मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












कैसे तिब्बत का ठंडा रेगिस्तान, मेरठवासियों को हिमालय की अनोखी झलक दिखाता है?
मरुस्थल
Desert
09-10-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

भारत और चीन के बीच ऊँचाइयों में बसा तिब्बत, केवल एक भूभाग नहीं बल्कि प्रकृति और संस्कृति का अद्भुत संगम है। इसे "दुनिया की छत" कहा जाता है क्योंकि यह धरती का सबसे ऊँचा पठार है, जहाँ आसमान मानो ज़मीन को छूने लगता है। चारों ओर बर्फ़ से ढकी चोटियाँ, गहरी घाटियाँ और विशाल पर्वत श्रृंखलाएँ इसे रहस्य और रोमांच से भर देती हैं। तिब्बत का भूगोल जितना कठोर है, उतना ही मोहक भी। यहाँ की नदियाँ, रेगिस्तानी हवाएँ और बर्फ़ीली जलवायु मिलकर एक ऐसा संसार बनाती हैं जो हर किसी को विस्मित कर देता है। लेकिन तिब्बत केवल प्राकृतिक अद्भुतताओं का प्रदेश नहीं है; यह मानवीय धैर्य, परंपरा और अध्यात्म का भी घर है। यहाँ की हवा भले ही पतली हो, लेकिन लोगों की संस्कृति और जीवनशैली उतनी ही गहरी और समृद्ध है। कठोर जलवायु और ऊँचाई की चुनौतियों के बावजूद, तिब्बती समाज ने अपनी सभ्यता, कृषि, पशुपालन और त्योहारों को जीवंत बनाए रखा है। यही वजह है कि तिब्बत दुनिया भर के यात्रियों, शोधकर्ताओं और श्रद्धालुओं के लिए हमेशा आकर्षण का केंद्र बना रहता है।
आज हम तिब्बत के बारे में कई महत्वपूर्ण पहलुओं को जानेंगे। सबसे पहले, हम समझेंगे कि इसकी भौगोलिक स्थिति और "ठंडे रेगिस्तान" का स्वरूप इसे इतना विशिष्ट क्यों बनाता है। फिर, हम तिब्बत की जलवायु और वर्षा के पैटर्न को देखेंगे, जो यहाँ के जीवन को प्रभावित करते हैं। इसके बाद, हम तिब्बत की अर्थव्यवस्था और लोगों की आजीविका के साधनों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम तिब्बत की समृद्ध संस्कृति के हिस्से - त्योहारों, औषधीय पौधों और प्रमुख पर्यटक स्थलों - को समझेंगे, जो इसे वैश्विक आकर्षण का केंद्र बनाते हैं।

तिब्बत का भौगोलिक परिचय और ठंडे रेगिस्तान की पहचान
तिब्बत को अक्सर "दुनिया की छत" कहा जाता है क्योंकि यह धरती का सबसे ऊँचा और विशाल पठार है, जिसकी औसत ऊँचाई लगभग 4,500 मीटर है। चारों ओर फैली हिमालय, कुनलुन और काराकोरम जैसी पर्वत श्रृंखलाएँ इसे प्राकृतिक दीवार की तरह घेरती हैं। यहीं पर माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) जैसी विश्व की सबसे ऊँची चोटी भी स्थित है, जिसने तिब्बत को वैश्विक भूगोल और रोमांच की दुनिया में एक विशेष स्थान दिलाया है। यहाँ की भूमि ऊँचे पठार, गहरी घाटियाँ, बर्फ़ से ढकी चोटियाँ और सूखी हवाओं का संगम है, जो इसे "ठंडा रेगिस्तान" बनाते हैं। तिब्बत केवल भूगोल का चमत्कार नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा प्राकृतिक प्रयोगशाला है जहाँ इंसान और प्रकृति दोनों कठिन परिस्थितियों में सह-अस्तित्व का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
तिब्बत की जलवायु और वर्षा का पैटर्न
तिब्बत की जलवायु बेहद कठोर और चुनौतीपूर्ण है। यहाँ मानसून की पकड़ कमजोर है, इसलिए वर्षा बहुत सीमित होती है और औसतन केवल 100 से 300 मिमी तक पहुँचती है। यही कारण है कि तिब्बत शुष्क और बंजर दिखाई देता है। गर्मियों में दिन का तापमान कभी-कभी 20 डिग्री सेल्सियस (°C) तक पहुँच जाता है, लेकिन जैसे ही रात ढलती है, तापमान शून्य से नीचे चला जाता है। सर्दियों में हालात और भी कठिन हो जाते हैं - तापमान माइनस 30 डिग्री तक गिर जाता है और तेज़ हवाएँ जीवन को और कठोर बना देती हैं। यहाँ की पतली हवा और कम ऑक्सीजन (Oxygen) यात्रियों के लिए बड़ी चुनौती है। इन सभी विशेषताओं के कारण तिब्बत न केवल एक ठंडा रेगिस्तान कहलाता है, बल्कि साहस और सहनशीलता की परीक्षा लेने वाला स्थान भी माना जाता है।

तिब्बत की अर्थव्यवस्था और आजीविका के साधन
तिब्बत की अर्थव्यवस्था मुख्यतः पारंपरिक खेती, पशुपालन और अब पर्यटन के इर्द-गिर्द घूमती है। यहाँ की प्रमुख फसल जौ (Barley) है, जिससे स्थानीय लोग 'त्साम्पा' (Tsampa) नामक भोजन और 'चांग' (Chang) नामक पेय तैयार करते हैं। गेहूँ, सरसों और आलू भी सीमित मात्रा में उगाए जाते हैं। यहाँ के लोग सदियों से खानाबदोश जीवनशैली अपनाए हुए हैं और याक, भेड़, बकरियाँ उनकी आजीविका और संस्कृति का अहम हिस्सा हैं। याक न केवल दूध और ऊन प्रदान करता है बल्कि परिवहन और ईंधन (गोबर) का भी स्रोत है। तिब्बत खनिज संपदा से भी समृद्ध है, जहाँ सोना, तांबा, लिथियम (Lithium) और नमक पाए जाते हैं। आधुनिक समय में पर्यटन ने अर्थव्यवस्था में नई जान फूँकी है - कैलाश मानसरोवर यात्रा, बौद्ध मठ और पर्वतारोहण लाखों पर्यटकों को यहाँ खींच लाते हैं। यह सब मिलकर तिब्बत को परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम बनाते हैं।
तिब्बत की वनस्पति और औषधीय पौधों का महत्व
तिब्बत की भौगोलिक ऊँचाई और मौसम की परिस्थितियाँ इसकी वनस्पति को बेहद अनूठा बनाती हैं। यहाँ के अल्पाइन घासभूमि और शंकुधारी जंगल न केवल प्राकृतिक सुंदरता का हिस्सा हैं बल्कि जीवन का आधार भी हैं। कई क्षेत्रों में चराई और जलवायु परिवर्तन के कारण हरे-भरे मैदान रेगिस्तान में बदल रहे हैं, जो पर्यावरण के लिए चिंता का विषय है। तिब्बत को औषधीय पौधों की भूमि भी कहा जाता है। सूडो जिनसेंग (Pseudo Ginseng), जेंटियाना (Gentiana), और गेनोडर्मा (Ganoderma) जैसी दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ यहाँ पाई जाती हैं, जिनका उपयोग पारंपरिक तिब्बती और चीनी चिकित्सा में किया जाता है। ये पौधे न केवल स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य और जीवनयापन के लिए जरूरी हैं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी औषधि उद्योग के लिए अत्यधिक मूल्यवान माने जाते हैं।

तिब्बत के प्रमुख त्योहार और सांस्कृतिक उत्सव
तिब्बत की संस्कृति उसके त्योहारों में जीवंत होकर सामने आती है। लॉसर (Losar), यानी तिब्बती नव वर्ष, सबसे महत्वपूर्ण उत्सव है जिसमें लोग घरों को सजाते हैं, पारंपरिक व्यंजन बनाते हैं और एक-दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं। शोटन उत्सव (Shoton Festival) विशेष रूप से प्रसिद्ध है, जहाँ विशाल थांग्का (Thangka) चित्रों का प्रदर्शन किया जाता है और दही खाने की परंपरा निभाई जाती है। मोनलाम प्रार्थना उत्सव (Monlam Prayer Festival) बौद्ध आध्यात्मिकता और सामूहिक प्रार्थनाओं का प्रतीक है। इसके अलावा तिब्बती लोग पारंपरिक घुड़दौड़ और तीरंदाजी प्रतियोगिताओं का आयोजन भी बड़े उत्साह से करते हैं। ये त्योहार तिब्बत की सामाजिक एकजुटता और उसकी आध्यात्मिक धरोहर को जीवंत रखते हैं।

तिब्बत के प्रमुख पर्यटक आकर्षण और धरोहर स्थल
तिब्बत की धरती प्रकृति और संस्कृति दोनों का अद्भुत संगम है। राजधानी ल्हासा (Lhasa) का पोटाला पैलेस (Potala Palace) न केवल वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है बल्कि दलाई लामा का ऐतिहासिक निवास भी रहा है। यह स्थल आज यूनेस्को (UNESCO) की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। इसके अतिरिक्त जोखंग मंदिर (Jokhang Temple) तिब्बती बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र स्थल माना जाता है। प्राकृतिक दृष्टि से यारलुंग त्सांगपो ग्रैंड कैन्यन (Yarlung Tsangpo Grand Canyon) अपनी विशालता और रहस्यमय सुंदरता से चकित करता है। शाक्य मठ (Sakya Monastery), नोरबुलिंगका गार्डन (Norbulingka Garden), और ल्हासा की पारंपरिक गलियाँ भी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। धार्मिक दृष्टि से कैलाश पर्वत (Mount Kailash) और मानसरोवर झील (Lake Manasarovar) का महत्व सर्वोपरि है, जहाँ हर साल हजारों श्रद्धालु आत्मिक शांति की तलाश में पहुँचते हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/3f963czj
भारतीय वायुसेना का सफर: मेरठ की निगाहों से आज़ाद आसमान तक की उड़ान
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
08-10-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब हर साल 8 अक्टूबर को भारतीय वायुसेना दिवस पूरे देश में गर्व और सम्मान के साथ मनाया जाता है, तो यह दिन केवल परेड (Parade), एयर शो (Air Show) और वीर गाथाओं का उत्सव नहीं होता - यह उस आत्मबल, अनुशासन और राष्ट्रप्रेम का प्रतीक होता है, जो मेरठ जैसे वीर भूमि से उपजा है। हमारा शहर सिर्फ़ विद्रोह की धरती नहीं, बल्कि उन हजारों सपनों की भी ज़मीन है, जहाँ के युवा नीले आकाश में उड़ने की तमन्ना लेकर अपने गांव-मोहल्लों से निकलते हैं, वायुसेना की वर्दी पहनते हैं और देश की सीमाओं की हिफाज़त में अपने प्राण अर्पित करते हैं। भारतीय वायुसेना की यात्रा 1932 में जब शुरू हुई थी, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह एक दिन दुनिया की चौथी सबसे शक्तिशाली वायुसेना बन जाएगी। लेकिन यह संभव हुआ - तकनीकी उन्नति, अनुशासित प्रशिक्षण, और उस अडिग साहस से जो हर मेरठवासी के खून में भी बहता है। इसलिए यह कहानी सिर्फ़ आसमान की नहीं है, बल्कि ज़मीन से उठते उन सपनों की भी है जो मेरठ की हर गली, हर चौक और हर स्कूल से पंख फैलाकर निकलते हैं।
इस लेख में हम सात प्रमुख चरणों के माध्यम से भारतीय वायुसेना के विकास की कहानी को समझेंगे। पहले, हम जानेंगे वायुसेना की स्थापना और उसके शुरुआती वर्ष कैसे रहे। फिर, द्वितीय विश्व युद्ध और स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों की बात करेंगे। इसके बाद हम 1962 से 1971 तक के युद्धों में वायुसेना की भूमिका पर प्रकाश डालेंगे। अगले हिस्से में तकनीकी उन्नयन और वैश्विक मिशनों में इसकी सक्रियता को देखेंगे। इसके बाद, हम कारगिल युद्ध जैसे बड़े ऑपरेशनों में वायुसेना की रणनीतिक सफलता को जानेंगे। फिर, 2025 के ऑपरेशन सिंदूर (Operation Sindoor) की सटीकता और ताकत को समझेंगे। अंत में, आज की आधुनिक और आत्मनिर्भर वायुसेना की वर्तमान स्थिति और भविष्य की दिशा की चर्चा करेंगे।

भारतीय वायुसेना की स्थापना और शुरुआती सफर
भारतीय वायुसेना (Indian Air Force) का इतिहास 8 अक्टूबर 1932 से शुरू होता है, जब इसकी स्थापना ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ‘रॉयल इंडियन एयर फोर्स’ (Royal Indian Air Force) के रूप में की गई थी। प्रारंभ में इसके पास सीमित संख्या में कर्मचारी और उपकरण थे, और इसकी भूमिका सहायक स्तर की थी - विशेष रूप से ज़मीनी सेना की सहायता में। हालाँकि, इसकी रणनीतिक भूमिका धीरे-धीरे विकसित होती चली गई। 1950 में, भारत के गणराज्य बनने के साथ ही ‘रॉयल’ शब्द हटा दिया गया और यह भारतीय वायुसेना बन गई - पूरी तरह से भारतीय, पूरी तरह से राष्ट्र के लिए समर्पित। इसका प्रमुख दायित्व देश की हवाई सीमाओं की सुरक्षा करना और आपातकालीन समय में राहत और आपदा प्रबंधन में सहायता प्रदान करना है। राष्ट्रपति भारतीय वायुसेना के सर्वोच्च सेनापति होते हैं। यह केवल एक सैन्य संस्था नहीं, बल्कि देश की हवाई संप्रभुता का प्रतीक है।

द्वितीय विश्व युद्ध और आज़ादी के बाद की चुनौतियाँ
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना ने अपने सीमित संसाधनों के बावजूद महत्वपूर्ण योगदान दिया। उस समय इसकी प्राथमिक भूमिका टैक्टिकल सपोर्ट (tactical sport) और ज़मीनी सेना के सहयोग तक सीमित थी, लेकिन फिर भी इसके सैनिकों को 22 ‘डिस्टिंग्विश्ड फ्लाइंग क्रॉस’ (Distinguished Flying Cross) जैसे सम्मान मिले। आज़ादी के बाद विभाजन के दौरान, वायुसेना की कुल 10 स्क्वॉड्रनों (Squadron) में से 3 स्क्वॉड्रन पाकिस्तान को सौंप दी गईं - जिससे वायुसेना को दोबारा खड़ा करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया। भारत-पाकिस्तान के पहले कश्मीर युद्ध (1947-48) में, वायुसेना ने बिना पूर्व योजना के पलाम हवाई अड्डे से सैनिकों को श्रीनगर एयरफील्ड (airfield) तक पहुँचाया, ताकि पाकिस्तानी घुसपैठियों को रोका जा सके। उस समय वायुसेना के पास सीमित संख्या में विमानों और प्रशिक्षित पायलटों के बावजूद, युद्धभूमि में उनकी तत्परता और साहस ने देश की एकता को बचाने में निर्णायक भूमिका निभाई।
1962 से 1971 तक के युद्धों में वायुसेना की भूमिका
1962 के भारत-चीन युद्ध में भारतीय वायुसेना का आक्रामक उपयोग नहीं किया गया। यह निर्णय तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व द्वारा लिया गया, जिसमें आशंका जताई गई कि चीन भारतीय शहरों पर बमबारी कर सकता है। कई सैन्य विशेषज्ञों ने बाद में इस निर्णय की आलोचना करते हुए कहा कि अगर वायुसेना का इस्तेमाल आक्रामक तरीके से किया गया होता, तो युद्ध का परिणाम भिन्न हो सकता था। इसी अनुभव के बाद, 1965 के भारत-पाक युद्ध में वायुसेना ने अपने अभियान को आक्रामक रूप से संचालित किया - पाकिस्तानी हवाई अड्डों पर हमला कर उनकी क्षमता को नुकसान पहुँचाया, हालाँकि खुद वायुसेना को भी कुछ नुक़सान उठाना पड़ा। 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारतीय वायुसेना की भूमिका निर्णायक रही। उसने पूर्वी और पश्चिमी मोर्चों पर दुश्मन के ठिकानों, संचार साधनों और हथियार डिपो पर हमले किए। इस युद्ध में फ्लाइंग ऑफिसर (Flying Officer) निर्मल जीत सिंह सेखों को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया - यह भारतीय वायुसेना के लिए एकमात्र परमवीर चक्र है।

वायुसेना की तकनीकी प्रगति और वैश्विक हस्तक्षेप
1950 के दशक के अंत से वायुसेना में तकनीकी आधुनिकीकरण का दौर शुरू हुआ। डसॉल्ट मिस्टेरे 4th (Dassault Mistere IV), हॉकर्स हंटर (Hawkers Hunter) और इंग्लिश इलेक्ट्रिक कैनबरा (English Electric Canberra) जैसे लड़ाकू विमानों को शामिल किया गया। 1962 में भारत और सोवियत संघ के बीच रक्षा सौदों के तहत मिग-21 विमानों की खरीद की गई और भारत में इनका उत्पादन शुरू हुआ - जिसने वायुसेना को तकनीकी रूप से और सशक्त किया। इस दौरान वायुसेना ने संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भी भाग लिया, जैसे कि 1960 के दशक में कांगो में किया गया हस्तक्षेप। इन अभियानों से वायुसेना को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान मिली और उसकी प्रतिष्ठा वैश्विक स्तर पर स्थापित हुई। इस चरण में वायुसेना ने न केवल अपने संसाधनों का विस्तार किया, बल्कि रणनीतिक दृष्टिकोण में भी बदलाव लाया - जिससे पश्चिमी, पूर्वी और केंद्रीय एयर कमांड (Central Air Command) की स्थापना हुई।

कारगिल युद्ध और नई पीढ़ी की हवाई रणनीतियाँ
1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना ने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में शानदार प्रदर्शन किया। यह युद्ध समुद्र तल से 18,000 फीट ऊँचाई पर लड़ा गया था, जहाँ पारंपरिक वायु अभियानों की रणनीतियाँ लागू करना बेहद चुनौतीपूर्ण था। ऑपरेशन 'सफेद सागर' के तहत वायुसेना ने मिग-27 से बमबारी की, मिग-29 (MiG-29) और मिराज-2000 (Mirage-2000) विमानों ने हवाई समर्थन और निगरानी की भूमिकाएँ निभाईं। मिराज-2000 ने उच्च ऊँचाई पर अपनी सटीकता और ताकत का प्रदर्शन किया, जिससे पाकिस्तानी ठिकानों को भारी नुकसान पहुँचा। इस युद्ध ने सिद्ध किया कि भारतीय वायुसेना, तेज निर्णय क्षमता और उन्नत तकनीकी बल के दम पर, सीमित समय में भी निर्णायक परिणाम ला सकती है।
ऑपरेशन सिंदूर: सटीकता और साहस का प्रदर्शन
2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के जवाब में भारतीय वायुसेना ने ऑपरेशन 'सिंदूर' नामक एक व्यापक सैन्य कार्रवाई की। 8 से 10 मई के बीच की गई इस कार्रवाई में पाकिस्तान के 11 प्रमुख हवाई अड्डों को निशाना बनाया गया, जिनमें नूर खान (चकलाला), रफीकी, सर्गोधा, मुरिद, सुक्कुर, और जैकोबाबाद जैसे महत्वपूर्ण सैन्य अड्डे शामिल थे। इन हमलों में पाकिस्तान के ड्रोन युद्ध केंद्र, एयर डिफेंस सिस्टम (Air Defense System) और फाइटर जेट बेस (Fighter Jet Base) को गंभीर क्षति पहुँची। हर हमला सटीक था, और खास बात यह रही कि सभी भारतीय पायलट सुरक्षित लौटे। वायुसेना की यह कार्रवाई न केवल सैन्य बल का प्रदर्शन थी, बल्कि यह एक स्पष्ट संदेश भी थी कि भारत अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए हर आवश्यक कदम उठाने को तैयार है।
आज की वायुसेना: रणनीति, ताकत और भविष्य की उड़ान
वर्तमान में भारतीय वायुसेना न केवल भारत की हवाई सीमाओं की रक्षा करती है, बल्कि यह रणनीतिक शक्ति, मानवीय सहायता और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की दृष्टि से भी अत्यंत प्रभावशाली बन चुकी है। इसके पास 1500 से अधिक विमान हैं, जिसमें मिराज-2000, सुखोई-30 (Sukhoi-30), तेजस और राफेल (Raphael) जैसे आधुनिक लड़ाकू विमान शामिल हैं। इसके अलावा, एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल सिस्टम (anti-aircraft missile systems), रडार नेटवर्क (radar network), और ड्रोन स्क्वॉड्रन (drone squadron) जैसी प्रणालियाँ भी इसकी रणनीतिक ताकत को और अधिक प्रभावशाली बनाती हैं। लगभग 1.6 लाख कर्मियों के साथ, भारतीय वायुसेना एक ऐसा संगठन बन चुका है जो पारंपरिक युद्ध से लेकर महासागरीय निगरानी, प्राकृतिक आपदा राहत और अंतरिक्ष आधारित खतरों से निपटने तक पूरी तरह तैयार है। यह न केवल एक सैन्य संगठन है, बल्कि राष्ट्र के आत्मबल और उन्नति की उड़ान का प्रतीक भी है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/55fknyx5
https://tinyurl.com/mt9v5c3p
कैसे मुस्तफा महल ने मेरठ को बनाया नवाबी तहज़ीब और आज़ादी का संगम स्थल?
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
07-10-2025 09:16 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब हम अपने शहर की बात करते हैं, तो अक्सर खेल सामान, हथकरघा उद्योग या 1857 की क्रांति जैसी ऐतिहासिक घटनाओं को ही याद करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन सबके परे भी एक ऐसा इतिहास मौजूद है, जो न तो अख़बारों की सुर्खियों में आता है और न ही स्कूल की किताबों में? मुस्तफा महल - मेरठ कैंट के मध्य में खड़ी वह शाही इमारत, जो आज भी अतीत की गूंज अपने भीतर समेटे हुए है। यह महल महज़ एक भवन नहीं, बल्कि नवाबी शान, साहित्यिक चेतना और राजनीतिक उथल-पुथल की अद्भुत गवाही है। इसकी जालीदार खिड़कियों से जब धूप छनकर गलियारों में गिरती है, तो लगता है जैसे कोई पुरानी कहानी फिर से जीवित हो गई हो। इन झरोखों से झांकते कल्पनाओं के चेहरे मानो हमें उस समय में ले जाते हैं, जब बारीक कढ़ाईदार शेरवानी पहने नवाब अपनी बैठक में शायरी की महफ़िलें सजाया करते थे, जब हर दीवार पर उर्दू शेर टंगे होते थे और हर कोने में फ़व्वारों की मद्धम फुहारें गूंजती थीं। यह वही स्थान था जहां महज़ इश्क और अदब की नहीं, बल्कि आत्मबलिदान और राजनीतिक क्रांति की भी चर्चा होती थी। जब एक ही छत के नीचे मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लों की खुशबू और स्वतंत्रता संग्राम की रणनीतियों की गंभीरता एक साथ महसूस की जाती थी। महल की दीवारों ने जितनी कविता सुनी है, उतना ही प्रतिरोध भी महसूस किया है। आज, जब हम स्मार्ट सिटी (Smart City) बनने की ओर बढ़ रहे हैं, तब मुस्तफा महल हमें याद दिलाता है कि तकनीक और तरक्की के इस दौर में भी हमारी असल जड़ें उन्हीं दीवारों में छुपी हैं, जो कभी नवाब की कलम, कवि की कल्पना और देशभक्त की क्रांति का ठिकाना रही हैं। यह सिर्फ एक इमारत नहीं, बल्कि मेरठ की आत्मा का एक ठोस, जीवित प्रतीक है - जिसे देखना नहीं, समझना ज़रूरी है।
इस लेख में, हम जानेंगे कि कैसे मुस्तफा महल मेरठ के नवाबी अतीत का प्रतीक बन गया। सबसे पहले, हम देखेंगे इसके निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और नवाब इशाक खान की मंशा। फिर, हम नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता के जीवन और उनके साहित्यिक तथा राजनीतिक योगदान पर चर्चा करेंगे। उसके बाद, हम महल की अद्भुत वास्तुकला और अंदरूनी सजावट के बारे में विस्तार से बात करेंगे। इसके बाद हम जानेंगे कि यह महल स्वतंत्रता संग्राम और राजनीतिक आंदोलनों के लिए कैसे एक केंद्रीय स्थान बना। अंत में, हम देखेंगे कि आज के मेरठ में यह महल किस रूप में जीवित है और इसका सांस्कृतिक महत्व क्या है।

मेरठ के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मुस्तफा महल की समयरेखा और निर्माण का उद्देश्य
मेरठवासियों, जब हम अपने शहर के इतिहास को ध्यान से देखते हैं, तो यह साफ़ दिखता है कि यहाँ की हर ईंट में कोई न कोई कहानी दबी हुई है। ऐसी ही एक कथा है मुस्तफा महल की, जो न केवल स्थापत्य की दृष्टि से भव्य है, बल्कि यह भावनाओं और स्मृतियों का भी अद्भुत संगम है। इस महल का निर्माण 1896 से 1900 के बीच नवाब मोहम्मद इशाक खान द्वारा किया गया था, अपने पिता नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता की स्मृति में। यह कोई सामान्य इमारत नहीं थी। यह एक पुत्र का श्रद्धांजलि स्वरूप प्रेम था, जो 30 एकड़ की ऐतिहासिक ज़मीन पर खड़ा हुआ - वही ज़मीन, जहां 1857 की क्रांति के बाद उनके पिता को कैद किया गया था। इस भूमि को उन्होंने न केवल बदल दिया, बल्कि उसे नवाबी गौरव, मुगल विरासत और व्यक्तिगत भावना से सजाया। कहा जाता है कि इस महल की डिज़ाइन खुद इशाक खान ने तैयार की और उसके निर्माण में उन्होंने उन स्थापत्य कारीगरों की सहायता ली, जिन्हें सैन्य बैरकों और औपनिवेशिक भवनों का निर्माण करने में महारत थी। एक विशेष बात यह है कि इस महल के निर्माण में मक्का से लाई गई मिट्टी का भी उपयोग हुआ - एक ऐसा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संकेत, जो दर्शाता है कि यह महल किसी ईंट-पत्थर का ढांचा भर नहीं, बल्कि आस्था और आदर का पवित्र स्थल भी था। आज, यह महल मेरठ की गूढ़ ऐतिहासिक परंपरा में एक अमिट छवि बन चुका है।

नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता का जीवन, साहित्यिक योगदान और स्वतंत्रता संग्राम से संबंध
नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता की ज़िन्दगी महज़ एक नवाब की नहीं थी, बल्कि एक ऐसे विचारशील व्यक्ति की थी, जिसने उर्दू साहित्य, संस्कृति और राष्ट्रवाद को एक साथ जिया। वे केवल एक राजसी परिवार के उत्तराधिकारी नहीं थे, बल्कि मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे दिग्गज शायर के अभिन्न मित्र भी थे। उनके काव्य में प्रेम, करुणा और जागृति का ऐसा समावेश था, जिसने उस समय की पूरी उर्दू दुनिया को प्रभावित किया। उनके दादा इस्माइल बेग मुग़ल सेना के कमांडर-इन-चीफ़ (Commander-in-Chief) थे, और इस तरह उनका पारिवारिक इतिहास भी मुग़ल दरबार की बहादुरी और सैन्य परंपराओं से भरा था। नवाब शेफ्ता की पहचान एक राष्ट्रप्रेमी विचारक की थी, जिसने 1857 की क्रांति में अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ लेखनी और भावना से संघर्ष किया। परिणामस्वरूप, उन्हें सात वर्षों की कठोर कारावास भुगतनी पड़ी - और यही जेल, बाद में मुस्तफा महल की भूमि बनी। उन्होंने ग़ालिब जैसे कवियों को संरक्षित किया, साहित्य को संरचित किया और साथ ही स्वतंत्रता की भावना को शब्दों में ढाला। उनका जीवन एक ऐसी कविता था, जो स्वतंत्रता, साहस और संस्कृति के छंदों में बसी हुई है। मुस्तफा महल, उनके सम्मान में बना स्मारक नहीं, बल्कि उनकी आत्मा का भौतिक स्वरूप है - जो आज भी नवाबों की तहज़ीब, अदब और राष्ट्रीयता की भावना को जीवंत रखता है।
स्थापत्य विशेषताएं: मुस्तफा महल की मिश्रित शैली और अंदरूनी शिल्प सौंदर्य
मुस्तफा महल, वास्तुकला का एक ऐसा जीवित नमूना है, जो समय को थामे हुए खड़ा है। नवाब इशाक खान ने इसे महज़ एक भवन के रूप में नहीं देखा, बल्कि एक कल्पनाशील कैनवस के रूप में गढ़ा, जिसमें यूरोपीय संयम, राजस्थानी रंग, और अवध की नफ़ासत का सामंजस्य बख़ूबी देखा जा सकता है। महल का हर एक कक्ष एक कहानी कहता है। रंगों के नाम पर रखे गए कमरे - जैसे ‘गुलाबी महल’, ‘बसंती कमरा’, ‘नीला कक्ष’ - मौसमों के अनुसार उपयोग में लाए जाते थे, जिससे यह साफ़ झलकता है कि वास्तुकला और जीवनशैली के बीच एक गहरा जुड़ाव था। अंदरूनी सजावट में पेंडुलम घड़ियाँ, झूमर, अलंकृत फर्नीचर (Ornate Furniture), इंग्लैंड से आयातित लकड़ी की अलमारियाँ, ड्रेसिंग टेबल (Dressing Table) और दुर्लभ कलाकृतियाँ शामिल थीं। महल के गलियारों में आज भी जैसे सरसराते घरारों की गूंज सुनाई देती है, और झरोखों के पीछे से झांकते हुए चेहरे जैसे अपने बीते ज़माने की कहानियाँ दोहराते हैं। बाग़-बगिचों के बीच से बहती फव्वारों की ध्वनि, महल की सजीवता को और भी बढ़ा देती है। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह महल केवल एक इमारत नहीं, बल्कि एक समय विशेष की समृद्ध और कलात्मक चेतना का प्रतिनिधित्व करता है।

मुस्तफा महल का राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व: आज़ादी की गतिविधियों का गढ़
मुस्तफा महल का राजनीतिक महत्व उसके स्थापत्य सौंदर्य जितना ही प्रभावशाली है। स्वतंत्रता संग्राम के समय यह स्थान एक जीवंत केंद्र बन गया, जहां विचारों का आदान-प्रदान, गोपनीय बैठकें और राष्ट्रीय रणनीतियाँ गढ़ी जाती थीं। नवाब इशाक खान, एक सजग राजनीतिज्ञ और राष्ट्रप्रेमी थे, जिन्होंने इस महल को क्रांतिकारियों का सुरक्षित ठिकाना बना दिया। मुस्लिम लीग (Muslim League) की बैठकें, खिलाफत आंदोलन की विचार गोष्ठियाँ, और देशभर से आए स्वतंत्रता सेनानियों की योजनाएं इसी महल की दीवारों में तय होती थीं। यह स्थान एक ऐसा सांस्कृतिक और राजनीतिक मंच बन गया था, जहां काव्य, क्रांति और कूटनीति एक साथ सांस लेते थे। मुस्तफा महल की दीवारें महज़ सजावटी नहीं थीं - वे उन विचारों की गूंज थीं, जो एक स्वतंत्र भारत की नींव डाल रही थीं। यह महल, मेरठ के इतिहास में वह अध्याय है, जो संस्कृति और संघर्ष दोनों को समेटे हुए है।
आज के संदर्भ में मुस्तफा महल: नवाबी विरासत का जीवित प्रतीक
आज, जब मेरठ स्मार्ट सिटी की दिशा में तेज़ी से बढ़ रहा है, तब मुस्तफा महल जैसे ऐतिहासिक स्थल हमें याद दिलाते हैं कि आधुनिकता और विरासत का संतुलन कितना आवश्यक है। यह महल आज भी पूर्णता के साथ खड़ा है - नवाबी विरासत की गरिमा और राष्ट्रवादी चेतना का प्रतीक बनकर। मुस्तफा महल न केवल पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है, बल्कि मेरठ की सांस्कृतिक आत्मा का एक अमिट हिस्सा भी है। यह वह स्थल है जहां बीते युग की गूंज, वर्तमान की पहचान और भविष्य की प्रेरणा एक साथ समाहित है। नई पीढ़ी के लिए यह महल महज़ ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि यह बताता है कि एक परिवार की विरासत कैसे पूरे शहर की सांस्कृतिक धरोहर बन सकती है। यह दर्शाता है कि ऐतिहासिक स्मारक सिर्फ देखने की चीज़ नहीं, समझने और संभालने की ज़िम्मेदारी भी होते हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/4nsmzrat
https://tinyurl.com/3p5tf37x
मेरठवासियों, ऑनलाइन प्यार अब भरोसे का नहीं, साइबर ठगी का नया जाल बन चुका है!
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
06-10-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, डिजिटल इंडिया (Digital India) के इस युग में जहां तकनीक ने हमारे रिश्तों को नई रफ्तार दी है, वहीं इसके साथ कई ऐसे अनदेखे खतरे भी जन्मे हैं जो सीधे हमारे भरोसे, भावनाओं और जेब पर हमला करते हैं। आज सोशल मीडिया (Social Media), इंस्टाग्राम (Instagram), व्हाट्सएप (WhatsApp) या ऑनलाइन डेटिंग ऐप्स (Online Dating Apps) के ज़रिए दोस्ती और प्रेम संबंधों की शुरुआत करना बेहद सामान्य हो गया है। लेकिन क्या ये हर बार उतने ही मासूम होते हैं जितने दिखते हैं? मेरठ जैसे विकसित होते शहर में, जहां युवा पीढ़ी टेक्नोलॉजी (Technology) से कदम मिलाकर चल रही है, वहीं बुज़ुर्गों में भी इंटरनेट (Internet) का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। पर इसी बढ़ती डिजिटल सक्रियता के बीच, ऑनलाइन रोमांस स्कैम (Online Romance Scam) का खतरा भी लगातार गहराता जा रहा है। ये धोखाधड़ी सिर्फ आर्थिक नुकसान नहीं पहुंचाती, बल्कि व्यक्ति के आत्म-सम्मान, मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक प्रतिष्ठा को भी गहरा आघात देती है। कभी कोई खूबसूरत प्रोफाइल (profile) बनाकर, तो कभी भावनात्मक कहानियाँ सुनाकर - स्कैमर (scammer) आपके भरोसे को हथियार बनाते हैं और धीरे-धीरे आपको ऐसे जाल में फंसा लेते हैं जिससे निकलना बेहद मुश्किल हो जाता है। इस लेख में हम समझेंगे कि ऑनलाइन रोमांस स्कैम क्या होता है, यह कैसे काम करता है, कोविड-19 (Covid-19) के बाद इसमें इतनी तेज़ी क्यों आई, स्कैमर्स किन तरीकों से आपको जाल में फँसाते हैं, और सबसे अहम - हम मेरठवासियों को इससे कैसे सतर्क रहना चाहिए और खुद को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले समझेंगे कि ऑनलाइन रोमांस स्कैम किस प्रकार कार्य करता है और जालसाज अपने शिकार को कैसे फंसाते हैं। फिर हम देखेंगे कि कोविड-19 के दौर में ऐसे घोटालों में अचानक बढ़ोतरी क्यों हुई। इसके बाद हम जानेंगे कि डेटिंग ऐप्स और सोशल मीडिया पर सबसे आम ठगी के तरीके क्या हैं। फिर हम भारत में लोगों, खासकर युवाओं की डेटिंग ऐप्स को लेकर बढ़ती सतर्कता और व्यवहार पर बात करेंगे। अंत में, आप सीखेंगे कि इन स्कैम्स से कैसे बचा जा सकता है, और कौन-कौन सी आसान साइबर (Cyber) सुरक्षा तकनीकें आपको ऑनलाइन सुरक्षित रख सकती हैं।

ऑनलाइन रोमांस स्कैम क्या है और यह कैसे काम करता है?
ऑनलाइन रोमांस स्कैम आज के डिजिटल युग का सबसे खतरनाक भावनात्मक और वित्तीय फंदा बन चुका है। इसका मूल उद्देश्य है - किसी व्यक्ति के साथ नकली भावनात्मक रिश्ता बनाकर उसे आर्थिक रूप से लूटना। आमतौर पर स्कैमर इंटरनेट से किसी सुंदर व्यक्ति की तस्वीर चुरा कर आकर्षक प्रोफाइल बनाते हैं, जिसमें खुद को अकेला, भावनात्मक और भरोसेमंद दिखाया जाता है। उनका पहला लक्ष्य होता है - बातचीत की शुरुआत करके सामने वाले का भरोसा जीतना, और धीरे-धीरे उन्हें भावनात्मक रूप से अपने साथ बाँधना। यह प्रक्रिया हफ्तों या महीनों तक खिंच सकती है, जिसमें वे प्यार भरे मैसेज (message), कॉल्स (calls) और साथ में जीवन बिताने के सपने दिखाते हैं। एक बार जब भरोसा मजबूत हो जाता है, तो शुरू होता है असली खेल - वे किसी आपातकाल का बहाना बनाते हैं। जैसे - “मेरा बच्चा अस्पताल में है”, “मुझे वीजा की दिक्कत है”, या “मैं तुमसे मिलने आना चाहता हूँ लेकिन टिकट के पैसे नहीं हैं।” चूंकि सामने वाला व्यक्ति पहले से ही भावनात्मक रूप से जुड़ चुका होता है, इसलिए बिना ज्यादा जांच के पैसे भेज देता है। इस तरह की ठगी अक्सर महीनों और कभी-कभी वर्षों तक भी चल सकती है। अंततः जब पीड़ित को सच का पता चलता है, तब तक वह न केवल आर्थिक रूप से टूट चुका होता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी बुरी तरह आहत होता है।
कोविड-19 और रोमांस स्कैम में अचानक आई वृद्धि के मुख्य कारण
कोविड-19 के दौरान, जब पूरी दुनिया लॉकडाउन (lockdown) में कैद थी, तब लोगों के बीच का शारीरिक संपर्क लगभग खत्म हो गया था। इस अलगाव और अकेलेपन ने सोशल मीडिया और डेटिंग ऐप्स को एकमात्र सामाजिक सहारा बना दिया था। कई लोग, खासकर युवा, इन प्लेटफॉर्म्स पर सच्चे रिश्तों की तलाश में आ गए। यही वह समय था जब स्कैमर्स ने इन परिस्थितियों का भरपूर फायदा उठाया। ‘यूएस फेडरल ट्रेड कमिशन’ (US Federal Trade Commission) के अनुसार, केवल 2021 में रोमांस स्कैम से $547 मिलियन की ठगी दर्ज हुई - यह आंकड़ा 2020 की तुलना में 80% अधिक था। इतना ही नहीं, 18 से 29 वर्ष की उम्र के युवाओं में इन मामलों की संख्या दस गुना तक बढ़ गई। स्कैमर्स ने वर्चुअल रिश्तों (virtual relationships) के प्रति बढ़ती निर्भरता को अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया। लोगों ने अपने अकेलेपन को भरने के लिए जिन ऐप्स पर भरोसा किया था, वही उनके नुकसान का कारण बन गए। जब भावनाएं हावी हो जाती हैं और सोचने की शक्ति कम हो जाती है, तब स्कैमर अपना जाल फैलाते हैं और शिकार को अपनी चाल में फंसा लेते हैं।

डेटिंग ऐप्स पर सबसे आम धोखाधड़ी के तरीके और भुगतान माध्यम
स्कैमर्स हमेशा ऐसे तरीके अपनाते हैं जिनमें पैसा मिलते ही उनका पीछा करना लगभग असंभव हो जाता है। सबसे पहले आता है वायर ट्रांसफ़र (Wire Transfer), जिसमें पैसा एक बार भेज देने के बाद वापस पाना लगभग नामुमकिन होता है। यह तरीका स्कैमर्स को तेज़ी से धन प्राप्त करने का आसान रास्ता देता है। दूसरा आम तरीका है गिफ़्ट कार्ड्स (Gift Cards)। स्कैमर पीड़ित से कहते हैं कि वह किसी दुकान से गिफ़्ट कार्ड खरीदे और उसका कोड भेज दे - एक बार कोड भेज दिया गया तो पैसा गायब। एक और तरीका है रिलोडेबल डेबिट कार्ड्स (Reloadable Debit Cards), जिनका उपयोग बार-बार किया जा सकता है। स्कैमर्स पहले मामूली राशि की मांग करते हैं और फिर कहते हैं कि कार्ड रिचार्ज नहीं हो रहा है - कृपया और पैसा भेजिए। इससे पहले कि पीड़ित कुछ समझे, वह हज़ारों रुपये गवां चुका होता है। अब क्रिप्टोकरेंसी (Cryptocurrency) भी इस सूची में शामिल हो गई है, जिसमें नकली निवेश योजनाएँ दिखाकर पीड़ित को लुभाया जाता है। स्कैमर्स अक्सर किसी आपात स्थिति की कहानी गढ़ते हैं - “मेरी मां बीमार है”, “मैं आर्मी में हूं, छुट्टी नहीं मिल रही”, या “मुझे मिलने आना है लेकिन टिकट का पैसा नहीं है।” ये कहानियाँ इतनी भावुक होती हैं कि इंसान सहानुभूति में आकर अपनी गाढ़ी कमाई भी बिना सोचे दे देता है।

भारत में डेटिंग ऐप्स को लेकर लोगों की सतर्कता और व्यवहार
भारत में इंटरनेट यूज़र्स की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन इसके साथ ही बढ़ रही है जागरूकता और सतर्कता। खासतौर से डेटिंग ऐप्स को लेकर अब भारतीयों का दृष्टिकोण पहले से ज्यादा व्यावहारिक हो गया है। एक वैश्विक साइबर सुरक्षा कंपनी कैस्परस्की (Kaspersky) की रिपोर्ट के अनुसार, 34% भारतीय यूज़र्स डेटिंग ऐप्स से दूर रहते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि कहीं वो धोखा न खा जाएं। लगभग 43% लोग किसी भी अजनबी पर भरोसा नहीं करते, खासकर तब जब ऑनलाइन रिश्ता नए-नए शुरू हुआ हो। इस रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि जिन लोगों ने स्कैम का सामना किया, उनमें से 42% ने समय रहते नकली प्रोफाइल को पहचान लिया, और 48% ने पैसे भेजने से इंकार कर दिया। 37% लोग तब चौकन्ने हुए जब उन्हें असामान्य या अजीब मैसेज मिलने लगे। वहीं 29% लोगों को तब शक हुआ जब सामने वाला बार-बार वीडियो कॉल (Video Call) से बचता रहा। यह आंकड़े यह दिखाते हैं कि भारत में डिजिटल जागरूकता बढ़ रही है। लोग अब केवल भावनाओं से नहीं, दिमाग से भी काम ले रहे हैं - और यही सतर्कता उन्हें ऑनलाइन चूना खाने से बचा सकती है।
ऑनलाइन डेटिंग स्कैम से बचने के लिए प्रभावी साइबर सुरक्षा उपाय
ऑनलाइन दुनिया जितनी दिलचस्प और आकर्षक है, उतनी ही खतरनाक भी हो सकती है। सुरक्षित रहने के लिए हमें कुछ आसान लेकिन बेहद ज़रूरी आदतें अपनानी चाहिए। सबसे पहले, अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स (accounts) को हमेशा प्राइवेट (private) रखें ताकि आपकी प्रोफ़ाइल और पोस्ट (post) सिर्फ़ भरोसेमंद दोस्तों तक ही सीमित रहें। यह छोटी-सी सावधानी आपको स्कैमर्स और अनजान लोगों की नज़रों से बचा सकती है। दूसरी अहम बात यह है कि अजनबी फ्रेंड रिक्वेस्ट (friend request) को लेकर कभी भी लापरवाह न हों, क्योंकि हर दोस्ती भरोसे के लायक नहीं होती और कई बार ठग नकली प्रोफ़ाइल बनाकर लोगों से जुड़ने की कोशिश करते हैं। साथ ही, अपने मोबाइल और कंप्यूटर में मज़बूत सिक्योरिटी सॉफ़्टवेयर (Security Software) रखें और उसे नियमित रूप से अपडेट करते रहें, ताकि वायरस (Virus), रैंसमवेयर (Ransomware) और फिशिंग (Phishing) जैसे खतरों से सुरक्षा मिल सके। लेकिन सबसे ज़रूरी बात यह है कि किसी अनजान व्यक्ति को कभी भी पैसे न भेजें, चाहे उसकी कहानी कितनी भी इमरजेंसी वाली क्यों न लगे। अगर कोई व्यक्ति बार-बार वीडियो कॉल से बच रहा है या बहाने बना रहा है, तो यह साफ़ संकेत है कि कुछ गड़बड़ है। सच तो यह है कि डिजिटल दुनिया में सुरक्षित रहने का असली मंत्र सिर्फ़ एक है - सतर्कता और समझदारी।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/27xakb3s
मेरठवासियों, क्या आपने कभी भीमपलासी की रागात्मक शाम को महसूस किया है?
ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
Sound I - Vibration to Music
05-10-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

राग भीमपलासी भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक अत्यंत मधुर और आत्मीय राग है, जिसे आमतौर पर संध्या के समय गाया जाता है। यह राग 'काफी' थाट से जुड़ा हुआ है और इसकी विशेषता यह है कि इसके आरोह में कुछ स्वरों का संयमित प्रयोग होता है, जबकि अवरोह में सातों स्वर सम्मिलित होते हैं। अवरोह में विशेषकर रिषभ और धैवत स्वर पर ठहरने की अपेक्षा नहीं की जाती, लेकिन यदि पंचम और षड्ज़ के साथ रिषभ और धैवत को कण स्वर के रूप में प्रस्तुत किया जाए तो राग की सुंदरता और बढ़ जाती है।
भीमपलासी में षड्ज-मध्यम तथा पंचम-गंधार स्वर जोड़कर मींड का विशेष प्रयोग होता है। जब गायक निषाद का प्रयोग करता है, तो ऊपर की श्रुति में गाया गया कोमल निषाद रियाज़ की गहराई को दर्शाता है। यह राग पूर्वांग प्रधान होता है, यानी इसका विकास राग के पहले हिस्से में प्रमुख रूप से होता है, और इसका विस्तार तीनों सप्तकों में सहज रूप से किया जा सकता है। भावनात्मक दृष्टि से भी यह राग अत्यंत गूढ़ और गम्भीर प्रकृति का माना जाता है। इसमें श्रृंगार रस और भक्ति भाव दोनों की प्रबल उपस्थिति होती है। इस राग में ध्रुपद, ख्याल, तराना जैसी शास्त्रीय रचनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं। कर्नाटक संगीत में 'आभेरी' राग को इसकी समकक्षता दी जाती है। वहीं काफी थाट का ही एक और राग - धनाश्री - भीमपलासी से साम्य रखता है, हालांकि उसमें वादी स्वर पंचम होता है, जबकि भीमपलासी में मध्यम।
संदर्भ-
https://shorturl.at/DDtN9
https://shorturl.at/ohWob
https://shorturl.at/2wA57
मेरठवासियो, जानिए बाढ़ के असली कारण, इसके असर और बचाव के उपाय
नदियाँ
Rivers and Canals
04-10-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, आपने अक्सर टीवी पर या अख़बारों में बाढ़ की तबाही की भयावह तस्वीरें देखी होंगी। कहीं गाँव के गाँव पानी में समा जाते हैं, तो कहीं लोग अपनी ज़िंदगी की सारी जमा-पूँजी - घर, खेत, पशुधन - सबकुछ खो बैठते हैं। सोचिए, जिस घर में सालों की मेहनत से ईंट-ईंट जोड़कर दीवारें खड़ी की गई हों, वो कुछ ही घंटों में पानी के तेज़ बहाव से बह जाए, तो इंसान पर कैसी विपत्ति आती होगी। सड़कों और पुलों का टूट जाना सिर्फ़ यातायात को नहीं रोकता, बल्कि राहत और बचाव कार्य को भी बेहद कठिन बना देता है। सबसे बड़ा दर्द तब होता है, जब लोग अपने ही गाँव-घर छोड़कर ऊँचाई पर बने अस्थायी शिविरों में शरण लेने को मजबूर हो जाते हैं। बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, बुज़ुर्ग दवाइयों से दूर हो जाते हैं और पूरे परिवार का जीवन असुरक्षा और चिंता से भर जाता है। लेकिन मेरठवासियो, यह समझना बहुत ज़रूरी है कि बाढ़ सिर्फ़ पानी भर जाने की साधारण घटना नहीं होती। यह एक गंभीर प्राकृतिक आपदा है, जिसका असर हमारे जीवन, समाज और पर्यावरण पर गहरा और लंबे समय तक रहता है। कभी यह प्रकोप प्रकृति की शक्तियों से आता है - जैसे मूसलाधार बारिश, बर्फ़ और हिमनदों का तेज़ी से पिघलना या समुद्री चक्रवात और सुनामी। तो कभी यह हमारी अपनी लापरवाहियों का नतीजा भी होता है - जैसे बेतहाशा शहरीकरण, नालियों और नदियों पर अतिक्रमण, वनों की अंधाधुंध कटाई और जलवायु परिवर्तन को नज़रअंदाज़ करना। यही वजह है कि मामूली-सी बारिश भी कई बार बड़े शहरों में जलभराव और शहरी बाढ़ का कारण बन जाती है।
आज हम इस लेख में सबसे पहले हम यह जानेंगे कि बाढ़ की परिभाषा क्या है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे कैसे देखा जाता है। इसके बाद हम यह समझेंगे कि बाढ़ आने के पीछे कौन-कौन से प्राकृतिक और मानवीय कारण ज़िम्मेदार होते हैं। फिर हम बाढ़ के विभिन्न प्रकार और उनकी विशेषताओं पर चर्चा करेंगे, ताकि यह साफ़ हो सके कि अलग-अलग क्षेत्रों में बाढ़ किस रूप में सामने आती है। अगले भाग में हम देखेंगे कि बाढ़ का असर स्वास्थ्य, समाज और पर्यावरण पर किस तरह पड़ता है। इसके बाद हम बाढ़ नियंत्रण और रोकथाम की रणनीतियों के बारे में जानेंगे। और अंत में, हम यह समझेंगे कि बाढ़ के समय कौन-कौन सी सावधानियाँ अपनानी चाहिए, ताकि नुकसान को कम किया जा सके और जीवन को सुरक्षित रखा जा सके।
बाढ़ की परिभाषा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
बाढ़ केवल पानी का इकट्ठा होना नहीं है, बल्कि यह एक जटिल प्राकृतिक आपदा है। सरल भाषा में, जब किसी नदी, झील या जलस्रोत का पानी अपने किनारों को पार कर आसपास की ज़मीन और बस्तियों को डुबो देता है, तो इसे बाढ़ कहा जाता है। वैज्ञानिक रूप से बाढ़ की स्थिति का पता लगाने के लिए हर नदी पर दो स्तर तय किए जाते हैं - चेतावनी स्तर (Warning Level) और ख़तरे का स्तर (Danger Level)। जैसे ही पानी चेतावनी स्तर पर पहुँचता है, प्रशासन को चौकसी बरतनी पड़ती है, और ख़तरे का स्तर पार करते ही स्थिति गंभीर मानी जाती है। इसे “फ्लड स्टेज” (Flood Stage) भी कहा जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, बाढ़ केवल जलभराव की समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज की आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक क्षमता की परीक्षा भी है। यानी बाढ़ तब ही आपदा बनती है जब कोई इलाक़ा अचानक आई जल-स्थिति को संभाल नहीं पाता।

बाढ़ के प्रमुख प्राकृतिक और मानवीय कारण
बाढ़ कई कारणों से आती है और इन्हें मुख्य रूप से दो वर्गों में बाँटा जा सकता है - प्राकृतिक कारण और मानवजनित कारण।
- प्राकृतिक कारणों में सबसे अहम है भारी वर्षा। जब किसी क्षेत्र में लगातार मूसलाधार बारिश होती है और ज़मीन या नदी उसे सँभाल नहीं पाती, तो बाढ़ की स्थिति बन जाती है। हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर (glacier) और बर्फ़ के तेजी से पिघलने से भी नदियों का जलस्तर अचानक बढ़ जाता है। कई बार बाँध, बैराज या लीवी टूट जाते हैं और लाखों लीटर पानी पलभर में आसपास के क्षेत्र को डुबा देता है। तटीय क्षेत्रों में चक्रवात और सुनामी जैसे समुद्री तूफ़ान बाढ़ का बड़ा कारण बनते हैं।
- मानवजनित कारणों में सबसे अहम है अनियंत्रित शहरीकरण। जैसे-जैसे शहरों का विस्तार होता है, प्राकृतिक जलनिकासी मार्ग नष्ट हो जाते हैं। सड़क, सीमेंट (cement) और कंक्रीट (concrete) की सतह पानी को सोखने नहीं देती, जिससे मामूली बारिश भी शहरी बाढ़ का रूप ले लेती है। वनों की अंधाधुंध कटाई से नदियों में गाद भर जाती है और उनका प्रवाह बाधित होता है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन भी अब बाढ़ के पैटर्न (pattern) को और अनिश्चित और खतरनाक बना रहा है - कभी अचानक बारिश, तो कभी असामान्य मौसमी बदलाव।

बाढ़ के प्रकार और उनकी विशेषताएँ
बाढ़ कई रूपों में आती है और हर प्रकार की अपनी विशिष्टताएँ होती हैं:
- नदी बाढ़: यह तब होती है जब नदियों में जलप्रवाह उनकी क्षमता से ज़्यादा हो जाता है। लगातार बारिश या पहाड़ी इलाक़ों से पानी के तेज़ बहाव के कारण नदी किनारे के गाँव और शहर जलमग्न हो जाते हैं।
- तटीय बाढ़: समुद्री तूफ़ानों, चक्रवातों या सुनामी की वजह से समुद्र का जलस्तर बढ़कर ज़मीन पर फैल जाता है। यह विशेषकर भारत के तटीय इलाक़ों जैसे ओडिशा और आंध्र प्रदेश में देखने को मिलती है।
- फ़्लैश फ़्लड (Flash Flood): इसे अचानक और तेज़ बाढ़ कहा जाता है। यह आमतौर पर क्लाउडबर्स्ट (Cloudburst) यानी बादल फटने के कारण होती है और कुछ ही मिनटों में पूरा इलाक़ा डूब जाता है।
- शहरी या सीवर (Sewer) बाढ़: शहरों में तब आती है जब ड्रेनेज सिस्टम (Drainage System) भारी बारिश को सँभाल नहीं पाता। दिल्ली, मुंबई या बेंगलुरु जैसे शहरों में अक्सर यह समस्या देखी जाती है।
- भूजल आधारित बाढ़: जब लगातार लंबे समय तक बारिश होती है और ज़मीन पानी से संतृप्त हो जाती है, तो भूजल सतह पर आने लगता है।
- आइस-जैम (Ice-Jam) बाढ़: ठंडे क्षेत्रों में जब बर्फ़ नदी के प्रवाह को रोक देती है और अचानक पिघलने पर पानी तेज़ी से बह निकलता है।
हर प्रकार की बाढ़ अपने साथ अलग-अलग तरह के नुकसान और चुनौतियाँ लेकर आती है।
बाढ़ के प्रभाव: स्वास्थ्य, समाज और पर्यावरण
बाढ़ के असर बहुआयामी होते हैं और यह सिर्फ़ पानी में डूबने तक सीमित नहीं है।
- स्वास्थ्य पर असर: जब घर और गलियाँ गंदे पानी से भर जाती हैं, तो डायरिया (diarrhea), हैज़ा, त्वचा रोग और मलेरिया (malaria) जैसी बीमारियाँ फैलती हैं। कई बार लोग लंबे समय तक तनाव, अवसाद और मानसिक समस्याओं से भी जूझते हैं।
- समाज और इन्फ्रास्ट्रक्चर (infrastructure) पर असर: सड़कें टूट जाती हैं, पुल बह जाते हैं, बिजली और संचार व्यवस्था ठप हो जाती है। हज़ारों परिवार बेघर हो जाते हैं और उन्हें राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ती है।
- कृषि और पशुधन पर असर: खेतों की फसलें पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं, जिससे किसानों की आर्थिक हालत बिगड़ती है। मवेशी बह जाते हैं या बीमार पड़ जाते हैं।
- पर्यावरण पर असर: जंगलों का नुकसान होता है, वन्यजीव अपने प्राकृतिक आवास से विस्थापित हो जाते हैं और नदियाँ गाद व प्रदूषण से भर जाती हैं। हालाँकि, एक सकारात्मक पहलू यह है कि बाढ़ के बाद खेतों में उर्वर सिल्ट (fertile silt) जम जाती है और भूजल स्तर रिचार्ज (recharge) हो जाता है, जिससे अगले सीज़न (season) में खेती को फ़ायदा मिल सकता है।

बाढ़ नियंत्रण और रोकथाम की रणनीतियाँ
बाढ़ को पूरी तरह रोकना मुश्किल है, लेकिन इसके नुकसान को कम करने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं।
- इंजीनियरिंग (Engineering) उपाय: बाँध, तटबंध, चेक डैम (Check Dam) और नदियों के चैनल को चौड़ा करने जैसे उपाय बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।
- शहरी समाधान: शहरों में परमेएबल सतह (Permeable Surface - ऐसी ज़मीन जो पानी सोख ले), ग्रीन रूफ़ और मज़बूत ड्रेनेज सिस्टम बनाए जाने चाहिए ताकि बारिश का पानी जमा न हो।
- तकनीकी उपाय: फ़्लड वार्निंग सिस्टम (Flood Warning System), सैटेलाइट मॉनिटरिंग (Satellite Monitoring) और रिस्क मैपिंग (Risk Mapping) से प्रशासन को पहले से चेतावनी मिल जाती है, जिससे नुकसान को कम किया जा सकता है।
- सामुदायिक भागीदारी: आपदा प्रबंधन योजनाएँ, राहत केंद्र, मॉक ड्रिल्स (Mock Drill) और सामुदायिक प्रशिक्षण बाढ़ के समय लोगों को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं।
इन सभी उपायों का संयुक्त रूप ही किसी क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षित रखने में मदद कर सकता है।
बाढ़ के समय अपनाई जाने वाली सावधानियाँ
बाढ़ से बचने के लिए व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर कुछ सावधानियाँ बेहद ज़रूरी हैं।
- बाढ़ से पहले: ज़रूरी दस्तावेज़, दवाइयाँ और भोजन पैक करके सुरक्षित जगह पर रखें। घर को बिजली और गैस सप्लाई से अलग कर दें।
- बाढ़ के दौरान: सबसे पहले सुरक्षित ऊँची जगह पर पहुँचें। कभी भी बाढ़ के पानी में चलने या गाड़ी चलाने की कोशिश न करें। बिजली के खंभों और तारों से दूर रहें। प्रशासन द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करें।
- बाढ़ के बाद: जब पानी उतर जाए तो बिना आधिकारिक अनुमति के घर में प्रवेश न करें। सफ़ाई करते समय दस्ताने और मास्क पहनें। खाने-पीने की वस्तुओं को उबालकर या शुद्ध करके ही इस्तेमाल करें। मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें, क्योंकि बाढ़ का असर लंबे समय तक रह सकता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/22px89ke
https://tinyurl.com/yc4r8cch
https://tinyurl.com/2p9nwet3
https://tinyurl.com/bdhmxwn7
मेरठ की सुबह में घुलती कॉफ़ी की ख़ुशबू: एक बीज से वैश्विक ब्रांड तक की कहानी
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
03-10-2025 09:23 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब आप अपनी सुबह की शुरुआत एक कप गरम कॉफ़ी (coffee) के साथ करते हैं, तो वह सिर्फ़ एक पेय नहीं होता - वह एक पूरी यात्रा की शुरुआत होती है। यह यात्रा शुरू होती है 17वीं सदी में, एक सूफ़ी संत की चुपचाप की गई कोशिश से, और आज पहुँचती है आपके शहर के किसी कोज़ी कैफ़े (cozy cafe), किसी स्टाइलिश ऑफिस ब्रेक एरिया (stylish office break area) या फिर आपके घर के आरामदायक कोने तक। कॉफ़ी का वह प्याला जो आज आपके हाथ में है, उसकी खुशबू में इतिहास की कहानियाँ, व्यापारिक क्रांति और सामाजिक बदलाव की परछाइयाँ समाई हुई हैं। मेरठ जैसे शहर, जहाँ युवा सोच और पुरातन परंपराएँ एक साथ सांस लेती हैं, वहाँ कॉफ़ी का सफ़र किसी कहानी से कम नहीं। बाबा बुधान की दूरदृष्टि से शुरू होकर यह बीज दक्षिण भारत की मिट्टी में फला-फूला, और ब्रिटिश राज (British Rule) के दौरान एक वाणिज्यिक फ़सल के रूप में विकसित हुआ। फिर समय ने करवट ली और इरानी कैफ़े (Irani cafe), इंडियन कॉफ़ी हाउस (Indian Coffee House), और बाद में कैफ़े कॉफ़ी डे (Cafe Coffee Day) जैसे ब्रांड्स (brands) ने भारत में ‘कैफ़े कल्चर’ को जन्म दिया - एक ऐसा स्थान जहाँ कॉफ़ी के साथ-साथ विचार भी पकते हैं। आज जब आप मेरठ की गलियों में किसी कैफ़े के सामने से गुज़रते हैं, तो वह कॉफ़ी की महक सिर्फ़ स्वाद की नहीं, उस ऐतिहासिक यात्रा की भी है, जिसने भारत को वैश्विक कॉफ़ी मानचित्र पर एक मज़बूत स्थान दिलाया। यह कहानी स्वाद से कहीं ज़्यादा है - यह कहानी है साहस, संस्कृति और संवाद की।
आज हम जानेंगे कि भारत में कॉफ़ी की शुरुआत कैसे हुई और इसमें बाबा बुधान जैसे महान व्यक्तित्व की क्या भूमिका रही। फिर, हम विस्तार से समझेंगे कि कॉफ़ी की खेती भारत में कैसे विकसित हुई और दक्षिण भारत के किन क्षेत्रों में इसका विस्तार हुआ। इसके बाद, हम भारत में कैफ़े संस्कृति के शुरुआती इतिहास पर नज़र डालेंगे और देखेंगे कि कैसे इरानी कैफ़े और इंडियन कॉफ़ी हाउस ने सामाजिक जीवन को प्रभावित किया। इसके साथ ही हम आधुनिक कैफ़े संस्कृति में आए बदलाव और वैश्विक ब्रांड्स जैसे स्टारबक्स (Starbucks), सीसीडी (CCD), डंकिन (Dunkin) आदि के प्रभाव को भी देखेंगे। इसके बाद, हम भारत की वैश्विक कॉफ़ी उत्पादन में स्थिति को समझेंगे और यह जानेंगे कि भारत कैसे दुनिया के प्रमुख कॉफ़ी उत्पादक देशों में शामिल हुआ। अंत में, हम कुछ प्रमुख वैश्विक कॉफ़ी ब्रांड्स जैसे स्टारबक्स, नेस्काफे (Nescafe), टिम हॉर्टन्स (Tim Hortons) और डंकिन डोनट्स (Dunkin Donuts) के प्रभाव और उनकी वैश्विक पहचान पर भी बात करेंगे।

भारत में कॉफ़ी का आगमन और बाबा बुधान की भूमिका
कॉफ़ी भारत में 17वीं सदी में बाबा बुधान द्वारा लायी गई। ये एक मुस्लिम सूफ़ी संत थे, जिन्होंने यमन से सिर्फ सात बीज छिपाकर भारत में लाए और उन्हें चिकमंगलुर में रोपा। इस साहसिक कदम ने भारत में कॉफ़ी की कहानी शुरू की। पहले से ही अरबों में कॉफ़ी का एकाधिकार था और बीजों को बाहर नहीं जाने दिया जाता था। बाबा बुधान ने अपनी सूझबूझ और धार्मिक श्रद्धा का उपयोग कर इसे छिपाकर लाया। माना जाता है कि वह मक्का की तीर्थयात्रा पर गए थे और वहीं से कॉफ़ी बीजों को अपने वस्त्रों के अंदर छिपाकर भारत लाए। उनके इस दुस्साहसिक कार्य ने भारत में न केवल कॉफ़ी को जन्म दिया, बल्कि "बाबा बुधान गिरी" के रूप में एक सांस्कृतिक स्थल को भी जन्म दिया। इतिहास में यह भी देखा गया कि भारत में कॉफ़ी का परिचय अरब व्यापारियों के माध्यम से मालाबार तट पर पहले ही हुआ था। इसके प्रमाण हेज़ल कोलाको (Hazel Colaco) की पुस्तक ‘अ कैश ऑफ कॉफ़ी’ (A Cash of Coffee) में भी मिलते हैं, जिसमें बताया गया है कि अरब व्यापारी पहले से ही कॉफ़ी को लेकर भारत के पश्चिमी तट से जुड़े थे। इसके अलावा, मुग़ल काल में जहींगिर के दरबार में एडवर्ड टेरी (Edward Terry) ने कॉफ़ी के उपयोग का उल्लेख करते हुए लिखा, “जो लोग धर्म में कट्टर होते हैं वे शराब नहीं पीते, बल्कि एक पेय का उपयोग करते हैं जिसे वे कॉफ़ी कहते हैं… यह पाचन के लिए बहुत उपयोगी है, मन को जागृत करती है और रक्त को शुद्ध करती है।” यह दिखाता है कि भारत में कॉफ़ी का प्रसार और उसकी लोकप्रियता काफी पहले से शुरू हो चुकी थी और यह न केवल व्यापार बल्कि स्वास्थ्य और समाज में भी अपनी पहचान बना चुकी थी।
कॉफ़ी की खेती और भारत में इसका विस्तार
बाबा बुधान द्वारा लाए गए बीजों से मुख्य रूप से अरेबिका कॉफ़ी (Arabica Coffee) उत्पन्न हुई, जो बाद में रोबस्टा (Robusta) के साथ भारत की प्रमुख फसल बन गई। दक्षिण भारत के राज्यों - कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल - में कॉफ़ी की खेती विकसित हुई और ये क्षेत्र आज भी भारत के प्रमुख कॉफ़ी उत्पादक क्षेत्र हैं। विशेष रूप से चिकमंगलुर और कोडगु जैसे स्थानों ने कॉफ़ी उत्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। ब्रिटिश शासन के दौरान कॉफ़ी ने वाणिज्यिक महत्त्व हासिल किया और 19वीं सदी में यूरोप में भी इसकी मांग बढ़ी। 1940 के दशक में माईसूर कॉफ़ी का यूरोपियन बाज़ार में स्थापित नाम था, और ब्रिटिश व्यापारियों के लिए यह कॉफ़ी, चाय की तुलना में अधिक लाभदायक मानी जाती थी। अंग्रेज़ों ने भारत में कॉफ़ी को एक प्रमुख निर्यात फसल के रूप में देखा और इसके उत्पादन को संगठित किया। भारत आज दुनिया का छठा सबसे बड़ा कॉफ़ी उत्पादक देश है, जो न केवल अरेबिका और रोबस्टा की विविध किस्में उगाता है, बल्कि कई क्षेत्रीय ब्रांडों और माइक्रो-क्लाइमेट (micro-climate) पर आधारित विशेष कॉफ़ी किस्में भी विकसित कर चुका है। हालांकि, यह फसल भारत की मूल भूमि की नहीं है, लेकिन इसकी लोकप्रियता और उत्पादन ने इसे देश की आर्थिक और सांस्कृतिक धारा में एक मजबूत स्थान दिलाया।

भारत में कैफ़े कल्चर का विकास और प्रारंभिक इतिहास
भारत में कैफ़े संस्कृति की शुरुआत 19वीं सदी में हुई जब कोलकाता में ब्रिटिशों द्वारा अल्बर्ट हॉल कैफ़े (Albert Hall Cafe) (1876) की स्थापना की गई, जो बाद में भारतीय कॉफ़ी हाउस (Indian Coffee House) में तब्दील हो गया। मुंबई में स्थापित पहले इरानी कैफ़े, जो ज़रथुश्त्री प्रवासियों द्वारा शुरू किए गए थे, भारतीय समाज में स्वाद और संवाद दोनों के लिए प्रसिद्ध हुए। ये कैफ़े केवल पेय स्थल नहीं थे, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र भी बन गए, जहाँ आज़ादी से पहले कई आंदोलनकारियों की मुलाक़ातें होती थीं। इरानी कैफ़े अपने सरल इंटीरियर (interior), मसाला बन्स (masala buns), इरानी चाय और समोसे के लिए प्रसिद्ध हुए। 1878 में पुणे में स्थापित डोरबजी ऐंड संस (Dorabjee and Sons), 1942 में दिल्ली का यूनाइटेड कॉफ़ी हाउस (United Coffee House), और बाद में इंडियन कॉफ़ी हाउस की सैकड़ों शाखाएँ पूरे भारत में खुलीं। ये स्थान न केवल कॉफ़ी पीने की जगह थे, बल्कि विचारों के आदान-प्रदान और बौद्धिक चर्चाओं के मंच भी थे। इन कैफ़े की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 1940 के दशक में भारतीय कॉफ़ी हाउस की 50 से अधिक शाखाएँ खोली गईं। इन स्थानों ने भारत की सार्वजनिक बहस और लोकतांत्रिक संस्कृति को आकार देने में अद्वितीय भूमिका निभाई।

आधुनिक कैफ़े संस्कृति और वैश्विक प्रभाव
1996 में वी. जी. सिद्धार्थ द्वारा स्थापित कैफ़े कॉफ़ी डे ने भारत में आधुनिक कैफ़े संस्कृति को एक नई दिशा दी, जिसने युवाओं को एक आधुनिक, आरामदायक और सामाजिक स्थान दिया जहाँ वे कॉफ़ी के साथ अपनी मीटिंग्स (meetings), बातचीत और रचनात्मक गतिविधियाँ कर सकते थे। इसके बाद, स्टारबक्स (Starbucks), कोस्टा कॉफ़ी (Costa Coffee), डंकिन डोनट्स (Dunkin Donuts) और क्रिस्पी क्रीम (Crispi Creme) जैसे अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों ने भारत में अपनी शाखाएँ खोलीं और एक नई संस्कृति की नींव रखी। 2012 में भारत में टाटा स्टारबक्स की शुरुआत के बाद, वैश्विक ब्रांडों ने भारतीय बाज़ार की संभावनाओं को पहचाना और देशभर में अपने कैफ़े खोले। आज के कैफ़े सिर्फ कॉफ़ी पीने का स्थान नहीं हैं, बल्कि ये युवाओं और पेशेवरों के लिए कार्यस्थल, मीटिंग स्पेस (meeting space) और सामाजिक मेलजोल के केंद्र बन गए हैं। फ्री वाई-फाई Free Wi-Fi), आरामदायक बैठने की व्यवस्था और विविध पेय-पदार्थों की उपलब्धता ने इन्हें अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है। अब कैफ़े में न केवल कैपुचिनो और लट्टे मिलते हैं, बल्कि ऑर्गेनिक (organic) और स्पेशलिटी कॉफ़ी (specialty coffee) के लिए भी एक अलग वर्ग तैयार हो चुका है जो गुणवत्ता और अनुभव को प्राथमिकता देता है।
वैश्विक कॉफ़ी उत्पादन में भारत की स्थिति और शीर्ष उत्पादक देश
2023 के आँकड़ों के अनुसार, ब्राज़ील दुनिया का सबसे बड़ा कॉफ़ी उत्पादक देश है, जिसने कुल 34 लाख टन से अधिक हरी कॉफ़ी का उत्पादन किया। इसके बाद वियतनाम (Vietnam) (19.5 लाख टन), इंडोनेशिया (Indonesia) (7.6 लाख टन), कोलंबिया (Columbia) (6.8 लाख टन), और इथियोपिया (Ethiopia) (5.6 लाख टन) जैसे देश प्रमुख स्थान पर हैं। भारत ने 3.3 लाख टन उत्पादन के साथ दुनिया में नवां स्थान प्राप्त किया है। हालांकि उत्पादन के मामले में भारत कुछ देशों से पीछे है, लेकिन इसकी अरबिका और रोबस्टा दोनों किस्मों की विविधता और मोनसून मालाबार जैसे अनूठे स्वाद भारत को वैश्विक कॉफ़ी व्यापार में एक विशेष पहचान दिलाते हैं। इसके अलावा होंडुरस (Honduras), युगांडा (Uganda), पेरू (Peru) और सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक (Central African Republic) जैसे देश भी कॉफ़ी उत्पादन में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। इस वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत का उभरता हुआ कॉफ़ी उद्योग न केवल निर्यात के लिए महत्त्वपूर्ण है, बल्कि देश की कैफ़े संस्कृति और युवाओं के स्वाद में भी बड़ी भूमिका निभा रहा है।

दुनिया के प्रमुख कॉफ़ी ब्रांड और उनके वैश्विक प्रभाव
स्टारबक्स, कोस्टा कॉफ़ी, नेस्काफे, टिम हॉर्टन्स, डंकिन डोनट्स और फोल्ज़र्स (Folgers) जैसे ब्रांड दुनियाभर में कॉफ़ी संस्कृति को आकार दे रहे हैं। स्टारबक्स की 83 देशों में 30,000 से अधिक शाखाएँ हैं, और यह 12.4% अमेरिकी ग्राउंड कॉफ़ी मार्केट (ground coffee market) पर कब्ज़ा जमाए हुए है। कोस्टा कॉफ़ी के 31 देशों में 4,000 से अधिक स्टोर और 10,000 स्मार्ट कैफ़े मशीनें हैं। नेस्काफे, जो नेस्ले ब्रांड (Nestle brand) का हिस्सा है, 180 से अधिक देशों में मौजूद है और इंस्टेंट कॉफ़ी (instant coffee) में इसका नाम सबसे आगे है। टिम हॉर्टन्स कनाडा में लगभग 4,300 स्टोरों के साथ एक प्रमुख ब्रांड है और इसकी पहचान कॉफ़ी के साथ डोनट्स के लिए होती है। डंकिन डोनट्स की 12,000 से अधिक शाखाएँ 45 देशों में हैं, और यह रोज़ 30 लाख से अधिक ग्राहकों को सेवा देती है। फोल्ज़र्स, 1850 में स्थापित एक ब्रांड, 150 वर्षों से अधिक समय से अपनी ग्राउंड कॉफ़ी के लिए प्रसिद्ध है। इन ब्रांडों ने वैश्विक स्तर पर न केवल कॉफ़ी की खपत को बढ़ाया है, बल्कि भारतीय बाज़ार में भी अपने विशेष स्थान बनाए हैं और भारत के कैफ़े उद्योग को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/7fsf673r
https://tinyurl.com/2p9u4yed
https://tinyurl.com/4dmuv87r
https://tinyurl.com/bdzn7akn
क्यों दशहरे का हर रंग, मेरठवासियों को देश की सांस्कृतिक विविधता से जोड़ता है?
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
02-10-2025 09:08 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, दशहरा आपके लिए केवल रामलीला ग्राउंड (ground) में रावण दहन देखने का उत्सव भर नहीं है। यह पर्व उस विशाल सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है, जिसमें भारत की विविध परंपराएँ, लोक मान्यताएँ और सामाजिक मूल्यों की गहरी परछाइयाँ दिखाई देती हैं। दशहरा एक ऐसा पर्व है, जो हमें याद दिलाता है कि अच्छाई और नैतिकता की राह चाहे कितनी ही कठिन क्यों न हो, उसकी विजय निश्चित है - और यही संदेश हर राज्य, हर शहर और हर समुदाय अपने-अपने तरीकों से व्यक्त करता है। मेरठ के ऐतिहासिक रामलीला मैदानों में जब राम, लक्ष्मण और हनुमान की गाथाएँ मंचित होती हैं, और रावण, कुंभकरण व मेघनाद के विशाल पुतलों को अग्नि के हवाले किया जाता है, तो वह केवल नाट्य नहीं होता - वह हमारी सामूहिक स्मृति का जीवंत प्रदर्शन होता है। लेकिन यही पर्व जब आप कुल्लू की घाटियों में मनता देखेंगे, तो वहाँ रावण दहन की जगह देवी-देवताओं की झांकियाँ निकलती हैं। मैसूर में दशहरे की रातें राजसी रथयात्रा और चामुंडेश्वरी के दिव्य श्रृंगार से जगमग करती हैं, जबकि बंगाल में यह पर्व देवी दुर्गा की शक्ति के रूप में शक्ति-साधना और सांस्कृतिक उत्सव बनकर उभरता है। इसलिए, दशहरा केवल ‘एक दिन’ नहीं है - यह भारत की धार्मिक आस्था, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि चाहे हम मेरठ में हों या मणिपुर में, हमारी परंपराएं भले अलग हों, लेकिन मूल भावना - सत्य की विजय, अधर्म का पराभव और मानव मूल्यों की स्थापना - हर स्थान पर समान रूप से गूंजती है। इस दशहरे, आइए हम केवल रावण का दहन न देखें, बल्कि इस पर्व के पीछे छिपे विशाल भारतीय चिंतन को भी महसूस करें - और गर्व करें कि हम एक ऐसे देश के नागरिक हैं, जहां विविधता में ही हमारी सबसे बड़ी शक्ति बसती है।
इस लेख में हम जानेंगे कि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में दशहरे को किस तरह अनूठे रंगों और परंपराओं के साथ मनाया जाता है। सबसे पहले हम दक्षिण भारत की ओर रुख करेंगे, जहाँ मैसूर और तमिलनाडु में दशहरे का राजसी और पारंपरिक स्वरूप देखने को मिलता है। इसके बाद, हम पूर्वी भारत में चलेंगें, जहाँ बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में दुर्गा पूजा के माध्यम से यह पर्व पूरी सामाजिक और सांस्कृतिक गरिमा के साथ मनाया जाता है। फिर हम उत्तर भारत की चर्चा करेंगे, जहाँ दशहरा रामलीला, रावण दहन और धार्मिक नाटकों के रूप में समाज की धार्मिक चेतना से जुड़ा है। अंत में हम पश्चिम व मध्य भारत जैसे गुजरात और छत्तीसगढ़ तथा हिमाचल के कुल्लू जैसे हिमालयी क्षेत्रों में मनाए जाने वाले दशहरे की भिन्न-भिन्न परंपराओं और सामाजिक सरोकारों को भी गहराई से समझेंगे।
दक्षिण भारत का दशहरा - मैसूर और तमिलनाडु की राजसी परंपराएं
दक्षिण भारत में दशहरा केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक वैभव और भव्यता की एक जीवंत मिसाल है। मैसूर का दशहरा पूरे भारत में राजसी परंपराओं और शाही आयोजन के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि वाडियार राजवंश के समय से यह परंपरा चली आ रही है। दशमी की रात जब ऐतिहासिक मैसूर महल हज़ारों बल्बों और दीपों की रोशनी में नहाया होता है, तो वह दृश्य मानो इतिहास के किसी पन्ने से निकलकर साक्षात आपके सामने आ जाता है। इस दिन देवी चामुंडेश्वरी की सजी-धजी प्रतिमा को हाथी पर विराजमान कर एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है, जो महल से निकलकर पूरे शहर में भ्रमण करती है। इसके अलावा पारंपरिक संगीत, नृत्य, सैन्य परेड (military parade) और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी इस आयोजन का हिस्सा होते हैं। वहीं दूसरी ओर, तमिलनाडु में दशहरा ‘गोलू’ या ‘बोम्मई कोलू’ नामक परंपरा के साथ मनाया जाता है, जिसमें घरों में लकड़ी और मिट्टी की गुड़ियों को सुसज्जित ढंग से सीढ़ीनुमा ढांचे पर सजाया जाता है। ये गुड़ियाँ पौराणिक कथाओं, धार्मिक घटनाओं और समकालीन समाज की झांकियों को दर्शाती हैं। दशहरे के इन नौ दिनों में घर-घर पूजा होती है, विशेषकर देवी लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की। विवाहित महिलाएं एक-दूसरे के घरों में जाकर कुमकुम, चूड़ियाँ, सुपारी, नारियल आदि उपहार स्वरूप देती हैं। यह न केवल धार्मिक भावना को बल देता है, बल्कि सामाजिक मेलजोल और स्त्रियों के आपसी संबंधों को भी सुदृढ़ करता है।

पूर्व भारत का दशहरा - बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में दुर्गा पूजा की भव्यता
पूर्व भारत में दशहरा का अर्थ दुर्गा पूजा है - एक ऐसा आयोजन जो शक्ति की उपासना और सामाजिक सामूहिकता दोनों का उत्सव है। बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में यह पर्व महिषासुर मर्दिनी के रूप में देवी दुर्गा की विजय के स्मरण में मनाया जाता है। यहाँ दशहरा ‘विजयादशमी’ कहलाता है, जो दुर्गा पूजा के पांच दिवसीय समारोह का अंतिम दिन होता है। पंडालों की भव्य सजावट, मूर्तियों की कलात्मकता, और पारंपरिक संगीत व नृत्य इन दिनों हर गली और मोहल्ले में जीवन्त हो जाते हैं। देवी की मूर्तियों का विसर्जन एक भावुक क्षण होता है, जब भक्त 'शुभो बिजोया' कहते हुए माँ दुर्गा को विदाई देते हैं। इस क्षेत्र में दशहरा केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक सहभागिता का अद्भुत संगम है। कविता पाठ, नृत्य प्रतियोगिता, पेंटिंग प्रदर्शनी (Painting Exhibition) और पारंपरिक भोजन का वितरण इस पर्व को एक बहुआयामी उत्सव बनाते हैं। महिलाएं विशेष तौर पर ‘सिंदूर खेला’ करती हैं - वे एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं और वैवाहिक सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। यह परंपरा बंगाल की स्त्री-शक्ति की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है। यहाँ दशहरे की आस्था शक्ति में निहित है, और रावण-दहन जैसी उत्तर भारतीय परंपराएं नहीं होतीं।

उत्तर भारत का दशहरा - रामलीला, रावण वध और धार्मिक नाट्य परंपराएं
उत्तर भारत में दशहरा राम की मर्यादा, नाटक के रस और सामूहिक स्मृति का महोत्सव है। विशेषकर दिल्ली, मेरठ और वाराणसी जैसे शहरों में दशहरे का मतलब है रामलीला मैदान की भीड़, नायक राम का जयघोष और अंत में रावण, कुंभकरण और मेघनाद के विशाल पुतलों का दहन। इन शहरों में रामलीला नौ दिनों तक चलती है, जिसमें गाँव-गाँव के कलाकार भगवान राम के जीवन को मंचित करते हैं। हर रात दर्शक इन लीलाओं को देख, धर्म और नीति की शिक्षा ग्रहण करते हैं। पंजाब में दशहरा शक्ति उपासना और भक्ति के संगम के रूप में मनाया जाता है। यहाँ नवरात्रि के पहले सात दिनों तक लोग उपवास रखते हैं और रात्रि में जगराते का आयोजन करते हैं। अष्टमी को 'कंजक पूजन' होता है, जिसमें नौ कन्याओं को देवी के स्वरूप मानकर भोजन कराया जाता है। यह परंपरा नारी शक्ति के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। इस क्षेत्र में दशहरा सिर्फ रावण वध नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, धर्मपरायणता और सांस्कृतिक एकता का पर्व भी है।

पश्चिम और मध्य भारत में दशहरा - गुजरात, छत्तीसगढ़ और अन्य रंगबिरंगे स्वरूप
पश्चिम भारत, खासकर गुजरात, दशहरे को नवरात्रि के नौ रंगीन रातों के रूप में देखता है। यहाँ गरबा और डांडिया सिर्फ नृत्य नहीं, बल्कि एक धार्मिक साधना का रूप है। लोग पारंपरिक पोशाकें पहनकर देवी की आराधना करते हुए सैकड़ों की संख्या में मैदानों और मंदिरों के प्रांगण में एकत्रित होते हैं। यह परंपरा गुजरात की सांस्कृतिक ऊर्जा, सामूहिकता और स्त्री शक्ति की अभिव्यक्ति है। वहीं मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में दशहरा की परंपराएं सबसे अद्वितीय हैं। यहाँ का बस्तर दशहरा 75 दिनों तक चलता है - यह न केवल भारत, बल्कि विश्व का सबसे लंबा चलने वाला दशहरा उत्सव माना जाता है। इस क्षेत्र में देवी दंतेश्वरी की पूजा की जाती है, और उनकी झांकियाँ निकाली जाती हैं। अनुष्ठान जैसे पाटा जात्रा (लकड़ी की पूजा), डेरी गढ़ाई (कलश की स्थापना), मुरिया दरबार (जनजातीय सम्मेलन) और ओहदी (देवताओं की विदाई) - सभी इस पर्व को स्थानीय जनजातीय आस्था और संस्कृति से जोड़ते हैं। यह पर्व आध्यात्म, प्रकृति और परंपरा का त्रिकोणीय संगम है।
हिमालयी परंपरा - कुल्लू दशहरा की अनोखी धार्मिक व्याख्या
हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में दशहरा एक पूरी तरह से अलग रूप ले लेता है। यहाँ ना तो रावण के पुतले जलाए जाते हैं, ना रामलीला होती है - बल्कि यहाँ भगवान रघुनाथ जी की शोभायात्रा निकाली जाती है। कहते हैं कि 17वीं सदी में राजा जगत सिंह ने रघुनाथ जी को कुल्लू राज्य का अधिष्ठाता देवता घोषित किया था। तभी से ढालपुर मैदान इस उत्सव का केंद्र बना। इस दौरान कुल्लू की हर घाटी, हर गांव से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ सज-धज कर जुलूस में लाई जाती हैं। यह ना सिर्फ धार्मिक एकता का प्रतीक है, बल्कि कुल्लू के सामूहिक सामाजिक जीवन की गहराई को भी दर्शाता है। दशहरे की समाप्ति ‘लंका दहन’ के प्रतीक रूप में होती है, जहां झाड़ियों में आग लगाई जाती है - यह प्रतीकात्मक लंका है। कुल्लू दशहरा सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव, धार्मिक श्रद्धा और लोक परंपरा का संगम है - जो यह सिखाता है कि हर पर्व की गहराई उसके सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ में ही निहित होती है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2e7rbxbv
कैसे गांधीजी की सोच, आज भी मेरठ के युवाओं के फैसलों में ज़िंदा है?
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
01-10-2025 09:19 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, जब हम 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के रूप में मनाते हैं, तो यह केवल इतिहास को स्मरण करने का दिन नहीं होता - यह एक आत्ममंथन का अवसर भी होता है। यह दिन हमें यह सोचने को प्रेरित करता है कि बापू ने जिस "स्वतंत्रता" की कल्पना की थी, वह सिर्फ़ अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति नहीं थी। गांधीजी के लिए आज़ादी एक जीवंत और गहरी अवधारणा थी - जिसमें हर व्यक्ति की गरिमा, हर समाज की समरसता, आत्मनिर्भरता की भावना और नैतिक बल का संचार शामिल था। आज जब मेरठ जैसे जागरूक शहर के नागरिकों के पास सोचने, कहने और करने की आज़ादी है, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि हम खुद से पूछें - क्या यह स्वतंत्रता हर गली, हर मोहल्ले, हर मजदूर, हर महिला, हर युवा तक पहुँची है? गांधीजी के नज़रिए से स्वतंत्रता का सही अर्थ तभी पूरा होता है जब समाज के अंतिम व्यक्ति को भी बराबरी, सम्मान और आत्मविश्वास से जीने का हक़ मिले। इसलिए आज के दिन, आइए हम गांधीजी के व्यापक दृष्टिकोण से स्वतंत्रता को समझें और यह संकल्प लें कि मेरठ का हर नागरिक इस आज़ादी को वास्तव में महसूस कर सके - बिना भय, भेदभाव और बाधा के।
आज के लेख में हम गांधीजी के विचारों के आलोक में यह समझने की कोशिश करेंगे कि स्वतंत्रता केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि व्यक्ति और समाज की आंतरिक मुक्ति है। सबसे पहले हम जानेंगे कि गांधीजी के लिए स्वतंत्रता का क्या अर्थ था और उन्होंने इसे कितनी व्यापक दृष्टि से परिभाषित किया। इसके बाद, हम देखेंगे कि उनके स्वराज की कल्पना सामाजिक न्याय और समानता पर क्यों आधारित थी। फिर हम यह जानेंगे कि गांधीजी के लिए आत्मनिर्भरता और खादी का आंदोलन स्वतंत्रता का आर्थिक आधार क्यों था। अंत में, हम इस बात पर विचार करेंगे कि उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा और नैतिक शक्ति के सिद्धांत आज के समय में भी कितने प्रासंगिक हैं।

गांधीजी के दृष्टिकोण से स्वतंत्रता की व्यापक परिभाषा
गांधीजी के लिए स्वतंत्रता केवल एक राजनीतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्मा की पूर्ण मुक्ति थी - ऐसी स्थिति जिसमें न केवल कोई शासन बंधन न हो, बल्कि आंतरिक भय, सामाजिक दबाव और नैतिक कमजोरी से भी मुक्ति हो। उन्होंने आज़ादी को ऐसी अवस्था के रूप में देखा जिसमें हर व्यक्ति निडर होकर सोच सके, बोल सके और अपने विचारों को समाज के सामने रखने में खुद को सक्षम महसूस करे। उनके लिए स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ ब्रिटिश शासन (British Rule) से मुक्ति नहीं था, बल्कि उससे भी अधिक गहराई से जुड़ी हुई यह भावना थी कि एक सामान्य नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, लिंग या वर्ग का हो - वह सम्मान के साथ जीवन जी सके। गांधीजी बार-बार इस बात पर ज़ोर देते थे कि जब तक भारत का सबसे ग़रीब नागरिक भी खुद को गरिमामय समझ कर जी नहीं सकता, तब तक देश स्वतंत्र नहीं हो सकता। उनके विचारों में सच्ची आज़ादी का मापदंड यही था - विचारों की आज़ादी, भय-मुक्त जीवन, और समाज में आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार। इसीलिए उनके स्वतंत्रता दर्शन में नैतिक साहस, सामाजिक समरसता और आत्म-संयम अनिवार्य रूप से जुड़ते थे।
सामाजिक न्याय और समानता: गांधीजी के स्वराज का आधार
गांधीजी का स्वराज केवल सत्ता परिवर्तन का विचार नहीं था - वह एक संपूर्ण सामाजिक आंदोलन था, जिसकी जड़ें समानता, न्याय और करुणा में थीं। उन्होंने स्पष्ट किया था कि यदि किसी समाज में एक वर्ग को शिक्षा, संसाधन या सम्मान से वंचित किया जाता है, तो वह समाज स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता। विशेष रूप से उन्होंने महिलाओं की स्थिति पर बल दिया - जहाँ एक महिला तभी स्वतंत्र कहलाएगी जब वह शिक्षा प्राप्त कर सके, रोजगार में समान वेतन पाए और सामाजिक मंचों पर खुलकर अपनी बात रख सके। इसी प्रकार, समाज के उस वर्ग के लिए, जिसे हम दलित या 'अस्पृश्य' कहते थे, गांधीजी की लड़ाई केवल अधिकारों की नहीं, बल्कि गरिमा और स्वीकृति की भी थी। उन्होंने 'हरिजन' शब्द का प्रयोग कर उन्हें ईश्वर का व्यक्ति कहा, और यह समझाया कि समाज तब तक स्वस्थ नहीं हो सकता जब तक उसके सबसे कमजोर अंग को पूर्ण स्वीकार्यता और बराबरी का स्थान न मिले। उनके प्रयास आज भी सामाजिक न्याय की दिशा में हमारी चेतना को जागृत करते हैं, यह बताते हुए कि असली स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि मानवीय है।

आत्मनिर्भरता और खादी: गांधीजी का आर्थिक स्वाधीनता मॉडल
गांधीजी के विचार में राजनीतिक स्वराज तभी सार्थक हो सकता है जब वह आर्थिक स्वराज के साथ जुड़ा हो। उन्होंने महसूस किया कि यदि भारत को वास्तविक रूप से स्वतंत्र बनाना है, तो उसकी आत्मा गांवों में बसती है और उसकी आत्मनिर्भरता कुटीर उद्योगों में निहित है। इसलिए उन्होंने खादी को केवल एक वस्त्र नहीं, बल्कि एक आंदोलन बना दिया। चरखा उनके लिए स्वतंत्रता का चक्र था - वह प्रतीक था एक आम नागरिक की शक्ति का, जो बिना किसी हथियार के भी ब्रिटिश अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ सकता है। खादी पहनना गांधीजी के लिए एक राजनीतिक वक्तव्य था - वह एक घोषणा थी कि हम अपने श्रम से, अपने साधनों से, और अपनी इच्छाशक्ति से स्वतंत्रता की दिशा में बढ़ रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि सरकार से कुछ मांगने से उसकी शक्ति बढ़ती है, जबकि स्वयं कुछ करना आत्मशक्ति को बढ़ाता है। उनका स्वदेशी आंदोलन केवल विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तक सीमित नहीं था, वह एक मानसिक क्रांति थी - कि भारतवासी अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं।
अहिंसा का राजनीतिक दर्शन और उसकी सार्वभौमिकता
गांधीजी की अहिंसा महज एक नैतिक उपदेश नहीं थी, बल्कि वह उनकी राजनीति का मूल आधार थी - ऐसा हथियार जिसे दुनिया का कोई भी व्यक्ति, चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित, अमीर हो या गरीब, अपना सकता था। उनका विश्वास था कि केवल अहिंसा ही एक लोकतांत्रिक संघर्ष का तरीका हो सकता है, क्योंकि यह सबके लिए सुलभ है और इसमें किसी विशेष संसाधन की आवश्यकता नहीं होती। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि हिंसक समाधान समाज को भय और शोषण की ओर ले जाते हैं, जहाँ कुछ सशस्त्र लोगों के फायदे के लिए निहत्थे लाखों लोगों का भविष्य गिरवी रखा जाता है। गांधीजी का कहना था कि अहिंसा की सफलता केवल लक्ष्य प्राप्ति में नहीं, बल्कि संघर्ष के बाद भी समाज में प्रेम और सहयोग बनाए रखने में है। यही कारण था कि उन्होंने हर बार यह स्पष्ट किया कि अहिंसा कायरता नहीं, बल्कि वीरता का प्रतीक है - क्योंकि इसमें शत्रु को हराने से अधिक उसे मित्र बनाना होता है।

आमजन के लिए स्वतंत्रता: हर झोपड़ी तक पहुंचने वाली आज़ादी
गांधीजी के लिए स्वतंत्रता का सबसे सच्चा रूप वही था जो आमजन तक पहुँचे - वह किसान, वह मजदूर, वह महिला जो न तो संसद में बोल सकती थी, न ही अखबार में अपनी राय छाप सकती थी, लेकिन फिर भी उसके जीवन में बदलाव आना चाहिए। उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “स्वराज तब तक अधूरा है जब तक वह हर झोपड़ी तक नहीं पहुँचे।” इस कथन में उनकी सोच की असाधारण मानवीय संवेदनशीलता झलकती है। वे चाहते थे कि स्वतंत्रता की ध्वनि केवल संसद भवन में नहीं, बल्कि गांव के तालाब, खेत, और चूल्हे से भी सुनाई दे। जब तक समाज का अंतिम व्यक्ति गरिमा से सिर उठाकर न जी सके, गांधीजी के लिए वह आज़ादी अधूरी थी। उनके लिए सच्चा भारत वह था जिसमें हर नागरिक, चाहे वह किसी भी वर्ग या क्षेत्र से आता हो, खुद को राष्ट्र का अभिन्न हिस्सा महसूस करे - न कि एक उपेक्षित आंकड़ा। यह गांधीजी की स्वतंत्रता की गहराई थी - ऐसी सोच जो सिर्फ़ नेतृत्व की नहीं, बल्कि हर नागरिक की थी।
असली स्वराज बनाम सत्ता का हस्तांतरण
गांधीजी सत्ता के स्वरूप को लेकर बेहद सजग थे। उन्होंने अनेक अवसरों पर यह स्पष्ट किया कि सिर्फ सत्ता को एक हाथ से दूसरे हाथ में देना - चाहे वह विदेशी से देशी क्यों न हो - असली स्वराज नहीं है। उनका यह प्रसिद्ध वाक्य “मुझे भारत को केवल अंग्रेजों के जुए से मुक्त कराने में कोई दिलचस्पी नहीं है…” इस बात का प्रमाण है कि वे सत्ता के दमनकारी स्वरूप से पूरी तरह अवगत थे, चाहे उसका रंग जो भी हो। उनके लिए असली स्वराज वह था जहाँ हर नागरिक के भीतर इतनी शक्ति हो कि वह किसी भी प्रकार के शोषण या दमन का विरोध कर सके। उन्होंने लोकतांत्रिक शासन की परिकल्पना की थी जिसमें सत्ता की जवाबदेही केवल किसी संविधान या कानून से नहीं, बल्कि जनता की नैतिक दृष्टि और सजगता से तय होती है। गांधीजी ने चेताया कि सत्ता का केंद्रीकरण अगर जनता की चेतना को कुंद करता है, तो वह स्वतंत्रता नहीं बल्कि नए रूप का दासत्व बन जाता है।

आधुनिक समय में गांधी के विचारों की प्रासंगिकता
आज की दुनिया जहाँ तकनीकी तरक्की ने अभूतपूर्व ऊँचाइयाँ छू ली हैं, वहीं नैतिक और सामाजिक रूप से वह अभी भी कई मोर्चों पर संघर्षरत है। असमानता, भेदभाव, धार्मिक वैमनस्य और वैश्विक अस्थिरता ने यह साबित कर दिया है कि सिर्फ़ आर्थिक या तकनीकी विकास से समाज नहीं बनता। ऐसे में गांधीजी के विचार - चाहे वह अहिंसा हो, आत्मनिर्भरता हो या सामाजिक न्याय - आज पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गए हैं। उन्होंने स्वतंत्रता को केवल राजनीतिक अधिकार नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता और समाज की सामूहिक चेतना से जोड़ा। गांधीजी की सोच हमें यह सिखाती है कि स्थायी शांति केवल संधियों से नहीं, बल्कि दिलों के मेल से आती है। और यह मेल संभव है - अगर हम फिर से सत्य, करुणा और सेवा जैसे मूल्यों को अपने जीवन का आधार बनाएं। आज, जब दुनिया फिर से एक नई दिशा की खोज में है, गांधीजी का रास्ता हमें एक स्थायी और समावेशी भविष्य की ओर ले जा सकता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/bdstj8va
गंधों की दुनिया में विज्ञान का कमाल: इलेक्ट्रॉनिक नाक और उसकी नई क्षमताएं
सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)
Concept I - Measurement Tools (Paper/Watch)
30-09-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी कल्पना की है कि हमारी नाक जैसी जटिल और संवेदनशील प्रणाली को कोई मशीन भी नकल कर सकती है? और अगर ऐसा संभव है, तो सोचिए - उस मशीन का उपयोग सिर्फ गंध पहचानने तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वह हमारे जीवन के अनेक क्षेत्रों को प्रभावित कर सकती है। आज विज्ञान ने ऐसी ही एक अद्भुत तकनीक विकसित की है जिसे इलेक्ट्रॉनिक नाक (Electronic Nose) कहा जाता है। यह उपकरण गंधों की पहचान करता है, उनका विश्लेषण करता है, और उनकी प्रकृति के आधार पर निर्णय लेता है - बिल्कुल इंसानी नाक की तरह, लेकिन कहीं अधिक सटीकता और स्थिरता के साथ। चाहे चिकित्सा के क्षेत्र में सांस की गंध से रोग की पहचान करनी हो, खाद्य पदार्थों की ताजगी जांचनी हो, पर्यावरण में जहरीली गैसों की उपस्थिति पता करनी हो या फिर अंतरिक्ष जैसे दुर्गम वातावरण में जीवन रक्षक प्रणालियों की निगरानी करनी हो - यह तकनीक हर जगह उपयोगी साबित हो रही है। मेरठ जैसे तेज़ी से विकसित होते शहर में, जहाँ उद्योग, स्वास्थ्य सेवाएँ और वैज्ञानिक अनुसंधान लगातार विस्तार पा रहे हैं, वहाँ इलेक्ट्रॉनिक नाक जैसी तकनीकों की उपयोगिता आने वाले समय में और भी अधिक बढ़ने वाली है।
इस लेख में हम जानेंगे कि इलेक्ट्रॉनिक नाक वास्तव में क्या है और यह कैसे कार्य करती है। इसके बाद हम देखेंगे कि इसका उपयोग स्वास्थ्य, खाद्य, रक्षा और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्रों में कैसे हो रहा है। हम जीसी-ओ (GC-O - Gas Chromatography-Olfactometry) तकनीक और ओल्फैक्टोग्राम (Olfactogram) के माध्यम से गंध विश्लेषण के वैज्ञानिक पहलुओं को समझेंगे। इसके साथ ही हम ओल्फैक्टोमीटर (Olfactometer) नामक उपकरण की रचना और मापन के तरीकों को जानेंगे। अंत में, हम गंध पहचान की जैविक सीमाओं और गंध आधारित जल गुणवत्ता मापन प्रणाली की संभावनाओं पर भी चर्चा करेंगे।
इलेक्ट्रॉनिक नाक क्या है और यह कैसे काम करती है?
इलेक्ट्रॉनिक नाक एक ऐसा विश्लेषणात्मक उपकरण है जिसे विशेष रूप से गंध पहचानने के लिए बनाया गया है। यह मानव घ्राण प्रणाली की नकल करता है लेकिन उसमें और अधिक सटीकता और स्थिरता प्रदान करता है। इसकी संरचना में गैस सेंसरों (gas sensors) की एक सरणी होती है, जो किसी भी वाष्पशील यौगिक (volatile compound) के संपर्क में आते ही प्रतिक्रिया देती है। ये सेंसर रासायनिक प्रतिक्रियाओं के आधार पर इलेक्ट्रिकल सिग्नल (electrical signal) उत्पन्न करते हैं। यह सिग्नल फिर एक पैटर्न (pattern) पहचान प्रणाली तक भेजा जाता है, जहाँ यह एक विशिष्ट "डिजिटल गंध फिंगरप्रिंट" (Digital odor fingerprint) में बदला जाता है। इस प्रक्रिया का अगला चरण एक कंप्यूटर यूनिट (computer unit) में होता है, जो सेंसर और पैटर्न से आए डेटा का विश्लेषण करके उस गंध की पहचान करता है। इस पूरी प्रणाली का आधार यही है - अलग-अलग यौगिकों पर विभिन्न सेंसर अलग-अलग प्रतिक्रिया देंगे, और मिलकर एक पैटर्न बनाएँगे जिसे मशीन पहचान सकती है। यह तकनीक अब रासायनिक विश्लेषण की दुनिया में एक आवश्यक साधन बन चुकी है।
इलेक्ट्रॉनिक नाक के विविध उपयोग: स्वास्थ्य से लेकर अंतरिक्ष तक
इलेक्ट्रॉनिक नाक का उपयोग अब केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं है। यह स्वास्थ्य, पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा और अंतरिक्ष विज्ञान तक में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। चिकित्सा क्षेत्र में यह तकनीक सांस के नमूनों का विश्लेषण करके बीमारियों की पहचान में सहायक बन चुकी है - जैसे फेफड़ों की बीमारी, कैंसर या संक्रमण। यह एक गंध आधारित डायग्नोस्टिक टूल के रूप में उभर रही है। खाद्य उद्योग में यह तकनीक भोजन की ताजगी, गुणवत्ता और भंडारण स्थिति का अनुमान लगाने में मदद करती है - जैसे दूध के खट्टे होने से पहले उसकी पहचान हो सके। पर्यावरणीय निगरानी में यह विषैली गैसों की पहचान कर प्रदूषण रोकने में मदद करती है। रक्षा क्षेत्र में यह विस्फोटक या रासायनिक हथियारों की गंध पहचानने में उपयोग होती है। और अंतरिक्ष क्षेत्र में, नासा (NASA) इसे अपने स्पेस मिशनों (space missions) में संभावित खतरों की निगरानी के लिए प्रयोग कर रहा है। यह तकनीक वास्तव में बहुआयामी है।
गैस क्रोमैटोग्राफ़ी-ओलफ़ैक्टोमेट्री (GC-O): गंध विश्लेषण में मानव और मशीन का समन्वय
जीसी-ओ तकनीक, जिसे गैस क्रोमैटोग्राफ़ी-ओलफ़ैक्टोमेट्री कहा जाता है, गंध विश्लेषण का एक अनोखा तरीका है जिसमें इंसान और मशीन मिलकर काम करते हैं। इस प्रणाली में गैस क्रोमैटोग्राफ नमूने में मौजूद विभिन्न यौगिकों को समय के अनुसार अलग करता है। इसके बाद इन यौगिकों को दो रास्तों में बाँटा जाता है - एक मशीन द्वारा विश्लेषण के लिए और दूसरा मानव पैनलिस्ट (penalty) द्वारा सूंघने के लिए। मानव पैनलिस्ट एक विशेष मास्क पहनकर गंधों को सूंघता है और जब उसे कोई विशिष्ट गंध महसूस होती है, तो वह बटन दबाता है। इस बटन दबाने की क्रिया को ओल्फैक्टोग्राम में रिकॉर्ड किया जाता है, जो उस यौगिक की पहचान को समय और तीव्रता के साथ जोड़ता है। यह प्रक्रिया यह दिखाती है कि किन यौगिकों की गंध मानव नाक के लिए संवेदनशील है, जो कभी-कभी मशीन द्वारा पूरी तरह नहीं पहचानी जा सकती।
ओलफ़ैक्टोमीटर की संरचना और गंध मापन में इसकी भूमिका
ओलफ़ैक्टोमीटर एक अत्याधुनिक उपकरण है जो किसी गंध की तीव्रता, गुणवत्ता और उपस्थिति को मापने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसकी संरचना में एक वायुप्रवाह नियंत्रक (mass flow controller), वाल्व प्रणाली और कैसेट आधारित डिज़ाइन (design) होती है जो विभिन्न गंधों को नियंत्रित मात्रा में मानव निरीक्षक तक पहुँचाती है। यह प्रणाली सुनिश्चित करती है कि हर पैनलिस्ट को गंध की समान मात्रा मिले। गंध यौगिकों का ऑक्सीकरण न हो, इसके लिए आमतौर पर इसमें नाइट्रोजन (Nitrogen) जैसी निष्क्रिय गैसों का उपयोग किया जाता है। इससे मापन अधिक सटीक और विश्वसनीय बनता है। इस उपकरण में डिजिटल (digital) और एनालॉग (analog) दोनों तरह के नियंत्रण होते हैं, जिससे यह कई वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रयोगों में प्रयोज्य है। ओलफ़ैक्टोमीटर की मदद से किसी गंध की "थ्रेशहोल्ड लिमिट" (Threshold Limit) भी निर्धारित की जाती है।
गंध पहचान की जैविक सीमा और यौगिकों की विशेषताएं
मानव नाक हर गंध को एक जैसी संवेदनशीलता से नहीं पहचानती। गंध पहचान की जैविक सीमा इस बात पर निर्भर करती है कि कोई यौगिक कितनी न्यूनतम सांद्रता में मौजूद हो और नाक उसे महसूस कर सके। यह सीमा यौगिक की आणविक विशेषताओं - जैसे उसका आकार, ध्रुवता (polarity), और आंशिक आवेश - पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, कुछ आइसोमर्स (Isomers), जिनका रासायनिक फॉर्मूला (chemical formula) एक जैसा होता है, अलग-अलग गंध उत्पन्न करते हैं। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि हमारी घ्राण प्रणाली में अभी भी कई रहस्य हैं जिनका उत्तर नहीं मिला है। यही कारण है कि गंध पहचान के क्षेत्र में मशीनों के साथ-साथ मानव अनुभव को भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह वैज्ञानिक और जैविक समझ दोनों का समन्वय मांगता है।
जल प्रबंधन और गंध सीमा: पानी की गुणवत्ता की सूंघनीय कसौटी
गंध का उपयोग अब केवल हवा की गुणवत्ता जांचने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि जल और अपशिष्ट जल की गुणवत्ता के निर्धारण में भी इसकी अहम भूमिका है। गंध को मापने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय पैमाना है जिसे दहलीज गंध संख्या (TON) कहा जाता है। यह बताता है कि किसी पानी के नमूने में गंध कितनी तीव्रता से महसूस की जा सकती है। दहलीज गंध संख्या का उपयोग यह तय करने में किया जाता है कि क्या कोई जल स्रोत पीने योग्य है या नहीं। उदाहरण के तौर पर, अमेरिका के इलिनोइस (Illinois) राज्य में इस मानक को कठोरता से लागू किया गया है, जिससे उपभोक्ताओं को गुणवत्ता युक्त जल सुनिश्चित किया जा सके। भारत में भी अब जल गुणवत्ता की जांच के लिए गंध मापन को एक निर्णायक मानदंड के रूप में अपनाने की दिशा में कार्य हो रहा है, खासकर शहरी जलापूर्ति और अपशिष्ट जल उपचार परियोजनाओं में।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/6n5mw87v
मेरठ से ग्रामीण भारत तक: सबके लिए समान स्वास्थ्य सेवाओं की ओर कदम
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
29-09-2025 09:20 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके गांव के एक बीमार बुज़ुर्ग को इलाज के लिए कितनी दूर जाना पड़ता है, जबकि शहर में एक मरीज कुछ ही मिनटों में अस्पताल पहुंच जाता है? यही फर्क हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती है - शहरी और ग्रामीण सेवाओं के बीच गहराती खाई। मेरठ जैसे ज़िले में जहाँ एक ओर मेडिकल कॉलेज (medical college), निजी अस्पताल और आधुनिक क्लिनिक (modern clinic) दिन-ब-दिन बढ़ रहे हैं, वहीं माछरा, जानी, दौराला या बहसूमा जैसे ग्रामीण इलाकों में आज भी लोग बुखार, गर्भावस्था या चोट जैसी सामान्य स्थितियों में भी इलाज के लिए संघर्ष करते नज़र आते हैं। एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक पहुँचने के लिए कभी वाहन नहीं मिलता, तो कभी डॉक्टर ही उपलब्ध नहीं होता। महामारी के दौर ने यह स्पष्ट कर दिया कि स्वास्थ्य सिर्फ इलाज नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु का अंतर है। इस कठिन समय ने सरकार और समाज दोनों को यह सोचने पर मजबूर किया कि देश का कोई भी नागरिक, चाहे वह मेरठ के कैंट एरिया (Cantt area) में रहता हो या किसी दूरस्थ गांव में - उसे बराबर की चिकित्सा सुविधा मिलनी चाहिए। अब सरकार की कई योजनाएं जैसे आयुष्मान भारत, डिजिटल हेल्थ आईडी (Digital Health ID), टेलीमेडिसिन (Telemedicine) और ‘मेडिसिन फ्रॉम द स्काई’ (Medicine from the Sky) जैसी पहलों के माध्यम से इस अंतर को पाटने की कोशिश की जा रही है।
मेरठ ज़िले में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच लोगों तक सहज रूप से हो रही है। यहाँ लगभग 1.51 हज़ार अस्पताल के बिस्तर उपलब्ध हैं, जो मरीज़ों को आपात और नियमित उपचार दोनों प्रदान करते हैं। गाँव-देहात तक स्वास्थ्य सुविधा पहुँचाने के लिए 72 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) सक्रिय हैं। गंभीर मामलों और विशेष उपचार के लिए ज़िले में 2 ज़िला अस्पताल (DH) हैं। इसके अलावा, कस्बों और ग्रामीण इलाक़ों में 18 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (CHC) काम कर रहे हैं, जो स्थानीय लोगों के लिए राहत का अहम माध्यम हैं। इन सभी व्यवस्थाओं के ज़रिए मेरठ के नागरिकों को अपने ही ज़िले में स्वास्थ्य सेवाएँ प्राप्त होती हैं।
इस लेख में हम जानेंगे कि आने वाले वर्षों में भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था किस दिशा में आगे बढ़ेगी और सरकार का इस पर क्या भविष्य दृष्टिकोण है। हम देखेंगे कि आयुष्मान भारत और डिजिटल स्वास्थ्य पहलें ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच को कैसे बेहतर बनाएंगी। इसके बाद हम पढ़ेंगे कि कैसे मेडिकल नवाचार और मेडटेक मित्र (MedTech Mitra) जैसी योजनाएँ भारत को चिकित्सा उपकरणों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में मदद करेंगी। अंत में, हम समझेंगे कि शहरी और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के बीच की असमानता को कैसे कम किया जा सकता है और ढांचागत व मानव संसाधन से जुड़ी चुनौतियों को किस तरह नीति-निर्माण द्वारा हल किया जाएगा।

भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था का वर्तमान परिदृश्य और सरकारी दृष्टिकोण
भारत की स्वास्थ्य प्रणाली बीते कुछ वर्षों में तेज़ी से परिवर्तन की दिशा में अग्रसर हुई है। अब यह केवल प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और जिला अस्पतालों तक सीमित न रहकर एक समग्र और तकनीकी रूप से सक्षम प्रणाली बनने की ओर बढ़ रही है। केंद्र सरकार ने ‘एक भारत, स्वस्थ भारत’ के विजन के तहत यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि देश के कोने-कोने में रहने वाले नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण और सुलभ चिकित्सा सेवा मिल सके। 2024–25 के केंद्रीय बजट में ₹90,659 करोड़ की राशि स्वास्थ्य क्षेत्र को सौंपी गई, जो डिजिटल हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर (Digital Health Infrastructure), अनुसंधान, स्वास्थ्य कर्मियों के प्रशिक्षण और नए एम्स (AIIMS) जैसे संस्थानों की स्थापना जैसे प्रमुख क्षेत्रों में खर्च की जाएगी। साथ ही, स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा के लिए मानव संसाधन को ₹5,016 करोड़ तथा प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना को ₹2,400 करोड़ आवंटित किए गए। इसके अतिरिक्त, एबी-पीएमजेएवाई (AB-PMJAY) और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन को भी बड़े पैमाने पर बजटीय सहायता प्रदान की गई। इसके अलावा, भारत सरकार ने 18 जनवरी 2024 को इक्वाडोर (Ecuador) के साथ चिकित्सा उत्पादों के नियमन हेतु समझौता किया जिससे अंतरराष्ट्रीय समन्वय को बढ़ावा मिलेगा। इससे भारत के फार्मास्युटिकल (Pharmaceutical) निर्यात में भी वृद्धि की संभावना है। इन सभी पहलों से स्पष्ट है कि भारत की सरकार स्वास्थ्य सेवा को एक केंद्रीय प्राथमिकता मानकर उसमें निवेश कर रही है ताकि देश का हर नागरिक, चाहे वह किसी भी वर्ग या क्षेत्र का हो, गुणवत्तापूर्ण इलाज प्राप्त कर सके।
आयुष्मान भारत और डिजिटल स्वास्थ्य पहल: ग्रामीण पहुंच की नई उम्मीद
‘आयुष्मान भारत - प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना’ भारत सरकार की सबसे क्रांतिकारी और समावेशी स्वास्थ्य योजनाओं में से एक है, जिसके तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को ₹5 लाख तक की निःशुल्क वार्षिक स्वास्थ्य बीमा सुरक्षा दी जाती है। यह योजना ग्रामीण भारत के करोड़ों परिवारों को चिकित्सा से वंचित न रहने देने की दिशा में एक बड़ी पहल है। साथ ही, सरकार ने डिजिटल स्वास्थ्य क्षेत्र में भी कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। आईपीएचएस (IPHS) अनुपालन डैशबोर्ड (Compliance Dashboard) जैसे टूल्स (tools) से स्वास्थ्य केंद्रों की वास्तविक समय में निगरानी संभव हुई है, जिससे सेवा की गुणवत्ता में सुधार आया है। आयुष्मान आरोग्य मंदिरों के लिए वर्चुअल मूल्यांकन प्रणाली शुरू की गई है, जिससे देशभर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का आकलन तकनीकी माध्यम से हो पा रहा है। इसके अतिरिक्त, खाद्य विक्रेताओं के लिए स्पॉट फ़ूड लाइसेंस (Spot Food License) जैसे डिजिटल समाधान भी शुरू किए गए हैं, जो स्वास्थ्य और पोषण को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक हैं। साथ ही, टेलीमेडिसिन जैसे माध्यमों के ज़रिए दूरदराज़ क्षेत्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की सलाह अब मोबाइल (mobile) या कंप्यूटर (computer) के ज़रिए उपलब्ध हो रही है।

मेडिकल नवाचार और मेडटेक मित्र जैसी योजनाओं से आत्मनिर्भरता की ओर कदम
भारत को चिकित्सा उपकरणों और नवाचारों में आत्मनिर्भर बनाने के लिए केंद्र सरकार ने 'मेडटेक मित्र' जैसी पहल की शुरुआत की है, जो युवा भारतीय नवप्रवर्तकों को अनुसंधान, विकास और नियामक स्वीकृति प्राप्त करने में मार्गदर्शन देती है। इससे स्वास्थ्य क्षेत्र में आयात पर निर्भरता घटेगी और भारत 2030 तक 50 अरब डॉलर के मेडटेक उद्योग के रूप में उभर सकता है। ‘मेक इन इंडिया’ (Make in India) अभियान के तहत इन मेडटेक उत्पादों के स्वदेशी विकास को विशेष प्रोत्साहन मिल रहा है, जिससे ना केवल लागत कम हो रही है, बल्कि देश के भीतर गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा उपकरणों की उपलब्धता भी बढ़ रही है। इसके साथ ही, ड्रोन (drone) आधारित ‘मेडिसिन फ्रॉम द स्काई’ परियोजना के अंतर्गत, दूरदराज़ और दुर्गम क्षेत्रों तक जीवनरक्षक दवाओं की पहुँच को संभव बनाया जा रहा है। साथ ही, जुलाई 2021 में भारत सरकार ने 'राष्ट्रीय चिकित्सा और कल्याण पर्यटन बोर्ड' की स्थापना भी की थी, जिससे चिकित्सा नवाचारों को वैश्विक बाजारों में भी बढ़ावा मिले। यह न केवल भारत को वैश्विक हेल्थटेक लीडर (Global Healthtech Leader) बनाने की दिशा में बड़ा कदम है, बल्कि युवाओं के लिए अनुसंधान आधारित करियर के नए रास्ते भी खोल रहा है।
स्वास्थ्य सेवाओं में अंतरराष्ट्रीय सहयोग और वैश्विक साझेदारियाँ
भारत ने स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित किया है। इक्वाडोर और भारत के बीच चिकित्सा उत्पाद विनियमन में सहयोग के लिए समझौता हुआ है, जिससे फार्मास्युटिकल निर्यात में वृद्धि की संभावना है। इसी प्रकार, नीदरलैंड (Netherlands) और भारत ने हेल्थ टेक्नोलॉजी (health technology) में संयुक्त सहयोग बढ़ाने के लिए हेग में आशय पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिससे चिकित्सा गुणवत्ता में वृद्धि संभव होगी। साथ ही, डेनमार्क (Denmark) के साथ 2021 में हुआ समझौता भी इसी दिशा में एक कदम था, जिसमें पारंपरिक चिकित्सा और स्वास्थ्य नवाचारों पर संयुक्त प्रयास किए जाने पर सहमति बनी। विश्व बैंक ने भी भारत के आयुष्मान भारत स्वास्थ्य अवसंरचना मिशन के लिए 1 बिलियन (billion) अमेरिकी डॉलर की ऋण सहायता दी है, जिससे स्वास्थ्य प्रणाली की नींव को मज़बूती मिली है। साथ ही, विश्व आर्थिक मंच और नीति आयोग जैसे वैश्विक साझेदारों के साथ 'मेडिसिन फ्रॉम द स्काई' जैसी परियोजनाएं भारत को तकनीकी स्वास्थ्य नेतृत्व की ओर बढ़ा रही हैं। ये साझेदारियाँ न केवल चिकित्सा सेवा वितरण को सशक्त बनाती हैं, बल्कि भारत की वैश्विक पहचान को भी स्वास्थ्य क्षेत्र में मज़बूत करती हैं।

शहरी और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के बीच असमानता: जमीनी सच्चाई और आँकड़े
स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच और गुणवत्ता में शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों के बीच भारी अंतर है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 75% स्वास्थ्य संसाधन शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं, जबकि 70% से अधिक जनसंख्या ग्रामीण इलाक़ों में रहती है। इस असमानता के कारण ग्रामीण भारत के नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुविधाएँ प्राप्त करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों की सीमित संख्या के कारण लोगों को कई किलोमीटर दूर जाकर इलाज कराना पड़ता है। यह ना केवल समय की बर्बादी करता है बल्कि इलाज की लागत भी बढ़ाता है, जिससे गरीब वर्ग इलाज से वंचित रह जाता है। सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के बावजूद, अभी भी स्वास्थ्य सेवाओं की समान पहुँच सुनिश्चित करने के लिए अधिक योजनाबद्ध और लक्षित कदमों की आवश्यकता है। डिजिटल स्वास्थ्य समाधान और टेलीमेडिसिन सेवाएँ इस अंतर को कुछ हद तक भर रही हैं, लेकिन ज़मीनी ढांचे और मानव संसाधन की असमानता अब भी बड़ी चुनौती बनी हुई है।
स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में ढांचागत और मानव संसाधन की चुनौतियाँ
भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है - बुनियादी ढांचे और मानव संसाधनों की कमी। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs), उप-स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHCs) में न तो पर्याप्त डॉक्टर हैं और न ही आवश्यक चिकित्सा उपकरण। स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों की भारी कमी, जैसे डॉक्टर, नर्स, और पैरामेडिकल स्टाफ (Paramedical Staf) की उपलब्धता न होना, देश की चिकित्सा सेवा की रीढ़ को कमजोर बनाता है। अधिकांश डॉक्टर शहरी क्षेत्रों में नौकरी करना पसंद करते हैं क्योंकि वहाँ बेहतर सुविधाएँ, जीवनशैली और प्रोफेशनल ग्रोथ (professional growth) के अवसर उपलब्ध होते हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं। जैसे कि एम्स की संख्या बढ़ाकर नए क्षेत्रों में खोलना, जिससे तृतीयक स्वास्थ्य सेवाएं अधिक लोगों तक पहुँच सकें। इसके अतिरिक्त, 2022 में गुजरात में पाँच नए मेडिकल कॉलेजों को केंद्र सरकार ने ₹190 करोड़ की आर्थिक सहायता के साथ मंजूरी दी।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/uab6kw3x
मेरठवासियो, जानिए कैसे नवरात्रि पूरे भारत में भक्ति और उत्सव के अनोखे रंग बिखेरती है
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
28-09-2025 09:03 AM
Meerut-Hindi

नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं मेरठ!
नवरात्रि केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति में नारी शक्ति की दिव्यता और प्रकृति के चक्रों के साथ सामंजस्य का उत्सव है। ‘नवरात्रि’ शब्द संस्कृत के “नव” यानी नौ और “रात्रि” यानी रात से मिलकर बना है। यह पर्व देवी दुर्गा के नौ रूपों को समर्पित होता है। हर दिन एक अलग रूप की पूजा होती है, और भक्त उपवास, ध्यान और पूजा के ज़रिए माँ दुर्गा से आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। नवरात्रि साल में पाँच बार मनाई जाती है - चैत्र, शारदीय, आषाढ़, पौष और माघ माह में। हालांकि इनमें से चैत्र और शारदीय नवरात्रि को ही व्यापक रूप से मनाया जाता है। ये दोनों पर्व मौसम के बदलाव के समय आते हैं, और आत्मिक नवीनीकरण का अवसर प्रदान करते हैं।
चैत्र नवरात्रि वसंत ऋतु में, मार्च-अप्रैल के महीने में आती है। यह कई क्षेत्रों में हिंदू नववर्ष की शुरुआत मानी जाती है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में इसे 'गुड़ी पड़वा', कश्मीर में 'नवरेह' और दक्षिण भारत में 'उगादि' के रूप में मनाया जाता है। चैत्र नवरात्रि का समापन राम नवमी के दिन होता है, जो भगवान राम के जन्म का पर्व है। वहीं दूसरी ओर, शारदीय नवरात्रि सबसे प्रसिद्ध और व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व है। यह सितंबर-अक्टूबर के महीनों में आता है, जब वर्षा ऋतु समाप्त हो रही होती है और शरद ऋतु का आरंभ होता है। इस नवरात्रि में माँ दुर्गा के महिषासुर पर विजय की कथा के माध्यम से बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश दिया जाता है। दसवें दिन विजयादशमी या दशहरा मनाया जाता है, जो भगवान राम की रावण पर विजय का प्रतीक है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/4s3xpcb5
https://tinyurl.com/3juvve9e
https://tinyurl.com/yjb3n3k2
https://tinyurl.com/44supk7v
https://tinyurl.com/ykpjm7xf
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