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लखनऊवासियो, आज जब हम अपने आसपास की स्वास्थ्य चुनौतियों पर नज़र डालते हैं, तो कैंसर (cancer) जैसी बीमारी सबसे बड़ी और डरावनी तस्वीर बनकर सामने आती है। आज के दौर में कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसने हर घर को किसी न किसी रूप में छुआ है। यह बीमारी केवल शरीर को ही नहीं तोड़ती, बल्कि परिवार के सपनों, भावनाओं और विश्वास को भी झकझोर देती है। जब किसी को कैंसर का पता चलता है, तो वह क्षण पूरे परिवार के लिए डर, आंसू और अनिश्चितताओं से भरा होता है। हर इलाज की यात्रा कठिन होती है, लेकिन उससे भी ज़्यादा कठिन होता है मानसिक और भावनात्मक बोझ, जिसे रोगी और उसके प्रियजन रोज़ाना उठाते हैं। कैंसर से लड़ाई में केवल दवाइयाँ और डॉक्टर ही अहम नहीं होते। असली ताक़त मिलती है उस सहयोग और सहानुभूति से, जो परिवार, मित्र और समाज रोगी को देते हैं। किसी का हाथ थामना, उसे यह भरोसा दिलाना कि "तुम अकेले नहीं हो", कैंसर से जूझ रहे व्यक्ति के लिए दवा से भी ज़्यादा असरदार साबित हो सकता है। यही सहारा उन्हें कठिन दौर से बाहर निकलने का साहस देता है। आज जब हम इस बीमारी की गंभीरता को समझते हैं, तो यह भी याद रखना ज़रूरी है कि उम्मीद सबसे बड़ी दवा है। उम्मीद ही वह रोशनी है जो अंधेरे समय में जीवन को दिशा देती है। हमारा कर्तव्य है कि हम रोगियों और उनके परिवारों को न केवल चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराएँ, बल्कि उन्हें भावनात्मक शक्ति भी दें। क्योंकि कैंसर से लड़ाई विज्ञान से शुरू होती है, लेकिन जीत हमेशा इंसानियत, प्यार और उम्मीद की ताक़त से मिलती है।
इस लेख में हम कैंसर से जुड़े अहम पहलुओं को एक-एक करके समझेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में कैंसर का बोझ किस तेजी से बढ़ रहा है और इसका समाज पर क्या असर पड़ रहा है। इसके बाद, हम यह देखेंगे कि अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में यह बीमारी किस रूप में सामने आती है और क्यों कुछ जगहों पर इसके खास प्रकार ज़्यादा पाए जाते हैं। आगे हम उन कारणों और जोखिम कारकों पर चर्चा करेंगे, जो कैंसर को जन्म देते हैं या इसके खतरे को बढ़ा देते हैं। इसके साथ ही हम कैंसर के प्रकार और उनके शरीर व जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को विस्तार से समझेंगे। अंत में, हम बात करेंगे जागरूकता, समय पर निदान और उपचार की चुनौतियों पर - क्योंकि यही वो पहलू हैं जो कैंसर से जंग जीतने में सबसे बड़ी भूमिका निभाते हैं।
भारत और विश्व में कैंसर का बढ़ता बोझ
कैंसर अब केवल एक बीमारी नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक स्वास्थ्य संकट बनता जा रहा है। विश्व स्तर पर देखें तो ग्लोबोकैन (GLOBOCAN) 2008 की रिपोर्ट के अनुसार उस समय 12.7 मिलियन (million) नए कैंसर मामलों और 7.6 मिलियन मौतों का अनुमान लगाया गया था। यह आँकड़े सिर्फ संख्याएँ नहीं हैं, बल्कि उन परिवारों की कहानियाँ हैं जिन्होंने अपने प्रियजन खो दिए। वर्ष 2020 तक यह आँकड़े और तेज़ी से बढ़ गए, जिससे स्पष्ट है कि कैंसर का खतरा लगातार गहराता जा रहा है। भारत भी इस वैश्विक संकट से अछूता नहीं है। यहाँ 2010 में कैंसर के लगभग 9.7 लाख मामले दर्ज किए गए थे, जो 2020 तक 11.4 लाख तक पहुँच गए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का अनुमान है कि भारत में प्रतिदिन करीब 1300 से अधिक लोग कैंसर की चपेट में आते हैं। इतनी बड़ी संख्या यह बताती है कि आने वाले वर्षों में कैंसर भारत के लिए सिर्फ एक चिकित्सा समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक चुनौती भी बनने जा रहा है।
भौगोलिक क्षेत्रों के अनुसार कैंसर का स्वरूप
कैंसर की प्रकृति हर जगह एक जैसी नहीं होती, यह भौगोलिक क्षेत्र, खान-पान, जीवनशैली और आनुवंशिक विशेषताओं के आधार पर बदलती है। उदाहरण के लिए, चीन में सबसे अधिक एसोफैगल (Esophageal - भोजननली) कैंसर देखने को मिलता है, जबकि अमेरिका में धूम्रपान और प्रदूषण के कारण फेफड़ों का कैंसर सबसे आम है। वहीं चिली (Chile) में पित्ताशय का कैंसर प्रमुख है। भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहाँ भी स्थिति विविध है। पूर्वोत्तर भारत में कैंसर के मामले और मृत्यु दर बाकी देश की तुलना में कहीं अधिक है। इसका एक कारण वहाँ की खानपान आदतें, तंबाकू का उच्च उपयोग और अलग जीनोम पूल (genome pool) भी माना जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में अगले 10-20 वर्षों में कैंसर का बोझ सबसे अधिक बढ़ने का अनुमान है। इसका मतलब यह है कि क्षेत्रीय स्वास्थ्य नीतियों को विशेष रूप से तैयार करना होगा, ताकि कैंसर के क्षेत्रीय स्वरूपों से निपटा जा सके।
कैंसर के कारण और जोखिम कारक
कैंसर का कोई एकल कारण नहीं होता, बल्कि यह कई आंतरिक और बाहरी कारकों के मेल से उत्पन्न होता है। आंतरिक कारणों में आनुवंशिक प्रवृत्ति, हार्मोनल असंतुलन (hormonal imbalance) और कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली शामिल हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी परिवार में पहले से कैंसर के मामले रहे हैं, तो आने वाली पीढ़ियों में इसका खतरा अधिक हो जाता है। वहीं बाहरी कारण कहीं अधिक प्रभावशाली साबित होते हैं। धूम्रपान कैंसर का सबसे बड़ा कारण माना जाता है, जिससे अकेले भारत में लाखों लोग प्रभावित होते हैं। इसके अलावा, असंतुलित आहार, मोटापा, प्रदूषण, अत्यधिक शराब सेवन और शारीरिक निष्क्रियता भी कैंसर के जोखिम को कई गुना बढ़ा देते हैं। भारत में पुरुषों में फेफड़े, गला और मुंह का कैंसर सबसे आम पाए जाते हैं, जिनका सीधा संबंध तंबाकू और बीड़ी-सिगरेट के सेवन से है। महिलाओं में गर्भाशय ग्रीवा, स्तन और डिम्बग्रंथि का कैंसर अधिक देखा जाता है, जो समय पर जाँच न होने के कारण देर से पकड़े जाते हैं।
कैंसर के प्रकार और उनका प्रभाव
कैंसर को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि यह असामान्य कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि है, जो शरीर में ट्यूमर (tumor) बनाती है। ये ट्यूमर दो प्रकार के होते हैं - सुसाध्य (Benign) और घातक (Malignant)। सुसाध्य ट्यूमर सामान्यतः सुरक्षित माने जाते हैं क्योंकि वे शरीर के अन्य हिस्सों में नहीं फैलते और शल्य चिकित्सा के बाद आसानी से नियंत्रित हो जाते हैं। लेकिन असली खतरा घातक ट्यूमर से होता है। ये न केवल तेजी से बढ़ते हैं, बल्कि आसपास के ऊतकों और अंगों को भी प्रभावित करते हैं। कभी-कभी ये रक्त और लसीका तंत्र के माध्यम से शरीर के दूरस्थ हिस्सों तक भी फैल जाते हैं, जिसे मेटास्टेसिस (Metastasis) कहा जाता है। यही प्रक्रिया कैंसर को जानलेवा और कठिन बना देती है।
जागरूकता, निदान और उपचार की चुनौतियाँ
भारत में कैंसर से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग अक्सर इसकी गंभीरता को समय रहते पहचान नहीं पाते। अधिकांश मरीज तब अस्पताल पहुँचते हैं जब कैंसर पहले से ही उन्नत अवस्था में पहुँच चुका होता है। इसके पीछे कई कारण हैं - अज्ञानता, वित्तीय तंगी, सामाजिक भ्रांतियाँ और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि कैंसर की पहचान शुरुआती चरण में हो जाए तो इसका सफल इलाज संभव है। केरल इसका एक अच्छा उदाहरण है। वहाँ साक्षरता और जागरूकता के कारण करीब 40% मामलों का पता शुरुआती चरण में ही चल जाता है, जिससे मृत्यु दर कम हो जाती है। लेकिन अभी भी बड़ी चुनौती यही है कि पूरे भारत में लोगों तक जागरूकता कार्यक्रम पहुँचाए जाएँ, सरकारी अस्पतालों में निदान की सुविधाएँ बेहतर हों और सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराई जाएँ। कैंसर का बोझ केवल बीमारी का बोझ नहीं है, बल्कि यह परिवारों को आर्थिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर तोड़ देता है।
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