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उत्तर प्रदेश की यह धरती लंबे समय से कृषि पर आधारित जीवनशैली के लिए जानी जाती रही है, जहां गन्ना केवल एक फसल नहीं बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहा है। लेकिन अब उत्तर प्रदेश के जिलों में गन्ना उद्योग की पहचान केवल किसानों की आय तक सीमित नहीं रह गई है। यह उद्योग धीरे-धीरे ग्रामीण महिलाओं के लिए सम्मानजनक रोज़गार, आर्थिक आत्मनिर्भरता और सामाजिक सशक्तिकरण का माध्यम बनता जा रहा है। ऐसे समय में, जब कृषि क्षेत्र में महिलाओं को आज भी भेदभाव, असमान मजदूरी और अधिकारों की कमी का सामना करना पड़ता है, गन्ना उद्योग उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव की नई कहानी लिख रहा है।
आज इस लेख में हम सबसे पहले कृषि क्षेत्र में महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव और असमान मजदूरी को समझेंगे। इसके बाद भारतीय कृषि में महिलाओं की व्यापक लेकिन अदृश्य भागीदारी पर चर्चा करेंगे। आगे हम जानेंगे कि भूमि स्वामित्व और किसान के रूप में मान्यता का अभाव महिलाओं की स्थिति को कैसे कमजोर करता है। अंत में, हम उत्तर प्रदेश में गन्ना उद्योग और सरकारी योजनाओं के ज़रिये महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की उन पहलों को समझेंगे, जो उन्हें आत्मनिर्भर बना रही हैं।
कृषि क्षेत्र में महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव और असमान मजदूरी
ग्रामीण कृषि व्यवस्था में महिलाओं को आज भी गहराई से जड़ें जमाए लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। गन्ने की खेती सहित अनेक कृषि गतिविधियों को सामाजिक रूप से अब भी “पुरुषों का काम” माना जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि महिलाएं बुवाई, निराई, रोपाई, कटाई और गन्ने की पत्तियाँ साफ़ करने जैसे सबसे श्रमसाध्य कार्यों में निरंतर लगी रहती हैं। इसके बावजूद समान कार्य के लिए उन्हें पुरुषों की तुलना में काफी कम मजदूरी दी जाती है। कई बार महिलाओं को नकद भुगतान के बजाय वस्तु के रूप में मजदूरी दी जाती है, जिससे उनकी मेहनत का आर्थिक मूल्य और अधिक कम हो जाता है। यह असमानता न केवल आर्थिक शोषण को दर्शाती है, बल्कि महिलाओं के श्रम को कमतर आंकने वाली सामाजिक सोच को भी उजागर करती है।

भारतीय कृषि में महिलाओं की व्यापक भागीदारी और अदृश्य श्रम
भारत में कृषि पर निर्भर आबादी में महिलाओं की हिस्सेदारी अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद उनका योगदान अक्सर अदृश्य बना रहता है। महिलाएं न केवल कृषक और खेतिहर मजदूर के रूप में कार्य करती हैं, बल्कि घरेलू स्तर पर पशुपालन, चारा संग्रह, बीज संरक्षण, खाद निर्माण और कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण जैसे कार्यों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह सारा श्रम अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मजबूती देता है, लेकिन चूंकि इसका अधिकांश हिस्सा अवैतनिक होता है, इसलिए यह सरकारी आंकड़ों और नीतिगत योजनाओं में शामिल नहीं हो पाता। परिणामस्वरूप महिलाओं की वास्तविक भागीदारी को कम आंका जाता है और उनके लिए विशेष नीतियाँ बनाने की आवश्यकता अक्सर नजरअंदाज हो जाती है।

भूमि स्वामित्व और किसान के रूप में मान्यता का अभाव
महिला कृषि श्रमिकों और कृषकों की सबसे बड़ी संरचनात्मक समस्या भूमि स्वामित्व का अभाव है। अधिकांश मामलों में खेती की जमीन पुरुषों के नाम पर दर्ज होती है, जिससे महिलाएं औपचारिक रूप से ‘किसान’ के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं कर पातीं। इस मान्यता के अभाव का सीधा असर यह होता है कि वे संस्थागत ऋण, फसल बीमा, पेंशन योजनाओं, सब्सिडी (subsidy) और सरकारी सहायता से वंचित रह जाती हैं। भूमि अधिकार न होने के कारण महिलाएं निर्णय प्रक्रिया में भी पीछे रह जाती हैं और उनकी आर्थिक निर्भरता बनी रहती है, जो दीर्घकालिक असुरक्षा को जन्म देती है।
महिला कृषि श्रमिकों की सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा
कृषि क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति अत्यंत अस्थिर बनी हुई है। खराब मौसम, फसल नष्ट होने, या बाजार में उचित मूल्य न मिलने की स्थिति में सबसे पहला और गहरा असर महिलाओं पर पड़ता है। समय पर मुआवज़ा न मिलना, अस्थायी रोजगार और मौसमी मजदूरी उन्हें लगातार अनिश्चितता में बनाए रखती है। कई क्षेत्रों में महिलाएं प्रवासी मजदूरी करने को मजबूर होती हैं, जहां लंबे समय तक कठिन परिस्थितियों में काम करने के बावजूद उनकी आय सुरक्षित नहीं होती। इसका असर केवल महिलाओं तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उनके बच्चों की शिक्षा, परिवार के स्वास्थ्य और पोषण स्तर पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर कृषि में महिलाओं की स्थिति
एफएओ (FAO), ऑक्सफैम (Oxfam), आईएचडीएस (IHDS) और संयुक्त राष्ट्र जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के आंकड़े यह स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि कृषि में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से कम नहीं है, बल्कि कई मामलों में अधिक है। इसके बावजूद संसाधनों, भूमि स्वामित्व और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उन्हें समान अधिकार नहीं मिल पाए हैं। वैश्विक स्तर पर भी महिलाएं खेती के अधिकांश श्रम-प्रधान कार्य संभालती हैं, लेकिन नीतिगत निर्णयों और लाभ वितरण में उनकी हिस्सेदारी सीमित रहती है। यह असमानता केवल विकास की गति को धीमा नहीं करती, बल्कि खाद्य सुरक्षा और गरीबी उन्मूलन जैसे लक्ष्यों को भी प्रभावित करती है।

उत्तर प्रदेश में गन्ना उद्योग के ज़रिये महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण
इन सभी चुनौतियों के बीच उत्तर प्रदेश का गन्ना उद्योग महिलाओं के लिए आशा की एक नई किरण बनकर उभरा है। गन्ने की नर्सरी तैयार करने, पौध उत्पादन और बीज प्रबंधन जैसे कार्यों में महिलाएं अब समूहों के रूप में संगठित होकर भाग ले रही हैं। इससे उन्हें नियमित आय के साथ-साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता और सामाजिक पहचान भी मिली है। गन्ना अब केवल किसानों की नकदी फसल नहीं रह गया है, बल्कि ग्रामीण महिलाओं के लिए स्थायी आजीविका और सशक्तिकरण का एक प्रभावी माध्यम बनता जा रहा है।
सरकारी योजनाएँ और तकनीकी पहल: सिंगल बड व बड चिप विधि
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत गन्ना विभाग द्वारा संचालित योजनाओं ने महिलाओं के सशक्तिकरण की इस प्रक्रिया को गति दी है। सिंगल बड (Single Bud) और बड चिप (Bud Chip) जैसी आधुनिक तकनीकों के माध्यम से महिलाएं कम बीज में अधिक उत्पादन वाली गन्ना नर्सरी तैयार कर रही हैं। प्रति पौध अनुदान की व्यवस्था ने महिला स्वयं सहायता समूहों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाया है। इसके साथ ही इस तकनीक से नई और उन्नत गन्ना प्रजातियों का तेजी से विस्तार हो रहा है, जिससे उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ महिलाओं की आय और आत्मविश्वास दोनों में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3rcUjSa
https://bit.ly/3qeYmxQ
https://bit.ly/3GhRDbY
https://bit.ly/3Gk5sXu
https://bit.ly/3nf60X8
https://tinyurl.com/yx6hkaa5
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