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भारत के मारवाड़ी घोड़े की बात की जाए तो, यह राजस्थान राज्य में मारवाड़ क्षेत्र के ऐतिहासिक शाही घोड़ों की नस्ल है। इनका उपयोग क्षेत्र के राठौर शासकों के योद्धा सैनिकों द्वारा किया जाता था। इस प्रकार इनका उपयोग सदियों से युद्ध के घोड़ों के रूप में किया गया, जहां इसने अपने कौशल का प्रदर्शन किया। यह नस्ल, इसी क्षेत्र की काठियावाड़ी नस्ल से मिलती-जुलती है। मारवाड़ी घोड़े की उत्पत्ति की सटीक जानकारी अभी मौजूद नहीं है, लेकिन अनुवांशिक शोधकर्ताओं के अनुसार वे उन अरबी (Arabian) घोड़ों के वंशज हैं, जिनका प्रजनन देशी भारतीय छोटे घोड़ों के साथ कराया गया था। इस नस्ल में मंगोलियाई (Mongolian) घोड़ों का भी कुछ प्रभाव दिखाई देता है। माना जाता है कि, यह नस्ल 12 वीं शताब्दी ईस्वी में अस्तित्व में आयी। 1193 में, जब राठौर शासकों को अपना मूल राज्य छोड़कर पश्चिमी भारत के दूरदराज वाले इलाकों (भारतीय और थार रेगिस्तान) में जाना पड़ा, तब उनकी इस यात्रा में मारवाड़ी घोड़ों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मारवाड़ी घोड़े को साहसी व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था। गंभीर रूप से घायल होने पर भी यह अपने सवार की तब तक रक्षा करता था, जब तक कि, वह अपने सवार को मुसीबत से बाहर न निकाल दे। इसका प्रमुख उदाहरण महाराणा प्रताप का घोड़ा 'चेतक' है, जिसे मारवाड़ी नस्ल का माना जाता है। चेतक का वर्णन एक दुर्लभ, तीव्र बुद्धि, संयमित और साहसी घोड़े के रूप में किया गया है। इसे अपने छोटे शरीर, घने बालों वाली पूंछ, संकीर्ण पीठ, तीक्ष्ण दृष्टि वाली बड़ी आंखें, मजबूत कंधे, चौड़े माथे और छाती के लिए जाना जाता था। लंबे चेहरे और चमकदार आँखों के साथ चेतक का शरीर अत्यधिक मांसल और आकर्षक था। इसकी सबसे विशिष्ट विशेषता उसके सुंदर घुमावदार और मुड़े हुए कान थे, जिनके शीर्ष आपस में मिलते थे। इसकी गर्दन मोर के समान (संस्कृत में मयूरा ग्रीवा) थी। अपनी बहादुरी के कारण चेतक ने हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की जान बचाई थी।
समय बीतने के साथ, युद्ध धीरे-धीरे समाप्त होने लगे, जिससे युद्ध के लिए मारवाड़ी घोड़े की आवश्यकता ख़त्म होने लगी। परिणामस्वरूप, इस नस्ल की मांग में भारी गिरावट आयी। ब्रिटिश शासन और स्वतंत्रता के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही। 1990 के दशक के प्रारंभ में हुए एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार इस नस्ल के केवल 500 से 600 घोड़े ही बचे थे। 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटिश काल के दौरान, क्षेत्र से संबंधित राष्ट्रवादी लोगों ने इनकी घटती संख्या पर पुनर्विचार करना शुरू किया और नस्ल के पुनरुद्धार के लिए पहल की। इस प्रकार, निरंतर प्रयासों के द्वारा इस नस्ल को विलुप्त होने से बचाया गया। 1992 के जैविक संरक्षण संधि के तहत भारत से इस नस्ल के निर्यात को निषिद्ध कर दिया गया। इसके अलावा, राजस्थान के जोधपुर के चोपासनी (Chopasni) में, मारवाड़ी हॉर्स ब्रीडिंग एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट (Horse Breeding and Research Institute) के नाम से एक संस्था भी स्थापित की गई, जो इन घोड़ों को बढ़ावा देने, सुधारने और बनाए रखने के लिए विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन करती है। ग्रामीण राजस्थान में, मारवाड़ी घोड़े को कई त्योहारों और विवाह में नृत्य करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। मारवाड़ी घोड़े की व्यवहारिक विशेषताएँ देखें तो, यह एक वफादार, बहादुर, कुलीन, अनुकूल और स्नेही घोड़ा माना जाता है। इसका शरीर पतला और परिष्कृत होता है, तथा कान अंदर की ओर मुड़े होते हैं, जिसके शीर्ष भाग आपस में मिलते हैं। मारवाड़ी घोड़ों की औसत ऊंचाई 154 और 164 सेंटीमीटर के बीच होती है। इनके शरीर का रंग काला, ग्रे, भूरा आदि हो सकता है। यह नस्ल 40 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चल सकती है। सामान्य रूप से इनका उपयोग सवारी, खेल कूद की गतिविधियों, परिवहन, हॉर्स शो (Horse shows), सफारी (Safaris), शादी और अन्य समारोह में किया जाता है।
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