
समयसीमा 253
मानव व उनकी इन्द्रियाँ 1016
मानव व उसके आविष्कार 792
भूगोल 247
जीव - जन्तु 300
जब हम उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता की बात करते हैं, तो आमतौर पर त्योहार, भाषा और ऐतिहासिक स्थल ही याद आते हैं। लेकिन इन सबके बीच राज्य के दूरस्थ और पर्वतीय इलाकों में एक पूरी दुनिया बसती है – आदिवासी समुदायों की दुनिया। ये समुदाय सदियों से प्रकृति के साथ समरस जीवन जीते आए हैं, मगर आधुनिक विकास की दौड़ में सबसे अधिक उपेक्षित भी यही रहे हैं। भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आदिवासी आबादी वाला देश है, और इसमें उत्तर प्रदेश का योगदान कम नहीं है। यहाँ की बैगा, अगरिया, भोक्सा और कोल जैसी जनजातियाँ न केवल ऐतिहासिक महत्व रखती हैं, बल्कि आज भी समाज से जुड़ी कई अनकही समस्याओं को अपने भीतर समेटे हुए हैं। सवाल सिर्फ सांस्कृतिक पहचान का नहीं है, बल्कि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं और नीति-निर्माण से जुड़ी गंभीर खामियों का भी है।
इस लेख में हम उत्तर प्रदेश के आदिवासी समाज की विविधता और जमीनी हकीकत को पाँच प्रमुख पहलुओं के माध्यम से जानने का प्रयास करेंगे। हम पढ़ेंगे कि इन समुदायों की जनसंख्या और भौगोलिक स्थिति क्या है, फिर देखेंगे बैगा जैसी जनजातियों की सांस्कृतिक विशेषताओं को। हम चर्चा करेंगे भोक्सा, कोल और अगरिया जैसे विशिष्ट समुदायों की सामाजिक पहचान पर। इसके बाद समझेंगे कि ये समुदाय किन बुनियादी सुविधाओं से आज भी वंचित हैं। और अंत में, हम विश्लेषण करेंगे उन सरकारी नीतियों और कानूनों का, जो आदिवासियों के कल्याण के लिए बनाए गए हैं लेकिन जिनके क्रियान्वयन में कई सीमाएँ हैं।
भारत में आदिवासी समुदायों की विविधता और जनसंख्या स्थिति
भारत में आदिवासी समुदाय लगभग 8.6 प्रतिशत आबादी के साथ समाज का एक अहम हिस्सा हैं। इनकी उपस्थिति मुख्यतः पूर्वोत्तर, मध्य और पूर्वी भारत में देखी जाती है, मगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी इनकी विशिष्ट जनजातियाँ विद्यमान हैं। यहाँ कोल, बैगा, अगरिया और भोक्सा जैसी जनजातियाँ निवास करती हैं। ये समुदाय आमतौर पर पहाड़ी, जंगलों या शुष्क क्षेत्रों में रहते हैं, जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक मुख्यधारा से दूरी बनी रहती है। आदिवासी समाज की खास बात यह है कि ये अपेक्षाकृत आत्मनिर्भर होते हैं, और इनकी पारंपरिक अर्थव्यवस्था प्रकृति पर आधारित होती है। इनकी अपनी भाषाएँ, देवताओं की पूजा-पद्धति, और जीवनशैली है जो मुख्यधारा की संस्कृति से अलग है। उत्तर प्रदेश में कोल सबसे बड़ी जनजाति है, जबकि बैगा और अगरिया जैसे समुदाय विशेष पारंपरिक कार्यों के लिए जाने जाते हैं। भारत के विकास की बात करें तो दुर्भाग्यवश इनका जीवन स्तर अब भी निचले पायदान पर है। नीति-निर्माण में इनकी भागीदारी सीमित रही है, जिससे असमानता और गहराई है।
इनकी जनसंख्या भले ही क्षेत्रीय स्तर पर कम प्रतीत हो, लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से ये समुदाय अत्यंत समृद्ध हैं। इनके लोकगीत, चित्रकला और पारंपरिक ज्ञान में हजारों वर्षों की सभ्यता की छवि झलकती है। साथ ही, ये समुदाय जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण जैसे मुद्दों पर भी महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
बैगा जनजाति: परंपरा, जीवनशैली और सांस्कृतिक प्रतीक
बैगा जनजाति उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ में पाई जाती है, और यह जनजाति अपनी गहरी सांस्कृतिक पहचान के लिए जानी जाती है। इनका जीवन अर्ध-खानाबदोश प्रकृति का होता है, जहाँ वे स्थान बदलकर खेती और जंगल संसाधनों पर निर्भर जीवन बिताते हैं। खास बात यह है कि बैगाओं की महिलाएं पूरे शरीर पर विविध प्रकार के टैटू गुदवाती हैं, जो इनके धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों से जुड़े होते हैं। टैटू बनाने वाले कलाकारों को "गोधरिन" कहा जाता है। बैगाओं द्वारा अपनाई गई शिफ्टिंग खेती एक पारंपरिक कृषि पद्धति है, जिसमें वे एक स्थान पर सीमित समय के लिए खेती कर भूमि को पुनर्जीवित होने देते हैं। इनकी भाषा गोंडी और मराठी जैसी स्थानीय भाषाओं से प्रभावित है, और संवाद के लिए वे हिंदी का भी प्रयोग करते हैं। इनकी धार्मिक मान्यताएँ प्रकृति पूजा पर आधारित हैं, और इनका सांस्कृतिक जीवन जंगल और मिट्टी से गहराई से जुड़ा होता है। इनकी सामाजिक संरचना में स्त्रियों की भूमिका विशेष रूप से सशक्त और रचनात्मक होती है।
बैगा जनजाति की चिकित्सा पद्धति भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसमें वे औषधीय पौधों का उपयोग कर विभिन्न बीमारियों का इलाज करते हैं। इनका पारंपरिक ज्ञान पीढ़ियों से मौखिक रूप से हस्तांतरित होता रहा है, जो अब विलुप्ति के खतरे में है। आवश्यकता है कि इस सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित कर आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाया जाए।
भोक्सा, कोल और अगरिया जनजातियाँ: उत्तर प्रदेश की विशिष्ट जनजातीय पहचान
भोक्सा जनजाति मुख्यतः उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में निवास करती है और 'बुक्सा' भाषा बोलती है। यह समुदाय देवी शाकुम्बरी की पूजा करता है और पर्वत-गाइड जैसे कार्यों से जीविकोपार्जन करता है। ये लोग सामाजिक रूप से अन्य समुदायों से अलग विशिष्ट बस्तियों में रहते हैं, जिससे इनकी सांस्कृतिक विशिष्टता बरकरार रहती है। दूसरी ओर कोल जनजाति उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति है, जो मुख्य रूप से बुंदेलखंड क्षेत्र के मिर्जापुर, इलाहाबाद और वाराणसी में पाई जाती है। ये लोग जंगल से लकड़ी और पत्तियाँ इकट्ठा कर स्थानीय बाजारों में बेचते हैं। इनकी भाषा बुंदेलखंडी है और हिंदू धर्म के अनुयायी होते हुए भी इनका धार्मिक अभ्यास विशिष्ट होता है। अगरिया जनजाति विशेष रूप से लोहे के खनन के लिए जानी जाती है और ब्रिटिश शासन काल में मिर्जापुर में इनकी भूमिका उल्लेखनीय रही है। इनका धर्म बाह्य रूप से हिंदू है, लेकिन पूजा-पद्धति मुख्यधारा से भिन्न है। ये तीनों जनजातियाँ अपने-अपने तरीके से उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
इनकी आजीविका प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित होते हुए भी अस्थिर होती जा रही है, क्योंकि जंगलों में प्रवेश और उपयोग पर कई कानूनी बंदिशें लग चुकी हैं। साथ ही, ये जनजातियाँ आधुनिक शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरी के अवसरों से अभी भी बहुत दूर हैं। यदि इन समुदायों के विशेष कौशल को पहचान कर उन्हें स्थानीय अर्थव्यवस्था से जोड़ा जाए, तो यह राज्य के लिए भी लाभकारी हो सकता है।
जनजातीय विकास की चुनौतियाँ और बुनियादी सुविधाओं से वंचितता
आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी आदिवासी समुदाय देश के विकास पिरामिड के सबसे निचले पायदान पर हैं। जनजातीय विकास रिपोर्ट 2022 के अनुसार, ये समुदाय स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और पीने के पानी जैसी बुनियादी सेवाओं से सबसे अधिक वंचित हैं। इनके निवास क्षेत्र सामान्यतः पहाड़ी, जंगल या शुष्क होते हैं जहाँ आधारभूत ढांचे का निर्माण कठिन होता है। ऐसे में सरकारी योजनाएँ इन तक नहीं पहुँच पातीं, या फिर उनकी पहुँच बहुत सीमित रहती है। आदिवासी समुदायों का स्वभावतः बाहरी दुनिया से अलगाव और आत्मनिर्भर जीवनशैली भी इस दूरी को और बढ़ा देती है। कई बार इन्हें सरकारी दस्तावेजों और योजनाओं की जानकारी ही नहीं होती। इसके अलावा, इन क्षेत्रों में शिक्षा और स्वच्छता को लेकर सामाजिक जागरूकता भी बहुत कम है। महिलाओं और बच्चों की स्थिति विशेष रूप से दयनीय होती है, और कुपोषण की समस्या गंभीर रूप ले चुकी है। इन सब बातों से यह स्पष्ट होता है कि सिर्फ योजनाएँ बनाना पर्याप्त नहीं, बल्कि इन तक सही क्रियान्वयन पहुँचाना ज़रूरी है।
इसके अलावा, कई बार जातिगत भेदभाव और स्थानीय प्रशासनिक उदासीनता इन समुदायों को योजनाओं से वंचित रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। स्कूलों की दूरी, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और रोजगार का अभाव इन्हें पलायन की ओर भी धकेलता है। ये चुनौतियाँ केवल नीति का नहीं, बल्कि पूरे सामाजिक दृष्टिकोण का पुनरावलोकन मांगती हैं।
नीति, कानून और जन-उन्मुख पहल की सीमाएँ
1980 में जब वन संरक्षण अधिनियम लागू हुआ, तो इसका उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा करना था, लेकिन इसके चलते आदिवासी समुदायों और वनों के बीच का पारंपरिक संबंध कमजोर पड़ गया। वे जो कभी जंगल के रक्षक थे, अब उससे दूर कर दिए गए। 1988 की राष्ट्रीय वन नीति ने पहली बार आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों और उनकी घरेलू ज़रूरतों को मान्यता दी, मगर इसका क्रियान्वयन ज़मीनी स्तर पर कमजोर रहा। इसके बाद भी जो योजनाएँ बनीं – जैसे वन अधिकार अधिनियम, पंचायती राज (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम – वे भी उचित जनसुनवाई और पारदर्शिता के बिना सीमित हो गईं। आदिवासी क्षेत्रों में प्रशासन की उपस्थिति अक्सर सतही होती है, जिससे भ्रष्टाचार और शोषण की संभावना बढ़ जाती है। नीति-निर्माताओं और नेताओं को चाहिए कि वे इन समुदायों से संवाद स्थापित करें, उनकी आवश्यकताओं को समझें और नीतियों को इनकी भाषा और जीवनशैली के अनुरूप ढालें। जब तक आदिवासियों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी नहीं दी जाती, तब तक सशक्तिकरण एक सपना ही रहेगा।
इसके साथ ही, स्थानीय नेतृत्व और युवा आदिवासियों को प्रशासनिक प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदारी देने की आवश्यकता है। सिर्फ बाहरी योजनाएँ नहीं, बल्कि समुदाय आधारित योजनाओं का निर्माण ही स्थायी बदलाव ला सकता है। डिजिटल साक्षरता, स्थानीय शिक्षा और पारंपरिक ज्ञान को साथ लेकर चलने से ही नीति में जन-संवेदनशीलता आएगी।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/44fvp25m
A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.
B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.
C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.
D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.