मेरठवासियों, बोधि दिवस (Bodhi Day) बौद्ध परंपरा का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसे उस ऐतिहासिक क्षण की स्मृति में मनाया जाता है जब सिद्धार्थ गौतम ने बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए ज्ञान प्राप्त किया और बुद्ध बने। यह दिन आत्मज्ञान, करुणा, धैर्य और सत्य की खोज का प्रतीक माना जाता है।
आज हम एक ऐसे महापुरुष के जीवन पर चर्चा करने जा रहे हैं, जिन्होंने न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को शांति, करुणा और मानवता का अमूल्य संदेश दिया - भगवान बुद्ध। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा सुख बाहरी वस्तुओं या भौतिक संपत्ति में नहीं, बल्कि भीतर की जागरूकता और संतुलन में निहित है। जिस तरह हम अपने जीवन में संघर्षों, इच्छाओं और तनावों का सामना करते हैं, उसी तरह सिद्धार्थ गौतम ने भी मानव जीवन के दुःख और उसके कारणों को गहराई से समझने का प्रयास किया। आइए, बुद्ध के जीवन की प्रेरक यात्रा को विस्तार से जानें और देखें कि उनके विचार आज भी हमारे समाज और जीवन को किस तरह दिशा देते हैं।
आज के इस लेख में हम भगवान बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं से जुड़े सात महत्वपूर्ण पहलुओं को समझेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे उनके जन्म और प्रारंभिक जीवन के बारे में, जिसमें एक राजकुमार से दार्शनिक बनने की उनकी अद्भुत यात्रा छिपी है। फिर, हम देखेंगे वे चार दृश्य जिन्होंने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी और उन्हें त्याग की ओर प्रेरित किया। इसके बाद, हम उनके ज्ञान प्राप्ति (निर्वाण) की प्रक्रिया और उसके गहरे अर्थ को समझेंगे। आगे चलकर, हम चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग का अध्ययन करेंगे, जो उनके उपदेशों की मूल आत्मा हैं। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि बुद्ध के बाद बौद्ध धर्म का प्रसार, उनकी जीवनी से जुड़े प्रमुख ग्रंथ, और उनके दार्शनिक व सामाजिक प्रभाव ने मानवता के विचारों को किस प्रकार नया दृष्टिकोण दिया।

भगवान बुद्ध का जन्म और प्रारंभिक जीवन
सिद्धार्थ गौतम का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) में हुआ था। वे शाक्य वंश के राजा शुद्धोधन और रानी मायादेवी के पुत्र थे। उनके जन्म के समय अनेक शुभ लक्षण प्रकट हुए और यह माना गया कि यह बालक भविष्य में असाधारण कार्य करेगा। एक ऋषि ने भविष्यवाणी की कि सिद्धार्थ या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे या फिर संसार को सत्य और शांति का मार्ग दिखाने वाले महान संत। इस भविष्यवाणी ने राजा शुद्धोधन को चिंतित कर दिया - वे नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र सन्यास ग्रहण करे। इसलिए उन्होंने सिद्धार्थ को बाहरी दुनिया के दुखों और कठोर वास्तविकताओं से दूर रखा। राजमहल में सिद्धार्थ को हर सुख-सुविधा और विलासिता दी गई, किंतु उनके भीतर हमेशा एक गहरी जिज्ञासा जागती रही - जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है? यह प्रश्न उनके मन में बचपन से ही अंकुरित हो चुका था, जो बाद में उन्हें आत्मज्ञान की दिशा में ले गया।
चार दृश्य और त्याग का निर्णय
युवावस्था में एक दिन सिद्धार्थ अपने सारथी के साथ महल से बाहर निकले। उस दिन जो उन्होंने देखा, उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। उन्होंने चार दृश्य देखे - एक वृद्ध व्यक्ति, एक बीमार व्यक्ति, एक शव और एक तपस्वी। वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें बताया कि कोई भी मनुष्य वृद्धावस्था से नहीं बच सकता; बीमार व्यक्ति ने जीवन की असहायता को दिखाया; शव ने मृत्यु की अनिवार्यता का बोध कराया; और अंत में तपस्वी ने त्याग और आत्मसंयम के मार्ग की झलक दी। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ के मन में गहरी हलचल मचा दी। उन्हें लगा कि संसार के सारे भौतिक सुख क्षणिक हैं और हर जीव किसी न किसी रूप में दुःख भोगता है। यह सोच उनके हृदय को व्याकुल करने लगी। अंततः एक रात, जब सब सो रहे थे, उन्होंने अपने परिवार, राजपद और सुख-सुविधाओं का त्याग किया। वे अपने रथ पर सवार होकर चुपचाप महल छोड़ गए - मानव पीड़ा के मूल कारण को समझने और उसे मिटाने का मार्ग खोजने के लिए। यही क्षण उनके जीवन का सबसे बड़ा परिवर्तन था।

ज्ञान प्राप्ति (निर्वाण) की यात्रा
महल त्यागने के बाद सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या का मार्ग अपनाया। उन्होंने विभिन्न गुरुओं से शिक्षा ली और आत्मसंयम की सीमाओं को परखने के लिए कई वर्षों तक जंगलों में कठिन तप किया। लेकिन जब उन्होंने देखा कि अत्यधिक कठोर साधना से भी आत्मज्ञान नहीं मिल रहा, तब उन्होंने एक नया मार्ग अपनाया - "मध्यम मार्ग"। यह वह मार्ग था जिसमें न तो अत्यधिक भोग था और न ही अत्यधिक त्याग। सिद्धार्थ बोधगया पहुँचे और एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गए। उन्होंने निश्चय किया कि जब तक सत्य का साक्षात्कार नहीं होगा, वे वहां से नहीं उठेंगे। अनेक दिनों के गहन ध्यान के बाद, एक रात जब भोर की पहली किरण फूटी, उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने समझ लिया कि दुःख का मूल कारण तृष्णा और अज्ञान है, और इससे मुक्ति केवल ज्ञान, करुणा और आत्मजागरूकता के माध्यम से ही संभव है। उसी क्षण वे “बुद्ध” - अर्थात “जाग्रत व्यक्ति” कहलाए। यह घटना केवल उनके जीवन की नहीं, बल्कि मानव इतिहास की भी एक नई शुरुआत थी।
चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग
ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायियों को जो सबसे महत्वपूर्ण शिक्षाएँ दीं, वे चार आर्य सत्य कहलाती हैं। पहला - जीवन दुःखमय है; जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु सभी दुःख से जुड़े हैं। दूसरा - दुःख का कारण तृष्णा है; जब व्यक्ति इच्छाओं में बंध जाता है, तो वह निरंतर असंतोष में जीता है। तीसरा - दुःख का अंत संभव है; जब तृष्णा समाप्त होती है, तब दुःख भी समाप्त हो जाता है। चौथा - दुःख के अंत का मार्ग “अष्टांगिक मार्ग” है। इस मार्ग में आठ तत्व हैं - सम्यक दृष्टि (सही समझ), सम्यक संकल्प (सही विचार), सम्यक वाणी (सत्य बोलना), सम्यक कर्म (सही आचरण), सम्यक आजीविका (सत्यनिष्ठ जीवनयापन), सम्यक प्रयास (सही दिशा में प्रयत्न), सम्यक स्मृति (सजग रहना) और सम्यक समाधि (गहरा ध्यान)। इन सिद्धांतों का पालन करके व्यक्ति मानसिक और आत्मिक शांति प्राप्त कर सकता है। बुद्ध का यह “मध्यम मार्ग” आज भी जीवन में संतुलन और शांति का सर्वोत्तम सूत्र माना जाता है।

बुद्ध के बाद बौद्ध धर्म का प्रसार
भगवान बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया, लेकिन उनकी शिक्षाएँ उनके साथ समाप्त नहीं हुईं। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी वाणी को सहेजकर आगे बढ़ाया। धीरे-धीरे बौद्ध धर्म भारत, श्रीलंका, चीन, जापान, तिब्बत, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में फैल गया। बौद्ध धर्म के प्रसार में सम्राट अशोक की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। कलिंग युद्ध के बाद उन्होंने हिंसा का त्याग किया और बौद्ध धर्म को राज्य की नीति बना लिया। उन्होंने स्तूपों, विहारों और शिक्षा केंद्रों की स्थापना कराई और बौद्ध भिक्षुओं को विदेशों तक भेजा। इस तरह बुद्ध के संदेश - अहिंसा, करुणा और सत्य - पूरे एशिया में फैल गए। आज भी बुद्ध की शिक्षाएँ विश्वभर में शांति और मानवता के प्रतीक के रूप में पूजी जाती हैं।
बुद्ध की जीवनी पर आधारित प्रमुख ग्रंथ
बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं का विवरण अनेक ऐतिहासिक और धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। ‘बुद्धचरित’, जिसे महान कवि अश्वघोष ने लिखा, उनके जीवन पर आधारित सबसे प्राचीन काव्यग्रंथ माना जाता है। ‘ललितविस्तर सूत्र’ में उनके जीवन की घटनाओं का वर्णन महायान परंपरा की दृष्टि से किया गया है। वहीं ‘महावस्तु’ और ‘निदानकथा’ जैसे ग्रंथों में उनके जन्म से लेकर ज्ञान प्राप्ति और धर्म प्रचार तक की घटनाएँ विस्तारपूर्वक वर्णित हैं। ये ग्रंथ न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि वे बौद्ध दर्शन की गहराई और उसकी मानवीय संवेदनाओं को भी उजागर करते हैं। इन रचनाओं के माध्यम से आने वाली पीढ़ियाँ न केवल भगवान बुद्ध के जीवन को समझती हैं, बल्कि उनके द्वारा सिखाए गए आत्मसंयम, करुणा और शांति के सिद्धांतों को भी आत्मसात करती हैं।

बौद्ध धर्म का दार्शनिक और सामाजिक प्रभाव
बौद्ध धर्म ने भारतीय समाज और विश्व दोनों को गहराई से प्रभावित किया। इसने जाति, लिंग और वर्ग आधारित भेदभाव को नकारते हुए समानता, करुणा और अहिंसा का संदेश दिया। बुद्ध ने यह सिखाया कि मनुष्य की महानता उसके कर्म और चरित्र में है, न कि उसके जन्म में। दार्शनिक रूप से, बौद्ध धर्म ने “अनित्य” (सब कुछ परिवर्तनशील है), “प्रतीत्यसमुत्पाद” (हर चीज किसी कारण से उत्पन्न होती है), और “शून्यता” (आसक्ति का त्याग) जैसे गूढ़ सिद्धांत प्रस्तुत किए, जिन्होंने न केवल भारतीय दर्शन, बल्कि चीनी, जापानी और यहाँ तक कि आधुनिक पश्चिमी चिंतन को भी प्रभावित किया। सामाजिक स्तर पर बौद्ध धर्म ने शिक्षा, नैतिकता और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया। बौद्ध मठों ने न केवल धार्मिक केंद्रों के रूप में, बल्कि ज्ञान के प्रसार केंद्रों के रूप में भी कार्य किया। आज भी विश्वभर में करोड़ों लोग बुद्ध के सिद्धांतों - “अप्प दीपो भव” (अपने दीपक स्वयं बनो) - से प्रेरणा लेकर जीवन में आत्मशांति और मानवता की राह पर अग्रसर हैं।
संदर्भ-
https://bit.ly/3wnnnIU
https://bit.ly/39lvyhc
https://tinyurl.com/2zu5kxz6
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