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क्या आप यकीन करेंगे कि उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में स्कूली बच्चों को मास्टर जी की छड़ी से इतना डर नहीं लगता जितना कि एक जंगली घास से लगता है! जी हाँ इस घास को पहाड़ों में बिच्छु घास, बिच्छू बूटी, सिसूंण या कंडाली कहा जाता है! इस घास की पत्तियों और तने में छोटे-छोटे और बहुत नुकीले काटें होते हैं, जो त्वचा को छूने भर से ही हिस्टामाइन जैसे रसायन छोड़ते हैं, जिससे आपकी त्वचा में तेज़ जलन का अहसास होने लगता है! लेकिन इसकी असल खूबी कुछ और ही है! हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में उगने वाली इस घास को बड़े ही चाव के साथ खाया जाता है! कंडाली, जिसे गढ़वाल में 'कंडाली' और कुमाऊं में 'सिसूंण' कहा जाता है, एक जंगली पौधा है जो 'अर्टिकाकेई' वनस्पति परिवार का हिस्सा है। इसका वैज्ञानिक नाम अर्टिका पारविफ्लोरा (Urtica Parviflora) है। इसे आमतौर पर बिच्छू घास के नाम से जाना जाता है। यह पौधा मूल रूप से यूरोप, समशीतोष्ण एशिया और पश्चिमी उत्तरी अफ्रीका का है, पर अब यह दुनिया भर में पाया जाता है। इसकी छह उप-प्रजातियाँ हैं। इनमें से पाँच की पत्तियों और तनों पर कई खोखले, चुभने वाले रोएं (जिन्हें ट्राइकोम कहते हैं) होते हैं। ये रोएं इंजेक्शन की सुई की तरह काम करते हैं। और त्वचा के संपर्क में आने पर हिस्टामाइन व अन्य रसायन पहुंचाते हैं, जिससे तेज़ चुभन और जलन होती है (जिसे 'कॉन्टैक्ट अर्टिकेरिया' कहते हैं)।
इस पौधे का पारंपरिक औषधि, भोजन, चाय और कपड़ा उद्योग में प्राचीन (जैसे सैक्सन) और आधुनिक समाजों में इस्तेमाल का लंबा इतिहास रहा है। अर्टिका डायोइका का वैज्ञानिक नामकरण कार्ल लीनियस ने 1753 में अपनी पुस्तक 'स्पीशीज प्लांटेरम' में किया था। आप इसके औषधीय गुणों के बारे में जानकर हैरान हो जाएंगे! कंडाली का पौधा न सिर्फ भारत में, बल्कि चीन और यूरोप जैसे कई देशों में पाया जाता है। हालांकि, ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के चलते इसका प्राकृतिक अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है।
अर्टिका डायोइका या कंडाली का साग शरीर में पित्त दोष को दूर करने में सहायक होता है। पेट की गर्मी और उससे जुड़ी समस्याओं में भी इसे बहुत असरकारक माना जाता है। इसके पत्तों का अर्क मोच वाले स्थान पर लगाने से सूजन और दर्द में राहत मिलती है।
विशेषज्ञों के अनुसार, मलेरिया के इलाज में भी यह कारगर साबित होता है। इसका साग मलेरिया के मरीज़ के लिए एक तरह से नेचुरल एंटीबायोटिक की तरह काम करता है। अगर कब्ज या शरीर में जकड़न हो तो इसके साग का सेवन बेहद लाभकारी होता है। इसकी रेसिपी का आनंद चपाती और चावल के साथ लिया जाता है। उत्तराखंड में इसे अक्सर भात के साथ खाया जाता है। कंडाली के पत्तों में प्रचुर मात्रा में आयरन होता है, जो खून की कमी (एनीमिया) को दूर करता है। इसके अतिरिक्त, कंडाली में फॉर्मिक एसिड, एसिटाइल कोलीन और विटामिन ए भी अच्छी मात्रा में पाए जाते हैं। इसके सेवन से पीलिया, पेट संबंधी समस्याएं, खांसी और जुकाम में लाभ होता है। साथ ही, किडनी से जुड़ी समस्याओं में भी कंडाली का सेवन फायदेमंद माना जाता है।
कंडाली का साग राज्य के सबसे प्रसिद्ध व्यंजनों में से एक है। कंडाली के पत्तों से साग बनाया जाता है। उत्तराखंड में बहुत ठंड पड़ती है। ठंड से बचने के लिए कंडाली का साग खाना एक आसान तरीका है। कंडाली की पत्तियों पर बालों जैसे छोटे-छोटे कांटे होते हैं। इसलिए, साग बनाने से पहले पत्तों को अच्छी तरह उबाल लेना चाहिए। इससे पत्तों पर लगे कांटे अलग हो जाते हैं।
साग बनाने के लिए इसे सीधे हाथ से नहीं तोड़ा जाता, बल्कि चिमटे या किसी औज़ार की मदद से तोड़ा जाता है। काफली या कंडाली की सब्जी बनाने के लिए कंडाली के मुलायम पत्ते लें। उन्हें अच्छी तरह साफ़ कर लें। इसके बाद, लोहे की कड़ाही में थोड़ा पानी डालकर ढक दें और अच्छी तरह पकाएं। इसे पानी में उबालकर इसके डंक के असर को खत्म किया जाता है। इसके बाद इसे किसी भी हरे साग की तरह आसानी से पकाया जा सकता है।भले ही कंडाली की पत्तियां नुकीली दिखती हों, लेकिन सब्जी खाने पर आपको कांटे बिल्कुल भी महसूस नहीं होंगे।
इस साग में मौजूद एंटीऑक्सीडेंट शरीर की कोशिकाओं को फ्री रेडिकल्स से होने वाले नुकसान से बचाते हैं। इन फ्री रेडिकल्स के कारण उम्र बढ़ने के साथ कैंसर और अन्य गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। बिच्छू घास का रस शरीर में एंटीऑक्सीडेंट के स्तर को बढ़ाने का काम करता है। इंसानों के अलावा बिच्छू बूटी कई प्रजाति की तितलियों के लार्वा का भी मुख्य भोजन है। इसके अलावा, इसे कुछ पतंगों (moths) के लार्वा द्वारा भी खाया जाता है। इनमें एंगल शेड्स, बफ एरमाइन, डॉट मॉथ, फ्लेम, और गोथिक मॉथ शामिल हैं। इसकी जड़ें कभी-कभी घोस्ट मॉथ (हेपियलस ह्यूमुलि) के लार्वा भी खाते हैं।
बिच्छू बूटी के तनों में एक बास्ट फाइबर (रेशा) होता है। इसका पारंपरिक रूप से लिनन के समान कामों के लिए उपयोग होता रहा है। और इसे लिनन जैसी ही रेटिंग प्रक्रिया से तैयार किया जाता है। कपास के विपरीत, बिच्छू बूटी बिना कीटनाशकों के आसानी से उगती है। हालांकि, इसके रेशे अपेक्षाकृत मोटे होते हैं। ऐतिहासिक रूप से, बिच्छू बूटी का उपयोग लगभग 3,000 वर्षों से कपड़े बनाने के लिए किया जाता रहा है! डेनमार्क में कांस्य युग के प्राचीन बिच्छू बूटी के वस्त्र इसके प्रमाण हैं। माना जाता है कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कपास की कमी के कारण जर्मन सेना की वर्दी लगभग पूरी तरह से बिच्छू बूटी से बनी थी, हालांकि इसके पुख्ता सबूत कम हैं। हाल ही में, ऑस्ट्रिया, जर्मनी और इटली की कंपनियों ने व्यावसायिक (commercial) तौर पर बिच्छू बूटी के टेक्सटाइल्स (वस्त्रों) का उत्पादन शुरू कर दिया है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/29sep3wx
https://tinyurl.com/pzxlnbs
https://tinyurl.com/28cxecu3