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लखनऊवासियो, आपने अपनी थाली में गरमागरम रोटियों का स्वाद जरूर चखा होगा। कभी घर की चक्की से पिसे मोटे आटे की सुगंधित रोटियाँ हों या कभी पैकेज्ड आटे से बनी नरम और हल्की रोटियाँ - दोनों ही हमारी रसोई का हिस्सा हैं। लेकिन क्या आपने कभी ठहरकर सोचा है कि इन दोनों में से आपके स्वास्थ्य, स्वाद और परिवार की भलाई के लिए सही विकल्प कौन-सा है? लखनऊ, जिसे तहज़ीब और परंपरा का शहर कहा जाता है, आज भी अपने खानपान की जड़ों से गहराई से जुड़ा हुआ है। यहाँ के लोग गेहूँ से बने व्यंजनों के शौकीन हैं - सुबह के नाश्ते में गरमागरम पराठे, दोपहर की थाली में नरम रोटियाँ और त्योहारों पर बनाई जाने वाली पूरियाँ - ये सब हर घर की दिनचर्या और संस्कृति का हिस्सा हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय बदल रहा है, वैसे-वैसे हमारे खाने के तौर-तरीके भी बदल रहे हैं। पहले जहाँ घर-घर में चक्की पिसवाने का रिवाज़ था, वहीं अब ज़्यादातर लोग सुविधा और समय बचाने के लिए पैकेज्ड आटे पर निर्भर हो रहे हैं। ऐसे में यह सवाल और भी अहम हो जाता है कि क्या हम आधुनिकता के नाम पर पोषण और स्वाद से समझौता कर रहे हैं? क्योंकि आटे की गुणवत्ता ही यह तय करती है कि हमारी रोटियाँ सिर्फ़ पेट भरेंगी या शरीर को सही मायनों में ताक़त और सेहत भी देंगी।
आज के इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि उत्तर प्रदेश में गेहूँ की खपत और इसकी आहारिक महत्ता क्या है। इसके बाद हम जानेंगे कि आटा मिलों में डैम्पेनिंग (Dampening - नमी देने) की प्रमुख तकनीकें कौन-कौन सी हैं और वे आटे की गुणवत्ता को कैसे प्रभावित करती हैं। फिर हम तुलना करेंगे किपारंपरिक चक्की का आटा और पैकेज्ड आटे में असली फर्क क्या है और दोनों के फायदे-नुकसान क्या हैं। इसके साथ ही, हम यह भी देखेंगे कि आधुनिक व्यावसायिक आटा चक्कियों की चुनौतियाँ क्या हैं और उनसे सेहत पर क्या असर पड़ता है। अंत में, हम आपको बताएंगे कि उत्तर प्रदेश के प्रमुख गेहूँ आटा निर्माता कौन-कौन हैं और वे किस तरह स्थानीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक अपनी पहचान बनाए हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में गेहूँ की खपत और आहारिक महत्ता
उत्तर प्रदेश में गेहूँ केवल एक अनाज नहीं, बल्कि लोगों की संस्कृति और जीवनशैली का अहम हिस्सा है। यहाँ के ग्रामीण इलाकों में हर व्यक्ति औसतन 4.288 किलोग्राम गेहूँ प्रति माह खाता है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आँकड़ा 4.011 किलोग्राम तक पहुँचता है। यह आँकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के लोग पूरे देश के औसत से कहीं अधिक गेहूँ का सेवन करते हैं। रोटियाँ, पराठे, पूरी और अन्य पारंपरिक व्यंजन यहाँ की थाली का हिस्सा हैं। यही वजह है कि गेहूँ से बना आटा सीधे-सीधे लोगों की सेहत और पोषण से जुड़ा हुआ है। इस आटे की गुणवत्ता, चाहे वह घर की चक्की से पिसा हो या पैकेज्ड मिल आटा हो, परिवार के स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है।
आटा मिलों में डैम्पेनिंग (नमी देने) की प्रमुख तकनीकें
गेहूँ को आटे में बदलने से पहले उसमें नमी मिलाना एक आवश्यक प्रक्रिया है, जिसे डैम्पेनिंग या कंडीशनिंग (conditioning) कहा जाता है। इस प्रक्रिया का उद्देश्य गेहूँ के दानों को मुलायम बनाना और उन्हें पीसने योग्य स्थिति में लाना होता है। आज भारत की आटा मिलों में अलग-अलग तकनीकें अपनाई जाती हैं।
इन सभी विधियों से गेहूँ पिसाई के लिए बेहतर ढंग से तैयार होता है और इससे बने आटे की गुणवत्ता में भी सुधार आता है।
पारंपरिक चक्की का आटा बनाम पैकेज्ड आटा
जब आटे की बात आती है, तो लोग अक्सर यह सोचते हैं कि चक्की का आटा बेहतर है या पैकेज्ड आटा। पारंपरिक चक्की से पिसा आटा पोषण से भरपूर होता है क्योंकि इसमें गेहूँ का चोकर, बीज और एंडोस्पर्म (Endosperm) सुरक्षित रहते हैं। इसमें फाइबर (Fiber), विटामिन (Vitamin) और खनिज पर्याप्त मात्रा में होते हैं। पत्थर से पिसाई की वजह से गेहूँ के प्राकृतिक तेल भी सुरक्षित रहते हैं, जिससे आटे में स्वाद और सुगंध बनी रहती है। यही कारण है कि चक्की के आटे से बनी रोटियाँ न सिर्फ स्वादिष्ट होती हैं बल्कि सेहतमंद भी होती हैं। दूसरी ओर, पैकेज्ड आटा सुविधा का प्रतीक है। यह बाज़ार में आसानी से उपलब्ध होता है और बारीक पिसा हुआ होने के कारण इसे गूँथना भी सरल होता है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि आधुनिक मशीनों से प्रोसेसिंग (processing) के दौरान गेहूँ की चोकर और परतें हटा दी जाती हैं, जिनमें अधिकतर पोषक तत्व मौजूद होते हैं। इस वजह से पैकेज्ड आटे का पोषण स्तर घट जाता है। इस प्रकार, यदि आप स्वास्थ्य और स्वाद को महत्व देते हैं तो चक्की का आटा बेहतर विकल्प है, लेकिन यदि सुविधा प्राथमिकता है तो पैकेज्ड आटा भी एक विकल्प हो सकता है।
आधुनिक व्यावसायिक आटा चक्कियों की चुनौतियाँ
आज के दौर में व्यावसायिक आटा चक्कियाँ बड़े पैमाने पर पैकेज्ड आटा तैयार करती हैं। हालांकि यह आटा आसानी से उपलब्ध होता है, लेकिन इसके पीछे कई गंभीर समस्याएँ छिपी हैं। सबसे पहले, मशीनों से प्रोसेसिंग के दौरान गेहूँ का चोकर और फाइबर निकाल दिया जाता है, जिससे आटा पोषक तत्वों से खाली होकर मैदा जैसा बन जाता है। इसके अलावा, पैकेज्ड आटा लंबे समय तक स्टोर (store) किया जाता है और इसे सुरक्षित रखने के लिए रसायनों और संरक्षकों का इस्तेमाल किया जाता है। इस वजह से आटे की ताज़गी कम हो जाती है। पैकेजिंग में लंबे समय तक बंद रहने से इसमें संदूषण की संभावना भी बढ़ जाती है। एक और समस्या यह है कि आधुनिक मिलों में स्टील और एमरी पत्थरों से पिसाई की जाती है। कई बार ये पत्थर आटे में हानिकारक पदार्थ छोड़ सकते हैं। इतना ही नहीं, आटे को सफेद बनाने और परिष्कृत करने के लिए रसायनों का उपयोग किया जाता है, जिससे विटामिन और फाइबर का लगभग 70% तक नष्ट हो जाता है। इन सभी कारणों से व्यावसायिक आटा भले ही सुविधा प्रदान करता हो, लेकिन सेहत के लिहाज से यह नुकसानदायक साबित हो सकता है।
उत्तर प्रदेश के प्रमुख गेहूँ आटा निर्माता
उत्तर प्रदेश गेहूँ उत्पादन और आटा मिलिंग के क्षेत्र में अग्रणी राज्यों में से एक है। यहाँ कई बड़े और प्रसिद्ध आटा निर्माता सक्रिय हैं, जो न केवल स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करते हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी निर्यात करते हैं।
इन सभी निर्माताओं की उपस्थिति उत्तर प्रदेश को आटा उद्योग का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनाती है। वे स्थानीय उपभोक्ताओं के साथ-साथ वैश्विक बाजार में भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं।
संदर्भ-
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