मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












पौधों की चुपचाप चालाकियाँ: मेरठ की हरियाली में छिपे उनके ज़िंदा रहने के तरीके
व्यवहारिक
By Behaviour
22-08-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

मेरठ जैसे शहर में, जहाँ खेत-खलिहान, बाग-बगीचे और घरों की छतों पर रखे गमले, हर जगह हज़ारों किस्म के पौधे मौजूद हैं। वहाँ यह समझना और भी ज़रूरी हो जाता है कि हम जिन पेड़ों और पौधों को बस 'हरे-भरे' कहकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं, वे असल में अपने स्तर पर जीवित रहने की एक जद्दोजहद में लगे होते हैं। जब भी हम पौधों की बात करते हैं, तो अक्सर हमारे ज़हन में उनकी एक शांत, स्थिर और सौम्य छवि उभरती है, जैसे वे बस धूप में नहाकर, हवा में झूमते रहते हों। लेकिन सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा दिलचस्प है। पौधे केवल सुंदर और उपयोगी ही नहीं होते, बल्कि वे बेहद समझदार और रणनीतिक भी होते हैं। वे बिना आवाज़ किए अपनी ज़िंदगी बचाने के लिए ऐसी तरकीबें अपनाते हैं, जो हमें चौंका सकती हैं। कुछ पौधे रंग-बिरंगे फूल और मीठी सुगंध के ज़रिए मधुमक्खियों, तितलियों और पक्षियों को अपने पास बुलाते हैं ताकि वे परागण में मदद कर सकें। कुछ और भी आगे बढ़ते हैं, वे ऐसे कीड़े फँसाने वाले ढाँचे बनाते हैं और उन्हें पचाकर पोषक तत्व प्राप्त करते हैं। वहीं कई पौधे अपने पत्तों, रस या बीजों में ऐसे रसायन विकसित करते हैं जो उन्हें खाने वाले कीटों या जानवरों को नुकसान पहुँचाते हैं। यह सब कुछ बेहद चुपचाप होता है, लेकिन इसकी जटिलता किसी युद्ध रणनीति से कम नहीं होती।
इस लेख में हम जानेंगे कि पौधे कैसे सोच-समझकर ज़िंदा रहने के लिए कदम उठाते हैं। सबसे पहले, देखेंगे कि फूलों का रंग, गंध और आकार कैसे मधुमक्खियों, तितलियों और पक्षियों को आकर्षित करते हैं। फिर बात करेंगे कुछ अजीब लेकिन असरदार परागण रणनीतियों की, जैसे मांस जैसी गंध या रात में खिलना। इसके बाद, समझेंगे कीटभक्षी पौधों की दुनिया, वे कीटों को कैसे फँसाते हैं। फिर जानेंगे कि पौधे खुद को खाने वाले कीटों और जानवरों से कैसे बचाते हैं। अंत में, देखेंगे कि कुछ पौधों का ज़हर इंसानों के लिए कितना ख़तरनाक हो सकता है और उन्हें सुरक्षित कैसे बनाया जाता है।

परागण के लिए पौधों की आकर्षक विशेषताएँ
पौधों के लिए परागण (Pollination) एक अत्यंत आवश्यक जैविक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से वे अपनी नस्ल आगे बढ़ा पाते हैं और फल व बीज उत्पन्न करते हैं। इसके लिए वे मधुमक्खियों, तितलियों, भौंरों, और पक्षियों जैसे परागणकर्ताओं की सहायता लेते हैं। इन्हें आकर्षित करने के लिए पौधे विशेष रूप से विकसित हुए हैं। उनके फूलों का रंग, गंध, बनावट और आकृति समय के साथ इस प्रकार अनुकूलित हुई है कि परागणकर्ता सहज रूप से आकर्षित हो सकें। उदाहरण के लिए, चमकीले पीले या नीले रंग और मीठी खुशबू वाले फूल मधुमक्खियों को खासतौर पर लुभाते हैं, जबकि लंबे, संकरे और ट्यूब जैसे फूलों में गहरे रंग हमिंगबर्ड (hummingbird) जैसे पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। बाग-बगीचों, खेतों और ग्रामीण इलाकों में ऐसे फूलों की भरमार होती है, जहाँ सुबह-सुबह मधुमक्खियों की गुनगुनाहट और तितलियों की चहल-पहल पौधों के इस सुंदर जैविक सहयोग को दर्शाती है।
अजीब लेकिन प्रभावशाली परागण रणनीतियाँ
प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया के चलते कुछ पौधों ने ऐसी परागण रणनीतियाँ विकसित की हैं जो पहली नज़र में अजीब या असामान्य लग सकती हैं, लेकिन वास्तव में ये अत्यंत प्रभावशाली हैं। उदाहरण के लिए, कुछ फूलों ने सड़े हुए मांस जैसी गंध विकसित की है जिससे वे मक्खियों को धोखे से आकर्षित करते हैं। ये फूल भूरे, बैंगनी या धब्बेदार होते हैं, ताकि वे मृत जीव-जंतुओं जैसे दिखें। मक्खियाँ सोचती हैं कि उन्हें अंडे देने के लिए उपयुक्त जगह मिल गई है, और इसी प्रक्रिया में वे परागण कर जाती हैं। कुछ पौधे, जैसे मूनफ़्लावर और ब्रह्मकमल, रात में ही खिलते हैं और एक मीठी, रहस्यमयी गंध छोड़ते हैं, जिससे पतंगे और निशाचर कीट उन तक पहुँच सकें। विविध प्रकार की वनस्पतियाँ पाए जाने वाले क्षेत्रों में, खासकर जहाँ जैव विविधता अधिक होती है, ऐसी रणनीतियाँ अपनाने वाले पौधे भी प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं जो पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित बनाए रखने में मदद करते हैं।

कीटभक्षी पौधों की अनोखी दुनिया
कुछ विशेष परिस्थितियों में उगने वाले पौधे इतने चतुर होते हैं कि वे अपनी पोषण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कीड़ों और छोटे जीवों का शिकार करते हैं। कीटभक्षी पौधे जैसे वीनस फ्लाइट्रैप (Venus Flytrap), पिचर प्लांट (Pitcher Plant) और सनड्यू (Sundew) विशेष रूप से उन जगहों पर पाए जाते हैं जहाँ मिट्टी में नाइट्रोजन (nitrogen) और अन्य पोषक तत्वों की कमी होती है। ये पौधे कीटों को आकर्षित करने के लिए चमकदार रंग, मीठी गंध और चिपचिपी सतह का इस्तेमाल करते हैं। वीनस फ्लाइट्रैप की पत्तियाँ ऐसी होती हैं जो कीट के स्पर्श से तुरंत बंद हो जाती हैं, वहीं पिचर प्लांट की सुराही जैसी रचना में कीट फिसलकर गिर जाता है और नीचे मौजूद एंज़ाइम (enzymes) उसे धीरे-धीरे पचा लेते हैं। ये पौधे प्रकृति की अनोखी रचनाएँ हैं और वैज्ञानिकों के लिए निरंतर अध्ययन का विषय बने रहते हैं। भले ही ये पौधे सामान्यत: हर क्षेत्र में न पाए जाते हों, लेकिन जैव विविधता संरक्षण केंद्रों और विद्यालयों की प्रयोगशालाओं में इनका अध्ययन और प्रदर्शन किया जाता है।
पौधों की प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली
पौधे हमेशा परागणकर्ताओं को लुभाने में लगे नहीं रहते, उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा भी करनी होती है। विभिन्न कीटों और जानवरों से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए पौधों ने अद्भुत सुरक्षा प्रणालियाँ विकसित की हैं, जिनमें रासायनिक, यांत्रिक और जैविक उपाय शामिल होते हैं। कुछ पौधे ऐसे विषैले रसायन या अणु बनाते हैं जो कीड़ों के पाचन तंत्र को बाधित कर देते हैं। उदाहरण के लिए, टमाटर, आलू और मिर्च जैसे पौधों में "थ्रेओनीन डेमिनेज़" (Threonine deaminase) नामक प्रोटीन (protein) पाया जाता है, जो कीटों के लिए आवश्यक अमीनो एसिड (amino acid) को निष्क्रिय कर देता है। कुछ पौधे काँटे या कठोर सतहों का विकास करते हैं जिससे उन्हें खाना मुश्किल हो जाता है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाले किसान इन पौधों की इन विशेषताओं को अच्छी तरह समझते हैं और कीट-प्रतिरोधी फसलों की खेती को प्राथमिकता देते हैं, जिससे उत्पादन भी बेहतर होता है और कीटनाशकों पर निर्भरता भी घटती है।
विषैले पौधे और उनका मानव जीवन पर प्रभाव
प्रकृति में कई ऐसे पौधे मौजूद हैं जो अत्यधिक विषैले होते हैं और यदि इन्हें सही तरीके से न उपयोग किया जाए तो ये मानव जीवन के लिए गंभीर खतरा बन सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, "कसावा" नामक पौधा जो अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका में मुख्य आहार का हिस्सा है, उसमें हाइड्रोजन साइनाइड (hydrogen cyanide) जैसा ज़हर पाया जाता है। इसे खाने से पहले पारंपरिक तरीकों जैसे उबालना, भिगोना और भाप में पकाना आवश्यक होता है। भारत में भी कुछ औषधीय पौधे जैसे आक, धतूरा और भांग का प्रयोग सीमित मात्रा और सही विधि से किया जाए तो लाभकारी होते हैं, लेकिन अज्ञानता की स्थिति में ये घातक हो सकते हैं। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में पारंपरिक हकीम और वैद्य ऐसी जड़ी-बूटियों का ज्ञान पीढ़ियों से संजोए हुए हैं। सही जानकारी और जागरूकता से हम इन विषैले पौधों के खतरों से बच सकते हैं और उनका सुरक्षित उपयोग कर सकते हैं।
संदर्भ-
मलेरिया से कितनी सुरक्षित है मेरठ की हवा? ज़रूरत है जागरूकता और सामूहिक प्रयासों की
तितलियाँ व कीड़े
Butterfly and Insects
21-08-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपके मोहल्ले में भी मच्छरों की तादाद हाल ही में अचानक बढ़ गई है? क्या किसी पड़ोसी को तेज़ बुखार, सिरदर्द, कंपकंपी या लगातार थकान जैसी दिक्कतें हो रही हैं? अक्सर हम इन लक्षणों को वायरल बुखार समझकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं, लेकिन हक़ीक़त में यह मलेरिया (malaria) जैसे घातक संक्रमण की चेतावनी हो सकती है। मेरठ जैसे घनी आबादी और विविध बस्तियों वाले शहर में, जहाँ कुछ इलाक़ों में जलजमाव, साफ़-सफ़ाई की कमी और मच्छर नियंत्रण के उपायों की अनुपस्थिति है, वहाँ मलेरिया तेजी से फैल सकता है। स्कूल जाने वाले बच्चे, बुज़ुर्ग और कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोग इसकी चपेट में जल्दी आते हैं, और यदि समय रहते इसका इलाज न हो, तो यह जानलेवा भी हो सकता है। लेकिन राहत की बात यह है कि देशभर में मलेरिया के मामलों में अब निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर मलेरिया को जड़ से खत्म करने के लिए अनेक कार्यक्रम चला रही हैं। अगर मेरठ के लोग समय पर सतर्क हों, लक्षणों को पहचानें, इलाज में देर न करें और साफ़-सफ़ाई को प्राथमिकता दें, तो यह शहर भी उन इलाकों में शामिल हो सकता है जहाँ मलेरिया को सफलतापूर्वक रोका गया है।
इस लेख में हम जानेंगे कि मलेरिया जैसी बीमारी कैसे हमारे शरीर को प्रभावित करती है और यह किन वजहों से फैलती है। सबसे पहले हम समझेंगे कि मलेरिया क्या है और मादा एनोफिलीज़ (Anopheles) मच्छर की इसमें क्या भूमिका होती है। फिर, हम उन चार प्रमुख परजीवियों की बात करेंगे जो मलेरिया फैलाते हैं। इसके बाद, मलेरिया के तीन चरणों - शीत, गर्म और पसीने वाली अवस्थाओं को पहचानने के तरीकों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं, दवा-प्रतिरोध की चुनौती और भारत की मलेरिया के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक सफलता को भी समझेंगे।

मलेरिया: एक जानलेवा बीमारी की मूल समझ
मलेरिया एक संक्रामक और कभी-कभी जानलेवा बीमारी है, जो प्लास्मोडियम (Plasmodium) नामक परजीवी के कारण होती है। यह परजीवी मनुष्य में मादा एनोफिलीज़ मच्छर के काटने से प्रवेश करता है। यह मच्छर आमतौर पर गंदे पानी, जल-जमाव या नम स्थानों में प्रजनन करता है, और रात के समय अधिक सक्रिय होता है। मलेरिया के लक्षण संक्रमण के 10 से 15 दिन बाद सामने आते हैं। 2023 में वैश्विक स्तर पर मलेरिया के लगभग 26.3 करोड़ मामले सामने आए, जिसमें से 5.97 लाख लोगों की मौत हो गई। इनमें से 94% मामले और 95% मौतें अफ़्रीकी क्षेत्र में हुईं। यह आंकड़े दिखाते हैं कि मलेरिया न केवल एक स्वास्थ्य समस्या है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक चुनौती भी बन चुका है, विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए।
भारत की बात करें तो 1947 में मलेरिया देश की सबसे बड़ी स्वास्थ्य समस्याओं में से एक था। उस समय हर साल लगभग 7.5 करोड़ लोग इसकी चपेट में आते थे और 8 लाख के करीब मौतें होती थीं। परंतु समय के साथ इस बीमारी पर नियंत्रण पाने के लिए अनेक प्रयास किए गए। 2024 तक भारत ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की। वर्ष 2017 की तुलना में मलेरिया के मामलों में 69% और मौतों में 68% की गिरावट दर्ज की गई। आज मलेरिया से निपटना केवल चिकित्सा विज्ञान का कार्य नहीं है, बल्कि इसमें जनजागरूकता, साफ-सफाई, स्वच्छ जल, शिक्षा और सामुदायिक भागीदारी भी अत्यंत आवश्यक है। भारत जैसे देश में, जहाँ विभिन्न जलवायु क्षेत्रों और आबादी की विविधता है, वहाँ एकीकृत और क्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक बनता है।

मलेरिया फैलाने वाले चार प्रमुख परजीवी
मलेरिया का कारण बनने वाले प्लास्मोडियम परजीवी की चार प्रमुख प्रजातियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक की विशेषताएँ और प्रभाव अलग-अलग होते हैं। इनकी जानकारी रखना आवश्यक है ताकि सही निदान और उपचार किया जा सके।
1. प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम (Plasmodium Falciparum)
यह सबसे अधिक घातक प्रकार है और दुनिया में सबसे व्यापक रूप से फैला हुआ है। यह मुख्यतः उप-सहारा अफ्रीका में पाया जाता है और मलेरिया से होने वाली अधिकतर मौतों के लिए जिम्मेदार होता है। यह मस्तिष्क, किडनी और अन्य महत्वपूर्ण अंगों को भी प्रभावित कर सकता है। यदि समय पर इलाज न हो, तो यह तेजी से जानलेवा रूप ले सकता है।
2. प्लास्मोडियम विवैक्स (Plasmodium Vivax)
यह परजीवी पी. फाल्सीपैरम (P. falciparum) जितना जानलेवा नहीं होता, लेकिन इसकी विशेषता यह है कि यह लीवर में निष्क्रिय रह सकता है और वर्षों बाद दोबारा सक्रिय होकर संक्रमण फैला सकता है। यह मुख्यतः भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया और लैटिन अमेरिका में पाया जाता है। इसकी यही विशेषता इसे खतरनाक बनाती है, क्योंकि पुनः संक्रमण का खतरा बना रहता है।
3. प्लास्मोडियम मलेरिए (Plasmodium Malariae)
यह अपेक्षाकृत कम तीव्र मलेरिया का कारण बनता है, लेकिन शरीर में लम्बे समय तक रह सकता है। कभी-कभी बिना लक्षणों के भी यह मौजूद रहता है और लंबे समय में गंभीर क्षति पहुँचा सकता है। यह आमतौर पर अफ्रीका के कुछ हिस्सों में पाया जाता है।
4. प्लास्मोडियम ओवेल (Plasmodium Ovale)
यह पी. विवैक्स (P. vivax) के समान कार्य करता है और लीवर में निष्क्रिय अवस्था में रह सकता है। यह मुख्यतः पश्चिमी अफ्रीका, एशिया और प्रशांत द्वीपों में पाया जाता है। इसके पुनः संक्रमण की संभावना भी बनी रहती है।
मलेरिया के लक्षण और तीन चरणों की पहचान
मलेरिया का संक्रमण शरीर में कई लक्षणों के रूप में प्रकट होता है और यह आमतौर पर तीन चरणों में विकसित होता है। प्रत्येक चरण के लक्षण अलग होते हैं और इनका पहचानना रोग की गंभीरता को समझने में मदद करता है।
1. शीत अवस्था (Chill Stage)
यह प्रारंभिक अवस्था है, जो आमतौर पर 15 से 60 मिनट तक रहती है। इस दौरान मलेरिया परजीवी रक्त की लाल कोशिकाओं को नष्ट करता है। लक्षणों में शामिल हैं:
- कंपकंपी और ठंड लगना
- दांत किटकिटाना
- सांस लेने में परेशानी
- उच्च नाड़ी गति और रक्तचाप में परिवर्तन
- उल्टी, मतली और बार-बार पेशाब
2. गर्म अवस्था (Hot Stage)
इस चरण में शरीर का तापमान तेज़ी से बढ़ता है। यह अवस्था पहले चरण के दो घंटे बाद शुरू होती है। लक्षणों में शामिल हैं:
- तेज़ बुखार (103°F से अधिक)
- त्वचा का लाल होना और पसीने का न आना
- सिरदर्द, आँखों में जलन
- उल्टी और दस्त
- अत्यधिक बेचैनी और प्यास
3. पसीना अवस्था (Sweating Stage)
यह अंतिम चरण होता है जो बुखार के कम होने के साथ शुरू होता है। इसमें:
- भारी पसीना आता है
- शरीर की गर्मी सामान्य हो जाती है
- अत्यधिक थकान और नींद महसूस होती है
यदि समय पर इलाज न किया जाए, तो यह संक्रमण यकृत, गुर्दे, मस्तिष्क और फेफड़ों जैसे अंगों को प्रभावित कर सकता है। बच्चों, गर्भवती महिलाओं और कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोगों के लिए मलेरिया अधिक घातक हो सकता है।

मलेरिया का इलाज: प्रमुख दवाएँ और प्रतिरोधक चुनौतियाँ
मलेरिया के इलाज के लिए उपलब्ध दवाओं का चुनाव परजीवी के प्रकार, रोग की गंभीरता और रोगी की स्वास्थ्य स्थिति पर निर्भर करता है। वर्तमान में मलेरिया के इलाज में कई दवाएँ प्रचलित हैं, लेकिन दवा-प्रतिरोध एक गंभीर चुनौती बनता जा रहा है।
प्रमुख दवाएँ:
- एटोवाक्वोन (Atovaquone) – हल्के संक्रमण में उपयोगी।
- आर्टेमिसिनिन (Artemisinin) आधारित संयोजन (ACTs) – जैसे आर्टेसुनेट (Artesunate) और आर्टेमेथर (Artemether); गंभीर मामलों में प्रमुख।
- क्लोरोक्वीन (Chloroquine) – पहले यह प्रमुख दवा थी, लेकिन अब कई क्षेत्रों में परजीवी इससे प्रतिरोधी हो गए हैं।
- डॉक्सीसाइक्लिन और मेफ्लोक्वीन – सहायक दवाओं के रूप में प्रयोग होती हैं।
- प्राइमाक्वीन – पी. विवैक्स और पी. ओवैले (P. ovale) जैसे परजीवियों के पुनरावृत्ति रोकने में सहायक।
दवा प्रतिरोध की समस्या:
हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि कुछ मलेरिया परजीवी विशेष रूप से पी. फ़ाल्सीपैरम (P. falciparum) ने क्लोरोक्वीन और आर्टेमिसिनिन जैसे प्रमुख उपचारों के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लिया है। इससे इलाज में जटिलताएँ बढ़ गई हैं और वैज्ञानिकों को नई दवाओं या वैकल्पिक रणनीतियों की आवश्यकता महसूस हो रही है।
इसका समाधान केवल नई दवाएँ नहीं, बल्कि उपचार की निगरानी, डोज़िंग की सटीकता और सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के तहत सशक्त हस्तक्षेप द्वारा संभव है।
भारत की मलेरिया से लड़ाई और सफलता की कहानी
भारत ने स्वतंत्रता के बाद मलेरिया पर नियंत्रण पाने के लिए कई ठोस कदम उठाए। 1953 में भारत सरकार ने "राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (NMCP)" की शुरुआत की। इसके बाद "राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (NMEP)" और फिर कई सुधार योजनाएँ लागू की गईं।
1947 की स्थिति:
स्वतंत्रता के समय मलेरिया से हर साल लगभग 7.5 करोड़ लोग प्रभावित होते थे और 8 लाख मौतें होती थीं।
2023 की स्थिति:
मलेरिया के मामलों में 97% की गिरावट देखी गई। अब हर साल लगभग 20 लाख मामले दर्ज होते हैं और मौतों की संख्या घटकर 83 पर आ गई है।
2023 की एक और उपलब्धि:
देश के 122 ज़िलों में मलेरिया का एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया। यह दर्शाता है कि भारत "मलेरिया-मुक्त भारत" की दिशा में तेज़ी से अग्रसर है।
महत्वपूर्ण सरकारी पहलें:
- घर-घर मलेरिया स्क्रीनिंग
- मच्छर नियंत्रण के लिए फॉगिंग और कीटनाशक छिड़काव
- जनजागरूकता अभियान और स्कूल-स्तरीय शिक्षा
- डिजिटल निगरानी और रिपोर्टिंग प्रणाली
भारत की यह यात्रा केवल आंकड़ों की सफलता नहीं है, बल्कि यह उस सशक्त इच्छाशक्ति, वैज्ञानिक योगदान और जनता की जागरूकता का परिणाम है, जिसने मलेरिया जैसी महामारी को नियंत्रित करने की दिशा में मील का पत्थर स्थापित किया।
संदर्भ-
https://shorturl.at/803nS
मेरठ की यादों में महक: गंधों की स्मृति और मनोविज्ञान का अद्भुत मेल
गंध- ख़ुशबू व इत्र
Smell - Odours/Perfumes
20-08-2025 09:34 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी किसी पुरानी महक को अचानक महसूस कर के खुद को बरसों पीछे पाया है? जैसे सदर बाजार की गलियों में बहती इत्र की भीनी-भीनी खुशबू, या दादी के हाथों की बनी तहरी की वो घरेलू महक - ये सब महज़ गंध नहीं, बल्कि हमारे भीतर गहरे बसे अनुभवों की चाबी हैं। मेरठ, जो न केवल स्वतंत्रता संग्राम का गवाह रहा है बल्कि अपनी सांस्कृतिक विविधता और पारंपरिक जीवनशैली के लिए भी जाना जाता है, वहाँ की गंधें हमारी यादों की थाती बन चुकी हैं। आज विज्ञान भी इस बात को मानता है कि गंध सिर्फ़ सुगंध नहीं, बल्कि वह हमारी भावनाओं, स्मृतियों और रिश्तों की सबसे गहरी परतों से जुड़ी होती है। ऐसे में जब हम आधुनिकता की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं, तब यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि मेरठ जैसे शहर में गंध का यह भावनात्मक और सांस्कृतिक पहलू हमारी सामूहिक पहचान का हिस्सा क्यों है।
इस लेख में हम गंध और स्मृति के गहरे संबंध को चार प्रमुख पहलुओं में समझने का प्रयास करेंगे। सबसे पहले, हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि घ्राण स्मृति किस प्रकार वर्षों बाद भी किसी विशेष गंध के माध्यम से बीते पलों को जीवंत कर देती है। फिर हम यह पढ़ेंगे कि घ्राण तंत्र और मस्तिष्क के बीच क्या वैज्ञानिक संबंध होता है, और कैसे गंधें हमारी यादों और भावनाओं को इतनी तीव्रता से प्रभावित करती हैं। तीसरे हिस्से में हम प्राउस्ट प्रभाव की चर्चा करेंगे, जो बताता है कि एक मामूली सी गंध भी कैसे अचानक गहरे भावनात्मक अनुभवों को जगा सकती है। अंत में, हम देखेंगे कि मेरठ जैसे सांस्कृतिक नगर में गंधें कैसे सिर्फ इंद्रिय अनुभव नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का भी अभिन्न अंग रही हैं, चाहे वह इत्र की गलियाँ हों, पारंपरिक व्यंजन हों या धार्मिक अवसरों की महक।

घ्राण स्मृति: गंधों से जुड़ी यादों की ताक़त
गंध की शक्ति हमें समय की सीमा पार कर सीधे अतीत की किसी खास स्मृति में ले जाती है। जैसे ही किसी पुराने इत्र, बारिश की भीगी मिट्टी या किसी प्रियजन के कपड़े की सुगंध हमारे आसपास आती है, हमारे मस्तिष्क में उनसे जुड़ी घटनाएँ, दृश्य और भावनाएँ तुरंत सक्रिय हो जाती हैं। यह प्रतिक्रिया इतनी तेज़ और प्रभावशाली होती है कि वह हमें क्षण भर में हमारे बचपन, किसी ख़ास रिश्ते या भूले-बिसरे अनुभवों की गोद में पहुँचा देती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि घ्राण प्रणाली सीधे मस्तिष्क के उन हिस्सों से जुड़ी होती है जहाँ भावनाएँ और दीर्घकालिक स्मृतियाँ संग्रहित रहती हैं, जैसे अमिगडाला और हिप्पोकैम्पस। बच्चों और नवजातों में यह घ्राण स्मृति और भी शक्तिशाली होती है, नवजात अपनी माँ को महज उसकी महक से पहचान लेते हैं, इससे पहले कि वे आँखें पूरी तरह खोलें। मेरठ के बुज़ुर्ग जब बाज़ार में चलते हुए गुड़, शुद्ध घी या देशी मसालों की महक महसूस करते हैं, तो वह केवल स्वाद की बात नहीं होती, वह पूरा एक जीवन का अनुभव होता है, जिसमें दादी की रसोई, माँ के हाथों की रोटियाँ और त्योहारों की वह अनमोल मिठास समाई होती है।
मस्तिष्क और घ्राण तंत्र का संबंध: वैज्ञानिक दृष्टिकोण
गंध की अनुभूति केवल एक संवेदना नहीं, बल्कि एक अत्यंत जटिल और गहन न्यूरोलॉजिकल (neurological) प्रक्रिया है। जब हम कोई गंध महसूस करते हैं, तो हमारी नाक के भीतर मौजूद घ्राण रिसेप्टर्स (olfactory receptors) गंध के अणुओं को पहचानते हैं और उनका सिग्नल 'घ्राण बल्ब' (olfactory bulb) के ज़रिए मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं। यह संकेत पारंपरिक इंद्रियों की तुलना में अलग रास्ता अपनाता है, यह थैलेमस (thalamus) जैसे मध्यवर्ती केंद्र को बायपास करके सीधे लिंबिक सिस्टम (limbic system), विशेष रूप से अमिगडाला (Amygdala) और हिप्पोकैम्पस (Hippocampus) तक पहुँचता है, जो भावनाओं और स्मृतियों का नियंत्रण केंद्र हैं। यही कारण है कि गंधों से जुड़ी यादें न केवल तेज़ होती हैं बल्कि अत्यधिक भावनात्मक भी होती हैं। मेरठ जैसे सांस्कृतिक शहर की गलियों में चलते हुए जब गुलाब जल, चंदन या रजनीगंधा की महक हवा में तैरती है, तो वह किसी मंदिर में बिताए गए बचपन के शाम, शादी-ब्याह के पलों या किसी प्रिय की अंतिम विदाई तक की भावनाओं को जगा देती है। यह विज्ञान की एक सुंदर मिसाल है कि कैसे हमारी चेतना गंध के माध्यम से भावनात्मक और मानसिक यात्रा पर निकल पड़ती है।

गंध और भावनात्मक अनुभव: प्राउस्ट प्रभाव (Proust Phenomenon)
फ्रांसीसी लेखक मार्सेल प्राउस्ट (Marcel Proust) ने अपनी रचना में जिस "प्राउस्ट इफेक्ट" (Proust Effect) का वर्णन किया है, वह अब वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो चुका है। यह सिद्धांत बताता है कि कैसे एक साधारण-सी गंध अचानक हमारे मन में पुरानी, कभी न भूलने वाली भावनाओं और यादों की लहरें ला सकती है। अमेरिकी न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ. रेचल हर्ज़ (Neuroscientist Dr. Rachel Herz) और अन्य शोधकर्ताओं ने यह पाया कि गंधों से जुड़ी स्मृतियाँ अन्य इंद्रियों से उत्पन्न यादों की तुलना में अधिक स्पष्ट, दीर्घकालिक और भावनात्मक रूप से तीव्र होती हैं। उदाहरण के लिए, मेरठ के किसी व्यक्ति को जब किसी ढाबे से आ रही देसी परांठों की महक आती है, तो उसे फौरन अपनी दादी की रसोई की याद आ जाती है, गर्म परांठे, सफेद मक्खन की गंध और लकड़ी के चूल्हे की हल्की-सी राख की महक। ये गंधें केवल स्वाद का अनुभव नहीं, बल्कि उस समय की सुरक्षा, प्रेम और अपनापन का भाव लेकर आती हैं। यही कारण है कि गंध हमारे मन में केवल सूचना नहीं छोड़ती, बल्कि पूरी की पूरी भावनात्मक स्थिति को जीवित कर देती है, वह भी एक ही सांस में।

गंध की सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका: अनुभव और स्मृति का साझा पहलू
गंध केवल एक व्यक्तिगत अनुभूति नहीं है, बल्कि यह सामूहिक स्मृतियों और सांस्कृतिक पहचान का भी महत्वपूर्ण आधार बनती है। विविध सांस्कृतिक शहर में, हर गंध एक कहानी कहती है, मस्जिदों से उठती इत्र की खुशबू, मंदिरों में चढ़ाई गई चंदन और फूलों की सुगंध, मिठाई की दुकानों से आती खोये की महक, या फिर सर्दियों की सुबह में जलते उपलों की स्मृति। ये सब गंधें सिर्फ वातावरण का हिस्सा नहीं, बल्कि मेरठ की सामाजिक आत्मा का निर्माण करती हैं। कोई नई किताब जब खुलती है तो उसमें से आती स्याही की महक बचपन के स्कूल और लाइब्रेरी की याद दिला देती है। शादी में जलाए जाने वाले धूप और हवन की सुगंध रिश्तों और परंपराओं का स्मरण कराती है। इन गंधों के माध्यम से पीढ़ियाँ एक-दूसरे से जुड़ती हैं, माँ की रसोई की महक बेटी की याद बन जाती है, दादी के इत्र की खुशबू पोते के लिए दुलार का प्रतीक। इन अनुभवों में गंध वह अदृश्य धागा बन जाती है जो हमारे व्यक्तिगत अनुभवों को सामाजिक संस्कृति से जोड़ती है और हमें हमारी सामूहिक जड़ों से जोड़ती है।
संदर्भ-
तस्वीरों में थमा वक़्त: मेरठ और लाला दीन दयाल की फोटोग्राफी की विरासत
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
19-08-2025 09:23 AM
Meerut-Hindi

मेरठ सिर्फ़ एक शहर नहीं, कहानियों की ज़मीन है, और उन्हीं कहानियों को कैमरे में क़ैद करने की परंपरा की शुरुआत यहीं से हुई थी। आज जब हम हर साल 19 अगस्त को विश्व फोटोग्राफी दिवस मनाते हैं, तो यह सिर्फ़ लाइट और कैमरे का उत्सव नहीं है। यह उन लोगों को याद करने का दिन है जिन्होंने तस्वीरों को केवल दृश्य नहीं, बल्कि संवेदना का माध्यम बनाया। और ऐसे लोगों में लाला दीन दयाल का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिए - एक ऐसे इंसान ने, जो मेरठ की मिट्टी से निकला, लेकिन उसकी नज़रों ने पूरे भारत को देख लिया। यह वही धरती है जहाँ 1844 में सरधना में जन्मे लाला दीन दयाल ने भारत में फोटोग्राफी को न सिर्फ़ तकनीक और कला के रूप में स्थापित किया, बल्कि उसे इतिहास, संस्कृति और पहचान से जोड़ा। उस दौर में जब कैमरा बहुत कम लोगों के पास होता था, दीन दयाल ने भारत की रियासतों, मंदिरों, महलों और आम ज़िंदगी को अपने लेंस से इस तरह सहेजा कि वे तस्वीरें आज भी इतिहास के ज़िंदा दस्तावेज़ की तरह देखी जाती हैं। उन्होंने केवल दृश्य नहीं कैद किए, बल्कि समय को थाम लिया - ऐसे समय को, जो आज़ादी से पहले के भारत की तहज़ीब, सत्ता और साधारण जीवन को एक साथ दिखाता है। उनकी बनाई तस्वीरों ने भारत के सौंदर्य और विविधता को दुनिया के सामने रखा, और यह साबित किया कि मेरठ जैसी जगहों से निकली प्रतिभा भी पूरे भारत की छवि बदल सकती है।
इस लेख की शुरुआत हम मेरठ के लाला दीन दयाल से करेंगे, जिन्होंने फोटोग्राफी को राजसी शौक से आगे बढ़ाकर इतिहास दर्ज करने का माध्यम बनाया। फिर, जानेंगे कैसे सेसिल बीटन (Cecil Beaton), मार्गरेट बोर्क वाइट (Margaret Bourke-White), हेनरी कार्टियर ब्रेसन (Henri Cartier-Bresson) और स्टीव मैककरी (Steve McCurry) जैसे विदेशी फोटोग्राफरों ने भारत की छवि को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया। इसके बाद बात करेंगे मेरठ के युवाओं की, जिनके लिए फोटोग्राफी अब एक उभरता हुआ प्रोफेशन (profession) है, शादी, विज्ञापन और डिजिटल मीडिया (digital media) में अवसरों के साथ। अंत में चर्चा होगी कि तकनीक के साथ-साथ रचनात्मक दृष्टिकोण और संवेदनशीलता कैसे एक फोटोग्राफर को पहचान दिलाते हैं।
फोटोग्राफी की ऐतिहासिक विरासत: लाला दीन दयाल का योगदान
मेरठ के सरधना में जन्मे लाला दीन दयाल भारत के पहले पेशेवर फोटोग्राफर माने जाते हैं, जिन्होंने न सिर्फ़ कैमरे का इस्तेमाल एक तकनीक के रूप में किया, बल्कि उसे संस्कृति और इतिहास को संजोने का माध्यम भी बनाया। 19वीं सदी में जब कैमरा संभ्रांत वर्ग तक ही सीमित था और फोटोग्राफी एक मुश्किल विज्ञान मानी जाती थी, तब दीन दयाल ने रुड़की के थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज (Thomson Engineering College) से तकनीकी प्रशिक्षण लेने के बाद इंदौर में एक मामूली हेड ड्राफ्ट्समैन (head draftsman) की नौकरी से शुरुआत की। वहीं उन्होंने फोटोग्राफी को शौक के रूप में अपनाया। इंदौर के महाराजा तुकोजीराव होल्कर के प्रोत्साहन से दीन दयाल ने अपना पहला स्टूडियो ‘लाला दीन दयाल एंड संस’ 1868 में खोला। उन्होंने मंदिरों, महलों, स्मारकों, राजाओं, नवाबों और यहाँ तक कि प्रिंस ऑफ वेल्स (Prince of Wales) जैसी अंतरराष्ट्रीय हस्तियों को अपने कैमरे में कैद किया। उन्होंने बुंदेलखंड के स्मारकों की 86 तस्वीरों वाला पोर्टफोलियो तैयार किया जिसे ‘मध्य भारत के प्रसिद्ध स्मारक’ के नाम से जाना गया। 1885 में उन्हें हैदराबाद के निज़ाम का दरबारी फोटोग्राफर बनाया गया और उसी वर्ष उन्हें भारत के वायसराय व बाद में रानी विक्टोरिया (Queen Victoria) का आधिकारिक फोटोग्राफर नियुक्त किया गया। उन्होंने महिलाओं के लिए अलग स्टूडियो ‘ज़नाना’ भी स्थापित किया, जिसे एक ब्रिटिश महिला संचालित करती थीं, यह उस दौर में एक क्रांतिकारी विचार था। लाला दीन दयाल ने साबित किया कि मेरठ सिर्फ़ विद्रोहियों की भूमि नहीं, बल्कि संवेदनशील रचनाकारों की भी जन्मभूमि है।

जब विदेशी कैमरों ने भारत को देखा: बीटन से मैककरी तक
दीन दयाल के बाद, भारत की विविधता और ऐतिहासिक पलों को दुनिया तक पहुँचाने में कई प्रतिष्ठित विदेशी फोटोग्राफरों ने अहम भूमिका निभाई। इन फोटोग्राफरों ने भारत को सिर्फ़ एक दृश्य नहीं, बल्कि एक संवेदनशील अनुभव की तरह देखा और दिखाया। 1944 में ब्रिटिश सूचना मंत्रालय की ओर से सेसिल बीटन को भारत, बर्मा और चीन भेजा गया, जहाँ उन्होंने युद्धग्रस्त वातावरण के बीच भी जीवन की गरिमा और सुंदरता को कैमरे में उतारा। उन्होंने अपने अनुभवों को 'Indian Diary and Album' (भारतीय डायरी और एल्बम) नामक पुस्तक में संजोया। उनकी तस्वीरें न सिर्फ़ देखी जाती हैं, बल्कि महसूस की जाती हैं, चाहे वह धूल से भरे बर्मी गाँव हों या बंबई की युद्ध से अछूती भव्यता।
मार्गरेट बोर्क वाइट ने 1946 में गांधी जी की चरखा चलाते हुए जो तस्वीर ली, वह आज भी भारतीय स्वराज और आत्मनिर्भरता की सबसे सशक्त छवियों में गिनी जाती है। यह तस्वीर 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद LIFE (लाइफ़) पत्रिका की श्रद्धांजलि में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। हेनरी कार्टियर ब्रेसन, जिन्हें आधुनिक फोटो-पत्रकारिता का जनक कहा जाता है, ने भारत में विभाजन, जनजीवन और गांधी जी के अंतिम संस्कार तक के दुर्लभ दृश्य कैमरे में कैद किए। उनकी छवियों में वह भारत नज़र आता है जो आत्मा से जिया गया। स्टीव मैककरी की तस्वीरों ने भारत की विविधता को रंगों और भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया - कभी राजस्थान के रेत में तो कभी बनारस की गली में। उन्होंने कहा था कि “भारत ने मुझे दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा जादू और कहानी दी” - और शायद यही कारण है कि उनकी तस्वीरें भारत को एक नए नजरिए से दुनिया के सामने रखती हैं।

मेरठ से लेकर मुंबई तक: फोटोग्राफी में करियर की नई राहें
आज का मेरठ, जहाँ दीन दयाल जैसे फोटोग्राफर ने शुरुआत की थी, अब एक नए युग में प्रवेश कर चुका है जहाँ फोटोग्राफी केवल शौक नहीं, बल्कि करियर (career) का सशक्त माध्यम बन चुका है। आज के युवा शादी, प्री-वेडिंग शूट (Pre-Wedding Shoot), फैशन इवेंट (Fashion Events), सोशल मीडिया कंटेंट (Social Media Content) और ट्रैवल डॉक्यूमेंट्री (Travel Documentary) जैसी परियोजनाओं में अपना भविष्य देख रहे हैं। शहर में स्टूडियोज़, कैमरा रेंटल (camera rental) सुविधाएं और ऑनलाइन ट्यूटोरियल्स (online tutorials) की उपलब्धता ने इस क्षेत्र को और भी सुलभ बना दिया है। मेरठ के युवाओं के लिए अब सिर्फ़ लोकल फोटो स्टूडियो (local photo studio) तक सीमित रहना ज़रूरी नहीं है। वे अपनी तस्वीरें Shutterstock (शटरस्टॉक), Getty Images (गेट्टी इमेजेस), 500px जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म (online platform) पर बेच सकते हैं। साथ ही, विज्ञापन एजेंसियों, मीडिया हाउसेस (media houses) और फैशन इंडस्ट्री (fashion industry) में भी कुशल फोटोग्राफरों की माँग लगातार बढ़ रही है। फ्रीलांसिंग (Freelancing) भी इस क्षेत्र में एक बड़ा अवसर बन चुका है जहाँ व्यक्ति अपनी रचनात्मकता के साथ स्वतंत्रता का भी अनुभव करता है।

कैमरे से बने कॅरियर: कौशल, दृष्टि और तकनीक की ज़रूरत
फोटोग्राफी आज सिर्फ़ बटन दबाने की तकनीक नहीं रही, यह दृश्य भाषा की एक ऐसी कला बन गई है, जो किसी भी क्षण को कहानी में बदल सकती है। एक प्रभावशाली तस्वीर के पीछे महज़ एक क्लिक नहीं, बल्कि संवेदना, दृष्टिकोण और तकनीकी समझ का सामंजस्य होता है। किसी साधारण सी प्रतीत होने वाली चीज़ को भी असाधारण बनाकर दिखाने का हुनर ही एक फोटोग्राफर की सबसे बड़ी पहचान है। एक सफल फोटोग्राफर को रचना (composition), प्रकाश (lighting), फ्रेमिंग (framing), रंग संतुलन, और भावनात्मक जुड़ाव की गहरी समझ होनी चाहिए। साथ ही, अब डिजिटल कैमरों, ड्रोन, 360-डिग्री लेंस, और AI-आधारित एडिटिंग टूल्स (editing tools) के आने से इस पेशे ने तकनीकी रूप से भी छलांग लगाई है। जो पहले सिर्फ़ कैमरा थाम कर शादियों या आयोजनों की तस्वीरें खींचना माना जाता था, आज वो फोटोग्राफर डॉक्यूमेंट्रीज़ (documentaries), फ़ैशन शोज़ (fashion shows), विज्ञापन अभियानों और विज्ञान तक के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

फोटोग्राफी के क्षेत्र में सफल होने के लिए केवल रचनात्मक नज़रिया ही नहीं, बल्कि निरंतर अभ्यास, अनुशासन और एक पेशेवर दृष्टिकोण भी ज़रूरी है। भारत के टॉप संस्थानों, जैसे FTII पुणे, जामिया मिलिया इस्लामिया, YMCA दिल्ली, मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन (Institute of Communication) और एशियन एकेडमी ऑफ फ़िल्म एंड टेलीविज़न (Asian Academy of Film and Television) - में आज प्रोफेशनल ट्रेनिंग (professional training) की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, जो तकनीक और दृष्टि दोनों को आकार देती हैं। फोटोग्राफी अब न सिर्फ़ एक कला है, बल्कि आत्म-अभिव्यक्ति (self-expression), संवाद (communication), और कभी-कभी तो सामाजिक बदलाव का माध्यम भी बन गई है। यदि आपके पास चीज़ों को एक अलग तरह से देखने की नज़र है, और आप भावनाओं को दृश्य रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं, तो यह क्षेत्र आपके लिए केवल करियर नहीं - बल्कि एक जुनून बन सकता है।
संदर्भ-
https://short-link.me/15I2e
https://short-link.me/1a4Ma
https://short-link.me/15I2l
इतिहास की पहली कलम से भारत: हेरोडोटस की दृष्टि में प्राचीन भारत
छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक
Small Kingdoms: 300 CE to 1000 CE
18-08-2025 09:32 AM
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मेरठवासियों, क्या आप जानते हैं कि 2,500 साल पहले एक यूनानी इतिहासकार ने भारत का ज़िक्र किया था? प्राचीन यूनान के प्रसिद्ध इतिहासकार हेरोडोटस (Herodotus) को पश्चिमी दुनिया में “इतिहास का पिता” (Father of History) कहा जाता है। उन्होंने इतिहास को केवल युद्धों और विजयों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि अपनी रचना हिस्ट्रीज़ (Histories) में उन सभ्यताओं के रीति-रिवाज, खानपान, जनजीवन और संस्कृति को भी स्थान दिया, जिनके बारे में वे जानते थे। यह ग्रंथ 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लिखा गया था और इसे पश्चिमी दुनिया की पहली ऐतिहासिक और मानवशास्त्रीय (ethnographic) रचना माना जाता है। हेरोडोटस ने भारत के बारे में भी कई रोचक, रहस्यमयी और कभी-कभी कल्पनात्मक विवरण दर्ज किए हैं - जो उस समय के यूनानी समाज की सोच और भारत को देखने की दृष्टि को दर्शाते हैं। आज जब मेरठ जैसे शहर शिक्षा, इतिहास और संस्कृति के केंद्र बनते जा रहे हैं, तो यह जानना और भी दिलचस्प है कि प्राचीन विश्व भारत को कैसे देखता था।
इस लेख में हम हेरोडोटस की दृष्टि से भारत के बारे में पाँच पहलुओं पर चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि हेरोडोटस कौन थे, और उन्हें इतिहास का पिता क्यों कहा जाता है। इसके बाद, हम देखेंगे कि भारत के बारे में उनकी जानकारी के स्रोत क्या थे और उनकी सीमाएँ क्या थीं। तीसरे भाग में, हम पढ़ेंगे कि हेरोडोटस ने भारत के लोगों की संस्कृति, खानपान और जीवनशैली के बारे में क्या-क्या लिखा। फिर हम चर्चा करेंगे उन विभिन्न जनजातियों की जिनका उन्होंने उल्लेख किया, जिनकी जीवनशैली और प्रथाएँ आज भी हमें हैरान करती हैं। अंत में, हम जानेंगे उस रहस्यमयी और रोमांचक कथा के बारे में जिसमें हेरोडोटस ने रेगिस्तान में “सोना इकट्ठा करने वाली विशाल चींटियों” का जिक्र किया है।

हेरोडोटस कौन थे और क्यों माने जाते हैं 'इतिहास का पिता'?
हेरोडोटस का जन्म लगभग 484 ईसा पूर्व में कारिया नामक क्षेत्र (जो आज आधुनिक तुर्की में स्थित है) के हेलिकार्नासस नगर में हुआ था। वे ऐसे पहले लेखक माने जाते हैं जिन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को केवल क्रमवार वर्णन करने तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें तुलनात्मक, विवेचनात्मक और विश्लेषणात्मक रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने युद्धों की घटनाओं के साथ-साथ विभिन्न सभ्यताओं की मान्यताओं, सामाजिक आचार, धार्मिक विश्वासों और भौगोलिक स्थितियों को भी अपने लेखन में स्थान दिया। उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचना हिस्ट्रीज़ (Histories) मानी जाती है, जिसकी रचना उन्होंने लगभग 430 ईसा पूर्व के आसपास की। इस ग्रंथ में यूनान और फारस के युद्धों के अलावा मिस्र, मेसोपोटामिया (Mesopotamia), भारत और अन्य सभ्यताओं की झलक भी मिलती है। रोमन (Roman) विचारक सिसरो ने उन्हें "इतिहास का पिता" (Father of History) की उपाधि दी, क्योंकि हेरोडोटस इतिहास को केवल विजयों और नायकों की गाथा नहीं, बल्कि मानवता के अनुभवों, विविधताओं और सांस्कृतिक अंत:प्रवाह का दस्तावेज़ मानते थे।

हेरोडोटस के भारत संबंधी स्रोत और उनकी सीमाएँ
हेरोडोटस ने स्वयं भारत की यात्रा नहीं की थी, और उनकी जानकारी मुख्यतः द्वितीयक स्रोतों से प्राप्त हुई थी। उन्होंने यूनानी खोजकर्ताओं जैसे स्काईलैक्स (Scylax) और हिकेटियस (Hecataeus) के यात्रा-वृतांतों पर भरोसा किया। ये यात्री ईरानी सम्राटों द्वारा भेजे गए थे, जिनके माध्यम से उन्हें भारत के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों की जानकारी मिली। साथ ही, हेरोडोटस ने फारसी साम्राज्य से प्राप्त प्रशासनिक और भूगोलिक सूचनाओं का भी सहारा लिया, क्योंकि उस समय भारत का एक बड़ा हिस्सा - विशेषकर पंजाब और सिंध क्षेत्र - फारसी नियंत्रण में था। हालांकि, उनका भौगोलिक ज्ञान केवल सिंधु नदी और उसके आसपास के क्षेत्रों तक ही सीमित था। उन्हें गंगा घाटी या दक्षिण भारत के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं थी। इस कारणवश उनके भारत संबंधी विवरण कई बार आंशिक, अति-सामान्यीकृत और कल्पनाशील प्रतीत होते हैं, जो उस समय की सीमित दृष्टि को दर्शाते हैं।
भारत के बारे में हेरोडोटस के उल्लेख: संस्कृति, खानपान और जीवनशैली
हेरोडोटस के अनुसार, भारतवासी गहरे रंग की त्वचा वाले होते थे, जिनका रंग इथियोपियाई (Ethiopian) लोगों जैसा था। उन्होंने भारत के लोगों की जीवनशैली को यूनानियों की तुलना में अत्यंत भिन्न और विशिष्ट बताया। विशेष रूप से शाकाहारी जीवनशैली पर उन्होंने आश्चर्य जताया - उनके अनुसार, भारत में ऐसे समुदाय थे जो पूरी तरह मांसाहार त्याग चुके थे और केवल वनस्पति पर आधारित आहार लेते थे। यूनानी समाज में यह विचार अत्यंत दुर्लभ था, इसलिए उन्होंने इसे भारत की विशेषता के रूप में प्रस्तुत किया। इसके अलावा, हेरोडोटस ने भारत के पशु-पक्षियों को भी असामान्य रूप से विशाल आकार का बताया, जिससे उनकी कल्पना में भारत विचित्र और रहस्यमयी बनकर उभरता है। वस्त्रों के संदर्भ में उन्होंने उल्लेख किया कि कुछ लोग सूती कपड़े पहनते हैं, यह सूती वस्त्रों का दुनिया में सबसे पुराना दस्तावेज़ी उल्लेख माना जाता है। उन्होंने यह भी लिखा कि कुछ लोग एक ऐसे पेड़ से प्राप्त ऊन जैसे पदार्थ से वस्त्र बनाते थे, जो आज के दृष्टिकोण से कपास के पौधे की ओर संकेत करता है। भारतीय सैनिकों के हथियारों में उन्होंने बेंत के धनुष और लोहे के तीरों का उल्लेख किया और लिखा कि उनके रथ घोड़ों या जंगली गधों द्वारा खींचे जाते थे।

भारतीय जनजातियों के रीति-रिवाज: विविधता और रहस्य
हेरोडोटस ने भारतीय उपमहाद्वीप की जनजातियों को विविध, अनोखा और कई बार चौंकाने वाला बताया। उन्होंने लिखा कि कुछ जनजातियाँ दलदली क्षेत्रों में रहती थीं और उनकी मुख्य आहार वस्तु मछली थी, जिसे वे कच्चा ही खाते थे। वहीं दूसरी ओर, कुछ खानाबदोश जनजातियाँ मांसाहारी थीं और जंगलों में रहकर कच्चा मांस खाती थीं। उन्होंने एक अत्यंत विचित्र और भयावह प्रथा का उल्लेख किया जिसमें एक जनजाति अपने बुजुर्गों को मारकर खा जाती थी, यह प्रथा नृशंसता के साथ-साथ अन्य सभ्यताओं की कल्पनाओं में आदिवासी समाज के प्रति भय और रहस्य को दर्शाती है। हेरोडोटस ने यह भी लिखा कि कुछ लोग मृत्यु के निकट आने पर अपने गाँव छोड़कर जंगल में चले जाते थे और वहीं जीवन समाप्त करते थे। उन्होंने बार-बार इन जनजातियों की त्वचा को गहरे रंग का और उनके जीवन को "अप्रचलित" व "रहस्यमयी" बताया, जिससे स्पष्ट होता है कि यूनानी समाज भारत की सांस्कृतिक विविधता को जितना समझता था, उससे कहीं अधिक वह उसे विस्मय और दूरी की दृष्टि से देखता था।
सोने की चींटियाँ और ऊँटों की सहायता से खनन की काल्पनिक कथा
हेरोडोटस की सबसे चर्चित और रहस्यमयी कथाओं में से एक है "सोने की चींटियों" की गाथा। उन्होंने भारत के उत्तर में स्थित कैस्पेटायरस (Caspetyrus) और पैक्टीका (Pactylic) नामक स्थानों का उल्लेख किया, जहाँ युद्धप्रिय जनजातियाँ रेगिस्तान में रेत के नीचे दबे सोने को निकालती थीं। इस कार्य के लिए वे ऊँटों की सहायता लेते थे, तीन ऊँटों को इस तरह बाँधा जाता था कि मादा ऊँट बीच में रहे और दोनों ओर नर ऊँट हों, जिससे अधिक भार वहन किया जा सके। इस कथा में सबसे चौंकाने वाला हिस्सा विशालकाय "चींटियों" का था जो जमीन में सुरंगें बनाते हुए रेत बाहर निकालती थीं, और उस रेत में सोने के कण मौजूद रहते थे। भारतीय लोग उन चींटियों से बचने के लिए दिन की सबसे गर्म बेला में, जब चींटियाँ बिलों में होती थीं, जाकर रेत से सोना इकट्ठा करते थे। लेकिन यदि चींटियाँ उन्हें सूँघ लेतीं, तो वे पीछा करती थीं और कई बार उन्हें मार भी डालती थीं। चाहे यह कथा आज किंवदंती प्रतीत होती हो, लेकिन यह इस बात का प्रमाण है कि उस समय यूनानी दृष्टि में भारत केवल एक दूरस्थ भूमि ही नहीं, बल्कि एक रहस्य और रोमांच की भूमि भी था, जहाँ प्राकृतिक संसाधन और प्राणियों की दुनिया अद्भुत और भयानक दोनों थी।
संदर्भ-
उत्तराखंड का रम्माण: परंपरा, भक्ति और लोक संस्कृति का जीवंत उत्सव
द्रिश्य 2- अभिनय कला
Sight II - Performing Arts
17-08-2025 09:20 AM
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उत्तराखंड के चमोली ज़िले के पैंखण्डा घाटी में स्थित सालूर डूंगरा गांव में हर साल बैसाखी के बाद रम्माण उत्सव मनाया जाता है। यह न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह एक जीवंत लोक रंगमंच भी है, जो भगवान भूमियाल देवता को समर्पित होता है। यह परंपरा पूरी तरह से स्थान विशेष और समय विशेष से जुड़ी है और यही इसकी विशिष्टता है। रम्माण की प्रस्तुति न तो किसी और जगह की जाती है और न ही किसी अन्य समय पर। रम्माण की शुरुआत गणेश वंदना से होती है और इसके बाद विभिन्न देवताओं और पात्रों की झाँकियाँ व नाट्य प्रस्तुतियाँ होती हैं। लोकगीतों और जैगर (स्थानीय कथाओं की संगीतात्मक प्रस्तुति) के माध्यम से रामायण से लेकर ग्राम्य जीवन के विभिन्न पक्षों का चित्रण किया जाता है। भूमियाल देवता जिस घर में वर्षभर निवास करते हैं, वह परिवार विशेष नियमों का पालन करता है और रोज़ पूजा-अर्चना करता है।
पहले वीडियो के माध्यम से हम जानेंगे कि रम्माण उत्सव क्या है और इसकी खासियतें क्या हैं।
रम्माण का मुखौटा और श्रृंगार पक्ष भी बहुत रोचक होता है। लकड़ी के मुखौटे स्थानीय पेड़ों से बनाए जाते हैं और उनके रंग-रोगन में शहद, हल्दी, आटा, तेल, कालिख और पौधों का प्रयोग होता है। यह प्रक्रिया स्वयं एक धार्मिक कर्मकांड मानी जाती है। रम्माण का आध्यात्मिक, सामाजिक और पारिस्थितिक (ecological) संदर्भ भी बहुत गहरा है। संयुक्त राष्ट्र की यूनेस्को संस्था ने 2009 में रम्माण को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत (Intangible Cultural Heritage) की सूची में शामिल किया, जिससे इसकी वैश्विक महत्ता भी सिद्ध होती है।
इस उत्सव की सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें गांव के हर जाति और वर्ग की विशिष्ट भूमिका होती है - ब्राह्मण पुजारी मंदिर की पूजा और प्रसाद की व्यवस्था देखते हैं, क्षत्रिय भंडारी परिवार नरसिंह देवता का पवित्र मुखौटा पहनते हैं, ‘बारी’ और ‘धारी’ आयोजन की ज़िम्मेदारी संभालते हैं, और दास जाति के ढोलवादक रम्माण का संगीत पक्ष सँभालते हैं, जिनका स्थान उस समय सामाजिक रूप से ऊँचा माना जाता है। ‘जागरी’ या ‘भल्ला’ जाति के गायक लोककथाओं और वीरगाथाओं का गायन करते हैं। रम्माण केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवंत सामाजिक दस्तावेज़ है, जो ग्रामीण जीवन, कृषि, प्रकृति और देवता के बीच संतुलन को दर्शाता है। यह लोक पर्व हमें अपनी जड़ों, परंपराओं और सामूहिकता की भावना से जोड़ता है।
नीचे दिए गए वीडियो में हम रम्माण उत्सव की एक झलक देखेंगे और इसके बारे में जानेंगे।
संदर्भ-
मेरठ की जन्माष्टमी: श्रद्धा, सांस्कृतिक उल्लास और श्रीकृष्ण की बाल लीलाएं
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
16-08-2025 09:04 AM
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मेरठवासियों को जन्माष्टमी की ढेरों शुभकामनाएँ!
मेरठवासियों, जन्माष्टमी हमारे शहर के लिए केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक आत्मा, पारिवारिक भावनाओं और सामूहिक श्रद्धा का जीवंत प्रतीक बन चुका है। जैसे ही भाद्रपद माह की अष्टमी तिथि पास आती है, पूरा मेरठ कृष्णमय हो उठता है। यहाँ की गलियाँ झूम उठती हैं - कहीं मंदिरों में झांझ-मंजीरों की ध्वनि, तो कहीं कॉलोनियों में झांकियों की तैयारी की हलचल। स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों को कन्हैया और राधा बनाकर मंचों पर उतारा जाता है, तो मोहल्लों में रासलीलाओं और मटकी-फोड़ प्रतियोगिताओं की धूम मच जाती है। शाम ढलते ही जगमगाते दीपों, सजे हुए मंदिरों और भजन-कीर्तन से गूंजती फिज़ा में श्रद्धा और उल्लास का संगम देखा जा सकता है। विशेष रूप से मेरठ के नौचंदी मंदिर, कल्याण धाम, गोविंदपुरी और सूरजकुंड जैसे क्षेत्रों में तो भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। कहीं दूध-दही से श्रीकृष्ण का अभिषेक हो रहा होता है, तो कहीं झूले में विराजे लड्डूगोपाल को झुलाने के लिए लोग घंटों कतार में लगे रहते हैं। स्कूलों, मंदिरों और कॉलोनियों में ‘कन्हैया’ की मोहक छवियां उभर आती हैं, जो बड़े-बुज़ुर्गों से लेकर बच्चों तक को भक्तिभाव में डुबो देती हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस त्योहार के पीछे कितनी गहराई, शिक्षाएं और ऐतिहासिक परंपराएं जुड़ी हुई हैं?
इस लेख में हम सबसे पहले जन्माष्टमी के सांस्कृतिक महत्व को देखेंगे। इसके बाद हम भागवत पुराण को श्रीकृष्ण की दिव्य गाथाओं के मूल स्रोत के रूप में समझेंगे। फिर श्रीकृष्ण के अवतार की कथा को जन्म से लेकर उनकी बाल लीलाओं तक विस्तार से जानेंगे। हम यह भी विचार करेंगे कि 'कृष्ण' और 'माधव' जैसे नामों का क्या भाषिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अर्थ है। अंत में, हम भागवत पुराण में वर्णित श्रीकृष्ण की शिक्षाओं का समाज पर प्रभाव और उनके नैतिक सन्देशों की चर्चा करेंगे।
जन्माष्टमी का सांस्कृतिक महत्व और जनमानस में इसकी जीवंतता
जन्माष्टमी केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि भारतीय जनमानस की गहराई में रची-बसी आस्था, श्रद्धा और सांस्कृतिक चेतना का महापर्व है। इस दिन जब रात्रि के ठीक बारह बजते हैं, तो मंदिरों में घंटियों की गूंज के साथ श्रीकृष्ण के जन्म की घोषणा होती है और हर दिशा भक्ति और उल्लास से भर जाती है। इस शुभ अवसर पर बाल कृष्ण की झांकियां, पारंपरिक 'मटकी फोड़' प्रतियोगिताएं, स्कूलों में सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ और लोकगायन जैसे कार्यक्रम इस पर्व को सजीव बना देते हैं। यह पर्व पारिवारिक सौहार्द, सामाजिक सहभागिता और पीढ़ियों के बीच सांस्कृतिक हस्तांतरण का अनुपम उदाहरण है। हर घर में सजे झूले, दीपों की रौशनी और भक्तों की भावनाएं जन्माष्टमी को केवल एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन मूल्य की अभिव्यक्ति बना देती हैं।
भागवत पुराण: श्रीकृष्ण की दिव्यता का शाश्वत स्रोत
भागवत पुराण न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि यह श्रीकृष्ण के जीवन, लीलाओं और उनके दिव्य संदेशों का समग्र और सूक्ष्म विवरण प्रस्तुत करता है। बारह स्कंधों और अठारह हज़ार से अधिक श्लोकों में निबद्ध यह ग्रंथ हमें बाल कृष्ण की मोहक लीलाओं से लेकर युद्धभूमि पर दिए गए उनके गूढ़ उपदेशों तक की यात्रा कराता है। भागवत पुराण में वर्णित प्रसंग - जैसे रासलीला, उद्धव संवाद, गोवर्धन लीला या सुदामा चरित्र - केवल भक्तिपूर्ण कथा नहीं हैं, बल्कि इनमें छिपा है जीवन की सच्चाई को जानने, अपनाने और जीने का मार्गदर्शन। इस ग्रंथ का पाठ केवल अध्यात्म की ओर नहीं ले जाता, बल्कि वह जीवन को संतुलित, करुणामय और विवेकपूर्ण बनाने की प्रेरणा भी देता है।

श्रीकृष्ण का अवतार: जन्म से बाल लीलाओं तक की दिव्य यात्रा
श्रीकृष्ण का जन्म कोई साधारण घटना नहीं थी - वह अधर्म के नाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार था। कारागार में देवकी और वासुदेव के आंगन में जन्म लेकर, यमुना पार कर नंद-यशोदा के घर पहुंचे कृष्ण ने जैसे ही संसार में पदार्पण किया, चारों ओर उल्लास और प्रकाश फैल गया। बाल्यकाल की उनकी लीलाएं - माखन चोरी, कालिया नाग का दमन, गोवर्धन पर्वत का धारण - बाल चंचलता के माध्यम से ईश्वरत्व की झलक देती हैं। इन कथाओं में केवल रोचकता नहीं, बल्कि बालकों के लिए नैतिक शिक्षा और बड़ों के लिए जीवनदर्शन छुपा हुआ है। इन लीलाओं के मंचन और श्रवण से मनुष्य के भीतर की कोमलता, भक्ति और प्रेम भाव जागृत होता है।
'कृष्ण' नाम की उत्पत्ति: आकर्षण, अलौकिकता और ब्रह्म चेतना का प्रतीक
‘कृष्ण’ नाम संस्कृत की धातु ‘कृष्’ (आकर्षित करना) से बना है, जिसका तात्पर्य है - वह जो सभी को अपनी ओर खींच ले। उनका काला वर्ण, विशाल नेत्र और मोहक मुस्कान दिव्यता और रहस्य का अद्भुत समागम प्रस्तुत करते हैं। श्रीकृष्ण का रूप रंग भले भिन्न हो, पर उनकी आभा और आकर्षण संपूर्ण सृष्टि को बांधने की क्षमता रखते हैं। वे ऐसे देव हैं जो केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि हृदयों में विराजमान हैं। उनकी छवि में प्रेम, करूणा, सौंदर्य, हास्य और वीरता का अद्वितीय मिश्रण देखने को मिलता है। यह नाम केवल पुकार भर नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक ऊर्जा है, जो ध्यान, भक्ति और आत्म-विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।

‘माधव’ नाम की गहराई: मधुरता, वंश परंपरा और वैष्णव चेतना
‘माधव’ शब्द में केवल मधु वंश की स्मृति नहीं, बल्कि उसमें श्रीकृष्ण की मधुरता, सौंदर्य और ज्ञान का गूढ़ भाव समाहित है। 'मधव' का अर्थ है - वह जो मधुरता का वाहक हो, और जो लक्ष्मी के स्वामी हों। यह नाम केवल संबोधन नहीं, बल्कि वैष्णव भक्ति परंपरा में एक ऊर्जावान प्रतीक है, जो प्रेम और ज्ञान की दोनों धाराओं को संतुलित करता है। भजनों में बार-बार आने वाला यह नाम भक्तों के हृदय में प्रभु के प्रति प्रेम और आत्मीयता को और प्रगाढ़ करता है। ‘माधव’ नाम का उच्चारण ही एक प्रकार की आंतरिक शांति और चेतना का अनुभव कराता है - जैसे किसी मधुर स्वर ने आत्मा को छू लिया हो।

श्रीकृष्ण की शिक्षाएं: गीता के शाश्वत संदेश और आज का समाज
श्रीकृष्ण न केवल भक्तों के आराध्य हैं, बल्कि वे एक युगद्रष्टा, समाज सुधारक और दार्शनिक भी हैं। भगवद्गीता में अर्जुन को दिया गया उनका उपदेश आज के मानव जीवन में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना द्वापर युग में था। "कर्म करो, फल की चिंता मत करो", "अपने धर्म का पालन करो", "आत्मा अमर है" - जैसे श्लोक आज के तनावपूर्ण और भटकते जीवन में मार्गदर्शन बन सकते हैं। श्रीकृष्ण की शिक्षाएं हमें केवल भक्ति का मार्ग नहीं दिखातीं, बल्कि जीवन में संतुलन, नैतिकता और विवेक से कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। उनका दर्शन हमें बताता है कि धर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि कर्तव्य और सच्चे आचरण में निहित है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/LN3XM
आज़ादी की रौशनी में मेरठ के युवाओं के लिए इंजीनियरिंग का उज्ज्वल भविष्य
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
15-08-2025 09:30 AM
Meerut-Hindi

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
हर साल 15 अगस्त को जब देश भर में तिरंगा शान से लहराता है, तब मेरठ की फिज़ाओं में भी गर्व, उल्लास और देशभक्ति का रंग गहराने लगता है। यह दिन केवल एक ऐतिहासिक तारीख नहीं, बल्कि हर भारतीय के लिए सम्मान, आत्मनिर्भरता और उम्मीदों का प्रतीक बन चुका है। मेरठ में स्वतंत्रता दिवस का माहौल पूरे शहर को एकजुट कर देता है, स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों की रंगारंग प्रस्तुतियाँ, राष्ट्रीय गीतों की गूंज, एनसीसी (NCC) की गर्वपूर्ण परेड (parade), और स्थानीय प्रशासन द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि देने के आयोजन, यह सब मिलकर एक जीवंत और भावनात्मक उत्सव का निर्माण करते हैं। यह दिन न केवल हमें आज़ादी की अहमियत का अहसास कराता है, बल्कि हमें याद दिलाता है कि सच्ची स्वतंत्रता तब होती है जब हर व्यक्ति को शिक्षा, अवसर और आत्म-सम्मान के साथ जीने का हक मिले।
लेकिन आज़ादी का एक दूसरा और गहरा अर्थ भी है, शिक्षा की आज़ादी। वो आज़ादी जो किसी छोटे गाँव के होनहार बच्चे को भी देश के सर्वोत्तम तकनीकी संस्थानों में पहुँचने का हक देती है। मेरठ के कई छात्र-छात्राएँ आज इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं, चाहे वो राष्ट्रीय संस्थान हों या अंतरराष्ट्रीय मंच। अगर आपके घर या आस-पास कोई युवा तकनीकी दुनिया में करियर (career) बनाना चाहता है, तो यही सबसे सही समय है। आज न तो जानकारी की कमी है और न ही संसाधनों की। सही मार्गदर्शन, नियमित अभ्यास, और समय प्रबंधन से कोई भी विद्यार्थी खुद को एक बेहतरीन इंजीनियर के रूप में तैयार कर सकता है। स्कूल के शिक्षक, कोचिंग संस्थान, और अब तो मोबाइल पर ही उपलब्ध डिजिटल (digital) सामग्री के ज़रिए भी छात्र अपने सपनों को पंख दे सकते हैं।
इस लेख में हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि भारत में इंजीनियरिंग शिक्षा इतनी महत्वपूर्ण क्यों मानी जाती है। हम जानेंगे कि आज के इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स (engineering graduates) किस तरह की चुनौतियों और संभावनाओं का सामना कर रहे हैं, कौन-कौन से संस्थान इस क्षेत्र में सबसे आगे हैं, और क्यों लाखों छात्र हर साल इंजीनियरिंग को अपना करियर बनाने का सपना देखते हैं। साथ ही, हम यह भी चर्चा करेंगे कि एक आदर्श इंजीनियरिंग कॉलेज में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए - जैसे कि बुनियादी ढांचा, शिक्षण गुणवत्ता और छात्र सुविधाएँ - ताकि आपकी शैक्षणिक यात्रा न केवल जानकारीपूर्ण हो, बल्कि प्रेरणादायक भी।
भारत में इंजीनियरिंग शिक्षा का महत्व: एक करियर विकल्प की लोकप्रियता
भारत में इंजीनियरिंग को एक प्रतिष्ठित, स्थायी और आर्थिक रूप से सुरक्षित करियर विकल्प के रूप में लंबे समय से देखा जाता रहा है। यह धारणा केवल अभिभावकों तक सीमित नहीं है, बल्कि युवा पीढ़ी के बीच भी इंजीनियरिंग को लेकर एक विशिष्ट आकर्षण है। इसकी सबसे बड़ी वजह है तकनीकी विकास के साथ जुड़ी संभावनाएँ, जो देश के भीतर और वैश्विक स्तर पर लगातार बढ़ रही हैं। इंजीनियरिंग शिक्षा विज्ञान, गणित, और तार्किक सोच जैसे स्तंभों पर आधारित होती है, जो युवाओं को जटिल समस्याओं को समझने और उनका व्यावहारिक हल निकालने की क्षमता प्रदान करती है। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ तकनीकी ढांचा तेजी से बदल रहा है, इंजीनियरिंग शिक्षा सिर्फ एक डिग्री (degree) नहीं बल्कि भविष्य निर्माण की कुंजी बन गई है। यह शिक्षा छात्रों को न केवल नौकरी के लिए तैयार करती है, बल्कि उन्हें नवाचार, उद्यमिता और समाज में योगदान देने की दृष्टि भी देती है। यही कारण है कि आज भी लाखों छात्र हर साल इंजीनियरिंग को अपना करियर विकल्प बनाते हैं।

भारत में इंजीनियरिंग स्नातकों की स्थिति: आंकड़ों की नज़र से
हर साल भारत में लगभग 15 लाख छात्र विभिन्न शाखाओं में इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करते हैं। यह आंकड़ा दर्शाता है कि देश में तकनीकी शिक्षा का आधार कितना व्यापक है। लेकिन यह संख्या जितनी प्रभावशाली दिखती है, उतना ही महत्वपूर्ण यह समझना है कि इनमें से कितने छात्र वास्तव में उद्योग के लिए तैयार होते हैं। अनेक शोध और सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हुआ है कि केवल 20% से 25% इंजीनियरिंग स्नातक ही पूरी तरह से रोजगार योग्य होते हैं। इस असमानता के पीछे मुख्य रूप से व्यावसायिक कौशल की कमी, संचार में असहजता, और प्रायोगिक ज्ञान का अभाव है। अधिकांश छात्र सिर्फ किताबी ज्ञान पर निर्भर रहते हैं, जबकि आज की इंडस्ट्री (industry) रियल-वर्ल्ड स्किल्स (real-world skills) और समस्या समाधान क्षमता की माँग करती है। इस अंतर को कम करने के लिए छात्रों को तकनीकी प्रोजेक्ट्स (projects), इंटर्नशिप (internship), इंडस्ट्री विज़िट (industry visit), और कौशल-आधारित कोर्सेज़ (courses) से जुड़ना ज़रूरी हो गया है। यह परिवर्तन केवल छात्रों के लिए लाभदायक नहीं बल्कि देश की आर्थिक प्रगति के लिए भी अनिवार्य है।
IIT, NIT और IIIT संस्थानों की भूमिका और प्रतिस्पर्धा
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (NIT), और भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (IIIT) - ये संस्थान भारत की तकनीकी शिक्षा प्रणाली की रीढ़ की हड्डी माने जाते हैं। इन संस्थानों की गिनती वैश्विक स्तर पर अग्रणी शैक्षणिक संस्थानों में होती है, और यही कारण है कि इनमें प्रवेश पाना हर छात्र का सपना होता है। वर्तमान में भारत में 23 IIT, 31 NIT और 25 से अधिक IIIT कार्यरत हैं, जो उच्च गुणवत्ता की तकनीकी शिक्षा प्रदान करते हैं। इन संस्थानों में प्रवेश हेतु राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाएँ - JEE Main और JEE Advanced - आयोजित की जाती हैं, जिनमें लाखों छात्र हर साल भाग लेते हैं। इन परीक्षाओं की कठिनाई और चयन दर की कम संख्या से स्पष्ट होता है कि यहाँ केवल सबसे मेधावी छात्र ही स्थान प्राप्त कर सकते हैं। इन संस्थानों में शिक्षा का स्तर, औद्योगिक अनुसंधान, स्टार्टअप (startup) संस्कृति और विश्वस्तरीय प्लेसमेंट (placement) के अवसर छात्रों को तकनीकी उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करते हैं।

इंजीनियरिंग को करियर के रूप में चुनने के मुख्य कारण
इंजीनियरिंग केवल एक नौकरी पाने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज में व्यावहारिक बदलाव लाने की दिशा में एक विचारधारा है। इस क्षेत्र को चुनने के पीछे कई ठोस कारण हैं, जिनमें सबसे पहला है - विषयों की विविधता। इंजीनियरिंग में छात्र अपनी रुचि और कौशल के अनुसार कंप्यूटर साइंस (computer science), मैकेनिकल (mechanical), सिविल (civil), इलेक्ट्रिकल (electrical), इलेक्ट्रॉनिक्स (electronics), बायोटेक (biotech), एआई (A.I.), डेटा साइंस (data science), और साइबर सिक्योरिटी (cyber security) जैसे आधुनिक क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाएँ भी व्यापक हैं। इंजीनियरों की मांग न केवल देश में, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी बनी रहती है। टेक (Tech) कंपनियाँ, ऑटोमोबाइल (Automobile), निर्माण, रक्षा, ऊर्जा, और स्वास्थ्य जैसे अनेक उद्योगों में इंजीनियरों की महती आवश्यकता होती है। स्टार्टअप वातावरण और विदेशों में काम करने की संभावनाएँ इस करियर को और अधिक आकर्षक बनाती हैं। यही नहीं, इंजीनियरिंग से जुड़े अनेक छात्र आज स्वरोजगार की राह पर भी अग्रसर हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था को नया बल दे रहे हैं।

आदर्श इंजीनियरिंग कॉलेज: जहाँ शिक्षा और सुविधा दोनों हों सशक्त
एक आदर्श इंजीनियरिंग कॉलेज केवल ईंट-पत्थरों की इमारत नहीं होता, बल्कि वह एक ऐसा संपूर्ण शैक्षणिक वातावरण होता है जहाँ छात्र ज्ञान के साथ-साथ जीवन जीने की कला भी सीखते हैं। इस वातावरण की नींव मजबूत बुनियादी ढांचे से पड़ती है, जैसे स्मार्ट क्लासरूम्स (smart classroom), अत्याधुनिक प्रयोगशालाएँ, अपडेटेड कंप्यूटर लैब्स (updated computer labs), और तकनीक-सक्षम लर्निंग टूल्स (learning tools)। ये सुविधाएँ छात्रों को केवल किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि व्यावहारिक अनुभव, तकनीकी कुशलता और नवाचार की क्षमता भी प्रदान करती हैं। लेकिन एक कॉलेज की गुणवत्ता सिर्फ अकादमिक संसाधनों से तय नहीं होती। एक आदर्श परिसर वह होता है जहाँ छात्र मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से भी सशक्त बन सकें। इसके लिए ज़रूरी है, सुरक्षित और स्वच्छ हॉस्टल (hostel), पौष्टिक भोजन देने वाली कैंटीन (canteen), हेल्थ सेंटर (health center), मानसिक स्वास्थ्य काउंसलिंग (counselling) की सुविधा, खेल और मनोरंजन के स्थान, और एक सक्रिय फिटनेस ज़ोन (fitness zone)। पुस्तकालय में तकनीकी किताबों के साथ-साथ करियर गाइड (career guide), शोध पत्र और जनरल नॉलेज की सामग्री होना अनिवार्य है। कॉलेज का प्लेसमेंट सेल भी उसकी रीढ़ की हड्डी माना जाता है। यह केवल जॉब इंटरव्यू (job interview) या इंटर्नशिप की व्यवस्था तक सीमित नहीं, बल्कि मॉक इंटरव्यू (mock interview), करियर काउंसलिंग (career counselling), औद्योगिक भ्रमण और टेक कंपनियों से जुड़ाव द्वारा छात्रों को रोज़गार के लिए तैयार करता है। यही नहीं, फैकल्टी की गुणवत्ता और शोध के अवसर भी कॉलेज चयन में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
संदर्भ-
मेरठ जानिए! महाजनपद काल में कैसी थी काशी की ताक़त और सांस्कृतिक विरासत
ठहरावः 2000 ईसापूर्व से 600 ईसापूर्व तक
Settlements: 2000 BCE to 600 BCE
14-08-2025 09:28 AM
Meerut-Hindi

मेरठ, एक आधुनिक और तेज़ी से विकसित होता महानगर, सिर्फ़ आज़ की नहीं, बल्कि इतिहास की भी गवाही देता है। क्या आप जानते हैं कि यह नगर, प्राचीन भारत के उस भूभाग के निकट स्थित है जहाँ कभी महाजनपदों का शासन था? छठी शताब्दी ईसा पूर्व का वह दौर, जब जनजातियाँ और कबीलाई समूह एकीकृत होकर संगठित राज्य या गणराज्य बन रहे थे, उसे हम महाजनपद काल के नाम से जानते हैं। उस समय भारतवर्ष में कुल 16 महाजनपद उभरे, जिनमें से एक प्रमुख नाम था काशी। एक ऐसा राज्य जो न केवल राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली था, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक रूप से भी पूरे उत्तर भारत को दिशा दे रहा था। इन महाजनपदों में से काशी सबसे प्राचीन, समृद्ध और सांस्कृतिक रूप से प्रभावशाली था, जो मेरठ से अधिक दूर नहीं, बल्कि इसी उत्तर भारत के हृदय में स्थित था। काशी की लौह-युगीन सभ्यता, उसकी शिक्षा परंपरा, व्यापारिक मार्गों और धार्मिक प्रभावों ने निश्चित रूप से मेरठ जैसे नगरों की सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक चेतना को भी प्रभावित किया होगा।
इस लेख में सबसे पहले हम समझेंगे कि महाजनपद युग क्या था और वह कैसे प्राचीन भारत के राजनीतिक ढांचे का आधार बना। इसके बाद हम जानेंगे कि काशी महाजनपद का भूगोल, उसकी राजनीति और शासक वंश किस प्रकार संरचित थे। फिर हम देखेंगे कि काशी कैसे एक व्यापारिक और वाणिज्यिक केंद्र के रूप में उभरा और इसकी आर्थिक गतिविधियाँ क्या थीं। इसके अलावा, हम काशी के सांस्कृतिक योगदान, शिक्षा और कलाओं की भूमिका को समझेंगे। अंत में, हम जानेंगे कि काशी कैसे एक धार्मिक नगरी बनी और किस प्रकार हिंदू, बौद्ध और जैन परंपराओं में इसकी आध्यात्मिक महत्ता दर्ज की गई।
महाजनपद काल का संक्षिप्त परिचय और भारत में इसका महत्व
छठी से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच भारत में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन की लहर चली। इसी समय 'महाजनपदों' का उदय हुआ - ये 16 प्रमुख राज्य और गणराज्य थे, जिन्होंने वैदिक काल के जनों को संगठित रूप देकर स्थायी राजनीतिक इकाइयों का निर्माण किया। सिंधु-गंगा के मैदान से लेकर गोदावरी नदी तक फैले इन महाजनपदों ने लौह तकनीक, नगरीकरण, कृषि वाणिज्य, और नए धार्मिक विचारों को जन्म दिया। बौद्ध ग्रंथ 'अंगुत्तर निकाय' और जैन 'भगवती सूत्र' में इन 16 महाजनपदों - अंग, मगध, काशी, वत्स, कौशल, सौरसेना, पांचाल, कुरु, मत्स्य, छेदी, अवंती, गांधार, कम्बोज, अस्माक, वज्जि और मल्ल - का उल्लेख मिलता है। इनमें से कुछ, जैसे मगध और काशी, भविष्य में शक्तिशाली साम्राज्यों में परिवर्तित हुए। इस काल ने प्राचीन भारत के सामाजिक ढांचे को मजबूत किया और मौर्य जैसे शक्तिशाली साम्राज्य की नींव रखी।

काशी महाजनपद का भूगोल, राजनैतिक संरचना और शासक वंश
काशी, जिसे आज हम वाराणसी के नाम से जानते हैं, प्राचीन भारत के सबसे समृद्ध और प्रतिष्ठित महाजनपदों में से एक था। इसकी सीमाएं उत्तर में स्यांदिका नदी से लेकर दक्षिण और पूर्व में सोन नदी तक फैली थीं, जो इसे क्रमशः कौशल और मगध से अलग करती थीं। इसकी राजधानी, काशीपुरा, र्तमान वाराणसी, न केवल राजनीतिक सत्ता का केंद्र थी, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण थी। वैदिक ग्रंथों और बौद्ध साहित्य में काशी के कई राजाओं का उल्लेख मिलता है, जैसे दिवोदास, प्रतर्दन, अश्वसेन (जिनके पुत्र पार्श्वनाथ 23वें जैन तीर्थंकर थे), और अजातशत्रु। काशी, मगध, कोशल और विदेह जैसे अन्य शक्तिशाली राज्यों के साथ लगातार संपर्क और संघर्ष में रहा। अंततः कोशल के राजा कंस ने काशी पर अधिकार कर लिया और बाद में यह मगध के अधीन चला गया। यह संघर्ष बताता है कि काशी की राजनीतिक स्थिति कितनी महत्त्वपूर्ण और आकर्षक थी।

व्यापार, वाणिज्य और शिल्प के केंद्र के रूप में काशी
काशी का स्थान केवल धार्मिक या राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि वाणिज्यिक रूप से भी अद्वितीय था। इसकी भौगोलिक स्थिति, उत्तरापथ जैसे महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर, ने इसे एक संपन्न व्यापारिक केंद्र बना दिया। प्राचीन बौद्ध ग्रंथ ‘विनय पिटक’ में काशी को उत्तरापथ के प्रमुख पड़ावों में से एक बताया गया है, जहाँ से व्यापारी तक्षशिला से लेकर राजगृह और समुद्री तटों तक यात्रा करते थे। यहाँ कुटीर उद्योग, कपड़ा निर्माण और विशेष रूप से सूती और रेशमी वस्त्रों का व्यापार प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है। कहा जाता है कि जब भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ, तब उनके अवशेष काशी में बने सूती वस्त्र में लपेटे गए थे, यह उस समय काशी के वस्त्र उद्योग की श्रेष्ठता को दर्शाता है। साथ ही, यह भी उल्लेखनीय है कि मगध के राजा बिंबिसार को काशी का एक गाँव "सुगंधित वस्तुओं और स्नान के लिए राजस्व" के रूप में उपहार में दिया गया था, जो बताता है कि इत्र-व्यापार यहाँ कितना समृद्ध था।

कला, संस्कृति और शिक्षा में काशी का योगदान
काशी सदियों से भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक राजधानी रही है। यहाँ ज्ञान, दर्शन, संगीत, नृत्य, आयुर्वेद और भारतीय कलाओं की गहरी जड़ें रही हैं। चंद्रवंश के राजा ‘काश’ द्वारा स्थापित यह राज्य बाद में विद्वानों, कलाकारों और शिक्षकों का गढ़ बन गया। प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीतकार उस्ताद बिस्मिल्लाह खान और सितार वादक पंडित रविशंकर इसी धरती की देन हैं। यहाँ एनी बेसेंट (Annie Besant) ने थियोसोफिकल सोसाइटी (Theosophical Society) की स्थापना की, और पंडित मदन मोहन मालवीय ने एशिया के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक - बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) - की नींव रखी। काशी को आयुर्वेद की जन्मस्थली भी माना जाता है, जहाँ प्रारंभिक शल्य चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी (plastic surgery) और चिकित्सा विज्ञान की अनेक विधाएँ विकसित हुईं। चाणक्य जैसे विद्वानों के युग में भी काशी एक स्वतंत्र और समर्पित वैदिक अध्ययन का केंद्र बना रहा, जहाँ ज्ञान को राजनीति से भी अधिक मूल्यवान माना जाता था।
धार्मिक केंद्र के रूप में काशी और इसकी आध्यात्मिक विरासत
काशी न केवल भौतिक समृद्धि और ज्ञान का केंद्र रहा, बल्कि यह भारत की धार्मिक आत्मा का प्रतिबिंब भी है। हिंदू धर्म में काशी को ‘मोक्ष की नगरी’ कहा जाता है, यहाँ मृत्यु को मुक्ति का द्वार माना जाता है। गंगा नदी की धाराएं यहाँ बहती हैं, जिन्हें पापों से मुक्ति दिलाने वाली माना गया है। काशी विश्वनाथ मंदिर, जो भगवान शिव को समर्पित है, स्कंद पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी उल्लिखित है। बौद्ध धर्म में सारनाथ, जहाँ बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला उपदेश दिया, काशी के पास ही स्थित है। जैन परंपरा में यह स्थान 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है। यही बहुआयामी धार्मिक महत्व काशी को केवल एक शहर नहीं, बल्कि आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक बनाता है, जहाँ जीवन, मृत्यु, मोक्ष और परंपरा एक ही धारा में बहते हैं।
संदर्भ-
भगवद् गीता की वैश्विक यात्रा: पश्चिमी चिंतन में एक शाश्वत भारतीय आवाज़
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
13-08-2025 09:28 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, क्या आपने कभी गहराई से यह विचार किया है कि भगवद् गीता, जिसे हम केवल धार्मिक ग्रंथ समझते हैं, वास्तव में हमारे धर्म, संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना की नींव है? यह ग्रंथ न केवल पूजा-पाठ की विधियों का सार है, बल्कि जीवन की जटिलताओं से निपटने का दार्शनिक दृष्टिकोण भी प्रदान करता है। भगवद् गीता की शिक्षाएं आज केवल भारत तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि इसने विश्वभर के लेखकों, विचारकों और दार्शनिकों को भी गहराई से प्रभावित किया है। एल्डस हक्सले (Aldous Huxley) से लेकर जे. डी. सालिंगर (जे. डी. सालिंगर) तक, कई वैश्विक लेखक गीता के ज्ञान से इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने इसे न केवल पढ़ा, बल्कि अपने जीवन-दर्शन और साहित्यिक रचनाओं में भी उतारा। मेरठ, जो शिक्षा, साहित्य और संस्कृति की मजबूत परंपरा वाला शहर है, के निवासियों के लिए यह विषय और भी दिलचस्प हो जाता है। आज हम जानेंगे कि कैसे इस प्राचीन ग्रंथ ने सीमाओं से परे जाकर मानव चेतना को छुआ, और किन विदेशी लेखकों ने इसके माध्यम से आत्मबोध, कर्मयोग और ब्रह्मज्ञान की राह पकड़ी।
इस लेख में हम जानेंगे कि भगवद् गीता का प्रभाव किन-किन विदेशी लेखकों और विचारकों पर पड़ा और उन्होंने इसे कैसे आत्मसात किया। फिर हम एल्डस हक्सले जैसे दार्शनिक लेखक के दृष्टिकोण से गीता की प्रस्तावना और द पेरेनियल फिलॉसफी (Perennial Philosophy) यानी ‘चिरस्थायी दर्शन’ के चार मौलिक सिद्धांतों को समझेंगे। इसके बाद, हम जानेंगे कि जेरोम डेविड सालिंगर जैसे विश्वविख्यात लेखक के जीवन में गीता और वेदांत का क्या स्थान था। अंत में, हम गीता के सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत ‘कर्म योग’ और इसके सालिंगर के लेखन और जीवन पर प्रभाव का विश्लेषण करेंगे।
भगवद् गीता का वैश्विक प्रभाव और विदेशी लेखकों पर इसका प्रभाव
भगवद् गीता का प्रभाव केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने विश्व भर के दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, लेखकों और कलाकारों को भी गहराई से प्रभावित किया है। यह ग्रंथ केवल एक धार्मिक या पौराणिक दस्तावेज नहीं, बल्कि जीवन के गूढ़ सत्य, आत्मा और चेतना के रहस्यों का ऐसा दार्शनिक मार्गदर्शन है, जिसने संस्कृति की सीमाओं को लांघते हुए वैश्विक सोच को दिशा दी है। जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर (J. Robert Oppenheimer) जैसे वैज्ञानिक ने गीता के श्लोकों को परमाणु परीक्षण के समय स्मरण किया था, जो इस ग्रंथ की गूढ़ता को दर्शाता है। हेनरी डेविड थोरो (Henry David Thoreau) ने इसे “अद्वितीय और कालातीत ज्ञान का स्रोत” कहा। निकोला टेस्ला (Nikola Tesla), राल्फ वाल्डो एमर्सन (Ralph Waldo Emerson), कार्ल जंग (Carl Jung) और हरमन हेस (Hermann Hesse) जैसे विचारकों ने गीता के माध्यम से आत्मा और ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने की कोशिश की। वहीं संगीतकार जॉर्ज हैरिसन (George Harrison) ने भी गीता के भावों को अपनी रचनाओं में समाहित किया।
एल्डस हक्सले: भगवद् गीता के पाठक, प्रस्तावना लेखक और 'चिरस्थायी दर्शन' के सिद्धांत
एल्डस हक्सले, ब्रिटिश साहित्य और दर्शन के एक प्रमुख नाम हैं, जिन्होंने अपने जीवन में लगभग 50 महत्वपूर्ण कृतियाँ लिखीं, जिनमें उपन्यास, निबंध, कविताएँ और लघु कथाएँ शामिल हैं। वे न केवल एक प्रतिभाशाली लेखक थे, बल्कि एक गहन चिंतक भी, जिन्होंने पूर्वी दर्शन, विशेषतः भगवद् गीता से प्रभावित होकर आध्यात्मिकता की ओर रुख किया। हक्सले ने 1944 में स्वामी प्रभावानंद और क्रिस्टोफर ईशरवुड (Christopher Isherwood) द्वारा अनूदित "भगवद् गीता, द सॉन्ग ऑफ गॉड" (Bhagavad Gita, The Song of God) की प्रस्तावना लिखी, जिसे दक्षिणी कैलिफोर्निया (California) की वेदांत सोसायटी (society) ने प्रकाशित किया। इस प्रस्तावना में उन्होंने गीता के भावों और शिक्षाओं की प्रशंसा करते हुए उसे आधुनिक पश्चिमी पाठकों के लिए प्रासंगिक बनाने की कोशिश की। उनकी एक विशेष कृति द पेरेनियल फिलॉसफी (The Perennial Philosophy), जिसे हिंदी में 'चिरस्थायी दर्शन' कहा जा सकता है, एक गहन आध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने विश्व के विभिन्न धर्मों में पाए जाने वाले रहस्यवाद की तुलनात्मक विवेचना की है। इसमें वर्णित चार प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं:
- समस्त दृश्य और अदृश्य सृष्टि एक दिव्य भूमि की अभिव्यक्ति है, चाहे वह पदार्थ हो, मनुष्य हो या देवता।
- मनुष्य सीधे अनुभव (इंट्यूशन) के माध्यम से ईश्वरीय सत्ता को जान सकता है, जो तर्क से परे है।
- प्रत्येक व्यक्ति में एक शाश्वत आत्मा होती है, जो परमात्मा का अंश होती है।
- जीवन का अंतिम उद्देश्य है, आत्मा के साथ एकात्मता और ईश्वर के परम स्वरूप से एकत्व की प्राप्ति।
इन सिद्धांतों में भगवद् गीता की छाया स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, विशेषकर ब्रह्म और आत्मा के बीच के संबंध को लेकर। हक्सले का मानना था कि गीता केवल एक धर्मग्रंथ नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक चेतना का मार्गदर्शक है।
जेरोम डेविड सालिंगर और भगवद् गीता से उनका जुड़ाव
अमेरिकी साहित्य में द कैचर इन द राई (The Catcher in the Rye) जैसे कालजयी उपन्यास के लेखक जे. डी. सालिंगर (J.D. Salinger) का जीवन और चिंतन भी भगवद् गीता और वेदांत दर्शन से गहराई से जुड़ा हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, उनका रुझान पश्चिमी भौतिकवाद से हटकर पूर्वी अध्यात्म की ओर बढ़ा। उन्होंने न्यूयॉर्क (New York) स्थित रामकृष्ण-विवेकानंद केंद्र में स्वामी निखिलानंद के मार्गदर्शन में वेदांत का अध्ययन करना शुरू किया। वेदांत के चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास - के सिद्धांतों ने सालिंगर के जीवन को एक नए दिशा दी। वे इन विचारों को केवल पढ़ते नहीं थे, बल्कि उन्हें अपने दैनिक जीवन और व्यक्तिगत निर्णयों में भी उतारते थे। उन्होंने सामाजिक जीवन से धीरे-धीरे दूरी बना ली और लेखन को केवल आत्मिक साधना का माध्यम माना, न कि प्रसिद्धि या व्यावसायिक सफलता का साधन।
भगवद् गीता का 'कर्म योग' सिद्धांत और उसका सालिंगर के जीवन में अनुप्रयोग
भगवद् गीता का एक प्रमुख और व्यापक रूप से उद्धृत किया जाने वाला श्लोक है–कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। अर्थात - मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता करना उसका धर्म नहीं है। जे. डी. सालिंगर ने इस सिद्धांत को न केवल आत्मसात किया, बल्कि इसे अपने जीवन का मूल मंत्र भी बना लिया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 45 वर्षों तक लेखन किया, परंतु वह लेखन कभी प्रकाशित नहीं किया। उनके अनुसार, सच्चा लेखन वही है, जो बिना प्रशंसा, मान्यता या आर्थिक लाभ की अपेक्षा के किया जाए, ठीक उसी तरह जैसा भगवद् गीता में कहा गया है। उनकी प्रसिद्ध रचना फ्रैनी एंड ज़ूई (Franny and Zooey) इसी दर्शन पर आधारित है। यह उपन्यास आत्मा की खोज, आंतरिक संघर्ष और ईश्वर की ओर झुकाव जैसे विषयों को सामने लाता है। यह पाठक को यह सोचने पर मजबूर करता है कि जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक उपलब्धियाँ नहीं, बल्कि आत्मिक शांति और ईश्वर से एकात्मता की ओर बढ़ना भी है। सालिंगर के जीवन और लेखन दोनों में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि भगवद् गीता का कर्म योग दर्शन न केवल सैद्धांतिक था, बल्कि उन्होंने इसे व्यवहार में जीकर दिखाया।
संदर्भ-
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विश्व हाथी दिवस पर मेरठ को जानना होगा हाथियों का सांस्कृतिक और पर्यावरणीय मोल
शारीरिक
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12-08-2025 09:37 AM
Meerut-Hindi

मेरठ, जो आज उत्तर भारत का एक प्रमुख और गतिशील शहर है, केवल इतिहास और व्यापार के लिए नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक चेतना के लिए भी जाना जाता है, जो प्रकृति और जीवों के साथ गहरे संबंध को दर्शाती हैं। इसी संदर्भ में हाथियों का ज़िक्र केवल एक वन्यजीव चर्चा नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और सांस्कृतिक अनुभव है। भारत में हाथी सदियों से बुद्धिमत्ता, धैर्य और शक्ति के प्रतीक रहे हैं, वे हमारे मंदिरों में पूजे जाते हैं, हमारी लोककथाओं का हिस्सा हैं, और हमारे त्योहारों की शोभा बढ़ाते हैं। लेकिन आज, यही गौरवशाली जीव मानव लालच, अवैध शिकार, और पर्यावरणीय असंतुलन के चलते संकट में हैं। विश्व हाथी दिवस जैसे अवसर हमें यह सोचने का मौका देते हैं कि क्या हम उस जीवन की कल्पना कर सकते हैं जहाँ जंगल तो हों, पर उसमें हाथियों की गूँज न हो? मेरठ जैसे शहर, जहाँ चेतना और संवेदना का इतिहास रहा है, वहाँ के नागरिकों के लिए यह दिन केवल एक जानकारी का विषय नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी और जागरूकता का आह्वान भी है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इन महान जीवों की उपस्थिति को महसूस कर सकें।
इस लेख में हम सबसे पहले, हम जानेंगे कि भारतीय संस्कृति में हाथियों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व क्या रहा है। फिर, हम देखेंगे कि एशियाई और भारतीय हाथियों की जैविक रचना, शारीरिक विशेषताएँ और उनका व्यवहार कैसा होता है। इसके बाद, हम पढ़ेंगे कि भारत में हाथियों के प्राकृतिक आवास कौन-कौन से हैं, उनका भौगोलिक वितरण कैसा है, और उत्तर प्रदेश में उनकी वर्तमान स्थिति क्या है। आगे, हम चर्चा करेंगे कि हाथी आज विलुप्ति की कगार पर क्यों पहुँच गए हैं और इसके पीछे कौन-कौन से कारण ज़िम्मेदार हैं। अंत में, हम जानेंगे कि मेरठ के निकट शिवालिक क्षेत्र में 50 लाख वर्ष पुराना हाथी का जो जीवाश्म मिला है, उसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक महत्त्व क्या है।

भारतीय हाथी: एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रतीक
भारतीय इतिहास और संस्कृति में हाथी सदियों से शक्ति, समृद्धि और राजसत्ता का प्रतीक रहा है। प्राचीन काल में ये केवल एक जानवर नहीं थे, बल्कि राजाओं की सैन्य शक्ति और शाही वैभव का प्रदर्शन करने वाले महत्वपूर्ण अंग हुआ करते थे। युद्धों में हाथियों का उपयोग निर्णायक माना जाता था, क्योंकि इन पर सवार होकर सेनापति युद्धभूमि में प्रवेश करते थे और शत्रु को भयभीत करते थे। इसके अतिरिक्त, हाथियों की उपस्थिति शाही काफ़िलों में अनिवार्य थी, वे सत्ता, गरिमा और महिमा के परिचायक माने जाते थे। हाथी केवल सामरिक दृष्टि से ही नहीं, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत पूजनीय रहे हैं। भारत के कई मंदिरों में हाथी की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं, जिनका उद्देश्य स्वागत और समर्पण का भाव दर्शाना होता है। लोक कथाओं, पौराणिक आख्यानों और धार्मिक ग्रंथों में भी हाथी एक विशेष स्थान रखते हैं, भगवान इन्द्र का वाहन 'ऐरावत' इसका एक प्रमुख उदाहरण है। इस सांस्कृतिक समृद्धि के बावजूद, जिस जीव को कभी देवतुल्य सम्मान प्राप्त था, वही आज आधुनिक समय में अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है।

एशियाई और भारतीय हाथियों की जैविक विशेषताएँ
भारतीय हाथी, एशियाई हाथी की एक विशिष्ट उपप्रजाति है, जिसका वैज्ञानिक नाम एलिफस मैक्सिमस इंडिकस (Elephas maximus indicus) है। यह उपप्रजाति शारीरिक संरचना और व्यवहार दोनों में अफ्रीकी हाथियों से अलग होती है। औसतन एक वयस्क नर भारतीय हाथी की ऊँचाई 2.75 मीटर तक होती है और उसका वज़न लगभग 4.4 टन तक पहुँच सकता है, जबकि मादाएं आकार और वज़न में अपेक्षाकृत छोटी होती हैं। हाथियों के शरीर की प्रमुख हड्डियों में पसलियाँ भी शामिल होती हैं, भारतीय हाथियों में सामान्यतः 19 पसलियाँ पाई जाती हैं, जबकि कुछ मामलों में यह संख्या 20 तक भी हो सकती है। इनकी सूंड हाथी की सबसे विशेष जैविक संरचना मानी जाती है। यह दरअसल उनकी नाक और ऊपरी होंठ का विस्तारित रूप होती है, जिसमें लगभग 60,000 अलग-अलग मांसपेशियाँ होती हैं। इस जटिल संरचना के कारण सूंड अत्यधिक लचीली, संवेदनशील और शक्तिशाली बनती है। यही सूंड हाथी को न केवल भोजन ग्रहण करने, जल पीने, वस्तुओं को उठाने और संवाद करने में सहायता करती है, बल्कि यह उसके सामाजिक व्यवहार और भावनात्मक जुड़ाव का भी माध्यम होती है।
भारत में हाथियों के प्राकृतिक आवास और वितरण का वर्तमान परिदृश्य
भारतीय हाथी विविध पारिस्थितिक तंत्रों में पाए जाते हैं, जिनमें नम पर्णपाती वन, शुष्क पर्णपाती वन, अर्ध-सदाबहार वन, उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन और घास के विस्तृत मैदान शामिल हैं। इनका वितरण समुद्र तल से लेकर लगभग 3,000 मीटर की ऊँचाई तक के क्षेत्रों में पाया गया है, विशेषकर पूर्वोत्तर भारत में जहाँ जैव विविधता अत्यंत समृद्ध है। यह भी देखा गया है कि हाथी अपनी मौसमी गतिशीलता के आधार पर इन अलग-अलग आवासों में भ्रमण करते हैं। भारत में वर्तमान में जंगली हाथियों की कुल संख्या लगभग 26,000 से 28,000 के बीच अनुमानित है, जो कि विश्व में पाए जाने वाले एशियाई हाथियों की आबादी का लगभग 60% है। लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह संख्या अत्यंत सीमित हो चुकी है। 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में केवल 232 हाथी बचे हैं, जिनका अधिकांश हिस्सा राजाजी टाइगर रिज़र्व (Rajaji Tiger Reserve), कॉर्बेट नेशनल पार्क (Corbett National Park) और लैंसडाउन वन प्रभाग (Lansdowne Forest Division) तक ही सीमित रह गया है। इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि उत्तर प्रदेश में हाथियों का प्राकृतिक आवास लगातार सिमटता जा रहा है, जिससे इनका अस्तित्व संकट में पड़ गया है।

विलुप्ति की कगार पर हाथी: कारण और संरक्षण संबंधी चिंताएँ
हाथियों के अस्तित्व पर मंडराते संकट के पीछे कई गंभीर कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है, प्राकृतिक आवास का तेज़ी से क्षरण और मानव अतिक्रमण। जैसे-जैसे वनों की कटाई होती जा रही है और कृषि एवं शहरीकरण का विस्तार हो रहा है, हाथियों को अपने पारंपरिक गलियारों से भटकना पड़ रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि वे अक्सर बस्तियों में प्रवेश कर जाते हैं, जिससे मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत क्षेत्र में ऐसी ही एक घटना में दो हाथी जंगल से भटक कर बस्ती में आ गए और पाँच लोगों पर हमला कर दिया। ये घटनाएँ इस बात का संकेत हैं कि हाथी और मनुष्य के बीच का संतुलन अब अस्थिर हो चुका है। वहीं दूसरी ओर, कैद में रखे गए हाथियों की स्थिति भी चिंताजनक है। धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में उपयोग किए जाने वाले हाथियों को अक्सर कठोर परिस्थितियों में रखा जाता है। उनमें गठिया, पैरों की सड़न, पोषण की कमी और मानसिक तनाव जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ आम होती जा रही हैं। आज यह परंपरा, जिसमें हाथी मंदिरों, शोभायात्राओं और मेलों में कैद रहते हैं, गंभीर नैतिक और पारिस्थितिक प्रश्नों को जन्म दे रही है।

शिवालिक वन क्षेत्र में मिला 50 लाख वर्ष पुराना हाथी का जीवाश्म
मेरठ क्षेत्र के पास स्थित सहारनपुर जिले के शिवालिक वन प्रभाग में हाल ही में एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज हुई है। इस क्षेत्र में 50 लाख वर्ष पुराना एक हाथी का जीवाश्म प्राप्त हुआ है, जो स्टेगोडॉन (Stegodon) नामक एक प्राचीन, अब विलुप्त हो चुकी प्रजाति से संबंधित है। यह जीवाश्म आकार में विशाल और संरचना में जटिल है, जो उस युग के पारिस्थितिक संतुलन और जैविक विविधता की झलक देता है। वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (Wadia Institute of Himalayan Geology), देहरादून के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में यह निष्कर्ष निकला है कि यह जीवाश्म उन जीवों में गिना जा सकता है जो संभवतः डायनासोर (dinosaur) के काल के बाद अस्तित्व में आए। इस खोज से यह भी प्रमाणित होता है कि मेरठ और उसके आसपास का भूभाग लाखों वर्ष पूर्व विशालकाय स्तनधारियों का प्राकृतिक आवास रहा है। यह जीवाश्म न केवल एक वैज्ञानिक चमत्कार है, बल्कि मेरठ की पारिस्थितिक और ऐतिहासिक विरासत को भी उजागर करता है, यह दर्शाते हुए कि हाथियों का संबंध इस धरती से केवल वर्तमान तक सीमित नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें हमारे भूवैज्ञानिक अतीत तक जाती हैं।
संदर्भ-
मेरठ की गलियों से गुजरती कांवड़ यात्रा: भक्ति और भाईचारे की कहानी
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
11-08-2025 09:26 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, सावन का आगमन होते ही जैसे पूरा शहर श्रद्धा की बयार में बहने लगता है। गंगाजल से भरे कांवड़ों के साथ "बोल बम" की गूंज, मेरठ की गलियों और हाईवे को भक्तिमय रंग में रंग देती है। हर साल हजारों श्रद्धालु जब हरिद्वार से लौटते हुए मेरठ से गुजरते हैं, तो यह शहर सिर्फ एक मार्ग नहीं, बल्कि स्नेह, सेवा और समर्पण का संगम बन जाता है। जगह-जगह लगे शिविर, ठंडे पेय, प्राथमिक उपचार की व्यवस्था और मुस्कुराकर स्वागत करते चेहरे, ये सब मेरठ की गंगा-जमुनी तहज़ीब का जीवंत प्रमाण हैं। प्रशासनिक चौकसी हो या आम लोगों की सेवा भावना, हर कोई इस यात्रा को सहज और सम्मानजनक बनाने में अपनी भूमिका निभाता है। कांवड़ यात्रा यहां एक परंपरा नहीं, बल्कि वो उत्सव है जिसमें मेरठ खुद शिवभक्त बन जाता है, हर कदम पर श्रद्धा, हर मोड़ पर सेवा।
इस लेख में हम सबसे पहले, हम जानेंगे कांवड़ यात्रा का धार्मिक और पौराणिक महत्व, जहाँ भगवान शिव, गंगाजल और सावन के संबंधों की चर्चा होगी। फिर हम इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को खंगालेंगे, यह जानने के लिए कि कैसे यह यात्रा सदियों में बदलती हुई परंपरा बन गई। इसके बाद हम कांवड़ यात्रा के प्रमुख प्रकारों, डाक कांवड़, सहारा कांवड़ और खड़ी कांवड़, की विशेषताओं को देखेंगे। चौथे हिस्से में आधुनिक संरचना, प्रशासनिक प्रबंधन और तकनीकी निगरानी की बात करेंगे, जिससे लाखों यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित होती है। अंत में, हम मेरठ में कांवड़ यात्रा के आयोजन, सामाजिक सहभागिता, सेवा भावना और सांस्कृतिक समरसता पर विशेष ध्यान देंगे, जो इसे सिर्फ यात्रा नहीं, बल्कि जन-आस्था का उत्सव बना देती है।

कांवड़ यात्रा का धार्मिक व पौराणिक महत्व
कांवड़ यात्रा हिन्दू धर्म में भगवान शिव की आराधना का एक अत्यंत विशेष और भावनात्मक रूप है। इस यात्रा का गहरा संबंध शिवपुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों से है। मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले हलाहल विष को जब भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया, तो देवताओं और ऋषियों ने गंगाजल से उनका अभिषेक कर उनके ताप को शांत किया। तभी से सावन के महीने में गंगाजल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाने की परंपरा आरंभ हुई। आज भी यह परंपरा "जलाभिषेक" के रूप में निभाई जाती है, जिसमें गंगाजल को विशेष रूप से हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख या सुल्तानगंज (अजगैबीनाथ मंदिर) जैसे तीर्थों से लाकर 12 ज्योतिर्लिंगों समेत कई प्रमुख शिव मंदिरों में अर्पित किया जाता है। भक्तों का विश्वास है कि यह कार्य उनके पापों का शमन करता है और शिव कृपा प्राप्त होती है। यह यात्रा भक्तों के लिए केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, समर्पण और तपस्या का मार्ग बन गई है।
कांवड़ यात्रा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
कांवड़ यात्रा की ऐतिहासिक जड़ें भारतीय धार्मिक परंपराओं में गहराई से जुड़ी हुई हैं। ऐसी मान्यता है कि पूर्व में कुछ तपस्वी और भक्तगण विशेष पर्वों पर गंगा नदी से जल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाया करते थे। धीरे-धीरे यह एक संगठित रूप में सामने आया और विभिन्न क्षेत्रों में इसकी अलग-अलग धारणाएँ बनने लगीं। 18वीं शताब्दी में बिहार के सुल्तानगंज से देवघर (बाबा बैद्यनाथ धाम) तक की यात्रा को भी इसका एक आरंभिक स्वरूप माना जाता है, जहाँ श्रद्धालु अजगैबीनाथ मंदिर से गंगा जल लेकर बैद्यनाथ मंदिर तक नंगे पाँव चलते हैं। इसी तरह उत्तर भारत में हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख और ऋषिकेश जैसे स्थानों से भी यह परंपरा विकसित हुई, जो अब कांवड़ यात्रा का केंद्रीय आधार बन चुके हैं। उत्तर भारत में यह यात्रा विशेष रूप से हरिद्वार से आरंभ होकर विभिन्न राज्यों और शहरों से होती हुई शिवधामों तक पहुँचती है। जैसे-जैसे समय बढ़ा, वैसे-वैसे इस यात्रा ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप ले लिया, जहाँ जाति, वर्ग, उम्र और लिंग की सीमाएँ टूटने लगीं और भक्ति की एकजुटता सामने आई।

कांवड़ यात्रा के प्रमुख प्रकार
कांवड़ यात्रा की सुंदरता इसकी विविधता में छिपी है। हर भक्त अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार यात्रा करता है और प्रत्येक रूप में भक्ति का अनोखा रंग दिखाई देता है।
सामान्य कांवड़: यह सबसे अधिक प्रचलित रूप है, जिसमें भक्त पैदल चलते हुए गंगाजल अपने गंतव्य तक लेकर जाते हैं। आमतौर पर यह भक्त नंगे पाँव चलते हैं और दिन-रात के अंतर से परे पूरी निष्ठा से आगे बढ़ते हैं।
डाक कांवड़: इस प्रकार के कांवड़िये तेजी से दौड़ते हुए जल पहुँचाते हैं, अक्सर ये युवा होते हैं और कम समय में अधिक दूरी तय करते हैं। इनके लिए दलों में काम करना और समय-सीमा के भीतर जल पहुँचाना एक सामूहिक संकल्प होता है।
कड़ी कांवड़: इस यात्रा में जल से भरी कांवड़ को ज़मीन पर नहीं रखा जाता, इसे हमेशा हवा में ही टांगा जाता है। यह रूप उन श्रद्धालुओं द्वारा निभाया जाता है जो मानते हैं कि पवित्र गंगाजल को पृथ्वी पर नहीं टिकाना चाहिए।
डंडी कांवड़: सबसे कठिन रूप, जिसमें भक्त प्रत्येक कदम पर साष्टांग प्रणाम करते हुए आगे बढ़ते हैं। कुछ कांवड़िए तो इस यात्रा को पूरा करने के लिए जमीन पर लेटते हुए आगे बढ़ते हैं, जिसे पूर्ण समर्पण और तपस्या का प्रतीक माना जाता है।
इन सभी रूपों में एक बात समान होती है, भक्ति की गहराई और भगवान शिव के प्रति अटूट श्रद्धा।

कांवड़ यात्रा की आधुनिक संरचना और आयोजन
आज की कांवड़ यात्रा एक विशाल आयोजन में बदल चुकी है, जो धार्मिक आस्था के साथ-साथ सामाजिक संगठनों, प्रशासन और तकनीक का समन्वय भी दिखाती है। करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु हर वर्ष इस यात्रा में भाग लेते हैं। कांवड़ियों के लिए बांस से बने विशेष उपकरण “कांवड़” का उपयोग किया जाता है, जिसमें दोनों ओर जल से भरे घड़े टंगे होते हैं और इसे कांधे पर रखकर संतुलन बनाकर ले जाया जाता है। आधुनिक युग में कुछ कांवड़िए साइकिल, बाइक या वाहन काफिलों का भी प्रयोग करते हैं, किंतु पारंपरिक श्रद्धालु अब भी नंगे पाँव और पैदल यात्रा को प्राथमिकता देते हैं। अधिकतर भक्त गेरुए वस्त्र धारण करते हैं, जो संन्यास और साधना का प्रतीक है। सड़कों पर विशेष ट्रैफिक मैनेजमेंट (Traffic Management), मोबाइल मेडिकल यूनिट्स (Mobile Medical Units), साफ-सफाई की व्यवस्था, और महिला सुरक्षा दल जैसे इंतज़ाम इसे सुव्यवस्थित बनाते हैं। जगह-जगह पर भव्य सेवा शिविर बनाए जाते हैं, जहाँ निःशुल्क भोजन, पेय, दवाई और रात्रि विश्राम की सुविधा उपलब्ध होती है।

मेरठ में कांवड़ यात्रा: आस्था की राह पर सेवा और सजगता
सावन का महीना आते ही मेरठ की सड़कों पर केसरिया रंग की लहर दौड़ जाती है। हजारों कांवड़िए, "बोल बम" के नारों के साथ, हरिद्वार से गंगाजल लेकर मेरठ के रास्ते अपने-अपने शिव मंदिरों की ओर बढ़ते हैं। यह सिर्फ एक धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि श्रद्धा, संकल्प और सामाजिक समर्पण का प्रतीक है। मेरठ, इस विशाल यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव बनकर हर साल अपने प्रबंधन और मेहमाननवाज़ी से देशभर में मिसाल कायम करता है। इस वर्ष 10 जुलाई से कांवड़ यात्रा के लिए दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे (express) को पूरी तरह से कांवड़ियों के लिए समर्पित कर दिया गया है। सुरक्षा और सुविधा की दृष्टि से 3000 से अधिक CCTV कैमरे, 25 ड्रोन (drone), और 50 वॉच टावर (watch tower) लगाए गए हैं। पुलिस और प्रशासनिक टीमें 24 घंटे मुस्तैद हैं, ताकि हर कांवड़िया सुरक्षित और ससम्मान यात्रा पूरी कर सके। शहर भर में सैकड़ों शिविर लगाए गए हैं जहाँ ठहरने, भोजन, प्राथमिक उपचार, और आराम की बेहतरीन व्यवस्था है। नगर निगम द्वारा सफाई, पानी और रोशनी की व्यवस्था लगातार की जा रही है। स्क्रीन (LED Screen ) के ज़रिए सूचनाएँ दी जा रही हैं और 107 से अधिक पुलिस चौकियाँ बनाए गई हैं ताकि कोई भी परेशानी तुरंत सुलझाई जा सके। मेरठ के नागरिक भी इस दौरान बढ़-चढ़कर सेवा में जुटते हैं, कहीं जलपान की व्यवस्था करते हैं, तो कहीं थके यात्रियों के पैरों की सेवा। कांवड़ यात्रा यहां सिर्फ एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, अनुशासन और श्रद्धा की साझा अभिव्यक्ति है, जहाँ भक्तों के कदमों की आहट में भक्ति भी है और प्रशासन की तैयारियों में भरोसे का एहसास भी।
संदर्भ-
संस्कृति 2078
प्रकृति 750