
समय - सीमा 10
मानव और उनकी इंद्रियाँ 10
मानव और उनके आविष्कार 10
भूगोल 10
जीव-जंतु 0
पहाड़ों में लोग दूर दराज के क्षेत्रों में छोटी-छोटी बस्तियां बनाकर रहा करते थे! पहले के समय में यहाँ तक न सड़के थी और न ही बिजली या इंटरनेट जैसी सुविधाएं! ऐसे में उत्तराखंड और हिमाचल जैसे पहाड़ी इलाकों में मनोरंजन के जो रूप विकसित हुए वो आज के समय में सांस्कृतिक विरासत बन चुके हैं! आज हम पहाड़ की ऐसी ही दो अद्भुद सांस्कृतिक विरासतों “पांडव नृत्य” और “छोलिया नृत्य” के बारे में जानेंगे!
आइए सबसे पहले पांडव नृत्य के इतिहास और इसके महत्व को समझने का प्रयास करते हैं:
पांडव लीला या पांडव नृत्य (संस्कृत में क्रमशः "पांडवों का खेल" और "पांडवों का नृत्य") एक पारंपरिक अनुष्ठान है। इसमें हिन्दू महाकाव्य महाभारत की कथाओं का गायन, नृत्य और संवादों के माध्यम से अद्भुत मंचन किया जाता है। यह प्रथा उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में प्रचलित है। पांडव, महाकाव्य के पांच मुख्य नायक होते हैं। गांव के ही शौकिया कलाकार उनकी भूमिकाएं निभाते हैं और खुले में यह लीला प्रस्तुत करते हैं। इस प्रस्तुति में ढोल, दमाऊ और भंकोरे नामक दो लंबे तुर्ही जैसे लोक वाद्यों का प्रयोग होता है। ये प्रस्तुतियां, जो विभिन्न गांवों में तीन दिन से लेकर एक महीने तक भी चल सकती हैं और भारी भीड़ को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। यह साल का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आकर्षण होता है। इस धार्मिक नाटक की एक ख़ासियत यह है कि कलाकार अक्सर अपने पात्रों की आत्माओं से अनायास ही 'आविष्ट' हो जाते हैं और नृत्य करने लगते हैं।
पांडव लीला की जड़ें हिन्दू पौराणिक कथाओं से गहराई से जुड़ी हुई हैं। इसे पेशेवर कलाकारों के बजाय हमेशा गांव के स्थानीय कलाकारों ने ही निभाया है। आमतौर पर उत्तराखंड के राजपूत इसे प्रायोजित करते हैं या इसके आयोजन में सहयोग देते हैं। एक प्रदर्शन को अक्सर 'श्राद्ध' भी कहा जाता है, जो पूर्वजों की पूजा की एक हिन्दू परम्परा है। इस लीला को भी पूर्वज पूजा का एक रूप माना जाता है। आज भी कई गढ़वाली स्वयं को पांडवों का वंशज मानते हैं। ये प्रस्तुतियां सामान्यतः नवम्बर और फरवरी के बीच आयोजित होती हैं। यह ज़रूरी नहीं कि कोई विशेष गांव इसे हर साल आयोजित करे। लोग लीला देखने के लिए पास के किसी दूसरे गांव भी जा सकते हैं। प्रत्येक गांव की अपनी भिन्नता हो सकती है। कुछ गांव गायन पर अधिक जोर दे सकते हैं, तो कुछ नाटक पर। प्रस्तुतियां रात में शुरू होती हैं और अगली सुबह तक चलती हैं। महाकाव्य के प्रसंग आवश्यक रूप से एक क्रम में नहीं दिखाए जाते। इसका उद्देश्य पूरी कहानी सुनाना नहीं होता, बल्कि उन विशेष दृश्यों का नृत्य या अभिनय करना होता है जिनसे कलाकार या गांववाले परिचित होते हैं। जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती है और जोश बढ़ता है, प्रस्तुतियां दिन में जल्दी शुरू होकर अगली सुबह तक चलने लगती हैं। सबसे अधिक प्रतीक्षा अक्सर पिता-पुत्र, यानी अर्जुन और नागार्जुन के बीच युद्ध वाले प्रसंग की होती है। इसे 'गैंडा' (हिंदी में गैंडे के लिए) नाम से जाना जाता है, क्योंकि इसमें अर्जुन अपने पुत्र के गैंडे का वध करते हैं। नाटक में इस्तेमाल होने वाले अस्त्र-शस्त्रों की पूजा की जाती है। उन्हें कभी जमीन पर नहीं रखा जाता ताकि उनकी शक्ति बनी रहे, और अगली लीला तक उनकी देखभाल की जाती है। चूंकि महाभारत, जो दुनिया का सबसे लंबा महाकाव्य है, का पूरा मंचन करना लगभग असंभव है, इसलिए कलाकार मंचन के लिए अपनी पसंद के प्रसंगों का चुनाव करते हैं।
हाल ही में उत्तरकाशी के सुरम्य रैथल गाँव में अंदूरी उत्सव धूमधाम से संपन्न हुआ, जिसे लोग प्यार से बटर फेस्टिवल के नाम से भी जानते हैं। यह उत्सव सिर्फ मौज-मस्ती का ही प्रतीक नहीं, बल्कि ग्रामीणों की अपने कुल देवता सोमेश्वर के प्रति अटूट आस्था का भी प्रमाण है। आयोजकों का मानना था कि देवता की कृपा से ही उत्सव के दौरान मौसम अनुकूल बना रहा, जबकि आसपास के इलाकों में बारिश कहर बरपा रही थी।
यह उत्सव हर साल भगवान कृष्ण को उनके आशीर्वाद, विशेषकर पशुओं के अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए धन्यवाद अर्पित करने का एक माध्यम भी है। उत्सव की सबसे अनूठी पहचान है मक्खन और मट्ठे (छाछ) से होली खेलना। लोग उत्साहपूर्वक एक-दूसरे पर मक्खन लगाते हैं और मट्ठे की बौछार करते हैं, जो एक अद्भुत और आनंददायक दृश्य होता है। लोक संगीत की धुनें वातावरण में जोश भर देती हैं, और लोग पारंपरिक नृत्य में खो जाते हैं।
इस उत्सव का एक प्रमुख और सबसे अधिक प्रतीक्षित आकर्षण पांडव नृत्य है। यह नृत्य महाभारत की वीर गाथाओं का सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है, जिसे देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। इस नृत्य को करने वाले कलाकारों को 'पश्वा' कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि जब पश्वा ढोल-दमाऊ और भंकोरे जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों की लय पर नृत्य करते हैं, तो उनमें पांडवों की दिव्य आत्मा का संचार हो जाता है। इस वर्ष उत्सव का महत्व और भी बढ़ गया क्योंकि सोमेश्वर देवता की डोली पहली बार उत्सव में शामिल हुई, जिससे उत्सव का उत्साह दोगुना हो गया।
गढ़वाल क्षेत्र के निवासी स्वयं को पांडवों का वंशज मानते हैं! पांडव लीला या पांडव नृत्य उनकी सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न अंग है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है, जिसे अच्छी फसल, परिवार की खुशहाली, और यहाँ तक कि पशुओं को बीमारियों से बचाने की कामना के साथ आयोजित किया जाता है। 'स्कंद पुराण' जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी पांडवों के गढ़वाल से संबंध का उल्लेख मिलता है, जो इस क्षेत्र के पौराणिक महत्व को रेखांकित करता है।
उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में पांडव नृत्य से इतर छोलिया नृत्य की एक परंपरा हज़ारों साल से निभाई जा रही है! आइए अब इसके बारे में जानते हैं:
छोलिया (कुमाऊँनी) या हुडकेली (नेपाली) एक पारंपरिक लोक नृत्य है। इसकी शुरुआत भारत के उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र और नेपाल के सुदूरपश्चिम प्रांत से हुई। आज यह कुमाऊँनी और सुदूरपश्चिमी (मुख्यतः डोटी, बैतड़ी और दार्चुला जिलों की) संस्कृतियों की पहचान बन चुका है। यह असल में एक तलवार नृत्य है, जो विवाह की बारात के साथ चलता है। लेकिन अब इसे कई अन्य शुभ अवसरों पर भी किया जाता है।
यह नृत्य कुमाऊँ के अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत और पिथौरागढ़ जिलों में, तथा नेपाल के डोटी, बैतड़ी और दार्चुला जिले में विशेष रूप से लोकप्रिय है। इस तलवार नृत्य का इतिहास एक हजार साल से भी ज़्यादा पुराना है। इसकी जड़ें कुमाऊँनी और खस लोगों की युद्ध परंपराओं से जुड़ी हुई हैं।
मान्यता है कि इसकी उत्पत्ति एक हज़ार साल से भी पहले हुई थी। तब कुमाऊँ के योद्धा क्षत्रिय – खास तौर पर खस और कत्यूरी – तलवार की नोक पर विवाह करते थे। यह नृत्य उसी दौर की याद दिलाता है।
फिर दसवीं सदी में चंद राजाओं का आगमन हुआ और उन्होंने स्थानीय क्षत्रियों को एकजुट किया। इसके बाद बड़ी संख्या में राजपूत भी यहाँ आकर बसे, जिससे स्थानीय क्षत्रिय अल्पसंख्यक हो गए। इन राजपूतों ने भी पहाड़ी रीति-रिवाजों को अपनाया और अपनी परंपराओं व भाषा से पहाड़ी संस्कृति को प्रभावित किया। तलवार की नोक पर विवाह का दौर तो समाप्त हो गया, लेकिन उससे जुड़ी परंपराएँ आज भी जीवित हैं।
इसीलिए आज भी कुमाऊँ में दूल्हे को 'कुँवर' यानी राजा कहा जाता है। वह बारात में घोड़े पर सवार होता है और अपनी कमर में खुखरी बांधता है। ये सभी रिवाज उसी पुरानी परंपरा का हिस्सा हैं। कुमाऊँ के लोगों की युद्ध परंपराओं से जुड़े होने के अलावा, इसका धार्मिक महत्व भी है। यह कला मुख्यतः राजपूत समुदाय द्वारा अपनी विवाह बारात में प्रस्तुत की जाती है। छोलिया नृत्य विवाह-शादियों में किया जाता है और इसे बहुत शुभ माना जाता है। माना जाता है कि यह बुरी आत्माओं और राक्षसों से रक्षा करता है। पहले यह मान्यता थी कि विवाह बारात पर ऐसी बुरी नज़रें आसानी से लग सकती हैं, जो लोगों की खुशियों को निशाना बनाती हैं। यह आम धारणा थी कि बुरी आत्माएँ नवविवाहित जोड़े को परेशान करने के लिए बारात (बारात) का पीछा करती हैं। और छोलिया नृत्य के प्रदर्शन से इस तरह की बलाओं को रोका जा सकता है।
12 अक्टूबर 2023 में जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देवभूमि उत्तराखंड में पधारे थे तो उनके स्वागत में भी छोलिया नृत्य की शानदार प्रस्तुति हुई। उत्तराखंड के छोलिया और झौड़ा लोक नर्तकों ने ढोल-दमौं जैसे लोक वाद्यों के साथ यह प्रदर्शन किया। इस अद्भुत प्रस्तुति को वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में स्थान मिला है। संस्कृति विभाग के निदेशक के अनुसार यह अनूठा और ऐतिहासिक कार्यक्रम उत्तराखंड के संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित किया गया। यह कार्यक्रम सीमांत जिले पिथौरागढ़ में समुद्र तल से 5338 फीट (1627 मीटर) की हैरतअंगेज़ ऊंचाई पर हुआ। उत्तराखंड के इतिहास में यह ऐसा पहला मौका था। पिथौरागढ़ जिले के दूर-दराज़ के इलाकों से आए लगभग 3000 छोलिया और झौड़ा नृत्य दलों के लोक कलाकारों ने अपनी पारंपरिक वेशभूषा और लोकगीतों से दुनिया का ध्यान खींचा। उन्होंने उत्तराखंड की ऐतिहासिक एवं समृद्ध लोक सांस्कृतिक विरासत को दर्शाया। हिमालय के हृदय स्थल, सीमांत जिले पिथौरागढ़ में दुनिया ने एक असाधारण और अभूतपूर्व दृश्य देखा।
संदर्भ
https://tinyurl.com/245cqhql
https://tinyurl.com/2cwykrd6
https://tinyurl.com/2cr3vyhk
https://tinyurl.com/22342xs8
A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.
B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.
C. Messaging Subscribers - This is the total viewership from City Portal subscribers who opted for hyperlocal daily messaging and received this post.
D. Total Viewership - This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.
E. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.