाखून से लेकर हार्मोन (hormone) और एंजाइम (enzyme) तक का निर्माण करते हैं। एंजाइम, जो प्रोटीन से ही बनते हैं, हमारे शरीर के रासायनिक कारखाने के मैनेजर की तरह हैं, जो हर प्रक्रिया को समय पर और सही तरीके से होने में मदद करते हैं। अमीनो एसिड (amino acid), जिन्हें प्रोटीन के निर्माण खंड कहा जाता है, न सिर्फ संरचना देते हैं बल्कि हार्मोन, न्यूरोट्रांसमीटर (Neurotransmitters) और प्रतिरक्षा से जुड़े अणुओं के उत्पादन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बिना इनके शरीर का न तो विकास हो सकता है, न मरम्मत।

भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने की प्रक्रिया और पाचन
हम जो खाना खाते हैं, वह सीधे ऊर्जा में नहीं बदलता, पहले उसे छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ा जाता है ताकि कोशिकाएं उसे आसानी से इस्तेमाल कर सकें। यह सफर मुंह से शुरू होता है, जहां लार में मौजूद एंजाइम कार्बोहाइड्रेट को तोड़ना शुरू कर देते हैं। फिर खाना पाचन तंत्र में पहुंचकर विभिन्न एंजाइमों की मदद से ग्लूकोज, अमीनो एसिड और फैटी एसिड (Fatty Acid) जैसे मोनोमर अणुओं में बदल जाता है। इसके बाद ये रक्त के जरिए हमारी कोशिकाओं तक पहुंचते हैं, जहां साइटोसोल (Cytosol) और माइटोकॉन्ड्रिया में प्रवेश करके ऊर्जा उत्पादन की असली प्रक्रिया शुरू होती है। यह कुछ वैसा ही है जैसे कच्चे माल को फैक्ट्री तक पहुंचाकर मशीनों में डालना, जहां से तैयार प्रोडक्ट (ऊर्जा) निकलती है।

ग्लाइकोलाइसिस और पाइरूवेट का निर्माण
ऊर्जा उत्पादन का पहला बड़ा चरण है ग्लाइकोलाइसिस, जो कोशिका के साइटोसोल में होता है। इसमें एक ग्लूकोज अणु दो पाइरूवेट अणुओं में टूट जाता है, और साथ ही थोड़ी मात्रा में एटीपी (शरीर की ऊर्जा मुद्रा) और एनएडीएच (इलेक्ट्रॉन कैरियर) (NADH - Electron Career) बनते हैं। यह प्रक्रिया खास इसलिए है क्योंकि इसे ऑक्सीजन की जरूरत नहीं होती, यानी यह अवायवीय परिस्थितियों में भी ऊर्जा दे सकती है। हालांकि, इस चरण से बहुत ज्यादा ऊर्जा नहीं मिलती, लेकिन यह शरीर को तुरंत, आपातकालीन ऊर्जा उपलब्ध कराने का बेहतरीन तरीका है। एथलीट (athlete), तेज दौड़ने वाले खिलाड़ी या भारी वजन उठाने वाले लोग अपने मांसपेशियों में इसी त्वरित ऊर्जा प्रणाली पर निर्भर रहते हैं।
माइटोकॉन्ड्रिया में साइट्रिक एसिड चक्र और एटीपी उत्पादन
ग्लाइकोलाइसिस से बने पाइरूवेट माइटोकॉन्ड्रिया में पहुंचते हैं, जिन्हें कोशिका का "पावरहाउस" (powerhouse) कहा जाता है। यहां साइट्रिक एसिड चक्र (Krebs Cycle) चलता है, जिसमें पाइरूवेट से एनएडीएच और एफ़एडीएच₂ (FADH₂) जैसे ऊर्जा-समृद्ध अणु बनते हैं। ये अणु इलेक्ट्रॉन परिवहन श्रृंखला में जाकर ऑक्सीजन की मदद से बड़ी मात्रा में एटीपी बनाते हैं, एक ग्लूकोज अणु से लगभग 36 एटीपी तक! यह प्रक्रिया बेहद कुशल है और तभी संभव है जब ऑक्सीजन मौजूद हो। यही वजह है कि गहरी और स्थिर सांसें लेना, खासकर व्यायाम के दौरान, ऊर्जा उत्पादन के लिए जरूरी है।

ऊर्जा उत्पादन में ऑक्सीजन और किण्वन की भूमिका
जब ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होती, तो कोशिकाएं एटीपी बनाने के लिए किण्वन का सहारा लेती हैं। इसमें पाइरूवेट लैक्टिक एसिड (pyruvate lactic acid) (पशु कोशिकाओं में) या एथेनॉल (ethanol) और सीओ₂ (CO₂) (कुछ सूक्ष्मजीवों में) में बदल जाता है। यह प्रक्रिया एटीपी की बहुत कम मात्रा बनाती है, लेकिन आपातकाल में शरीर के लिए जीवनरक्षक साबित होती है। उदाहरण के तौर पर, जब हम अचानक तेज़ दौड़ लगाते हैं और सांस फूलने लगती है, तो हमारी मांसपेशियां ऑक्सीजन की कमी के बावजूद किण्वन के जरिए ऊर्जा बनाती रहती हैं। हालांकि, इसके साथ बनने वाला लैक्टिक एसिड मांसपेशियों में जलन और थकान का कारण बनता है, जिससे हमें आराम लेने की जरूरत महसूस होती है।
संदर्भ-
भारतीय रॉक-कट वास्तुकला: मौर्यकाल से जैन स्मारकों तक की अद्भुत यात्रा
धर्म का उदयः 600 ईसापूर्व से 300 ईस्वी तक
Age of Religion: 600 BCE to 300 CE
10-09-2025 09:30 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, भारत की प्राचीन कला और स्थापत्य की विरासत में रॉक-कट (rock-cut) वास्तुकला का स्थान सचमुच अद्वितीय है। यह वह अद्भुत तकनीक है, जिसमें विशाल चट्टानों और पहाड़ों को तराशकर भीतर से मंदिर, विहार, गुफाएं और भव्य स्मारक रचे जाते थे। इस कला की विशेषता यह है कि इसमें अलग से ईंट, लकड़ी या गारे का प्रयोग नहीं होता, बल्कि पूरी संरचना प्राकृतिक पत्थर से ही जन्म लेती है। रॉक-कट निर्माण न केवल तत्कालीन इंजीनियरिंग (engineering) और शिल्पकला की श्रेष्ठता का जीवंत प्रमाण हैं, बल्कि उस युग की धार्मिक आस्थाओं, सांस्कृतिक मूल्यों और कलात्मक संवेदनाओं का भी सजीव चित्रण करते हैं। बौद्ध धर्म के शांत विहारों और चैत्यगृहों से लेकर हिंदू मंदिरों की भव्य मूर्तियों और जैन स्मारकों की सूक्ष्म नक्काशियों तक, यह शैली भारतीय सभ्यता की विविधता और गहराई को दर्शाती है। हर स्थल अपनी अलग कहानी कहता है, कभी ध्यान में लीन भिक्षुओं का केंद्र, तो कभी देवताओं के अलंकारिक रूप का उत्सव। अजंता, एलोरा, महाबलीपुरम और एलिफेंटा (elephanta) जैसे विश्वप्रसिद्ध स्थलों पर जाकर आज भी यह महसूस होता है कि मानवीय रचनात्मकता और परिश्रम पत्थर में अमर हो सकते हैं। इसीलिए रॉक-कट वास्तुकला केवल एक स्थापत्य शैली नहीं, बल्कि भारत के अतीत की आत्मा का मूर्त रूप है।
इस लेख में हम चरणबद्ध तरीके से जानेंगे कि भारतीय रॉक-कट वास्तुकला की शुरुआत कैसे हुई और इसकी खासियतें क्या-क्या हैं। हम मौर्यकाल से लेकर प्रारंभिक बौद्ध गुफाओं तक के विकास की कहानी समझेंगे, फिर देखेंगे कि गुप्त और चालुक्यकाल में यह शैली किस तरह अपने स्वर्णिम दौर में पहुँची। इसके बाद हम भारत के प्रमुख रॉक-कट स्मारकों और स्थलों की ऐतिहासिक, धार्मिक और कलात्मक महत्ता पर नजर डालेंगे, और अंत में जानेंगे कि जैन स्मारकों के विकास के साथ इस वास्तुकला ने अपने अंतिम चरण में कैसी विशिष्ट पहचान बनाई।

भारतीय रॉक-कट वास्तुकला का परिचय और विशेषताएँ
भारतीय रॉक-कट वास्तुकला प्राचीन इंजीनियरिंग, कला और आध्यात्मिकता का अद्वितीय संगम है। इसमें विशाल चट्टानों और पहाड़ों को तराशकर भीतर से पूरी-की-पूरी संरचनाएँ बनाई जाती थीं, जिससे वे प्राकृतिक मजबूती और दीर्घायु प्राप्त करती थीं। इसमें लकड़ी या ईंट का प्रयोग लगभग नहीं होता था, जिससे संरचना पर मौसम या समय का असर बेहद धीमा पड़ता। इन स्थलों में बारीक नक्काशी, मूर्तिकला, भित्तिचित्र और शिलालेख तत्कालीन समाज की धार्मिक आस्थाओं, सांस्कृतिक जीवन और कलात्मक परंपराओं का सजीव चित्रण करते हैं। वैश्विक स्तर पर, अजंता, एलोरा और महाबलीपुरम जैसे स्थल न केवल भारत की ऐतिहासिक धरोहर माने जाते हैं, बल्कि विश्व धरोहर की सूची में भी शामिल हैं, जो मानव सभ्यता की शिल्पकला के उत्कर्ष का प्रमाण हैं।

प्रारंभिक विकास: मौर्यकाल से बौद्ध गुफाओं तक
रॉक-कट वास्तुकला का संगठित और योजनाबद्ध विकास मौर्यकाल में प्रारंभ हुआ। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए बिहार के बाराबर और नागार्जुन की गुफाएं बनवाईं, जो आज भी अपनी संरचना की सादगी और मजबूती के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके पोते दशरथ ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाया। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से ईस्वी की प्रारंभिक शताब्दियों में महाराष्ट्र की कन्हेरी और अजंता गुफाएं, तथा बिहार की नागार्जुन गुफाएं, बौद्ध भिक्षुओं के लिए आवास, ध्यान और प्रवचन स्थलों के रूप में निर्मित की गईं। इन गुफाओं में चैत्यगृह (पूजा कक्ष), विहार (आवासीय कक्ष) और लकड़ी की नकल करते पत्थर के स्तंभ, तत्कालीन निर्माण कौशल और धार्मिक समर्पण को दर्शाते हैं।
गुप्तकाल और चालुक्यकाल में उत्कर्ष
गुप्तकाल (चौथी-छठी शताब्दी ईस्वी) भारतीय कला का स्वर्णयुग माना जाता है, और इस समय रॉक-कट वास्तुकला ने अद्वितीय ऊँचाइयाँ छुईं। अजंता गुफाओं में बने भित्तिचित्रों और मूर्तियों में भगवान बुद्ध के जीवन की घटनाएँ इतनी जीवंतता से उकेरी गई हैं कि वे समय की सीमाओं को पार कर अमर हो गई हैं। चालुक्यकाल (छठी-आठवीं शताब्दी) में कर्नाटक के बादामी गुफा मंदिर और ऐहोल जैसे स्थलों का विकास हुआ, जहाँ हिंदू, जैन और बौद्ध परंपराओं का अनूठा संगम देखने को मिलता है। इस दौर की गुफाएं केवल धार्मिक स्थल ही नहीं रहीं, बल्कि कला, संगीत और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के केंद्र भी बन गईं।

महत्वपूर्ण स्मारक और स्थल
भारत के विभिन्न हिस्सों में फैले रॉक-कट स्मारक आज भी प्राचीन शिल्पकला के अद्भुत उदाहरण हैं। एलोरा गुफाओं में कैलाश मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसे एक ही विशाल चट्टान को तराशकर बनाया गया और जिसमें स्थापत्य की अद्भुत जटिलता झलकती है। मुंबई के पास एलिफेंटा द्वीप की गुफाओं में शिव के त्रिमूर्ति रूप की भव्य प्रतिमा भारतीय मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। तमिलनाडु के महाबलीपुरम में स्थित रथ और मंडप द्रविड़ स्थापत्य के सुंदर उदाहरण हैं। ग्वालियर किले की गुफाओं में जैन प्रतिमाएं, एहोल के गुफा मंदिर और नासिक की पांडवलेनी गुफाएं भी अपने-अपने समय की स्थापत्य प्रतिभा का प्रमाण हैं।

अंतिम चरण और जैन स्मारकों का विकास
रॉक-कट वास्तुकला के अंतिम चरण में जैन धर्म ने इसे नई पहचान दी। मध्यकाल में ग्वालियर किले में निर्मित विशालकाय जैन प्रतिमाएं, एलोरा के जैन मंदिर और कर्नाटक का श्रवणबेलगोला इस दौर की श्रेष्ठ कृतियां हैं। इन संरचनाओं में शांति, अहिंसा और तपस्या जैसे जैन धर्म के मूल सिद्धांतों का कलात्मक रूपांतरण देखने को मिलता है। यहां की मूर्तियां न केवल आकार में विशाल हैं, बल्कि उनकी नक्काशी इतनी बारीक है कि प्रत्येक भाव और मुद्रा स्पष्ट झलकती है। यह काल रॉक-कट वास्तुकला के धार्मिक विविधीकरण और कलात्मक परिष्कार का प्रतीक माना जाता है।
संदर्भ-
लखनऊ के किसानों के लिए मिट्टी के केकड़ों की खेती: आय और तकनीक का नया अवसर
समुद्री संसाधन
Marine Resources
09-09-2025 09:13 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, हमारे प्रदेश में खेती के नए-नए विकल्प खोजने की ज़रूरत अब पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है। परंपरागत फसलों के साथ-साथ अगर किसान अतिरिक्त आय के स्रोत अपनाएं, तो उनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत हो सकती है। इन्हीं विकल्पों में से एक है मिट्टी के केकड़ों की खेती, जो न केवल देश में, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भी बड़ी मांग रखती है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि भारत में केकड़ा उत्पादन की स्थिति क्या है, मिट्टी के केकड़ों की आर्थिक और बाज़ार महत्ता कितनी है, कौन-कौन सी प्रमुख प्रजातियां पाई जाती हैं, खेती की कौन सी पद्धतियां सबसे प्रभावी हैं, और इसके लिए मिट्टी, पानी तथा पर्यावरण की क्या आवश्यकताएं होती हैं।
हम सबसे पहले भारत में केकड़ा उत्पादन के आंकड़े और प्रमुख राज्यों के योगदान को समझेंगे। इसके बाद मिट्टी के केकड़ों की आर्थिक और बाज़ार महत्ता पर बात करेंगे, जिससे किसानों को इसकी संभावनाएं साफ़ हो जाएंगी। फिर हम प्रमुख प्रजातियों और उनकी विशेषताओं का परिचय देंगे। चौथे भाग में खेती की पद्धतियां और तकनीकें जानेंगे, और अंत में पानी, मिट्टी और पर्यावरण की आवश्यकताओं पर चर्चा करेंगे।
भारत में केकड़ा उत्पादन की स्थिति और योगदान
भारत के तटीय और नदी किनारे के क्षेत्रों में केकड़ा उत्पादन सदियों से स्थानीय आजीविका का एक अहम हिस्सा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर हर साल लाखों टन केकड़ों का उत्पादन होता है, जिसमें आंध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्य अग्रणी स्थान पर हैं। इन राज्यों में पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक मत्स्य पालन तकनीकों का मेल केकड़ा उत्पादन को निरंतर बढ़ा रहा है। लखनऊ जैसे भीतरी और समुद्र से दूर इलाकों में यह गतिविधि अपेक्षाकृत नई है, लेकिन नियंत्रित जलाशयों, कृत्रिम तालाबों और तकनीकी सहायता से अब यहाँ भी इसका विस्तार संभव हो रहा है। मौसमी पैटर्न (pattern) के हिसाब से देखा जाए तो मानसून के बाद का समय केकड़ों की तेज़ वृद्धि और अच्छी गुणवत्ता के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है, जबकि सर्दियों में उत्पादन और पकने की गति थोड़ी धीमी हो सकती है।

मिट्टी के केकड़ों की आर्थिक और बाज़ार महत्ता
मिट्टी के केकड़े न सिर्फ़ स्वाद और पोषण के लिए मशहूर हैं, बल्कि ये घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में एक उच्च-मूल्यवान जलीय उत्पाद के रूप में पहचाने जाते हैं। भारत में इनकी मांग तटीय राज्यों के साथ-साथ महानगरों के होटलों और रेस्टोरेंट्स (restaurant) में भी तेज़ी से बढ़ रही है। निर्यात की बात करें तो सिंगापुर, मलेशिया, चीन और मध्य-पूर्व के देशों में भारतीय केकड़ों को प्रीमियम (premium) दाम पर खरीदा जाता है। किसानों और मत्स्य-पालकों के लिए यह व्यवसाय कम समय में अच्छा मुनाफा देने वाला विकल्प है, खासकर तब जब वे गुणवत्ता नियंत्रण और सही प्रजातियों पर ध्यान दें। त्योहारी मौसम, पर्यटन सीज़न और निर्यात के उच्च समय में इनकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है, जिससे यह खेती अन्य पारंपरिक मछली पालन की तुलना में अधिक लाभकारी सिद्ध होती है।

केकड़ों की प्रमुख प्रजातियां और उनकी विशेषताएं
भारत में पाए जाने वाले केकड़ों की विविधता इन्हें एक आकर्षक मत्स्य-उद्योग विकल्प बनाती है। स्काइला सेराटा (Scylla serrata) सबसे प्रसिद्ध प्रजाति है, जो बड़े आकार, तेज़ विकास दर और उच्च बाज़ार मूल्य के लिए जानी जाती है। स्काइला ट्रैंक्यूबेरिका (Scylla tranquebarica) का शरीर मजबूत और अनुकूलन क्षमता अच्छी होती है, जिससे यह विभिन्न जल परिस्थितियों में पनप सकती है। लाल पंजे वाले मिट्टी के केकड़े स्थानीय बाज़ारों में अपनी पहचान और विशिष्ट स्वाद के लिए मशहूर हैं, जबकि हरे मिट्टी के केकड़े हल्के खारे पानी में पनपते हैं और उनकी पैदावार तेज़ होती है। हर प्रजाति के लिए भोजन, पानी का तापमान और लवणता के अलग-अलग मानक होते हैं, जिन्हें समझना और पालन करना सफल खेती के लिए ज़रूरी है।
खेती की पद्धतियां और तकनीकें
केकड़ा पालन में मुख्यतः दो पद्धतियां अपनाई जाती हैं, ग्रो-आउट सिस्टम (Grow-out System) और फैटेनिंग सिस्टम (Fattening System)। ग्रो-आउट सिस्टम में छोटे आकार के केकड़ों को पालकर वयस्क और बाज़ार योग्य आकार तक पहुंचाया जाता है, जिसमें कई महीने लग सकते हैं। वहीं, फैटेनिंग सिस्टम अपेक्षाकृत तेज़ है, जिसमें कमज़ोर या दुबले केकड़ों को थोड़े समय (आमतौर पर 4–6 सप्ताह) में उच्च गुणवत्ता और वजन तक पहुंचाया जाता है। तालाब चयन में पानी का प्रवाह, ज्वार-भाटा का असर, और पर्याप्त गहराई का ध्यान रखना चाहिए। तालाब निर्माण के समय किनारों को मजबूत, पानी के रिसाव को रोकने योग्य और साफ-सफाई में आसान बनाया जाता है। नियमित सफाई, पानी की गुणवत्ता की निगरानी और भोजन प्रबंधन इन तकनीकों की सफलता की कुंजी है।

पानी, मिट्टी और पर्यावरणीय आवश्यकताएं
मिट्टी के केकड़ों की अच्छी पैदावार के लिए पर्यावरणीय परिस्थितियां बेहद महत्वपूर्ण हैं। चिकनी और पोषक तत्वों से भरपूर मिट्टी में ये सबसे अच्छा विकास करते हैं। पानी की गुणवत्ता में खारे और मीठे पानी का संतुलन बनाए रखना ज़रूरी है, ताकि इनके प्राकृतिक आवास की नकल की जा सके। आदर्श पीएच (pH) स्तर 7.5–8.5 होना चाहिए और तापमान 25–32°C के बीच रहना चाहिए। ज्वार-भाटा नियंत्रण से पानी में पोषक तत्वों और ऑक्सीजन (oxygen) का स्तर संतुलित रहता है। इसके अलावा, रोगजनकों और परजीवियों से बचाव के लिए समय-समय पर पानी का परीक्षण और जैव-सुरक्षा उपाय अपनाना भी अनिवार्य है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2t3j529r
लखनऊ में बढ़ता प्लास्टिक संकट: पर्यावरण, स्वास्थ्य और भविष्य पर मंडराता खतरा
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
08-09-2025 09:09 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियो, आपमें से कितनों ने गौर किया है कि हमारे शहर की गलियों, सड़कों और नालियों में पड़े प्लास्टिक (plastic) कचरे के ढेर कभी-कभी हफ़्तों तक वैसे ही पड़े रहते हैं? ये ढेर न सिर्फ़ शहर की खूबसूरती को बिगाड़ते हैं, बल्कि बरसात के दिनों में नालियों के जाम, सड़कों पर जलभराव और चारों तरफ़ फैली बदबू का भी बड़ा कारण बनते हैं। यह मंजर केवल लखनऊ का नहीं है, पूरे भारत में प्लास्टिक कचरे का यह बढ़ता पहाड़ अब एक गंभीर राष्ट्रीय संकट का रूप ले चुका है। हर दिन हमारे घरों, बाज़ारों और कारखानों से निकलने वाला यह कचरा चुपचाप हमारी हवा को गंदा कर रहा है, हमारे पानी में ज़हर घोल रहा है और मिट्टी की ज़िंदगी छीन रहा है। सोचिए, जो प्लास्टिक आज हमें सुविधा देता है, वही कल हमारे बच्चों की सेहत, हमारी रोज़ी-रोटी और देश की अर्थव्यवस्था के लिए भारी मुसीबत बन रहा है। अब सवाल यह नहीं कि समस्या कितनी बड़ी है, बल्कि यह है कि हम इसे कब और कैसे रोकेंगे।
इस लेख में हम सबसे पहले भारत में प्लास्टिक कचरे की वर्तमान स्थिति और उससे जुड़े आंकड़ों को देखेंगे। इसके बाद, हम प्लास्टिक प्रदूषण में वृद्धि के प्रमुख कारणों को समझेंगे। फिर, हम कुप्रबंधित प्लास्टिक कचरे के पर्यावरणीय और मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर की चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम इसके आर्थिक प्रभाव और आने वाली चुनौतियों का विश्लेषण करेंगे। अंत में, हम भारत में लागू प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के नियम, नीतियां और पहलों पर नज़र डालेंगे।
भारत में प्लास्टिक कचरे की वर्तमान स्थिति और सांख्यिकी
भारत आज दुनिया के सबसे बड़े प्लास्टिक कचरा उत्पादकों में से एक है। हर साल करोड़ों टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा सही तरीके से प्रबंधित नहीं हो पाता। आधिकारिक सरकारी रिपोर्टें और स्वतंत्र शोध संस्थाओं के आंकड़े अक्सर एक-दूसरे से मेल नहीं खाते, जिससे इस संकट का सही पैमाने पर आकलन करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। मौजूदा अनुमानों के अनुसार, भारत में उत्पन्न होने वाले प्लास्टिक कचरे का एक बड़ा प्रतिशत “कुप्रबंधित” श्रेणी में आता है, यानि या तो यह खुले में पड़ा रह जाता है, जलाया जाता है, या बिना उपचार के लैंडफिल (landfill) में डाल दिया जाता है। पुनर्चक्रण (recycling) की दर बहुत सीमित है और गुणवत्ता-युक्त पुनर्चक्रण तो उससे भी कम। लखनऊ जैसे तेजी से बढ़ते महानगरों में, जहां जनसंख्या और प्लास्टिक की खपत दोनों तेज़ी से बढ़ रही हैं, यह समस्या और गंभीर रूप ले लेती है।

प्लास्टिक प्रदूषण में वृद्धि के प्रमुख कारण
प्लास्टिक प्रदूषण की सबसे बड़ी जड़ है अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली का अपर्याप्त और असंगठित ढांचा। कई शहरों और कस्बों में आज भी कचरे को खुले में जलाना आम है, जिससे जहरीला धुआं हवा में घुल जाता है। दूसरी ओर, लैंडफिल में जमा प्लास्टिक मिट्टी और भूमिगत जल को दूषित करता है। एकल-उपयोग प्लास्टिक (single-use plastic) का अनियंत्रित इस्तेमाल, जैसे पॉलीथीन बैग, प्लास्टिक कप, स्ट्रॉ (straw), स्थिति को और बिगाड़ता है। डेटा रिपोर्टिंग (Data reporting) में पारदर्शिता की कमी भी एक समस्या है; कई बार स्थानीय निकाय या तो सही आंकड़े इकट्ठा नहीं कर पाते या उन्हें सार्वजनिक नहीं करते। अनौपचारिक अपशिष्ट क्षेत्र, जिसमें कचरा बीनने वाले, छोटे कबाड़ी और स्थानीय पुनर्चक्रणकर्ता शामिल होते हैं, महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन संसाधनों की कमी, सुरक्षा मानकों की अनुपस्थिति और सामाजिक मान्यता के अभाव के कारण वे अपनी पूरी क्षमता से योगदान नहीं कर पाते।
कुप्रबंधित प्लास्टिक कचरे के पर्यावरणीय प्रभाव
जब प्लास्टिक कचरे का सही तरीके से प्रबंधन नहीं होता, तो इसके परिणाम पर्यावरण पर बेहद गंभीर होते हैं। शहरों में यह नालियों और जल निकासी प्रणालियों को जाम कर देता है, जिससे बारिश के मौसम में जलभराव, मच्छरों की बढ़ोतरी और जलजनित रोगों का फैलाव होता है। ग्रामीण और तटीय क्षेत्रों में यह कचरा नदियों और समुद्रों में बहकर जलीय जीवों के लिए घातक साबित होता है, कछुए, मछलियां और समुद्री पक्षी अक्सर प्लास्टिक निगलने से मर जाते हैं। ज़मीन पर जमा प्लास्टिक मिट्टी की संरचना को बिगाड़ देता है, जिससे उसकी उर्वरता घटती है और फसल उत्पादन प्रभावित होता है। और सबसे चिंताजनक है माइक्रोप्लास्टिक्स (Microplastics) का कृषि भूमि और पीने के पानी के स्रोतों में प्रवेश। यह सूक्ष्म कण खाद्य श्रृंखला में शामिल होकर धीरे-धीरे मनुष्यों और जानवरों दोनों के स्वास्थ्य पर असर डालते हैं।

मानव स्वास्थ्य पर प्लास्टिक प्रदूषण के खतरे
प्लास्टिक के जलने से हवा में जहरीले रसायन, जैसे डाइऑक्सिन्स (Dioxins) और फ्यूरान्स (Furans) फैलते हैं, जो सांस के साथ शरीर में प्रवेश कर श्वसन संबंधी रोगों का कारण बनते हैं। लंबे समय तक इनके संपर्क में रहने से कैंसर (cancer), हार्मोनल असंतुलन (hormonal imbalance) और हृदय संबंधी बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। माइक्रोप्लास्टिक्स का खतरा अपेक्षाकृत नया है, लेकिन यह और भी पेचीदा है, क्योंकि ये अदृश्य रूप से हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं - खाने, पानी या यहां तक कि हवा के ज़रिए। वैज्ञानिक शोध अभी यह जानने में जुटे हैं कि यह कण लंबे समय में शरीर के अंगों, प्रतिरक्षा प्रणाली और मानसिक स्वास्थ्य पर क्या असर डाल सकते हैं। लखनऊ जैसे घनी आबादी वाले शहरों में, जहां कचरा प्रबंधन की चुनौतियां पहले से ही मौजूद हैं, इन स्वास्थ्य खतरों का जोखिम और अधिक है।
आर्थिक प्रभाव और भविष्य की चुनौतियां
अगर प्लास्टिक प्रदूषण को समय रहते नियंत्रित नहीं किया गया, तो भारत को 2030 तक अरबों रुपये का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह नुकसान केवल सफाई और कचरा निपटान की लागत तक सीमित नहीं है; इससे पर्यटन, मत्स्य पालन, कृषि और यहां तक कि रियल एस्टेट (real estate) जैसे क्षेत्रों पर भी असर पड़ता है। प्लास्टिक कचरे के पुनर्चक्रण में तकनीकी और आर्थिक दोनों कठिनाइयां हैं, कम गुणवत्ता वाला प्लास्टिक पुन: उपयोग योग्य नहीं होता, और जो पुनर्चक्रित होता भी है, उसका बाजार मूल्य अक्सर बहुत कम होता है। यह स्थिति नीति-निर्माताओं, उद्योगों और समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है, खासकर तब जब प्लास्टिक उत्पादन और उपभोग लगातार बढ़ रहा है।

भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के नियम और नीतियां
भारत सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए 2016 में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम लागू किए। इसके बाद 2021 में संशोधन कर एकल-उपयोग प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया गया, और 2022 तथा 2024 के संशोधनों ने इन प्रतिबंधों को और सख्त कर दिया। इन नीतियों का उद्देश्य न केवल प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग को सीमित करना है, बल्कि पुनर्चक्रण और वैकल्पिक सामग्रियों को बढ़ावा देना भी है। सरकारी स्तर पर स्वच्छ भारत मिशन और भारत प्लास्टिक समझौता जैसी पहलें सक्रिय हैं, वहीं गैर-सरकारी प्रयासों में प्रोजेक्ट रीप्लान (REPLAN - REducing PLAstic in Nature) और अन-प्लास्टिक कलेक्टिव (Un-Plastic Collective) जैसे कार्यक्रम शामिल हैं, जो जागरूकता फैलाने और व्यवहार में बदलाव लाने पर काम कर रहे हैं। हालांकि, इन सभी प्रयासों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि स्थानीय प्रशासन, नागरिक और उद्योग कितनी गंभीरता से इसमें भाग लेते हैं।
संदर्भ-
लखनऊ में गणेश चतुर्थी: आस्था, संस्कृति और नवाबी रंग का अनोखा संगम
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
07-09-2025 09:01 AM
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गणेश चतुर्थी भारत के सबसे लोकप्रिय और हर्षोल्लास से मनाए जाने वाले त्योहारों में से एक है। यह पर्व केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। चाहे कोई भी जाति, धर्म या समुदाय हो, भगवान गणेश सभी के आराध्य माने जाते हैं। विघ्नहर्ता और बुद्धि के देवता के रूप में प्रसिद्ध गणेश जी को नए आरंभ और सफलता का प्रतीक माना जाता है। यह दस दिवसीय उत्सव न केवल गणेश जी के जन्मोत्सव का प्रतीक है, बल्कि समाज में भाईचारा, सद्भाव और एकजुटता का संदेश भी देता है। श्रद्धालुओं का विश्वास है कि इन दस दिनों में गणेश जी धरती पर आकर अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं, और इसी भाव से उन्हें घर में अथवा पंडालों में विशेष अतिथि की तरह आदर-सत्कार के साथ स्थापित किया जाता है।
पहले वीडियो में हम गणपति बप्पा को श्रद्धांजलि और गणेश चतुर्थी का समापन देखेंगे।
नीचे दिए गए वीडियो में हम मुंबई के प्रसिद्ध गणपति दर्शन देखेंगे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और महाराष्ट्र में महत्व
गणेश चतुर्थी प्राचीन काल से भारत के विभिन्न राज्यों में मनाई जाती रही है, लेकिन महाराष्ट्र में इसकी भव्यता अद्वितीय है। मराठा शासनकाल में यह पर्व यहां प्रचलित हुआ, किंतु इसे जन-आंदोलन और जन-उत्सव का रूप देने का श्रेय स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को जाता है। 1893 में तिलक ने इसे पारिवारिक उत्सव से एक सार्वजनिक पर्व में परिवर्तित किया, ताकि ब्रिटिश शासन के दमन के बीच लोगों में एकता और राष्ट्रीय चेतना जागृत हो सके। अंग्रेज़ धार्मिक आयोजनों में हस्तक्षेप नहीं करते थे, इसलिए यह पर्व लोगों को एक मंच पर लाने का साधन बन गया।
अनुष्ठान और रीति-रिवाज़
गणेश चतुर्थी की तैयारियां महीनों पहले शुरू हो जाती हैं, जब कारीगर मिट्टी से विभिन्न आकार-प्रकार की गणेश प्रतिमाएं बनाते हैं। पहले दिन गणपति जी की प्रतिमा को घर या पंडाल में स्थापित कर ‘प्राण प्रतिष्ठा’ की जाती है, जिसमें मंत्रोच्चारण, पूजा-अर्चना और भोग अर्पण किया जाता है। दस दिनों तक प्रतिदिन पूजा और आरती होती है। अंतिम दिन, जिसे ‘अनंत चतुर्दशी’ कहते हैं, भव्य शोभायात्राओं के साथ गणपति विसर्जन किया जाता है। यह विसर्जन सृष्टि के चक्र और अनित्यत्व का प्रतीक है, जो बताता है कि सब कुछ अंततः निराकार में विलीन हो जाता है।
भोग और प्रसाद की परंपरा
गणेश चतुर्थी का एक विशेष आकर्षण इसका समृद्ध प्रसाद है। गणपति जी को मोदक, लड्डू और अन्य मिठाइयाँ अति प्रिय मानी जाती हैं। मोदक को तो उनका सर्वप्रिय भोग माना जाता है, और उन्हें ‘मोदकप्रिय’ भी कहा गया है। परंपरागत मोदक चावल के आटे और गुड़ से बनते हैं, किंतु आजकल चॉकलेट (chocolate), ड्राई फ्रूट (dry fruit) और तले हुए मोदक भी लोकप्रिय हैं। इसके अलावा मोतीचूर लड्डू, नारियल लड्डू, तिल के लड्डू, सत्तोरी, नारियल भात, श्रीखंड, बनाना (केले का) शीरा और पुरण पोली जैसे व्यंजन भी भोग में शामिल किए जाते हैं। इनमें से केले का भोग विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यह गणपति जी का प्रिय फल माना जाता है।
नीचे दिए गए वीडियो में हम मुंबई का प्रतीक्षित गणेश उत्सव देखेंगे।
संदर्भ-
https://shorturl.at/FeDWY
https://shorturl.at/8iMPB
https://short-link.me/16F85
https://short-link.me/1b4P5
https://short-link.me/1b4Pa
लखनऊ की यादों में बसते मुग़ल और ब्रिटिश दौर के सिक्कों का अनकहा इतिहास
मध्यकाल 1450 ईस्वी से 1780 ईस्वी तक
Medieval: 1450 CE to 1780 CE
06-09-2025 09:21 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ, जिसे तहज़ीब और नवाबी शान के लिए जाना जाता है, सिर्फ़ अपनी अदब-ओ-अंदाज़ और खानपान में ही नहीं, बल्कि इतिहास और आर्थिक विरासत में भी एक खास जगह रखता है। यहाँ की गलियों और बाज़ारों में आज भी पुराने सिक्कों और नोटों के कलेक्शन (collection) करने वाले लोग मिल जाते हैं, जो बीते दौर की कहानियाँ सहेज कर रखते हैं। मुग़ल साम्राज्य से लेकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company) के जमाने तक, लखनऊ भी उस बदलती मुद्रा व्यवस्था का गवाह रहा, जहाँ हर सिक्के में अपने समय की सत्ता, कला और पहचान झलकती थी। इस लेख में, हम आपको उसी दिलचस्प सफ़र पर ले चलेंगे, जिसमें आप जानेंगे कि कैसे सिक्कों ने न सिर्फ़ व्यापार, बल्कि हमारे इतिहास और संस्कृति की धारा को भी प्रभावित किया।
इस लेख में हम शुरुआत करेंगे मुग़ल साम्राज्य की स्थापना से और समझेंगे कि इसके साथ आर्थिक व्यवस्था किस तरह आगे बढ़ी और विकसित हुई। इसके बाद हम अकबर के शासनकाल की मुद्रा प्रणाली और उनके सिक्कों की खासियतों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। फिर हम जहाँगीर और शाहजहाँ के दौर में सिक्कों की कलात्मक बारीकियों और उनकी अनोखी पहचान को जानेंगे। इसके आगे हम औरंगज़ेब के समय की मुद्रा व्यवस्था और उस दौर के व्यापारिक स्वरूप पर नज़र डालेंगे। इसके बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में रुपये के इतिहास और ‘रुपया’ शब्द की उत्पत्ति से जुड़ी दिलचस्प बातें जानेंगे। अंत में, हम भारतीय इतिहास के सात सबसे महंगे और दुर्लभ सिक्कों की जानकारी प्राप्त करेंगे, जिनकी कीमत उनकी ऐतिहासिक अहमियत और अद्वितीय डिज़ाइन (unique design) के कारण आज भी चर्चाओं में रहती है।
मुग़ल साम्राज्य की स्थापना और आर्थिक व्यवस्था का विकास
मुग़ल साम्राज्य की नींव 1526 ई. में बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को पराजित करके रखी। इस विजय के पीछे केवल सैन्य कौशल ही नहीं, बल्कि सफ़ाविद और ओटोमन साम्राज्यों (Ottoman Empire) के कूटनीतिक व सैन्य समर्थन की भी अहम भूमिका थी। स्थापना के बाद, मुग़ल शासकों ने तीन से अधिक शताब्दियों तक भारतीय उपमहाद्वीप पर स्थिर शासन किया। इस काल में कृषि उत्पादन में वृद्धि, व्यापारिक मार्गों का विस्तार और बाजारों का संगठित ढांचा विकसित हुआ। सोने, चांदी और तांबे के स्थिर मूल्य वाले सिक्कों ने व्यापार को सरल बनाया और किसान से लेकर व्यापारी तक सभी वर्गों के लिए भरोसेमंद विनिमय प्रणाली उपलब्ध करवाई। आर्थिक व्यवस्था केवल राजस्व वसूलने का साधन नहीं थी, बल्कि यह साम्राज्य की शक्ति और स्थिरता का आधार बन चुकी थी।

अकबर के शासनकाल में मुद्रा प्रणाली और सिक्कों की विशेषताएँ
अकबर (1556–1605) के शासन को मुग़ल आर्थिक नीति और मुद्रा प्रणाली का स्वर्ण युग कहा जाता है। उन्होंने मुद्रा की एक समान मानक प्रणाली लागू की, जिसमें चांदी का रुपया और तांबे का बांध सबसे प्रमुख थे। प्रारंभिक दौर में 48 बांध एक रुपये के बराबर थे, जिसे समय के साथ घटाकर 38 बांध और अंततः 17वीं शताब्दी में 16 बांध प्रति रुपया कर दिया गया। इससे मुद्रा विनिमय में स्थिरता आई और मूल्य निर्धारण में एकरूपता बनी रही। अकबर के सिक्के उच्च शुद्धता (लगभग 97–98% चांदी) और कलात्मक डिज़ाइन के कारण आज भी संग्राहकों के लिए अनमोल धरोहर हैं। उनके चांदी के सिक्कों पर फारसी लिपि में शिलालेख, धार्मिक संदेश और सुंदर अलंकरण देखने को मिलते हैं, जो तत्कालीन कला और संस्कृति के स्तर को दर्शाते हैं।

जहाँगीर और शाहजहाँ के सिक्कों की कलात्मकता और विशिष्टता
जहाँगीर (1605–1627) का दौर मुग़ल सिक्कों में व्यक्तिगत अभिव्यक्ति और कलात्मक प्रयोग का समय था। उन्होंने अपने जीवन के शौक और रुचियों को सिक्कों पर उकेरने का साहस किया। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण ‘वाइन कप’ गोल्ड मोहर ('Wine Cup' Gold Mohur) है, जिसमें जहाँगीर खुद शराब का प्याला थामे दिखते हैं, जो सम्राट की जीवनशैली का प्रतीक है। इसके अलावा, उन्होंने राशि चक्र आधारित सिक्कों का भी प्रचलन किया, जिनमें महीनों की जगह ज्योतिषीय चिह्नों की बारीक नक़्क़ाशी थी। शाहजहाँ (1628–1658) के शासनकाल में भी सिक्कों पर सुंदर फारसी सुलेख, पुष्प आकृतियाँ और जटिल डिज़ाइन बनाए जाते थे। यह समय मुग़ल कला, वास्तुकला और हस्तकला के शिखर का प्रतीक माना जाता है, और सिक्कों की बनावट भी इसी उच्चता को प्रतिबिंबित करती है।
औरंगज़ेब के दौर में मुद्रा और व्यापार का स्वरूप
औरंगज़ेब आलमगीर (1658–1707) ने इस्लामिक कानून (शरिया) को कड़ाई से लागू किया, जिससे सामाजिक और धार्मिक नीतियों में बदलाव आया। इसके बावजूद, व्यापार और कृषि क्षेत्र में निरंतर विकास होता रहा। कपास, रेशम, मसाले और हस्तशिल्प वस्तुओं का निर्यात यूरोपीय, फ़ारसी और दक्षिण-पूर्व एशियाई बाज़ारों तक फैल गया। विदेशी व्यापारिक कंपनियाँ, विशेषकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, डच और पुर्तगाली, भारत में अपने व्यापारिक ठिकाने मजबूत कर रही थीं, जिससे सोने-चांदी का प्रवाह बढ़ा और मुद्रा प्रणाली को बल मिला। हालांकि, औरंगज़ेब के बाद के समय में साम्राज्य की राजनीतिक अस्थिरता ने मुद्रा की गुणवत्ता और स्थिरता को प्रभावित किया, जिससे आर्थिक संरचना में गिरावट आई।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में रुपये का इतिहास और ‘रुपया’ शब्द की उत्पत्ति
औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन शुरू हुआ और इसी बीच ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर राजनीतिक व आर्थिक नियंत्रण स्थापित किया। 1857 के विद्रोह के बाद, 1858 में ब्रिटिश क्राउन (British Crown) ने भारत का प्रत्यक्ष शासन अपने हाथ में ले लिया। ‘रुपया’ शब्द संस्कृत के ‘रूप्य’ से आया है, जिसका अर्थ है ‘गढ़ी हुई चांदी’। प्राचीन ग्रंथों में ‘रूप’ शब्द का प्रयोग शुद्ध चांदी के टुकड़े के लिए और ‘रूप्य’ शब्द का प्रयोग मुद्रांकित धातु के लिए होता था। ब्रिटिश काल में रुपया पूरी तरह मानकीकृत हुआ और इसे साम्राज्य के विभिन्न प्रांतों में एक समान मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आज भी दक्षिण एशिया और उसके बाहर लगभग 2 अरब लोग ‘रुपये’ का उपयोग करते हैं।
भारतीय इतिहास के 7 सबसे महंगे और दुर्लभ सिक्के
भारत के सिक्कों का इतिहास केवल आर्थिक लेन-देन की गाथा नहीं है, बल्कि यह कला, राजनीति और संस्कृति की झलक भी पेश करता है। कुछ सिक्के अपनी दुर्लभता, ऐतिहासिक महत्व और कलात्मक उत्कृष्टता के कारण आज भी संग्रहकर्ताओं की पहली पसंद हैं। इनमें प्रमुख हैं:
- जहाँगीर ‘वाइन कप’ गोल्ड मोहर – कीमत लगभग USD 220,000
- जहाँगीर ‘राशि’ गोल्ड मोहर – कीमत लगभग USD 150,000
- अकबर ‘राम-सिया’ चांदी का आधा रुपया – कीमत लगभग USD 140,000
- जहाँगीर और नूरजहाँ की संयुक्त गोल्ड मोहर – कीमत लगभग USD 90,000
- कनिष्क का बुद्ध सिक्का – कीमत लगभग USD 125,000
- कृष्ण देव राय ‘कनकाभिषेकम’ गोल्ड डबल पैगोडा (Gold Double Pagoda) – कीमत लगभग USD 60,000
इनकी ऊँची कीमत का कारण केवल उनकी दुर्लभता ही नहीं, बल्कि इन पर अंकित कलाकृतियों की उत्कृष्टता और उनके ऐतिहासिक महत्व में छिपा है।
संदर्भ-
क्यों हर साल 5 सितम्बर को लखनऊ में शिक्षक दिवस, डॉ. राधाकृष्णन की याद दिलाता है
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
Concept II - Identity of Citizen
05-09-2025 09:10 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
भारत में हर साल 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। यह दिन केवल कैलेंडर पर दर्ज़ एक तिथि या औपचारिक उत्सव भर नहीं है, बल्कि शिक्षा, ज्ञान और नैतिकता के उस आदर्श का स्मरण है, जिसने पूरे राष्ट्र की सोच को दिशा दी। इस दिन की पृष्ठभूमि में खड़ा है एक महान व्यक्तित्व, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। वे न सिर्फ़ भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे, बल्कि उससे कहीं अधिक, एक ऐसे शिक्षक और दार्शनिक थे जिन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध कर दिया कि शिक्षा केवल पेशा नहीं, बल्कि एक साधना है। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा शिक्षक वही है जो ज्ञान को केवल शब्दों तक सीमित न रखकर, उसे जीवन के अनुभवों और मूल्यों में ढाल दे। राधाकृष्णन का व्यक्तित्व गहरी विद्वत्ता, सरलता और मानवीय संवेदनाओं का अद्भुत संगम था। उन्होंने आधुनिक भारत की वैचारिक नींव को मजबूत किया और यह दिखाया कि शिक्षा केवल व्यक्तिगत सफलता का साधन नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र की प्रगति की आधारशिला है। लखनऊ में इस दिन का माहौल और भी खास हो जाता है। शहर के स्कूलों और कॉलेजों में छात्र अपने शिक्षकों का सम्मान करने के लिए विशेष कार्यक्रम आयोजित करते हैं। कहीं कविताएँ और भाषण होते हैं, तो कहीं नाटक और सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ। बच्चे अपने शिक्षकों को फूल, शुभकामना कार्ड (greeting card) और छोटी-छोटी भेंट देकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। कई जगहों पर छात्र उस दिन ‘टीचर बनकर’ कक्षा लेते हैं और यह अनुभव साझा करते हैं कि पढ़ाना केवल ज्ञान बाँटना ही नहीं, बल्कि धैर्य और ज़िम्मेदारी की भी परीक्षा है। लखनऊ का यह उत्सव, शिक्षक और शिष्य के बीच उस पवित्र रिश्ते को जीवित करता है, जो हमारी परंपरा की आत्मा है।
इस लेख में हम डॉ. राधाकृष्णन के जीवन और योगदान के कई पहलुओं को विस्तार से समझेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि उनका शैक्षणिक और दार्शनिक जीवन किस प्रकार भारत और विश्व को जोड़ने वाला सेतु बना। इसके बाद, हम चर्चा करेंगे कि उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी दर्शन को मिलाकर भारतीय विचारधारा को किस तरह वैश्विक मंच पर स्थापित किया। आगे, हम पढ़ेंगे कि उन्होंने राजनीति और कूटनीति में किस प्रकार नैतिकता और शांति का संदेश दिया। फिर, हम जानेंगे कि शिक्षक दिवस की परंपरा कैसे उनके व्यक्तित्व और शिक्षण के प्रति समर्पण से जुड़ी। अंत में, हम उनकी कूटनीतिक भूमिका और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उनकी छवि को समझेंगे।
शैक्षणिक और दार्शनिक जीवन
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को तमिलनाडु के तिरुत्तनी कस्बे में एक साधारण तेलुगु ब्राह्मण परिवार में हुआ। बचपन से ही वे अध्ययनशील, जिज्ञासु और गहन चिंतनशील स्वभाव के थे। प्रारंभिक शिक्षा तिरुत्तनी और तिरुपति के स्कूलों में हुई, इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से दर्शनशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की। उनके अध्यापन जीवन की शुरुआत आंध्र विश्वविद्यालय (1931–1936) और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (1939–1948) के कुलपति (Vice-Chancellor) के रूप में हुई, जहाँ उन्होंने शिक्षा को केवल पढ़ाने तक सीमित न रखकर, उसे एक जीवन-दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। इसके साथ ही वे कोलकाता विश्वविद्यालय में मानसिक और नैतिक विज्ञान के किंग जॉर्ज पंचम अध्यक्ष (King George V Chair of Mental and Moral Science (1921–1932)) पर आसीन रहे और बाद में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी (Oxford University) में पूर्वी धर्म और नैतिकता के स्पैल्डिंग प्रोफेसर (Spalding Chair of Eastern Religion and Ethics (1936–1952) भी संभाला। उनकी पुस्तकें, जैसे रवीन्द्रनाथ टैगोर का शैक्षिक दर्शन (The Philosophy of Rabindranath Tagore) और भारतीय दर्शन (Indian Philosophy), ने भारतीय दर्शन को विश्व पटल पर प्रस्तुत किया। इन कृतियों ने यह स्पष्ट किया कि भारतीय चिंतन केवल आस्था या परंपरा पर नहीं, बल्कि तार्किकता, अनुभव और मानवीय संवेदनाओं पर भी आधारित है।
पूर्व और पश्चिम के दर्शन का संगम
डॉ. राधाकृष्णन का सबसे बड़ा योगदान यही था कि उन्होंने पूर्व और पश्चिम के दार्शनिक दृष्टिकोणों के बीच एक सेतु (bridge) का निर्माण किया। वे मानते थे कि भारतीय दर्शन को समझने के लिए पश्चिमी विचारधारा का अध्ययन आवश्यक है, और पश्चिमी चिंतन को गहराई देने के लिए भारतीय दृष्टि अपरिहार्य है। इस संतुलन ने उन्हें एक वैश्विक दार्शनिक बना दिया। उनका विश्वास था कि विज्ञान और अध्यात्म में टकराव नहीं, बल्कि सहयोग की संभावना है। आधुनिक विज्ञान जहाँ बाहरी संसार को समझने की कुंजी देता है, वहीं अध्यात्म मनुष्य के भीतर के संसार को जानने का मार्ग प्रशस्त करता है। हिंदू धर्म की उनकी व्याख्या कर्मकांडों से परे थी। उन्होंने इसे एक जीवंत और विकसित होने वाले दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। उनके विचारों ने पश्चिमी विद्वानों को यह सोचने पर विवश किया कि भारतीय चिंतन केवल रहस्यवाद नहीं, बल्कि एक परिष्कृत दार्शनिक परंपरा है। इसी कारण उन्हें अक्सर “पूर्व और पश्चिम के बीच संवाद के दूत” कहा जाता है।

राजनीतिक और नैतिक दृष्टिकोण
डॉ. राधाकृष्णन का दार्शनिक चिंतन उनके राजनीतिक जीवन में भी स्पष्ट दिखाई देता है। वे मानते थे कि राजनीति केवल सत्ता प्राप्त करने का साधन नहीं हो सकती, बल्कि यह समाज को दिशा देने वाली शक्ति होनी चाहिए। जब वे भारत के पहले उपराष्ट्रपति और बाद में राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने इस पद को केवल औपचारिकता न मानकर, नैतिक मूल्यों को मजबूत करने का माध्यम बनाया। उनके भाषणों में हमेशा यह संदेश झलकता था कि किसी भी लोकतंत्र की असली ताक़त उसकी नैतिकता और शिक्षा पर टिकी होती है। वे कहते थे कि अगर समाज शिक्षित और नैतिक नहीं है, तो लोकतंत्र केवल नाम का रह जाएगा। उन्होंने भारत की विविधता को उसकी शक्ति बताया और यह माना कि सहिष्णुता ही किसी भी राष्ट्र की असली पहचान होती है। उनकी सोच आज भी प्रासंगिक है। जिस दौर में राजनीति अक्सर स्वार्थ और सत्ता की लड़ाई में सिमट जाती है, राधाकृष्णन का दृष्टिकोण हमें याद दिलाता है कि राजनीति में नैतिकता और आदर्श भी उतने ही आवश्यक हैं।
शिक्षक दिवस की परंपरा
1962 में जब वे भारत के राष्ट्रपति बने, तब उनके छात्रों और साथियों ने उनके जन्मदिन को विशेष रूप से मनाने का सुझाव दिया। इस पर उन्होंने विनम्रता से कहा - "यदि आप वास्तव में मेरा जन्मदिन मनाना चाहते हैं, तो इसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाइए।" यह कथन उनकी विनम्रता और शिक्षा के प्रति उनकी निष्ठा का प्रतीक था। तब से 5 सितम्बर को पूरे भारत में शिक्षक दिवस (Teacher’s Day) के रूप में मनाया जाने लगा। यह दिन केवल एक औपचारिक उत्सव नहीं है, बल्कि समाज को यह याद दिलाता है कि शिक्षक ही राष्ट्र की नींव हैं। राधाकृष्णन स्वयं मानते थे कि शिक्षक केवल ज्ञान ही नहीं देता, बल्कि वह समाज के भविष्य को गढ़ता है। आज भी जब हम अपने जीवन में किसी आदर्श शिक्षक को याद करते हैं, तो डॉ. राधाकृष्णन का यही संदेश जीवित हो उठता है, "शिक्षक राष्ट्र निर्माता होते हैं।" इस दृष्टि से उनका जन्मदिन केवल एक महान व्यक्ति का सम्मान नहीं, बल्कि हर शिक्षक के प्रति आभार प्रकट करने का अवसर है।

कूटनीतिक योगदान और वैश्विक दृष्टिकोण
डॉ. राधाकृष्णन केवल एक दार्शनिक या शिक्षक ही नहीं, बल्कि एक संवेदनशील और दूरदर्शी राजनयिक भी थे। 1949 से 1952 तक वे सोवियत संघ (Soviet Union) में भारत के राजदूत रहे। यह दौर शीत युद्ध (Cold War) का था, जब दुनिया दो महाशक्तियों में बँटी हुई थी। इस कठिन परिस्थिति में उन्होंने भारत की एक स्वतंत्र और संतुलित छवि प्रस्तुत की। उनकी कूटनीति में कठोरता की जगह नैतिकता और संवाद की जगह संवाद का भाव था। वे मानते थे कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थायी शांति तभी संभव है जब राष्ट्र अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर मानवता को प्राथमिकता दें। संयुक्त राष्ट्र (UN) जैसे मंचों पर उन्होंने निरस्त्रीकरण, सहिष्णुता और वैश्विक सहयोग की वकालत की। उनकी वैश्विक दृष्टि ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत केवल एक नया स्वतंत्र राष्ट्र ही नहीं है, बल्कि विश्व शांति और नैतिक मूल्यों का मार्गदर्शक भी बन सकता है। इस तरह, राधाकृष्णन की कूटनीति ने भारतीय राजनीति को एक गहरी नैतिक ऊँचाई दी।
संदर्भ-
ओडिशा के तट पर जीवन की वापसी: ऑलिव रिडली कछुओं की अद्भुत अरिबाडा यात्रा
रेंगने वाले जीव
Reptiles
04-09-2025 09:22 AM
Lucknow-Hindi

भारत का ओडिशा तट हर साल एक अद्भुत प्राकृतिक चमत्कार का गवाह बनता है, जब लाखों ऑलिव रिडली (Olive Ridley) समुद्री कछुए एक साथ समुद्र से बाहर आकर रेतीले तटों पर अंडे देने के लिए जमा होते हैं। यह दृश्य इतना अनोखा और आकर्षक होता है कि इसे देखने के लिए दुनियाभर के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और प्रकृति प्रेमी यहां खिंचे चले आते हैं। लखनऊ जैसे उत्तर भारत के इलाकों में रहने वाले हम लोगों के लिए यह घटना शायद रोज़मर्रा की खबरों से दूर हो, लेकिन यह भारत की जैव विविधता और समुद्री पारिस्थितिकी का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा है। लिव रिडली कछुए, जो दुनिया की सबसे छोटी समुद्री कछुआ प्रजातियों में से एक हैं, हजारों किलोमीटर की यात्रा कर ओडिशा के तट पर आते हैं और सामूहिक घोंसले बनाकर एक आश्चर्यजनक ‘अरिबाडा’ (Arribada) प्रक्रिया को जन्म देते हैं। ऑलिव रिडली कछुए आकार में छोटे होते हैं लेकिन इनका सामूहिक व्यवहार ‘अरिबाडा’, जिसमें हजारों मादा कछुए एक ही समय पर घोंसला बनाने के लिए समुद्र तट पर आती हैं, विश्व के सबसे बड़े प्राकृतिक आयोजनों में गिना जाता है। ये कछुए हर साल नवंबर से मई तक ओडिशा के विशिष्ट तटीय क्षेत्रों, जैसे गहिरमाथा, देवी और रुशिकुल्या में आते हैं और उसी स्थान पर अंडे देने के लिए लौटते हैं, जहां उन्होंने पहले अंडे दिए थे।
इस लेख में हम जानेंगे कि ऑलिव रिडली कछुए कौन होते हैं, इनकी बनावट और जीवन चक्र कैसा होता है, और भारत विशेषकर ओडिशा तट इनके लिए क्यों इतना महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही हम यह भी देखेंगे कि इन कछुओं को किस प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ रहा है, और भारत सरकार तथा संस्थानों द्वारा इनके संरक्षण हेतु कौन-कौन सी योजनाएं चलाई जा रही हैं, जैसे ऑपरेशन ऑलिविया (Operation Olivia), समुद्री अभयारण्यों की स्थापना, और टर्टल एक्सक्लूडर डिवाइसेज़ (Turtle Excluder Device) का उपयोग। यह लेख कछुओं की एक अद्भुत यात्रा और मानव की भूमिका के बारे में गहराई से समझने का एक प्रयास है।

ऑलिव रिडली कछुओं का परिचय, बनावट और जीवनचक्र
ऑलिव रिडली कछुए (लेपिडोचेलिस ओलिवेसिया - Lepidochelys olivacea) समुद्री कछुओं की सबसे छोटी और प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली प्रजाति हैं। इनका नाम इनके जैतूनी (ऑलिव) रंग के कारण पड़ा है। एक वयस्क ऑलिव रिडली की लंबाई लगभग 2 फीट और वजन 35–50 किलोग्राम तक हो सकता है। इनके फ्लिपर्स (flippers) पर एक या दो पंजे स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। मादा और नर कछुए लगभग समान दिखते हैं, लेकिन मादा का कवच कुछ अधिक गोल होता है। ये कछुए पूरी तरह मांसाहारी होते हैं और जेलीफ़िश (jellyfish), झींगा, केकड़े, घोंघे, मछलियाँ और उनके अंडों को अपना भोजन बनाते हैं। इनका पूरा जीवन समुद्र में बीतता है और वे प्रजनन और भोजन के लिए हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करते हैं।
ऑलिव रिडली की सबसे अद्भुत विशेषता है “अरिबाडा”, यानी जब हजारों मादाएं एक साथ एक ही समुद्र तट पर घोंसले बनाकर अंडे देती हैं। घोंसले बनाने के लिए वे 1.5 फीट गहरे गड्ढे खुदती हैं और एक बार में 100 से 140 अंडे देती हैं। 45–65 दिनों के बाद अंडों से बच्चे निकलते हैं, जो समुद्र तक रेंगते हैं। दुखद रूप से, अनुमान है कि 1000 बच्चों में से केवल 1 ही वयस्क अवस्था तक जीवित रह पाता है।
भारत में ऑलिव रिडली कछुओं का सबसे बड़ा घोंसला स्थल: ओडिशा तट
भारत में ऑलिव रिडली कछुओं के सबसे बड़े सामूहिक घोंसला स्थल के रूप में ओडिशा तट को विशेष मान्यता प्राप्त है। विशेषकर गहिरमाथा समुद्री अभयारण्य, जो केंद्रपाड़ा जिले में स्थित है, दुनिया का सबसे बड़ा अरिबाडा स्थल माना जाता है। यहां हर साल नवंबर-दिसंबर के दौरान लाखों मादा कछुए आते हैं और अप्रैल तक यहीं रुकते हैं। 1974 में गहिरमाथा किश्ती के पास पहला अरिबाडा दर्ज हुआ। इसके बाद 1981 में देवी नदी के मुहाने और 1994 में रुशिकुल्या नदी के पास अन्य बड़े घोंसला स्थलों की खोज की गई।
इन कछुओं को नदी के डेल्टा क्षेत्र और रेतीले तट अत्यंत पसंद हैं। यह भी देखा गया है कि वे अपने पहले अंडा देने वाले स्थल पर ही लौटना पसंद करते हैं। इनमें पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को महसूस करने की एक असाधारण क्षमता होती है, जिससे वे नेविगेशन (navigation) करते हैं। वे सूरज, चंद्रमा, समुद्री धाराओं और हवाओं का उपयोग करके अपने मार्ग का निर्धारण करते हैं।
ऑलिव रिडली कछुओं को होने वाले खतरे और मानवीय प्रभाव
हालांकि ऑलिव रिडली कछुए समुद्रों में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं, लेकिन पिछले कुछ दशकों में इनकी संख्या में तेज़ी से गिरावट देखी गई है। इसका सबसे बड़ा कारण मानवीय गतिविधियाँ हैं।
- मछली पकड़ने के दौरान जाल में फँसना: ट्रॉलिंग (trolling) के दौरान बड़ी संख्या में वयस्क कछुए मर जाते हैं। पिछले 13 वर्षों में 1.3 लाख से अधिक कछुओं की मृत्यु इसी कारण मानी गई है।
- आवास विनाश: पर्यटन, बंदरगाह और रियल एस्टेट विकास ने समुद्र तटों को नुकसान पहुँचाया है, जिससे घोंसले बनाने की जगहें घटती जा रही हैं।
- अवैध शिकार और व्यापार: मांस, अंडे, खोल और चमड़े के लिए इनका अवैध शिकार जारी है, जबकि अंतरराष्ट्रीय कानूनों द्वारा इसे प्रतिबंधित किया गया है।
- प्राकृतिक शत्रु: अंडों और बच्चों को समुद्री पक्षी, केकड़े और मछलियाँ खा जाती हैं। यह प्राकृतिक चक्र है, लेकिन मानवजनित खतरों ने मृत्यु दर को और बढ़ा दिया है।

भारत में ऑलिव रिडली कछुओं के संरक्षण की प्रमुख पहलें
भारत सरकार और विभिन्न संस्थानों ने ऑलिव रिडली कछुओं की सुरक्षा के लिए कई योजनाएँ शुरू की हैं।
- वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत ये कछुए अनुसूची I में आते हैं, जिसका अर्थ है कि इन्हें सबसे उच्च स्तर की कानूनी सुरक्षा प्राप्त है।
- साइट्स (CITES) कन्वेंशन के परिशिष्ट I में भी ये सूचीबद्ध हैं, जिससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार निषिद्ध है।
- गहिरमाथा समुद्री अभयारण्य की स्थापना 1997 में की गई थी ताकि इन कछुओं के घोंसला और प्रजनन स्थलों को संरक्षित किया जा सके।
- टर्टल एक्सक्लूडर डिवाइस (TED): यह एक विशेष प्रकार का मछली पकड़ने का जाल है, जिससे कछुए मछली पकड़ने वाले जाल से बाहर निकल सकते हैं। इसे अनिवार्य बनाया गया है।
- "नो फिशिंग जोन" (No Fishing Zone): ओडिशा सरकार ने प्रजनन काल में देवी और रुशिकुल्या नदी के आसपास के समुद्र को मछली पकड़ने के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया है।

ऑपरेशन ऑलिविया और तटरक्षक बल की भूमिका
ऑलिव रिडली कछुओं के संरक्षण के लिए भारत की तटरक्षक बल (Coast Guard) हर साल एक विशेष मिशन चलाती है, "ऑपरेशन ऑलिविया"। यह 8 नवम्बर 2014 को शुरू किया गया था।
इस ऑपरेशन के अंतर्गत:
- समुद्र में गश्त की जाती है ताकि मछली पकड़ने वाली नावें निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश न करें।
- टर्टल एक्सक्लूडर डिवाइस (TED) के उपयोग की निगरानी की जाती है।
- स्थानीय मछुआरों को जागरूक किया जाता है कि कछुओं की रक्षा करने से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र बना रहेगा।
- वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं और वन विभाग के साथ सहयोग किया जाता है ताकि डेटा (data) एकत्र किया जा सके और संरक्षण नीतियाँ प्रभावी बन सकें।
ऑपरेशन ऑलिविया, भारत के समुद्री संरक्षण प्रयासों का एक मजबूत स्तंभ बन चुका है। यह दिखाता है कि सतर्कता, विज्ञान और नीति मिलकर भी संकटग्रस्त प्रजातियों को संरक्षित कर सकते हैं।
संदर्भ-
लखनऊ की रोटियों का छिपा सच: ग्लूटेन हमारे लिए स्वाद या संकट?
डीएनए
By DNA
03-09-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊवासियों, कभी जब गेहूं की बालियाँ खेतों में लहराती थीं, तो वो सिर्फ़ अन्न नहीं देती थीं, बल्कि ज़िंदगी की एक सादगी भरी तस्वीर भी साथ लाती थीं। घरों में पकती रोटियों की सोंधी खुशबू, मिट्टी की गर्माहट और परिवार की मुस्कान, सब कुछ उस खाने से जुड़ा होता था। वह भोजन सिर्फ़ शरीर नहीं, आत्मा को भी पोषण देता था। लेकिन आज, पैकिंग (packing) की चमक, विज्ञापनों की चतुराई और विज्ञान की प्रयोगशालाओं ने हमारी थाली में बदलाव ला दिए हैं। हम जो खा रहे हैं, उसमें ग्लूटेन (gluten) जैसे प्रोटीन (protein) या जेनेटिकली मॉडिफाइड (genetically modified) अनाज जैसे तत्व छिपे हैं, जिनके असर को हम पूरी तरह नहीं समझते। क्या ये तकनीकी बदलाव हमारे शरीर के लिए सही हैं? क्या ये धीरे-धीरे हमारी पाचन शक्ति, इम्युनिटी (immunity) या मानसिक स्थिति को प्रभावित कर रहे हैं?
इस लेख में हम दो प्रमुख मुद्दों की पड़ताल करेंगे, पहला, ग्लूटेन नामक प्रोटीन जो आजकल कई रोगों का कारण बताया जा रहा है; और दूसरा, आनुवंशिक रूप से संशोधित भोजन (जीएमओ) जो वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर हमारी थालियों में पहुंच रहा है। हम जानेंगे कि ग्लूटेन क्या है और इसका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, जीएमओ खाद्य पदार्थ कितने सुरक्षित हैं, और किन सामान्य चीज़ों में ये छिपे होते हैं। अंत में हम यह भी समझेंगे कि इस बदलती खाद्य दुनिया में हम खुद को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं।

ग्लूटेन: हर रोटी में छिपा एक अनदेखा जोखिम?
ग्लूटेन एक स्वाभाविक रूप से पाया जाने वाला प्रोटीन है जो गेहूं, जौ और राई जैसे अनाजों में होता है। यह आटे को लचीला बनाता है और रोटियों या ब्रेड (bread) को वह स्वादिष्ट बनावट देता है जिसे हम बचपन से पहचानते आए हैं। परंतु आज यही ग्लूटेन कुछ लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गया है। 'सीलिएक डिज़ीज़' (Celiac Disease) जैसी गंभीर बीमारियां ग्लूटेन के कारण होती हैं, जिसमें शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली छोटी आंत को नुकसान पहुँचाती है। लक्षणों में लगातार पेट दर्द, दस्त, थकान और त्वचा पर चकत्ते शामिल हैं। हैरानी की बात ये है कि जिन लोगों को यह बीमारी नहीं भी है, वे भी ग्लूटेन से संबंधित 'नॉन-सीलिएक ग्लूटेन सेंसिटिविटी' (Non-Celiac Gluten Sensitivity) से जूझ सकते हैं। इसमें पेट फूलना, अपच, मानसिक थकान और चिड़चिड़ापन जैसी समस्याएं देखी जाती हैं। इसलिए अब बहुत से लोग “ग्लूटेन-फ्री डाइट” (gluten-free diet) को अपनाने लगे हैं, पर क्या यह हर किसी के लिए ज़रूरी है? इसका जवाब सरल नहीं, लेकिन सतर्कता ज़रूरी है।

आनुवंशिक रूप से संशोधित भोजन: विज्ञान की देन या स्वास्थ्य का संकट?
आनुवंशिक रूप से संशोधित भोजन आधुनिक कृषि विज्ञान की एक ऐसी खोज है जिसने फसलों को कीड़ों, सूखे और रोगों से लड़ने में सक्षम बना दिया है। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा पौधों के डीएनए को बदल कर इन्हें ज़्यादा उपजाऊ और टिकाऊ बनाया गया है। यह तकनीक विशेष रूप से उन देशों के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है जहाँ भूख और खाद्य संकट एक बड़ा मुद्दा है। लेकिन हर तकनीकी चमत्कार के साथ कुछ अनदेखी चुनौतियाँ भी आती हैं। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि इन जीएमओ उत्पादों का लंबे समय तक सेवन करने से एलर्जी, पाचन समस्याएं, हार्मोन असंतुलन (hormone imbalance) और यहां तक कि कैंसर (cancer) तक की संभावना हो सकती है। डब्ल्यू.एच.ओ. (WHO - विश्व स्वास्थ्य संगठन) और एफ.ए.ओ. (FAO - खाद्य और कृषि संगठन) जैसी संस्थाएं लगातार निगरानी कर रही हैं, पर आम जनता के पास पर्याप्त जानकारी का अभाव है। यही कारण है कि आम आदमी दुविधा में है, क्या यह वैज्ञानिक तरक्की है या एक धीमी जहर की शुरुआत?
संशोधित भोजन के छिपे खतरे: वैज्ञानिक चिंताएँ और दुविधाएँ
जीएमओ खाद्य पदार्थों के लाभों के साथ-साथ उनके जोखिम भी कम नहीं हैं। कई वैज्ञानिक शोधों में यह सामने आया है कि कुछ संशोधित फसलों में ऐसे जीन (gene) डाले गए हैं जो कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी बनाते हैं, लेकिन ये जीन मानव शरीर में पहुँच कर प्रतिरक्षा प्रणाली को भ्रमित कर सकते हैं। कुछ विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि लंबे समय तक ऐसे भोजन का सेवन शरीर में एलर्जी, आंतों की समस्या, यहां तक कि कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का कारण बन सकता है। इसके अतिरिक्त, जब फसलों में ऐसे जीन जोड़े जाते हैं जो एंटीबायोटिक (antibiotic) को निष्क्रिय कर देते हैं, तो इससे भविष्य में एंटीबायोटिक दवाएं असरहीन हो सकती हैं, जिसे हम 'एंटीबायोटिक रेसिस्टेंस' (antibiotic resistance) कहते हैं। यानी आज जो खाना हमें मजबूत बनाने के लिए खाया जा रहा है, वह कल हमारी चिकित्सा को असहाय बना सकता है। यह सोचने वाली बात है कि लाभ और हानि के इस संतुलन में हम किस ओर खड़े हैं?

ग्लूटेन और आनुवंशिक हस्तक्षेप: क्या समाधान है CRISPR?
जैसे-जैसे ग्लूटेन से जुड़ी समस्याएं सामने आने लगीं, वैज्ञानिकों ने इनसे निपटने के लिए नई राहें तलाशनी शुरू कर दीं। हाल ही में क्रिस्पर (CRISPR) नामक जीन-संपादन तकनीक ने आशा की किरण जगाई है। इस तकनीक से वैज्ञानिक गेहूं के डीएनए को इस प्रकार संशोधित कर रहे हैं कि उसमें से ग्लूटेन उत्पन्न करने वाले तत्व हटा दिए जाएं, जिससे रोटियां उसी स्वाद और पोषण के साथ, ग्लूटेन-फ्री बन सकें। पहले आरएनएआई (RNAi) तकनीक का उपयोग होता था, पर क्रिस्पर अधिक तेज़, सटीक और असरदार साबित हो रही है। हालांकि यह तकनीक सुनने में आशाजनक लगती है, लेकिन इससे जुड़ी नैतिक और स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं अभी भी बरकरार हैं। क्या हम भोजन के प्राकृतिक स्वरूप से खिलवाड़ कर रहे हैं, या यह इंसान की बुद्धिमत्ता का अगला चरण है? इस प्रश्न का उत्तर आने वाले वर्षों में ही स्पष्ट होगा।
रोज़मर्रा की थाली में छिपे संशोधित खाद्य: जानिए 10 आम स्रोत और बचाव के उपाय
हम में से अधिकतर लोग रोज़ कुछ न कुछ ऐसा खा रहे हैं जिसमें जीएमओ शामिल हो सकते हैं, और हमें इसका अंदाज़ा तक नहीं होता। आपके नाश्ते की सीरियल से लेकर मिठास देने वाले सिरप, तेल, टॉफी (toffee), चॉकलेट (chocolate), फास्ट फूड (fast food), और यहां तक कि बच्चों के फ़ॉर्मूला दूध (formula milk) में भी ये संशोधित तत्व मौजूद हो सकते हैं। विशेषकर, कार्बोनेटेड पेय (carbonated drinks), टोफू (tofu), वनस्पति तेल, डिब्बाबंद सूप (canned soup), जमे हुए भोजन और प्रोटीन शेक्स (protein shakes) जैसी चीज़ें इनसे भरपूर होती हैं। इनसे बचने के लिए सबसे पहला उपाय है - "100% ऑर्गैनिक" (100% Organic) लेबल (label) देखना। दूसरा, पैकेटबंद और प्रोसेस्ड फूड (processed food) को कम से कम करना। तीसरा, जिन चीज़ों पर "बायोइंजीनियर्ड" (Bioengineered) लिखा हो, उनसे सावधानी बरतना। और चौथा - स्थानीय मंडियों और किसानों से खरीदी करना, जहां पारंपरिक खेती की संभावना अधिक होती है। यह न केवल स्वास्थ्य के लिए बेहतर है, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूती देता है।
संदर्भ-
संस्कृति 2115
प्रकृति 739