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वाल्मीकि जयंती हिन्दू पंचांग अनुसार आश्विनी माह की पुर्णिमा के दिन बड़े धूम धाम से मनाई जाती है। महर्षि वाल्मीकि आदिकवि के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्हे यह उपाधि सर्वप्रथम श्लोक निर्माण करने पर दी गयी थी। वैसे तो वाल्मीकि जयंती दिवस पूरे भारत देश में उत्साह से मनाई जाता है परंतु उत्तर भारत में इस दिवस पर बहुत धूमधाम होती है। उत्तरभारतीय वाल्मीकि जयंती को ‘प्रकट दिवस’ रूप में मनाते हैं।
वाल्मीकि ऋषि का इतिहास और बाल्यकाल
माना जता है कि वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता की संतान हैं. उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था. बचपन में उन्हे एक भील चुरा ले गया था। जिस कारण उनका लालन-पालन भील प्रजाति में हुआ। इसी कारण वह बड़े हो कर एक कुख्यात डाकू – डाकू रत्नाकर बने और उन्होंने जंगलों में निवास करते हुए अपना काफी समय बिताया।
वाल्मीकि ऋषि परिचय
वाल्मीकि ऋषि वैदिक काल के महान ऋषि बताए जाते हैं। धार्मिक ग्रंथ और पुराण अनुसार वाल्मीकि नें कठोर तप अनुष्ठान सिद्ध कर के महर्षि पद प्राप्त किया था। परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा और आशीर्वाद पा कर वाल्मीकि ऋषि नें भगवान श्री राम के जीवनचरित्र पर आधारित महाकाव्य रामायण की रचना की थी। ऐतिहासिक तथ्यों के मतानुसार आदिकाव्य श्रीमद वाल्मीकि रामायण जगत का सर्वप्रथम काव्य था।महर्षि वाल्मीकि नें महाकाव्य रामायण की रचना संस्कृत भाषा में की थी।
रत्नाकर से वाल्मीकि तक का सफर
भील प्रजाति में पले-बढ़े डाकू रत्नाकर लोगों को लूट कर अपना गुजारा चलाते थे। कई बार वह लोगों की हत्या भी कर देते थे। इसी पाप कर्म में लिप्त रत्नाकर जब एक बार जंगल में किसी नए शिकार की खोज में थे तब उनका सामना नारदजी से हुआ। रत्नाकर नें लूटपाट के इरादे से नारद मुनि को बंदी बना लिया।
तब नारदजी नें उन्हे रोकते हुए केवल एक सवाल पूछा, “यह सब पाप कर्म तुम क्यों कर रहे हो?”
इस सवाल के उत्तर में रत्नाकर नें कहा कि ह यह सब अपने स्वजनों के लिए कर रहा है। तब नारद मुनि बोले – “क्या तुम्हारे इस पाप कर्म के फल भुगतानमें भी तुम्हारे परिवारजन तुम्हारे हिस्सेदार बनेंगे?”
इसपर रत्नाकर नें बिना सोचे ‘हां’ बोल दिया।
तब नारद जी नें रत्नाकर से कहा की एक बार अपने परिवार वालों से पूछ लो, फिर में तुम्हें अपना सारा धन और आभूषण स्वेच्छा से अर्पण कर के यहाँ से चला जाऊंगा।
रत्नाकर नें उसी वक्त अपने एक-एक स्वजन के पास जा कर, अपने पाप का भागीदार होने की बात पूछी। लेकिन किसी एक नें भी हामी नहीं भरी। इस बात से डाकू रत्नाकर को बहुत दुख हुआ और आघात भी लगा। इसी घटना से उसका हृदय परिवर्तन हो गया। रत्नाकर नें इस प्रसंग के बाद पाप कर्म त्याग दिये और जप तप का मार्ग अपना लिया और फिर कई वर्षों की कठिन तपस्या के फल स्वरूप उन्हे महर्षि पद प्राप्त हुआ।
सन्दर्भ:-
1. https://bit.ly/2BfuIOV
2. https://www.youtube.com/watch?v=KJ2A9Y8wGgM