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लखनऊ, जिसे तहज़ीब और नवाबी शान के लिए जाना जाता है, सिर्फ़ अपनी अदब-ओ-अंदाज़ और खानपान में ही नहीं, बल्कि इतिहास और आर्थिक विरासत में भी एक खास जगह रखता है। यहाँ की गलियों और बाज़ारों में आज भी पुराने सिक्कों और नोटों के कलेक्शन (collection) करने वाले लोग मिल जाते हैं, जो बीते दौर की कहानियाँ सहेज कर रखते हैं। मुग़ल साम्राज्य से लेकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company) के जमाने तक, लखनऊ भी उस बदलती मुद्रा व्यवस्था का गवाह रहा, जहाँ हर सिक्के में अपने समय की सत्ता, कला और पहचान झलकती थी। इस लेख में, हम आपको उसी दिलचस्प सफ़र पर ले चलेंगे, जिसमें आप जानेंगे कि कैसे सिक्कों ने न सिर्फ़ व्यापार, बल्कि हमारे इतिहास और संस्कृति की धारा को भी प्रभावित किया।
इस लेख में हम शुरुआत करेंगे मुग़ल साम्राज्य की स्थापना से और समझेंगे कि इसके साथ आर्थिक व्यवस्था किस तरह आगे बढ़ी और विकसित हुई। इसके बाद हम अकबर के शासनकाल की मुद्रा प्रणाली और उनके सिक्कों की खासियतों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। फिर हम जहाँगीर और शाहजहाँ के दौर में सिक्कों की कलात्मक बारीकियों और उनकी अनोखी पहचान को जानेंगे। इसके आगे हम औरंगज़ेब के समय की मुद्रा व्यवस्था और उस दौर के व्यापारिक स्वरूप पर नज़र डालेंगे। इसके बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में रुपये के इतिहास और ‘रुपया’ शब्द की उत्पत्ति से जुड़ी दिलचस्प बातें जानेंगे। अंत में, हम भारतीय इतिहास के सात सबसे महंगे और दुर्लभ सिक्कों की जानकारी प्राप्त करेंगे, जिनकी कीमत उनकी ऐतिहासिक अहमियत और अद्वितीय डिज़ाइन (unique design) के कारण आज भी चर्चाओं में रहती है।
मुग़ल साम्राज्य की स्थापना और आर्थिक व्यवस्था का विकास
मुग़ल साम्राज्य की नींव 1526 ई. में बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को पराजित करके रखी। इस विजय के पीछे केवल सैन्य कौशल ही नहीं, बल्कि सफ़ाविद और ओटोमन साम्राज्यों (Ottoman Empire) के कूटनीतिक व सैन्य समर्थन की भी अहम भूमिका थी। स्थापना के बाद, मुग़ल शासकों ने तीन से अधिक शताब्दियों तक भारतीय उपमहाद्वीप पर स्थिर शासन किया। इस काल में कृषि उत्पादन में वृद्धि, व्यापारिक मार्गों का विस्तार और बाजारों का संगठित ढांचा विकसित हुआ। सोने, चांदी और तांबे के स्थिर मूल्य वाले सिक्कों ने व्यापार को सरल बनाया और किसान से लेकर व्यापारी तक सभी वर्गों के लिए भरोसेमंद विनिमय प्रणाली उपलब्ध करवाई। आर्थिक व्यवस्था केवल राजस्व वसूलने का साधन नहीं थी, बल्कि यह साम्राज्य की शक्ति और स्थिरता का आधार बन चुकी थी।
अकबर के शासनकाल में मुद्रा प्रणाली और सिक्कों की विशेषताएँ
अकबर (1556–1605) के शासन को मुग़ल आर्थिक नीति और मुद्रा प्रणाली का स्वर्ण युग कहा जाता है। उन्होंने मुद्रा की एक समान मानक प्रणाली लागू की, जिसमें चांदी का रुपया और तांबे का बांध सबसे प्रमुख थे। प्रारंभिक दौर में 48 बांध एक रुपये के बराबर थे, जिसे समय के साथ घटाकर 38 बांध और अंततः 17वीं शताब्दी में 16 बांध प्रति रुपया कर दिया गया। इससे मुद्रा विनिमय में स्थिरता आई और मूल्य निर्धारण में एकरूपता बनी रही। अकबर के सिक्के उच्च शुद्धता (लगभग 97–98% चांदी) और कलात्मक डिज़ाइन के कारण आज भी संग्राहकों के लिए अनमोल धरोहर हैं। उनके चांदी के सिक्कों पर फारसी लिपि में शिलालेख, धार्मिक संदेश और सुंदर अलंकरण देखने को मिलते हैं, जो तत्कालीन कला और संस्कृति के स्तर को दर्शाते हैं।
जहाँगीर और शाहजहाँ के सिक्कों की कलात्मकता और विशिष्टता
जहाँगीर (1605–1627) का दौर मुग़ल सिक्कों में व्यक्तिगत अभिव्यक्ति और कलात्मक प्रयोग का समय था। उन्होंने अपने जीवन के शौक और रुचियों को सिक्कों पर उकेरने का साहस किया। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण ‘वाइन कप’ गोल्ड मोहर ('Wine Cup' Gold Mohur) है, जिसमें जहाँगीर खुद शराब का प्याला थामे दिखते हैं, जो सम्राट की जीवनशैली का प्रतीक है। इसके अलावा, उन्होंने राशि चक्र आधारित सिक्कों का भी प्रचलन किया, जिनमें महीनों की जगह ज्योतिषीय चिह्नों की बारीक नक़्क़ाशी थी। शाहजहाँ (1628–1658) के शासनकाल में भी सिक्कों पर सुंदर फारसी सुलेख, पुष्प आकृतियाँ और जटिल डिज़ाइन बनाए जाते थे। यह समय मुग़ल कला, वास्तुकला और हस्तकला के शिखर का प्रतीक माना जाता है, और सिक्कों की बनावट भी इसी उच्चता को प्रतिबिंबित करती है।
औरंगज़ेब के दौर में मुद्रा और व्यापार का स्वरूप
औरंगज़ेब आलमगीर (1658–1707) ने इस्लामिक कानून (शरिया) को कड़ाई से लागू किया, जिससे सामाजिक और धार्मिक नीतियों में बदलाव आया। इसके बावजूद, व्यापार और कृषि क्षेत्र में निरंतर विकास होता रहा। कपास, रेशम, मसाले और हस्तशिल्प वस्तुओं का निर्यात यूरोपीय, फ़ारसी और दक्षिण-पूर्व एशियाई बाज़ारों तक फैल गया। विदेशी व्यापारिक कंपनियाँ, विशेषकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, डच और पुर्तगाली, भारत में अपने व्यापारिक ठिकाने मजबूत कर रही थीं, जिससे सोने-चांदी का प्रवाह बढ़ा और मुद्रा प्रणाली को बल मिला। हालांकि, औरंगज़ेब के बाद के समय में साम्राज्य की राजनीतिक अस्थिरता ने मुद्रा की गुणवत्ता और स्थिरता को प्रभावित किया, जिससे आर्थिक संरचना में गिरावट आई।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में रुपये का इतिहास और ‘रुपया’ शब्द की उत्पत्ति
औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन शुरू हुआ और इसी बीच ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर राजनीतिक व आर्थिक नियंत्रण स्थापित किया। 1857 के विद्रोह के बाद, 1858 में ब्रिटिश क्राउन (British Crown) ने भारत का प्रत्यक्ष शासन अपने हाथ में ले लिया। ‘रुपया’ शब्द संस्कृत के ‘रूप्य’ से आया है, जिसका अर्थ है ‘गढ़ी हुई चांदी’। प्राचीन ग्रंथों में ‘रूप’ शब्द का प्रयोग शुद्ध चांदी के टुकड़े के लिए और ‘रूप्य’ शब्द का प्रयोग मुद्रांकित धातु के लिए होता था। ब्रिटिश काल में रुपया पूरी तरह मानकीकृत हुआ और इसे साम्राज्य के विभिन्न प्रांतों में एक समान मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आज भी दक्षिण एशिया और उसके बाहर लगभग 2 अरब लोग ‘रुपये’ का उपयोग करते हैं।
भारतीय इतिहास के 7 सबसे महंगे और दुर्लभ सिक्के
भारत के सिक्कों का इतिहास केवल आर्थिक लेन-देन की गाथा नहीं है, बल्कि यह कला, राजनीति और संस्कृति की झलक भी पेश करता है। कुछ सिक्के अपनी दुर्लभता, ऐतिहासिक महत्व और कलात्मक उत्कृष्टता के कारण आज भी संग्रहकर्ताओं की पहली पसंद हैं। इनमें प्रमुख हैं:
इनकी ऊँची कीमत का कारण केवल उनकी दुर्लभता ही नहीं, बल्कि इन पर अंकित कलाकृतियों की उत्कृष्टता और उनके ऐतिहासिक महत्व में छिपा है।
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