उत्तराखंड की विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी इस साल 1 जून को पर्यटकों के लिए खुल गई है। यह घाटी आमतौर पर जून से सितंबर तक खुली रहती है। अक्टूबर में बर्फबारी और सर्दी के कारण इसे पर्यटकों की सुरक्षा के लिए बंद कर दिया जाता है।
चमोली जिले में स्थित यह घाटी यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। इसके खूबसूरत अल्पाइन घास के मैदान और सैकड़ों किस्म के रंग-बिरंगे फूल पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। यह घाटी कई प्रकार के पक्षियों और वन्यजीवों का भी घर है।
क्या है फूलों की घाटी की खासियत?
यह नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व का एक हिस्सा है, जो 87 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यहाँ ऑर्किड, पॉपी, प्रिम्युला, गेंदा, डेज़ी जैसे अनगिनत फूल खिलते हैं। घाटी औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों से भी समृद्ध है, जिसमें नंदा देवी को चढ़ाया जाने वाला ब्रह्मकमल भी शामिल है।
अक्सर पर्यटक फोटो खींचने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि घाटी की असली सुंदरता का अनुभव नहीं कर पाते। यदि आप घाटी को आराम से घूमना चाहते हैं, तो घांघरिया में रात बिता सकते हैं। यह घाटी के रास्ते का आखिरी बसा हुआ गाँव है। ध्यान रहे, पर्यटकों को शाम 5 बजे तक घाटी से बाहर निकलना होता है।
हिमालय की विशाल पर्वतमाला की शानदार पृष्ठभूमि में स्थित, फूलों की घाटी नेशनल पार्क एक अद्भुत नज़ारा और आगंतुकों के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव प्रस्तुत करता है। यह चमोली जिले में 87 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। फूलों की घाटी नेशनल पार्क एक यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट है। यह नंदा देवी बायोस्फीयर रिज़र्व के दो मुख्य ज़ोन में से एक है (दूसरा नंदा देवी नेशनल पार्क है)। माना जाता है कि इस घाटी की खोज 1931 में हुई थी। तब फ्रैंक एस. स्माइथ के नेतृत्व में तीन ब्रिटिश पर्वतारोही रास्ता भटक गए और संयोग से इस शानदार घाटी में पहुँच गए। इस जगह की खूबसूरती से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसे “वैली ऑफ फ्लावर्स (Valley of Flowers)” यानी फूलों की घाटी नाम दिया।
जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, फूलों की घाटी एक ऐसी जगह है जहाँ प्रकृति अपने पूरे शबाब पर खिलती है। यहाँ ऑर्किड, पॉपीज़, प्राइमुला, गेंदा, डेज़ी और एनीमोन जैसे 600 से ज़्यादा सुंदर फूलों की प्रजातियाँ सैलानियों के मन को मोह लेती हैं। समुद्र तल से लगभग 3,600 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह घाटी कई दुर्लभ और अद्भुत वन्यजीवों का भी घर है। इनमें ग्रे लंगूर, उड़ने वाली गिलहरी, हिमालयन वीज़ल, काला भालू, लाल लोमड़ी, लाइम बटरफ्लाई और स्नो लेपर्ड शामिल हैं।
क्या आप जानते हैं कि उत्तराखंड में, हर साल औसतन कम से कम 50 लोग वन्यजीवों के हमलों में मारे जाते हैं और 200 बुरी तरह घायल होते हैं! ऐसे में वहाँ मानव-वन्यजीव संघर्ष के खतरे को नियंत्रित करने के लिए राज्य के उद्यान विभाग (horticulture department) ने "एरोमा वैलीज़" (सुगंध घाटियों) का विचार पेश किया है। प्रोजेक्ट पर काम कर रहे अधिकारियों के अनुसार, बंदर, भालू और हाथी जैसे जानवर, जो आमतौर पर फसलों के खेतों में धावा बोलते हैं, उन्हें दमिश्क गुलाब, लेमनग्रास या जापानी मिंट जैसे पौधों की तीव्र सुगंध परेशान करती है, इसलिए वे खेतों से दूर रहेंगे। उनका मानना है कि 'एरोमैटिक पौधे पारंपरिक फसलों की तुलना में ज़्यादा मुनाफ़ा देंगे।'
उन्होंने यह भी बताया कि यह भारत में अपनी तरह की पहली पहल है। गेहूँ और दाल जैसी पारंपरिक फसलों की तुलना में एरोमैटिक पौधों से किसानों को ज़्यादा मुनाफ़ा होने की उम्मीद है। देहरादून स्थित सेंटर फॉर एरोमैटिक प्लांट्स (CAP) के निदेशक, निरपेंद्र चौहान ने कहा, “एरोमैटिक उत्पादों की, खासकर लक्ज़री सेगमेंट में, बहुत अधिक माँग है, जिसे किसान पूरा कर सकते हैं।”
अधिकारियों ने बताया कि 500 हेक्टेयर से ज़्यादा क्षेत्र वाली घाटियों को एरोमैटिक पौधे लगाने के लिए चुना जाएगा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि मिट्टी की उपयुक्तता, तापमान, सिंचाई के साधन जैसे शुरुआती पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, हर घाटी के लिए वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार एक खास पौधा तय किया गया है। किसानों से कहा जाएगा कि वे एक घाटी में कई तरह के पौधे उगाने के बजाय एक ही तरह का एरोमैटिक पौधा उगाएँ।
उदाहरण के लिए, नैनीताल और चंपावत में दालचीनी (cinnamon) की घाटियाँ होंगी। जबकि उत्तरकाशी की घाटियों में 'सुराई' यानी हिमालयन साइप्रस उगेगा। चमोली और अल्मोड़ा में दमिश्क गुलाब की घाटियाँ, पौड़ी में लेमनग्रास की घाटियाँ, और हरिद्वार में लेमनग्रास और जापानी मिंट की घाटियाँ होंगी। उधम सिंह नगर में भी जापानी मिंट की घाटियाँ होंगी। संयोग से, राज्य के वन विभाग ने भी हरिद्वार और तराई क्षेत्र के जंगलों के किनारों पर कुछ एरोमैटिक पौधे लगाकर जानवरों को भगाने का यह आइडिया आज़माया था। अधिकारियों ने कहा कि उनके पायलट प्रोजेक्ट्स के नतीजे उत्साहजनक रहे," "इसलिए, हम इसे व्यावसायिक रूप से फायदेमंद (commercially viable) बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, जिसमें किसानों का मुनाफ़ा हमारा मुख्य लक्ष्य है।" फिलहाल, उत्तराखंड में लगभग 20 हेक्टेयर प्रत्येक के 109 एरोमा क्लस्टर हैं।
ऐतिहासिक रूप से, हिमालय अपनी समृद्ध जैव विविधता के लिए सुप्रसिद्ध है। इसमें औषधीय, सुगंधित और मसालेदार पौधों की अनेक प्रजातियाँ शामिल हैं। हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड अद्वितीय औषधीय और सुगंधित पौधों की एक समृद्ध विविधता का घर है। उत्तराखंड के विभिन्न ऊँचाई वाले क्षेत्र – जैसे अल्पाइन, सब-अल्पाइन, शीतोष्ण और उपोष्णकटिबंधीय – कई उपयोगी पौधों को फलने-फूलने के लिए खास तरह के प्राकृतिक आवास और सूक्ष्म-पर्यावास (micro-habitats) प्रदान करते हैं। प्राचीन काल से ही, उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के मूल निवासी इन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहे हैं। ये संसाधन उनकी आजीविका का एक अभिन्न हिस्सा हैं।
पौधों की इस समृद्ध विविधता ने उत्तराखंड के निवासियों को एक शुरुआती बढ़त दी। इससे उन्हें भोजन, दवा, इत्र और मसालों के लिए विभिन्न पौधों की प्रजातियों को परखने का अवसर मिला। वर्षों के अनुभव और प्रयोगों से, उन्होंने विभिन्न पौधों की प्रजातियों के उपयोग का गहरा ज्ञान विकसित किया है]। लेकिन, आज के समय में, पौधों के उपयोग से जुड़ा यह पारंपरिक ज्ञान कई कारणों से घट रहा है। इन कारणों में पश्चिमी जीवनशैली के प्रति बढ़ता झुकाव और युवा पीढ़ी की इस परंपरा को आगे ले जाने में कम होती दिलचस्पी शामिल है। इसलिए, यह बहुत ज़रूरी है कि पौधों के उपयोग से जुड़ी इस बहुमूल्य जानकारी को पूरी तरह से समाप्त होने से पहले सहेज लिया जाए (document कर लिया जाए)।
पहाड़ों के दूर-दराज के इलाकों में आज भी ऐसे कई क्षेत्र हैं। वहाँ लोग अभी भी पारंपरिक जीवनशैली अपनाते हैं। और वे बीमारियों के इलाज व अन्य ज़रूरतों के लिए आस-पास उगने वाले पौधों का उपयोग करते हैं। टोंस नदी का जलग्रहण क्षेत्र (वॉटरशेड), पहाड़ियों में काफी अंदर बसा होने के कारण, इस क्षेत्र के निवासी आधुनिक बदलावों से अपेक्षाकृत कम प्रभावित हैं। इसी पृष्ठभूमि में, वर्तमान अध्ययन का उद्देश्य टोंस वॉटरशेड के निवासियों द्वारा उपयोग किए जाने वाले पौधों का दस्तावेज़ीकरण करना है। खास तौर पर उन पौधों का, जिनका उपयोग बीमारियों के इलाज और इत्र (perfumes) के रूप में होता है।
आइए अब उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के टोंस वॉटरशेड (जलग्रहण क्षेत्र) में स्थानीय लोगों द्वारा दवा, इत्र और मसाले के रूप में उपयोग किए जाने वाले पौंधों पर एक नजर डालते हैं:
| क्र.सं. | वानस्पतिक नाम (Latin Name) | स्थानीय नाम (Vernacular Name) | ऊँचाई (Altitude) | स्वरूप (Life form) | प्रयुक्त भाग (Parts used) | उपयोग (Uses) |
| 1 | Aconitum balfourii Stapf. | वत्सनाभ / मीठा विष | 3000 मी. | शाक (Herb) | जड़ (Root) | साइटिका (Sciatica) |
| 2 | Aconitum heterophyllum Wall. | अतीस | >3000 मी. | शाक (Herb) | जड़ (Root) | खाँसी, बुखार, दस्त, कब्ज |
| 3 | Acorus calamus L. | बच / घुरबच | 1800 - 3000 मी. | शाक (Herb) | जड़ (Root) | सर्प दंश, कमर दर्द, बुखार, मिर्गी, मासिक धर्म विकार, पीलिया, सिरदर्द, ब्रोंकाइटिस |
| 4 | Adhatoda vasica Nees | अड़ूसा, वाशिंगा | 1300 मी. | झाड़ी (Shrub) | पत्ती (Leaf) | दमा, ब्रोंकाइटिस |
| 5 | Adiantum venustum D. Don | हंसराज | 900 – 2500 मी. | शाक (Herb) | पत्ती (Leaf) | ब्रोंकाइटिस, त्वचा रोग, बुखार |
| 6 | Aesculus indica (Wall. ex Jacquem.) Hook.f. | पांगर | 1500 – 2500 मी. | वृक्ष (Tree) | फल, बीज, जड़ | साइटिका, त्वचा रोग |
| 7 | Allium stracheyi Baker | जम्बू | >3000 मी. | शाक (Herb) | पत्ती, फूल | मसाला |
| 8 | Anemone rivularis Buch.-Ham ex DC. | धाइफा | 3000 मी. | शाक (Herb) | जड़, पत्ती | बुखार, सिरदर्द |
| 9 | Angelica glauca Edgew. | गंधरायण / चोरा | 2800 – 3700 मी. | शाक (Herb) | जड़ (Root) | मसाला, पेचिश, उल्टी, ब्रोंकाइटिस |
| 10 | Arisaema jacquemontii Blume | बांख | 1200-3500 मी. | शाक (Herb) | कंद (Tuber) | त्वचा रोग, सर्प दंश |
| 11 | Arnebia benthamaii (D. Don) Johnston | रतनजोत / लालजड़ी | 3000- 4000 मी. | शाक (Herb) | जड़, छाल | आंतरिक चोटें, बालों की देखभाल |
| 12 | Artimisia nilagirica (Cl.) Pamp. | पांती | 1600 से 3000 मी. | झाड़ी (Shrub) | पत्ती, जड़ | श्वसन और मनोवैज्ञानिक विकार |
| 13 | Asparagus racemosus Willd. | सतवार/ केरुआ | 1200 मी. | शाक (Herb) | जड़ (Root) | टॉनिक (बलवर्धक) |
| 14 | Astragalus candolleanus Royle ex Benth. | रुद्रवंती | 4000 मी. | शाक (Herb) | जड़ (Root) | श्वसन विकार |
| 15 | Berberis asiatica Roxb. ex DC. | किल्मोड़ा | 1000 – 2300 मी. | झाड़ी (Shrub) | जड़, छाल | कटे और घाव, मलेरिया, त्वचा रोग, दस्त, बुखार, नेत्र रोग |
| 16 | Berberis chitria Edwards | दारुहल्दी | 1800-2700 मी. | झाड़ी (Shrub) | सम्पूर्ण पौधा, जड़, छाल | मलेरिया, पीलिया, नेत्र रोग, त्वचा रोग |
| 17 | Berginia ciliata Sternb. | पाषाणभेद / सिलफोड़ा | 1200- 3000 मी. | शाक (Herb) | जड़ (Root) | गुर्दे की पथरी, पेट की समस्या, दस्त, टॉनिक |
| 18 | Berginia stracheyi (Hook. f. Th.) Engler | पाषाणभेद / सिलफोड़ा | 3500-4800 मी. | शाक (Herb) | जड़ (Root) | गुर्दे की पथरी, टॉनिक, कटे-फटे घाव |
| 19 | Betula utilis D. Don | भोजपत्र | 2800-4000 मी. | वृक्ष (Tree) | छाल (Bark) | मनोवैज्ञानिक विकार, कटे-फटे घाव, पीलिया, खांसी-जुकाम |
| 20 | Cannabis sativa L. | भांग | 1000-2200 मी. | शाक (Herb) | पत्ती (Leaf) | दर्द निवारक |
| 21 | Centella asiatica (L.) Urban | ब्राह्मी | <2500 मी. | शाक (Herb) | सम्पूर्ण पौधा | मस्तिष्क शक्ति बढ़ाना |
| 22 | Cedrus deodara (Roxb. ex D. Don) G. Don | देवदार | 2000-3000 मी. | वृक्ष (Tree) | तना, छाल | त्वचा रोग, खुजली, अल्सर |
आयुर्वेद में हज़ारों सालों से पौंधों की उपचार शक्ति का प्रयोग करके विमारियों का इलाज किया जाता रहा है! आयुर्वेदिक अरोमाथेरेपी में एसेंशियल ऑयल्स (essential oils) की ऊर्जा और खुशबू का इस्तेमाल होता है। यह दोषों का संतुलन बनाए रखने और उन्हें ठीक करने में मदद करती है!
अरोमाथेरेपी एक समग्र, यानी होलिस्टिक (holistic), लेकिन बहुत ही सरल आयुर्वेदिक पद्धति है। यह आपके शरीर और मन को संतुलित करती है। पारंपरिक आयुर्वेद के अनुसार, हमारी सूंघने की शक्ति में रोगों को ठीक करने की क्षमता होती है। यही वजह है कि ज़्यादातर स्पा और मेडिटेशन सेंटर्स (meditation centers) में एक शांत और सुकून भरा माहौल बनाने के लिए खुशबुओं का इस्तेमाल किया जाता है।
अच्छे स्वास्थ्य और कल्याण के लिए एसेंशियल ऑयल्स का उपयोग, यानी अरोमाथेरेपी, प्राचीन काल से चली आ रही है। ये सुगंध आपके मूड और आपके आस-पास के माहौल को बेहतर बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये आपके घर के माहौल को भी खुशनुमा बना सकती हैं, और उसे एक नई ऊर्जा दे सकती हैं। आयुर्वेद में इन एसेंशियल ऑयल्स को सांस द्वारा शरीर के भीतर लिया जाता है। अरोमाथेरेपी और आयुर्वेद एक दूसरे के पूरक हैं। एसेंशियल ऑयल्स शरीर में वात, पित्त और कफ को संतुलित करने में मदद करते हैं। ये शरीर को संतुलन की अवस्था में बनाए रखने या उस अवस्था में वापस लाने में सहायक होते हैं। आइए, कुछ ऐसे प्रमुख एसेंशियल ऑयल्स के बारे में जानते हैं जो इन दोषों को संतुलित करने में मदद करते हैं-
वात (Vata)- लौंग (Clove), रोमन कैमोमाइल (Roman Chamomile), दालचीनी (Cinnamon), जेरेनियम (Geranium), और चंदन (Sandalwood), लोबान (Frankincense)।
पित्त (Pitta)- सौंफ (Fennel), गुलाब (Rose), नींबू (Lemon), पुदीना (Peppermint), इलंग इलंग (Ylang Ylang), और लोबान (Frankincense)।
कफ (Kapha)- रोज़मेरी (Rosemary), पुदीना (Peppermint), नीलगिरी (Eucalyptus), तुलसी (Basil), स्पीयरमिंट (Spearmint), और लोबान (Frankincense)।
ऊपर बताए गए एसेंशियल ऑयल्स का नियमित रूप से उपयोग करके, आप अपने दोषों को सामंजस्य में रख सकते हैं। संतुलनकारी गुण पाने के लिए, आप इन्हें डिफ्यूज़र (diffuser) में डाल सकते हैं, इनकी धूपबत्ती बना सकते हैं, या फिर पर्सनल इन्हेलर (personal inhaler) के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
संदर्भ
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https://tinyurl.com/29pb9sp4
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https://tinyurl.com/2ytwahk2
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https://tinyurl.com/26ftcv6c