
मेरठ वासियों, जब हम भारत के आदिवासी समाज और उनकी सांस्कृतिक धरोहर की बात करते हैं, तो एक ऐसा नाम सामने आता है जिसने न केवल अपना धर्म बल्कि अपना समर्पण भी पूरी तरह बदल दिया—वेरियर एल्विन। यह वही वेरियर एल्विन हैं, जो मूल रूप से ब्रिटेन के एक प्रतिष्ठित ईसाई मिशनरी थे लेकिन महात्मा गांधी जी की प्रेरणा से उन्होंने भारत के आदिवासियों के बीच जीवन बिताया और उन्हें समझने, अपनाने और सम्मान दिलाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने मध्य भारत की घनी वनों में जाकर आदिवासी समुदायों के साथ रहकर न केवल उनके रीति-रिवाजों को अपनाया, बल्कि उनकी भाषा, संस्कृति और जीवन दर्शन को भी गहराई से आत्मसात किया। एल्विन का यह कदम सिर्फ व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक पुल भी बना, जिसने मुख्यधारा समाज और हाशिए पर जी रहे समुदायों के बीच संवाद की एक नई राह खोली। वे पहले ऐसे विदेशी थे जिन्होंने न केवल भारतीय नागरिकता ग्रहण की, बल्कि सरकारी नीति निर्माण में भी सक्रिय योगदान दिया। आज जब हमारे राज्य उत्तर प्रदेश में भी जनजातीय संग्रहालयों की स्थापना हो रही है और आदिवासी सांस्कृतिक विरासत को संजोने के प्रयास किए जा रहे हैं, तो एल्विन की सोच और कार्य हमें गहराई से प्रेरित करते हैं।
इस लेख में सबसे पहले हम जानेंगे कि कैसे वेरियर एल्विन ने एक मिशनरी से भारत के आदिवासियों के संरक्षक तक की यात्रा तय की। फिर हम समझेंगे कि आदिवासी संस्कृति पर उनके मानवविज्ञान शोध का क्या महत्व था। इसके बाद हम एल्विन की स्वतंत्र भारत में भूमिका और उनके द्वारा अपनाई गई भारतीय नागरिकता की चर्चा करेंगे। इसके बाद जानेंगे कि भारत के शीर्ष नेताओं ने उनके विचारों की कैसे सराहना की। अंत में, उत्तर प्रदेश में बन रहे थारू जनजाति संग्रहालयऔर अन्य सांस्कृतिक पहलों पर नजर डालेंगे।
वेरियर एल्विन: एक ईसाई मिशनरी से आदिवासी रक्षक बनने तक का सफर
वेरियर एल्विन का जन्म 1902 में ब्रिटेन के डोवर शहर में हुआ था और उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1927 में वह एक ईसाई मिशनरी के रूप में भारत आए और उनका उद्देश्य था—ईसाई धर्म का स्वदेशीकरण। लेकिन जल्द ही उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई और उनके विचारों ने एल्विन के जीवन की दिशा ही बदल दी। गांधी जी के प्रभाव में आकर उन्होंने मिशनरी गतिविधियों को त्याग दिया और भारत की मिट्टी, विशेषकर मध्य भारत के आदिवासियों के साथ अपना जीवन बिताने का निर्णय लिया। उन्होंने उनके साथ रहकर न केवल उनकी समस्याओं को समझा बल्कि अपनी पहचान भी एक भारतीय के रूप में स्थापित की। यह परिवर्तन न केवल व्यक्तिगत था बल्कि भारतीय समाज के लिए ऐतिहासिक भी सिद्ध हुआ। एल्विन के निर्णय ने यह सिद्ध किया कि किसी भी संस्कृति को समझने और संजोने के लिए आत्मीयता और आत्म-समर्पण आवश्यक है।
एल्विन का यह निर्णय उस समय के लिए क्रांतिकारी था, जब पश्चिमी लोग भारतीय संस्कृति को केवल अध्ययन की वस्तु मानते थे। उन्होंने जीवन के उपभोगवादी दृष्टिकोण को त्यागकर एक सरल और समुदाय-केंद्रित जीवन को अपनाया। इस बदलाव में उनकी आत्मा की खोज और मानवता के प्रति गहरी संवेदना झलकती है। उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में जाकर उनके रीति-रिवाज, भाषा, और सांस्कृतिक मूल्यों को गहराई से समझा। उनकी यह यात्रा भारत और ब्रिटेन दोनों ही संस्कृतियों के लिए एक सेतु बन गई। एल्विन का यह बदलाव केवल उनका निजी रूपांतरण नहीं था, बल्कि यह उपनिवेशवाद के विरोध में एक नैतिक और सांस्कृतिक प्रतिरोध भी था।
जनजातीय जीवन और संस्कृति पर एल्विन का मानवविज्ञान अनुसंधान
एल्विन ने 1930 से 1940 के दशक के बीच आदिवासी समाज की विविधताओं को करीब से देखा और समझा। उन्होंने न केवल उनके दैनिक जीवन बल्कि उनकी लोककथाओं, पारंपरिक कलाओं, और सामाजिक संरचना पर गहराई से अध्ययन किया। उनकी रचनाओं में आदिवासी जीवन की संवेदनशील और वास्तविक तस्वीर उभर कर आती है। उन्होंने ‘The Baiga’, ‘The Muria’, और ‘Philosophy of Forest’ जैसी प्रसिद्ध किताबें लिखीं, जो आज भी मानवविज्ञान में महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। एल्विन का लेखन किसी शुष्क शोध की तरह नहीं था, बल्कि वह भावनात्मक जुड़ाव और सम्मान की भावना से भरा था। उन्होंने आदिवासियों को 'सभ्यता से दूर' नहीं, बल्कि 'स्वतंत्र और आत्मनिर्भर संस्कृति के संवाहक' के रूप में प्रस्तुत किया। उनका कार्य आदिवासियों की पहचान को न केवल दस्तावेज़ करता है, बल्कि उनके प्रति समाज के दृष्टिकोण को भी बदलता है।
एल्विन की पुस्तकों में केवल सांस्कृतिक दस्तावेज़ीकरण नहीं था, बल्कि उन्होंने सामाजिक विज्ञानों में एक नया दृष्टिकोण जोड़ा—अनुभवजन्य सह-अनुभव। उन्होंने आदिवासियों की मिथकीय कहानियों, विवाह परंपराओं, नृत्य, गीत और शिल्पकलाओं को संरक्षण देने योग्य विरासत माना। उनके शोध ने यह दिखाया कि आदिवासी जीवन ‘प्राचीन’ नहीं बल्कि ‘प्रासंगिक और शिक्षाप्रद’ है। उन्होंने यह भी दिखाया कि आधुनिकता और परंपरा विरोधी नहीं, बल्कि संवादात्मक हो सकते हैं। इस मानवतावादी दृष्टिकोण ने उन्हें केवल एक लेखक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संरक्षक बना दिया।
स्वतंत्र भारत में एल्विन की भूमिका और भारतीय नागरिकता का चयन
भारत की स्वतंत्रता के बाद एल्विन ने न केवल भारतीय नागरिकता अपनाई, बल्कि सक्रिय रूप से भारत सरकार के साथ कार्य भी किया। 1954 में उन्हें नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) का मानवविज्ञान सलाहकार नियुक्त किया गया। इस भूमिका में उन्होंने न केवल आदिवासियों के सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा की, बल्कि हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में प्रोत्साहित किया। एल्विन ने बाहरी हस्तक्षेप से बचते हुए स्थानीय प्रशासन को आदिवासियों के अनुकूल बनाने पर बल दिया। उनका योगदान भारत-चीन सीमा जैसे संवेदनशील क्षेत्र में स्थिरता लाने में बेहद अहम रहा। एल्विन ने यह सुनिश्चित किया कि विकास की प्रक्रिया आदिवासियों पर थोपी न जाए, बल्कि वह उनके संदर्भों में हो। यह दृष्टिकोण आज भी आदिवासी नीति-निर्माण में अनुकरणीय माना जाता है।
एल्विन के लिए भारत केवल एक अनुसंधान क्षेत्र नहीं था, बल्कि उनका अपना देश बन गया था। उन्होंने संविधान सभा की चर्चाओं में भाग नहीं लिया, लेकिन उनकी नीतियां भारत की आदिवासी नीति को गहराई से प्रभावित करती रहीं। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रशासन के क्षेत्रों में भी स्थानीयता पर ज़ोर दिया। उनका मानना था कि ‘एक आकार सबके लिए’ की नीति आदिवासी समाजों के लिए विनाशकारी हो सकती है। उन्होंने कई लोक भाषाओं में लिखे साहित्य को संरक्षित करने का प्रयास किया और युवाओं को सांस्कृतिक मूल्यों के साथ आधुनिक शिक्षा से जोड़ने की वकालत की।
राष्ट्रीय नेताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा एल्विन की नीतियों की सराहना
एल्विन की सोच और कार्य को उस समय के भारत के शीर्ष नेताओं और विचारकों ने गहन सराहना दी। उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, बिहार के राज्यपाल डॉ. जाकिर हुसैन, गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत और उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा जैसे प्रतिष्ठित लोगों ने ‘Philosophy for NEFA’ की गहराई और मानवीय दृष्टिकोण की प्रशंसा की। गोविंद बल्लभ पंत ने तो यहां तक कहा कि एल्विन की वजह से ही लोग अब आदिवासियों को 'जंगली' नहीं बल्कि 'सम्माननीय सांस्कृतिक समुदाय' के रूप में देखने लगे हैं। यह एल्विन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है कि उन्होंने भारतीय समाज की सोच बदलने का कार्य किया। उनकी नीति संवेदना और व्यावहारिकता का दुर्लभ संगम थी।
विजयलक्ष्मी पंडित ने कहा था कि एल्विन की दृष्टि भारतीयता को ‘शहरी चश्मे’ से नहीं, बल्कि ‘जमीनी अनुभव’ से देखती है। उनके विचारों ने प्रशासनिक निर्णयों को मानवीय दृष्टि दी, जिसे आज भी विकासशील देशों के संदर्भ में अनुकरणीय माना जाता है। जे.आर.डी टाटा जैसे उद्यमी भी एल्विन की सोच से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने से पहले उनके सामाजिक प्रभावों पर विचार करने की वकालत की। यह दिखाता है कि एल्विन का प्रभाव केवल नीति तक नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना तक विस्तृत था।
उत्तर प्रदेश में थारू जनजाति संग्रहालय: विरासत संरक्षण की पहल
उत्तर प्रदेश में आदिवासी संस्कृति के संरक्षण की दिशा में एक नई पहल के तहत बलरामपुर जिले के इमिलिया कोडर गांव में राज्य का पहला जनजातीय संग्रहालय स्थापित किया जा रहा है। यह संग्रहालय 5.5 एकड़ क्षेत्र में फैला है और विशेष रूप से थारू जनजाति की समृद्ध परंपराओं, कलाओं और जीवनशैली को दर्शाने के लिए समर्पित होगा। थारू समुदाय, जो अपनी सांस्कृतिक पहचान को आज भी गर्व से संजोए हुए हैं, इस संग्रहालय के माध्यम से राज्य और देशभर के लोगों के सामने आएंगे। यह संग्रहालय न केवल संस्कृति का संरक्षण करेगा बल्कि बलरामपुर क्षेत्र में पर्यटन को भी बढ़ावा देगा। इस पहल के तहत लखनऊ, लखीमपुर, सोनभद्र और कन्नौज में भी संग्रहालय और बाल संग्राहलय बनाए जा रहे हैं, जो संस्कृति और शिक्षा को जोड़ने का बेहतरीन प्रयास हैं।
थारू समुदाय की महिलाएँ पारंपरिक पोशाकों और चिकित्सा पद्धतियों के लिए प्रसिद्ध हैं, जिन्हें संग्रहालय में जीवंत रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। यह केंद्र न केवल पर्यटकों के लिए आकर्षण होगा, बल्कि शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों के लिए भी ज्ञान का खज़ाना बनेगा। संग्रहालय में जनजातीय व्यंजन, कृषि उपकरण, लोकनृत्य, और थारू भाषा के संरक्षण पर भी कार्य होगा। यह पहल उत्तर प्रदेश को सांस्कृतिक रूप से अधिक समृद्ध बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/y59hyh82
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