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रामपुर की बात सिर्फ नवाबों की रियासत, ऊँची दीवारों वाले इमामबाड़ों या रज़ा लाइब्रेरी की दुर्लभ किताबों तक सीमित नहीं है। इस शहर की असली पहचान उन अनदेखी, अनसुनी चीज़ों में है जो सादगी में भी सौंदर्य की मिसाल बनती हैं। कहीं एक ओर वो मिट्टी के बर्तन हैं — साधारण दिखने वाले, लेकिन जिनमें कुम्हार की उंगलियाँ पीढ़ियों की कला को घुमा देती हैं। वहीं दूसरी ओर हैं विदेशी शाही कंपनियों, जैसे मैपिन एंड वेब, द्वारा बनाए गए चाँदी के बर्तन और सजावटी चीज़ें, जो कभी रामपुर के नवाबी दरबार की शोभा हुआ करती थीं। इन दोनों ही तरह की कलाओं में जो दूरी दिखती है — लोक और शाही, मिट्टी और चाँदी, साधारण और भव्य — वहीं से रामपुर की अनोखी सांस्कृतिक पहचान उभरती है। यही विरोधाभास रामपुर को खास बनाता है। यहाँ एक ही ज़मीन पर आम जन की मेहनत और नवाबों की नज़ाकत साथ-साथ सांस लेती हैं। मिट्टी के बर्तनों में जहाँ रामपुर की ज़मीन की खुशबू है, वहीं शाही वस्तुओं में इसकी वैश्विक दृष्टि और कलात्मक सौंदर्य छिपा है। रामपुर के मोहल्लों की गलियों से लेकर दरबार की दीवारों तक, हर जगह कला की दो अलग आवाज़ें सुनाई देती हैं। एक तरफ़ चाक पर घूमती मिट्टी, दूसरी तरफ़ तराशा गया चाँदी का फूल। यही वो संगम है जहाँ रामपुर की आत्मा बसती है — मिट्टी की सादगी और शाही रौनक का जीवंत मेल।
इस लेख में हम रामपुर की कलात्मक विरासत की एक दिलचस्प यात्रा पर निकलेंगे, जिसे पाँच पहलुओं में समझने की कोशिश करेंगे। हम जानेंगे कि चीनी मिट्टी के बर्तन भारत में कब और कैसे आए, और रामपुर जैसी नवाबी रियासतों में इन्हें क्यों पसंद किया गया। फिर हम चर्चा करेंगे उन मिट्टी के बर्तनों की, जिनकी जड़ें हमारी सबसे पुरानी सभ्यताओं में मिलती हैं — और देखेंगे कि कैसे इन साधारण चीज़ों में गहरी कला और रोज़मर्रा की ज़रूरतें एक साथ बसी होती थीं। हम रामपुर के संग्रहालयों की झलक भी पाएंगे, जहाँ ये विरासत आज भी सहेजी गई है। और अंत में, हम जानने की कोशिश करेंगे कि रामपुर के नवाब और ब्रिटिश कंपनी मैपिन एंड वेब (Mappin & Webb Plates) के बीच के सांस्कृतिक रिश्तों ने इस कला को दुनिया तक कैसे पहुँचाया।
भारत में चीनी मिट्टी के बर्तनों का प्रवेश और रामपुर की भागीदारी
चीनी मिट्टी के बर्तन — जिन्हें पोर्सलीन भी कहा जाता है — भारत में उस समय आए जब वैश्विक व्यापारिक मार्गों पर भारत का सांस्कृतिक खुलापन बढ़ रहा था। ये बर्तन केवल उपयोगी वस्तुएं नहीं थे, बल्कि प्रतिष्ठा और सौंदर्य का प्रतीक माने जाते थे। रामपुर जैसे नवाबी ठिकानों में इन बर्तनों को केवल शाही भोजों के लिए ही नहीं, बल्कि कक्ष सज्जा और अतिथि सत्कार का हिस्सा भी बनाया गया। चीनी पोर्सलीन की चमक और नाजुकता, रामपुर के शाही सौंदर्यबोध से मेल खाती थी। रज़ा पुस्तकालय संग्रहालय और अन्य ऐतिहासिक स्थलों में इन पोर्सलीन बर्तनों की झलक आज भी देखी जा सकती है, जो यह दर्शाती है कि रामपुर ने भी इन वैश्विक कलाओं को अपनी स्थानीय संस्कृति में समाहित किया।
यह भी उल्लेखनीय है कि 18वीं से 19वीं सदी के दौरान नवाबों ने विदेश से कलात्मक वस्तुएं मंगवाने की जो परंपरा शुरू की, वह रामपुर की सांस्कृतिक पहचान में अहम भूमिका निभाने लगी। कई दस्तावेज़ बताते हैं कि चीन, जापान और यूरोपीय देशों के पोर्सलीन बर्तनों की मांग विशेष रूप से नवाबी खानदानों में होती थी। इन बर्तनों को उपहारों, दावतों और शाही जलसों का हिस्सा बनाकर सामाजिक प्रतिष्ठा दर्शाई जाती थी। यह प्रवृत्ति रामपुर को अंतरराष्ट्रीय कलात्मक प्रवाह से जोड़ती है।
मिट्टी के बर्तन: भारत की सबसे पुरानी जीवित कला
भारत में मृद्भांड निर्माण की परंपरा हजारों वर्षों पुरानी है। लहुरदेवा (उत्तर प्रदेश) जैसे पुरास्थलों से प्राप्त 7000 ईसा पूर्व के मृद्भांड इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में मिट्टी की कला की जड़ें कितनी गहरी हैं। इन बर्तनों का उपयोग केवल खाना पकाने या भंडारण के लिए ही नहीं था, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों और सांस्कृतिक आयोजन में भी इनका विशेष स्थान था। रामपुर जैसे क्षेत्रों में यह परंपरा पीढ़ियों से जीवित रही है। मिट्टी के बर्तनों का निर्माण प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित होने के कारण यह कला पर्यावरणीय दृष्टि से भी टिकाऊ रही है।
आज भी ग्रामीण रामपुर में कुम्हार समुदाय परंपरागत तरीके से बर्तनों का निर्माण करता है, जिसमें चाक, हाथ और स्थानीय लाल मिट्टी का प्रयोग होता है। इन बर्तनों को शादी-ब्याह, तीज-त्योहार और घरेलू पूजा में विशेष महत्व दिया जाता है। आधुनिक युग में जब प्लास्टिक और धातु के बर्तन आम हो गए हैं, तब भी यह जीवित कला लोकसंस्कृति की आत्मा को बचाए हुए है। कुम्हारों की पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही यह कला अब रामपुर में हस्तशिल्प मेलों और शैक्षणिक प्रदर्शनियों का विषय भी बन चुकी है।
मृद्भांडों में कला और उपयोगिता का संगम
मिट्टी के बर्तन कला और उपयोगिता का अद्भुत मेल हैं। मौर्य, कुषाण, शुंग और गुप्त काल में मिट्टी के बर्तनों पर की गई कलाकारी ने इन्हें केवल घरेलू उपयोग की वस्तु नहीं रहने दिया, बल्कि धार्मिक और सामाजिक महत्त्व से भी जोड़ दिया। इनमें चित्रांकन, आकृति और डिज़ाइन का अनूठा समावेश देखने को मिलता है। रामपुर में आज भी कुम्हार समुदाय द्वारा बनाए गए बर्तनों में पारंपरिक शैलियों के साथ-साथ नई रचनात्मकता का समावेश होता है। मिट्टी के बर्तनों में न केवल स्थानीय संस्कृति, बल्कि विभिन्न सभ्यताओं की छाप भी दिखाई देती है, जो भारत के बहुसांस्कृतिक इतिहास को दर्शाती है।
कुछ बर्तनों पर देवी-देवताओं की आकृतियाँ, पुष्प चित्रण, और पारंपरिक कथा दृश्य भी बनाए जाते हैं। रामपुर के आस-पास के गाँवों में बनने वाले दीपक, कुल्हड़, सुराही और मूर्तियाँ अब केवल वस्तु नहीं रह गईं, वे एक सांस्कृतिक प्रतीक बन गई हैं। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इन्हें 'लोककला' के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसी संगम ने मिट्टी के इन साधारण बर्तनों को कलात्मक धरोहर बना दिया है।
रामपुर के संग्रहालयों में मिट्टी की धरोहरें
रामपुर के रज़ा पुस्तकालय का संग्रहालय इस क्षेत्र की कलात्मक धरोहर का भंडार है। यहाँ से प्राप्त मृद्भांड, मिट्टी के खिलौने, और धार्मिक प्रतिमाएँ उत्तर भारत की प्राचीन कला परंपरा को उजागर करती हैं। पास ही स्थित अहिक्षेत्र नामक पुरास्थल से मिले मिट्टी के खिलौने और मूर्तियाँ यह सिद्ध करते हैं कि यह क्षेत्र प्राचीन समय में भी सांस्कृतिक रूप से अत्यंत समृद्ध था। यहाँ से प्राप्त गंगा और यमुना की मिट्टी से निर्मित प्रतिमाएँ धार्मिक विश्वास और मिट्टी की सुंदरता का संगम प्रस्तुत करती हैं। रामपुर और बरेली के संग्रहालयों में संरक्षित ये धरोहरें आने वाली पीढ़ियों के लिए एक जीवंत पाठशाला हैं।
इन धरोहरों की देखरेख विशेष रूप से पुरातत्व विभाग और स्थानीय प्रशासन की निगरानी में होती है। मिट्टी के इन दुर्लभ अवशेषों को प्रदर्शनी कक्षों में अत्यंत सावधानी और तापमान नियंत्रण में रखा गया है, जिससे उनकी उम्र लंबी बनी रह सके। ये वस्तुएं न केवल सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से, बल्कि ऐतिहासिक संदर्भों में भी मूल्यवान हैं। स्थानीय विद्यालयों के छात्र यहाँ आकर इतिहास को प्रत्यक्ष रूप में देखने का अनुभव प्राप्त करते हैं।
रामपुर के नवाब और मैपिन एंड वेब के साथ उनका संबंध
रामपुर के नवाबों की कला और भव्यता के प्रति विशेष रुचि के कारण उन्होंने ब्रिटेन की प्रसिद्ध कंपनी मैपिन एंड वेब से शाही बर्तनों और चांदी की प्लेटों का निर्माण कराया। यह कंपनी 1775 में शेफील्ड में स्थापित हुई थी और बाद में ब्रिटिश राजघरानों की पसंदीदा बनी। नवाबों द्वारा बनवाए गए बर्तनों पर रामपुर की शाही मुहर अंकित थी, जो आज भी उनके गौरव का प्रतीक मानी जाती है। यह संबंध केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक सौंदर्यबोध की साझेदारी का प्रमाण भी था। यही कारण है कि ब्रिटिश पत्रिका ‘दि स्फीयर’ में रामपुर रियासत और मैपिन एंड वेब दोनों का एक ही अंक में ज़िक्र किया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि रामपुर न केवल भारतीय, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक पटल पर भी प्रभावशाली था।
नवाबों ने चांदी की सजावटी वस्तुओं, फाउंटेन पेन सेट, डिनर सेट, चाय के बर्तन और प्रतिष्ठान चिह्न युक्त प्लेटों का विशेष ऑर्डर दिया था। ये वस्तुएं रज़ा पुस्तकालय और रामपुर नवाब के परिवार द्वारा आज भी संरक्षित हैं। यह सहयोग सिर्फ एक आयात-निर्यात नहीं था, बल्कि वैश्विक शिल्पकला और स्थानीय शाही दृष्टिकोण का संगम था। रामपुर रियासत ने अपने दौर में जिस सांस्कृतिक पहचान को आकार दिया, वह इन संबंधों के माध्यम से और भी विस्तृत हुआ।
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