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मेरठवासियों, हमारी तेज़ी से बदलती शहरी ज़िंदगी ने सिर्फ़ हमारे रहने-सहने के तरीके को नहीं, बल्कि उन नन्हे जीवों को भी गहराई से प्रभावित किया है जो कभी हमारे घरों, छज्जों और आँगनों की रोज़मर्रा की धड़कन हुआ करते थे। उन्हीं प्यारे साथियों में से एक है गौरैया। वह छोटी-सी चहकती चिड़िया, जिसकी मधुर आवाज़ सुबह की हवा में घुलकर मोहल्लों को जगा देती थी, अब धीरे-धीरे हमारे आसपास से गायब होने लगी है। कंक्रीट की ऊँची इमारतें, बंद रसोई, शोर, प्रदूषण और बदलते मौसम ने मिलकर उसकी दुनिया को संकुचित कर दिया है। हम सबने महसूस किया है कि वह परिचित फड़फड़ाहट, वह दाने चुगने की सादगी और वह चहचहाहट अब रोज़ सुनाई नहीं देती।
आज हम सबसे पहले समझेंगे कि आधुनिक शहरों में गौरैया अचानक क्यों और कैसे गायब होने लगी है, और यह स्थिति भारत के साथ पूरी दुनिया में क्यों चिंता का विषय बन चुकी है। इसके बाद, हम गौरैया की गिरती संख्या के प्रमुख कारणों को सरल भाषा में जानेंगे - जैसे कीटनाशक, कंक्रीट घर, भोजन और घोंसलों की कमी। आगे, हम गौरैया और मनुष्य के प्राचीन तथा भावनात्मक रिश्ते की झलक पाएँगे, जिससे समझ आएगा कि यह पक्षी हमारी संस्कृति में कितना गहराई से बसता है। अंत में, हम यह भी देखेंगे कि अपने घर, बगीचे और आसपास छोटी-छोटी कोशिशों से हम उसे वापस कैसे बुला सकते हैं।
आधुनिक शहरों में गौरैया का गायब होना: भारत और विश्व की चिंताजनक स्थिति
पिछले कुछ दशकों में गौरैया दुनिया की कई बड़ी और पुरानी बस्तियों से लगभग अदृश्य होती चली गई है। यूरोप, एशिया और अमेरिका के शोध संस्थानों ने इस पक्षी को अपनी “कमी वाले” या “रेड-लिस्ट के नज़दीक” श्रेणी में दर्ज किया है, क्योंकि उनकी आबादी में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। भारत में भी यही चिंता साफ़ दिखाई देती है - दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे शहरों में गौरैया की संख्या अचानक गिर गई, जहाँ कभी यह सबसे आम दिखने वाला पक्षी था। मेरठ जैसे पुराने, संस्कृति-समृद्ध शहर भी इस बदलाव से अछूते नहीं बचे। शहर का फैलता कंक्रीट, ऊँची इमारतें, सील्ड फ्लैट्स (sealed flats) और ऐसी आधुनिक डिज़ाइन जिनमें हवा और रोशनी तो आती है, पर पक्षियों के लिए कोई जगह नहीं - इन सबने गौरैया के लिए घोंसला बनाने की सबसे जरूरी शर्तें खत्म कर दीं। जहाँ कभी खिड़कियों के कोने, छतों की लकड़ी या कच्ची दीवारें उसके घर हुआ करते थे, अब वहाँ चिकनी सतहें और लोहे-काँच की संरचनाएँ हैं, जो उसके लिए बिल्कुल अनुपयोगी साबित होती हैं। यही कारण है कि गौरैया आधुनिक शहरों से चुपचाप गायब होती चली गई, और हमें इसका एहसास तब हुआ, जब उनकी चहक हमारे कानों तक पहुँचनी बंद हो गई।
गौरैया क्यों कम हो रही है? घर, भोजन और प्राकृतिक कीड़ों की कमी
गौरैया की कमी किसी एक कारण की देन नहीं, बल्कि शहरी जीवन के कई छोटे-बड़े परिवर्तनों का संयुक्त परिणाम है। आधुनिक घरों का निर्माण ऐसे तरीके से होने लगा है कि उनमें वे छोटी दरारें, खुली खिड़कियाँ, अर्ध-पक्के कोने या लकड़ी की बीम नहीं होतीं, जिन पर गौरैया आसानी से घोंसला बना सके। पहले ग्रामीण और कस्बाई रसोईघरों में चूल्हे चलते थे, जहाँ से दानों के टुकड़े, अनाज के कण और छोटी-छोटी खाद्य सामग्री गिरती रहती थी; यह सब गौरैया के लिए प्राकृतिक भोजन की तरह था। अब गैस-कनेक्शन, बंद किचन और पैक्ड फूड (packed food) ने वह सारा बिखराव समाप्त कर दिया है, जो उसके लिए महत्वपूर्ण था। कीटनाशकों ने खेतों और बागों में कीड़ों की संख्या को बेहद घटा दिया है, जबकि गौरैया के बच्चों का भोजन 80% से अधिक इन्हीं छोटे कीटों पर निर्भर होता है। इसके अलावा, शहरी जीवन का शोर, प्रदूषण, धातु का कचरा, निर्माण धूल और लगातार बदलता माइक्रो-हैबिटेट (micro-habitat) गौरैया की प्राकृतिक आदतों के पूरी तरह खिलाफ़ है, जिससे वह अपने ही शहरों में अनुकूल वातावरण खोजने में असमर्थ हो गई है।
गौरैया और मनुष्य का प्राचीन रिश्ता: इतिहास से आज तक
गौरैया का मनुष्य से रिश्ता सिर्फ़ सह-अस्तित्व का नहीं, बल्कि भावनाओं, यादों और संस्कृति का है। यह छोटा-सा पक्षी हजारों साल से मनुष्य की छतों, खेतों और दीवारों के साथ जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि रोमनों ने भी गौरैया को यूरोप के दूसरे हिस्सों में पहुँचाने में भूमिका निभाई, क्योंकि उन्हें यह पक्षी सौभाग्य और प्रेम का प्रतीक लगता था। भारत में भी गौरैया बच्चों की कविताओं, माँ-बाप की कहानियों, और गाँव-शहरों के रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा रही है। पुराने मकानों, लकड़ी की छतों और मिट्टी के चूल्हों में यह ऐसे रहती थी, जैसे परिवार की छोटी सदस्य हो। मेरठ जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहरों में तो यह हर सुबह की आवाज़ का हिस्सा थी - खिड़की की जाली पर बैठकर फुदकना, आँगन में दाना चुगना, और बच्चों के पीछे-पीछे घूमना। आज जब यह नहीं दिखती, तो उसकी अनुपस्थिति सिर्फ़ एक पर्यावरणीय बदलाव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और भावनात्मक रिक्तता भी महसूस होती है।
गर्मी, जलसंकट और प्रदूषण: जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव
तेज़ी से बढ़ती गर्मी और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव छोटे पक्षियों पर सबसे पहले और सबसे गंभीर रूप में पड़ा है। गौरैया का शरीर बहुत छोटा होता है, इसलिए वह गर्मी में जल्दी पानी गंवा देती है और जल्दी निर्जलित हो जाती है। पहले शहरों और गाँवों में छोटे-छोटे जलस्रोत, टोंटियाँ, गीली मिट्टी, कुएँ, पनघट और छतों पर रखे मिट्टी के घड़े होते थे, जहाँ से वह आसानी से पानी पी लेती थी। आज ऐसे स्रोत धीरे-धीरे गायब हो चुके हैं। शहरी हीट-आइलैंड (Heat-Island) प्रभाव, भारी ट्रैफ़िक, धुआँ, धूल और लगातार बढ़ता तापमान उसकी शारीरिक क्षमता से कहीं अधिक है। यही कारण है कि गर्मियों के दिनों में कई पशु चिकित्सालयों और रेस्क्यू सेंटरों में पंख झुलस चुके, प्यास से कमजोर और प्रदूषण से प्रभावित गौरैया लाई जाती हैं। यह सब मिलकर बताता है कि बदलता मौसम उसके अस्तित्व के लिए कितना खतरनाक बन चुका है।
गौरैया को वापस बुलाने के सरल और व्यावहारिक कदम
अगर इंसान चाहे तो गौरैया को वापस बुलाना बहुत मुश्किल काम नहीं है। इसके लिए किसी बड़े बजट, बड़े प्रोजेक्ट या सरकारी योजना की आवश्यकता नहीं - सिर्फ़ हमारे छोटे-छोटे प्रयास ही काफी हैं। अपने घर की बालकनी या छत पर दाना-पानी रखना, मिट्टी की छोटी कटोरी में साफ पानी भरकर रखना, या कोई उथला बाउल लगाना गौरैया के लिए जीवनदान जैसा है। इसके अलावा, गमलों में तुलसी, बाजरा, मेहंदी, जंगली घास या स्थानीय पौधे लगाकर हम उसे प्राकृतिक भोजन और कीट उपलब्ध करा सकते हैं। लकड़ी के नेस्ट-बॉक्स (nest-box), छत के किसी शांत कोने में सुरक्षित जगह, या दीवार पर एक छोटा घोंसला छेद भी उसके लिए घर जैसा माहौल बना सकता है। जब एक मोहल्ला मिलकर ये छोटे कदम उठाता है, तो कुछ ही महीनों में गौरैया की वापसी साफ दिखाई देने लगती है। मनुष्य और प्रकृति के बीच रिश्ते की मरम्मत यहीं से शुरू होती है।
गौरैया के पारिस्थितिक फायदे: प्रकृति में उसकी अनदेखी भूमिका
गौरैया छोटे आकार की है, पर उसका महत्व किसी बड़े पर्यावरणीय घटक से कम नहीं। यह खेतों और बगीचों में मौजूद कई प्रकार के कीटों को खाती है, जिससे प्राकृतिक कीट नियंत्रण होता है और फसलें स्वस्थ रहती हैं। यह बीज फैलाकर जैव विविधता को बढ़ावा देती है, और बगीचों में नए पौधों और घासों को उगने का अवसर देती है। शहरों में भी गौरैया छोटा लेकिन जरूरी संतुलन बनाए रखती है - यदि कीटों और छोटे जीवों की संख्या अनियंत्रित हो जाए, तो पौधों और वातावरण पर भारी प्रभाव पड़ता है। इसलिए गौरैया का लौटना सिर्फ़ एक पक्षी का लौटना नहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिक तंत्र का पुनर्जीवन है। जहाँ गौरैया लौटती है, वहाँ पेड़, पौधे, कीट, हवा - सब धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगते हैं। वास्तव में यह प्रकृति की ओर से मिलने वाला संकेत है कि शहर फिर से जीवन के अनुकूल बन रहा है।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3OvvDhf
https://bit.ly/3RZ7gLG
https://tinyurl.com/4425yya8
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