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उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों में ऐपण कला गहराई से बसी हुई है। यह एक अनुष्ठानिक और पारंपरिक लोक कला है। इसका हिंदू पौराणिक कथाओं और रीति-रिवाजों से गहरा नाता रहा है। परंपरागत रूप से, इस सुंदर कला को महिलाएं बनाती हैं। इसका ज्ञान और तकनीक माँओं से बेटियों तक, पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता आया है। माना जाता है कि ऐपण कला का इतिहास चंद राजवंश से जुड़ा है, जिनका खुद का इतिहास लगभग आठवीं शताब्दी पुराना है। कुमाऊं में इस राजवंश के शासनकाल में यह प्रथा खूब फली-फूली। अल्मोड़ा में जन्मी ऐपण कला, इसे बनाने वाले समुदायों के पलायन के साथ राज्य के कई हिस्सों में फैल गई।
ऐपण को पारंपरिक रूप से गेरू (लाल मिट्टी) से तैयार चिकनी सतह पर बनाया जाता है। इससे एक केसरिया-लाल आधार तैयार होता है। इस लाल सतह पर, पानी में पिसे पके चावल से बने सफेद लेप, जिसे बिस्वार कहते हैं, से सुंदर डिज़ाइन उकेरे जाते हैं। महिला कलाकार आमतौर पर अपनी तर्जनी, अनामिका और मध्यमा उंगलियों का उपयोग करके ये आकृतियाँ बनाती हैं। ऐपण बनाने की शुरुआत और अंत केंद्र में रखे एक बिंदु से होती है। यह बिंदु ब्रह्मांड के केंद्र का प्रतीक है, जिससे बाकी सभी रेखाएं और पैटर्न उभरते हैं, जो अपने चारों ओर दुनिया के बदलते स्वरूप को दर्शाते हैं।
यह कला घरों और पूजा स्थलों के भीतर विशेष स्थानों पर बनाई जाती है। इसे फर्श, दीवारों, वॉलपेपर और कपड़ों पर भी देखा जा सकता है। ऐपण के डिज़ाइन पूजा क्षेत्रों, घरों के प्रवेश द्वारों, आंगनों और रसोई की दीवारों को सुशोभित करते हैं। ऐतिहासिक रूप से, इसका उपयोग धार्मिक समारोहों, विशेष त्योहारों और शादी-विवाह के अवसरों पर कामेरा (सफेद मिट्टी) और गेरू (लाल मिट्टी) से आंगन, देहरी और दीवारों को सजाने के लिए किया जाता था। ऐपण का बहुत अधिक धार्मिक महत्व माना जाता है। इसे सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक भी समझा जाता है। कुमाऊंनी लोगों का मानना है कि ऐपण दैवीय शक्ति का आह्वान करता है, सौभाग्य लाता है और बुरी नज़र से बचाता है। ऐपण में खींची गई सीधी रेखाएं भी उस विशेष अनुष्ठान या त्योहार का प्रतीक होती हैं जिसके लिए वे बनाई जाती हैं। भारत के अन्य हिस्सों में ऐपण को अल्पना और अर्पण के नाम से भी जाना जाता है।
ऐपण में उपयोग किए जाने वाले रूपांकन और डिज़ाइन समुदाय की धार्मिक मान्यताओं और उनके आसपास के प्राकृतिक संसाधनों से प्रेरित होते हैं। इनमें आमतौर पर शंख, लताएं, फूलों की आकृतियाँ, स्वास्तिक, देवी के पदचिन्ह, ज्यामितीय डिज़ाइन और देवी-देवताओं की आकृतियाँ शामिल होती हैं। अवसर और सतह के आधार पर विभिन्न प्रकार के ऐपण डिज़ाइन बनाए जाते हैं। इनमें फर्श पर की जाने वाली चित्रकारी, दीवार पर की जाने वाली चित्रकारी और लकड़ी की चौकियों (पूजा में प्रयुक्त छोटी सीटें) पर बने डिज़ाइन शामिल हैं।
नाता और लक्ष्मी नारायण जैसे डिज़ाइन समृद्धि का प्रतीक माने जाते हैं। दिवाली के दौरान देवी लक्ष्मी की पूजा या भगवान कृष्ण के जन्मदिन जैसे विशेष अवसरों के लिए खास डिज़ाइन बनाए जाते हैं। आम तौर पर इसमें कथात्मक कहानियाँ और ज्यामितीय आकृतियाँ शामिल होती हैं। कुछ प्रसिद्ध डिज़ाइनों में धुलिअर्घ्य चौकी, महा लक्ष्मी चौकी, मातृका चौकी, खोड़श चौकी, नाता ऐपण और विष्णु अष्टदल कमल शामिल हैं। सजावट में अक्सर शंख, दीपक, चावल, अनाज और स्वास्तिक जैसे धार्मिक प्रतीकों का समावेश होता है।
हालांकि अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बावजूद, ऐपण के लिए आज परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। यह खूबसूरत कला विभिन्न कारणों से दिन-प्रतिदिन अपना महत्व और उपस्थिति खोती जा रही है। इस कला के सीमित दस्तावेज़ीकरण जैसी चुनौतियाँ इसके संभावित विनाश या विलुप्त होने का खतरा पैदा कर रही हैं। इसके अलावा, लोगों का शहरों की ओर पलायन और जीवनशैली में बदलाव के कारण भी उन्हें पारंपरिक कामों के लिए समय कम मिल पाता है! इन वजहों से यह डर पैदा होता है कि ऐपण कला भविष्य में विलुप्त हो सकती है। इसलिए, आने वाली पीढ़ियों के लिए इस विरासत को सहेजना लगातार महत्वपूर्ण होता जा रहा है।
ऐपण को टेक्सटाइल डिजाइनिंग के लिए प्रेरणा का एक समृद्ध स्रोत माना जाता है। इसके खूबसूरत डिज़ाइनों को विभिन्न तकनीकों का उपयोग करके टेक्सटाइल जैसे कि बुनाई, प्रिंटिंग (ब्लॉक, स्क्रीन, डिजिटल), कढ़ाई (हाथ और मशीन), एप्लिक वर्क और हैंड पेंटिंग पर उतारा जा सकता है। आज ऐपण बनाने के लिए कंप्यूटर एडेड डिजाइनिंग (CAD) का भी उपयोग किया जा रहा है, जिससे समय बचता है और डिज़ाइन डेवलपमेंट में भी कुशलता आती है। शोध में ऐपण डिज़ाइनों को विभिन्न प्रकार के टेक्सटाइल उत्पादों पर लागू करने की संभावनाओं को तलाशा गया है, जिनमें कुर्तों, साड़ियों, जैकेट और वास्कट जैसे कपड़ों से लेकर बैग, कोस्टर, फ़ाइल फ़ोल्डर, बोतल कवर और बुकमार्क जैसी उपयोगी वस्तुओं और सोफा कवर, तकिए, कुशन कवर, टेबल क्लॉथ, डाइनिंग सेट और टेबल रनर जैसे घरेलू टेक्सटाइल शामिल हैं। यह अनुकूलन न केवल कला को सुरक्षित रख सकता है बल्कि इस मूल्यवान कला रूप को पहचान भी दिला सकता है।
संरक्षण के अलावा, ऐपण को टेक्सटाइल और अन्य उत्पादों के लिए अपनाना आमदनी बढ़ाने का भी एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। यह कला कुमाऊँ क्षेत्र में हज़ारों लोगों के लिए आजीविका का स्रोत बन चुकी है। यह परंपरा एक पारंपरिक शौक से आगे बढ़कर अब एक पेशवर रूप ले रही है। इस व्यवसाय ने कला-प्रेमी युवाओं के लिए रोज़गार के नए दरवाज़े खोले हैं। उत्तराखंड में महिलाएँ, जो इस कला की पारंपरिक संरक्षक हैं और जिन्हें यह गहन ज्ञान और विशेषज्ञता माँ से बेटी तक मिली है, ऐपण-आधारित उत्पाद विकसित करके आय का एक माध्यम बना सकती हैं। इससे वे अपने ज्ञान और विशेषज्ञता का उपयोग कमाई करने के लिए कर पाती हैं। अनुकूलित ऐपण डिज़ाइनों के माध्यम से उत्पाद विकसित करना इन महिलाओं के लिए आय का एक ज़रिया है, जो उन्हें समाज में अपनी पहचान बनाने, स्वतंत्र निर्णय लेने और उद्यमिता को प्रेरित करने में मदद करता है।
उत्तराखंड की पारंपरिक लोक कला 'ऐपण' को एक नया जीवन मिल रहा है, और इस बदलाव की जीती-जागती मिसाल रामनगर की 24 वर्षीय मीनाक्षी खाती हैं। इतिहास में ग्रेजुएशन कर चुकीं मीनाक्षी का इस कला के प्रति लगाव बचपन से ही था और उन्होंने इसकी बारीकियां अपनी माँ और दादी से सीखीं। मीनाक्षी ने न केवल इस कला का गहराई से अध्ययन किया, बल्कि उन्होंने इसे रोजगार से जोड़कर युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने का लक्ष्य भी रखा।
'ऐपण गर्ल' के नाम से मशहूर मीनाक्षी 2018 से इस विरासत को आगे बढ़ाते हुए इस कला को लोगों के घरों तक पहुंचा रही हैं। दिसंबर 2019 में उन्होंने 'मीनाकृति - द ऐपण प्रोजेक्ट' की शुरुआत की। इस प्रोजेक्ट के ज़रिए उन्होंने हज़ारों लोगों को ऑनलाइन और ऑफलाइन ट्रेनिंग दी है, जिसमें कई महिला स्वयं-सहायता समूह भी शामिल हैं। मीनाक्षी बताती हैं कि उत्तराखंड में 4,000 से ज़्यादा महिलाएँ ऐपण को अपना रोज़गार बना चुकी हैं और अब वे अपने खर्चों के लिए किसी पर निर्भर नहीं हैं। उनके अनुमान के मुताबिक, ऐपण कला का सालाना कारोबार 40 लाख रुपये को पार कर गया है। मीनाक्षी की लगन और कौशल ने उन्हें कई सम्मान और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है, यहाँ तक कि उन्हें भारत की राष्ट्रपति से भी मिलने का अवसर मिला।
नमिता तिवारी भी एक पुरस्कार विजेता ऐपण कलाकार हैं जो इस कला को पुनर्जीवित करने की कोशिश में जुटी हैं। उन्होंने युवा महिलाओं को यह कला सिखाने के लिए 'चेली ऐपण' नाम की संस्था की स्थापना की है। वह ऐपण कला को साड़ियों, कैप्स और स्टेशनरी जैसी आज के ज़माने की चीज़ों पर उतारकर उसे पेश करने के नए-नए तरीके इजाद करने में मदद कर रही हैं। नमिता अपनी सांस्कृतिक पहचान को महत्व देने और अपने काम पर विश्वास करने पर जोर देती हैं।
बाज़ार में ऐपण डिज़ाइनों की मांग लगातार बढ़ रही है। लोग स्टेशनरी, फाइल कवर, फोल्डर, पेन स्टैंड, दुपट्टे, बैग, पूजा की थालियाँ, नेमप्लेट, की-चेन और टी-कोस्टर जैसे कई उत्पादों में ऐपण की कलाकारी को पसंद कर रहे हैं। यहाँ तक कि अब लोग नई इमारतों की दीवारों पर टेक्सचर की जगह ऐपण डिज़ाइन की मांग भी कर रहे हैं।
सरकार भी आय बढ़ाने वाली गतिविधियों में लगी महिलाओं की मदद कर रही है और ऐपण को बढ़ावा देने के लिए खास पहल कर रही है। उत्तराखंड हस्तशिल्प और हथकरघा बोर्ड ने युवाओं को ट्रेनिंग और डिज़ाइन डेवलपमेंट के लिए डिज़ाइनर नियुक्त किए हैं, और हल्द्वानी व अल्मोड़ा को ट्रेनिंग के हब बना रहे हैं। सरकार 'वोकल फॉर लोकल' पहल के तहत स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा दे रही है। अब ऐपण के उत्पाद ई-रिटेल साइट्स पर भी उपलब्ध हैं, जिससे वे आसानी से ग्राहकों तक पहुँच रहे हैं। सरकारी योजनाएं कौशल-आधारित प्रशिक्षण और छोटे उद्यम स्थापित करने के लिए लोन भी प्रदान कर रही हैं, जिनका उद्देश्य महिलाओं को सम्मान और कमाई दोनों देना है। हाल ही में उत्तराखंड सरकार ने वॉल पेंटिंग, ग्रीटिंग कार्ड्स और नेमप्लेट डिज़ाइन के साथ 'ऐपण कला पखवाड़ा' भी मनाया।
संदर्भ
https://tinyurl.com/29shme7e
https://tinyurl.com/2bp5qbkd
https://tinyurl.com/227rmgen
https://tinyurl.com/2dkor8ns
https://tinyurl.com/24e5r3bf
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