
समयसीमा 261
मानव व उनकी इन्द्रियाँ 996
मानव व उसके आविष्कार 790
भूगोल 233
जीव - जन्तु 289
मेरठ के निवासियों, क्या आपने हाल ही में कभी कटहल की खुशबू महसूस की है? वो सोंधी महक, जो कभी गर्मियों के आख़िर और बारिश की शुरुआत के साथ-साथ आपके आँगन में भर जाती थी। मेरठ जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में यह सिर्फ एक फल नहीं था — यह दादी की रसोई की याद, त्यौहारों की खुशबू, और हर बड़े पारिवारिक आयोजन की स्वाद भरी परंपरा थी। लेकिन अब सोचिए, यही कटहल, जो आपके लिए एक घरेलू, सीधा-सादा फल था — आज यूरोप और अमेरिका की सुपरमार्केट शेल्फ़ पर "प्लांट मीट" या "जैकफ्रूट मीट" के नाम से बिक रहा है। इस कटहल की जड़ें फैज़ाबाद जैसे क्षेत्रों में गहराई से बसी हैं, जहाँ इसकी बेहतरीन किस्में आज भी उगाई जाती हैं। वहाँ के पेड़ों से निकला यह फल अब वैश्विक शाकाहारी आंदोलन का एक अहम चेहरा बन चुका है। हेल्थ-कांशस यूरोपीय और अमेरिकी उपभोक्ता इसे मांस के शाकाहारी विकल्प के रूप में अपना रहे हैं — और भारतीयों के लिए यह गौरव की बात है कि हमारे गाँवों की मिट्टी में उगा यह फल आज एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर चमक रहा है।
मेरठ में भी यह बदलाव अब देखने को मिल रहा है। यहाँ के किसान, व्यापारी और रसोई प्रेमी लोग अब कटहल को सिर्फ "सब्ज़ी" नहीं, बल्कि एक बहुआयामी सुपरफूड के रूप में देखने लगे हैं। यह फल न केवल स्वाद और स्वास्थ्य देता है, बल्कि यह एक ऐसी पहचान भी है जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है, और साथ ही दुनिया से भी। जब आप अगली बार कटहल खरीदें, तो बस एक पल ठहर कर सोचिए — यह वही फल है जो कभी दादी ने खुरपी से काटा था, और अब शायद लंदन की किसी थाली में ‘वीगन जैकफ्रूट टैको’ बन चुका है।इस लेख में हम जानेंगे कि कटहल कैसे भारत का प्राचीन सांस्कृतिक फल रहा है, इसकी खेती किस प्रकार पर्यावरण के अनुकूल मानी जाती है, यह पारंपरिक भारतीय व्यंजनों में कितनी बहुआयामी भूमिका निभाता है, और किस प्रकार यह यूरोप और अमेरिका में मांस के विकल्प के रूप में उभरा है।
कटहल: भारत का प्राचीन और सांस्कृतिक फल
कटहल, जिसे संस्कृत में ‘पनसा’ कहा गया है, का उल्लेख 400 ईसा पूर्व के बौद्ध ग्रंथों से लेकर तमिल साहित्य की कृतियों तक मिलता है। दक्षिण भारत के केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र में यह न केवल पोषण का स्रोत रहा है, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक भी बना। बौद्ध भिक्षु आज भी इसके रस का उपयोग वस्त्र रंगने में करते हैं। फैजाबाद जैसी जगहें अपनी स्वादिष्ट किस्मों के लिए जानी जाती हैं, जहाँ इसे उपहार के रूप में भी भेंट किया जाता है। कटहल को भारत में सिर्फ एक फल नहीं बल्कि एक परंपरा की तरह देखा गया है। त्यौहारों में इसे पकाया जाता है, धार्मिक आयोजनों में परोसा जाता है और गांवों में यह समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। दक्षिण भारत में तो यह राज्य फल का दर्जा भी प्राप्त कर चुका है। यह भारत की जैविक विविधता और आहार परंपरा का एक विशिष्ट उदाहरण है।
कटहल का धार्मिक संदर्भ कई प्राचीन मंदिरों में देखे जा सकते हैं जहाँ इसे देवताओं को अर्पित किया जाता है। तमिलनाडु में "पाल पनस" और केरल में "चक्क" जैसे क्षेत्रीय नाम इसकी सांस्कृतिक गहराई दर्शाते हैं। कई आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसे वात, पित्त और कफ संतुलित करने वाला फल माना गया है। इसकी छाल और बीज भी औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं। रामायण काल में भी कटहल का उल्लेख, वनवास के समय के भोजन के रूप में मिलता है। बंगाल में इसकी खास मिठाई “कटहल की सन्देश” बनाई जाती है, जो वहां की सांस्कृतिक मिठास का हिस्सा है। इन सबके कारण यह फल केवल पोषण का स्रोत नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक आत्मा का अंश है।
कटहल की खेती: पर्यावरण के अनुकूल और सुलभ कृषि विकल्प
कटहल की खेती एक ऐसी कृषि पद्धति है जो बदलते पर्यावरणीय परिदृश्य में आदर्श मानी जाती है। यह फल कीटों के प्रति प्रतिरोधक होता है, कम जल की मांग करता है और बहुत अधिक देखभाल की आवश्यकता नहीं होती। इसके पेड़ बड़े और घने होते हैं, जो भूमि क्षरण को रोकने और स्थानीय जलवायु को संतुलित रखने में भी सहायक होते हैं।एक परिपक्व पेड़ वर्ष में लगभग 200 फल देता है और पुराने पेड़ तो 500 तक दे सकते हैं। यह उत्पादन परिश्रम की तुलना में बहुत अधिक होता है, जिससे यह किसानों के लिए लाभकारी विकल्प बनता है। भारत के पश्चिमी घाट, कोंकण, उत्तर प्रदेश, उत्तर-पूर्व और दक्षिण के राज्यों में इसका उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है। यह जैविक खेती की दिशा में भारत की एक मजबूत उपलब्धि बन सकती है।
कटहल के पेड़ की औसत जीवनावधि 60 से 80 वर्षों की होती है, जिससे यह लंबे समय तक स्थिर आय का स्रोत बनता है। इसकी खेती में रासायनिक खाद और कीटनाशकों की आवश्यकता न्यूनतम होती है, जिससे यह जैविक उत्पाद के रूप में बाजार में ऊँचे दामों में बिकता है। इसके पत्ते पशु चारे के रूप में उपयोगी हैं और लकड़ी का उपयोग फर्नीचर व वाद्य यंत्रों के निर्माण में होता है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दौर में यह ‘क्लाइमेट-स्मार्ट’ फसल मानी जाती है। भारत सरकार और FAO जैसे संगठन भी इसे स्थायी कृषि मॉडल के रूप में बढ़ावा दे रहे हैं। हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान भी पारंपरिक फसलों की जगह कटहल को अपनाने लगे हैं। इसका निर्यात योग्य बनना किसानों के लिए आर्थिक संभावनाओं के नए द्वार खोलता है।
पारंपरिक भारतीय व्यंजनों में कटहल का बहुआयामी उपयोग
भारत में कटहल को रसोई की रानी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कच्चा कटहल सब्ज़ी, करी, बिरयानी और कोफ्तों में इस्तेमाल होता है, जबकि पका हुआ कटहल मिठाइयों, जैम, चटनी और सिरप के रूप में खाया जाता है। उत्तर भारत से लेकर केरल और पूर्वोत्तर राज्यों तक, हर क्षेत्र की अपनी अनूठी कटहल-आधारित डिश होती है। यह फल चिप्स, अचार, मुरब्बा और पकौड़ों के रूप में भी इस्तेमाल होता है। इसकी बहुउपयोगिता ही इसे भारतीय रसोई का अघोषित राजा बनाती है। त्यौहारों और पारिवारिक आयोजनों में कटहल की विशेष व्यंजन तैयार की जाती हैं, जिससे यह न केवल स्वाद में बल्कि भावनात्मक रूप से भी भारतीय संस्कृति में रचा-बसा है।
बंगाल में कटहल को ‘गाछपाका’ और ‘इन्चोर’ नाम से जाना जाता है, जहाँ इसे करी और घी-भात के साथ परोसा जाता है। उत्तर भारत में ‘कटहल की बिरयानी’ शाकाहारी दावतों की शान होती है। केरल में "चक्का वरटियाथु" नामक मिठाई और "चक्का चिप्स" प्रसिद्ध हैं। नागालैंड और मणिपुर जैसे राज्यों में इसकी सब्जी को स्थानीय मसालों से खास तरीके से पकाया जाता है। इसकी बीजों की चटनी या सूखी भुनी बीजें भी लोकप्रिय हैं। महाराष्ट्र में पका कटहल गुड़ के साथ मिलाकर ‘फणसपोली’ बनाई जाती है। इतना ही नहीं, शाकाहारी शादियों में कटहल को मांसाहार के विकल्प के रूप में विशिष्ट सम्मान दिया जाता है।
यूरोप और अमेरिका में कटहल का मांस विकल्प के रूप में उदय
आज के समय में जब स्वास्थ्य और पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, तो पश्चिमी दुनिया में शाकाहारी भोजन की मांग भी बढ़ी है। इस आवश्यकता को पूरा करता है भारत का कटहल, जिसे "वनस्पति मांस" के रूप में पहचाना जाने लगा है। इसकी बनावट और सही तरीके से पकाने पर मांस जैसी स्वादानुभूति इसे पिज़्ज़ा, बर्गर, पास्ता जैसे व्यंजनों में मांस का शानदार विकल्प बनाती है। जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में बैंगलोर और त्रिपुरा से कटहल का निर्यात तेजी से बढ़ा है। कोविड-19 महामारी के दौरान जब मांस को लेकर डर था, तब केरल और अन्य राज्यों में कटहल की मांग रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गई। न्यूट्रिशन बिजनेस जर्नल (Nutrition Business Journal) के अनुसार अमेरिका में 2011 में जहां मांस विकल्प का बाज़ार $69 मिलियन का था, वहीं 2015 तक यह $109 मिलियन तक पहुँच गया — इसमें कटहल की भूमिका निर्णायक रही है।
कटहल में वसा की मात्रा बहुत कम होती है और इसमें फाइबर अधिक होता है, जिससे यह स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। यही कारण है कि इसे 'क्लीन प्रोटीन' विकल्प के रूप में पश्चिम में अपनाया गया। न्यूयॉर्क और लंदन के रेस्टोरेंटों में ‘जैकफ्रूट टैकोस’, ‘कटहल सैंडविच’ और ‘वीगन पुल्ड जैकफ्रूट’ जैसे व्यंजन ट्रेंड बन चुके हैं। अमेरिका के होल फ़ूड्स (Whole Foods) और ट्रेडर जोस (Trader Joe's) जैसे सुपरमार्केट ब्रांड अब कटहल आधारित तैयार व्यंजन बेच रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के ‘फूड फॉर फ्यूचर’ प्रोजेक्ट में इसे उभरते सुपरफूड्स की सूची में शामिल किया गया है। स्टार्टअप्स जैसे द जैकफ्रूट कंपनी (The Jackfruit Company) और अप्टन्स नेचुरल्स (Upton's Naturals) ने इसे शाकाहारी नवाचार का केंद्र बना दिया है। इसके प्रचार में भारतीय मूल के शेफ्स की भी अहम भूमिका रही है, जिन्होंने इसे पश्चिमी स्वाद के अनुरूप प्रस्तुत किया।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/33zysem6
https://tinyurl.com/ycb84wzk
A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.
B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.
C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.
D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.