लखनऊ - नवाबों का शहर












आइए जानें, कैसे शुरू कर सकते हैं आप लखनऊ में अपना मत्स्य पालन व्यवसाय
मछलियाँ व उभयचर
Fishes and Amphibian
29-04-2025 09:28 AM
Lucknow-Hindi

हम में से कई लखनऊ वाले लोग, बड़ी पसंद के साथ अपने आहार में मछली खाते हैं। आखिरकार, लखनऊ की समृद्ध पाक विरासत में ज़मीनदोज़ मछली, माही रेज़ला, अजवाइन मछली टिक्का, मछली बिरयानी और सुफ़ियानी मछली कोरमा जैसे अति सुंदर मछली व्यंजन शामिल हैं। ये मछली व्यंजन, मुगल और अवध स्वाद के साथ अत्यंत स्वादिष्ट बनते हैं। इस संदर्भ में, क्या आप जानते हैं कि, भारत का मत्स्य पालन क्षेत्र लगभग 28 मिलियन लोगों को आजीविका प्रदान करता है; जिसमें मछुआरे, मछली किसान और प्रसंस्करण व विपणन में शामिल लोग मौजूद हैं। तो आज, आइए उत्तर प्रदेश में मछली उत्पादन की वर्तमान स्थिति की खोज करते हैं। उसके बाद, हम भारत में मत्स्य क्षेत्र के विकास हेतु किए जा रहे कुछ प्रयासों का पता लगाएंगे। फिर, हम मत्स्य पालन के लिए आवश्यक, कुछ सबसे महत्वपूर्ण उपकरणों के बारे में बात करेंगे। इसके अलावा, हमें पता चलेगा कि, भारत के मत्स्य पालन क्षेत्र में प्रौद्योगिकी की स्थिति क्या है। अंत में, हम देखेंगे कि, आप लखनऊ में अपना खुद का मछली फ़ार्म कैसे शुरू कर सकते हैं।
उत्तर प्रदेश में मछली उत्पादन की वर्तमान स्थिति:
उत्तर प्रदेश में 2023 में, 9.15 लाख मेट्रिक टन मछली उत्पादन हुआ था, जो 2022 में 8.08 लाख मेट्रिक टन दर्ज किया गया था। इसी तरह, राज्य ने 2022 में 27,128 लाख मेट्रिक एवं 2023 में 36,187 लाख मेट्रिक टन मछली बीज का उत्पादन दर्ज किया है। साथ ही, विभिन्न योजनाओं के माध्यम से लाभार्थियों को 152.82 करोड़ रुपये प्रदान किए गए हैं। संबंधित अधिकारियों ने कहा हैं कि, 68 ज़िलों की नदियों में मछली फ़ार्म बनाए जा रहे हैं।
भारत में उत्तर प्रदेश को मत्स्य क्षेत्र केंद्र के रूप में स्थापित करने हेतु, किए जा रहें प्रयास:
मछुआरे दुर्घटना बीमा योजना’ (Fishermen Accident Insurance Scheme) ने राज्य में 1,16,159 मछुआरों को लाभान्वित किया है। इस योजना के अनुसार, उन मछुआरों को 5 लाख रुपये की सहायता दी जाती है, जिनकी दुर्घटनाओं में मृत्यु होती हैं; विकलांग होने वाले मछुआरों को 2.5 लाख रुपये दिए जाते हैं; एवं घायल होने वाले मछुआरों को 25,000 रुपये दिए जाते हैं।
मत्स्य क्षेत्र केंद्र के रूप में राज्य को विकसित करने के लिए, चंदौली में एक अत्यंत आधुनिक ‘मत्स्य मॉल’ निर्माणाधीन है, जिसमें 62 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है। आदित्यनाथ योगी सरकार ने 2023 में 14,021 मछुआरों के लिए, 10,772.77 लाख रुपयों के कुल बैंक ऋण को मंजूरी दी है। इसके अलावा, विभाग ने 1500 से अधिक मछुआरों को, मछली पालन खेती में प्रशिक्षण प्रदान किया है।
मछली पालन के लिए आवश्यक कुछ सबसे महत्वपूर्ण उपकरण:
1.) पंप (Pumps):
पारंपरिक मछली किसान, एक जल स्रोत के अंदर टैंक और जाल का उपयोग करते हैं। हालांकि गर्म मौसम में, वाष्पीकरण से जल स्रोत में पानी की कमी हो सकती है। यही कारण है कि, मछलियों के लिए पर्याप्त मीठे पानी की आपूर्ति हेतु, पंप स्थापित किए जाते हैं। कई किसान, मत्स्य पालन मौसम के अंत में, स्त्रोत से पानी को बाहर निकालने के लिए भी पंप का उपयोग करते हैं।
2.) वायु संचरण उपकरण (Aeration Devices):
यह सुनिश्चित करने के लिए कि, मछलियों को पर्याप्त ऑक्सीजन आपूर्ति मिल रही है, एक वायु संचारण उपकरण का उपयोग किया जाना चाहिए। ऐसे उपकरण, आपको एक छोटी सी जगह में भी अधिक मछली रखने की अनुमति देते हैं। यह मछलियों को स्वस्थ रखने और कम अवधि में तेज़ी से बढ़ने में मदद करते है। वायु संचरण उपकरण, अशुद्धियों को हटाकर पानी को पुनर्चक्रित करने में भी मदद करते हैं।
3.) स्वचालित मछली फ़ीडर(Automatic Fish Feeder):
स्वचालित मछली फ़ीडर, एक नियोजित अंतराल पर मछलियों को अन्न खिलाता है। यह काफ़ी प्रभावी है, क्योंकि यह किसानों को, मछलियों को हाथ से खिलाने के समय और प्रयास से बचाता है। हालांकि, स्वचालित मछली फ़ीडर केवल तभी ठीक से काम कर सकता है, जब पानी को यांत्रिक रूप से पुनर्नवनीकृत किया जाता है। यदि पानी संतृप्त और अशुद्ध होने पर भी फ़ीडर मछली को अन्न खिलाना जारी रखता है, तो मछलियां मर भी सकती हैं।
4.) सीन रील(Seine Reel):
मछली पकड़ने के दौरान, पानी से मछली को इकट्ठा करने के लिए, सीन रील का उपयोग किया जाता है। सीन को झील या तालाब में फ़ेंक दिया जाता है, जहां यह नीचे तक डूब जाता है। फिर किनारे पर मौजूद एक ट्रैक्टर की मदद से, रील को सीन के किनारों पर इकट्ठा किया जाता है, जिससे जाल के अंदर मछलियां फंस जाती हैं।
भारत के मत्स्य पालन क्षेत्र को, प्रौद्योगिकी द्वारा कैसे विकसित किया जा रहा है?
तकनीकी प्रगति, भारतीय मत्स्य पालन क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए तैयार हैं। सैटेलाइट (Satellite) आधारित मत्स्य प्रबंधन प्रणालियों, उन्नत प्रजनन तकनीकें, स्वचालित फ़ीडर, बायोफ़्लॉक प्रौद्योगिकी, एक्वापॉनिक्स (Aquaponics) और जल गुणवत्ता निगरानी प्रणाली जैसे नवाचार, मत्स्य उत्पादकता और स्थिरता को बढ़ा रहे हैं। ये प्रौद्योगिकियां, मछलियों की बेहतर निगरानी, कुशल संसाधन उपयोग, मछलियों के स्वास्थ्य में सुधार और पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने में भी मदद करती हैं।
इसके अलावा, डिजिटल उपकरण और मोबाइल विभिन्न एप्लिकेशन, किसानों को वास्तविक समय की जानकारी और सहायता प्रदान कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, भौगोलिक सूचना प्रणाली (Geographic Information Systems – जी आई एस) और रिमोट सेंसिंग(Remote sensing) प्रौद्योगिकियों का उपयोग, मछली पकड़ने वाले क्षेत्रों के सटीक मानचित्रण और जलीय वातावरण की निगरानी के लिए अनुमति देता है। मौसम के पूर्वानुमानों से लेकर, बाज़ार की कीमतों तक, ये प्रौद्योगिकियां किसानों को सूचित निर्णय लेने और सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाने के लिए सशक्त बनाती हैं।
आप लखनऊ में, अपना खुद का मछली फ़ार्म कैसे शुरू कर सकते हैं ?
•तालाब तैयार करना:
एक तालाब अस्थायी या स्थायी हो सकता है। अस्थायी तालाब का उपयोग, कुछ तेज़ी से बढ़ने वाली प्रजातियों हेतु मौसमी मछली पालन के लिए किया जाता है। तालाब में आपको पानी के इनलेट्स और आउटलेट भी स्थापित करने होंगे। साथ ही, आपको पानी के पी एच (pH) स्तर को अनुकूलित करने के लिए भी उपाय करना चाहिए। यह प्रत्येक मछली प्रजातियों के लिए अलग होगा।
•मछली की उपयुक्त नस्लों का चयन:
आपको मछली की नस्लों को चुनने से पहले, मत्स्य पालन वातावरण, बाज़ार की मांग और रखरखाव के तरीकों पर विचार करना चाहिए। आप मोनोकल्चर (Monoculture (एक प्रकार की मछली प्रजाति का पालन)) या पॉलीकल्चर (Polyculture (एक साथ विभिन्न प्रकार की मछलियों का पालन)) कर सकते हैं।
•मछली पालन वातावरण का रखरखाव:
इसमें मछलियों की देखभाल करना, पानी के पीएच स्तर को बनाए रखना, मछलियों को अन्न खिलाना, पानी को बदलना आदि शामिल हैं। आपको तालाब से किसी भी अस्वास्थ्यकर मछली को हटाने के लिए, दैनिक आधार पर ध्यान भी देना चाहिए। मछली फ़ार्म में उनकी बीमारियों के इलाज और बीमारियां रोकने के लिए उचित उपाय करना भी यहां शामिल एक महत्वपूर्ण कदम है।
•मछलियों के लिए एक बाज़ार खोजना:
आप स्थानीय बाज़ार या मछलियों का निर्यात करना भी चुन सकते हैं। एक शुरुआत के रूप में, स्थानीय बाज़ार चुनने से आपको मदद मिलेगी। एक बार जब आप अपना मछलियों का फ़ार्म स्थापित कर लेते हैं, तो आप निर्यात के बारे में सोच सकते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
आइए जानें, इंडो-इस्लामिक और यूरोपीय प्रभावों के साथ कैसे विकसित हुआ हमारा लखनऊ
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
Colonization And World Wars : 1780 CE to 1947 CE
28-04-2025 09:27 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि लगभग 1350 ईस्वी से, हमारा शहर लखनऊ शाही संस्थाओं, विशेष रूप से, दिल्ली सल्तनत, शर्की सल्तनत, मुगल साम्राज्य, अवधी नवाबों, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company), और अंततः, ब्रिटिश राज, द्वारा लगातार प्रभुत्व में रहा, प्रत्येक ने इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत पर एक अमिट छाप छोड़ी है। जब मुगल साम्राज्य ने भारत को 12 प्रांतों में विभाजित किया, तो लखनऊ अवध के सूबेदार के अधीन आ गया। 1722 में नवाब सादात खान (Saadat Ali Khan) ने सत्ता की बागडोर संभाली और अवध राजवंश की स्थापना की। 1775 में, जब आसफ़-उद-दौला (Asaf-ud-Daula), अवध के चौथे नवाब बने, तो उन्होंने अपनी राजधानी फैज़ाबाद से लखनऊ स्थानांतरित करने का फैसला किया। इसी बीच लखनऊ की वास्तुकला ने भी विभिन्न प्रभावों के साथ अपना रूप धारण किया। शहर के इमामबाड़ों, महलों, उद्यानों और आवासीय संरचनाओं जैसे वास्तुशिल्प चमत्कारों में अवधी वास्तुकला के शाही तत्व देखे जा सकते हैं। तो आइए, आज लखनऊ के अवध की राजधानी बनने के सफ़र और नवाब आसिफ़-उद-दौला के अधीन अवध के प्रशासन के विषय में जानते हैं। इसके साथ ही, हम नवाबों के शासनकाल के दौरान, लखनऊ के कुछ सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्मारकों जैसे बड़ा इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा और फ़रहत बख्श की वास्तुकला की विशेषताओं और अवध वास्तुकला में प्रयुक्त भवन निर्माण सामग्री के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम लखनऊ की वास्तुकला पर इंडो-इस्लामिक और यूरोपीय प्रभावों के बारे में विस्तार से जानेंगे।
लखनऊ के अवध की राजधानी बनने की यात्रा:
1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अवध साम्राज्य पर औपचारिक रूप से कब्ज़ा करने के बाद, एक समझौता हुआ, जिसे बाद में 1857 के विद्रोह के दौरान नष्ट कर दिया गया, जिससे सभी महत्वपूर्ण रिकॉर्ड भी नष्ट हो गए। आइन-ए-अकबरी से पता चलता है कि 1580 ईसवी में, मुगल सम्राट अकबर द्वारा अवध के प्रशासनिक प्रांत की स्थापना के बाद से लखनऊ एक महत्वपूर्ण शहर के रूप में सामने आया। 1722 में शौकत जंग (1680-1739) की नवाब वज़ीर के रूप में नियुक्ति से नवाबों के राजवंश की शुरुआत हुई। हालांकि, शुरुआत में अवध की राजधानी फैज़ाबाद में स्थित थी, 1775 में नवाब आसफ़- उद-दौला ने राजधानी को लखनऊ स्थानांतरित करने का फ़ैसला लिया।
नवाब आसिफ़-उद-दौला के अधीन अवध का प्रशासन:
आसिफ़-उद-दौला ने अवध में शासन को केंद्रीकृत करने और राजस्व प्रणालियों को आधुनिक बनाने के उद्देश्य से कुछ सुधार लागू किए, जो इस प्रकार हैं:
शासन का केंद्रीकरण: नवाब आसिफ़-उद-दौला ने अपनी सत्ता को संघटित करने के उद्देश्य से शासन की अधिक केंद्रीकृत प्रणाली स्थापित करने की मांग की। इसमें स्थानीय ज़मींदारों की स्वायत्तता को कम करना और अधिक प्रशासनिक कार्यों को राज्य के सीधे नियंत्रण में लाना शामिल था।
राजस्व प्रणालियों का आधुनिकीकरण: अवध में पारंपरिक राजस्व संग्रह प्रणाली जमींदारी प्रणाली पर आधारित थी, जिसमें जमींदार सुरक्षा और प्रशासन के बदले में किसानों से राजस्व एकत्र करते थे। लेकिन, यह प्रणाली शोषणकारी और अक्षम थी। आसफ़-उद-दौला ने अधिक व्यवस्थित और मानकीकृत राजस्व संग्रह तरीकों को शुरू करने का प्रयास किया। इसमें वास्तविक उत्पादकता के आधार पर भूमि राजस्व का आकलन करना और स्थानीय ज़मींदारों द्वारा मनमाने करों को बदलने के लिए निश्चित दरें लागू करना शामिल था।
नौकरशाही की स्थापना: इन सुधारों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, नवाब आसफ़-उद-दौला ने एक संरचित नौकरशाही की स्थापना की। इस नौकरशाही में राजस्व संग्रह, कानून-व्यवस्था एवं सार्वजनिक कार्यों जैसे विभिन्न प्रशासनिक कार्यों की देखरेख के लिए नवाब द्वारा अधिकारी नियुक्त किए गए। नौकरशाही प्रणाली की स्थापना से प्रशासन को केंद्रीकृत करने और राज्य भर में शासन में एकरूपता सुनिश्चित करने में मदद मिली।
न्यायिक सुधारों का परिचय: नवाब ने न्यायिक प्रणाली में सुधार पर भी ध्यान केंद्रित किया। न्यायिक सुधारों का उद्देश्य न्याय तक बेहतर पहुंच प्रदान करना, भ्रष्टाचार को कम करना और कानूनी कार्यवाही में निष्पक्षता सुनिश्चित करना था। इसमें नियुक्त न्यायाधीशों के साथ औपचारिक अदालतें स्थापित करना, मानकीकृत कानूनी प्रक्रियाएं और न्याय प्रशासन में स्थिरता तथा निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए कानूनों का संहिताकरण शामिल था।
बुनियादी ढांचे का विकास: प्रशासनिक सुधारों के साथ-साथ, बुनियादी ढांचे के विकास के प्रयास भी किये गये। इसमें व्यापार, संचार और सुविधा के लिए सड़कों, पुलों और सार्वजनिक भवनों में निवेश किया गया। बेहतर बुनियादी ढांचे से न केवल अवध में आवागमन को बढ़ावा मिला, बल्कि आर्थिक विकास और राज्य के आधुनिकीकरण में भी योगदान मिला।
इन प्रशासनिक सुधारों का अवध समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा। केंद्रीकृत शासन और आधुनिक राजस्व प्रणालियों ने राज्य के वित्त को स्थिर करने और सार्वजनिक सेवाओं में सुधार करने में मदद की। नौकरशाही की शुरूआत ने शिक्षित अभिजात वर्ग के लिए राज्य की सेवा करने के नए अवसर पैदा किए, जिससे सरकारी अधिकारियों के एक वर्ग का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त, न्यायिक सुधारों ने आर्थिक गतिविधियों और सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा देते हुए अधिक पूर्वानुमानित कानूनी माहौल बनाने में योगदान दिया।
नवाबों के शासनकाल के दौरान लखनऊ की वास्तुकला की विशेषताएं:
धार्मिक वास्तुकला का रूप - इमामबाड़े:
कब्रें, इमामबाड़े और मस्ज़िद जैसी विशाल इमारतें वास्तुकला के पारंपरिक तत्वों को दर्शाती हैं। धार्मिक वास्तुकला की इस शैली में, इमारतों के गुंबदों में जटिल विवरण, लंबी मीनारें, प्रवेश द्वार में सजावटी तत्व के रूप में मछली, आधार के लिए उच्च चबूतरे, मठ, मेहराब और छतरी शामिल हैं।
रूमी दरवाज़ा: यह लखनऊ में अवधी वास्तुकला के उदाहरणों में से एक है, जिसका निर्माण, 1784 में नवाब आसफ़-उद-दौला द्वारा किया गया था। रूमी दरवाज़े का वास्तुशिल्प विवरण इस तरह से है जैसे कि यह मुगलों के जीवन जीने के तरीके का प्रतिनिधित्व करता हो। उल्टा वी-धनुषाकार प्रवेश द्वार, चिकनकारी कपड़ों की स्थानीय शैली को दर्शाता है। यह दरवाज़ा, छोटे और बड़े इमामबाड़ा के बीच एक संबंध की तरह काम करता है। 60 फ़ीट ऊंचे इस दरवाज़े में मूल रूप से लाल पत्थर की संरचना है, जिसके ऊपर सजावटी मेहराबों के लिए ईंटों की परतों का उपयोग किया गया है।
फ़रहत बख्श: 1781 में एक आवासीय महल के रूप में निर्मित इस कलात्मक वास्तुशिल्प डिज़ाइन को छत्तर मंजिल के रूप में भी जाना जाता है। यह इमारत, गोमती नदी के तट पर स्थित है, जो एक अष्टकोणीय आधार पर नदी के सबसे निचले स्तर से ऊपर उठी हुई है। इस इमारत के डिज़ाइन में इंडो-मुगल और यूरोपीय तत्वों का मिश्रण देखने को मिलता है।
अवध वास्तुकला में प्रयुक्त भवन निर्माण-सामग्री:
अवध वास्तुकला शैली की विशेषता लोहे का कम उपयोग और बीम न होना है। लखौरी ईंटों, ऊंचे गुंबददार हॉल और छत की मुंडेरों के साथ, इस वास्तुकला शैली में एक यूरोपीय रंग देखने को मिलता है। लखौरी ईंटों से बनी संरचनाओं पर आमतौर पर चूने का प्लास्टर भी लगाया जाता था। सजावट के लिए, अधिकांश सामग्री दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आयात की जाती थी। संगमरमर एवं प्राकृतिक पत्थरों का प्रयोग भी आम था।
लखनऊ की वास्तुकला पर इंडो-इस्लामिक प्रभाव:
लखनऊ के नवाब, मुगल कुलीन वर्ग के ईरानी समूह से संबंधित थे और इसलिए उनका फ़ारसी विचारधाराओं से गहरा संबंध था। इस विचारधारा ने उनकी शैलीगत विशेषताओं को प्रभावित किया, जैसे, मछली जैसे पशु रूपांकनों का उपयोग। कई स्मारकों के प्रवेश द्वारों के मेहराब पर मछली के ये प्रतीक देखे जा सकते हैं। सभी मृत नवाबों के लिए एक मकबरा भी बनवाया जाता था। उस समय के घरों में मर्दाना और ज़नाना भाग अलग होते थे। घरों में भूलभुलैया जैसे रास्ते भी होते थे, जो मुख्य रूप से निवासियों द्वारा उपयोग किए जाते थे। इस वास्तुकला का रणनीतिक महत्व था, क्योंकि बाहरी लोग संकीर्ण रास्तों की जटिलता को समझने में असमर्थ होते थे और इसलिए अजनबी यहां तक नहीं पहुंच सकते थे।
यूरोपीय प्रभाव:
भारत की गर्म जलवायु ने, विशेष रूप से गर्मियों के दौरान, ब्रिटिशों को स्वदेशी घरों की तुलना में यूरोपीय घरों को प्राथमिकता देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वदेशी घरों के विपरीत, क्षेत्र में यूरोपीय घरों में बीच में आंगन नहीं होता था और घर के भीतर निजी और सार्वजनिक स्थान अलग-अलग थे। इसका एक उदाहरण लखनऊ की सबसे पुरानी यूरोपीय इमारतों में से एक दुलकुशा में प्रभावी ढंग से देखा जा सकता है। इसके अलावा, पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग स्थान नहीं थे और दरवाज़े तथा खिड़कियां बहुत बड़े होते थे। अंदर से अलंकृत स्वदेशी घरों के स्थान पर अब बाहर से अलंकरण का भव्य प्रदर्शन किया जाने लगा।
संदर्भ
लखनऊ का हार्डिंग पुल चित्र स्रोत : प्रारंग चित्र संग्रह
आइए, नज़र डालें, धीमी गति में उन चालों पर, जो घोड़ों को बनाती हैं अनोखा
व्यवहारिक
By Behaviour
27-04-2025 09:02 AM
Lucknow-Hindi

हमारे प्यारे शहर वासियों, क्या आप जानते हैं, कि घोड़े की चाल (Horse Gait), उसके चलने के एक विशिष्ट तरीके को प्रदर्शित करती है। आपने अक्सर देखा होगा कि घोड़े एक विशिष्ट लय के साथ चलते हैं। उनकी यह चालें प्राकृतिक भी हो सकतीं हैं या उन्हें प्रशिक्षण के माध्यम से ऐसे चलना सिखाया जा सकता है। प्रत्येक चाल का एक विशिष्ट पैटर्न और गति होती है। घोड़े की सबसे सामान्य प्राकृतिक चालों में आम तरीके से चलना, दुलकी चाल (trot), कैंटर (canter) या लोप (lope) और सरपट चाल (gallop) शामिल हैं। दूसरी ओर, इनकी कृत्रिम चालों के उदाहरणों में रैक (rack), धीमी चाल और फ़ॉक्स ट्रॉट (fox trot) शामिल हैं। इन जीवों को एक विशिष्ट चाल मुख्य रूप से सुविधाजनक गति देने के लिए सिखाई जाती है। घोड़ों की चाल में एक प्राकृतिक संतुलन और गति का संयोजन होता है है, जो इनको आराम से चलने से लेकर तेज़ सरपट दौड़ने तक में मदद करता है। घोड़ों की चाल की बात करें तो मारवाड़ी घोड़े की नस्ल, भारत में अपनी गति और धैर्य के लिए जानी जाती है। घोड़ों को एक विशिष्ट चाल देने के लिए उन्हें एक विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है क्योंकि कृत्रिम चाल स्वाभाविक रूप से नहीं उभरती है। कुछ नस्लें जैसे पासो फिनो (Paso Fino) या टेनेसी वॉकिंग हॉर्स (Tennessee Walking Horse) आदि आसानी से कृत्रिम चाल को अपना लेती हैं। तो चलिए, आज, हम धीमी गति में प्रस्तुत कुछ चलचित्रों के ज़रिए घोड़ों की विभिन्न चालों, चलते समय उनके अपनी गति पर नियंत्रण और उसकी शान को नज़दीक से देखेंगे। प्रत्येक वीडियो क्लिप के माध्यम से हम समझेंगे कि घोड़े की चाल उसके बल, संतुलन और लय को किस तरह दर्शाती है। एक अन्य दृश्य से हम जानेंगे कि चलते समय मारवाड़ी घोड़े की विशिष्ट शैली कैसे उभर कर सामने आती है।
संदर्भ:
स्पैन्डेक्स जैसे सिंथेटिक फ़ैब्रिकों से बने वस्त्र बदल रहे हैं लखनऊ के कपड़ा बाज़ार को !
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
26-04-2025 09:15 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ का वस्त्र बाज़ार अपनी पारंपरिक चिकनकारी कढ़ाई के लिए जाना जाता है, लेकिन अब यहाँ के बाज़ार में पॉलिएस्टर (Polyester), नायलॉन (Nylon), रेयॉन (Rayon) और स्पैन्डेक्स जैसे सिंथेटिक कपड़ों की मांग बढ़ रही है। ये कपड़े खासतौर पर खेलकूद के कपड़ों, आरामदायक पोशाकों और आधुनिक फ़ैशन में इस्तेमाल किए जाते हैं।
अगर मानव-निर्मित कपड़ों की बात करें, तो ये मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं – सिंथेटिक और सेलूलोसिक। सेलूलोसिक रेशे लकड़ी के गूदे से बनाए जाते हैं, जबकि सिंथेटिक रेशे कच्चे तेल से तैयार होते हैं।
अब अगर स्पैन्डेक्स की बात करें, तो इसे इलास्टेन (Elastane) या लाइक्रा (Lycra) भी कहा जाता है। यह एक ऐसा सिंथेटिक रेशा है, जो अपनी खिंचने और फिर से पहले जैसे आकार में लौटने की क्षमता के लिए जाना जाता है। इसी वजह से इसे खेलकूद के कपड़ों, तैराकी की पोशाकों और टाइट- फ़िटिंग वस्त्रों में इस्तेमाल किया जाता है।
आज हम भारत में बनने वाले सिंथेटिक कपड़ों के प्रकार और उनके उपयोगों के बारे में विस्तार से जानेंगे। फिर, हम स्पैन्डेक्स के इतिहास, इसके अलग-अलग नाम, इसके उपयोग, और भारत में इसके बड़े आयातकों और निर्यातकों के बारे में जानेंगे। आखिर में, हम भारत के स्पैन्डेक्स बाज़ार की वर्तमान स्थिति पर भी चर्चा करेंगे।
भारत में बनने वाले अलग-अलग तरह के सिंथेटिक फ़ैब्रिक
1. रेयॉन – यह कपास (कॉटन) या ऊन (वूल) के साथ मिलाकर बनाया जाता है। यह एक सस्ता और दोबारा इस्तेमाल होने वाला (रिन्यूएबल) पदार्थ है। रेयॉन बहुत नरम, पानी सोखने वाला और आरामदायक होता है। इसे आसानी से अलग-अलग रंगों में रंगा जा सकता है। कच्चे माल की उपलब्धता और उत्पादन तकनीकों में सुधार की वजह से इसका बाज़ार तेज़ी से बढ़ रहा है।
2. नायलॉन – इसे पानी, कोयले और हवा से बनाया जाता है। यह मज़बूत, खिंचने वाला, हल्का और रेशमी चमक वाला होता है। इसे साफ़ करना भी बहुत आसान होता है। नायलॉन का इस्तेमाल, पैंटीहोज़ (स्त्रियों और बच्चियों की) लंबी जुराब या मोज़े से जुड़ा बहुत महीन कपड़े से बना अंतःवस्त्र, रस्सियां और बाहरी पहनावे बनाने में किया जाता है। मज़बूत नायलॉन रेशों का उपयोग आउटडोर कपड़ों में भी किया जाता है।
3. पॉलिएस्टर – यह एस्टर के कई छोटे-छोटे हिस्सों से मिलकर बनता है। यह ऐसा कपड़ा है जिसे धोना आसान होता है और यह बिना सिकुड़े लंबे समय तक नया दिखता है। पॉलिएस्टर का उपयोग सिर्फ कपड़ों में ही नहीं बल्कि प्लास्टिक की बोतलें, बर्तन, फ़िल्में , तार, स्वेटर, ट्रैकसूट और जूतों व दस्तानों की परतें बनाने में भी किया जाता है।
4. ऐक्रिलिक – ऐक्रिलिक रेशे ऊन का एक सस्ता और टिकाऊ विकल्प बन चुके हैं। इसीलिए इसका इस्तेमाल हाथ से बुनाई (निटिंग) और जुराबों जैसी चीजों में ज़्यादा होने लगा है। ऐक्रिलिक ऊन जैसी दिखती है लेकिन यह ज़्यादा टिकाऊ, रंगों में चमकदार, हल्की, धोने में आसान, जल्दी ख़राब न होने वाली और धूप व पानी में टिकाऊ होती है। इसी वजह से इसका उपयोग कंबल और कालीन बनाने में भी किया जाता है।
भारत के स्पोर्ट्सवेयर उद्योग में अलग-अलग कपड़ों का इस्तेमाल
1. पॉलिएस्टर – स्पोर्ट्सवेयर और एथलीज़र (आरामदायक स्पोर्ट्स कपड़े) में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला कपड़ा पॉलिएस्टर है। इसकी खासियत यह है कि यह सस्ता, टिकाऊ और हल्का होता है। इसके अलावा, इसमें कुछ ऐसे गुण होते हैं जो इसे सक्रिय वस्त्रों (Activewear) के लिए बेहतरीन बनाते हैं। पॉलिएस्टर को अक्सर अन्य कपड़ों के साथ मिलाकर ज्यादा आरामदायक बनाया जाता है। उदाहरण के लिए, पॉलिएस्टर और स्पैन्डेक्स का मिश्रण एक ऐसा कपड़ा बनाता है जो खिंचाव वाला और जल्दी अपनी पुरानी शेप में आने वाला होता है। यही वजह है कि इस मिश्रण का इस्तेमाल लेगिंग्स, स्पोर्ट्स ब्रा और टाइट-फ़िटिंग स्पोर्ट्सवेयर में किया जाता है।
2. नायलॉन – नायलॉन को आमतौर पर स्पोर्ट्स ब्रा, साइक्लिंग शॉर्ट्स और टाइट- फ़िटिंग कपड़ों में इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि यह शरीर को अच्छा सपोर्ट देता है। इसके अलावा, इसे अन्य कपड़ों की मज़बूती बढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। उदाहरण के लिए, कई स्पोर्ट्स ब्रा में बाहरी परत नायलॉन की होती है और अंदरूनी परत कॉटन या पॉलिएस्टर की। अगर इसे बुने हुए कपड़ों में इस्तेमाल किया जाए, तो यह स्विमवीयर (तैराकी के कपड़ों) के लिए बेहतरीन होता है क्योंकि यह बहुत लचीला (खिंचने वाला) और शरीर पर अच्छी तरह फिट बैठता है।
3. मेरिनो ऊन – मेरिनो ऊन एक खास तरह की ऊन होती है जो मेरिनो भेड़ों से मिलती है। यह भेड़ें पहले स्पेन में पाई जाती थीं, लेकिन अब दुनिया भर में मौजूद हैं। यह ऊन बेहद मुलायम होती है और नमी सोखने की ज़बरदस्त क्षमता रखती है, जिससे यह सक्रिय वस्त्रों के लिए एक बढ़िया विकल्प बन जाती है। मेरिनो ऊन का उपयोग खासतौर पर अंदर पहने जाने वाले बेस लेयर्स और उन कपड़ों में किया जाता है जो सीधे त्वचा के संपर्क में आते हैं क्योंकि यह बहुत आरामदायक होती है।
स्पैन्डेक्स से जुड़ी कुछ ज़रूरी जानकारियां
- इतिहास: स्पैन्डेक्स, जिसे लाइक्रा भी कहा जाता है, पहली बार 1958 में जोसेफ शिवर्स नाम के वैज्ञानिक ने एक प्रयोगशाला में बनाया था। यह पुराने पारंपरिक रेशों की तुलना में अभी सिर्फ़ सात दशकों पुराना है, लेकिन इसके आने के बाद से इसकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई।
- स्पैन्डेक्स के अलग-अलग नाम: यूरोप में इसे ‘इलास्टेन’ (Elastane) के नाम से जाना जाता है, जबकि भारत में ‘स्पैन्डेक्स’ और ‘लाइक्रा’ दोनों नामों का इस्तेमाल कपड़ा उद्योग में किया जाता है।
- मुख्य निर्यातक और आयातक देश: चीन स्पैन्डेक्स का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। इसके अलावा, भारत, अमेरिका और ब्राज़ील भी स्पैन्डेक्स का उत्पादन करते हैं। वहीं, अमेरिका और यूरोप इस कपड़े के सबसे बड़े आयातक (इम्पोर्टर) हैं।
- उपयोग: लाइक्रा कपड़े का इस्तेमाल आमतौर पर स्पोर्ट्स और आरामदायक कपड़े बनाने में किया जाता है। यह स्पोर्ट्स पैंट, योगा पैंट, फ़िटिंग वाली जींस, अंडरवियर, ब्रा, मोज़े आदि बनाने के लिए सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता है।
भारत में स्पैन्डेक्स बाज़ार की स्थिति
भारत, दुनिया के कुल स्पैन्डेक्स बाज़ार का लगभग 15.6% हिस्सा रखता है और 2023 से 2033 के बीच इसमें तेज़ी से बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। भारत एक बड़ा कपड़ा निर्माण केंद्र बन चुका है क्योंकि यहाँ विदेशी निवेश, कच्चे माल की उपलब्धता और कम उत्पादन लागत जैसे कारक मौजूद हैं।
शहरों का तेज़ी से विकास और लोगों की जीवनशैली में सुधार के कारण स्थानीय बाज़ार में स्पैन्डेक्स की मांग बढ़ रही है। इसके अलावा, स्वास्थ्य क्षेत्र में भी नई तकनीकों के आने से स्पैन्डेक्स का उपयोग बढ़ा है।
नतीजतन, कपड़ा और स्वास्थ्य उद्योगों में स्पैन्डेक्स की मांग लगातार बढ़ रही है, जिससे भारत में इसका बाज़ार भी तेज़ी से फैल रहा है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत: pixabay
क्या होता है जापानी इंसेफ़ेलाइटिस और कैसे बच सकते हैं, लखनऊ के लोग, इस रोग से ?
कीटाणु,एक कोशीय जीव,क्रोमिस्टा, व शैवाल
Bacteria,Protozoa,Chromista, and Algae
25-04-2025 09:05 AM
Lucknow-Hindi

गर्मियों में लखनऊ की उमस भरी फ़िज़ा और घनी आबादी के बीच मच्छरों को पनपने का भरपूर मौका मिलता है। नतीजतन शहर में वेक्टर जनित बीमारियों का ख़तरा भी कई गुना बढ़ जाता है! इसकी वजह से हर साल कई ज़िंदगियां प्रभावित होती हैं। इन्हीं ख़तरनाक बीमारियों में से एक है, - "जापानी इंसेफ़ेलाइटिस (Japanese Encephalitis)"! यह मच्छर से होने वाला एक जानलेवा संक्रमण रोग होता है, जो ख़ासतौर पर एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्रों में तबाही मचाता है। यह वायरस मस्तिष्क में सूजन (एन्सेफ़ेलाइटिस) पैदा कर सकता है, जिससे तेज़ बुखार, सिरदर्द और गंभीर मामलों में दौरे, कोमा या यहां तक कि मौत भी हो सकती है।
साल 2024 में, भारत में इस वायरल रोग के 1,548 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से सबसे अधिक 925 मामले असम में पाए गए। उत्तर प्रदेश भी इस बीमारी से अछूता नहीं रहा। इसलिए आज के इस लेख में हम जानेंगे कि ये रोग फैलता कैसे है, इसके प्रमुख लक्षण क्या हैं, और इससे बचने के लिए कौन-कौन से उपाय किए जा सकते हैं। साथ ही, हम इस घातक बीमारी के इलाज और रोकथाम के तरीक़ों पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे।
क्या है जापानी इंसेफ़ेलाइटिस ?
जापानी इंसेफ़ेलाइटिस एक वायरल रोग होता है, जो मुख्य रूप से मच्छरों (विशेष रूप से क्यूलेक्स प्रजाति) द्वारा जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस (जे ई वी) के फैलने से होता है। यह मच्छर, संक्रमित पक्षियों या सूअरों का ख़ून चूसते हैं और फिर मनुष्यों को काटकर वायरस स्थानांतरित कर देते हैं। हालांकि, अधिकतर मामलों में संक्रमित व्यक्ति को इसका एहसास भी नहीं होता! वास्तव में 100 में से केवल 4 से भी कम लोगों में इसके लक्षण नज़र आते हैं। लेकिन अगर लक्षण विकसित होते हैं, तो यह आमतौर पर संक्रमण के 5 से 15 दिनों के भीतर दिखाई देते हैं।
गंभीर मामलों में क्या होता है ?
यह वायरस मस्तिष्क और उसके आस-पास के ऊतकों में सूजन (इंसेफ़ेलाइटिस या मेनिन्जाइटिस (meningitis)) पैदा कर सकता है, जिससे स्वास्थ्य से संबंधित गंभीर समस्याएँ पैदा हो सकती हैं।
ऐसे मामलों में निम्नलिखित लक्षण दिख सकते हैं:
तेज़ बुखार।
सिरदर्द और गर्दन में अकड़न।
उल्टी आना।
दौरे पड़ना या अनियंत्रित कंपन।
मांसपेशियों में कमज़ोरी या लकवे की स्थिति।
अत्यधिक थकान या कोमा में चले जाना।
मानसिक भ्रम और बेचैनी।
उत्तर प्रदेश में, हाल के वर्षों में, जापानी इंसेफ़ेलाइटिस के कितने मांमले सामने आए हैं ?
साल 2024 में उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य क्षेत्र ने एक महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की! दरअसल इस साल राज्य में जापानी इंसेफ़ेलाइटिस से एक भी मौत दर्ज नहीं की गई। यह सफलता इसलिए भी ख़ास है, क्योंकि 2005 तक राज्य के हालात बेहद गंभीर थे। साल 2005 में, जापानी इंसेफ़ेलाइटिस (JE) और एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम (Acute Encephalitis Syndrome (AES)) के प्रकोप ने 6,000 से अधिक बच्चों को संक्रमित किया था, और इस खतरनाक बीमारी की वजह से 1,400 से ज़्यादा मासूमों की जान चली गई थी। साल 2005 में गोरखपुर इस महामारी का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका था। हालात इतने भयावह थे कि सरकार को तत्काल कदम उठाने पड़े। लेकिन 2017 तक भी स्थिति चिंताजनक बनी रही। 2017 तक, जापानी इंसेफ़ेलाइटिस और एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम के कारण 50,000 से अधिक मौतें हो चुकी थीं! यह आँकड़ा बताता है कि यह बीमारी कितनी घातक थी और इससे निपटने के लिए ठोस क़दम उठाने की कितनी ज़रूरत थी।
अब सवाल यह उठता है कि इतनी गंभीर स्थिति में सुधार कैसे हुआ ?
2018 से इंसेफ़ेलाइटिस के मामलों और मौतों में नाटकीय रूप से गिरावट दर्ज की गई।
2018: ए ई एस से 149 मौतें हुईं, लेकिन 2024 तक यह आँकड़ा शून्य हो गया।
2018: जे ई से 12 मौतें दर्ज की गईं, जो 2024 तक यह आँकड़ा भी शून्य हो गया।
2018: ए ई एस के 1,472 मामले सामने आए थे, जो 2024 में घटकर सिर्फ 116 रह गए।
2018: जे ई के 174 मामले थे, जो 2024 में सिर्फ़ 5 रह गए।
इस अवधि में उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल क्षेत्र इंसेफ़ेलाइटिस से सबसे अधिक प्रभावित रहा। विशेष रूप से गोरखपुर, बस्ती, महाराजगंज, कुशीनगर, सिद्धार्थनगर और संत कबीर नगर ज़िले इस महामारी के केंद्र थे। 2005 से 2017 के बीच इन्हीं ज़िलों में 50,000 से अधिक बच्चों की जान चली गई थी। इस लिहाज़ से उत्तर प्रदेश में जेई और एईएस पर नियंत्रण पाना वाक़ई में एक सराहनीय उपलब्धि है।
जापानी इंसेफ़ेलाइटिस को फैलने से रोकने के लिए निम्नलिखित सावधानियाँ बरतें:
✔ रक्तदान से बचें: यदि किसी व्यक्ति को हाल ही में यह संक्रमण हुआ है, तो उसे 120 दिनों तक रक्त या अस्थि मज्जा दान नहीं करना चाहिए।
✔ संक्रमित जानवरों से दूरी बनाए रखें: मृत जानवरों को नंगे हाथों से न छूएँ।
✔ सुरक्षित तरीके से निपटान करें: यदि आपको किसी मृत जानवर को हटाना हो, तो दस्ताने पहनें या दो प्लास्टिक बैग की मदद से उसे कूड़ेदान में डालें।
इसका इलाज कैसे किया जाता है?
अभी तक वैज्ञानिक इस बीमारी का कोई ठोस और सीधा इलाज नहीं खोज पाए हैं। डॉक्टर सिर्फ़ लक्षणों को कम करने और मरीज़ की हालत को स्थिर रखने पर ध्यान देते हैं। इसके इलाज के दौरान बुखार को कम करने, मस्तिष्क की सूजन को नियंत्रित करने और शरीर को मज़बूत बनाए रखने पर ध्यान दिया जाता है। इसके अलावा मरीज़ को आरामदायक और सुरक्षित माहौल देना भी ज़रूरी होता है, ताकि उसका शरीर वायरस के साथ पूरी क्षमता से लड़ सके।
ठीक होने में कितना समय लगता है ?
अगर कोई व्यक्ति इस जानलेवा बीमारी से बच भी जाता है, तो उसके पूरी तरह ठीक होने में लंबा समय लग सकता है। कई मरीज़ों को कमज़ोरी दूर करने और शरीर की क्षमता वापस हासिल करने के लिए पुनर्वास (rehabilitation) की ज़रूरत पड़ती है। कुछ मामलों में यह बीमारी मरीज़ को लंबे समय तक प्रभावित कर सकती है! इस स्थिति को 'सीक्वेले (sequelae)' कहा जाता है। इसका असर पीड़ित व्यक्ति की सेहत, शिक्षा, सामाजिक जीवन और रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर पड़ सकता है। खासकर ग़रीब और मध्यम आय वाले देशों में, सही इलाज और मदद मिलना आसान नहीं होता।
अगर किसी को विकलांगता हो जाए तो क्या करें ?
लेकिन अगर आपके आसपास कोई व्यक्ति इस बीमारी के कारण किसी तरह की विकलांगता से जूझ रहा है, तो निराश न हों। दरअसल इंसेफ़ेलाइटिस से जूझ रहे मरीज़ोंकी मदद करने के लिए कई स्थानीय और राष्ट्रीय संगठन निरंतर कार्य कर रहे हैं। विकलांग व्यक्तियों के संगठन (Organizations of Disabled People (ODP)) और अन्य नेटवर्क कानूनी सहायता, इन लोगों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करने और सामाजिक जुड़ाव कायम करने में मदद कर सकते हैं। इन संसाधनों और उपायों की मदद से इंसेफ़ेलाइटिस से प्रभावित लोग भी एक बेहतर और सार्थक जीवन जी सकते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में जापानी इंसेफ़ेलाइटिस के मरीज और मच्छर का स्रोत : Wikimedia
लखनऊ के युवा कर सकते हैं, बायोटेक विनिर्माण क्षेत्र में अनुसंधान व उद्योग के प्रयत्न
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
24-04-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के कुछ लोगों ने, ‘बायोटेक विनिर्माण (Biotech Manufacturing)’ शब्द सुना होगा। यह प्रक्रिया दवाओं, जैव ईंधन और औद्योगिक रसायनों जैसे व्यावसायिक रूप से मूल्यवान उत्पादों का उत्पादन करने हेतु, जैविक प्रणालियों (कोशिकाओं और सूक्ष्मजीवों) का उपयोग करती है। यह कहते हुए, यह जानना महत्वपूर्ण है कि, भारत का जैव-आर्थिक उद्योग, वैश्विक जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में लगभग 3% हिस्सेदारी रखता है। हालिया अनुमानों के अनुसार, इस उद्योग का मूल्य 2021-22 में 80.12 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। तो आज, आइए, यह समझने की कोशिश करें कि, बायोटेक विनिर्माण क्या है, और यह कैसे काम करता है। फिर, हम भारत में इस उद्योग की वर्तमान स्थिति के बारे में जानेंगे। उसके बाद, हम भारत में जैव प्रौद्योगिकी के सबसे महत्वपूर्ण अनुप्रयोगों का पता लगाएंगे। अंत में, हम भारत में जैव प्रौद्योगिकी उद्योग के विकास के लिए हाल के वर्षों में किए गए, कुछ उपायों और पहलों के बारे में बात करेंगे।
बायोटेक विनिर्माण क्या है, और यह कैसे काम करता है?
बायोमैन्युफ़ैक्चरिंग अर्थात जैव प्रौद्योगिकी विनिर्माण, जीवित जीवों की शक्ति का उपयोग करके, पारंपरिक विनिर्माण प्रक्रियाओं में क्रांति लाता है। आमतौर पर खाद्य और दवाओं के उत्पादन में नियोजित बायोटेक विनिर्माण, वैकल्पिक विनिर्माण विधियों पर महत्वपूर्ण लाभ प्रदान करता है। प्राकृतिक प्रक्रियाओं का उपयोग करके, यह प्रक्रिया अधिक पर्यावरण अनुकूल है। गैर-नवीकरणीय जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करते हुए, जैव प्रौद्योगिकी विनिर्माण में कम संसाधनों और कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
इससे अपशिष्ट उत्पादों को पुनरुद्देशित किया जा सकता है, और आगे इसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम किया जा सकता है।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी उद्योग की वर्तमान स्थिति:
भारत डी पी टी (Diphtheria, Tetanus & Pertussis (DPT)), बी सी जी (Bacillus Calmette-Guérin (BCG)) और चेचक (Measles) टीकों का, दुनिया का शीर्ष आपूर्तिकर्ता है। 2021-22 में भारतीय जैव-आर्थिक क्षेत्र ने, भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी – GDP) में लगभग 2.6% योगदान दिया। इस उद्योग के विस्तार के कारण, देश में बायोटेक स्टार्ट-अप की संख्या पिछले दस वर्षों में, 50 से 5,300 से अधिक हो गई है। ये बायोटेक स्टार्ट-अप्स, 2025 तक 10,000 से अधिक होने का अनुमान है। 2021 में बीटी कपास (BT Cotton), बायोपेस्टीसाइड्स (Biopesticides), बायोस्टिमुलेंट्स (Biostimulants), और बायोफ़र्टिलाइज़र्स (Biofertilizers) ने देश के जैव-अर्थव्यवस्था में 10.48 बिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान दिया। भारत, जैव प्रौद्योगिकी विभाग की स्थापना करने वाले, कुछ पहले देशों में से एक था। बढ़ती आर्थिक समृद्धि, स्वास्थ्य चेतना में वृद्धि और एक अरब से अधिक जनसंख्या आधार के कारण, भारतीय बायोटेक उद्योग में काफ़ी वृद्धि होने की उम्मीद है। केंद्रीय बजट 2023-24 में, जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Biotechnology (DBT)) को 1,345 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी के सबसे महत्वपूर्ण अनुप्रयोग क्या हैं ?
1.) टीका उत्पादन में उन्नति:
टीका उत्पादन में भारत के कौशल ने, इसे “फ़ार्मेसी ऑफ़ द वर्ल्ड (Pharmacy of the world)” का नाम दिलायाहै। भारत 60% वैश्विक टीका उत्पादन करता है। हमारा देश, विश्व स्वास्थ्य संगठन की डिप्थीरिया (Diphtheria), टीटेनस (Tetanus) और डी पी टी टीकों की 40-70% मांग पूरा करता है। कोविड-19 महामारी के बाद, भारत का सीरम संस्थान (Serum Institute) दुनिया का सबसे बड़ा टीका निर्माता बन गया।
2.) कृषि क्रांति 2.0:
जैव प्रौद्योगिकी जलवायु-लचीली फ़सलों से लेकर, उच्च पोषण संबंधी अन्न तक, भारत की कई कृषि चुनौतियों का समाधान प्रदान करती है। भारत की पहली आनुवंशिक रूप से संशोधित फ़सल – बीटी कपास, अब 95% कपास खेती में उगाई जाती है, जिससे पैदावार में काफ़ी वृद्धि हुई है। सुखा-प्रतिरोधी चावल की किस्मों और गोल्डन राइस (Golden rice) जैसी बायोफ़ोर्टिफ़ाइड फ़सलों (Biofortified crops) में अनुसंधान, भारत की बढ़ती आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है।
3.) पर्यावरण की सुरक्षा:
प्रदूषित जगहों को साफ़ करने हेतु, बायोरिमीडीएशन (Bioremediation) तकनीक विकसित की जा रही है, जिसमें मुंबई में वर्सोवा बीच की सफ़ाई जैसी सफ़ल परियोजनाएं हैं। बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक (Biodegradable plastic) और जैव-आधारित सामग्रियों का विकास, भारत के अपशिष्ट प्रबंधन संकट को दूर करने में मदद कर सकता है। इसके अलावा, बायोटेक कार्बन कैप्चर (Carbon capture) के लिए दृष्टिकोण, भारत के महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी के विकास के लिए किए गए, सरकारी उपाय और पहलें:
1.राष्ट्रीय बायोफ़ार्मा मिशन (National Biopharma Mission):
यह देश में जैविक दवाओं के विकास में तेज़ी लाने के लिए, उद्योग और शिक्षाविदों के बीच एक सहयोगी मिशन है। सरकार ने इस मिशन के हिस्से के रूप में, मई 2017 में, इनोवेट इन इंडिया (Innovate in India) कार्यक्रम शुरू किया, ताकि इस क्षेत्र में उद्यमशीलता और स्वदेशी विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए एक सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र बनाया जा सके। मि इस शन को जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (Biotechnology Industry Research Assistance Council (BIRAC)) द्वारा लागू किया जाएगा।
2.बायोटेक किसान (Biotech KISAN):
जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने 2017 में, बायोटेक कृषी इनोवेशन साइंस एप्लीकेशन नेटवर्क ( Biotech-Krishi Innovation Science Application Network) नामक एक पहल शुरू की । इसका लक्ष्य कृषि स्तर पर अभिनव समाधान और प्रौद्योगिकियों को विकसित करने, और उन्हें लागू करने के लिए विज्ञान प्रयोगशालाओं और किसानों को एक साथ लाना है।
3.अटल जय अनुसंधान बायोटेक मिशन (Atal Jai Anusandhan Biotech Mission):
इसे जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा लागू किया गया था, और इस मिशन का उद्देश्य मातृ और बाल स्वास्थ्य, रोगाणुरोधी प्रतिरोध, संक्रामक रोग, भोजन और पोषण के लिए टीके, और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की चुनौतियों का समाधान करना है।
4.एक स्वास्थ्य कंसोर्टियम (One Health Consortium):
2021 में, जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने देश में पशुजनक और ट्रांसबाउंडरी रोगजनकों (Transboundary pathogens) के महत्वपूर्ण जीवाणु, वायरल और परजीवी संक्रमणों का सर्वेक्षण करने के लिए, एक ‘एक स्वास्थ्य’ संघ की स्थापना की।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
परिशुद्ध कृषि के माध्यम से बेहतर फ़सल पैदावार सुनिश्चित कर सकते हैं लखनऊ के किसान
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
23-04-2025 09:25 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, परिशुद्ध कृषि और एआई-संचालित प्रौद्योगिकी के साथ कृषि एक स्मार्ट और अधिक कुशल भविष्य की ओर बढ़ रही है। पारंपरिक खेती के तरीके अक्सर अनुमान पर निर्भर होते हैं, लेकिन एआई-संचालित उपकरणों के साथ, किसान अब मिट्टी के स्वास्थ्य की निगरानी करने, मौसम के पैटर्न की भविष्यवाणी करने और फ़सल की बीमारियों का जल्द पता लगाने के लिए ड्रोन, सेंसर और स्मार्ट सिंचाई प्रणालियों का उपयोग कर सकते हैं। ये उन्नत प्रणालियाँ पानी और उर्वरक की बर्बादी को कम करने, उत्पादकता बढ़ाने और बेहतर फ़सल पैदावार सुनिश्चित करने में मदद करती हैं। तो आइए आज, परिशुद्ध कृषि के बारे में जानते हुए, परिशुद्ध कृषि में उपयोग होने वाली आवश्यक प्रौद्योगिकियों जैसे जीपीएस, सेंसर और स्वचालन आदि पर कुछ प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम आधुनिक कृषि में एआई की भूमिका के बारे में समझेंगे। अंत में, हम परिशुद्ध कृषि के लाभों पर प्रकाश डालेंगे।
परिशुद्ध कृषि:
परिशुद्ध कृषि एक ऐसा अभिनव दृष्टिकोण है, जिसके तहत पारंपरिक कृषि तकनीकों की तुलना में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए कृषि सामग्रियों (जैसे बीज, उर्वरक) का उपयोग सटीक मात्रा में किया जाता है।यह उच्च प्रौद्योगिकी सेंसर और विश्लेषण उपकरणों का उपयोग करके फ़सल की पैदावार में सुधार करने का विज्ञान है। परिशुद्ध कृषि में कई मापदंडों की निगरानी करने और फ़सल की वृद्धि से संबंधित जानकारी, जैसे मिट्टी की नमी, पीएच आदि एकत्र करने के लिए कई उन्नत प्रौद्योगिकियों और उपकरणों का उपयोग किया जाता है। इस जानकारी का उपयोग करके लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उपयुक्त समायोजन किए जाते हैं। उपयुक्त समायोजन से कृषि सामग्रियों की प्रभावशीलता में सुधार लाने में मदद मिलती है, जिससे पैदावार बढ़ती है। उत्पादन बढ़ाने, श्रम समय कम करने और उर्वरकों और सिंचाई प्रक्रियाओं के प्रभावी प्रबंधन को सुनिश्चित करने जैसे लाभों के कारण, परिशुद्ध कृषि को आज दुनिया भर में अपनाया जा रहा है।
परिशुद्ध कृषि में आवश्यक कुछ प्रौद्योगिकी:
- सैटेलाइट पोजिशनिंग सिस्टम (Satellite positioning systems):यह प्रणाली किसानों को सैटेलाइटों के नेटवर्क के माध्यम से, अंतरिक्ष से पृथ्वी पर सटीक स्थान संबंधी विवरण भेजकर, फ़सल की स्थिति की निगरानी करने में सक्षम बनाती है।
- भौगोलिक सूचना प्रणाली (Geographic Information Systems (GIS): यह प्रणाली किसी विशिष्ट स्थान पर फ़सल को प्रभावित करने वाले कारकों के बीच संबंधों को समझने के लिए उपयोग किए जाने वाले डेटा मापदंडों पर जानकारी प्रदान करती है।
- सेंसर (ऑप्टिकल):ये मिट्टी के गुणों, पौधों की उर्वरता और पानी की स्थिति पर आवश्यक जानकारी प्रदान करते हैं।
- ग्रिड मृदा नमूनाकरण (Grid soil sampling): यह किसी स्थान पर विशिष्ट मृदा प्रबंधन के लिए एक विधि है।
- रिमोट सेंसिंग:यह सैटेलाइटों के माध्यम से एकत्र किया गया डेटा है, जो फ़सल स्वास्थ्य और संबंधित मापदंडों के मूल्यांकन में सहायता करता है।
- परिवर्तनीय दर प्रौद्योगिकी: यह प्रणाली भूमि पर उर्वरक, कीटनाशक, बीज और सिंचाई जैसी सामग्रियों को स्वचालित रूप से लागू करने में सहायता करती है।
- लेज़र भू-समतलीकरण यंत्र(Laser land leveller): पूरे क्षेत्र में एक निर्देशित लेज़र बीम का उपयोग करके वांछित ढलान की एक निश्चित डिग्री के भीतर एक क्षेत्र को समतल करने में सहायता करती है।
- उपज मॉनिटर के साथ कंबाइन हार्वेस्टर: इसके अनाज एलिवेटर में अनाज के प्रवाह को लगातार मापा और रिकॉर्ड किया जाता है। जब एक जीपीएस को रिसीवर के साथ जोड़ा जाता है, तो एक उपज मॉनिटर उपज मानचित्रों के लिए आवश्यक डेटा प्रस्तुत करता है।
- पत्ती के रंग का चार्ट: फसल में नाइट्रोजन (N) की कमी का त्वरित,आसान और सस्ता निदान करनके लिए यह चार्ट उपयोगी है।
- स्वचालित सिंचाई प्रणालियां: ये प्रणालियां निगरानी के अलावा न्यूनतम मानवीय हस्तक्षेप के साथ सिस्टम टाइमर, सेंसर या कंप्यूटर, या यांत्रिक उपकरणों के साथ स्वचालित होती हैं।
आधुनिक कृषि में एआई की भूमिका-
आधुनिक कृषि की सफलता के लिए एआई तकनीक के दो उदाहरण - मशीन लर्निंग और डेटा विश्लेषण महत्वपूर्ण हैं। पैटर्न और संबंध खोजने के लिए, मशीन लर्निंग एल्गोरिदम सेंसर, उपग्रहों और ड्रोन से एकत्र किए गए डेटा की भारी मात्रा को संसाधित करते हैं। इस डेटा-संचालित जानकारी से किसान अपने खेतों की विशिष्ट आवश्यकताओं को समझने और सटीक कार्रवाई करने में सक्षम हो पाते हैं।
उदाहरण के लिए, विभिन्न प्रकार के सेंसर युक्त एआई-संचालित ड्रोन खेतों की व्यापक तस्वीरें ले सकते हैं, जिनका विश्लेषण कीटों के संक्रमण, पोषण संबंधी कमी या बीमारी के प्रकोप के संकेतकों को देखने के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार संबंधित समस्या का शीघ्र पता लगाकर, किसान प्रभावित क्षेत्रों में लक्षित उपचार लागू कर सकते हैं, कीटनाशकों और उर्वरकों की आवश्यकता को समाप्त कर सकते हैं और पर्यावरण पर किसी भी नकारात्मक प्रभाव को कम कर सकते हैं। मिट्टी में तापमान, पोषक तत्व सामग्री और नमी के स्तर को निर्धारित करने के लिए,एआई सिस्टम वहां लगाए गए सेंसर से डेटा की जांच करते हैं। किसान इस जानकारी का उपयोग करके आवश्यकता के अनुसार पानी और उर्वरक की सटीक मात्रा निर्धारित करके बर्बादी को कम कर सकते हैं और पैसे बचा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, एआई-संचालित मॉडल तापमान परिवर्तन और वर्षा पैटर्न का पूर्वानुमान लगाने के लिए ऐतिहासिक और वर्तमान मौसम डेटा दोनों का विश्लेषण करते हैं। यह सक्रिय विधि सिंचाई और रोपण कार्यों को निश्चित करने में मदद करती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि फसलों को सर्वोत्तम संभव विकास परिस्थितियाँ प्राप्त हों। एआई एल्गोरिदम, उपग्रह फ़ोटोग्राफी और मौसम पूर्वानुमान जैसे विभिन्न स्रोतों से डेटा लेकर, फ़सल की उपज क्षमता का सटीक पूर्वानुमान तैयार करता है। इस जानकारी से किसान मूल्य, वितरण और भंडारण के बारे में उचित निर्णय लेकर अपने आर्थिक जोखिम को कम कर सकते हैं।
परिशुद्ध कृषि के लाभ:
- कृषि उत्पादकता में वृद्धि: सेंसर द्वारा एकत्र किए गए डेटा के विश्लेषण के माध्यम से वैज्ञानिक रूप से निर्धारित सटीक मात्रा में कृषि सामग्रियों जैसे उर्वरक, पानी आदि देने से उत्पादन को बढ़ावा मिलता है।
- रासायनों के प्रयोग में कमी: कृषि सामग्रियों की मात्रा आवश्यकता के आधार पर निर्धारित की जाती है। उर्वरकों की आपूर्ति केवल वहीं की जाती है जहां विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी होती है। इसी प्रकार खरपतवारनाशी का उपयोग केवल खरपतवार के स्थान पर किया जाता है। वांछित परिशुद्धता के साथ रसायनों के लक्षित उपयोग के लिए ड्रोन का उपयोग किया जाता है। इससे अनावश्यक उपयोग कम होता है और बर्बादी में कमी आती है।
- मिट्टी के क्षरण में कमी: चूंकि रसायनों के अधिक उपयोग से बचा जाता है, यह अवांछित रसायनों को मिट्टी में जाने से रोकता है, जिससे मिट्टी पर उनके हानिकारक प्रभाव को रोका जा सकता है।
- जल संसाधनों का कुशल उपयोग: फ़र्टिगेशन(Fertigation)जैसी तकनीकों के माध्यम से पानी और उर्वरकों का उपयोग आवश्यकता के आधार पर एक साथ किया जाता है।
- कृषि आय में सुधार: उत्पादकता में वृद्धि, कृषि सामग्रियों के उपयोग और बर्बादी में कमी से कृषि आय में सुधार होता है और किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने में मदद मिलती है।
- रोज़गारसृजन: परिशुद्ध कृषि से रोज़गार के कई अवसर सृजित होते है, उदाहरण के लिए, ड्रोन का संचालन एक विशेष कौशल है। ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं को प्रमाणित ड्रोन ऑपरेटर के रूप में प्रशिक्षित और नियोजित किया जा सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexles
यात्रा और अन्वेषण के लिए, एक बढ़ती चुनौती बनता जा रहा है, अंतरिक्ष में जमा मलबा
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
22-04-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि जैसे-जैसे अंतरिक्ष में मानवता की उपस्थिति बढ़ रही है, वैसे-वैसे अंतरिक्ष में कबाड़ की समस्या भी बढ़ रही है। पिछले कुछ वर्षों में, मानवता ने हज़ारों रॉकेट और उपग्रह (Satellities) अंतरिक्ष में भेजे हैं जिनमें से कई के मलबे के टुकड़े अभी भी वहां हैं। यह कबाड़, न केवल बेकार है, बल्कि खतरनाक भी हो सकता है - उपग्रहों के लिए, अंतरिक्ष स्टेशनों के लिए, और जब इसका कुछ हिस्सा पृथ्वी पर वापस गिर जाए, तो मानव जीवन के लिए। 1961 में, जब सोवियत संघ ने पहले व्यक्ति को अंतरिक्ष में भेजा था, तो पिछले अन्वेषण प्रयासों से 1,000 से भी कम कबाड़ के टुकड़े वहां जमा थे। दशकों बाद, लगभग 30,000 टुकड़े थे और उस संख्या में केवल वे टुकड़े शामिल थे, जिन्हें ट्रैक किया जा सकता था। जैसे-जैसे अंतरिक्ष में मलबा जमा हो रहा है, यह अंतरिक्ष यात्रा और अन्वेषण के लिए एक बढ़ती चुनौती बनता जा रहा है। तो आइए, आज जानते हैं कि अंतरिक्ष में कुल कितना कबाड़ जमा है और यह कबाड़ अंतरिक्ष में कैसे पहुंचता है? इसके साथ ही, हम यह जानेंगे कि इस प्रकार का कबाड़ संभावित रूप से क्यों खतरनाक है। अंत में, हम कुछ उन्नत तकनीकों के बारे में बात करेंगे जो अंतरिक्ष कबाड़ को साफ़ करने में मदद कर सकती हैं।
अंतरिक्ष में कितना कबाड़ जमा है:
इस समय लगभग 2,000 सक्रिय सैटेलाइट पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं, वहीं 3,000 मृत सैटेलाइट भी अंतरिक्ष में अपशिष्ट के रूप में जमा हैं। इसके अलावा, अंतरिक्ष कबाड़ के लगभग 34,000 टुकड़े ऐसे हैं जो आकार में 10 सेंटीमीटर से बड़े हैं और इसके अलावा लाखों छोटे टुकड़े हैं जो अगर किसी और चीज से टकराते हैं तो विनाशकारी साबित हो सकते हैं।
अंतरिक्ष में कबाड़ कैसे जमा होता है ?
अंतरिक्ष में जमा सारा कबाड़, पृथ्वी से वस्तुओं के प्रक्षेपण का परिणाम है, और यह तब तक कक्षा में रहता है जब तक कि यह वायुमंडल में फिर से वापस नहीं आता। कुछ सौ किलोमीटर की निचली कक्षाओं में प्रक्षेपित वस्तुएं शीघ्रता से वापस लौट सकती हैं। वे अक्सर कुछ वर्षों के बाद वायुमंडल में फिर से प्रवेश कर जाती हैं। इनमें से अधिकांश जल जाती हैं और इसलिए वे जमीन तक नहीं पहुंच पाती हैं। लेकिन 36,000 किलोमीटर की ऊंचाई पर भूस्थैतिक कक्षाओं में प्रक्षेपित किए गए सैटेलाइट सैकड़ों या हज़ारों वर्षों तक पृथ्वी का चक्कर लगाते रह सकते हैं।
अंतरिक्ष कबाड़ संभावित रूप से खतरनाक क्यों है:
अंतरिक्ष कबाड़ खतरनाक हो सकता है क्योंकि पृथ्वी की परिक्रमा करने वाली कोई भी वस्तु सैटेलाइट आदि तेज़ गति से घूमते हैं, वहीं अंतरिक्ष में मलबा लगभग 10 किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से यात्रा करता है। इनमें आपस में टक्कर होने पर इनकी सापेक्ष गति और भी अधिक होगी। इतनी तेज़ गति से टकराव होना स्पष्ट रूप से खतरनाक है, लेकिन टकराव के कारण छोटे-छोटे टुकड़े उत्पन्न होना भी एक अन्य समस्या हो सकता है।
उदाहरण के लिए, एक दस-सेंटीमीटर की वस्तु टकराव होने पर एक सैटेलाइट को कई टुकड़ों में तोड़ सकती है। अंतरिक्ष में लगभग, 30,000 वस्तुएं इस आकार की मौजूद हैं। वहीं, एक सेंटीमीटर की कोई वस्तु, अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (International Space Station (ISS)) को कवर करने वाले सुरक्षा कवच को भेद सकती है। अंतरिक्ष में, इस आकार की और कुछ बड़ी लगभग 670,000 वस्तुएं हैं। एक पेंसिल बिंदु के आकार की एक मिलीमीटर वस्तु तक एक अंतरिक्ष यान की शक्ति या एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंचने की क्षमता को नष्ट कर सकती है। अंतरिक्ष में इससे भी बड़ी 170 मिलियन वस्तुएं हैं। यह सिर्फ़ काल्पनिक नहीं हैं, 2021 में, अंतरिक्ष कबाड़ के दो एक इंच के टुकड़े से टकराने पर आई एस एस क्षतिग्रस्त हो गया था। 2000 के बाद से, किसी वस्तु के बहुत करीब आने से बचने के लिए आई एस एस ने 32 बार अपनी गति को बदला है। जबकि अंतरिक्ष में टकराव एक वास्तविक खतरा है, अंतरिक्ष कबाड़ के पृथ्वी की कक्षा में फिर से प्रवेश करने और जमीन पर नुकसान पहुंचाने की संभावना अपेक्षाकृत कम होती है।
कुछ उन्नत तकनीकें जो अंतरिक्ष अपशिष्ट को साफ़ करने में मदद कर सकती हैं:
विशाल लेज़र (Giant Lasers): इस विधि को 'लेज़र ऑर्बिटल डेब्री रिमूवल' (Laser Orbital Debris Removal (LODR)) कहा जाता है। इसमें अंतरिक्ष मलबे पर प्लाज़्मा जेट बनाने के लिए पृथ्वी पर आधारित उच्च शक्ति वाले स्पंदित लेज़र का उपयोग उपयोग किया जाता है जिससे उनकी गति थोड़ा कम हो सकती है और या तो वे वायुमंडल में जल सकते हैं या महासागरों में गिर सकते हैं। यह तकनीक, अपेक्षाकृत सस्ती है और आसानी से उपलब्ध है। लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि इससे जहां महासागरों में और अधिक अपशिष्ट जमा होगा वहीं इसकी प्रति वस्तु कीमत अनुमानित 1 मिलियन डॉलर है।
अंतरिक्ष गुब्बारे (Space Balloons): गोस्समर ऑर्बिट लोअरिंग डिवाइस (Gossamer Orbit Lowering Device)) या गोल्ड सिस्टम (GOLD system), में एक पतले गुब्बारे का उपयोग किया जाता है, जिसे एक फ़ुटबॉल मैदान के आकार तक गैस से फुलाया जाता है और फिर अंतरिक्ष में मलबे के बड़े टुकड़ों से जोड़ा जाता है। यह वस्तुओं के खिंचाव को इतना बढ़ा देता है कि ये कबाड़ पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करते ही जल सकता है ।
सेल्फ-डिसट्रक्टिंग जैनिटर सैटेलाइट (Self-Destructing Janitor Satellites): स्विस शोधकर्ताओं ने क्लीनस्पेस वन (CleanSpace One) नामक एक छोटी सैटेलाइट तैयार की है, जो जेलीफ़िश जैसे जाल के साथ अंतरिक्ष में कबाड़ को ढूंढकर उसे पकड़ सकती है। इसके बाद, यह सैटेलाइट वापस पृथ्वी की ओर गिर जाता है, जिससे ऊष्मा और घर्षण के कारण सैटेलाइट और मलबा दोनों नष्ट हो जाएं।
स्पेस पॉड्स (Space Pods): रूस का अंतरिक्ष निगम, एनर्जिया (Energia), कबाड़ को अपनी कक्षा (Orbit) से बाहर निकालकर वापस पृथ्वी पर लाने के लिए एक स्पेस पॉड बनाने की योजना बना रहा है। इस पॉड में लगभग 15 वर्षों तक ईंधन बनाए रखने के लिए एक परमाणु ऊर्जा कोर का उपयोग किया जा रहा है। जब यह पृथ्वी की परिक्रमा करेगा, तो निष्क्रिय उपग्रहों को कक्षा से बाहर कर देगा। यह मलबा, या तो वायुमंडल में जल जाएगा या समुद्र में गिर जाएगा।
टंगस्टन माइक्रोडस्ट (Tungsten Microdust): टंगस्टन माइक्रोडस्ट को अंतरिक्ष कबाड़ के विपरीत पृथ्वी की कक्षा (low earth orbit) में प्रक्षेप पथ पर स्थापित कर, 10 सेंटीमीटर से छोटे अंतरिक्ष मलबे को धीमा किया जा सकता है। इसकी गति कम होने पर यह निचली कक्षा में सड़ जाएगा, जहां कुछ दशकों के भीतर इसके पृथ्वी के वायुमंडल में गिरने की उम्मीद की जा सकती है।
अंतरिक्ष कचरा ट्रक (Space Garbage Trucks): अमेरिकी रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी (US Defense Advanced Research Project Agency (DARPA)) द्वारा इलेक्ट्रोडायनामिक डेब्री एलिमिनेटर (Electrodynamic Debris Eliminator) तकनीक विकसित की जा रही है जिसमें 200 विशाल जालों से सुसज्जित एक ट्रक जैसे वाहन की सहायता से अंतरिक्ष कचरे को एकत्र किया जा सकता है। इसके बाद, इस कचरे को पृथ्वी पर वापस लाकर महासागरों में गिराया जा सकता है, या वस्तुओं को एक करीबी कक्षा में धकेला जा सकता है, और वर्तमान उपग्रहों के रास्ते से तब तक दूर रखा जा सकता है जब तक कि वे क्षय होकर पृथ्वी पर वापस नहीं गिर जाते।
चिपचिपा बूम (Sticky Booms): अल्टियस स्पेस मशींस (Altius Space Machines) नामक एक कंपनी वर्तमान में एक रोबोटिक आर्म सिस्टम विकसित कर रही है, जिसे "चिपचिपा बूम" कहा जाता है, जो 100 मीटर तक फैल सकता है, और किसी भी सामग्री (धातु, प्लास्टिक, कांच, यहां तक कि क्षुद्रग्रह) पर इलेक्ट्रोस्टैटिक आवेश प्रेरित करने के लिए इलेक्ट्रोएडेसन का उपयोग करता है, जिसके साथ यह संपर्क में आता है, और फिर आवेश में अंतर के कारण वस्तु पर चिपक जाता है। चिपचिपा बूम किसी भी अंतरिक्ष वस्तु से जुड़ सकता है।
संदर्भ
अंतरिक्ष में टूटती हुई सेटेलाइट का स्रोत : Wikimedia
आखिर कैसे लखनऊ वासियों को एक अच्छी किस्म की भेड़, सालाना लाखों की आमदनी दे सकती?
स्तनधारी
Mammals
21-04-2025 09:22 AM
Lucknow-Hindi

नवाबी शहर लखनऊ की गलियों में जब टुंडे कबाब की खुशबू हवा में घुलती है, तब यह शहर अपनी समृद्ध खानपान विरासत की कहानी खुद बयाँ करता है। मटन कोरमा, काकोरी कबाब, बोटी कबाब, लखनवी बिरयानी—यह सब लखनऊ की शाही रसोई से निकले ऐसे जायके हैं, जिनका स्वाद एक बार चखने के बाद भूल पाना मुश्किल है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जिस भेड़ के स्वादिष्ट मांस से ये लज़ीज़ व्यंजन बनते हैं, उसका पालन-पोषण किन क्षेत्रों में किया जाता है? उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र, खासकर जालूनी नस्ल की भेड़ के पालन का एक अहम केंद्र माना जाता है। आज के इस लेख में, हम भारत में भेड़ पालन के फ़ायदे समझें। हम जानेंगे कि कैसे यह व्यवसाय सिर्फ किसानों की आजीविका ही नहीं, बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा को भी मजबूत करता है। फिर हम कुछ प्रमुख भारतीय भेड़ नस्लों, जैसे दक्कनी, नेल्लोर, गद्दी और मारवाड़ी पर प्रकाश डालेंगे। अंत में हम, यह भी जानेंगे कि हमारे अपने शहर में भेड़ पालन व्यवसाय कैसे शुरू किया जा सकता है!
क्या आपको पता है कि गंभीरता से लेने पर भेड़ पालन एक बहुउद्देशीय और लाभदायक व्यवसाय साबित होता है। यह भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाता है।

आइए जानते हैं कैसे?
- किसानों के लिए एक बहुमूल्य संसाधन: भेड़ें भारतीय किसानों के लिए किसी बहुमूल्य संपत्ति से कम नहीं हैं। वे मांस, ऊन और चमड़े के साथ-साथ खाद और कुछ मात्रा में दूध भी प्रदान करती हैं। कुछ क्षेत्रों में इनका उपयोग परिवहन के लिए भी किया जाता है। इतनी सारी विशेषताओं के कारण भेड़ पालन करना भारत की कृषि अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है।
- आय के कई स्रोत: भेड़ पालन से किसानों को हर साल ऊन, मांस और खाद के रूप में आय के तीन मुख्य स्रोत मिलते हैं। इससे उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होती है और उन्हें एक स्थिर आमदनी मिलती है। यह व्यवसाय कम निवेश में भी अच्छा मुनाफ़ा दे सकता है।
- हर समुदाय में मांस की मांग: भारत में मटन को लगभग सभी समुदायों में खाया जाता है। इसी कारण किसानों को एक विशाल और पूर्वाग्रह-मुक्त बाज़ार मिल जाता है। धार्मिक या सांस्कृतिक बाधाओं के बिना, वे आसानी से अपने उत्पाद बेच सकते हैं और अच्छा लाभ कमा सकते हैं।
- लाखों लोगों की आजीविका का सहारा: भेड़ पालन से होने वाले फ़ायदे केवल किसानों तक ही सीमित नहीं है। किसानों के अलावा भी यह लाखों लोगों के जीवनयापन का अहम् हिस्सा हैं। इसमें चरवाहे, ऊन कतरने वाले, चमड़ा प्रसंस्करण करने वाले और प्रवासी मजदूर भी शामिल हैं। भारत में लगभग 30 लाख लोग इस उद्योग से जुड़े हुए हैं और अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं।
- पर्यावरण के अनुकूल पशुपालन: बकरियों की तरह, भेड़ें पेड़ों को नुकसान नहीं पहुंचातीं। वे प्राकृतिक रूप से चरती हैं और पर्यावरण के साथ संतुलन बनाए रखती हैं। इस कारण से, भेड़ पालन एक टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल विकल्प बन जाता है।
- बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने में सहायक: भेड़ें ऐसी घास और खरपतवार को भी खा सकती हैं, जिन्हें दूसरे पशु नहीं खाते। इससे बंजर भूमि उपजाऊ बनती है और मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होता है। इस तरह वे अनुपयोगी ज़मीन को हरे-भरे चरागाह में बदल सकती हैं।
- प्राकृतिक खाद का उत्तम स्रोत: भेड़ का गोबर पोषक तत्वों से भरपूर होता है। यह एक बेहतरीन जैविक खाद के रूप में काम करता है। भेड़ें सूखी और कम उपजाऊ ज़मीन पर भी जीवित रह सकती हैं। उनके मल से मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है, जिससे पौधों की वृद्धि तेज़ हो जाती है। इसलिए भेड़ पालन किसानों के लिए बहुत फ़ायदेमंद साबित होता है, खासकर उन क्षेत्रों में, जहां रासायनिक उर्वरक कारगर नहीं होते।
भारत में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्य भेड़ पालन के मामले में सबसे आगे हैं। इसके प्रमुख कारण यह है कि इन राज्यों की आदर्श जलवायु और चरागाहों की स्थिति इस व्यवसाय के लिए अनुकूल साबित होती है! यहाँ अगर सही योजना और देखभाल के साथ भेड़ पालन किया जाए, तो यह किसानों के लिए स्थिर आमदनी का अच्छा जरिया साबित हो सकता है।
एक भेड़ से कितनी कमाई हो सकती है?
औसतन, एक भेड़ से सालाना ₹4000-₹5000 की कमाई की जा सकती है तक की कमाई की जा सकती है। भेड़ों का मटन बाज़ार में अच्छी कीमत पर बिकता है! इसकी कीमत ₹100-₹200 प्रति किलो होती है और बाज़ार की मांग के अनुसार बदल सकती है। अगर आपके पास 100 या उससे अधिक भेड़ें हैं, तो यह व्यवसाय और भी ज़्यादा फ़ायदेमंद हो सकता है।
भेड़ पालन का एक और बड़ा फायदा इसकी खाद से होने वाली अतिरिक्त कमाई है। भेड़ की खाद जैविक और पोषक तत्वों से भरपूर होती है, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है। बाज़ार में इसकी कीमत ₹1,500 प्रति तन होती है जिससे किसान लगभग ₹ 50,000 कमा सकते हैं।
क्यों अपनाएं भेड़ पालन?
अगर आप खेती से अतिरिक्त आमदनी चाहते हैं, तो भेड़ पालन एक बेहतरीन विकल्प हो सकता है। सही प्रबंधन और तकनीकों के साथ, यह व्यवसाय किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त बना सकता है। कम लागत में ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाला यह व्यवसाय भविष्य में भी टिकाऊ और लाभदायक साबित हो सकता है।
भारत में भेड़ पालन मुख्य रूप से ऊन और मांस उत्पादन के लिए किया जाता है। विभिन्न जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण अलग-अलग राज्यों में भेड़ों की कई नस्लें विकसित हुई हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशिष्ट विशेषताएँ हैं।
आइए, भारत की कुछ प्रमुख भेड़ नस्लों के बारे में विस्तार से जानते हैं।
1. दक्कनी भेड़ (Deccani Sheep)– ऊन और मांस उत्पादन में कुशल: डेक्कनी भेड़ महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में पाई जाती है और इसे एक अनोखी नस्ल माना जाता है। यह राजस्थान की ऊनी भेड़ों और दक्षिण भारत की रोएँदार भेड़ों के मिश्रण से विकसित हुई है।
🔹 पहचान: ये भेड़ें गहरे रंग की होती हैं और आकार में मध्यम होती हैं।
🔹 प्रमुख विशेषताएँ:
इसे मुख्य रूप से ऊन और मेमनों के उत्पादन के लिए पाला जाता है।
प्रति भेड़ से सालाना औसतन 5 किलोग्राम ऊन प्राप्त होता है।
यह नस्ल, खुले चरागाहों में चरने के लिए अनुकूल होती है।
2. नेल्लोर भेड़ (Nellore Sheep) – भारत की सबसे लंबी भेड़ नस्ल: नेल्लोर भेड़ मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पाई जाती है। इसे भारत की सबसे लंबी भेड़ नस्लों में से एक माना जाता है।
🔹 पहचान: इनका शरीर लंबा और बकरी जैसा दिखता है, और त्वचा पर बाल अपेक्षाकृत कम होते हैं।
🔹 प्रमुख विशेषताएँ:
इनकी लंबी टांगें और बड़े कान इसे अन्य नस्लों से अलग बनाते हैं।
इनमें गर्म और शुष्क जलवायु में भी अनुकूलन की क्षमता होती है।
इन्हें मुख्य रूप से मांस उत्पादन के लिए पाला जाता है, क्योंकि इनके ऊन की गुणवत्ता कम होती है।
3. गद्दी भेड़ (Gaddi Sheep)– उत्तम ऊन उत्पादन के लिए प्रसिद्ध: गद्दी भेड़ें मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं। इस नस्ल को महीन और चमकदार ऊन के लिए जाना जाता है।
🔹 पहचान: यह नस्ल आकार में छोटी होती है, और नर भेड़ों के सींग होते हैं, जबकि मादाएँ सींग रहित होती हैं।
🔹 प्रमुख विशेषताएँ:
प्रति भेड़ से, सालाना औसतन 1.15 किलोग्राम ऊन प्राप्त होता है।
साल में तीन बार ऊन काटी जाती है, जिससे उच्च गुणवत्ता वाली ऊन प्राप्त होती है।
इनमें ठंडे इलाकों में कठोर जलवायु सहन करने की गज़ब की क्षमता होती है।
4. मारवाड़ी भेड़ (Marwari Sheep) – राजस्थान की पहचान: मारवाड़ी भेड़ें मुख्य रूप से राजस्थान के जोधपुर, जयपुर और बाड़मेर ज़िलों में पाई जाती हैं। ये कठोर जलवायु में जीवित रहने और मांस और ऊन उत्पादन दोनों के लिए उपयुक्त होती हैं।
🔹 पहचान: इनका लंबा शरीर, काला चेहरा, उभरी हुई नाक और छोटी नुकीली पूंछ होती है।
🔹 प्रमुख विशेषताएँ:
कम पानी और सूखे इलाके में भी आसानी से जीवित रहती हैं।
प्रति भेड़ सालाना 1 से 1.25 किलोग्राम ऊन प्राप्त होता है।
इनका ऊन अपेक्षाकृत मोटा होताहै, जिससे दरियां, कालीन और ऊनी कपड़े बनाए जाते हैं।
यदि आप, लखनऊ में भेड़ पालन का व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं, तो इसके लिए सही योजना बनाना और ज़रूरी जानकारी होना बेहद जरूरी है।
यहां हम आपको आसान भाषा में भेड़ पालन की पूरी प्रक्रिया समझाएंगे।
1. भेड़ की सही नस्ल का चयन करें: भेड़ पालन के लिए उचित नस्ल का चुनाव बहुत ज़रूरी है। कुछ नस्लें मांस उत्पादन के लिए उपयुक्त होती हैं, जबकि कुछ ऊन उत्पादन के लिए बेहतर होती हैं। यदि आप दोनों उद्देश्यों को पूरा करना चाहते हैं, तो ऊपर दी गई भेड़ों में से दोहरी उपयोगिता वाली नस्लें चुनें।
बेहतर उत्पादन और अधिक लाभ के लिए स्वस्थ और उच्च उत्पादकता वाली नस्लों का चयन करें।
2. सही स्थान का चुनाव करें
भेड़ पालन के लिए ऐसी जगह चुनें, जहां:
✔ पानी का जमाव न हो और जमीन थोड़ी ऊंचाई पर हो।
✔ खेत को जंगली जानवरों से सुरक्षित रखने की व्यवस्था हो।
✔ पशु चिकित्सा सहायता पास में उपलब्ध हो।
✔ अच्छी सड़क और परिवहन सुविधा हो ताकि आवश्यक सामान आसानी से मिल सके।
3. भेड़ों के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए सही शेड बनाना जरूरी है: कम संख्या में भेड़ों के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री से शेड बनाया जा सकता है। व्यवसाय को बड़े स्तर पर बढ़ाने के लिए एस्बेस्टस शीट (Asbestos Sheet) की छत और 8-10 फ़ीट ऊंची दीवारों वाला शेड उपयुक्त रहेगा। शेड को लकड़ी या सीमेंट से मजबूत बनाया जाना चाहिए। यदि गहरे बिछावन (Deep Litter) पद्धति का उपयोग कर रहे हैं, तो धान की भूसी का उपयोग किया जा सकता है।
4. चारा प्रबंधन पर ध्यान दें: भेड़ों के अच्छे स्वास्थ्य और उत्पादन के लिए उचित चारा प्रबंधन आवश्यक है। हरे चारे के साथ-साथ पोषक तत्वों से भरपूर संकेंद्रित चारा (Concentrate Feed) देना चाहिए। चारे की मात्रा भेड़ की उम्र और जरूरत के अनुसार तय करनी चाहिए। विशेष ध्यान दें कि गर्भवती भेड़ों और दूध पिलाने वाली भेड़ों को अतिरिक्त पोषण मिले।
कुल मिलाकर लखनऊ में भेड़ पालन शुरू करने के लिए सही नस्ल, उपयुक्त स्थान, सुरक्षित आवास और संतुलित आहार का ध्यान रखना बहुत जरूरी है। यदि आप इन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान देते हैं, तो यह व्यवसाय आपके लिए फ़ायदेमंद और सफल साबित हो सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : PxHere
आइए, आज देखें और जानें कि कैसे क्रिकेट के खेल में मारे जाते हैं पुल शॉट
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
20-04-2025 09:03 AM
Lucknow-Hindi

हमारे प्रिय शहर वासियों के लिए क्रिकेट सिर्फ़ एक खेल नहीं है, बल्कि यह हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है। लखनऊ सुपर जायंट्स (Lucknow Super Giants), आई पी एल (Indian Premier League) में एक ऐसी टीम बन गई है, जिससे हमारा शहर अब घनिष्ठता से जुड़ चुका है। स्थानीय चाय की दुकानों से लेकर पारिवारिक समारोहों तक में इस टीम के मैच देखे जाते हैं, उनकी चर्चा की जाती है और उनकी दिल से सराहना की जाती है। क्रिकेट की बात करें तो, पुल शॉट (pull shot), एक शक्तिशाली, आक्रामक स्ट्रोक (stroke ) है, जिसे एक बल्लेबाज़ शॉर्ट-पिच डिलीवरी (short-pitched delivery) के विरूद्ध लेग साइड की ओर पिछले पैर पर जाकर (Backfoot) पर खेलता है । ये शॉट, दाएं हाथ के बल्लेबाज़ों के लिए यह बाईं ओर और बाएं हाथ के बल्लेबाज़ों के लिए दाईं ओर खेला जाता है। इसका उद्देश्य बॉडी लाइन के बाहर गेंद को ज़ोर से मारना होता है। रिकी पोंटिंग (Ricky Ponting), रोहित शर्मा, विराट कोहली और ब्रायन लारा (Brian Lara) सहित कई प्रसिद्ध क्रिकेटर अपने शक्तिशाली और प्रभावी पुल शॉट के लिए प्रसिद्ध हैं। सचिन तेंदुलकर, जैक्स कैलिस (Jacques Kallis) और अन्य भी इस शॉट को खेलने में माहिर हैं। पुल शॉट को खेलते समय खिलाड़ियों से कई गलतियां हो सकती हैं । किंतु यदि कुछ बातों का विशेष ध्यान रखा जाए, तो इन गलतियों से बचा जा सकता है। जैसे खुद को बहुत जल्दी बैकफ़ुट पर नहीं लाना चाहिए, गेंद की गति से कभी भी घबराना नहीं चाहिए तथा अपने पैर बहुत ज़्यादा नहीं खोलनें चाहिए। हमेशा अपने सामने वाले कंधे को गेंदबाज़ की तरफ़ रखना चाहिए। तो आइए, आज हम कुछ चलचित्रों के माध्यम से देखते हैं कि पुल शॉट कैसे मारे जाते हैं। इन वीडियो क्लिप्स के ज़रिए, हम सीखेंगे कि कैसे जल्दी से गेंद की लेंथ (length) को पढ़ा जाता है, कैसे जल्दी से बैकफ़ुट पर जाना होता है और कैसे शॉट मरते समय गेंद को ज़मीन पर रखने या उठाने के लिए बल्ले की दिशा को नियंत्रित किया जाता है। हम इन महत्वपूर्ण तथ्यों पर भी नज़र डालेंगे कि शरीर का संतुलन, सिर की स्थिति और तेज़ रिफ़्लेक्स (reflexes) के लिए कैसे अभ्यास किया जाता है। अंत में, हम जानेंगे कि पुल शॉट खेलते समय गलतियों से कैसे बचा जा सकता है।
संदर्भ:
यीशु के बलिदान, मुक्ति और पुनरुत्थान के प्रतीक हैं गुड फ़्राइडे और ईस्टर
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
18-04-2025 09:21 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, आप सभी यह तो जानते हैं कि हमारे शहर का सेंट जोज़ेफ़ कैथेड्रल चर्च राज्य के प्रतिष्ठित चर्चों में से एक है। यह प्रतिष्ठित चर्च पवित्र सप्ताह के दौरान हमारे शहर में ईसाई धर्म के अनुयायियों के लिए बहुत महत्व रखता है। ईसाई धर्म में पवित्र सप्ताह (Holy Week) ईस्टर (Easter) तक चलने वाला सप्ताह है, जो पाम संडे (Palm Sunday) से शुरू होता है और ईस्टर संडे में समाप्त होता है, जो यीशु के सूली पर चढ़ने, मृत्यु और पुनरुत्थान की याद दिलाता है। तो आइए, आज इस सप्ताह के प्रत्येक दिन के महत्व को विस्तार से समझते हुए, गुड फ़्राइडे (Good Friday) और ईस्टर से संबंधित प्रतीकवाद पर प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम उत्तर प्रदेश के कुछ सबसे लोकप्रिय चर्चों के बारे में जानेंगे, जिनमें हमारे शहर का सेंट जोज़ेफ़ कैथेड्रल भी शामिल है।
पवित्र सप्ताह के 7 दिन और उनका महत्व:
- पाम संडे (Palm Sunday): पाम संडे पवित्र सप्ताह का पहला दिन है। यह येरूसलेम में यीशु के प्रवेश का प्रतीक है जहां लोगों ने ताड़ की शाखाएं लहराकर उनका स्वागत किया और उनके प्रति अपनी भक्ति के संकेत के रूप में "होसन्ना" (Hosanna) के नारे लगाए।
- पवित्र सोमवार (Holy Monday): पवित्र सोमवार के दिन, यीशु ने व्यापारियों और मुद्रा परिवर्तकों को मंदिर से बाहर निकालकर, उसे अशुद्धियों से साफ़ कर दिया। उन्हाने कहा, "मेरा घर प्रार्थना का घर कहलाएगा, परन्तु तुम ने उसे लुटेरों का अड्डा बना दिया है।"
- पवित्र मंगलवार (Holy Tuesday): इस दिन, यीशु ने ओलिवेट प्रवचन दिया, जिसमें उन्होंने मंदिर के विनाश और उनके दूसरे आगमन की भविष्यवाणी की। उन्होंने अपने शिष्यों को अपने अंतिम समय के लिए तैयार रहने के महत्व के बारे में भी सिखाया।
- पवित्र बुधवार (Holy Wednesday): पवित्र बुधवार को "जासूस बुधवार" (Spy Wednesday) के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि माना जाता है कि इसी दिन यहूदा इस्कैरियट चांदी के तीस टुकड़ों के लिए यीशु को धोखा देने के लिए तैयार हुआ था। 'बेथनी की मरियम' (Mary of Bethany) ने इसी दिन यीशु के पैरों पर कीमती इत्र भी लगाया, और उसे बालों से पोंछा था।
- पुण्य गुरुवार (Maundy Thursday): पुण्य गुरुवार, वह दिन है जिस दिन यीशु ने अपने शिष्यों के साथ अपना अंतिम भोज साझा किया था। उन्होंने सेवक नेतृत्व के महत्व पर जोर देते हुए अपने शिष्यों के पैर भी धोए। इस भोजन के दौरान, यीशु ने 'यूचरिस्ट' (पवित्र भोज (Eucharist)) के संस्कार की स्थापना की।
- गुड फ़्राइडे (Good Friday): गुड फ़्राइडे यीशु के सूली पर चढ़ने और मृत्यु का दिन है। इसी दिन रोमन अधिकारियों ने उनके साथ विश्वासघात किया, उन्हें गिरफ़्तार किया और मौत की सज़ा सुनाई। फिर उन्हें क्रूस पर चढ़ाया गया, जहां उनकी मृत्यु हुई, जो मानव जाति के उद्धार के लिए अंतिम बलिदान का प्रतीक है। यह ईसाइयों के लिए गंभीर शोक और चिंतन का दिन माना जाता है।
- पवित्र शनिवार (Holy Saturday): पवित्र शनिवार, वह दिन है जो यीशु के सूली पर चढ़ने और उनके पुनरुत्थान के बीच एवं शोक और चिंतन के समय को दर्शाता है। इसे 'ईस्टर विजिल' (Easter Vigil) के रूप में भी जाना जाता है, जिसके दौरान विश्वासी ईस्टर रविवार के जश्न की तैयारी करते हैं, जो यीशु के पुनर्जीवित होने का दिन माना जाता है।
गुड फ़्राइडे और ईस्टर संडे से संबंधित प्रतीकवाद:
गुड फ़्राइडे और ईस्टर संडे दोनों से ही कई प्रतीकवाद और परंपराएँ जुड़ी हैं जो उनके महत्व को और गहरा करते हैं।
- क्रॉस (Cross): क्रॉस ईसाई धर्म का प्राथमिक प्रतीक है, जो यीशु के बलिदान और मुक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। कई ईसाई क्रॉस पहनते हैं या उन्हें यीशु के प्रेम और क्षमा की याद के रूप में अपने घरों और पूजा स्थलों पर रखते हैं।
- ईस्टर अंडे (Easter Eggs); ये नए जीवन और पुनर्जन्म का प्रतीक होते हैं। अंडों को सज़ाने की प्रथा ईसाई धर्म से पहले की है और इसे यीशु के पुनरुत्थान के प्रतीक के रूप में ईस्टर समारोह में शामिल किया गया है। ईस्टर उत्सव के दौरान अंडा खोज और अंडा रोलिंग जैसी प्रतियोगिताएं अत्यंत लोकप्रिय हैं, खासकर बच्चों के बीच।
- 'ईस्टर बनी' (Easter Bunny): ये ईसाई संस्कृति का एक लोकप्रिय पात्र है, जो अक्सर, ईस्टर अंडों और उपहारों से जुड़ा होता है। यद्यपि इसकी उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है, ईस्टर बनी छुट्टियों का एक प्रतीक बन गया है, जो रंगीन अंडे और उपहारों की डिलीवरी के माध्यम से बच्चों में खुशी और उत्साह लाता है।
- पारंपरिक रीति-रिवाजों से परे, ईस्टर आध्यात्मिक नवीनीकरण और चिंतन का भी समय है। कई ईसाई ईसा मसीह के पुनरुत्थान के जश्न की तैयारी के लिए ईस्टर से पहले सप्ताह में उपवास, प्रार्थना और आत्म-परीक्षा करते हैं।
भारत में कुछ लोकप्रिय पारंपरिक ईस्टर व्यंजन:
ईस्टर अंडे: दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह, ईस्टर अंडे भारतीय ईस्टर समारोहों में एक विशेष स्थान रखते हैं। ईस्टर ईसा मसीह के पुनरुत्थान का प्रतीक है और अंडे उस खाली कब्र का प्रतीक हैं जहां से वह नए सिरे से उभरे थे। भारतीयों ने स्थानीय रूपांकनों और डिज़ाइनों को शामिल करके इन ईस्टर अंडों में एक स्थानीय स्वाद जोड़ा है।
केरल अप्पम: केरल में, ईस्टर भोजन अप्पम के बिना अधूरा है। यह पारंपरिक व्यंजन गहरा सांस्कृतिक महत्व रखता है और केरल में ईसाई परिवारों में ईस्टर नाश्ते का एक अभिन्न अंग है। इसे रात भर चावल के घोल को किण्वित करके पैनकेक के रूप में बनाया जाता है।
गोवा कुल्कुल: कुल्कुल या फ़ोफ़ोस सबसे लोकप्रिय ईस्टर भोजन व्यंजनों में से एक है जो विशेष रूप से गोवा के कैथोलिक घरों में बनाए जाते हैं। कुल्कुल बनाना एक पाक परंपरा है, जो अक्सर पीढ़ियों से चली आ रही है, जो ईस्टर समारोह के दौरान एकजुटता और एकता का प्रतीक है।
पारंपरिक ईस्टर बिस्किट: भारत के कुछ क्षेत्रों में, विशेष रूप से एंग्लो-इंडियन समुदायों में, ईस्टर बिस्किट एक विशेष ईस्टर भोजन के रूप में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ये रोज़मर्रा के मीठे या नमकीन बिस्किट नहीं हैं क्योंकि इन्हें दालचीनी, जायफल और लौंग जैसे गर्म मसालों का उपयोग किया जाता है। ईस्टर बिस्किट ईस्टर उत्सव के दौरान साझा की जाने वाली खुशी और एकता का प्रमाण हैं।
मांस के व्यंजन: पूरे भारत में ईस्टर दावतों में मांस के व्यंजन प्रमुखता से शामिल होते हैं। केरल में ईस्टर रात्रिभोज के लिए, भुने हुए मसालों और नारियल से बनी एक समृद्ध और सुगंधित चिकन करी 'वरुथाराचा चिकन करी' बनाई जाती है। गोवा में एक पसंदीदा ईस्टर भोजन सोरपोटेल (Sorpotel) है, जो सिरका और मसालों से युक्त एक मसालेदार पोर्क स्टू है। इनके अलावा, अन्य क्षेत्रीय ईस्टर व्यंजन भी इस त्योहार के पाक परिदृश्य में गहराई और विविधता जोड़ते हैं। उदाहरण के लिए, पूर्वोत्तर भारत में ईसाई समुदाय द्वारा, खासकर नागालैंड और मणिपुर जैसे राज्यों में, स्मोक्ड पोर्क विद बैम्बू शूट्स और नगा-थोंगबा जैसी पोर्क तैयारियों का आनंद लिया जाता है।
उत्तर प्रदेश में कुछ सबसे लोकप्रिय चर्च:
- सेंट जोज़ेफ़ कैथेड्रल, लखनऊ (St. Joseph Cathedral Lucknow): लखनऊ का सेंट जोज़ेफ़ कैथेड्रल चर्च, हज़रतगंज में स्थित है। यह लखनऊ के सबसे प्रमुख चर्चों में से एक है, जिसकी स्थापना 1862 में हुई थी। इस चर्च की अर्धचंद्राकर संरचना इसे लखनऊ का सबसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थल बनाती है। इसमें ईसा मसीह की एक मूर्ति है। एक लंबा स्तंभ ऊपर के अर्धचंद्र और क्रॉस को अलग करता है। सेंट जोज़ेफ़ कैथेड्रल चर्च का रंग ग्रे है, जबकि क्रॉस और जीसस की आकृति सफेद है। यह सुबह 7:00 बजे खुलता है और शाम 6:30 बजे बंद हो जाता है।
- ऑल सेंट्स कैथेड्रल, प्रयागराज (All Saints Cathedral, Prayagraj): प्रयागराज में स्थित ऑल सेंट्स चर्च, जिसे पत्थर गिरिजा (पत्थरों का चर्च) भी कहा जाता है, एक रोमन प्रोटेस्टेंट चर्च है। यह एशिया के बेहतरीन एंग्लिकन कैथेड्रल में से एक है, जिसे ब्रिटिश वास्तुकार सर विलियम एमर्सन द्वारा 13वीं शताब्दी की गॉथिक शैली में डिज़ाइन किया गया था। इसे आधिकारिक तौर पर 1887 में समर्पित किया गया था। यह प्रसिद्ध चर्च 1970 से उत्तर भारत के चर्च के साथ जुड़ा हुआ है।
- सेंट जॉर्ज चर्च, आगरा (St. George's Church, Agra): ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान 1828 में आगरा में निर्मित सेंट जॉर्ज कैथेड्रल, अपने असाधारण गैर-गॉथिक डिज़ाइन के लिए जाना जाता है। इस शानदार संरचना का निर्माण कर्नल जे. टी. बोइल्यू द्वारा कराया गया था। यह चर्च, आगरा सूबा के अंतर्गत आता है और शहर के सबसे पुराने चर्चों में से एक है। सेंट जॉर्ज चर्च, आगरा की छावनी के क्षेत्र में स्थित है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : wikimedia
लखनऊ, आइए जानें, कैसे संस्कृति, फ़ैशन ब्रांड्स को सफल बनाने में एक अहम भूमिका निभाती है!
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
17-04-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi

बेशक ही, हमारा लखनऊ कई फ़ैशन प्रेमियों का घर है। आखिरकार, फ़ैशन आत्म-अभिव्यक्ति, सांस्कृतिक संचार और आर्थिक गतिविधि के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में कार्य करता है। यह प्रभावित करता है कि, हम खुद को कैसे देखते हैं, तथा लोग हमें कैसे समझते हैं। फ़ैशन ब्रांड अक्सर अपनी शैली, मूल्य बिंदु और ब्रांड पहचान के संयोजन के माध्यम से, बाज़ार में बने रहने का लक्ष्य रखते हैं। तो आज आइए, यह पता लगाने की कोशिश करें कि संस्कृति, फ़ैशन ब्रांडों के लिए एक स्थिर रणनीति के रूप में कैसे काम करती है। फिर, हमें पता चलेगा कि, लीवाइज़ (Levi’s) एक कार्य वर्दी ब्रांड से एक वैश्विक फ़ैशन ब्रांड कैसे बना। आगे बढ़ते हुए, हम रैंगलर (Wrangler) की यात्रा पर कुछ प्रकाश डालेंगे। अंत में, हम कुछ रणनीतियों के बारे में बात करेंगे, जो आपको आज के प्रतिस्पर्धी बाज़ार में, अपने स्वयं के फ़ैशन ब्रांड को उचित स्थिति में रखने में मदद कर सकती हैं।
फ़ैशन ब्रांडों के लिए एक पोज़िशनिंग रणनीति के रूप में, संस्कृति कैसे काम करती है?
फ़ैशन वर्तमान युग की एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। यह किसी समाज को प्रोत्साहित करने वाले मूल्यों को उजागर करता है। दुनिया भर में सबसे उल्लेखनीय फ़ैशन ब्रांडों में से कुछ ब्रांड, एक विस्तारित स्थिति बनाने के लिए संस्कृति (कला, वास्तुकला या संगीत) का उपयोग करते हैं। कोई संस्कृति, विशेष अर्थ प्रसारित करने और समुदाय की पहचान बनाने के लिए सबसे प्रभावी उपकरणों में से एक है। इस परिप्रेक्ष्य में, ब्रांडों को संस्कृति द्वारा पोषण मिलता है, तथा इससे प्रतिनिधित्व और पहचान की प्रतीकात्मक प्रणालियों का निर्माण किया जाता है।
लीवाइज़ एक कार्य वर्दी ब्रांड से वैश्विक फ़ैशन ब्रांड कैसे बना?
प्रारंभिक वर्ष:
लीवाइज़ की स्थापना 1853 में, लीवाइ स्ट्रॉस (Levi Strauss) द्वारा की गई थी। वे 1848 में जर्मनी (Germany) से सैन फ़्रांसिस्को (San Francisco) आए थे। स्ट्रॉस ने पश्चिम क्षेत्र के खनिकों और मज़दूरों के लिए, टिकाऊ कार्य वर्दी बनाने का अवसर देखा। तब उन्होंने जेब और सिलाई को मज़बूत करने के लिए, तांबे के रिवेट्स (Rivets) के साथ डेनिम पैंट का उत्पादन शुरू किया। ये जीन्स जल्द ही लोकप्रिय हुए, और उन्नीसवीं सदी के मोड़ तक, लीवाइज़ कार्य वर्दी के लिए पसंदीदा ब्रांड बन गया था। फिर कंपनी ने जैकेट, चौग़ा और अन्य कठिन कपड़ों को उत्पादन में शामिल किया, जो उच्च गुणवत्ता वाले डेनिम से बने थे।
कार्य वर्दी से लेकर फ़ैशन तक:
1930 और 1940 के दशक में, लीवाइज़ ने मुख्य फ़ैशन में प्रवेश करना शुरू कर दिया। कुछ हॉलीवुड अभिनेताओं ने अपनी फ़िल्मों में लीवाइज़ की जीन्स पहनकर, इस ब्रांड को अधिक लोकप्रिय बनाया। साथ ही, उस समय की विद्रोही युवा संस्कृति ने इस ब्रांड की साहसिक छवि में रुचि दिखाई।
1960 और 1970 के दशक में, लीवाइज़ प्रतिवाद संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन का प्रतीक बन गया। इस ब्रांड की जीन्स को विभिन्न कार्यकर्ता पहनते थे, और इसके विज्ञापन अभियानों ने शांति, प्रेम और स्वतंत्रता के आदर्शों को प्रतिबिंबित किया।
एक तरफ़, 1980 और 1990 के दशक में, लीवाइज़ ने फ़ैशन रुझानों और उपभोक्ता पसंद को बदलते हुए, विकास करना जारी रखा। इस ब्रांड ने नई शैलियों की शुरुआत की, और इसकी प्रतिष्ठित ‘501 जींस’ सहजता का प्रतीक बन गई।
रैंगलर, विश्व स्तर पर प्रसिद्ध फ़ैशन ब्रांड कैसे बना?
शुरुआती दिन:
रैंगलर की यात्रा 1897 में शुरू हुई थी। तब सी. सी. हडसन (C. C. Hudson), उत्तरी कैरोलिना (North Carolina) के ग्रीन्सबोरो (Greensboro) शहर में काम ढूंढने गए, जो एक नवोदित कपड़ा शहर था। उनका व्यवसाय वहां तेज़ी से बढ़ता गया, और 1919 तक उन्होंने अपनी संपन्न कंपनी को ब्लू बेल ओवरऑल कंपनी (Blue Bell Overall company) के रूप में तैयार किया। इसके सात साल बाद, बिग बेन मैन्यूफ़ैक्चरिंग (Big Ben Manufacturing) ने ग्रीन्सबोरो में अपना संचालन करते हुए, ब्लू बेल का अधिग्रहण किया।
नवाचार और रैंगलर का जन्म:
1947 तक, रैंगलर पश्चिमी जींस के उत्पादन की शुरुआत हुई, जो रोडियो बेन (Rodeo Ben) की अंतर्दृष्टि के साथ डिज़ाइन की गई थी। चरवाहों और शिल्पकारों के बीच साझेदारी ने, रैंगलर को अलग बनाया। इस प्रकार स्थायित्व, आराम एवं पश्चिमी सत्यता के लिए ब्रांड की प्रतिष्ठा मज़बूत बनी।
एक रोडियो ब्रांड बनना:
जिम शोल्डर्स (Jim Shoulders) 1948 में रैंगलर के पहले आधिकारिक एंडोरसी (Endorsee) बन गए, जिससे इसका खेल भागीदारी की एक विरासत में प्रवेश हुआ। 16 विश्व रोडियो चैंपियनशिप्स (16 World Rodeo championships) के साथ उनके समर्थन ने, रैंगलर को अखाड़े में उत्कृष्टता का पर्याय बनाया।
लोकप्रिय संस्कृति में रैंगलर:
1981 में, रैंगलर ब्रांड ने प्रसिद्ध रेस कार ड्राइवर – डेल अर्नहाट (Dale Earnhardt) को प्रायोजित किया, जिसके लिए एक अविस्मरणीय नीली एवं पीली “रैंगलर जीन मशीन (Wrangler Jean Machine)” नामक गाड़ी बनाई गई। बाद में, रैंगलर ने फ़िल्म कलाकारों को भी प्रायोजित किया।
प्रतिस्पर्धी परिदृश्य में अपने फ़ैशन ब्रांड को स्थिर रखने के अनूठे तरीके क्या हैं?
1.) अपने दर्शकों को जानें:
सबसे पहले यह समझें कि, आपके लक्षित ग्राहक कौन हैं; वे क्या चाहते हैं; और उन्हें क्या चाहिए? आपको बाज़ार अनुसंधान करने एवं अपने दर्शकों को उनके जनसंख्या संबंधी, मनोविज्ञान और व्यवहार के आधार पर खंडित करने की आवश्यकता है।
2.) अपने मूल्य को परिभाषित करें:
आपको एक स्पष्ट और सम्मोहक मूल्य प्रस्ताव तैयार करने की आवश्यकता है, जो आपके ब्रांड के लाभों, सुविधाओं और भावनाओं को सारांशित करता है।
3.) अपनी ब्रांड पहचान विकसित करें:
यह जानें कि, क्या आपके ब्रांड के व्यक्तित्व, मूल्यों और आवाज की दृश्य तथा मौखिक अभिव्यक्ति है। आपको एक सुसंगत और यादगार ब्रांड पहचान बनाने की आवश्यकता है, जो आपके ब्रांड के सार को दर्शाता है तथा आपके दर्शकों के साथ प्रतिध्वनित होता है। आपकी ब्रांड पहचान में आपका लोगो, नाम, नारा, रंग, लिपि, चित्र, टोन और स्टाइल शामिल हैं।
4.) अपने समुदाय का निर्माण करें:
आपको सोशल मीडिया, ईमेल मार्केटिंग, इवेंट्स और अन्य रणनीतियों के माध्यम से अपने ग्राहकों, प्रभावित लोगों, मीडिया और अन्य हितधारकों के साथ जुड़ने की आवश्यकता है। इसके अलावा, आपको मूल्यवान और प्रासंगिक कंटेंट (Content) बनाने; प्रतिक्रिया और समीक्षाओं को प्रोत्साहित करने; पुरस्कार और प्रोत्साहन प्रदान करने; और संबंधित भावना को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है।
5.) निगरानी और अनुकूलन:
अंत में, आपको अपने ब्रांड के प्रदर्शन, जागरूकता और धारणा को मापने की आवश्यकता है। आपको अपने ग्राहकों और प्रतियोगियों से डेटा, प्रतिक्रिया और अंतर्दृष्टि एकत्र करने तथा उसका विश्लेषण करने की भी ज़रूरत होती है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
संस्कृति 2023
प्रकृति 694