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क्या आप कुंभ मेले या किसी भी अन्य हिंदू धार्मिक पर्व के दौरान हरिद्वार के घाटों पर गए हैं? इस दौरान पवित्र गंगा नदी के किनारे ढोल, हुड़के, और दमाऊ जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों और लोकगीतों की धुनों के बीच देवताओं की जागृति का दृश्य आम होता है! उत्तराखंड में वाद्य यंत्रों और लोकगीतों की धुनों से देवताओं के आह्वान को “जागर” परंपरा के रूप में जाना जाता है! राज्य में यह परंपरा कई सदियों से चली आ रही है!
जागर, हिन्दू धर्म की एक प्राचीन और अनुष्ठानिक परंपरा है, जो उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों, यानी गढ़वाल और कुमाऊं दोनों क्षेत्रों में प्रचलित है। इसके अलावा, यह प्रथा नेपाल के डोटी क्षेत्र में भी देखने को मिलती है। जागर एक ऐसा अनुष्ठान है, जिसमें देवी-देवताओं को उनकी सुप्त अवस्था से जगाया जाता है। उनसे अपनी मनोकामना पूरी करने या समस्याओं का समाधान करने की प्रार्थना की जाती है। यह अनुष्ठान दैवीय न्याय की अवधारणा से भी जुड़ा है। कई बार किसी अपराध के लिए प्रायश्चित करने या किसी अन्याय के विरुद्ध देवताओं से न्याय माँगने के लिए भी जागर लगाईं जाती है। 'जागर' शब्द संस्कृत के 'जग' मूल से बना है, जिसका अर्थ 'जगाना' होता है। जागर का ज़िक्र सामवेद में भी मिलता है। यह 1500 से 1000 ईसा पूर्व के बीच लिखा गया धुनों और मंत्रों का एक प्राचीन वैदिक संस्कृत ग्रंथ है।
पहाड़ों में प्रचलित वाद्य यंत्रों और पारंपरिक संगीत के ज़रिए देवताओं का आह्वान किया जाता है। इस अनुष्ठान का नेतृत्व करने वाले कथावाचक को 'जगरिया' कहते हैं, जो पारंपरिक रूप से शिल्पकार समुदाय से होते हैं। उनके साथ 'हुरकिया' (हुड़का वादक) और 'बाजगी' (ढोल-दमाऊ वादक) जैसे संगीतकार होते हैं। मान्यता है कि ढोल की विशेष तालें (बोल) और मंत्र मिलकर एक ऐसा असर पैदा करते हैं जिससे व्यक्ति पर देवी-देवता अवतरित होते हैं। 'जगरिया' देवताओं की गाथाएँ गाता है, जिनमें महाभारत और रामायण जैसे महान ग्रंथों के भी अंश होते हैं! जिस देवता को जगाया जा रहा हो, उनके साहसिक कार्यों और लीलाओं का वर्णन किया जाता है।
जागर किसी समुदाय की सामूहिक चेतना और विरासत को दर्शाता है। मंत्रों और ढोल की ध्वनि मिलकर लोगों में अलग-अलग भाव जगाते हैं। यह एक ऐसा अनुष्ठान है जहाँ आस्था, संस्कृति और संगीत आपस में घुलमिल जाते हैं और कुमाऊं तथा गढ़वाल की पहचान को दुनिया के सामने व्यक्त करते हैं।
समय के साथ विकसित होकर, जागर गायन ने एक ऐसी
कला का रूप ले लिया है, जिसे लोग बहुत पसंद करते हैं। इसके जानकारों को तो 'जीवित विरासत' (living heritage) तक का सम्मान दिया जाता है। ये परंपराएं लोक हिंदू धर्म का हिस्सा हैं, जो मुख्यधारा के हिंदू धर्म के साथ-साथ पूरे हिमालयी क्षेत्र में प्रचलित है। हिमालय का कठिन जीवन और प्रकृति के बदलते मिज़ाज का लगातार सामना करने के कारण, लोगों में पारलौकिक घटनाओं (paranormal phenomena) और कई लोक-देवताओं के प्रति एक गहरी आस्था पैदा हुई, जिन्हें बहुत श्रद्धा और सम्मान दिया जाता है। हर गाँव के अपने एक रक्षक देवता होते थे। इन देवताओं को 'भूमिया' या 'क्षेत्रपाल' कहा जाता था, जो गाँव की सीमाओं की रक्षा करते थे।
उदाहरण के लिए, उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में 'देवलसमेत' नाम के एक देवता हैं। वे 22 गाँवों के क्षेत्रपाल हैं। हर परिवार के अपने कुलदेवता या कुलदेवी होते हैं। इसके साथ ही, कई ऐसे कृपालु देवी-देवता भी थे जो लोगों को आशीर्वाद देते थे, तो वहीं कुछ दुष्ट आत्माएं भी थीं जो लोगों को कष्ट पहुँचा सकती थीं। जागर की परंपराएं आज भी इन क्षेत्रों में मुख्यधारा के हिंदू धर्म के साथ-साथ मजबूती से कायम हैं। जागर अनुष्ठान मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं। पहला है 'देव जागर', जिसमें किसी देवता का आह्वान किया जाता है! वे देवता माध्यम (medium) के शरीर में प्रवेश करते हैं। वह माध्यम एक पुरुष या स्त्री कोई भी हो सकता है! दूसरा है 'भूत जागर', जिसमें किसी मृत व्यक्ति की आत्मा को माध्यम के शरीर में बुलाया जाता है। इसके अलावा 'मसान पूजा' जैसे कुछ और रूप भी हैं, जो अब कम प्रचलित हैं।
आज जागर को स्थानीय विरासत का एक ऐसा सांस्कृतिक और संगीतमय हिस्सा माना जाता है, जिसे सहेजने की ज़रूरत है। आज यह अनुष्ठान नई दिल्ली जैसे शहरों में प्रचलित हो रहे हैं। चूंकि बहुत से कुमाऊंनी और गढ़वाली लोग दिल्ली में रहते हैं और हर साल जागर के लिए अपने गाँव नहीं जा पाते, इसलिए उन्होंने अब दिल्ली में ही जागर का आयोजन शुरू कर दिया है। स्टीफन फ़ियोल (Stephen Fiol) अपनी किताब "रिकास्टिंग फोक इन द हिमालयाज़ (Recasting Folk in the Himalayas)" में जागर की प्रासंगिकता का वर्णन करते हुए कहते हैं, "यह घर से दूर रहने वाले कई प्रवासियों के लिए क्षेत्रीय अपनेपन और भक्ति की अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है।"
जागर का समापन "प्रसाद" नामक सामूहिक भोज के साथ होता है। यह साझा भोजन, जागर में शामिल हुए सभी लोगों पर देवी-देवताओं के आशीर्वाद का प्रतीक है। साथ ही, यह एकता और आभार की भावना भी जगाता है। इस अवसर पर सभी उपस्थित लोगों को रोट (मीठी रोटी) और अरसे (चावल के मीठे पकौड़े) जैसे पारंपरिक पकवान परोसे जाते हैं।
गढ़वाल में, चंबा गाँव अपने जागरों के लिए खास तौर पर मशहूर है। यहाँ चैत्र और शारदीय नवरात्रि त्यौहारों के दौरान विशेष रूप से जागरों का आयोजन होता है। वहीं, कुमाऊँ में नैनीताल (खासकर बसंत पंचमी के त्यौहार पर) जागरों के लिए एक और महत्वपूर्ण जगह है। इस दौरान, स्थानीय मंदिर और खुले मैदान पारंपरिक प्रस्तुतियों और रीति-रिवाजों से सजीव हो उठते हैं। कुमाऊँ में ही अल्मोड़ा और बागेश्वर भी अपने जागरों के लिए जाने जाते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/24wd4jdq
https://tinyurl.com/29u3x68n
https://tinyurl.com/24vx8yv4
https://tinyurl.com/24ntylv2
https://tinyurl.com/253vhk7s