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जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे दादा-परदादाओं के समय में रौशनी का मुख्य साधन क्या था? वह समय जब शहर की गलियां बिजली से नहीं, बल्कि मिट्टी के तेल की लौ से जगमगाया करती थीं। मिट्टी का तेल, जिसे हम 'केरोसिन' कहते हैं, केवल एक ईंधन नहीं बल्कि भारत में ऊर्जा क्रांति की पहली सीढ़ी था। जौनपुर की पुरानी हवेलियों में आज भी लालटेन और स्टोव रखे हुए मिल जाएंगे, जो इस बात की गवाही देते हैं कि किस तरह केरोसिन ने हमारे शहर की रोशनी, रसोई और रोज़मर्रा के जीवन में अहम भूमिका निभाई। आइए, आज हम इसी केरोसिन की वैश्विक और भारतीय यात्रा को पांच प्रमुख पहलुओं में समझने की कोशिश करें।
इस लेख में हम केरोसिन की ऐतिहासिक और सामाजिक यात्रा को पांच दृष्टिकोणों से जानने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि केरोसिन का आविष्कार कैसे और किसने किया और किस रूप में यह पहली बार उपयोग में आया। इसके बाद, हम समझेंगे कि विश्व स्तर पर यह ईंधन कितने नामों और रूपों में इस्तेमाल हुआ और कैसे यह हर महाद्वीप के जीवन में घुल-मिल गया। तीसरे खंड में हम जानेंगे कि 19वीं सदी में किस प्रकार केरोसिन ने घरेलू, परिवहन और चिकित्सा क्षेत्रों में क्रांति ला दी। फिर हम भारत में इसके आगमन और विस्तार की कहानी को जानेंगे—कैसे यह विदेशी कंपनियों से निकल कर भारतीय घरों तक पहुंचा। और अंत में, हम देखेंगे कि कैसे यह ईंधन भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा बना और आम लोगों की आर्थिक पहुंच में आया।
केरोसिन का आविष्कार: कोयले से जन्मा यह अद्भुत ईंधन
केरोसिन का आविष्कार 19वीं शताब्दी के मध्य में एक क्रांतिकारी घटना थी, जिसने दुनिया की ऊर्जा जरूरतों को एक नई दिशा दी। कनाडा के भूवैज्ञानिक और आविष्कारक अब्राहम गेस्नर (Abraham Gesner) ने 1846 में बिटुमिनस (Bituminous) कोयले और ऑयल शेल के आसवन (distillation) की प्रक्रिया से एक हल्का, स्वच्छ और अत्यंत उपयोगी द्रव तैयार किया जिसे बाद में 'केरोसिन' नाम दिया गया। यह शब्द ग्रीक भाषा के 'केरोस' (मोम) शब्द से निकला था। गेस्नर की खोज से पहले प्रकाश के लिए मुख्य रूप से व्हेल का तेल इस्तेमाल होता था, जो महंगा और सीमित मात्रा में उपलब्ध था। केरोसिन ने इस आवश्यकता को न केवल पूरा किया बल्कि इसे किफायती और टिकाऊ भी बनाया। इसकी विशेषता थी कि यह धीमी गति से जलता था और कम धुआं उत्पन्न करता था, जिससे यह लैंपों के लिए एक उपयुक्त ईंधन बन गया। 1854 में केरोसिन का व्यावसायिक उत्पादन प्रारंभ हुआ, जिसने कई देशों को प्रकाश और ईंधन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने का रास्ता दिखाया। यह आविष्कार केवल एक तकनीकी खोज नहीं था, बल्कि उसने लाखों लोगों के जीवन को रात में रोशन कर दिया और औद्योगिक युग की ऊर्जा आवश्यकता को नया आयाम प्रदान किया।
विश्व स्तर पर केरोसिन की लोकप्रियता: नामों, उपयोगों और इतिहास की विविधता
केरोसिन की वैश्विक स्वीकार्यता ने इसे एक बहुप्रयोजनीय और बहुपरिभाषित ईंधन बना दिया। अलग-अलग देशों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है—भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में इसे 'केरोसिन', तो वहीं यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) और दक्षिण अफ्रीका में 'पैराफिन' (Paraffin) के नाम से जाना जाता है। दक्षिण-पूर्व एशिया में कई बार इसे 'लैंप ऑयल' (lamp oil) कहा जाता है। इसका उपयोग भी विविध क्षेत्रों में होता है—घरेलू खाना पकाने से लेकर हवाई जहाजों में जेट ईंधन के रूप में, आउटबोर्ड मोटरों (outboard motors), मोटरसाइकिलों और रॉकेट प्रोपेलेंट (rocket propellant) के रूप में भी केरोसिन का प्रयोग होता है। इतना ही नहीं, दूरदराज़ के ग्रामीण इलाकों में जहाँ बिजली नहीं पहुँच पाई थी, वहाँ केरोसिन ही रौशनी का एकमात्र स्रोत बना रहा। आज भी अनुमान है कि दुनिया भर में हर दिन लगभग 11 लाख घन मीटर केरोसिन (cubic meters of kerosene) की खपत होती है, जो इसकी निरंतर उपयोगिता का प्रमाण है। केरोसिन ने वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति की प्रणाली को न केवल सरल बनाया, बल्कि उन क्षेत्रों तक ऊर्जा पहुंचाई जहाँ तक अन्य विकल्प नहीं पहुँच सकते थे।
19वीं सदी का क्रांतिकारी परिवर्तन: लाइट, परिवहन और चिकित्सा में केरोसिन
19वीं सदी के उत्तरार्ध में केरोसिन ने जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन की लहर ला दी। इससे पहले जहां रात का मतलब अंधकार होता था, वहीं केरोसिन लैंप ने घरों, दुकानों, स्कूलों और अस्पतालों को रोशनी से भर दिया। केरोसिन से जलने वाले लैंपों का उपयोग न केवल घरेलू कार्यों में बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा और चिकित्सा सेवाओं में भी होने लगा। पुलिस विभाग की गश्त लाइट, अस्पतालों की आपातकालीन रोशनी और यहां तक कि ट्रेनों की सिग्नलिंग प्रणाली में भी केरोसिन लैंपों का व्यापक उपयोग हुआ। किसानों ने इसे खेतों में देर रात तक काम करने के लिए इस्तेमाल किया, जिससे कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई। इसके अलावा, केरोसिन का उपयोग घरेलू चिकित्सा में भी देखा गया—जैसे कि जूं मारने के उपाय में या हल्के त्वचा संक्रमणों के उपचार में। सामाजिक आयोजनों और मेलों में भी केरोसिन से जलने वाली लालटेनें एक सामान्य दृश्य थीं। इस प्रकार, केरोसिन सिर्फ एक ईंधन नहीं, बल्कि 19वीं सदी के विकास और जनजीवन के विस्तार का प्रतीक बन गया।
भारत में केरोसिन का आगमन और विस्तार: विदेशी कंपनियों से गांव तक
भारत में केरोसिन की कहानी, विदेशी निवेश और ग्रामीण भारत की ज़रूरतों के अद्भुत संगम की कहानी है। सर्वप्रथम इसे केरल के अलाप्पुझा बंदरगाह पर मैसर्स अर्नोल्ड चेनी एंड कंपनी द्वारा आयात किया गया था। इसके बाद बर्मा शेल, रिप्ले एंड मैके और ईएसएसओ (ISSO) जैसी विदेशी कंपनियों ने भारतीय बाजार में केरोसिन का गहन विस्तार किया। उन्होंने न केवल इसे शहरी भारत में लोकप्रिय किया बल्कि गांव-गांव तक पहुँचाया। 1952 में भारत में स्टैंडर्ड वैक्यूम रिफाइनिंग कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड (Standard Vacuum Refining Company of India Ltd.) के रूप में ईएसएसओ की स्थापना, केरोसिन के भारतीय इतिहास का एक प्रमुख अध्याय बना। इससे लालटेनें, स्टोव (stove), पंखे और यहां तक कि इस्त्री करने वाले उपकरण तक विकसित हुए, जो केरोसिन पर आधारित थे। ग्रामीण भारत में बिजली की अनुपलब्धता के दौर में, यह ईंधन जीवन का आधार बन गया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि केरोसिन ने आधुनिक भारत के निर्माण में एक मौन लेकिन स्थायी योगदान दिया है।
आर्थिक पहुँच और सरकारी वितरण: राशन प्रणाली में केरोसिन की जगह
केरोसिन की कीमतें शुरू में इतनी अधिक थीं कि यह केवल विशेष वर्ग के लिए ही सुलभ था। परंतु जब पेट्रोलियम रिफाइनरियों (petroleum refineries) ने इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू किया और इसकी लागत कम हुई, तो सरकार ने इसे आमजन तक पहुँचाने का निर्णय लिया। भारत में इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत राशन की दुकानों में उपलब्ध कराया गया, जिससे गरीब और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए यह आवश्यक ईंधन बन गया। स्कूलों, आंगनबाड़ियों और अन्य सामुदायिक केंद्रों में भी केरोसिन से जलने वाले स्टोवों और लालटेन का उपयोग आम हो गया। यह न केवल ऊर्जा का स्रोत था, बल्कि सरकार की सामाजिक न्याय नीति का भी हिस्सा बना। धीरे-धीरे जैसे-जैसे बिजली, एलपीजी (LPG)और अन्य आधुनिक ईंधनों की पहुँच बढ़ी, केरोसिन की खपत में कमी आई, लेकिन आज भी यह भारत के दूरस्थ ग्रामीण इलाकों और असंगठित क्षेत्रों में एक सस्ता, सुलभ और उपयोगी ईंधन बना हुआ है। इसका ऐतिहासिक महत्व और सामाजिक भूमिका, भारतीय ऊर्जा इतिहास का एक अमिट अध्याय है।
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