1855 में हरिद्वार कुंभ मेले ने कैसे देश की आज़ादी की नीव रखी!

औपनिवेशिक काल और विश्व युद्ध : 1780 ई. से 1947 ई.
11-10-2025 04:00 PM
1855 में हरिद्वार कुंभ मेले ने कैसे देश की आज़ादी की नीव रखी!

कुंभ मेला भारत की सभ्यता की एक अद्भुत और सदियों पुरानी परंपरा है। इसका इतिहास बहुत प्राचीन है। लेकिन ब्रिटिश शासन और विश्व युद्धों के दौरान इसका महत्व और भी बढ़ गया। लगभग 1780 से 1947 के बीच कुंभ ने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप ले लिया था। यह मेला हर 12 साल में विशेष ज्योतिषीय संयोगों के आधार पर चार पवित्र स्थलों- हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज में बारी-बारी से लगता है। दुनिया भर से संन्यासी और हिंदू श्रद्धालु इस मेले में आते हैं। औपनिवेशिक काल में यह विशाल समागम कई सामाजिक और राजनीतिक बदलावों का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। इसने कई बार भारत के स्वतंत्रता संग्राम की दिशा भी तय की।

यूरोपीय पर्यवेक्षकों ने औपनिवेशिक काल में कुंभ मेले की भव्यता का दस्तावेजीकरण शुरू किया। इससे हमें उस दौर के अनोखे ऐतिहासिक दृष्टिकोण मिलते हैं। अंग्रेज़ इसके विशाल स्वरूप और विविधता से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने इस पर विस्तृत विवरण छोड़े हैं।

उदाहरण के लिए, एक ब्रिटिश प्रशासक जेम्स प्रिंसेप (James Prinsep) ने 19वीं सदी में इस आयोजन का बहुत बारीकी से वर्णन किया। उन्होंने इसकी धार्मिक प्रथाओं का ज़िक्र किया। उन्होंने मेले में जुटने वाली भारी भीड़ का भी वर्णन किया। इसके साथ ही उन्होंने उस समय के जटिल सामाजिक-धार्मिक समीकरणों के बारे में भी लिखा।

ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के नियंत्रण से पहले, हरिद्वार में कुंभ मेले का प्रबंधन अखाड़ों द्वारा किया जाता था। इन अखाड़ों का संचालन साधु करते थे। ये साधु केवल धार्मिक व्यक्ति ही नहीं थे। वे व्यापारी और योद्धा भी हुआ करते थे। वे पुलिस और न्याय व्यवस्था से जुड़े काम करते थे। यहाँ तक कि वे कर (Tax) भी वसूलते थे। साल 1804 में एक बड़ा बदलाव आया। मराठों ने सहारनपुर जिला (जिसमें हरिद्वार भी शामिल था) ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) को सौंप दिया। इसके बाद, कंपनी प्रशासन ने साधुओं की योद्धा-व्यापारी की भूमिका को बहुत सीमित कर दिया। जिसके कारण वे धीरे-धीरे भिक्षा मांगने पर निर्भर हो गए।

औपनिवेशिक शासन के लिए इतने बड़े मेले का प्रबंधन करना एक बड़ी चुनौती थी। 19वीं सदी की शुरुआत में कई ऐसी घटनाएँ हुईं जो इसे दर्शाती हैं। साल 1760 के कुंभ में एक बड़ी हिंसक झड़प हुई थी। यह झड़प शैव गोसाइयों और वैष्णव बैरागियों के बीच हुई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के भूगोलवेत्ता कैप्टन फ्रांसिस रैपर (Captain Francis Raper) ने 1808 में एक रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट के अनुसार, उस झड़प में 18,000 बैरागी मारे गए थे। इस घटना ने सुरक्षा बलों की तैनाती के महत्व को उजागर किया।

इसी तरह की एक और घटना 1796 में हुई थी। तब हरिद्वार मेले में सिखों ने गोसाइयों और अन्य तीर्थयात्रियों पर हमला कर दिया था। 1796 जैसी हिंसा दोबारा न हो, इसके लिए 1808 के कुंभ में विशेष सावधानी बरती गई। इस मेले के लिए 'सामान्य से अधिक शक्तिशाली' एक सशस्त्र सैन्य टुकड़ी तैनात की गई थी।

हालाँकि सभी चुनौतियों के बावजूद कुंभ मेला अपने धार्मिक और व्यावसायिक कार्यों से कहीं बढ़कर था। इसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। औपनिवेशिक अभिलेखों से पता चलता है कि कुंभ मेले से जुड़े प्रयागवाल समुदाय ने 1857 के विद्रोह के दौरान ब्रिटिश (British) शासन के खिलाफ सक्रिय रूप से प्रतिरोध को बढ़ावा दिया था। उन्होंने ईसाई मिशनरियों को दिए जा रहे सरकारी समर्थन का विरोध किया। वे हिंदू तीर्थयात्रियों के धर्मांतरण की कोशिशों के भी खिलाफ थे।

ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि 1857 की लड़ाई की योजनाओं पर इसी दौरान विचार-विमर्श किया गया था। कहा जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई प्रयाग में एक प्रयागवाल के यहाँ रुकी थीं। ब्रिटिश कर्नल नील (Colonel Neill) ने "इलाहाबाद की कुख्यात क्रूर शांति" के दौरान विशेष रूप से कुंभ मेला स्थल को निशाना बनाया था। बाद में, कई प्रयागवालों को स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में मान्यता दी गई और उनके नाम आधिकारिक रिकॉर्ड में शामिल किए गए।

माघ और कुंभ मेलों में जुटने वाली विशाल भीड़ हमेशा ब्रिटिश (British) अधिकारियों को बेचैन करती थी। यह भीड़ सामूहिक अवज्ञा का प्रतीक बन गई थी। नियंत्रण हासिल करने के बाद भी, अंग्रेजों ने प्रयागवालों पर अत्याचार किए और उनकी जमीनें जब्त कर लीं। तीर्थयात्री युद्ध और नस्लीय अन्याय का प्रतीक बने झंडे लेकर चलते थे। महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनियों में बताया गया है कि उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1855 में हरिद्वार कुंभ मेले की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं, जहाँ उन्होंने विद्रोह के नेताओं से मुलाकात की और विद्रोह की योजना बनाई।

यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है जिसके बारे में कम लोग जानते हैं। महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) का भारत में राजनीतिक पदार्पण हरिद्वार कुंभ मेले में ही हुआ था। यह जनवरी 1915 की बात है, जब वे दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे।

गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में इस अनुभव पर पूरा एक अध्याय लिखा है। उन्होंने बताया कि दक्षिण अफ्रीका में किए गए उनके काम का असर पूरे भारत पर कितना गहरा था। उन्होंने लिखा कि ‘दर्शन चाहने वालों’ की भीड़ उन्हें हमेशा घेरे रहती थी। स्नान घाट से लेकर भोजन करते समय तक, लोग उनके दर्शन के लिए आते थे। इससे उन्हें अपनी तत्काल सार्वजनिक पहचान का एहसास हुआ।

शुरुआत में वे कुंभ में नहीं आना चाहते थे क्योंकि वे खुद को "बहुत धार्मिक" नहीं मानते थे। लेकिन वे महात्मा मुंशी राम (बाद में स्वामी श्रद्धानंद) से मिलने के लिए वहाँ गए। हरिद्वार तक की उनकी यात्रा बहुत कठिन थी। उन्होंने अक्सर बिना रोशनी और बिना छत वाली मालगाड़ियों या पशुओं को ले जाने वाले डिब्बों में सफर किया था। मेले में फैली गंदगी और खुले में शौच को देखकर वे बहुत दुखी हुए। इसी अनुभव ने उनके मन में स्वच्छता के प्रति जीवन भर की प्रतिबद्धता जगा दी।

हरिद्वार में गांधी जी की 1915 की यात्रा एक और ऐतिहासिक घटना की गवाह बनी। यहीं पर अखिल भारतीय हिंदू महासभा की नींव रखी गई। अप्रैल 1915 में, गांधी जी ने एक महत्वपूर्ण सम्मेलन में भाग लिया। उनके साथ स्वामी श्रद्धानंद और पंडित मदन मोहन मालवीय भी थे। यह सर्वदेशक (अखिल भारतीय) हिंदू सभा का उद्घाटन सम्मेलन था, जो हरिद्वार कुंभ के दौरान आयोजित किया गया था।

इस संगठन की स्थापना मूल रूप से 1908 में पंजाब में हुई थी। लेकिन हरिद्वार कुंभ में इसे राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया गया। इस सम्मेलन में वीर सावरकर (Veer Savarkar), हेडगेवार (Hedgewar) और भाई परमानंद (Bhai Parmanand) जैसी हस्तियाँ भी शामिल हुई थीं। इसका उद्देश्य हिंदू एकजुटता और समाज सुधार पर जोर देना था। बाद में 1921 में इसका नाम बदलकर अखिल भारत हिंदू महासभा कर दिया गया। इसके शुरुआती नेताओं में मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय जैसे प्रमुख राष्ट्रवादी और शिक्षाविद शामिल थे।

पंडित मदन मोहन मालवीय ने भी 1915 के कुंभ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने गंगा संरक्षण आंदोलन का नेतृत्व किया। ब्रिटिश (British) सरकार गंगा पर एक बांध का निर्माण कर रही थी। मालवीय जी 1914 से ही इसके खिलाफ आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने मेले में आए 25 राजाओं और राजकुमारों का समर्थन सफलतापूर्वक हासिल कर लिया।

उनके सामूहिक दबाव के आगे ब्रिटिश (British) सरकार को झुकना पड़ा। सरकार नदी के निर्बाध प्रवाह के लिए सहमत हो गई। बांध का निर्माण दूसरी जगह पर किया गया। यह इस आंदोलन की एक बहुत बड़ी जीत थी। इससे पहले, 1906 में प्रयाग कुंभ मेले में भी एक बड़ा निर्णय लिया गया था। सनातन धर्म सभा ने मालवीय जी के नेतृत्व में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना का संकल्प लिया था।

गांधी जी यह जानते थे कि कुंभ मेला जनता को प्रेरित करने की अद्भुत शक्ति रखता है। इसलिए वे 1918 में प्रयाग कुंभ मेले में भी शामिल हुए। ब्रिटिश खुफिया रिपोर्टों (British intelligence reports) में उनकी उपस्थिति का जिक्र है। रिपोर्ट में बताया गया कि उन्होंने संगम पर अनगिनत लोगों से मुलाकात की और धार्मिक अनुष्ठानों में भी भाग लिया।

बाद में, असहयोग आंदोलन के दौरान, गांधी जी ने कुंभ मेले का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया। 10 फरवरी, 1921 को फैजाबाद में एक जनसभा में उन्होंने ब्रिटिश (British) शासन को चुनौती देने के लिए कुंभ की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला।

इलाहाबाद संग्रहालय में ब्रिटिश काल का एक दस्तावेज़ रखा है। यह दस्तावेज़ 2 फरवरी, 1920 का है और केंद्रीय खुफिया निदेशक (Central Intelligence Director) का है। यह स्वतंत्रता संग्राम में मेले के महत्वपूर्ण योगदान को रेखांकित करता है। इसमें बताया गया है कि 1918 के इलाहाबाद कुंभ के दौरान एक बैठक हुई थी। उस बैठक में कांग्रेस-लीग (Congress-League) योजना के राजनीतिक सुधारों का समर्थन किया गया था। साथ ही स्थानीय स्वशासन, स्थायी बंदोबस्त और जमींदारों के विशेषाधिकारों में कटौती की मांग की गई थी। इसी बैठक ने यूपी किसान सभा की नींव भी रखी, जिसका उद्देश्य जमींदारों और किसानों के बीच बढ़ते मतभेदों को दूर करना था।

स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदू महासभा की भूमिका काफी जटिल थी। उसने आंदोलन का बिना शर्त समर्थन नहीं किया। उसने अपनी शर्तों पर इसमें भाग लिया, जिसका मुख्य उद्देश्य हिंदू हितों की रक्षा करना था।

महासभा ने साइमन कमीशन (Simon Commission) का बहिष्कार किया। वह उस सर्वदलीय समिति का भी हिस्सा थी जिसने नेहरू रिपोर्ट (Nehru Report) तैयार की थी। हालाँकि, बाद में उसने रिपोर्ट को खारिज कर दिया। उसे लगा कि रिपोर्ट में मुसलमानों को रियायतें दी गई हैं। उसने दलित वर्गों के लिए उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने वाले पूना पैक्ट (Poona Pact) के लिए गांधी और अन्य दलों के साथ सहयोग भी किया।

लेकिन, हिंदू महासभा ने 1942 में गांधी जी द्वारा शुरू किए गए भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement) का खुलकर विरोध किया। उन्होंने आधिकारिक तौर पर इसका बहिष्कार किया। विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) के नेतृत्व में पार्टी ने द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) के दौरान काम किया। उन्होंने ब्रिटिश भारतीय सशस्त्र बलों (British Indian Armed Forces) के लिए भर्ती करने हेतु "हिंदू सैन्यीकरण बोर्ड" (Hindu Militarization Board) का आयोजन किया। सावरकर ने सरकारी पदों पर मौजूद हिंदू सभा के लोगों को स्पष्ट निर्देश दिए थे। उन्होंने कहा कि वे 'अपनी चौकियों पर डटे रहें' और भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल न हों।

बंगाल में हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी (Syama Prasad Mookerjee) ने तो और भी आगे बढ़कर काम किया। उन्होंने जुलाई 1942 में ब्रिटिश सरकार को एक पत्र लिखा। इसमें कहा गया था कि किसी भी ऐसे आंदोलन का विरोध किया जाना चाहिए जो आंतरिक अशांति पैदा करे। उन्होंने यह भी लिखा कि बंगाल सरकार (जिसमें हिंदू महासभा गठबंधन में थी) प्रांत में भारत छोड़ो आंदोलन को विफल करने के लिए हर संभव प्रयास करेगी।

इसके अलावा, 1939 में कांग्रेस (Congress) के मंत्रालयों ने इस्तीफा दे दिया। यह इस्तीफा भारत को द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) में एक पक्ष घोषित करने के विरोध में था। इसके बाद हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग (Muslim League) और अन्य दलों के साथ मिलकर सरकारें बनाईं।

हिंदू महासभा सार्वजनिक रूप से भारत के विभाजन का विरोध करती थी। इसके बावजूद, सिंध प्रांतीय विधानसभा ने 1943 में पाकिस्तान (Pakistan) के निर्माण के पक्ष में एक प्रस्ताव पारित किया। उस समय सिंध सरकार में शामिल हिंदू महासभा के मंत्रियों ने इस्तीफा नहीं दिया। उन्होंने केवल विरोध करना चुना। महासभा ने रियासतों से धन भी लिया। उसने भारत की आजादी के बाद भी रियासतों के स्वतंत्र रहने की इच्छा का समर्थन किया। वह उन्हें "हिंदू शक्ति का आधार" मानती थी।

निष्कर्ष यह है कि औपनिवेशिक और विश्व युद्धों (World Wars) के दौर में कुंभ मेला सिर्फ एक धार्मिक आयोजन से कहीं बढ़कर था। यह सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच के रूप में काम करता था। इसने भारत की स्वतंत्रता की यात्रा को बहुत प्रभावित किया।

1857 के विद्रोह के दौरान प्रतिरोध के लिए एक रैली स्थल बनने से लेकर महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) और मदन मोहन मालवीय जैसे राष्ट्रवादी नेताओं के उदय तक, कुंभ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह अखिल भारतीय हिंदू महासभा जैसे महत्वपूर्ण संगठनों का जन्मस्थान बना। इसने स्वतंत्रता संग्राम के भीतर जटिल गठबंधनों और विभाजनों को भी दर्शाया। 1947 तक, इस मेले ने लगातार देश के ऐतिहासिक और राजनीतिक परिदृश्य को आकार दिया। भारत के अतीत में इसकी बहुआयामी भूमिका और आधुनिक भारत को आकार देने में इसका निरंतर महत्व, इसके स्थायी प्रभाव का प्रमाण है।
 

संदर्भ 
https://tinyurl.com/284a2t9h
https://tinyurl.com/2352s9lb
https://tinyurl.com/ycjh8ljx
https://tinyurl.com/2y2by3aj
https://tinyurl.com/2yj4dqtj
https://tinyurl.com/29shme7e 



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