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रामपुरवासियों को जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ!
जब भाद्रपद की अंधियारी रात धीरे-धीरे उतरती है, तब रामपुर की फिज़ा में कुछ खास घुलने लगता है, मंदिरों में दीप जलते हैं, रंग-बिरंगी झाँकियाँ सजती हैं, और हर गली से शंखनाद की पवित्र ध्वनि सुनाई देती है। श्रद्धालु व्रत रखकर, कीर्तन करते हुए, उस दिव्य क्षण की प्रतीक्षा करते हैं जब देवकीनंदन का जन्म हुआ था। कृष्ण जन्माष्टमी रामपुर में केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है, ऐसा अनुभव जो पीढ़ियों से शहर की रगों में बहता आया है। यह रात केवल किसी अवतार की स्मृति नहीं है, यह संगीत, भक्ति, शास्त्र, नृत्य और लोक परंपरा की ऐसी संगम बेला है जहाँ रामपुर की सांस्कृतिक आत्मा, भारत की आध्यात्मिक विरासत से गले मिलती है। और जब आधी रात को घंटियों के बीच "नंद के आनंद भयो" गूंजता है, तो लगता है जैसे हर घर, हर दिल श्रीकृष्ण के स्वागत में खुल गया हो।
इस लेख में हम श्रीकृष्ण और जन्माष्टमी से जुड़ी पाँच महत्वपूर्ण बातों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि जन्माष्टमी दो दिनों तक क्यों मनाई जाती है और देश के अलग-अलग क्षेत्रों में इसकी परंपराएँ कैसी हैं। फिर, हम देखेंगे कि शास्त्रों में कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है या परम ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। इसके बाद, हम पढ़ेंगे कि भगवद्गीता में कृष्ण ने स्वयं को किस रूप में प्रकट किया और उनकी विभूतियों का क्या रहस्य है। चौथे भाग में हम चर्चा करेंगे कि भारतीय नृत्य, साहित्य और ललित कलाओं पर कृष्ण का प्रभाव कैसा रहा है। अंत में, हम जानेंगे कि किस प्रकार कृष्ण भक्ति आज भारत की सीमाओं से निकलकर विश्वभर में फैली है और कैसे यह वैश्विक स्तर पर आध्यात्मिक चेतना का माध्यम बन गई है।
कृष्ण जन्माष्टमी: विविधता और व्यापकता
कृष्ण जन्माष्टमी भारत में दो दिनों तक मनाई जाती है - एक दिन गोकुलाष्टमी के रूप में, जो वैष्णव परंपरा से जुड़ी है, और दूसरा दिन कालाष्टमी, जिसे स्मार्त संप्रदाय के अनुयायी मानते हैं। यह दोहरी तिथि केवल पंचांग की तकनीकी बात नहीं, बल्कि यह दर्शाती है कि श्रीकृष्ण किसी एक मत, पंथ या भूभाग के देवता नहीं, बल्कि भारतवर्ष की सांस्कृतिक चेतना के केन्द्र में हैं। वे एक ही समय में लोकदेवता भी हैं और दार्शनिक सत्ता भी। भारत के अलग-अलग राज्यों में जन्माष्टमी की झलक उनके अपने ढंग से दिखती है, पर भाव हर जगह एक-सा है - प्रेम और भक्ति का। महाराष्ट्र में ऊँची बँधी मटकी को तोड़ने की होड़ - दही हांडी - न केवल उत्साह का प्रतीक है, बल्कि यह कृष्ण के बालपन की लीला को जीवंत करती है। गुजरात में रास-गर्वा के आयोजन होते हैं, जहाँ कृष्ण और गोपियों की रासलीला का सांस्कृतिक पुनःस्मरण होता है। तमिलनाडु में घर-घर की देहली पर छोटे-छोटे बालचरण बनाए जाते हैं, जैसे स्वयं बालकृष्ण घर में पधार रहे हों। मणिपुर में मणिपुरी नृत्य के माध्यम से रासलीला की प्रस्तुति इतनी सूक्ष्म और कलात्मक होती है कि उसमें दर्शक कृष्ण-भाव में डूब जाते हैं। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक, श्रीकृष्ण हर आँगन, हर भाषा, हर संस्कृति में एक नई छवि के साथ प्रकट होते हैं, पर अंततः वे हमारे अंतःकरण में एक ही रूप में बसते हैं।
श्रीकृष्ण: एक अवतार या सर्वोच्च सत्ता?
वैदिक और पुराण ग्रंथों में श्रीकृष्ण को विष्णु के आठवें अवतार के रूप में स्थापित किया गया है, परंतु भक्ति परंपराओं की गहराई में जाते ही यह धारणा और अधिक जटिल और भावपूर्ण हो जाती है। गौड़ीय वैष्णव परंपरा में श्रीकृष्ण को स्वयं भगवान कहा गया है — वे केवल विष्णु के अवतार नहीं, बल्कि विष्णु भी उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं। यह अवधारणा केवल दर्शन नहीं, बल्कि उस प्रेम-भक्ति का चरम है जिसमें भक्त अपने आराध्य को सर्वोच्च मानता है, अपने भावों की अंतिम आश्रय-स्थली। वल्लभ संप्रदाय कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम स्वीकार करता है, वह जो खेलते हैं, मुस्कुराते हैं, माखन चुराते हैं, पर जिनका ज्ञान और तेज अनंत है। निम्बार्क परंपरा द्वैत और अद्वैत के मध्य एक संतुलन बनाते हुए श्रीकृष्ण को ही सर्वोच्च साकार सत्ता के रूप में देखती है। स्वामीनारायण परंपरा भी कृष्ण को सर्वशक्तिमान ईश्वर की ही एक दिव्य अभिव्यक्ति मानती है। इन सभी परंपराओं में एक बात समान है, श्रीकृष्ण न केवल ईश्वर हैं, वे वहसंबंध भी हैं जो भक्त और भगवान के बीच एक अंतहीन प्रेम की डोरी से बँधता है।
कृष्ण की विभूतियाँ और भगवद्गीता की व्याख्या
भगवद्गीता के विभूति योग में श्रीकृष्ण ने अपने वास्तविक स्वरूप का, अपनी व्यापकता का, और अपनी अनंत सत्ता का परिचय दिया। वे कहते हैं - “मैं ही अग्नि में तेज हूँ, मैं ही नदियों में गंगा हूँ, और मैं ही आत्मा में आत्मा हूँ।” यह कोई मिथकीय कथन नहीं, बल्कि यह जीवन के हर श्रेष्ठ रूप में ईश्वर की उपस्थिति को पहचानने की सीख है। गीता में श्रीकृष्ण विष्णु के अवतारों की चर्चा करते हैं, पर वे स्वयं को केवल उन अवतारों में सीमित नहीं करते। वे अर्जुन को विश्वरूप का दर्शन कराते हैं - वह स्वरूप जो ब्रह्मांड के प्रत्येक अंश में विद्यमान है। जब अर्जुन को उनका चतुर्भुज रूप दिखाई देता है, तब हमें समझ आता है कि श्रीकृष्ण एक साथ साकार भी हैं और निराकार भी - वे बालक भी हैं, मित्र भी हैं, और परम ब्रह्म भी।
श्रीकृष्ण का सांस्कृतिक और कलात्मक प्रभाव
श्रीकृष्ण केवल धार्मिक ग्रंथों के पात्र नहीं हैं, वे भारतीय कलाओं की आत्मा हैं। उनका जीवन न केवल पढ़ा गया, बल्कि गाया, नाचा और चित्रित भी किया गया। कृष्ण लीला की परंपरा ने उत्तर भारत में एक ऐसा सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा किया, जो रामलीला की तरह ही जन-जन की जुबान पर चढ़ गया। भरतनाट्यम, कथकली, ओडिसी और मणिपुरी जैसे शास्त्रीय नृत्य रूपों में श्रीकृष्ण की रासलीला, कंस वध, गोवर्धन लीला जैसे प्रसंगों को अनगिनत बार मंचित किया गया है। जयदेव द्वारा रचित गीत गोविंद में राधा-कृष्ण के प्रेम का जो भाव-सागर बहाया गया है, वह आज भी भक्तों की आँखों को सजल कर देता है। भागवत पुराण में कृष्ण की बाल लीलाओं से लेकर रास और कुरुक्षेत्र तक की घटनाएँ इतनी संवेदनशीलता से वर्णित हैं कि वे केवल आख्यान नहीं, आत्मिक अनुभव बन जाती हैं। महाभारत में कृष्ण नीति, नीति के पारमार्थिक पक्ष, और धर्म के मर्म को समझाने वाले वह मित्र हैं - जो युद्ध के बीचोंबीच भी जीवन का मार्गदर्शन करते हैं।
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