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लखनऊवासियो, आपने अपने शहर की शाही तहज़ीब और नवाबी दावतों की चर्चाएँ ज़रूर सुनी होंगी। यहाँ का हर ज़ायका - चाहे वो शीरमाल हो, गलावटी कबाब हो या शामी कबाब - अपनी अलग ही पहचान रखता है। इन व्यंजनों में जो गहराई और मुलायमियत मिलती है, उसका एक बड़ा रहस्य छुपा है चने में। जी हाँ, यही साधारण-सा दिखने वाला अनाज, जो हमारी रोज़ की दाल-सब्ज़ी से लेकर कबाबों तक का हिस्सा है, लखनऊ की रसोई का एक गुप्त नायक है। लेकिन चना केवल लखनऊ के खाने तक सीमित नहीं है। इसकी कहानी कहीं ज़्यादा बड़ी और दिलचस्प है। यह अनाज हज़ारों सालों से हमारी संस्कृति, त्योहारों और खानपान का हिस्सा रहा है और आज वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान को मजबूत करता है। सोचिए, एक छोटा-सा दाना किस तरह सभ्यता के इतिहास, सेहत और स्वाद तीनों में अपनी खास जगह बनाए हुए है। लेकिन चने की कहानी केवल लखनऊ के नवाबी खाने तक सीमित नहीं है। इसकी यात्रा कहीं ज़्यादा लंबी और रोचक है। यह अनाज हज़ारों सालों से इंसानी सभ्यताओं का साथी रहा है - मध्य पूर्व की पुरानी सभ्यताओं से लेकर भारत के छोटे-छोटे गाँवों तक इसकी मौजूदगी दर्ज है। त्योहारों की थालियों से लेकर फिल्मों के गीतों तक, चना हमारे सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा है। और आज, यह वही अनाज है जिसने भारत को वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ा उत्पादक और आपूर्तिकर्ता बना दिया है। सोचिए, यह छोटा-सा दाना न केवल लखनऊ की शाही दावतों में रौनक लाता है, बल्कि पूरी दुनिया की रसोई और सेहत में भी अपनी अहमियत दर्ज कराता है।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि भारतीय संस्कृति और वैश्विक स्तर पर चना इतना लोकप्रिय क्यों है। इसके बाद हम इसके उत्पत्ति, इतिहास और प्राचीन महत्व पर नज़र डालेंगे। फिर हम देखेंगे कि देसी और काबुली चने की विविधता और विशेषताएँ क्या हैं और इनका उपयोग कहाँ-कहाँ होता है। इसके बाद हम चने से बने व्यंजनों और खासतौर पर लखनऊ के शाही कबाबों में इसकी भूमिका को समझेंगे। अंत में, हम चने के पोषण, स्वास्थ्य लाभ और उससे जुड़ी वैश्विक चुनौतियों के बारे में चर्चा करेंगे।
भारतीय संस्कृति और वैश्विक स्तर पर चने की लोकप्रियता
भारत के हर छोटे-बड़े बाज़ार में छोले-भटूरे, छोले-कुलचे या समोसे के साथ चटपटे छोले लोगों को आकर्षित करते हैं। इतना ही नहीं, चने की लोकप्रियता फ़िल्मी दुनिया तक पहुँची, जहाँ 1981 की सुपरहिट फ़िल्म क्रांति में “चना जोर गरम” जैसा गीत इसी पर समर्पित था। यह गीत आज भी दर्शाता है कि चना सिर्फ़ भोजन नहीं, बल्कि मनोरंजन और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। 2019 के आँकड़ों के अनुसार, वैश्विक चना उत्पादन का लगभग 70% अकेले भारत में हुआ, जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक और आपूर्तिकर्ता बनाता है। भारतीय समाज में चना त्योहारों, मेलों और धार्मिक आयोजनों तक में प्रसाद और नाश्ते के रूप में दिया जाता है। विदेशों में बसे भारतीय समुदायों के भोजन में भी चना एक अहम जगह बनाए हुए है। उत्तर भारत में छोले-भटूरे की लोकप्रियता जितनी है, दक्षिण भारत में बेसन से बनी पकौड़ियों और मिठाइयों का स्वाद उतना ही प्रसिद्ध है। इस तरह चना भारतीय जीवन शैली और वैश्विक खाद्य परंपराओं का साझा प्रतीक है।

चना: उत्पत्ति, इतिहास और प्राचीन महत्व
चना (Cicer arietinum — सिसर एरिएटिनम) का इतिहास बेहद प्राचीन है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इसकी पहली खेती लगभग 7000 ईसा पूर्व दक्षिण-पूर्वी तुर्की में हुई थी। वहाँ उगने वाला सिसर रेटिकुलैटम (Cicer reticulatum) इसका जंगली पूर्वज माना जाता है। भारत में इसके अवशेष लगभग 3000 ईसा पूर्व के आसपास मिलते हैं, जिससे यह साबित होता है कि हमारी सभ्यता के आरंभिक दौर में ही इसका प्रयोग शुरू हो चुका था। फ्रांस (France) और ग्रीस (Greece) की मेसोलिथिक (Mesolithic) और नवपाषाण परतों में भी चने के अवशेष मिले हैं। 800 ईस्वी में कैरोलिंगियन (Carolingian) शासक शारलेमेन (Charlemagne) ने अपने शाही बागानों में इसे उगाने का आदेश दिया, जो इसकी सामाजिक महत्ता को दर्शाता है। मध्ययुगीन वैज्ञानिक अल्बर्ट मैग्नस (Albert Magnus) ने इसकी लाल, सफेद और काली किस्मों का ज़िक्र किया था। 17वीं सदी में निकोलस कल्पेपर (Nicholas Culpeper) ने इसे मटर से ज़्यादा पौष्टिक बताया। इतना ही नहीं, 1793 में यूरोप में इसे कॉफी का विकल्प मानकर भूनकर प्रयोग किया जाने लगा। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने बड़े पैमाने पर भुने चनों को कॉफी के स्थान पर उपयोग किया। इससे स्पष्ट है कि चना केवल भोजन का साधन नहीं, बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का भी हिस्सा रहा।
काबुली और देसी चने: विविधता और विशेषताएँ
चना मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है - देसी (काला) और काबुली (सफेद)। देसी चना छोटा, खुरदरी सतह वाला और गहरे रंग का होता है। यह भारत, इथियोपिया (Ethiopia), ईरान (Iran) और मैक्सिको (Mexico) जैसे देशों में उगाया जाता है। इसमें फाइबर (Fiber) की मात्रा अधिक होती है और इसका स्वाद गाढ़ा व मिट्टी जैसा होता है। दूसरी ओर, काबुली चना बड़ा, चिकना और हल्के रंग का होता है। इसका नाम “काबुल” से जुड़ा है क्योंकि माना जाता है कि यह अफगानिस्तान से भारत आया और 18वीं शताब्दी में धीरे-धीरे लोकप्रिय हुआ। इसमें प्रोटीन (Protein) और कार्बोहाइड्रेट (Carbohyderate) की मात्रा अधिक होती है और इसका स्वाद अपेक्षाकृत हल्का व मुलायम होता है। देसी चना मुख्यतः दाल, सब्ज़ी और बेसन के लिए प्रयोग होता है, जिससे पकौड़ी, मिठाइयाँ और अन्य व्यंजन बनाए जाते हैं। वहीं काबुली चना छोले, सलाद और अंतर्राष्ट्रीय व्यंजनों में अधिक इस्तेमाल किया जाता है। यह भी दिलचस्प है कि देसी चना किसानों के लिए अधिक टिकाऊ है क्योंकि यह कठोर परिस्थितियों में उग सकता है, जबकि काबुली चना अपेक्षाकृत संवेदनशील होता है। दोनों किस्में भारतीय पाक परंपरा और वैश्विक भोजन का आधार बनी हुई हैं।

चने से बने पकवान और लखनऊ के शाही कबाबों में भूमिका
चना भारतीय रसोई का अभिन्न हिस्सा है। इससे बनी सब्ज़ियाँ, दालें, मिठाइयाँ, नाश्ते और बेसन से बने पकवान लगभग हर भारतीय घर में मिलते हैं। बेसन से हलवा, लड्डू, मैसूर पाक और बर्फी जैसी लज़ीज़ मिठाइयाँ तैयार होती हैं। वहीं, कच्चे चनों का सलाद में और उबले हुए चनों का सब्ज़ी व नाश्तों में उपयोग आम है। भुना हुआ चना सबसे सस्ता और स्वास्थ्यवर्धक नाश्ता माना जाता है। लखनऊ के नवाबी दौर में बने शाही कबाबों में चने का महत्व और बढ़ जाता है। शामी कबाब की असली पहचान ही यही है कि उसमें मेमने के मांस को उबले हुए चनों के साथ पीसकर एक मुलायम, रसीला और स्वादिष्ट मिश्रण बनाया जाता है। यही कारण है कि यह कबाब आज भी लखनऊ की शान है। इसी तरह राजस्थान के पट्टोड़े कबाब में काले चनों का उपयोग होता है, जिससे उसमें पौष्टिकता और अलग स्वाद जुड़ जाता है। इन उदाहरणों से साफ़ होता है कि भारतीय व्यंजनों की विविधता और खासकर कबाब संस्कृति में चना सिर्फ़ एक सामग्री नहीं, बल्कि स्वाद का गुप्त आधार है।

पोषण, स्वास्थ्य लाभ और वैश्विक चुनौतियाँ
चना पोषण का खज़ाना है। इसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, फोलेट (Folate), आयरन (Iron) और फॉस्फोरस (Phosphorous) जैसे पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। यही वजह है कि इसे शाकाहारियों के लिए प्रोटीन का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। यह न केवल मानव भोजन बल्कि पशुओं के चारे में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चना पाचन सुधारने, ऊर्जा प्रदान करने और रक्त में शर्करा का स्तर संतुलित रखने में सहायक है। परंतु इसके सामने चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। जलवायु परिवर्तन, आनुवंशिक विविधता की कमी और रोगजनकों का हमला इसकी पैदावार को प्रभावित कर रहे हैं। कई बार रोगजनक फसल को 90% तक नुकसान पहुँचा देते हैं। वैज्ञानिक अब इसके जीनोम (Genome) अनुक्रमण पर काम कर रहे हैं ताकि ऐसी समस्याओं का समाधान निकाला जा सके।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/5985yjd2