समय - सीमा 267
मानव और उनकी इंद्रियाँ 1052
मानव और उनके आविष्कार 814
भूगोल 260
जीव-जंतु 315
लेखन सामग्री के रूप में ताड़पत्तों का सबसे पहले
प्रचलन भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया में पांचवी शताब्दी अथवा उससे भी पूर्व शुरू हो गया था। धीरे-
धीरे उनका विस्तार दक्षिण एशिया से बढ़कर विश्व के दूसरे क्षेत्रों में होने लगा। इन पत्रों में बोरासस प्रजाति के सूखे
और धुएं से उपचारित ताड़ के पत्ते (पालमायरा पाम) या ओला लीफ (कोरिफा अम्ब्राकुलीफेरा या टैलीपोट पाम की पत्ती
का उपयोग किया जाता था। नेपाल में पाया गया ताड़ के पत्तों में संस्कृत शैव धर्म पाठ ज्ञात प्राचीन पाण्डुलिपि है जो
की वर्तमान में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय पुस्तकालय में संरक्षित किया गया है। जिसे 9 वीं शताब्दी का माना जाता है।
चीन के किज़िल गुफाओं में भी ताड़ के पत्तों के संग्रह स्पिट्जर पांडुलिपि (Spitzer manuscript) पायी गयी हैं, जिन्हे
लगभग दूसरी शताब्दी का बताया जा रहा है, यह अब तक की ज्ञात सबसे पुरानी दार्शनिक पनुलिपियों में से एक हैं।
ताड़ के पत्तों पर पाण्डुलिपि करने के लिए सर्वप्रथम इन पत्तों को आयताकार काटा जाता था, फिर एक धारदार कलम
से इन पत्तों पर शब्द उकेरे जाते थे, उकेरे गए शब्दों के गहरे तल पर स्याही भरकर सतह की स्याही को मिटा दिया
जाता था, और इस प्रकार निर्मित ताड़पत्रों को एक छिद्र के माध्यम से डोरी से एक साथ बाँध दिया जाता था। इस तरह
से निर्मित ताड़पत्र आमतौर पर नमी, कीटों , और जलवायु से कई दशकों (लगभग 600 वर्षों ) तक सुरक्षित रह सकते
थे। दुनिया में खोजी गयी सबसे पुरानी भारतीय पांडुलिपियां नेपाल, तिब्बत और मध्य एशिया के कुछ ठंडे और शुष्क
स्थलों पर प्राप्त हुई हैं, जो लगभग पहली शताब्दी की मानी जा रही हैं। ताड़ के पत्तों की अनेक परतों को संस्कृत भाषा
में पत्र अथवा परना कहा जाता था. तथा लेखन हेतु तैयार पत्रों को ताला-पत्र अथवा ताड़ी से सम्बोधित किया जाता
था।
सामान्यतः इन पांडुलिपियों में धार्मिक चरित्रों का
वर्णन है। यह ताड़पत्र कई मायनो में खास हैं, इन्ही में से एक पांडुलिपि हमें विषाक्त बिमारियों ठीक करने के
परिपेक्ष्य में कई जड़ी-बूटियों के औषधीय गुणों के बारे में बताती है। संस्कृत में लिखी गयी एक अन्य ताड़ पाण्डुलिपि
में रामायण को भामावचकम् के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इंडोनेशिया में ताड़पत्रों को लोंटार कहा जाता है।
इंडोनेशिया में ताड़पत्रों (लोंटार) को बाली और जावानी भाषा में लिखा जाता था। यहाँ कई दशकों से आज तक बाली में
कई अनूठे ताड़पत्र संरक्षित किये गए हैं। ऐसी पांडुलिपियों का सबसे बड़ा संग्रह ब्राह्मणवादी परिसरों और शाही महलों
में पाया गया है। अकेले बाली में इनकी संख्या दसियों हज़ार हो सकती है। इनमे से अधिकांश को पूर्वजों से मिली
पवित्र विरासत के तौर पर संजोया गया है, और पूजा जाता है, या नियमित रूप से उपयोग किया जाता है अर्थात, पढ़ा
जाता है। आज कई पुस्तकें हैं जिन्हे बहुत कम बालिनीज़ जो उच्च बालिनी, पुरानी जावानीज़ (कावी), और संस्कृत
पढ़ सकते हैं। लोंटार का संग्रह उदयन विश्वविद्यालय, द्विजेंद्र फाउंडेशन, पुसैट डोकुमेंटसी बुदया बाली (बालिनी
संस्कृति के दस्तावेज़ीकरण केंद्र) में, बाली संग्रहालय में, और बलाई भाषा (भाषा केंद्र) में पुस्तकालयों में भी किया
गया है।