आलू की खेती में जौनपुर का उभरता सितारा: जब परंपरा से जुड़ी विज्ञान की ताक़त

फल-सब्ज़ियां
02-07-2025 09:29 AM
आलू की खेती में जौनपुर का उभरता सितारा: जब परंपरा से जुड़ी विज्ञान की ताक़त

जौनपुर उत्तर प्रदेश के उन ज़िलों में शामिल है जहाँ आलू की खेती लंबे समय से प्रमुख रही है। यहाँ की दोमट मिट्टी और अनुकूल जलवायु ने इसे आलू उत्पादन के लिए उपयुक्त क्षेत्र बनाया है। खासकर जलालपुर, मुंगराबादशाहपुर और केराकत जैसे क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में आलू की खेती की जाती है, जो स्थानीय बाज़ारों के साथ-साथ आस-पास के ज़िलों में भी भेजी जाती है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में जौनपुर में आलू के उत्पादन में गिरावट देखी गई है। इसके पीछे मुख्य कारण हैं— सिंचाई लागत में वृद्धि, कीट और रोग नियंत्रण में कठिनाई, और मौसम में आए बदलाव। इससे किसानों को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा है।

इन चुनौतियों के बीच, वैज्ञानिक शोध और नई किस्मों का परीक्षण एक आशा की किरण बनकर सामने आया है। 'कुफ़्री नीलकंठ' जैसी उन्नत किस्में जौनपुर के कुछ ब्लॉकों में अब अपनाई जा रही हैं, जो कम समय में तैयार होती हैं, बेहतर उपज देती हैं और रोगों के प्रति अधिक प्रतिरोधी हैं। कृषि विभाग द्वारा समय-समय पर प्रशिक्षण शिविर, बीज वितरण और तकनीकी सहायता देकर किसानों को नई तकनीकों से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। जौनपुर के किसान अब पारंपरिक अनुभव के साथ आधुनिक जानकारी को जोड़कर आलू उत्पादन को फिर से मजबूत करने में लगे हुए हैं।

इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि भारत में आलू की खेती का इतिहास क्या है और इसका आर्थिक महत्व कैसे बढ़ा। फिर समझेंगे कि उत्तर भारत में आलू का उत्पादन क्यों घट रहा है और इसके क्या प्रभाव हो सकते हैं। इसके बाद हम ‘कुफ़्री नीलकंठ’ जैसी नई संकर किस्म के लाभों की चर्चा करेंगे, और जानेंगे कि कैसे उपभोक्ताओं की बदलती मांग ने आलू को हर वर्ग की ज़रूरत बना दिया है। अंत में हम देखेंगे कि कैसे आलू, खाद्य सुरक्षा और किसान सशक्तिकरण का एक मजबूत स्तंभ बन सकता है।

भारत में आलू की ऐतिहासिक यात्रा और आर्थिक महत्व

भारत में आलू का आगमन 16वीं-17वीं शताब्दी में हुआ जब पुर्तगाली इसे अपने साथ लाए। उस समय यह एक नई और विदेशी फसल थी, लेकिन धीरे-धीरे यह भारतीय रसोई का अभिन्न हिस्सा बन गई। आज भारत आलू उत्पादन में विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है। खासतौर पर उत्तर भारत में आलू को नक़दी फसल के रूप में अपनाया गया, जिससे किसानों को अच्छी आय प्राप्त होने लगी।
इसके अलावा, आलू ने ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा को मजबूत करने और शहरी बाजारों में सप्लाई चैन का आधार बनने में भी अहम भूमिका निभाई है। जैसे-जैसे उपज बढ़ी, इसका व्यापार भी तेजी से फैला और किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त करने में मदद मिली। यह फसल कम समय में तैयार हो जाती है और इसकी भंडारण क्षमता भी अच्छी होती है, जिससे इसकी वाणिज्यिक मांग लगातार बनी रहती है।
आज आलू न केवल भारत के भीतर बल्कि विदेशों में भी निर्यात किया जा रहा है, जिससे विदेशी मुद्रा अर्जन भी संभव हो सका है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आलू अब केवल एक सब्जी नहीं, बल्कि एक आर्थिक इंजन बन चुका है। इसके चलते कृषि आधारित स्टार्टअप और प्रसंस्करण इकाइयों को भी बल मिला है।

उत्तर भारत में घटता आलू उत्पादन: कारण और प्रभाव

उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य, जो कभी आलू उत्पादन में अग्रणी थे, अब इस फसल से धीरे-धीरे पीछे हट रहे हैं। इसका मुख्य कारण खुदरा और थोक बाजार में कीमतों का बड़ा अंतर है, जिससे किसानों को घाटा सहना पड़ता है। इसके अलावा भंडारण की उच्च लागत और फसल सहेजने की व्यवस्था की कमी भी एक बड़ी चुनौती है।
आलू के नुकसान की भरपाई के लिए किसान अब प्याज़, लहसुन, गन्ना जैसी वैकल्पिक फसलें बोने लगे हैं। इससे न केवल उत्पादन घटा है, बल्कि निर्यात में भी गिरावट आई है। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो भारत की खाद्य आपूर्ति प्रणाली में असंतुलन आ सकता है और किसानों की आमदनी और भी प्रभावित होगी। साथ ही क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर पड़ेगा।
इस गिरावट के पीछे मौसम में अस्थिरता और जलवायु परिवर्तन भी एक प्रमुख कारक है, जिससे फसल की गुणवत्ता पर असर पड़ रहा है। किसान लगातार लागत बढ़ने और लाभ घटने के बीच जूझ रहे हैं। नीतिगत सहयोग के अभाव ने भी आलू की खेती को हतोत्साहित किया है।

‘कुफ़्री नीलकंठ’: आलू की नई संकर किस्म और उसके लाभ

शिमला स्थित केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (CPRI) द्वारा विकसित 'कुफ़्री नीलकंठ' एक नवीन और संकर आलू किस्म है जो रोग प्रतिरोधक क्षमता, स्वाद और उच्च उपज के लिए जानी जाती है। यह प्रजाति औसतन 35-38 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन देती है, जो राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है।
यह किस्म खासतौर पर उत्तर भारत के मैदानी इलाकों के लिए उपयुक्त है और ‘लेट ब्लाइट’ जैसी बीमारियों से बचाव करती है। इसके अलावा इसका रंग, आकार और भंडारण क्षमता इसे व्यावसायिक खेती के लिए और भी उपयोगी बनाते हैं। यह किसानों को अधिक लाभ देने वाली, टिकाऊ और सुरक्षित खेती की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
इसके प्रचार-प्रसार के लिए सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा जागरूकता अभियान चलाना आवश्यक है। साथ ही बीज वितरण को आसान और किफायती बनाने से अधिक किसान इसका लाभ उठा सकते हैं। यह किस्म बदलते मौसम में भी स्थिर उत्पादन क्षमता बनाए रखने में सहायक है।

उपभोक्ता मांग और बदलता बाज़ार: क्यों हर वर्ग को चाहिए 'हरफ़नमौला आलू'

आज आलू सिर्फ देहात की थाली में सीमित नहीं है। मध्यमवर्गीय परिवार, होटल उद्योग और अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ता — सभी की थाली में इसकी जगह पक्की होती जा रही है। नई किस्मों में एंटीऑक्सीडेंट की अधिकता, बेहतर स्वाद और पोषण इसे और भी अधिक लोकप्रिय बना रही हैं। लॉकडाउन के समय आलू की मांग में अचानक तेज़ी आई, क्योंकि यह सस्ता, टिकाऊ और हर रसोई में उपयोगी था। आलू अब चावल और गेहूं के बाद तीसरी सबसे बड़ी खाद्य फसल है, और इसका प्रयोग भारत के हर कोने में बढ़ रहा है। इससे आलू की खेती को स्थायित्व मिला है और किसान वर्ग को भी निरंतर बाज़ार मिल रहा है।
आधुनिक युवा पीढ़ी भी अब स्वास्थ्यवर्धक डाइट में आलू को शामिल कर रही है, खासकर बेक या ग्रिल रूप में। प्रोसेस्ड फूड इंडस्ट्री में फ्रेंच फ्राइज, आलू चिप्स जैसे उत्पादों की बढ़ती मांग से भी इसका बाज़ार मजबूत हो रहा है। यह बदलाव किसानों को एक स्थिर उपभोक्ता आधार देने में मददगार साबित हो रहा है।

खाद्य सुरक्षा और किसान सशक्तिकरण में आलू की भूमिका

आलू न केवल पोषण में समृद्ध है, बल्कि वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक मजबूत विकल्प बन चुका है। यह प्रति हेक्टेयर अधिक ऊर्जा देता है, और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बीच भी फसल के रूप में टिकाऊ है। यदि किसानों को समय पर उच्च गुणवत्ता वाले बीज, सुरक्षित भंडारण की सुविधा और बाजार का उचित समर्थन मिले, तो आलू उत्पादन से उनकी आय में भारी वृद्धि हो सकती है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने, कृषि को टिकाऊ बनाने और आत्मनिर्भर भारत के सपने को पूरा करने की दिशा में अहम भूमिका निभा सकता है। इसके अतिरिक्त, स्कूलों में मिड-डे मील और सरकारी राशन योजनाओं में आलू आधारित उत्पादों को शामिल कर, पोषण और आपूर्ति दोनों में सुधार किया जा सकता है। साथ ही महिला किसानों को आलू प्रसंस्करण इकाइयों से जोड़कर उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।

 

संदर्भ-
https://tinyurl.com/mr2bkh2v 
https://tinyurl.com/494snykx  

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