कैसे गुर्जर–प्रतिहार वंश ने उत्तर भारत की राजनीति और संस्कृति को नई दिशा दी

छोटे राज्य : 300 ई. से 1000 ई.
20-12-2025 09:31 AM
कैसे गुर्जर–प्रतिहार वंश ने उत्तर भारत की राजनीति और संस्कृति को नई दिशा दी

लखनऊवासियों, आज हम बात करने जा रहे हैं भारत के उस शक्तिशाली और गौरवशाली राजवंश की, जिसने मध्यकालीन उत्तर भारत की राजनीति, सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक पहचान को गहराई से प्रभावित किया-गुर्जर-प्रतिहार वंश। भले ही इस साम्राज्य का सीधा केंद्र कन्नौज रहा हो, लेकिन इसका प्रभाव पूरे उत्तरी भारत में फैला, जिससे हमारी ऐतिहासिक समझ और सभ्यतागत विरासत और भी समृद्ध होती है। प्रतिहार वंश न केवल विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध भारत की रक्षा की दीवार बनकर खड़ा रहा, बल्कि तीन शताब्दियों तक उत्तर भारतीय राजनीति को स्थिरता, व्यवस्था और गौरव प्रदान करता रहा। 
आज के इस लेख में हम सबसे पहले, हम जानेंगे कि यह साम्राज्य कैसे उभरा और उत्तर भारत पर इतने लंबे समय तक अपना प्रभाव कैसे बनाए रखा। फिर हम प्रतिहार प्रशासन प्रणाली के बारे में पढ़ेंगे, जिसमें राजा, सामंत, ग्राम प्रशासन और नगर परिषदों की भूमिकाएँ शामिल थीं। इसके बाद, हम नागभट्ट प्रथम, नागभट्ट द्वितीय, मिहिर भोज और महेंद्रपाल जैसे प्रभावशाली शासकों की उपलब्धियों को समझेंगे। अंत में, हम प्रतिहारों की सैन्य शक्ति, मंदिर वास्तुकला, सिक्कों की कला, तथा साहित्य और विदेशी वर्णनों के माध्यम से उनके सांस्कृतिक योगदान को जानेंगे।

गुर्जर–प्रतिहार वंश का उदय और शासन क्षेत्र
गुर्जर-प्रतिहार वंश भारत के मध्यकालीन इतिहास में वह शक्ति था जिसने लगभग तीन शताब्दियों तक उत्तर भारत को राजनीतिक स्थिरता और सुरक्षा प्रदान की। यह वंश 8वीं शताब्दी में नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में उभरा, जब भारत की सीमाएँ उत्तर-पश्चिम से बढ़ते अरब आक्रमणों के दबाव में थीं। नागभट्ट ने न केवल इन आक्रमणों को रोका, बल्कि कन्नौज को केंद्र बनाकर एक मजबूत साम्राज्य की नींव रखी। आगे चलकर नागभट्ट द्वितीय ने साम्राज्य को पश्चिमी समुद्र तट से लेकर हिमालय की तलहटी तक फैलाया और उसकी प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित किया। प्रतिहार शक्ति अपने चरम पर तब पहुँची जब भोज (मिहिर भोज) ने शासन संभाला - उनके समय को इस वंश का “स्वर्ण युग” कहा जाता है। महेंद्रपाल के शासन में यह साम्राज्य पूर्व में बंगाल तक और पश्चिम में सिंध की सीमा तक फैल चुका था। कुल मिलाकर, प्रतिहार वंश कई सदियों तक उत्तर भारत का रक्षक, सांस्कृतिक संरक्षक और राजनीतिक स्थिरता का स्तंभ बना रहा।

File:Shiva and Parvati, Gurjara-Pratihara Dynasty of Kannauj, Uttar Pradesh, India, 9th to early 10th century - Nelson-Atkins Museum of Art - DSC09154.JPG

प्रतिहार प्रशासन प्रणाली और शासन मॉडल
प्रतिहार प्रशासन उस समय की एक अत्यंत उन्नत और सुव्यवस्थित शासन - व्यवस्था का उदाहरण था, जिसमें शक्ति का केंद्र राजा होता था। “महाराजाधिराज”, “परमेश्वर” और “परमभट्टारक” जैसी उपाधियाँ राजा की पूर्ण सत्ता और धार्मिक - राजनीतिक महत्ता को दर्शाती थीं। विशाल साम्राज्य को कई स्तरों पर बाँटा गया था - भुक्ति, मंडल, विशय (नगर) और ग्राम - और प्रत्येक स्तर पर प्रशासन के लिए अलग - अलग अधिकारी नियुक्त होते थे। ग्राम स्तर पर महत्तर गाँव की व्यवस्थाओं, विवादों और कर संग्रह जैसे कार्य संभालते थे, जबकि ग्रामपति राज्य का आधिकारिक प्रतिनिधि होता था। नगर प्रशासन पंचकुला, गोष्ठी और सांवियका जैसी परिषदों के हाथों में रहता था, जो शहर के आर्थिक, सामाजिक और न्यायिक कार्यों का संचालन करती थीं। इस पूरी व्यवस्था में सामंतों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी - वे राजा के सैन्य सहयोगी भी थे और स्थानीय शासन के स्तंभ भी। यह सब दर्शाता है कि प्रतिहार प्रशासन शक्ति, संगठन और सामाजिक सहभागिता का संतुलित व उन्नत मॉडल था।

File:Gurjara-Pratihara coinage.jpg

प्रतिहार वंश के प्रमुख एवं प्रभावशाली शासक
प्रतिहारों का इतिहास उनके शक्तिशाली शासकों की श्रृंखला से चमकता है।

  • नागभट्ट प्रथम (730–760 ईस्वी) - इन्होंने प्रतिहार साम्राज्य की वास्तविक नींव रखी। अरब सेना की प्रगति को रोका और सिंध-गुजरात के आसपास मजबूत सैन्य प्रतिष्ठा स्थापित की। यह जीत भारत के इतिहास में अत्यंत निर्णायक मानी जाती है।
  • नागभट्ट द्वितीय (800–833 ईस्वी) - उन्होंने साम्राज्य के विस्तार के लिए व्यापक सैन्य अभियान चलाए-आंध्र, विदर्भ, सैंधव और कलिंग के शासकों को पराजित किया। उनकी विजय यात्राओं ने प्रतिहार साम्राज्य को फिर से विशाल बनाया और कन्नौज पर उनका पूर्ण अधिकार स्थापित किया।
  • भोज / मिहिर भोज (836–885 ईस्वी) - इस वंश का सबसे उज्ज्वल नक्षत्र। 46 वर्षों के शासन में इन्होंने प्रतिहार साम्राज्य को उत्तरी भारत की सबसे शक्तिशाली शक्ति के रूप में स्थापित किया। उनके नाम के सिक्के, सौर प्रतीकों और विष्णु के चिह्नों से अलंकृत, आज भी संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। उनका शासन सांस्कृतिक, प्रशासनिक और सैन्य दृष्टि से सर्वोत्तम माना जाता है।
  • महेंद्रपाल (885–910 ईस्वी) - उत्तरी भारत के “महाराजाधिराज” के रूप में प्रसिद्ध। उनके शासन में साम्राज्य हिमालय से बंगाल तक फैल गया। राजशेखर जैसे महान कवि उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे।
  • यशपाल (1024–1036 ईस्वी) - प्रतिहार वंश के अंतिम बड़े शासक। उनके बाद कन्नौज पर गहड़वालों का अधिकार हो गया।

इन सभी शासकों का योगदान प्रतिहार वंश को भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण साम्राज्य बनाता है।

प्रतिहारों का सैन्य कौशल और अरब–राष्ट्रकूट संघर्ष
प्रतिहार साम्राज्य का उदय केवल राजनीतिक योजना का परिणाम नहीं था - इसके मूल में असाधारण सैन्य कौशल था जिसने इस वंश को अपने युग की सबसे प्रभावशाली शक्ति बनाया। नागभट्ट प्रथम द्वारा अरब आक्रमणों को रोकना भारतीय इतिहास का एक निर्णायक क्षण था, जिसने उत्तरी भारत को सांस्कृतिक और धार्मिक परिवर्तन से बचाया। इसके बाद प्रतिहारों का सामना पूर्व में पाल साम्राज्य और दक्षिण में राष्ट्रकूट साम्राज्य से हुआ। इन तीन शक्तियों के बीच लगभग 200 वर्षों तक चलने वाला “त्रिपक्षीय संघर्ष” मध्यकालीन राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक था, जिसका केंद्र कन्नौज था। प्रतिहारों ने इस प्रतिस्पर्धा में लंबे समय तक बढ़त बनाए रखी, जिससे वे उत्तर भारत की सबसे स्थिर शक्ति बने रहे। उनकी घुड़सवार सेना अत्यंत प्रशिक्षित और सुसंगठित थी, जिसे अरब यात्रियों ने ‘भारत की सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार सेना’ कहा है। यह सब प्रतिहारों को उस समय की सबसे प्रभावी सैन्य शक्ति बनाता है।

कला, वास्तुकला और मंदिर निर्माण में प्रतिहारों का योगदान
प्रतिहारों का काल भारतीय कला और वास्तुकला के लिए एक स्वर्णिम युग था, जिसमें मंदिर निर्माण और मूर्तिकला ने नई ऊँचाइयों को छुआ। इस काल की स्थापत्य शैली को “गुर्जर-प्रतिहार शैली’’ कहा जाता है, जिसकी पहचान उभरे हुए शिखरों, विस्तृत नक्काशी, पत्थरों की जटिल कारीगरी और सुंदर मूर्तियों से होती है। राजस्थान का ओसियां मंदिर समूह इस शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ जैन और हिंदू मंदिरों की अद्भुत कलाकारी देखने को मिलती है। मध्य प्रदेश का बटेश्वर मंदिर समूह - लगभग 200 मंदिरों का विस्तृत परिसर - प्रतिहारों के स्थापत्य कौशल का विशाल प्रमाण है। इसी तरह, राजस्थान का बारोली मंदिर परिसर भी प्रतिहार युग की परिष्कृत कला और शिल्पकौशल को दर्शाता है। इसके अलावा, मिहिर भोज द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर उत्कीर्ण सौर चिह्न और विष्णु अवतार प्रतिहार काल की धार्मिक एवं राजकीय प्रतीकवत्ता को अभिव्यक्त करते हैं। इस प्रकार प्रतिहारों का योगदान भारतीय वास्तुकला व सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण अध्याय है।

साहित्य, विद्वानों और ऐतिहासिक स्रोतों का महत्व
प्रतिहार वंश का काल केवल राजनीतिक और सैन्य उपलब्धियों तक सीमित नहीं था, बल्कि यह भारतीय साहित्य और बौद्धिक उन्नति का भी बेहद समृद्ध दौर था। राजशेखर, जो प्रतिहार दरबार के प्रमुख कवि और नाटककार थे, ने संस्कृत साहित्य को अनेक अमूल्य कृतियाँ प्रदान कीं - जिनमें कर्पूरमंजरी, काव्यमीमांसा, हरविलास जैसी रचनाएँ आज भी साहित्यिक धरोहर मानी जाती हैं। उनकी रचनाएँ उस समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक झलक बारीकी से प्रस्तुत करती हैं। इसके अलावा, अरब यात्री सुलेमान के वृत्तांत प्रतिहार साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण विदेशी स्रोत हैं। उन्होंने प्रतिहारों की समृद्धि, स्थिर शासन, सुरक्षित सीमाओं और शक्तिशाली घुड़सवार सेना की खुलकर प्रशंसा की। उनके अनुसार, उस समय भारत में प्रतिहार साम्राज्य लुटेरों से सबसे सुरक्षित क्षेत्र था और यहाँ सोने - चाँदी का व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। ये विवरण प्रतिहार काल की आर्थिक, सैन्य और सांस्कृतिक समृद्धि को उजागर करते हैं और इसे मध्यकालीन भारत के सबसे उज्ज्वल युगों में से एक बनाते हैं।

संदर्भ
https://tinyurl.com/4c792j4b 
https://tinyurl.com/rdmxbync 
https://tinyurl.com/mr24tc86 
https://tinyurl.com/5en59zt7 
https://tinyurl.com/35hu682h 



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