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रामपुर के खेतों में लहराती फ़सल का श्रेय क्या केवल यहाँ के किसानों को दिया जा सकता है, या फ़िर इसके पीछे कोई दूसरा राज़ भी छिपा है? वास्तव में रामपुर, तराई के उपजाऊ मैदानों और रोहिलखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है! यहाँ के मेहनती किसानों ने सदियों से रामपुर की मिट्टी से अन्न उगाकर लोगों का पेट भरा है। लेकिन आज हमारे सामने एक बड़ा सवाल खड़ा है कि, “क्या रामपुर की मिट्टी आने वाली पीढ़ियों में भी इसी तरह फलती-फूलती रहेगी?”
आज जब हम अपने खेतों में बढ़ते रासायनिक उर्वरकों, पानी की बेतहाशा बर्बादी और जैव विविधता को तेज़ी से घटते हुए देखते हैं, तो रामपुर जैसे कृषि-प्रधान जिले इसकी सबसे बड़ी मार झेलते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यहाँ की पूरी अर्थव्यवस्था, रोज़गार और जीवनशैली, सब कुछ खेती पर ही टिका है।
इसलिए हमें अब यह समझ जाना चाहिए कि "टिकाऊ खेती कोई विकल्प नहीं, बल्कि समय की सबसे बड़ी माँग बन चुकी है।" जैविक खाद, फ़सल चक्र और जल-संरक्षण जैसी विधियाँ अब केवल पर्यावरण की सेहत के लिए ही नहीं, बल्कि रामपुर के किसानों की आर्थिक स्थिरता और अगली पीढ़ी के भविष्य को बचाने के लिए भी ज़रूरी हो गई हैं।
आज के इस लेख में हम टिकाऊ कृषि के बारे में जानेंगे! आगे हम यह भी जानेंगे कि कैसे यह भारत और रामपुर जैसे जिलों को दुनिया की सबसे गंभीर पर्यावरणीय और आर्थिक चुनौतियों से निपटने की राह दिखा रही है। आगे हम उन 7 प्रमुख कृषि-प्रथाओं के बारे में जानेंगे जो मिट्टी को जीवन देती हैं और खेती को मुनाफ़े का सौदा बनाती हैं। साथ ही, हम यह भी देखेंगे कि सरकार टिकाऊ खेती को बढ़ावा देने के लिए कौन-सी नई और निर्णायक पहलें कर रही है।
आइए सबसे पहले जानते हैं कि संधारणीय या सतत कृषि क्या है?
सतत खेती एक ऐसा कृषि मॉडल है जो पर्यावरण के अनुकूल उपायों को अपनाकर खेती को लंबे समय तक टिकाऊ बनाए रखने पर जोर देता है। यह खेती का ऐसा तरीका है जो न केवल आज की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करता है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों की जरूरतों से समझौता किए बिना प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण भी सुनिश्चित करता है।
इस पद्धति में फ़सल चक्र (crop rotation), कृषि वानिकी (agroforestry) और जल व ऊर्जा संसाधनों का समझदारी से उपयोग किया जाता है, जो खेती को अधिक प्रभावी और संतुलित बनाते हैं। टिकाऊ खेती न केवल पर्यावरण की रक्षा करती है, बल्कि मृदा की गुणवत्ता, जैव विविधता और कृषि पारिस्थितिकी तंत्र की मजबूती को भी बढ़ावा देती है।
सतत कृषि सामाजिक सुधारों का भी समर्थन करती है। यह किसानों को बेहतर कामकाजी परिस्थितियाँ प्रदान करती है और स्थानीय समुदायों तक सुरक्षित, पोषणयुक्त भोजन पहुँचाने में मदद करती है।
जब हम आर्थिक दक्षता, पर्यावरणीय संरक्षण और सामाजिक कल्याण को एक साथ जोड़ते हैं, तब टिकाऊ खेती वैश्विक खाद्य चुनौतियों का एक स्थायी और प्रभावशाली समाधान बन जाती है। यह न केवल आज की ज़रूरतों को पूरा करती है, बल्कि पृथ्वी को आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित रखने की दिशा में एक मज़बूत कदम भी साबित होती है।
भारत में संधारणीय खेती क्यों आवश्यक है?
भारत की 60% से अधिक आबादी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए कृषि पर निर्भर करती है। ऐसे में देश की खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए खेती का टिकाऊ (संधारणीय) होना बेहद ज़रूरी है।
संधारणीय खेती एक ऐसा कृषि प्रणाली है जिसमें पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुँचाते हुए फ़सलों का उत्पादन किया जाता है। यह खेती न केवल प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, मिट्टी और जैव विविधता की रक्षा करती है, बल्कि फ़सलों को जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक लचीला भी बनाती है।
भारत जैसे देश में, जहाँ पानी की कमी और उपजाऊ भूमि का क्षरण तेजी से बढ़ रहा है, वहाँ संधारणीय खेती को अपनाना अब केवल एक विकल्प नहीं, बल्कि एक आवश्यकता बन गया है। यह तरीका किसानों को रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भरता कम करने में मदद करता है, जिससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और पर्यावरणीय संतुलन भी कायम रहता है।
इसके अतिरिक्त, यह प्रणाली जलवायु संकट के प्रभावों को कम करने में भी सहायक है। जब किसान प्राकृतिक संसाधनों का सोच-समझकर और संतुलित तरीके से उपयोग करते हैं, तो न केवल उनकी उपज स्थिर और सुरक्षित होती है, बल्कि वे लंबे समय तक खेती से सतत आय भी प्राप्त कर सकते हैं।
इसलिए, भारत में कृषि को भविष्य के लिए सुरक्षित, पर्यावरण के अनुकूल और आर्थिक रूप से मज़बूत बनाने के लिए संधारणीय खेती को अपनाना अत्यंत आवश्यक है। आज के समय में दुनियाभर के किसान खेती को टिकाऊ, उत्पादक और पर्यावरण-अनुकूल बनाने के लिए कई आधुनिक और पारंपरिक तरीकों को अपना रहे हैं।
नीचे ऐसे ही सात महत्वपूर्ण कृषि अभ्यासों का विवरण दिया गया है जो कृषि को दीर्घकालिक रूप से लाभकारी बनाने में सहायक हैं:
1. फ़सल चक्रण (Crop Rotation): फ़सल चक्रण का अर्थ है:- "एक ही खेत में अलग-अलग मौसमों में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाना।"
इसके लाभों में शामिल हैं:
यह अभ्यास खेत की उत्पादकता और टिकाऊपन को बनाए रखने में अत्यंत सहायक होता है।
2. जैविक खेती (Organic Farming): इस पद्धति में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के स्थान पर प्राकृतिक संसाधनों जैसे गोबर खाद, कम्पोस्ट, और नीम-आधारित कीटनाशको आदि का उपयोग किया जाता है।
इसके लाभों में शामिल हैं:
3. संरक्षण जुताई (Conservation Tillage): इस तकनीक में खेत की मिट्टी को कम से कम जोता जाता है ताकि मिट्टी की प्राकृतिक संरचना बनी रहे।
इसके लाभों में शामिल हैं:
4. कृषि वानिकी (Agroforestry): इस पद्धति में पेड़-पौधे, झाड़ियाँ और फसलें एक साथ उगाई जाती हैं। पशुपालन को भी शामिल किया जा सकता है।
इसके लाभों में शामिल हैं:
5. एकीकृत कीट प्रबंधन (Integrated Pest Management - IPM): IPM में जैविक, यांत्रिक और सांस्कृतिक तरीकों से कीट नियंत्रण किया जाता है, साथ ही रासायनिक दवाओं का सीमित उपयोग होता है।
इसके लाभों में शामिल हैं:
6. कुशल जल प्रबंधन (Efficient Water Management): ड्रिप सिंचाई, वर्षा जल संचयन और जल पुनः उपयोग जैसे उपायों से पानी की बर्बादी रोकी जाती है।
इसके लाभों में शामिल हैं:
7. नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग (Use of Renewable Energy): सौर पैनल और पवन टर्बाइन जैसी तकनीकों का उपयोग खेती में ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है।
इसके लाभों में शामिल हैं:
भारत सरकार ने भी सतत कृषि को बढ़ावा देने के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाएँ शुरू की हैं। ये योजनाएँ न केवल पर्यावरण की रक्षा करती हैं, बल्कि किसानों की आय और कृषि की गुणवत्ता को भी बेहतर बनाती हैं।
नीचे कुछ प्रमुख सरकारी पहलें दी गई हैं:
सतत कृषि को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही ये पहलें न केवल पर्यावरण संरक्षण में सहायक हैं, बल्कि किसानों की आय बढ़ाने और कृषि को दीर्घकालिक रूप से लाभदायक बनाने की दिशा में भी अहम भूमिका निभाती हैं। इन योजनाओं के माध्यम से भारत कृषि क्षेत्र में एक संतुलित और टिकाऊ भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में ताज़े फल (संभवत: स्ट्रॉबेरी) तोड़ते हुए एक महिला किसान | चित्र स्रोत : Pexels
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