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हरिद्वार सबसे पहले 1886 में लक्सर के रास्ते रेलवे से जुड़ा था। यह जुड़ाव एक ब्रांच लाइन के माध्यम से हुआ, जब अवध और रुहेलखंड रेलवे लाइन को रुड़की होते हुए सहारनपुर तक बढ़ाया गया था। बाद में, 1900 में इसी लाइन का विस्तार देहरादून तक कर दिया गया। हरिद्वार शहर में स्थित हरिद्वार रेलवे स्टेशन, भारतीय रेल के उत्तर रेलवे क्षेत्र के नियंत्रण में आता है। यहाँ से भारत के कई बड़े शहरों के लिए सीधी ट्रेनें मिलती हैं। इन शहरों में कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, तिरुवनंतपुरम, चेन्नई, गोरखपुर, मुजफ्फरपुर, मडगांव, जयपुर, जोधपुर, अहमदाबाद, पटना, गया, वाराणसी, इलाहाबाद, बरेली, लखनऊ और पुरी शामिल हैं। साथ ही, मध्य भारत के प्रमुख शहर जैसे भोपाल, उज्जैन, इंदौर, खंडवा और इटारसी भी सीधे जुड़े हुए हैं।
हरिद्वार जिले में स्थित लक्सर जंक्शन उत्तराखंड का सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन भी है। इस स्टेशन पर छह प्लेटफॉर्म हैं और यह एक महत्वपूर्ण इंटरचेंज स्टेशन है, जहाँ यात्री गाड़ियाँ बदलते हैं। लक्सर जंक्शन 1866 में खोला गया था। यह दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और लखनऊ जैसे महत्वपूर्ण शहरों को जोड़ता है। यहाँ यात्री और मालगाड़ियाँ, दोनों तरह की रेलगाड़ियाँ चलती हैं। इस वजह से यह परिवहन का एक प्रमुख केंद्र बन गया है। लक्सर जंक्शन की स्थापना 1866 में तब हुई थी, जब अवध-रुहेलखंड रेलवे लाइन का विस्तार सहारनपुर तक किया गया था। 1886 में, इसे एक ब्रांच लाइन के द्वारा हरिद्वार से जोड़ा गया। फिर 1900 में, इस लाइन को देहरादून तक बढ़ाया गया, जिससे इस क्षेत्र की कनेक्टिविटी यानी जुड़ाव और बेहतर हो गया।
आम तौर पर माना जाता है कि भारत में रेल यात्रा 16 अप्रैल 1853 को शुरू हुई। उस दिन पहली यात्री ट्रेन मुंबई से ठाणे के बीच दौड़ी थी। लेकिन, बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत में रेल का सफ़र इससे भी पहले शुरू हो चुका था!
जी हाँ, 22 दिसंबर 1851 को ही भारत की धरती पर पहली बार ट्रेन चली थी। यह ऐतिहासिक सफ़र रुड़की से पिरान कलियर के बीच तय किया गया, जो करीब पाँच किलोमीटर लंबा था। अंग्रेजों ने भारत की सबसे पहली ट्रेन इसी रास्ते पर चलाई थी। हालाँकि, आज न तो वहाँ रेल चलती है और न ही वे पटरियाँ बची हैं। अब उस रास्ते पर गाड़ियाँ दौड़ती हैं।
आज रुड़की शहर अपनी आईआईटी और पिरान कलियर दरगाह के लिए मशहूर है। मगर कम ही लोग जानते हैं कि भारत की सबसे पहली रेलगाड़ी यहीं चली थी। 22 दिसंबर 1851 को दो डिब्बों वाली यह मालगाड़ी रुड़की से पिरान कलियर के लिए रवाना हुई थी।
इसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। उन्नीसवीं सदी में अंग्रेज़ हरिद्वार से गंगा नहर बनाने का महत्वपूर्ण काम कर रहे थे। नहर की खुदाई के दौरान निकली मिट्टी को हटाना एक बड़ी चुनौती बन गया था। पहले मजदूरों और फिर घोड़ों से मिट्टी भरे डिब्बे खिंचवाने की कोशिश की गई, लेकिन इन तरीकों से काम बहुत धीमा चल रहा था।
काम में तेज़ी लाने के लिए इंग्लैंड से खास तौर पर एक माल ढोने वाला इंजन और डिब्बे मँगवाए गए। रुड़की से पिरान कलियर तक रेल की पटरी बिछाई गई। फिर 22 दिसंबर 1851 को, छह पहियों वाला यह शक्तिशाली इंजन दो मालगाड़ी के डिब्बों को लेकर पहली बार इस पटरी पर दौड़ा। यह इंजन 200 टन वज़न खींच सकता था और इसकी रफ़्तार चार मील प्रति घंटा थी।
यह भारत के लिए एक अनोखी घटना थी और इसे लेकर पूरे देश में काफी उत्साह था। इसे देखने के लिए दूर-दूर से हज़ारों लोग उमड़ पड़े थे। उस ऐतिहासिक ट्रेन का इंजन आज भी रुड़की रेलवे स्टेशन पर शान से खड़ा है, उस पहले सफ़र की याद दिलाता हुआ।
गंगा नहर का काम पूरा होने के बाद इस रेल लाइन का इस्तेमाल बंद हो गया। समय के साथ पटरियाँ भी वहाँ से हट गईं। आज उस रास्ते पर एक सड़क है, जिसे स्थानीय लोग 'नहर पटरी' कहते हैं।
कुछ समय पहले हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा नहर की मरम्मत के लिए उसे कुछ समय के लिए बंद किया गया है। इस वजह से स्थानीय लोगों और पर्यटकों को अतीत की यादें ताज़ा करने का एक अनोखा मौका मिला। नहर का पानी कम होने पर, हरिद्वार रेलवे स्टेशन से करीब 3 किलोमीटर दूर, गंगा के तल में पुरानी रेलवे ट्रैक (पटरियाँ) दिखाई दी हैं। इससे यह रोचक सवाल उठा है कि दशकों पहले, जब यह नहर नहीं बनी थी, क्या उस जगह पर ट्रेनें चला करती थीं? अधिकारी भी पानी हटने पर इन पुरानी पटरियों को देखकर आश्चर्यचकित रह गए।
दरअसल, उत्तर प्रदेश का सिंचाई विभाग हर साल रखरखाव के लिए गंगा नहर को बंद करता है। इससे हरिद्वार में गंगा का जलस्तर अस्थायी रूप से काफी नीचे चला जाता है। इस बार पानी बेहद कम होने पर ये पुरानी पटरियाँ सामने आईं, जिन्हें देखकर लोगों की उत्सुकता बढ़ गई है। इन पटरियों के इस्तेमाल को लेकर कई तरह की बातें हो रही हैं और ऑनलाइन भी कई अनुमान लगाए जा रहे हैं। वहीं, एक पुराने स्थानीय निवासी आदेश त्यागी का कहना है कि इन ट्रैकों का इस्तेमाल नहर निर्माण के समय (लगभग 1850 के आसपास) होता था। उनका मानना है कि इन पर हाथगाड़ियों द्वारा निर्माण सामग्री, जैसे मिट्टी और पत्थर, ढोए जाते थे। उन्होंने यह भी अनुमान लगाया कि भीमगोड़ा बैराज से डैम कोठी तक बांध और तटबंध बनने के बाद शायद अंग्रेज़ अधिकारियों ने निरीक्षण के लिए इन पटरियों का उपयोग किया होगा। इतिहास के जानकार प्रोफेसर डॉ. संजय माहेश्वरी भी इस विचार से सहमत हैं। उनके अनुसार यह नहर तत्कालीन ब्रिटिश प्रशासक लॉर्ड डलहौज़ी की एक बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना थी। इसे प्रसिद्ध इंजीनियर थॉमस कॉटली के निर्देशन में बनाया गया था। अंग्रेज़ों के ज़माने के ऐसे कई बड़े निर्माण कार्य आज भी आधुनिक भारत में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/yyjuoc2y
https://tinyurl.com/ya8ba54n
https://tinyurl.com/28etfq8r
https://tinyurl.com/2blwsbtr