महाबोधि मंदिर, जहां गौतम बुद्ध को प्राप्त हुआ था आत्मज्ञान

धर्म का युग : 600 ई.पू. से 300 ई.
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महाबोधि मंदिर, जहां गौतम बुद्ध को प्राप्त हुआ था आत्मज्ञान

ईश्वर को सर्वव्यापी माना गया है। किंतु जरूरी नहीं है की आपको ईश्वर कहीं भी मिल जाए। वास्तव में “प्रत्येक कर्म के लिए सदैव ही, एक विशेष स्थान निर्धारित होता है।” इसका सर्वोत्तम उदाहरण हम सिद्धार्थ गौतम, बुद्ध की ईश्वरीय खोज से प्राप्त सकता है। बुद्ध ईश्वर को खोजने के लिए अनेकों स्थानों पर भटके, किंतु ज्ञानोदय या महाबोधि की प्राप्ति उन्हें महाबोधि मंदिर, बोधगया में आकर ही हुई।
महाबोधि मंदिर परिसर भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है, और यह विशेष रूप से गौतम बुद्ध की आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रसिद्ध है। यहां पहला मंदिर सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बनाया गया था, और वर्तमान मंदिर 5 वीं या 6 वीं शताब्दी पुराना है। यह प्रारंभिक बौद्ध मंदिरों में से एक है, जो पूरी तरह से ईंट से बना है। यह अभी भी भारत में गुप्त काल के अंत से खड़ा है और माना जाता है कि सदियों से ईंट वास्तुकला के विकास में इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। बोधगया के वर्तमान महाबोधि मंदिर परिसर में 50 मीटर ऊंचा भव्य मंदिर, वज्रासन, पवित्र बोधि वृक्ष और बुद्ध के ज्ञान के अन्य छह पवित्र स्थल शामिल हैं, जो कई प्राचीन मन्नत स्तूपों से घिरा हुआ है। सातवां पवित्र स्थान, लोटस पॉन्ड (lotus pond), दक्षिण में बाड़े के बाहर स्थित है। मंदिर क्षेत्र और लोटस पॉन्ड दोनों, दो या तीन स्तरों पर परिसंचारी मार्ग से घिरे हुए हैं। मुख्य मंदिर की दीवार की औसत ऊंचाई 11 मीटर है और इसे भारतीय मंदिर वास्तुकला की शास्त्रीय शैली में निर्मित किया गया है।
दार्शनिक और सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में, महाबोधि मंदिर परिसर बहुत प्रासंगिक है क्योंकि यह भगवान बुद्ध के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना का प्रतीक है। यह संपत्ति अब दुनिया में बौद्ध तीर्थ के सबसे पवित्र स्थान के रूप में प्रतिष्ठित है और मानव जाति के इतिहास में बौद्ध धर्म का उद्गम स्थल माना जाता है। यूनेस्को (UNESCO) ने इसे विश्व धरोहर घोषित किया है। यह विहार उसी स्थान पर खड़ा है जहाँ गौतम बुद्ध ने ईसा पूर्व 6वी शताब्दी में ज्ञान प्राप्त किया था। इस विहार की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान है। इस विहार में गौतम बुद्ध (पदमासन की मुद्रा) की एक बहुत बड़ी मूर्ति स्थापित है। किवदंतियों के अनुसार यह मूर्ति उसी जगह स्‍थापित है जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान बुद्धत्व (ज्ञान) प्राप्‍त हुआ था। विहार के चारों ओर पत्‍थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। इस विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्खु ध्‍यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में विहार प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं। विहार परिसर में वह सात स्‍थान भी चिन्हित हैं जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति पश्चात् सात सप्‍ताह व्यतीत किये थे।
जातक कथाओं में उल्लिखित बोधि वृक्ष भी यहां उपस्थित है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य विहार के पीछे स्थित है। बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्‍त हुआ था। मुख्‍य विहार के पीछे वज्रासन मुद्रा में बुद्ध की लाल बलुए पत्‍थर की 7 फीट ऊंची एक मूर्त्ति है। मान्यताओं के अनुसार तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्‍थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगाया था और इसे पृथ्‍वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्‍थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्‍ह बने हुए हैं, जिन्हे धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् दूसरा सप्‍ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ी अवस्‍था में व्यतीत किया था। मुख्‍य विहार का उत्तरी भाग चंकामाना के नाम से जाना जाता है। जहां पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त के बाद तीसरा सप्ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्‍थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है। महाबोधि विहार के उत्तर पश्चिम भाग में एक छत विहीन भग्‍नावशेष है, जो रत्‍नाघारा के नाम से जाना जाता है, जहां पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्‍ताह व्‍यतीत किया था। दन्‍तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्‍यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली।
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्ताह मुख्‍य विहार के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे व्‍य‍तीत किया था। इसके बाद उन्होंने छठा सप्‍ताह महाबोधि विहार के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्‍यतीत किया था। चारों तरफ से वृक्षों से घिरे हुए इस क्षील के मध्‍य में बुद्ध की मूर्त्ति स्‍थापित है। इस विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृ‍क्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्‍ताह इसी वृक्ष के नीचे व्‍यतीत किया था। यहीं बुद्ध, दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से प्रसिद्ध प्रार्थना “बुद्धमं शरणम् गच्‍छामि (मैं बुद्ध की शरण में जाता हू।)” का उच्‍चारण किया। बुद्ध के कुछ सदियों बाद, उस स्थान को चिह्नित करने के लिए बोधि वृक्ष के नीचे एक पत्थर का मंच या सिंहासन स्थापित किया गया था जहां बुद्ध ध्यान में बैठे थे और वहां भक्ति के दूसरे केंद्र के रूप में कार्य करते थे।
मंदिर परिसर में दो बड़े सीधे-सीधे शिखर टावर शामिल हैं, जो 55 मीटर (180 फीट) से अधिक ऊंचे हैं। यह एक शैलीगत विशेषता है जो आज भी जैन और हिंदू मंदिरों में जारी है, और अन्य देशों में बौद्ध वास्तुकला को शिवालय जैसे रूपों में प्रभावित करती है। साइट से पुरातात्विक खोजों से संकेत मिलता है कि यह स्थान कम से कम मौर्य काल से बौद्ध पूजा का स्थल रहा है।

संदर्भ
https://bit.ly/3BMfwsF
https://bit.ly/3DlDXOB
https://bit.ly/3xkDecG

चित्र संदर्भ
1. महाबोधि मंदिर, को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. महाबोधि मंदिर के प्रांगण को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. महाबोधि वृक्ष दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. सुंदर महाबोधि मंदिर के भीतरी दृश्य को दर्शाता एक चित्रण (PixaHive)
5. अपने शिष्यों के साथ गौतम बुद्ध को दर्शाता एक चित्रण (Max Pixel)