मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












मेरठ की दीवारों पर खिला बोगनविलिया: रंग, सौंदर्य और प्रकृति का संगम
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
15-06-2025 08:55 AM
Meerut-Hindi

बोगनविलिया (Bougainvillea) एक कांटेदार लेकिन अत्यंत आकर्षक बेल या झाड़ी है, जो अपनी कागज़ी रंगीन पत्तियों (ब्रैक्ट्स) के लिए जानी जाती है। यह पौधा मूलतः दक्षिण अमेरिका — ब्राज़ील, पेरू, अर्जेंटीना, और कोलंबिया जैसे देशों का निवासी है, पर आज यह पूरी दुनिया में सजावटी पौधे के रूप में उगाया जाता है।
बोगनविलिया की सबसे खास बात यह है कि इसके जो रंग-बिरंगे 'फूल' दिखते हैं, वे असल में फूल नहीं, बल्कि पतले और चमकीले ब्रैक्ट्स होते हैं। असली फूल तो बहुत छोटे, सफेद और मोम जैसे होते हैं, जो इन ब्रैक्ट्स के बीच छुपे रहते हैं। इन ब्रैक्ट्स का रंग बैंगनी, गुलाबी, लाल, नारंगी, पीला या यहां तक कि सफेद भी हो सकता है। इस वजह से यह पौधा 'पेपरफ्लावर' (Paperflower) के नाम से भी प्रसिद्ध है।
पहले वीडियो में आप देख सकते हैं कि यह सुंदर फूल किस तरह समय के साथ खिलता है और अपने रंग बिखेरता है।
नीचे दिए गए लिंक में इस फूल का खूबसूरत टाइम-लैप्स वीडियो ज़रूर देखें।
बोगनविलिया विशेष रूप से गर्म और शुष्क जलवायु में पनपता है और कम पानी में भी जीवित रह सकता है। यह बालकनी, बगीचों, दीवारों और गेट पर चढ़ने वाला एक लोकप्रिय सजावटी पौधा है। इसकी बेलें किसी भी सतह पर फैलकर दीवारों को जीवंत रंगों में रंग देती हैं।
निचे दिए गए वीडियो में बोगनविलिया को कटिंग के माध्यम से घर पर कैसे उगाएं, इसकी आसान विधि बताई गई है।
इस पौधे का नाम 18वीं शताब्दी के फ्रांसीसी खोजकर्ता लुई एंटोनी डी बोगनविल (Louis Antoine de Bougainville) के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने इसे अपने अभियानों के दौरान दर्ज किया था। इसकी सौंदर्यता और कठोरता का सम्मिलन इसे घरों, पार्कों और सार्वजनिक स्थानों की शोभा बढ़ाने वाला आदर्श पौधा बनाता है।
बोगनविलिया प्रकृति का एक ऐसा उपहार है, जो अपने रंगों से न सिर्फ दीवारों को सजाता है, बल्कि जीवन में ऊर्जा और उमंग का रंग भी भरता है।
इस वीडियो में जानें कैसे एक ही पौधे में कई रंगों की सुंदर ब्रैक्ट्स उगाई जा सकती हैं।
संदर्भ-
मेरठ में खादी और वस्त्र उद्योग की ऐतिहासिक विरासत और आधुनिक पहचान
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
14-06-2025 09:22 AM
Meerut-Hindi

कपड़ा, मानव सभ्यता के सबसे पुराने आविष्कारों में से एक है, जो केवल तन ढकने का माध्यम नहीं बल्कि संस्कृति, पहचान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक भी रहा है। भारत जैसे देश में, जहाँ परंपराएं और इतिहास जीवन का अभिन्न अंग हैं, वहाँ वस्त्र उद्योग एक समृद्ध विरासत के साथ जुड़ा हुआ है। मेरठ, जो उत्तर भारत का एक प्रमुख ऐतिहासिक नगर है, खादी और वस्त्र उत्पादन में विशेष स्थान रखता है। इस लेख में हम सबसे पहले प्राचीन भारत में वस्त्रों की शुरुआत और बुनाई की परंपरा को समझेंगे। इसके बाद भारत के कपड़ा उद्योग के विकास, उत्पादन क्षमताओं और रोजगार में इसकी भूमिका पर चर्चा होगी। फिर स्वदेशी आंदोलन में खादी के महत्व और गांधीजी के योगदान को जानेंगे। इसके बाद मेरठ में खादी आंदोलन की ऐतिहासिक घटनाओं और स्थानीय सहभागिता को विस्तार से देखेंगे। लेख के अंतिम भागों में मेरठ के वर्तमान वस्त्र उद्योग की स्थिति और खादी व भारतीय कपड़ों के भविष्य की संभावनाओं पर प्रकाश डाला जाएगा।
प्राचीन भारत और कपड़ा उद्योग की पृष्ठभूमि
कपड़ों का इतिहास मानव सभ्यता की शुरुआत से ही जुड़ा हुआ है। पुरातत्व साक्ष्यों के अनुसार, लगभग 27,000 वर्ष पूर्व मनुष्यों ने जानवरों की खाल से तन ढकना शुरू किया और धीरे-धीरे बुने हुए वस्त्रों का उपयोग होने लगा। भारत में वस्त्रों की परंपरा अत्यंत पुरानी है, जहाँ सिंधु घाटी सभ्यता में भी सूती कपड़े के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं। ऋग्वेद, महाभारत और अन्य ग्रंथों में वस्त्रों के उल्लेख मिलते हैं, जो दर्शाते हैं कि भारत के लोगों को वस्त्र निर्माण में दक्षता थी। प्राचीन काल में भारतीय बुनकरों की कलात्मकता विश्वप्रसिद्ध थी, विशेषकर काशी, पटना और दक्षिण भारत के क्षेत्रों में। रेशमी और सूती वस्त्रों का निर्यात मिस्र, रोम और चीन तक होता था। भारत के पारंपरिक कपड़े न केवल आस्थावान धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा रहे, बल्कि वैश्विक व्यापार में भी इनकी अहम भूमिका रही। इस दौर की विविध कढ़ाई और बुनाई तकनीकों, जैसे कि ‘जामदानी’, और ‘ब्रोकेड’ आज भी जीवंत हैं और भारतीय हस्तकला की अनूठी पहचान बन चुकी हैं।
भारत में कपड़ा उद्योग का विकास और वर्तमान स्थिति
भारत का कपड़ा उद्योग सदियों पुराना है और यह परंपरागत हथकरघा से लेकर आधुनिक मिलों तक विस्तृत है। कपास, जूट, रेशम और ऊन के साथ-साथ आज भारत पॉलिएस्टर, नायलॉन जैसे कृत्रिम फाइबरों का भी प्रमुख उत्पादक बन चुका है। यह उद्योग लगभग 4.5 करोड़ लोगों को रोजगार प्रदान करता है, जिसमें 35 लाख से अधिक हथकरघा श्रमिक शामिल हैं। भारत में टेक्सटाइल क्षेत्र सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 2.3% और कुल निर्यात का 11% हिस्सा प्रदान करता है। टेक्सटाइल पार्क, मेगा रीजन स्कीम, और टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन फंड जैसी सरकारी योजनाओं ने इस उद्योग को मजबूती दी है। इसमें महिला श्रमिकों की भागीदारी भी उल्लेखनीय है, जो सामाजिक-सांस्कृतिक रूपांतरण की दिशा में अहम योगदान देती है। अनुमान है कि 2025-26 तक भारत का कपड़ा बाज़ार 190 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है, जो इसे विश्व स्तर पर एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनाता है। भारत का वस्त्र उद्योग न केवल रोजगार सृजन का साधन है, बल्कि ग्रामीण भारत के लिए आर्थिक संबल का स्रोत भी बन चुका है।

स्वदेशी आंदोलन और खादी की शुरुआत
महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ स्वदेशी आंदोलन केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक जागरूकता की भी क्रांति था। खादी, जिसे 'खादर' भी कहा जाता है, इस आंदोलन का मुख्य प्रतीक बनी। यह कपड़ा हाथ से काता और बुना गया होता था और इसका उद्देश्य ब्रिटिश मिलों के उत्पादों का बहिष्कार कर भारतीय मजदूरों और बुनकरों को समर्थन देना था। गांधीजी मानते थे कि खादी केवल कपड़ा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर भारत का सपना है, जिसे हर नागरिक अपने श्रम से साकार कर सकता है। उन्होंने चरखे को स्वतंत्रता का प्रतीक बना दिया और इसे हर घर में अपनाने की अपील की। खादी का प्रयोग एक सांस्कृतिक आंदोलन बन गया, जिससे गाँव-गाँव में चरखा चलने लगा। यह आंदोलन केवल शहरों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह गाँवों, महिलाओं, विद्यार्थियों और युवा कार्यकर्ताओं के माध्यम से जनांदोलन का रूप ले चुका था। इसके माध्यम से स्वदेशी भावना और आत्मसम्मान को पुनर्जीवित किया गया।

मेरठ में खादी आंदोलन का प्रभाव और ऐतिहासिक योगदान
मेरठ में खादी आंदोलन ने विशेष गति पकड़ी। 1922 में मेरठ जिले में करीब 60,000 चरखे कार्यरत थे और लगभग 65% आबादी खादी पहनने लगी थी। महिलाओं की भूमिका भी इस आंदोलन में उल्लेखनीय रही—लाला लाजपत राय की भतीजी पार्वती देवी ने महिलाओं से अपील की थी कि जब तक उनके पति खादी न पहनें, उन्हें भोजन न दिया जाए। मेरठ में देवनागरी स्कूल के छात्रों द्वारा खादी प्रदर्शनी, चरखा क्लब की स्थापना, तथा कताई प्रतियोगिताओं जैसे आयोजन इस आंदोलन को जन-जन तक ले गए। 3 मार्च 1928 को मेरठ में होली की जगह विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई, जो इस आंदोलन के प्रति जनता के उत्साह को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त मेरठ के खादी प्रेमियों ने गांव-गांव जाकर खादी के लिए प्रचार किया, जनसभाएं आयोजित कीं, और आत्मनिर्भरता का संदेश फैलाया। खादी की बिक्री के लिए स्थानीय मेलों और हाट बाजारों का प्रयोग किया गया, जिससे ग्रामीण जनता भी इस अभियान से जुड़ सकी। मेरठ की भूमिका ने खादी को एक लोकप्रिय लोक आंदोलन में परिवर्तित कर दिया।

मेरठ का वस्त्र उद्योग: वर्तमान परिदृश्य
वर्तमान में मेरठ का वस्त्र उद्योग आधुनिक तकनीकों से सुसज्जित है। यहाँ 30,000 से अधिक पावरलूम कार्यरत हैं, जो इसे उत्तर भारत के बड़े टेक्सटाइल क्लस्टरों में से एक बनाते हैं। खादी के अतिरिक्त मेरठ में तैयार वस्त्र, रेडीमेड परिधान और अन्य कपड़ों का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है। शहर में छोटे और मध्यम उद्योगों की भरमार है जो विभिन्न प्रकार के कपड़ों—जैसे जर्सी, स्पोर्ट्सवेयर, बेडशीट, टॉवेल, और सूती वस्त्र—का निर्माण करते हैं। मेरठ का टेक्सटाइल क्लस्टर स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहा है और उद्यमियों के लिए कपड़ा व्यवसाय में निवेश का एक आकर्षक केंद्र बन चुका है। राज्य और केंद्र सरकार द्वारा प्रदान की जा रही MSME योजनाएँ, स्किल डवलपमेंट प्रोग्राम, और डिजिटलीकरण ने इस क्षेत्र को और अधिक प्रतिस्पर्धी और आधुनिक बना दिया है। मेरठ न केवल घरेलू मांग को पूरा करता है, बल्कि इसके उत्पाद अब अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी निर्यात किए जा रहे हैं।
खादी और भारतीय कपड़ों का भविष्य
आज खादी और भारतीय पारंपरिक वस्त्रों की वैश्विक मांग बढ़ रही है। विदेशी ब्रांड भारतीय बाजार में आ रहे हैं और खादी के साथ गठजोड़ कर रहे हैं। खादी अब केवल ग्रामीण भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह अब एक फैशन स्टेटमेंट बन चुका है। भारत सरकार द्वारा अनुसंधान एवं विकास के लिए करोड़ों रुपए की निधियाँ स्वीकृत की गई हैं, जिससे इस क्षेत्र में नवाचार और गुणवत्ता बढ़ेगी। डिजिटल मीडिया और ई-कॉमर्स के माध्यम से खादी अब वैश्विक उपभोक्ताओं तक पहुँच रहा है। खादी ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) की रिपोर्ट के अनुसार, 2023-24 में खादी की बिक्री में 33% की वृद्धि हुई है, जो इसका बढ़ता आर्थिक और सांस्कृतिक महत्व दर्शाता है। उपभोक्ताओं की स्थायित्व और पर्यावरण मित्रता के प्रति बढ़ती रुचि के कारण खादी अब एक "सस्टेनेबल फैशन" के रूप में भी देखा जाने लगा है। आने वाले वर्षों में खादी और भारतीय कपड़ों का बाज़ार और अधिक विस्तृत और सशक्त होने की संभावना है। अगर सही रणनीतियाँ अपनाई जाएँ तो भारत वैश्विक टेक्सटाइल नवाचार और परंपरा का नेतृत्व कर सकता है।
मेरठ में गर्मियों से राहत का प्राकृतिक उपाय: खस पौधा और इसके बहुआयामी लाभ
पेड़, झाड़ियाँ, बेल व लतायें
Trees, Shrubs, Creepers
13-06-2025 09:20 AM
Meerut-Hindi

गर्मियों की तपती दोपहर, झुलसाती लू और थकान भरी गर्म हवाएं शरीर और मन को थका देती हैं। ऐसे में हमें किसी कृत्रिम उपाय की नहीं, बल्कि प्रकृति की ओर लौटने की ज़रूरत होती है—जहाँ खस (Vetiver) जैसे पौधे हमारी रक्षा में खड़े होते हैं। खस न केवल शीतलता प्रदान करता है, बल्कि यह स्वास्थ्य, पर्यावरण और मानसिक शांति से भी गहरा जुड़ा हुआ है। गर्मियों में इसका उपयोग न केवल पारंपरिक है, बल्कि आज के समय में भी वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित लाभकारी उपायों में से एक है।
इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि खस पौधा गर्मियों में किस प्रकार उपयोगी है, इसके क्या-क्या स्वास्थ्य लाभ हैं, खस के पर्यावरणीय और घरेलू उपयोग क्या हैं, और साथ ही जानेंगे कि शरीर को ठंडा रखने के लिए और कौन-कौन से प्राकृतिक उपाय अपनाए जा सकते हैं। अंत में हम यह भी समझेंगे कि आधुनिक जीवनशैली में खस जैसे पारंपरिक उपायों का पुनः प्रयोग क्यों आवश्यक है।
खस का पौधा: प्राकृतिक सुगंध और ठंडक का स्रोत
खस एक बारहमासी, गंधयुक्त औषधीय पौधा है जिसकी जड़ें अत्यंत सुगंधित होती हैं। इसका वानस्पतिक नाम वेटिवेरिया जिज़ानियोइड्स (Vetiveria zizanioides) है और यह विशेष रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत के गर्म और शुष्क क्षेत्रों में उगता है। इसकी जड़ों से निकाला गया तेल इत्र, साबुन और सौंदर्य प्रसाधनों में प्रयोग होता है। खस की जड़ों से बनी चटाइयाँ और पर्दे जलवायु नियंत्रण के लिए आदिकाल से घरों में उपयोग की जाती रही हैं। पानी से भीगी हुई इन चटाइयों से निकलने वाली ठंडी और सुगंधित हवा मन और शरीर दोनों को ठंडक देती है।

गर्मियों में खस के स्वास्थ्य लाभ
खस सिर्फ बाहरी वातावरण को शीतल नहीं बनाता, यह शरीर के अंदरूनी तापमान को भी नियंत्रित करता है। आयुर्वेद में खस को 'उशीरा' कहा गया है और इसे पित्त दोष को शांत करने वाली प्रमुख जड़ी-बूटी माना गया है। खस शरबत शरीर को हाइड्रेट करता है और लू से बचाव में मदद करता है। इसके नियमित सेवन से मूत्र विकार, अपच, थकान, जलन और चक्कर जैसी समस्याओं में भी राहत मिलती है। यह रक्त को शुद्ध करने, ह्रदय को स्वस्थ रखने, और पाचन तंत्र को सशक्त बनाने में भी सहायक है। इसकी शीतल तासीर मस्तिष्क को ठंडक देती है और नींद को बेहतर बनाती है।

खस का घरेलू उपयोग: ठंडा वातावरण और स्वच्छता का संयोजन
खस की जड़ों से बने पर्दे और चटाइयाँ घरों के दरवाजों और खिड़कियों पर लगाई जाती हैं। पानी से गीली की गई ये चटाइयाँ न केवल ठंडी हवा का प्रवाह सुनिश्चित करती हैं बल्कि वातावरण में एक प्राकृतिक सुगंध भी घोल देती हैं, जिससे मानसिक शांति मिलती है। वॉटर कूलर की जालियों में खस की चटाइयाँ लगाने से उनमें बैक्टीरिया और फफूंदी के विकास को भी रोका जा सकता है। इसके अलावा, खस के रेशों से बनी टोपी और चप्पल भी बाजार में उपलब्ध हैं, जो शरीर को बाहरी गर्मी से बचाने में उपयोगी हैं।

शरीर को ठंडा रखने के अन्य प्राकृतिक उपाय
खस के अलावा कई और प्राकृतिक उपाय भी हैं जो गर्मियों में शरीर को ठंडा रखते हैं:
- मिट्टी के घड़े (मटके) का पानी: यह स्वाभाविक रूप से ठंडा होता है और पाचन के लिए भी उत्तम माना गया है।
- बेल व नींबू शरबत: इलेक्ट्रोलाइट्स से भरपूर ये पेय शरीर को हाइड्रेट रखते हैं और थकान दूर करते हैं।
- गुलाब जल और चंदन लेप: त्वचा को शीतलता देने के साथ ही इसमें एंटीसेप्टिक गुण भी होते हैं।
- पुदीना, सौंफ और तुलसी की चाय: यह शरीर की गर्मी को कम करने और पाचन सुधारने में सहायक होती हैं।
- तरबूज, खीरा और नारियल पानी: ये सभी फल गर्मियों में डिहाइड्रेशन से बचाते हैं और शरीर को अंदर से ठंडा रखते हैं।
खस: आधुनिक जीवनशैली में पारंपरिक समाधान
आज की तेज़ और व्यस्त जीवनशैली में लोग ठंडक पाने के लिए मशीनों और रासायनिक उत्पादों पर निर्भर हो गए हैं, लेकिन ये उपाय अक्सर महंगे और पर्यावरण के लिए हानिकारक होते हैं। ऐसे में खस एक ऐसा पारंपरिक उपाय है जो आज भी बहुत उपयोगी साबित हो सकता है। खस की जड़ों से बने पर्दे, चटाइयाँ, शरबत और तेल न सिर्फ शरीर को ठंडक देते हैं, बल्कि घर की हवा को भी साफ और सुगंधित रखते हैं। यह एक सस्ता, प्राकृतिक और स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित विकल्प है, जिसे हम आसानी से अपने रोज़मर्रा के जीवन में शामिल कर सकते हैं। खस हमें यह याद दिलाता है कि पुराने तरीके, आज भी हमारे लिए सबसे अच्छे समाधान हो सकते हैं।
बाल मज़दूरी पर एक नज़र: बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए ज़रूरी बदलाव
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
Concept II - Identity of Citizen
12-06-2025 09:12 AM
Meerut-Hindi

बाल मजदूरी केवल किसी बच्चे से काम करवाना नहीं है, यह उनके बचपन, शिक्षा, मानसिक विकास और आत्मसम्मान की हत्या है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, ऐसा कोई भी काम जो बच्चे के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक या नैतिक विकास को नुकसान पहुंचाता है, उसे बाल श्रम माना जाता है। विश्व बाल मजदूरी विरोधी दिवस के अवसर पर, हमें उस गम्भीर समस्या की ओर ध्यान देना आवश्यक है जो हमारे समाज के सबसे नन्हे और संवेदनशील सदस्यों को प्रभावित करती है।
इस लेख में हम बाल मजदूरी की परिभाषा और इसके पीछे छिपे सामाजिक व आर्थिक कारणों को समझने का प्रयास करेंगे। हम देखेंगे कि किन-किन खतरनाक उद्योगों में बच्चे काम करते हैं और शिक्षा की उपेक्षा किस प्रकार उन्हें मजदूरी की ओर धकेलती है। इसके साथ ही हम भारतीय कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों की जानकारी प्राप्त करेंगे। लेख में हम यह भी जानेंगे कि नागरिकों और समाज की क्या भूमिका होनी चाहिए ताकि बाल मजदूरी का स्थायी समाधान संभव हो सके।
बाल मजदूरी की परिभाषा और उसका वास्तविक अर्थ
बाल मजदूरी का तात्पर्य है—बच्चों से ऐसा कोई भी कार्य कराना जो उनकी उम्र, क्षमता और मानसिक विकास के प्रतिकूल हो। यह केवल श्रमिक के रूप में कार्यरत बच्चों की बात नहीं है, बल्कि हर वह स्थिति बाल मजदूरी है, जहाँ बच्चों को उनकी इच्छा, स्वास्थ्य या शिक्षा के खिलाफ काम करने के लिए बाध्य किया जाता है। भारत में यह समस्या अधिकतर असंगठित क्षेत्रों में छिपी हुई है, जहाँ बच्चे पारिवारिक व्यवसायों, खेतों, घरेलू नौकरियों, दुकानों या छोटे कारखानों में काम करते हैं। इन कार्यों से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास रुक जाता है, और वे कम उम्र में ही जीवन की कठोरता से रूबरू हो जाते हैं। इसका वास्तविक अर्थ तब समझ में आता है जब हम इसे बच्चों के बचपन को छीनने वाले अमानवीय कार्य के रूप में देखें। ये बच्चे शिक्षा, खेल और स्वास्थ्य से वंचित रहकर समाज के हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। बाल मजदूरी केवल एक आर्थिक मजबूरी नहीं बल्कि सामाजिक असंवेदनशीलता का भी परिणाम है। यह समस्या देश की प्रगति की राह में एक गहरा रोड़ा बन चुकी है। हमें यह समझना होगा कि बच्चे मजदूर नहीं, भविष्य के निर्माता हैं। उनका बचपन सुरक्षित और संवारने योग्य होना चाहिए।

बाल मजदूरी के सामाजिक और आर्थिक कारण
बाल मजदूरी की समस्या का मूल कारण गरीबी है। जब माता-पिता के पास अपने परिवार का पेट भरने के पर्याप्त संसाधन नहीं होते, तो वे बच्चों को भी कमाई के स्रोत के रूप में देखने लगते हैं। इसके अलावा अशिक्षा भी एक बड़ा कारण है—जब स्वयं माता-पिता शिक्षित नहीं होते, तो वे शिक्षा के महत्व को नहीं समझते और बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय काम पर भेज देते हैं। सामाजिक ढांचे में बच्चों से काम करवाना कभी-कभी 'सामान्य' मान लिया जाता है, जिससे यह प्रवृत्ति पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। बालिकाओं को तो और भी जल्दी स्कूल से हटाकर घरेलू काम या मजदूरी में लगाया जाता है। कर्ज की वजह से बच्चों को बंधुआ मजदूर बना देना आज भी कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में आम बात है। इसके अलावा सरकार की योजनाओं की जानकारी का अभाव, प्रशासनिक लापरवाही और भ्रष्टाचार भी इस समस्या को बढ़ाते हैं। समाज में व्याप्त वर्गभेद, जातिगत भेदभाव और लैंगिक असमानता बच्चों के अधिकारों की अवहेलना करते हैं। बाल मजदूरी की जड़ें केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और संरचनात्मक स्तर पर भी गहराई तक फैली हैं, जिन्हें समग्र दृष्टिकोण से ही समाप्त किया जा सकता है।

जोखिम भरे उद्योग और बाल श्रमिक
भारत में अनेक ऐसे उद्योग हैं जहाँ बच्चों को खतरनाक और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। बीड़ी निर्माण, आतिशबाज़ी, कालीन बुनाई, ईंट भट्टा, खदान और कांच उद्योग जैसे क्षेत्रों में हजारों बच्चे काम करते हैं, जो उनके जीवन के लिए अत्यंत घातक है। आतिशबाज़ी उद्योग में बच्चों को बारूद जैसे खतरनाक रसायनों के संपर्क में लाया जाता है, जिससे कई बार हादसे होते हैं। खदानों में उन्हें बिना सुरक्षा उपकरणों के भेजा जाता है, जिससे सांस और त्वचा संबंधी गंभीर बीमारियाँ हो जाती हैं। बीड़ी और वस्त्र उद्योगों में बच्चों की आंखों पर अत्यधिक दबाव डाला जाता है, जिससे दृष्टि पर असर पड़ता है। होटल, ढाबा, और वर्कशॉप जैसे स्थानों पर काम करने वाले बच्चों को लंबे घंटे काम करना पड़ता है और उन्हें अक्सर उचित भोजन, आराम या मजदूरी नहीं मिलती। इन क्षेत्रों में बच्चों के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा या चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध नहीं होती। इन उद्योगों में बच्चों की मौजूदगी न केवल उनके अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों को भी कमजोर बनाता है। यह स्थिति हमारे सामाजिक ताने-बाने को भी क्षतिग्रस्त करती है।
शिक्षा की उपेक्षा और विद्यालयों की स्थिति
बाल मजदूरी का सीधा संबंध शिक्षा की उपेक्षा से है। जहाँ विद्यालयों की स्थिति दयनीय होती है, वहाँ बच्चों को स्कूल छोड़कर काम की ओर धकेला जाता है। भारत के कई ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में आज भी विद्यालयों की संख्या कम है, और जो विद्यालय हैं भी, उनमें आवश्यक संसाधनों का घोर अभाव है। कई बार एक ही शिक्षक को पूरे विद्यालय का कार्यभार संभालना पड़ता है। बच्चों को न पाठ्यपुस्तकें मिलती हैं, न ही खेल-कूद की सुविधाएँ। शौचालय, पीने का पानी, बिजली और बैठने की उचित व्यवस्था का अभाव भी उन्हें शिक्षा से विमुख करता है। लड़कियों की शिक्षा तो और भी उपेक्षित होती है, जिससे वे या तो घरेलू कामों में लगी रहती हैं या बाल श्रम में धकेली जाती हैं। जब शिक्षा अनाकर्षक और अनुपलब्ध होती है, तो काम एक स्वाभाविक विकल्प बन जाता है। सरकार की कई योजनाएँ जैसे मिड डे मील, सर्व शिक्षा अभियान, और शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू तो हैं, लेकिन उनका ज़मीनी असर सीमित ही है। यदि हम विद्यालयों की स्थिति सुधारें, गुणवत्तापूर्ण शिक्षक दें और शिक्षा को वास्तव में सुलभ व उपयोगी बनाएं, तभी बाल मजदूरी को रोका जा सकता है।

भारतीय कानून और संवैधानिक प्रावधान
भारत सरकार ने बाल मजदूरी को रोकने के लिए कई कानूनी उपाय किए हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 24 कहता है कि 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को खतरनाक कार्यों में नियुक्त नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त बाल श्रम (प्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986, और उसका संशोधित रूप 2016 में लागू किया गया, जिसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे से किसी भी प्रकार का व्यवसायिक कार्य करवाना पूरी तरह प्रतिबंधित है। 14–18 वर्ष की आयु के किशोरों को केवल सुरक्षित एवं गैर-खतरनाक क्षेत्रों में नियोजित किया जा सकता है। इसके उल्लंघन पर ₹50,000 तक का जुर्माना और 6 महीने से 2 साल तक की सजा का प्रावधान है। बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 यह सुनिश्चित करता है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त हो। इसके साथ ही किशोर न्याय अधिनियम भी बाल कल्याण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन समस्या यह है कि कानून तो हैं, पर उनका पालन सुनिश्चित करने की प्रणाली कमजोर है। निगरानी एजेंसियों की संख्या कम है, और सामाजिक दबाव के अभाव में शिकायतें भी कम आती हैं। यदि इन कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, तो बाल मजदूरी पर अंकुश संभव है।
नागरिकों की ज़िम्मेदारी और सामाजिक चेतना
बाल मजदूरी केवल सरकार या कानून की समस्या नहीं है, यह हम सभी की सामाजिक जिम्मेदारी है। जब हम किसी होटल, दुकान या कारखाने में किसी बच्चे को काम करते देखते हैं और चुप रहते हैं, तो हम इस अपराध में भागीदार बन जाते हैं। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि एक बच्चे की शिक्षा और बचपन उसकी जन्मसिद्ध अधिकार है, न कि कोई दया का विषय। नागरिकों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में जागरूकता दिखाएं और ज़रूरत पड़ने पर बाल कल्याण समिति या चाइल्डलाइन 1098 जैसे संसाधनों की मदद लें। स्कूलों और समाज में बाल अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाना अत्यंत आवश्यक है। सोशल मीडिया, सामुदायिक कार्यक्रमों और धार्मिक सभाओं के माध्यम से भी इस संदेश को व्यापक बनाया जा सकता है। मीडिया, शिक्षक, अभिभावक और सामाजिक कार्यकर्ता मिलकर एक ऐसा वातावरण बनाएं जहाँ बाल श्रम को अस्वीकार्य माना जाए। जब तक नागरिक अपनी भूमिका नहीं समझेंगे, तब तक कोई कानून भी प्रभावी नहीं हो सकता। हमें सामूहिक रूप से यह तय करना होगा कि बच्चों का स्थान स्कूल में है, मजदूरी में नहीं।
समाज की भूमिका
समाज का प्रत्येक वर्ग—शिक्षक, मीडिया, धार्मिक नेता, स्थानीय प्रशासन, उद्योगपति और सामान्य नागरिक—बाल मजदूरी के उन्मूलन में अहम भूमिका निभा सकता है। ग्राम पंचायतों और शहरी निकायों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके क्षेत्र में कोई बच्चा मजदूरी में न लगा हो। समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को चाहिए कि वे इस विषय में खुलकर बात करें और बाल श्रम को सामाजिक कलंक घोषित करें। गैर-सरकारी संगठनों की सक्रियता से पुनर्वास और शिक्षा की व्यवस्था बेहतर हो सकती है। सामाजिक समूहों और युवा संगठनों को बाल अधिकारों पर केंद्रित गतिविधियाँ और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। इसके अतिरिक्त स्कूल छोड़ चुके बच्चों को दोबारा मुख्यधारा में जोड़ने के लिए विशेष प्रयास होने चाहिए। मीडिया को बाल मजदूरी के छिपे हुए मामलों को उजागर करना चाहिए और लोगों को संवेदनशील बनाना चाहिए। समाज को चाहिए कि वह अपने व्यवहार, उपभोग और प्राथमिकताओं की समीक्षा करे—क्या हम किसी ऐसे उत्पाद का समर्थन कर रहे हैं जो बाल श्रम पर आधारित है? जब समाज बच्चों को श्रमिक नहीं, बल्कि सीखने और खेलने-खिलने वाला नागरिक मानेगा, तभी इस कुप्रथा का अंत संभव है।
संदर्भ -
मेरठ और इत्र की विरासत: इतिहास से आधुनिक प्रभावों तक
गंध- ख़ुशबू व इत्र
Smell - Odours/Perfumes
11-06-2025 09:16 AM
Meerut-Hindi

इत्र की दुनिया जितनी सुगंधित है, उतनी ही जटिल और बहुपरतीय भी। यह केवल एक सौंदर्य प्रसाधन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक रहा है, जिसने सभ्यताओं के विकास के साथ कदम मिलाया है। भारत में, वैदिक युग से ही इत्र और सुगंधित तेलों का प्रयोग होता आ रहा है। 'चरक संहिता' और 'सुश्रुत संहिता' जैसे आयुर्वेदिक ग्रंथों में इत्र का उल्लेख चिकित्सा के एक भाग के रूप में हुआ है। इसके अलावा, राजघरानों में इत्र को सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। फारसी, तुर्क और अरब व्यापारी जब भारत आए, तो वे अपनी सुगंध निर्माण की तकनीकों को भी साथ लाए। भारत में, विशेषकर उत्तर प्रदेश के कई शहरों जैसे कन्नौज ने इन विधाओं को अपनाकर उन्हें स्थानीय पहचान दी।
इस लेख में हम पहले जानेंगे कि इत्र का वैश्विक इतिहास कितना समृद्ध रहा है और किस प्रकार यह भारतीय परंपराओं का हिस्सा बना। इसके बाद हम विस्तार से समझेंगे कि आधुनिक रासायनिक परफ्यूम्स में कौन-कौन से हानिकारक तत्व पाए जाते हैं और उनके स्वास्थ्य पर क्या-क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं। अंत में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इत्र का भविष्य क्या हो सकता है और हम किस दिशा में बढ़ सकते हैं।

इत्र का प्राचीन इतिहास और वैश्विक परंपराएँ
प्राचीन काल से ही इत्र मानव सभ्यता का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। मिस्र, मेसोपोटामिया, भारत और चीन जैसी प्राचीन सभ्यताओं में सुगंधित तेलों और प्राकृतिक अर्कों का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों, चिकित्सा और व्यक्तिगत उपयोग के लिए किया जाता था। मिस्रवासी सुगंध को आत्मा की शुद्धि और देवताओं को प्रसन्न करने का माध्यम मानते थे, जबकि मेसोपोटामिया में काष्ठ, फूलों और रेज़िन से सुगंधित पदार्थ बनाए जाते थे। भारत में वेदों में "गंध" का विशेष महत्व बताया गया है और आयुर्वेद में सुगंधित जड़ी-बूटियों का प्रयोग मानसिक और शारीरिक संतुलन के लिए होता था।
विश्व की विभिन्न संस्कृतियों में इत्र का विकास अलग-अलग रूपों में हुआ। रोम और ग्रीस में सुगंध का उपयोग उच्च वर्गों के सौंदर्य और विलासिता के प्रतीक के रूप में होता था। इस्लामी दुनिया में इत्र की कला को विज्ञान की तरह विकसित किया गया—इब्न सिना (अविसेन्ना) ने गुलाबजल का आसवन (distillation) पहली बार किया। मध्यकालीन यूरोप में भी अरब व्यापारियों के ज़रिए इत्र की परंपरा पहुँची और वहाँ से यह पुनर्जागरण काल में एक राजसी संस्कृति का हिस्सा बन गया। इस प्रकार इत्र का इतिहास न केवल सुगंध की खोज है, बल्कि यह मानव संस्कृतियों के बीच संपर्क, आदान-प्रदान और सौंदर्यबोध की गहराई को भी दर्शाता है।फारसी, तुर्क और अरब व्यापारी जब भारत आए, तो वे अपनी सुगंध निर्माण की तकनीकों को भी साथ लाए। भारत में, विशेषकर उत्तर प्रदेश के कई शहरों जैसे कन्नौज और पहले के समय में मेरठ ने इन विधाओं को अपनाकर उन्हें स्थानीय पहचान दी। यह स्पष्ट है कि इत्र केवल सजावटी वस्तु नहीं रहा, बल्कि यह सभ्यताओं के आदान-प्रदान और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी माध्यम रहा है।

आधुनिक परफ्यूम में उपयोग होने वाले हानिकारक रसायन
जहाँ प्राचीन काल में इत्र निर्माण में प्राकृतिक तत्वों जैसे फूलों, जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों का उपयोग होता था, वहीं आज के परफ्यूम अधिकतर रासायनिक प्रयोगशालाओं में बनाए जाते हैं। इन परफ्यूम्स में कई ऐसे तत्व मिलाए जाते हैं, जो हमारे शरीर के लिए गंभीर रूप से हानिकारक हो सकते हैं।
- थैलेट्स (Phthalates): यह रसायन सुगंध को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए मिलाया जाता है, लेकिन यह प्रजनन तंत्र को प्रभावित कर सकता है। विशेष रूप से पुरुषों में हार्मोनल असंतुलन का कारण बनता है।
- स्टाइरीन (Styrene): यह रसायन लंबे समय तक संपर्क में रहने पर कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से जुड़ा पाया गया है।
- मस्क कीटोन (Musk Ketone): यह एक सिंथेटिक सुगंध है, जो हार्मोन प्रणाली को बाधित कर सकती है और मानसिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है।
- मेथिलीन क्लोराइड (Methylene Chloride): इसे कई देशों में प्रतिबंधित किया गया है क्योंकि यह लीवर, किडनी और फेफड़ों पर घातक प्रभाव डाल सकता है।
- पैराबेन (Parabens): त्वचा संबंधी एलर्जी और स्तन कैंसर जैसी समस्याओं में इसकी भूमिका पर वैज्ञानिक सहमति है।
इन रसायनों को 'फ्रैग्रेंस' या 'परफ्यूम' जैसे सामान्य शब्दों में लेबल पर छिपा दिया जाता है, जिससे आम उपभोक्ता इनके प्रभावों से अनजान रहता है।

रासायनिक परफ्यूम से होने वाले दुष्प्रभाव
आधुनिक परफ्यूम न केवल त्वचा की सतह पर प्रभाव डालते हैं, बल्कि यह शरीर की आंतरिक प्रणालियों पर भी असर डालते हैं। सबसे आम दुष्प्रभावों में शामिल हैं:
- सिरदर्द और माइग्रेन: तीव्र रासायनिक सुगंध से मस्तिष्क में रक्तसंचार की प्रक्रिया प्रभावित होती है, जिससे सिरदर्द और चक्कर आ सकते हैं।
- श्वसन संबंधी समस्याएँ: परफ्यूम में मौजूद वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOCs) अस्थमा और ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियों को उत्पन्न कर सकते हैं।
- त्वचा में एलर्जी और जलन: सिंथेटिक सुगंध त्वचा के प्राकृतिक तेलों को नुकसान पहुँचाती है, जिससे खुजली, लालपन और चकत्ते हो सकते हैं।
- हार्मोन असंतुलन: कुछ रसायन शरीर के अंतःस्रावी तंत्र (endocrine system) में बाधा उत्पन्न करते हैं, जिससे मासिक धर्म अनियमितता, थायरॉयड समस्याएँ और बांझपन तक हो सकता है।
- गर्भावस्था पर प्रभाव: गर्भवती महिलाओं द्वारा इन परफ्यूम्स के संपर्क में आने से भ्रूण के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
- न्यूरोलॉजिकल प्रभाव: कुछ रसायनों का लंबे समय तक संपर्क तंत्रिका तंत्र पर असर डाल सकता है, जिससे स्मृति ह्रास, चिड़चिड़ापन और अनिद्रा जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
इन सभी दुष्प्रभावों को जानना और समझना जरूरी है ताकि हम जागरूक होकर अपने और अपने परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकें।
इत्र का भविष्य: प्राकृतिक विकल्पों की ओर वापसी
जैसे-जैसे लोग रासायनिक परफ्यूम्स के दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक हो रहे हैं, वैसे-वैसे एक नई लहर उभर रही है—प्राकृतिक और पारंपरिक इत्र की ओर वापसी की। आज के उपभोक्ता केवल सुगंध ही नहीं चाहते, बल्कि वह यह भी जानना चाहता है कि उसकी त्वचा पर जो उत्पाद लग रहा है, वह स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है या नहीं।
मेरठ सहित कई भारतीय शहरों में अब छोटे स्तर पर कारीगर फिर से पारंपरिक इत्र निर्माण में रुचि ले रहे हैं। गुलाब, चमेली, केवड़ा और चंदन जैसे प्राकृतिक अवयवों से तैयार किए गए इत्र शरीर और मन—दोनों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इसके अलावा, ये पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते क्योंकि इनमें कोई हानिकारक वाष्पशील रसायन नहीं होते।इसके साथ ही ‘क्रुएल्टी-फ्री’ और ‘विगन’ इत्र की मांग भी बढ़ रही है, जो पशुओं पर परीक्षण किए बिना बनाए जाते हैं और शुद्ध रूप से पौधों से निकाले गए तत्वों पर आधारित होते हैं।यह एक ऐसा समय है जब पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक जागरूकता मिलकर सुगंध की दुनिया को एक सुरक्षित और संवेदनशील दिशा की ओर ले जा सकते हैं।
सर्पदंश और सांप के जहर से बनी दवाएँ: चिकित्सा विज्ञान में एक क्रांतिकारी परिवर्तन
रेंगने वाले जीव
Reptiles
10-06-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

सर्पदंश (snake bite) एक खतरनाक और जीवन को संकट में डालने वाली स्थिति है, जो विशेष रूप से विकासशील देशों में आम है। यह एक वैश्विक स्वास्थ्य समस्या है, जिससे हर साल लाखों लोग प्रभावित होते हैं। सांपों के जहर से हुए दंश का सही समय पर इलाज न मिल पाने के कारण यह कई बार मौत का कारण बन सकता है। इस संकट के बावजूद, सांपों के जहर से बनी दवाएँ अब चिकित्सा में एक नई क्रांति ला रही हैं, जिससे न केवल सर्पदंश का उपचार संभव हुआ है, बल्कि अन्य कई रोगों के लिए भी संभावनाएँ खुली हैं।
इस लेख में हम सर्पदंश, इसके प्रभाव, और सर्प के जहर से बनी दवाओं के योगदान को विस्तार से समझेंगे। साथ ही, यह भी जानेंगे कि कैसे सांप के जहर के तत्वों का उपयोग आधुनिक चिकित्सा में किया जा रहा है, जो चिकित्सा विज्ञान में महत्वपूर्ण बदलाव ला रहे हैं।
सर्पदंश का इतिहास और वैश्विक स्थिति
सर्पदंश का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है। यह एक ऐसी समस्या है, जो दुनिया के कई हिस्सों में स्वास्थ्य संकट के रूप में सामने आई है। विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, जहां घने जंगल और कृषि क्षेत्र होते हैं, वहां सर्पदंश की घटनाएँ अधिक होती हैं। भारतीय उपमहाद्वीप, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्वी एशिया जैसे क्षेत्रों में सांपों के काटने से मौतों का एक बड़ा आंकड़ा देखने को मिलता है।
हर साल करीब 5 मिलियन लोग सांप के जहर से प्रभावित होते हैं, और इनमें से लगभग 100,000 लोग अपनी जान गंवाते हैं। इनमें से अधिकांश मौतें विकासशील देशों में होती हैं, जहां चिकित्सा सुविधाओं का अभाव है। सर्पदंश की उच्चतम दर अफ्रीका और दक्षिण एशिया के ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलती है, जहां लोग सांपों से न केवल सीधे संपर्क में आते हैं, बल्कि उनके इलाज के लिए आवश्यक एंटीवेनम (antivenom) की भी कमी रहती है।

सर्पदंश के कारण और इसके प्रभाव
सर्पदंश तब होता है जब कोई व्यक्ति किसी जहरीले सांप के द्वारा काटा जाता है। सांपों के जहर में विभिन्न प्रकार के विषाक्त पदार्थ होते हैं, जिनका प्रभाव शरीर के विभिन्न अंगों पर पड़ता है। इन विषाक्त पदार्थों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के टॉक्सिन्स होते हैं: न्यूरोटॉक्सिन, कार्डियोटॉक्सिन और हेमोटॉक्सिन। प्रत्येक प्रकार का जहर शरीर पर अलग-अलग तरीके से हमला करता है, और इसके प्रभाव भी विभिन्न होते हैं।
न्यूरोटॉक्सिन: यह तंत्रिका तंत्र पर असर डालता है, जिससे शरीर के अंगों की गतिविधियाँ नियंत्रित करने में कठिनाई होती है। सांस की समस्याएँ और लकवा जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।
कार्डियोटॉक्सिन: यह दिल की कार्यप्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, जिससे दिल की धड़कन तेज या धीमी हो सकती है और यहां तक कि दिल का रुकना भी हो सकता है।
हेमोटॉक्सिन: यह रक्त के थक्के जमने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है, जिससे रक्तस्राव और शरीर में अंदरूनी चोटें हो सकती हैं।
सर्पदंश के सामान्य प्रभावों में दर्द, सूजन, खून बहना, और अंगों का कार्य करना बंद हो जाना शामिल हो सकता है। यदि उचित उपचार नहीं मिलता है, तो यह मृत्यु का कारण बन सकता है। यह स्थिति विशेष रूप से उन स्थानों में अधिक खतरनाक होती है, जहां चिकित्सा सुविधाएँ सीमित होती हैं।

सर्पदंश का इलाज और प्राथमिक चिकित्सा
सर्पदंश का तत्काल इलाज करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, ताकि जहर के प्रभाव को रोका जा सके और मरीज की जान बचाई जा सके। सबसे पहले, पीड़ित को शांत रखना जरूरी है, ताकि शरीर में जहर का प्रसार कम हो सके। इसके बाद, तुरंत चिकित्सा सुविधा तक पहुंचाना महत्वपूर्ण है, जहां एंटीवेनम (antivenom) दिया जा सके।
प्राथमिक चिकित्सा में:
• पीड़ित को शांत रखना और आराम से लिटाना चाहिए।
• प्रभावित अंग पर कोई प्रकार का टूरनीकेट (tourniquet) न लगाएं, क्योंकि यह रक्त प्रवाह को और भी कम कर सकता है।
• जल्द से जल्द पीड़ित को अस्पताल ले जाएं, जहां एंटीवेनम उपलब्ध हो।
इसके अलावा, कुछ पारंपरिक उपायों का भी उपयोग होता है, लेकिन यह केवल प्राथमिक उपचार के रूप में ही सही होता है। उचित चिकित्सा के लिए एंटीवेनम का उपयोग करना सर्वोत्तम होता है, जो सांप के जहर को निष्क्रिय करने का काम करता है।

सांप के जहर से बनी दवाएँ: चिकित्सा में क्रांति
सांपों के जहर में पाए जाने वाले तत्वों का अब चिकित्सा में उपयोग किया जा रहा है, जो कई महत्वपूर्ण उपचारों के लिए सहायक साबित हो रहे हैं। वैज्ञानिकों ने सांप के जहर में पाए जाने वाले प्रोटीन और एंजाइम्स का अध्ययन किया है और इन्हें विभिन्न रोगों के इलाज के लिए प्रयोग में लाया है।
1. एंटीवेनम (Antivenom):
एंटीवेनम वह दवाएँ हैं, जो सांप के जहर के प्रभाव को बेअसर करने के लिए तैयार की जाती हैं। यह दवाएँ सर्पदंश के इलाज में जीवन रक्षक साबित होती हैं। एंटीवेनम का निर्माण सांप के जहर से किया जाता है और यह शरीर में प्रवेश करने के बाद जहर के प्रभाव को निष्क्रिय कर देता है। यह दवाएँ सांप के काटने के बाद की स्थिति को संभालने के लिए अनिवार्य हैं।
2. जहर से प्राप्त दवाएँ (Toxin-derived Medicines):
सांपों के जहर में पाए जाने वाले कई तत्व अब दवाओं के रूप में उपयोग किए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, सांप के जहर में मौजूद कुछ प्रोटीन रक्त के थक्के बनने की प्रक्रिया को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। इसी तरह, कुछ तत्व कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज में भी सहायक साबित हो रहे हैं।
सांपों के जहर के तत्वों का उपयोग रक्तदाब, हृदय रोग, और कैंसर के उपचार में किया जा रहा है। कुछ जहरों का उपयोग फाइब्रिनोलाइसिस (fibrinolysis) के उपचार में भी किया जा रहा है, जो रक्त के थक्के को काटने और घावों को ठीक करने में मदद करता है।
इंटरनेट और इसका मानसिक स्वास्थ्य पर बढ़ता प्रभाव: अपनाईये स्वस्थ रहने के यह सरल उपाय
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
09-06-2025 09:20 AM
Meerut-Hindi

इंटरनेट ने हमारी दुनिया को पूरी तरह से बदल दिया है। हम अब किसी भी जानकारी को तुरंत प्राप्त कर सकते हैं, सोशल मीडिया के जरिए अपने विचार साझा कर सकते हैं, और वीडियो, गेम्स आदि के माध्यम से समय बिता सकते हैं। हालांकि, जहां इस तकनीकी बदलाव ने हमें कई फायदे दिए हैं, वहीं इसके प्रभाव से हमारी मानसिक स्थिति और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता पर भी नकारात्मक असर पड़ा है। आज के समय में एक साधारण व्यक्ति का ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बहुत ही कम हो गई है। तो आइए जानते हैं कि इंटरनेट किस प्रकार हमारे मस्तिष्क को प्रभावित करता है और इसे सुधारने के उपाय क्या हो सकते हैं।
इस लेख में, हम पहले इंटरनेट के कारण ध्यान की कमी और मानसिक स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव पर चर्चा करेंगे। फिर हम देखेंगे कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के बढ़ते उपयोग से मानसिक स्थिति पर कैसे असर पड़ता है। इसके बाद हम ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को सुधारने के उपायों को जानेंगे, जिसमें ध्यान, शारीरिक व्यायाम और भारतीय खेलों का अभ्यास शामिल है। अंत में, हम मानसिक स्वास्थ्य सुधार के लिए कुछ पेशेवर सहायता और उपचार के उपायों को भी जानेंगे।
इंटरनेट और ध्यान की कमी: आधुनिक जीवन की एक चुनौती
आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी और डिजिटल उपकरणों के बढ़ते उपयोग ने हमारी ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। इंटरनेट पर जानकारी की अविरत बाढ़, सोशल मीडिया की निरंतर गतिविधियाँ, और लगातार नई-नई चीजों का दिखना, ये सभी चीजें हमारे मस्तिष्क को उत्तेजित करती हैं, लेकिन इनका परिणाम यह होता है कि हम किसी एक कार्य पर ठीक से ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। उदाहरण के तौर पर, मोबाइल फोन पर समय बिताते हुए, औसत व्यक्ति की ध्यान अवधि केवल 8 से 9 सेकंड रह गई है। पहले के समय में लोग किताबों को हफ्तों तक पढ़ सकते थे, लेकिन आज के डिजिटल युग में यह क्षमता कमजोर हो गई है। इसके कारण व्यक्ति एक ही समय पर कई कार्यों में लगे रहते हैं, जिससे किसी एक कार्य पर पूरा ध्यान देना मुश्किल हो जाता है।

प्रौद्योगिकी और सामाजिक मीडिया का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव
समय के साथ सोशल मीडिया और इंटरनेट पर बिताया गया समय बढ़ता जा रहा है, जिसका सीधा असर हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। शोधों से यह साबित हो चुका है कि सोशल मीडिया पर लगातार समय बिताने से चिंता और अवसाद (Anxiety & Depression) की समस्याएं बढ़ सकती हैं। जब हम इंटरनेट पर समय बिता रहे होते हैं, तो यह हमारी मानसिक स्थिति को एक स्थिर और स्वस्थ स्थिति से अधिक उत्तेजित कर देता है। इसके अलावा, सोशल मीडिया पर दूसरों के जीवन को देखकर हम अपने आप की उनसे तुलना करने लगते हैं, जिससे आत्म-संवेदना (Self-esteem) पर असर पड़ता है और तनाव (Stress) में वृद्धि होती है। सोशल मीडिया पर शॉर्ट वीडियो और नई सूचनाओं की बाढ़ से हमारी दिमागी क्षमता पर भी भारी असर पड़ता है।
ध्यान और मानसिक क्षमता को सुधारने के उपाय
इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों के बढ़ते प्रभाव के बावजूद, हमारी ध्यान केंद्रित करने की क्षमता और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं। सबसे पहले, ध्यान (Meditation) एक अत्यंत प्रभावी तरीका है जो मानसिक स्थिति को स्थिर रखता है और एकाग्रता को बेहतर बनाता है। रोजाना कुछ मिनटों के लिए ध्यान करने से ध्यान अवधि में सुधार होता है। इसके अलावा, ऑफलाइन पढ़ाई (Reading) और ध्यानपूर्वक सुनना (Mindful Listening) जैसी आदतें हमें एकाग्रता बनाए रखने में मदद करती हैं। नियमित रूप से पढ़ने से मानसिक शक्ति मजबूत होती है, और यदि हम किसी व्यक्ति से बात कर रहे हैं तो सक्रिय रूप से उसकी बातों पर ध्यान देने से हमारी एकाग्रता और सामाजिक संबंधों में सुधार होता है।
शारीरिक व्यायाम भी एक अच्छा तरीका है, जो मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है। नियमित शारीरिक व्यायाम से रक्त संचार में सुधार होता है, जिससे मस्तिष्क को अधिक ऑक्सीजन और पोषक तत्व मिलते हैं, और यह हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद साबित होता है। इसके साथ ही, हमें विकर्षणों को कम करना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि हम अपने कार्यों पर ध्यान केंद्रित कर सकें, हमें अपने आसपास के विकर्षणों को सीमित करना होगा, जैसे कि मोबाइल फोन का उपयोग, सोशल मीडिया की लत आदि।
इसके अलावा, भारतीय खेलों का अभ्यास भी मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने में मदद कर सकता है। प्राचीन भारतीय खेलों जैसे कबड्डी, घुड़दौड़, कंचे, लठ मार, और लंगड़ी जैसे खेल मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों के लिए फायदेमंद हैं। ये खेल व्यक्ति की मानसिक स्थिति को मजबूत करने के साथ-साथ, शारीरिक गतिविधि को भी बढ़ावा देते हैं, जो ध्यान केंद्रित करने और मानसिक शांति में सुधार करता है। भारतीय खेलों में सामूहिक खेलों की विशेषता भी है, जिससे टीमवर्क, सहमति और एकजुटता का विकास होता है, जो मानसिक संतुलन को बनाए रखने में मदद करता है।

मनोवैज्ञानिक और मानसिक समस्याओं का समाधान
कुछ मामलों में, यदि व्यक्ति को संज्ञानात्मक विकार या मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं जैसे अवसाद (Depression), चिंता (Anxiety), या ध्यान की कमी (ADHD) हो तो इसे पेशेवर सहायता की आवश्यकता हो सकती है। संज्ञानात्मक-व्यवहार थेरेपी (Cognitive Behavioral Therapy, CBT) एक ऐसा उपचार है जो मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को सुधारने में मदद करता है। इसके जरिए व्यक्ति को अपनी नकारात्मक सोच को पहचानने और उसे सुधारने की तकनीक सिखाई जाती है, जिससे मानसिक स्थिति में सुधार होता है। इसके अलावा, विभिन्न ऑनलाइन और ऑफलाइन संसाधन भी उपलब्ध हैं जो मानसिक स्वास्थ्य के मामलों में मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं।
समाप्ति: इंटरनेट और ध्यान की समस्या से निपटना
इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन इसके नकारात्मक प्रभाव से बचने के लिए हमें कुछ सावधानियाँ बरतनी चाहिए। अच्छी आदतों को अपनाकर और मानसिक स्वास्थ्य के उपायों को लागू करके हम अपने ध्यान की क्षमता को बेहतर बना सकते हैं और अपने मानसिक स्वास्थ्य को स्वस्थ रख सकते हैं। ध्यान, शारीरिक व्यायाम, पढ़ाई, भारतीय खेलों का अभ्यास, और विकर्षणों को कम करने की प्रक्रिया से हम अपने मस्तिष्क को स्वस्थ और सक्रिय रख सकते हैं।
द गन्स ऑफ नवारोन : हिम्मत, चालाकी और एक असंभव मिशन की कहानी
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
08-06-2025 09:10 AM
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द गन्स ऑफ नवारोन (The Guns of Navarone) 1961 की एक ऐतिहासिक एक्शन-एडवेंचर फिल्म है, जिसका निर्देशन जे. ली थॉम्पसन ने किया और पटकथा कार्ल फोरमैन ने लिखी थी। यह फिल्म प्रसिद्ध लेखक एलिस्टेयर मैकलीन के 1957 के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है। कहानी एक काल्पनिक ग्रीक द्वीप "नवारोन" पर केंद्रित है, जहां जर्मन सेनाओं ने दो विशाल तोपों के माध्यम से एजेयन सागर में मित्र राष्ट्रों के जहाज़ों को बंधक बना रखा है। इन तोपों को तबाह करने के लिए एक विशेष कमांडो मिशन शुरू किया जाता है।
फिल्म में ग्रेगरी पेक, डेविड निवेन और एंथनी क्विन जैसे अनुभवी अभिनेताओं ने मुख्य भूमिकाएँ निभाई हैं। इनका उद्देश्य होता है 2,000 फंसे हुए ब्रिटिश सैनिकों को बचाना और दुश्मन के इस अभेद्य किले को नष्ट करना। फिल्म की सबसे खास बात है इसकी गहन योजना, अद्भुत सिनेमैटोग्राफी और दृढ़ नायक जो न केवल सैनिक हैं, बल्कि रणनीतिक और मानसिक रूप से बेहद सक्षम भी हैं।
हालांकि कहानी पूरी तरह काल्पनिक है और नवारोन द्वीप वास्तविक नहीं है, फिर भी फिल्म को द्वितीय विश्व युद्ध के 1943 के डोडेकेनीज़ अभियान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में स्थापित किया गया है। इसमें रोमांच, साहस, विश्वासघात और युद्ध की कठिन परिस्थितियाँ बारीकी से दिखाई गई हैं।
एलिस्टेयर मैकलीन की शैली में यह कहानी उनके कई अन्य उपन्यासों की तरह समुद्र, पहाड़ों और युद्ध की कठोर परिस्थितियों में घटती है। "कीथ मैलोरी", "डस्टी मिलर" और "एंड्रिया" जैसे पात्रों को लेखक ने विशेष रूप से गहराई के साथ चित्रित किया है, जो फिल्म में भी जीवंत रूप से उभरते हैं।
यह फिल्म न केवल बॉक्स ऑफिस पर सफल रही, बल्कि इसे 1961 में सात ऑस्कर नामांकन मिले और इसे सर्वश्रेष्ठ विशेष प्रभाव के लिए अकादमी अवॉर्ड भी मिला। इसके बाद मैकलीन के कई उपन्यासों को फिल्मों में रूपांतरित किया गया, परंतु द गन्स ऑफ नवारोन आज भी उनकी सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली कृति मानी जाती है।
संदर्भ:
ईद उल अज़हा विशेष: पैगंबर इब्राहिम का विभिन्न धर्मों में महत्व
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
07-06-2025 09:04 AM
Meerut-Hindi

इब्राहिम और ब्रह्मा, भले ही अलग-अलग परंपराओं से आते हों, लेकिन वे कुछ समानताएं साझा करते हैं। दोनों को धार्मिक प्रणेताओं के रूप में देखा जाता हैं। इब्राहिम को तीन प्रमुख धर्म – यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के प्रणेता के रूप में एवं ब्रह्मा को हिंदू धर्म में सृष्टिकर्ता के रूप में जाना जाता है। दोनों को दिव्य ग्रंथों, सृजनात्मक कहानियों और वंशावली से संबंधित माना जाता हैं। इसके अलावा, दोनों के नामों में समान ध्वनियां – “ब्राह” और “हम” हैं, जो एक ध्वनिप्रधान समानता का सुझाव देती है।आज ईद उल अज़हा के अवसर पर, सभी मुसलमान, पैगंबर इब्राहिम में अटूट विश्वास और उनकी भक्ति का सम्मान करते हैं।चलिए, आज यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में पैगंबर इब्राहिम के बारे में मौजूद,मतों के बारे में विस्तार से बात करते हैं। उसके बाद, हम इब्राहिम एवं ब्रह्मा के बीच मौजूद समानताओं का पता लगाएंगे।
पैगंबर इब्राहिम के बारे में यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में व्याप्त अंतर:
मुसलमानों के लिए, इब्राहिम, इस्लाम धर्म के संस्थापक नहीं हैं। मुस्लिम लोग,एडम(Adam) को पहले मुस्लिम व्यक्ति मानते हैं। इस प्रकार, जिस पहले आदमी को परमेश्वर ने बनाया था,वह मुस्लिम था; और उन्होंने इस्लाम का प्रचार किया। उनके पास इसका प्रचार करने के लिए, अधिक जनता नहीं थी, लेकिन वे इस्लाम का प्रचार करते रहे। बाद में उनके पश्चात, नूह और इब्राहिम ने इस धर्म का प्रचार किया।
यहूदी धर्म में भी, इब्राहिम की निश्चित रूप से एक प्रमुख भूमिका है। लेकिन, यह ज़रूरी नहीं है कि,वे यहूदी धर्म के संस्थापक के रूप में, या फिर एकेश्वरवाद के संस्थापक हो। यहूदी लोग, दरअसल, इब्राहिम को नहीं, बल्कि उनके पोते – जैकब(Jacob) को पूज्य मानते हैं। उनके अनुसार, जैकब, इज़राइल(Israel) के लोगों के संस्थापक है।
एक तरफ़, रोमन लोग(Romans), इब्राहिम को एक ईसाई धार्मिक तरीके से एवं “विश्वास” के मिसाल के रूप में देखते हैं। इब्राहिम को, विश्वास की नीति से उचित माना गया था, क्योंकि भगवान ने उन्हें एक वादा दिया था, जो अविश्वसनीय था। इब्राहिम उस वादे पर विश्वास करते थे, और अतः उनके विश्वास को सच्चाई के रूप में गिना गया था।
इब्राहिम एवं भगवान ब्रह्म के बीच कुछ समानताएं:
इब्राहिम और ब्रह्मा के नामों के बीच मौजूद समानताएं, कई लोगों का ध्यान खींचती हैं। हम अब जानते ही हैं कि, इब्राहिम को ‘यहूदियों के प्रणेता’ कहा जाता है, और ब्रह्मा को अक्सर ही सभी हिन्दुओं द्वारा ‘मानव जाति के प्रणेता’ के रूप में देखा जाता है।
इब्राहिम का नाम दो सेमिटिक शब्दों(Semitic words) से लिया गया है। इब्राहिम नाम में मौजूद ‘अब(ab)’शब्द का अर्थ – ‘पिता’ है,जबकि,‘राम/रहम(Raam/Raham)’ शब्द का अर्थ – ‘महान’ है।हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि, भगवान ब्रह्म की बेटी –देवी सरस्वती का नाम, इब्राहिम की पत्नी –‘सारा(Sarah)’ के साथ प्रतिध्वनित होता है।
इसके अलावा, हमारे देश भारत में सरस्वती नदी की एक सहायक नदी, घग्गर है। यहूदी परंपरा के अनुसार, ‘हगर’ सारा की नौकरानी थी। साथ ही, ब्राह्मण और यहूदी लोग, खुद को ‘भगवान के लोगों’ के रूप में देखते हैं।
इब्राहिम और भगवान ब्रह्मा के बीच, अन्य समानताएं क्या हैं?
1.)ब्रह्मा और इब्राहिम का दिव्य शाश्वत वंश:
•ब्रह्मा सभी के पिता है, जबकि, इब्राहिम कई देशों के प्रणेता है।
•ब्रह्मा, ब्रह्मांड के निर्माता हैं, जबकि इब्राहिम के वंशजों को आकाश के सितारों के रूप में जाना जाता हैं।
•ब्राह्मण आकाशगंगा, गाय या डॉल्फिन जैसी है। इसके दाईं ओर 14 नक्षत्र और बाईं ओर 14 नक्षत्र हैं। जबकि, इब्राहिम के सितारे जैसे वंशज, इब्राहिम से लेकर राजा डेविड(King David) तक 14 पीढ़ी की संख्या दर्शाते हैं। राजा डेविड से बेबीलोन के निर्वासन(Babylonian exile) तक 14 सितारे, एवं बेबीलोन से यीशु तक, 14 सितारे इन्हें दर्शाते हैं।
2.)ब्रह्मा और इब्राहिम के पुत्रों का बलिदान:
•ब्रह्मा के पोते – दक्ष का, सभी देवताओं के समक्ष बलिदान दिया जाता है। जबकि, इब्राहिम, अपने बेटे – इस्माइल को अर्पित करते है।
•अपने पिता बृहस्पति की अपील के कारण, दक्ष को एक भेड़ के सिर के साथ पुनर्जीवित किया जाता है। जबकि, इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल के स्थान पर, झाड़ी में पकड़े गए भेड़ का बलिदान करते है।
3.)प्रकाश के भगवान के रूप में ब्रह्मा और प्रकाश के शहर – उर(Ur) से इब्राहिम:
•ब्रह्मदेव, ब्राह्मण की चमक को बढ़ाते है। समान रूप से, अपने स्वयं के प्रिय बेटे –आइज़ेक(Issac)को अर्पित करके, इब्राहिम ने भी, प्रकाश हासिल किया था।
4.)न्याय के संग्राहक के रूप में, ब्रह्म और इब्राहिम:
ब्रह्मा युद्ध के वरदान के स्वामी है, और वरदान का प्रसाद ब्रह्मा की दुनिया में भेजा जाता है।एक तरफ़, इब्राहिम ने चार राजाओं को हराया था, और युद्ध के वरदान को पुनर्प्राप्त किया। लेकिन, फिर वे इसे मना कर देते है, और उन पांच राजाओं को वापस लौटाते है, जिनसे वह संबंधित था। तब वे,केवल भगवान में ही विश्वास रखते है।
5.)पाताल लोक के नेता के रूप में, ब्रह्म और इब्राहिम:
ब्रह्मा पवित्र गायों को पुनः प्राप्त करने एवं राक्षसों को मारने के लिए, पाताल लोक में जाते है। तब वे, फिर से प्रकाश को पाते है, एवं स्वर्ग और पृथ्वी के बीच शांति लाते है। जबकि इब्राहिम ने एक कुआं खोदकर, देशों के बीच शांति लाने के लिए, उसमें भेड़ और बैलों की पेशकश की थी।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
आनुवंशिकी: मानव जीवन की बनावट और चिकित्सा विज्ञान की वैज्ञानिक कुंजी
डीएनए
By DNA
06-06-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

आनुवंशिकी एक ऐसा विज्ञान है जो यह स्पष्ट करता है कि हमारे शरीर के लक्षण, व्यवहार और बीमारियाँ किस प्रकार हमारे माता-पिता से हमें प्राप्त होती हैं। यह विज्ञान यह जानने में मदद करता है कि क्यों कुछ विशेषताएँ – जैसे आँखों का रंग, बालों की बनावट या किसी रोग की प्रवृत्ति – पीढ़ी दर पीढ़ी एक जैसी बनी रहती हैं। आज के समय में आनुवंशिकी केवल जैविक जानकारी तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि इसका उपयोग रोग पहचान, चिकित्सा अनुसंधान और व्यक्तिगत स्वास्थ्य योजनाओं में भी किया जाने लगा है।इस लेख में हम आनुवंशिकता की परिभाषा, जीन और उनकी क्रिया, डीएनए की संरचना, आनुवंशिक बीमारियों के उदाहरण, पर्यावरणीय प्रभाव, परीक्षण की प्रक्रिया और रोगों की रोकथाम जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं को सरल भाषा में विस्तार से समझेंगे।

आनुवंशिकता की परिभाषा और इसके सिद्धांत
आनुवंशिकता उस जैविक प्रक्रिया को कहा जाता है, जिसके माध्यम से माता-पिता के लक्षण और गुण अगली पीढ़ियों को स्थानांतरित होते हैं। यह स्थानांतरण एक सुव्यवस्थित ढंग से होता है, जिसमें प्रमुख भूमिका जीन की होती है, जो कोशिकाओं में मौजूद गुणसूत्रों पर स्थित होते हैं। ग्रेगर मेंडेल ने 19वीं सदी में मटर के पौधों पर प्रयोग कर आनुवंशिकता के नियमों की नींव रखी, जिनमें प्रमुख हैं प्रभुत्व का सिद्धांत (Law of Dominance), पृथक्करण का सिद्धांत (Law of Segregation), और स्वतंत्र संयोजन का सिद्धांत (Law of Independent Assortment)। इन नियमों ने यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक व्यक्ति को दो जीन मिलते हैं – एक माता से और एक पिता से – और ये जीन मिलकर किसी लक्षण की अभिव्यक्ति निर्धारित करते हैं। ये सिद्धांत आज के आधुनिक जेनेटिक रिसर्च, जैसे कि मोलिक्यूलर जेनेटिक्स और पर्सनलाइज्ड मेडिसिन, की नींव बन चुके हैं।

जीन, जीनोटाइप और फेनोटाइप
जीन वह बायोलॉजिकल इकाई है जिसमें किसी विशेष लक्षण के निर्माण की पूरी जानकारी होती है। ये जीन डीएनए की संरचना में विशिष्ट स्थानों पर होते हैं और आवश्यक प्रोटीन बनाने के लिए कोशिकाओं को निर्देश देते हैं। किसी जीव का जीनोटाइप वह विशिष्ट जीन संयोजन होता है जो उसके अंदर छिपे गुणों को दर्शाता है, जबकि उसका फेनोटाइप वे बाहरी लक्षण होते हैं जो दिखाई देते हैं – जैसे त्वचा का रंग, आँखों की बनावट, या व्यवहारिक प्रवृत्तियाँ। एक ही जीनोटाइप के व्यक्ति, यदि अलग-अलग पर्यावरण में पले-बढ़ें, तो उनके फेनोटाइप में भिन्नता आ सकती है। इसीलिए जुड़वा बच्चों के अध्ययन आनुवंशिक और पर्यावरणीय प्रभावों को समझने में उपयोगी माने जाते हैं। जीनोटाइप और फेनोटाइप के बीच यह अंतर हमें यह समझने में मदद करता है कि जीन किस प्रकार व्यवहार और रोग संभावनाओं को प्रभावित करते हैं।

जीनोम और डीएनए की संरचना
जीनोम एक जीव के पूरे आनुवंशिक कोड का संपूर्ण मानचित्र होता है, जिसमें सभी जीन, गैर-कोडिंग अनुक्रम और विनियामक क्षेत्र सम्मिलित होते हैं। यह कोड डीएनए नामक रसायन से बना होता है जिसकी डबल हेलिक्स संरचना को वॉटसन और क्रिक ने 1953 में प्रतिपादित किया था। डीएनए में चार मुख्य न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं – एडेनिन (A), थायमिन (T), साइटोसिन (C), और गुआनिन (G) – जो विशिष्ट जोड़ों में जुड़ते हैं और एक अद्भुत जटिल संरचना बनाते हैं। मानव जीनोम में लगभग 3 अरब न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं और 20,000 से अधिक कार्यात्मक जीन होते हैं। ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट जैसे विशाल वैश्विक प्रयासों ने डीएनए को पढ़ने, समझने और उस पर कार्य करने के रास्ते खोले हैं, जिससे आज आनुवंशिक चिकित्सा, रोग पूर्वानुमान और बायोटेक्नोलॉजी में क्रांति आ चुकी है।
आनुवंशिक रोगों के प्रकार और उदाहरण
आनुवंशिक रोग तब उत्पन्न होते हैं जब किसी व्यक्ति के जीन में परिवर्तन या उत्परिवर्तन (mutation) हो जाता है। ये रोग मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं – एकल जीन विकार, जैसे थैलेसीमिया या हंटिंगटन रोग; गुणसूत्रीय विकार, जैसे टर्नर सिंड्रोम या क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम; और बहु-कारक रोग, जैसे हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर, जो कई जीनों और पर्यावरणीय प्रभावों के कारण होते हैं। एकल जीन विकार अधिकतर वंशानुगत होते हैं और उनमें रोग का पूर्वानुमान सटीक रूप से लगाया जा सकता है। इन रोगों के अध्ययन से वैज्ञानिकों को यह भी ज्ञात हुआ है कि कौन से जीन किस रोग से संबंधित होते हैं, जिससे जीन थैरेपी और स्टेम सेल अनुसंधान की दिशा में नई संभावनाएँ खुल रही हैं।
पर्यावरणीय कारकों की भूमिका
आनुवंशिकी केवल जीन के आधार पर ही नहीं, बल्कि पर्यावरण के प्रभाव से भी संचालित होती है। यह सिद्धांत एपिजेनेटिक्स के अंतर्गत आता है, जिसमें जीन की अभिव्यक्ति (gene expression) बाहरी कारकों जैसे आहार, तनाव, प्रदूषण, नींद की गुणवत्ता और व्यायाम से प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति में मोटापे के लिए जिम्मेदार जीन मौजूद हैं, तो वह व्यक्ति स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर मोटापे से बच सकता है। इसके विपरीत, अस्वस्थ जीवनशैली इस जीन को सक्रिय कर सकती है। गर्भावस्था के दौरान माताओं की जीवनशैली भी शिशु के जीन की अभिव्यक्ति को दीर्घकालिक रूप से प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार, पर्यावरणीय कारकों को नजरअंदाज करना किसी भी आनुवंशिक विश्लेषण को अधूरा बना देता है।
आनुवंशिक रोगों की पहचान और परीक्षण
वर्तमान समय में चिकित्सा विज्ञान ने आनुवंशिक परीक्षण के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। अब जन्मपूर्व (prenatal), नवजात (newborn), और वयस्क स्तर पर भी डीएनए परीक्षण किए जा सकते हैं। संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण (Whole Genome Sequencing), नेक्स्ट-जेनेरेशन सीक्वेंसिंग (Next-Generation Sequencing (NGS)), और कैरियर स्क्रीनिंग (Carrier Screening) जैसी तकनीकों ने न केवल दुर्लभ रोगों की पहचान को संभव बनाया है, बल्कि व्यक्ति के जीन प्रोफाइल के आधार पर व्यक्तिगत उपचार योजना (personalized medicine) तैयार करना भी आसान हो गया है। इससे डॉक्टर यह जान सकते हैं कि कौन-सी दवा किस व्यक्ति के लिए उपयुक्त है और किसके लिए नहीं। भविष्य में इन परीक्षणों का उपयोग कैंसर, अल्जाइमर और ऑटोइम्यून रोगों की भविष्यवाणी में भी व्यापक रूप से किया जाएगा।
आनुवंशिक रोगों की रोकथाम
भविष्य में आनुवंशिक रोगों की रोकथाम मुख्यतः समयपूर्व पहचान, जीवनशैली सुधार और जीन-संपादन तकनीकों पर निर्भर करेगी। जीन काउंसलिंग एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें संभावित माता-पिता को उनके आनुवंशिक जोखिमों की जानकारी दी जाती है, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसके अलावा, प्रीइम्प्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस (Preimplantation Genetic Diagnosis (PGD)) जैसे उपायों से भ्रूण स्तर पर ही रोगग्रस्त जीन की पहचान कर स्वस्थ भ्रूण का चयन किया जा सकता है। साथ ही, CRISPR-Cas9 तकनीक अब प्रयोगशाला से निकलकर वास्तविक चिकित्सा उपचारों में प्रयुक्त होने लगी है, जिससे आनुवंशिक रोगों को जड़ से समाप्त करने की संभावना बन रही है। यदि वैज्ञानिक, चिकित्सक और समाज मिलकर इन तकनीकों का उचित उपयोग करें, तो आनुवंशिक रोगों का बोझ भविष्य में काफी हद तक कम किया जा सकता है।
हज़ारों करोड़ रुपए खर्च करके, मेरठ जैसे शहरों के लोगों को आकर्षित कर रही हैं, बड़ी कंपनियां
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
05-06-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठ में अब विज्ञापन केवल होर्डिंग या बैनर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वॉट्सऐप स्टेटस, इंस्टाग्राम रील (Instagram Reel) और यूट्यूब शॉर्ट्स के माध्यम से भी पहुँच बना रहे हैं—जहाँ आम लोग और स्थानीय प्रवृत्तियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। 2024 में, भारत का विज्ञापन बाज़ार ₹908.6 अरब तक पहुँच गया था। आई एम ए आर सी समूह (IMARC Group) के अनुसार, इस बाज़ार की 2033 तक ₹2,118.8 अरब तक पहुँचने की संभावना है, जिसकी वार्षिक संयुक्त वृद्धि दर (Compound Annual Growth Rate - CAGR) 9.37% है। इस समय, विज्ञापन क्षेत्र में डिजिटल मीडिया (Digital Media) की हिस्सेदारी 49%, टेलीविज़न की 28% और मुद्रित मीडिया (Print Media) की 17% है। प्रमुख विज्ञापन खर्च करने वाले क्षेत्र हैं: तेज़ी से उपभोग होने वाले उत्पाद (Fast Moving Consumer Goods - FMCG), ई-वाणिज्य (E-Commerce), टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएँ (Consumer Durables), स्वचालित वाहन (Automobile) और सरकारी क्षेत्र (Government Sector)।
डेंटसु इंडिया द्वारा प्रकाशित एक विज्ञापन रिपोर्ट (Dentsu e4m Digital Report 2025 ) के अनुसार, 2025 के अंत तक इसका आकार ₹1.1 खरब तक पहुँचने का अनुमान है! इसमें डिजिटल विज्ञापनों की भूमिका सबसे अहम होगी।
मौजूदा समय में, डिजिटल मीडिया विज्ञापन खर्च के मामले में सबसे आगे निकल चुका है। भारतीय विज्ञापन बाज़ार का लगभग आधा हिस्सा (करीब ₹49,251 करोड़) डिजिटल विज्ञापनों पर खर्च होता है। इसके बाद टीवी का स्थान है, जिसकी हिस्सेदारी 28% (₹28,062 करोड़) है, और फिर 17% (₹17,529 करोड़) हिस्सेदारी के साथ प्रिंट मीडिया (अखबार और पत्रिकाएँ) आता है।
इस वृद्धि को गति प्रदान करने में कई मुख्य कारकों ने अपना योगदान दिया है! इन कारकों में रियलिटी शोज़ की लोकप्रियता, टीवी और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर खेल प्रसारण, और प्रभावशाली बड़े प्रिंट विज्ञापन शामिल हैं। ई-कॉमर्स, ऑटोमोबाइल और खुदरा जैसे प्रमुख सेक्टर डिजिटल और पारंपरिक, दोनों माध्यमों पर सक्रिय रूप से विज्ञापन कर रहे हैं।
आउट-ऑफ़-होम (OOH) विज्ञापन के क्षेत्र में भी नवाचार देखने को मिल रहा है, जिसमें डिजिटल स्क्रीन, एयरपोर्ट मीडिया और डिजिटल ओओएच OOH (DOOH) का बढ़ता उपयोग शामिल है। 2023 में ओ.ओ.एच पर लगभग ₹3,800 करोड़ का खर्च यह दर्शाता है कि विज्ञापनदाता इसे कितना प्रभावी मान रहे हैं।
हालाँकि, पारंपरिक मीडिया की हिस्सेदारी घट रही है। 2025 में टीवी का शेयर 2024 के 28% से कम होकर 24% होने की संभावना है। इसी तरह, प्रिंट मीडिया का शेयर भी 17% से घटकर 15% तक जा सकता है। रेडियो की हिस्सेदारी भी 2% से 1% तक कम होने का अनुमान है। ये रुझान विज्ञापन परिदृश्य में हो रहे महत्वपूर्ण बदलावों को स्पष्ट रूप से हमारे सामने रख रहे हैं।
आज के दौर में हर बिज़नेस, चाहे छोटा हो या बड़ा, अपने ग्राहकों तक अपनी आवाज़ और अपने उत्पादों को पहुँचाना चाहता है। इसके लिए वे कई अलग-अलग रास्ते अपनाते हैं, जिन्हें हम आम भाषा में 'विज्ञापन' कहते हैं। भारत में विज्ञापन के कई तरीके लोकप्रिय हैं।
आइए, इन पर एक नज़र डालते हैं।
- टेलीविज़न : टेलीविज़न विज्ञापन, प्रचार प्रसार के सबसे जाने-पहचाने तरीकों में से एक है। टी वी पर दिखाई और सुनाई देने वाले ये विज्ञापन, खासकर जब कहानियों या दिलचस्प नज़ारों के साथ पेश किए जाते हैं, तो लोगों के दिमाग में आसानी से बस जाते हैं और ब्रांड को एक नई पहचान देते हैं।
- रेडियो : रेडियो विज्ञापन, उन लोगों तक पहुँचने का बेहतरीन ज़रिया है जो गाड़ी चलाते या काम करते हुए रेडियो सुनते हैं। आवाज़ के ज़रिए जानकारी आसानी से मिल जाती है, और यह ख़ास इलाकों या पसंद वाले लोगों तक पहुँचने का एक किफ़ायती तरीका भी है।
- प्रिंट विज्ञापन: अखबारों, मैगज़ीन और पर्चों में छपे विज्ञापन, जाने पहचाने और भरोसेमंद माध्यम होते हैं। ये विज्ञापन पढ़ने के शौकीन लोगों के बिलकुल आदर्श होते हैं।
- बाह्य विज्ञापन: आउटडोर विज्ञापन आज की दुनिया में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं। सड़कों पर लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स या बसों-ट्रेनों पर चिपके विज्ञापन भी इसी श्रेणी में आते हैं। जब लोग घर से बाहर निकलते हैं, तो इनकी नज़र इन पर पड़ती है, जिससे ये बड़ी संख्या में अलग-अलग तरह के लोगों तक पहुँच पाते हैं।
- डायरेक्ट मेल: डायरेक्ट मेल में पोस्टकार्ड, कैटलॉग या चिट्ठियाँ ,सीधे लोगों के पते पर भेजी जाती हैं। यह उन संभावित ग्राहकों से सीधे और व्यक्तिगत रूप से जुड़ने का एक माध्यम है, जिनकी किसी ख़ास उत्पाद या सेवा में रुचि हो सकती है। इस तरह, भारत में विज्ञापन के ये विविध तरीके कंपनियों को अपने ग्राहकों से जुड़ने में मदद करते हैं। हर माध्यम की अपनी खूबी है, और कंपनियां अपनी ज़रूरत और बजट को ध्यान में रखकर इनका चुनाव करती हैं।
- डिजिटल विज्ञापन: आज के डिजिटल युग में डिजिटल विज्ञापन का ही बोलबाला है। इंटरनेट के ज़रिए, सोशल मीडिया (जैसे फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम), गूगल सर्च, वेबसाइट, ईमेल और मोबाइल ऐप्स पर दिखने वाले ये विज्ञापन बेहद ख़ास होते हैं। आम लोगों तक सीधे पहुच, इनकी सबसे बड़ी ताकत है! यानी आप उन्हीं को विज्ञापन दिखा सकते हैं जो शायद आपकी चीज़ों में दिलचस्पी रखते हों। ये दुनिया भर में लोगों से जुड़ने का एक शक्तिशाली ज़रिया है।
भारत में डिजिटल विज्ञापन की दुनिया ने बड़ी ही तेज़ी के साथ करवट बदली है। आज के समय में लगभग हर किसी के हाथ में मोबाइल है, इसलिए मोबाइल पर दिखने वाले विज्ञापनों की बाढ़ सी आ गई है। कंपनियाँ भी अब खास तौर पर ऐसे विज्ञापन तैयार कर रही हैं जो मोबाइल स्क्रीन पर न सिर्फ़ अच्छे लगें, बल्कि तुरंत लोड हों और लोगों का ध्यान खींचें।
फ़ेसबुक , इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म आज लोगों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन चुके हैं। यही वजह है कि कंपनियाँ इन मंचों का भरपूर इस्तेमाल करके सीधे ग्राहकों तक अपनी बात पहुँचा रही हैं। 'इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग'', इसी कड़ी में एक नया तरीका है। इसमें, सोशल मीडिया पर लोकप्रिय चेहरे अपने फॉलोअर्स को कंपनियों के उत्पादों या सेवाओं से रूबरू कराते हैं। यह तरीका इसलिए सफल है क्योंकि लोग इन जाने-पहचाने चेहरों की बातों पर अक्सर भरोसा करते हैं।
साथ ही, अब लोग पारंपरिक टी वी के बजाय इंटरनेट पर फिल्में और शो देखना ज़्यादा पसंद कर रहे हैं। नेटफ़्लिक्स, अमेज़न प्राइम वीडियो और हॉटस्टार जैसे प्लेटफ़ॉर्म घर-घर में लोकप्रिय हो चुके हैं। इसलिए, यह स्वाभाविक ही है कि विज्ञापन भी अब इन 'ओवर-द-टॉप' (ओ टी टी) और 'कनेक्टेड टी वी' (सी टी वी) पर नज़र आने लगे हैं।
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (ए आई), यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता भी डिजिटल विज्ञापन के क्षेत्र में एक और बड़ा बदलाव ला रही है। एआई की मदद से कंपनियाँ न केवल अपने विज्ञापन खरीदने की प्रक्रिया को स्वचालित कर सकती हैं, बल्कि यह भी बेहतर ढंग से समझ सकती हैं कि कौन सा विज्ञापन सबसे ज़्यादा असरदार साबित होगा। मशीन लर्निंग जैसी तकनीकें भारी मात्रा में डेटा का विश्लेषण करके यह पता लगा लेती हैं कि लोगों को किस तरह के विज्ञापन पसंद आते हैं। इससे कंपनियों को पहले से कहीं ज़्यादा समझदारी और सटीकता के साथ विज्ञापन करने में मदद मिल रही है।
क्या आप जानना चाहते हैं कि भारत में कौन सी कंपनियाँ विज्ञापनों पर सबसे ज़्यादा खर्च करती हैं?
आइए, मिलते हैं इन टॉप 5 खिलाड़ियों से:
- हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड ( Hindustan Unilever Limited): रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें बनाने वाली ये दिग्गज कंपनी, विज्ञापनों पर खर्च करने में सबसे आगे है। साल 2019 के आँकड़ों के अनुसार, एच यू एल ने विज्ञापनों पर करीब 3200 से 3500 करोड़ रुपये लगाए! आप इनके विज्ञापन पॉन्ड्स, लैक्मे, क्लिनिक प्लस, क्लोज़अप , ताज महल चाय, 3 रोजेज चाय, किसान, डव, लक्स, रिन, सर्फ़ एक्सेल और सनसिल्क जैसे अनगिनत जाने-माने ब्रांड्स के लिए देखते हैं।
- अमेज़न ऑनलाइन इंडिया (Amazon Online India): इस लिस्ट में दूसरे नंबर पर है अमेज़न, जिसने 2019 में विज्ञापनों पर लगभग 900 से 1000 करोड़ रुपये खर्च किए। अमेज़न केवल अखबार या टी वी ही नहीं, बल्कि तमाम वेबसाइटों पर भी अपने विज्ञापन दिखाता है। माना जाता है कि इन्हीं विज्ञापनों को देखकर बड़ी संख्या में ग्राहक उनकी वेबसाइट तक पहुँचते हैं, जिससे उनकी बिक्री और ग्राहकों की संख्या में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है।
- ड्रीम 11 फ़ैंटसी: लिस्ट में यह एक नया नाम है, जिसने कई पुरानी कंपनियों को पीछे छोड़ दिया है। ड्रीम 11 एक ऑनलाइन फ़ैंटसी स्पोर्ट्स प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ आप अपनी टीम बनाकर पैसे जीत सकते हैं। इन्होंने अपने विज्ञापनों के लिए मशहूर क्रिकेटर एम.एस. धोनी को चेहरा बनाया और ऐसा करके 2019 में करीब 700 से 800 करोड़ रुपये खर्च किए।
- रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (Reliance Industries LImited) : चौथे स्थान पर रिलायंस इंडस्ट्रीज ने टॉप 5 में अपनी जगह पक्की की है। रिलायंस अपने कई अलग-अलग ब्रांड्स और बिज़नेस, जैसे रिलायंस स्मार्ट, रिलायंस फ़्रेश, रिलायंस डिजिटल, जियो, अजियो ( फ़ैशन), टीमस्पिरिट (स्पोर्ट्सवियर), ट्रेंड्स फ़ुटवेयर, डी एन एम एक्स, परफॉर्मैक्स और एल वाई मोबाइल्स के विज्ञापनों पर सालाना 700 से 800 करोड़ रुपये करता है
- मारुति सुजुकी इंडिया (Maruti Suzuki India) : भारत की यह सबसे बड़ी कार कंपनी लगभग हर साल बाज़ार में नई गाड़ियाँ उतारती है, और उनके विज्ञापन लोगों को कार खरीदने के लिए आकर्षित करते हैं। मारुति सुजुकी ने भी विज्ञापनों पर करीब 700 से 800 करोड़ रुपये खर्च किए, जिनमें विटारा ब्रेज़ा और अर्टिगा जैसी गाड़ियों के विज्ञापनों पर खासा ज़ोर रहा।
संदर्भ
मुख्य चित्र में कोका कोला के विज्ञापन का स्रोत : Wikimedia ; Attribution: cnnri
मेरठ एवं आसपास के क्षेत्रों में हो रही वर्तमान पशुधन गणना, पहले से किस प्रकार बेहतर है ?
स्तनधारी
Mammals
04-06-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

जबकि वर्तमान समय में इक्कीसवीं पशुधन गणना (21st Livestock Census) जारी है, 2019 में आयोजित बीसवीं पशुधन गणना (20th Livestock Census) के अनुसार, हमारे राज्य उत्तर प्रदेश में कुल 18.8 मिलियन मवेशी (cattle) आबादी थी। इसी गणना के अनुसार, हमारे मेरठ ज़िले में बकरियों की कुल संख्या 43470 थी, तथा कुल मवेशी आबादी 244585 पाई गई थी। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश राज्य की उन्नीसवीं पशुधन गणना (19th Livestock Census) से पता चला है कि, मेरठ ज़िले में भैंसों, बकरियों और भेड़ों की संयुक्त आबादी, 894070 थी। इसलिए, आज आइए देखें कि, पशुधन गणना क्या होती है, और यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए क्यों महत्वपूर्ण है। फिर, हम भारत में इस तरह की गणना को आयोजित करने के पीछे मौजूद, मुख्य उद्देश्यों पर कुछ प्रकाश डालेंगे। उसके बाद, हम मेरठ ज़िले में, बीसवीं पशुधन गणना में पशुधन और मवेशियों से संबंधित दर्ज किए गए, कुछ महत्वपूर्ण आंकड़ों का पता लगाएंगे। इसके बाद, हम इस गणना से कुछ प्रमुख विवरणों का विश्लेषण करेंगे, ताकि इस क्षेत्र में व्यापक रुझानों को समझा जा सके। इसके अलावा, हम आगामी इक्कीसवीं पशुधन गणना के दायरे का पता लगाएंगे, और जांच करेंगे कि डेटा संग्रह, प्रौद्योगिकी और नीतिगत ध्यान के संदर्भ में, यह पिछली गणनाओं से कैसे अलग होगी।
पशुधन गणना क्या होती है?
कोई ‘पशुधन गणना’, किसी देश या क्षेत्र में पशुधन और पोल्ट्री की पूरी गिनती होती है। आमतौर पर हर पांच वर्षों में, इसे नियमित अंतराल पर आयोजित किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य, पशुधन की संख्या, प्रकार और स्थान पर डेटा एकत्र करना होता है। इस डेटा का उपयोग, पशुधन क्षेत्र हो रहे विकास पर नज़र रखने और नीतिगत निर्णयों को सूचित करने के लिए किया जाता है।
पशुधन गणना के मुख्य उद्देश्य:
1.देश में पशुधन आबादी के बारे में सटीक जानकारी एकत्र करना।
2.समय के साथ पशुधन की आबादी में हो रहे बदलाव को ट्रैक करना एवं पशुधन विकास से संबंधित नीतियों और योजनाओं की योजना तथा कार्यान्वयन में मदद करना।
3.पशुधन जनसंख्या डेटा का ज़िला-वार और ग्रामीण-शहरी विश्लेषण प्राप्त करना तथा पशुधन विकास के लिए धन और संसाधनों के उचित आवंटन हेतु मदद प्राप्त करना।
4.पशुधन की विभिन्न नस्लों के बारे में जानकारी एकत्र करके, उनके संरक्षण और सुधार को बढ़ोतरी देने में मदद करना।
5.पोल्ट्री आबादी और कृषि मशीनरी के बारे में डेटा प्राप्त करना, जिससे कृषि प्रभावित होती है।
बीसवीं पशुधन गणना के अनुसार, मेरठ ज़िले में पशुधन और मवेशियों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े:
1.विदेशी मवेशी संख्या: 198215
2.स्वदेशी मवेशी संख्या: 46370
3.भैंसों की संख्या: 515704
4.बकरियों की संख्या: 43470
बीसवीं पशुधन गणना से प्रमुख विवरणों का विश्लेषण:
1.देश में कुल पशुधन आबादी 535.78 मिलियन थी, जो पशुधन गणना, 2012 की तुलना में 4.6% वृद्धि दर्शाती है।
2.पश्चिम बंगाल में 23% की उच्चतम वृद्धि दर्ज की गई , जिसके बाद तेलंगाना(22%) का स्थान आता है।
3.देश में मवेशियों की कुल संख्या ने, 0.8% की वृद्धि देखी ।
4.कुल विदेशी या संकर मवेशियों की संख्या में, 27% की वृद्धि हुई ।
5.हालांकि, कुल स्वदेशी मवेशी आबादी में 6% की गिरावट देखी गई ।
6. देश में कुल मवेशियों की जनसंख्या में लगभग 75% मादाएं थीं। दूध उत्पादक मवेशियों के लिए डेयरी किसानों की पसंद का, यह एक स्पष्ट संकेत है।
इक्कीसवीं पशुधन गणना के दायरे की खोज:
1.एन्यूमरेटर टास्क फ़ोर्स (Enumerator Task Force):
लगभग 87,000 एन्यूमरेटर या गणनाकार, आवासीय क्षेत्रों, गौशालाओं (मवेशी आश्रय), डेयरी फ़ार्म, पोल्ट्री फ़ार्म, पशु चिकित्सा संस्थानों और रक्षा प्रतिष्ठानों सहित, लगभग 30 करोड़ घरों और प्रतिष्ठानों को कवर करेंगे।
2.पशु श्रेणियां:
यह जनगणना, 16 पशु प्रजातियों की गणना के लिए ज़िम्मेदार होगी, जिसमें मवेशी, भैंस, मिथुन, याक, भेड़, बकरियां, सूअर, ऊंट, घोड़े, टट्टू, खच्चर, गधे, कुत्ते, खरगोश और हाथी शामिल हैं। जबकि, पोल्ट्री प्रकार में फ़ाउल, चिकन, बत्तख, टर्की, गीज़, बटेर, शुतुरमुर्ग, और ईमू आदि शामिल हैं।
3.नस्लों की जानकारी:
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (National Bureau of Animal Genetic Resources (ICAR-NBAGR)) द्वारा मान्यता प्राप्त, 219 स्वदेशी पशु नस्लों की जानकारी इसमें एकत्रित की जाएगी।
इक्कीसवीं पशुधन गणना, पिछली समान गणनाओं से कैसे अलग है?
1.2019 की तुलना में, यह गणना पूरी तरह से डिजिटल है । इसमें ऑनलाइन डेटा संग्रह के लिए, एक मोबाइल एप्लिकेशन (Mobile application) का उपयोग करना, और डिजिटल डैशबोर्ड (Digital dashboard) के माध्यम से निगरानी करना शामिल है।
2.यह गणना, पहली बार देहाती लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के साथ पशुधन क्षेत्र में उनके योगदान पर डेटा एकत्र कर रही है।
3.यह गणना उन घरों (लोगों) के अनुपात का पता लगा रही है, जिनकी प्रमुख आय, पशुधन क्षेत्र से आती है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
संस्कृति 2036
प्रकृति 723