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1450 ईस्वी से 1780 ईस्वी के बीच उत्तराखंड की पावन भूमि पर स्थित हरिद्वार एक प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है। इसका धार्मिक महत्व सदियों से बना हुआ है। विशेष रूप से 1450 ईस्वी से 1780 ईस्वी के बीच का समय इसके इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण था। इस दौर में शहर ने कई बड़े राजनीतिक बदलाव देखे। यह दिल्ली सल्तनत के अंतिम समय का गवाह बना। इसके बाद यहां मध्य एशियाई आक्रांता तैमूर लंग का संक्षिप्त आक्रमण भी हुआ। फिर एक लंबा दौर आया जब हरिद्वार शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के अधीन रहा। इन तमाम परिवर्तनों के बावजूद, हरिद्वार एक प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थल के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रहा। यहां सदियों से भक्त और विद्वान समान रूप से आते रहे हैं। इसके साथ ही, इस शहर में कई प्रशासनिक और स्थापत्य विकास भी हुए।
हरिद्वार का इतिहास 1450 ईस्वी से भी कहीं ज़्यादा पुराना है। इसका उल्लेख प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों में भी मिलता है। एक समय में यह मौर्य (322-185 ईसा पूर्व) और कुषाण (पहली-तीसरी शताब्दी) जैसे साम्राज्यों के शासन में रहा था। पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि यहां 1700-1200 ईसा पूर्व में एक टेराकोटा (terracotta) संस्कृति मौजूद थी। आधुनिक युग के लिखित रिकॉर्ड चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के साथ शुरू होते हैं। उन्होंने 629 ईस्वी में भारत की यात्रा की थी। उन्होंने अपने लेखों में हरिद्वार को 'मो-यू-लो' के नाम से दर्ज किया। यह स्थान आज के हरिद्वार शहर के दक्षिण में था, जहां आज भी एक किले और तीन मंदिरों के खंडहर मौजूद हैं। समय के साथ यह शहर 1206 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के अधीन भी आया। 13 जनवरी, 1399 को तैमूर लंग ने इस पर विजय प्राप्त की थी। इन्हीं ऐतिहासिक परतों ने मध्यकाल में हरिद्वार के निरंतर विकास की नींव रखी।
इस मध्ययुगीन काल के शुरुआती दौर में एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक घटना घटी। सिखों के पहले गुरु, गुरु नानक देव (1469-1539 ईस्वी) यहां पधारे थे। उन्होंने हरिद्वार के प्रसिद्ध 'कुशावर्त घाट' पर स्नान किया था। कहा जाता है कि यहीं पर 'फसलों को पानी पिलाने' वाली उनकी प्रसिद्ध लीला हुई थी। दो सिख जनमसाखियों के अनुसार, यह यात्रा 1504 ईस्वी में बैसाखी के दिन हुई थी। आज भी इस पवित्र घटना की याद में यहां एक गुरुद्वारा (गुरुद्वारा नानकवाड़ा) बना हुआ है। गुरु नानक देव ने गढ़वाल में कोटद्वार जाते समय हरिद्वार के एक कस्बे कनखल का भी दौरा किया था।
16वीं शताब्दी ने हरिद्वार के लिए एक नया अध्याय खोला। अब यह शहर मुगल साम्राज्य के अधीन आ गया था। मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में अबुल फजल ने 'आइन-ए-अकबरी' नामक एक विस्तृत ग्रंथ लिखा था। इस ग्रंथ में हरिद्वार का उल्लेख माया (मायापुर) के रूप में मिलता है। इसे "गंगा पर बसा हरिद्वार" भी कहा गया है। 'आइन-ए-अकबरी' में हरिद्वार को हिंदुओं के सात सबसे पवित्र शहरों में से एक बताया गया है। ग्रंथ के अनुसार, उस समय यह शहर अठारह कोस (लगभग 36 किलोमीटर) के विशाल क्षेत्र में फैला हुआ था। यहां बड़ी संख्या में तीर्थयात्री आते थे, खासकर चैत्र महीने की दसवीं तारीख को भारी भीड़ जुटती थी।
सम्राट अकबर स्वयं गंगा नदी के जल को बहुत सम्मान देते थे। वह इसे 'अमरता का जल' यानी 'आब-ए-हयात' कहते थे। सम्राट के लिए गंगाजल पहुंचाने की विशेष व्यवस्था की गई थी। इसके लिए पहले सोरों और बाद में हरिद्वार में विशेष कर्मचारी तैनात किए गए थे। उनका काम सीलबंद जारों में इस पवित्र जल को सम्राट तक भेजना होता था, चाहे वह कहीं भी हों। यह मुगल शासकों की गंगा के प्रति गहरी श्रद्धा को दिखाता है।![]()
अकबर के शासनकाल में हरिद्वार का आर्थिक महत्व भी था। यह शहर सम्राट के तांबे के सिक्कों के लिए एक टकसाल के रूप में भी काम करता था। यह तथ्य मुगल साम्राज्य के भीतर इसके बड़े प्रशासनिक और आर्थिक महत्व को दर्शाता है।
मुगल काल में हरिद्वार के विकास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति का बहुत बड़ा योगदान रहा। ये थे आमेर के राजा मान सिंह। माना जाता है कि उन्होंने ही आज के हरिद्वार शहर की नींव रखी थी। इसके अलावा, उन्होंने हर की पौड़ी के घाटों का भी बड़े स्तर पर जीर्णोद्धार करवाया।
यह भी माना जाता है कि उनके निधन के बाद उनकी अस्थियां ब्रह्म कुंड में ही विसर्जित की गई थीं। इस घटना ने इस पवित्र शहर से उनके गहरे संबंध को और भी मज़बूत कर दिया। राजा मान सिंह द्वारा बनवाया गया 16वीं सदी का एक मंदिर आज भी हर की पौड़ी पर मौजूद है। यह गंगा मंदिर ब्रह्मकुंड के गर्भगृह के भीतर स्थित है और 'राजा मान सिंह की छतरी' के नाम से लोकप्रिय है।
हालांकि, साल 1997 में इसके विशिष्ट गुंबद (छतरी) को हटा दिया गया था। अब इस ऐतिहासिक ढांचे को उसके मूल स्वरूप में लौटाने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। यह प्राचीन परंपरा और आधुनिक संरक्षण पहलों का एक संगम है।
इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (Indian National Trust for Art and Cultural Heritage - INTACH) के विशेषज्ञ इस मंदिर के संरक्षण कार्य में जुटे हैं। विशेषज्ञों ने मंदिर पर रासायनिक परत चढ़ाने, दरारें भरने, परीक्षण और सफाई का काम किया है। मंदिर का प्रबंधन देखने वाले परिवार ने भी इस जीर्णोद्धार को मंजूरी दे दी है। इस परिवार के पूर्वज राजा मान सिंह के पुजारी थे। इस कार्य का उद्देश्य मंदिर के मूल छतरीनुमा शिखर को वापस लाना है, ताकि तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए इसकी आभा को फिर से जीवंत किया जा सके।
इस दौरान विदेशी यात्रियों ने भी हरिद्वार का वर्णन किया है। एक अंग्रेज यात्री, थॉमस कोरियट (Thomas Coryat), सम्राट जहांगीर (1596-1627) के शासनकाल में यहां आए थे। उन्होंने इस शहर को 'हरिद्वारा' कहकर संबोधित किया। विशेष रूप से, उन्होंने इसे 'शिव की राजधानी' बताया था। यह टिप्पणी दर्शाती है कि अलग-अलग राजनीतिक शासनों के तहत भी शहर की धार्मिक पहचान बनी रही।
इन सदियों के दौरान, हरिद्वार हिंदुओं के लिए एक पवित्र केंद्र बना रहा। इसे एक पावन स्थल माना जाता है, जहां कुंभ मेले जैसे महत्वपूर्ण धार्मिक आयोजन होते हैं। यह मेला हर 12 साल में मनाया जाता है। इसमें लाखों तीर्थयात्री गंगा में स्नान करने के लिए एकत्रित होते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से पाप धुल जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
यह शहर कांवड़ यात्रा का भी मुख्य केंद्र है। इस यात्रा में लाखों श्रद्धालु गंगा से पवित्र जल इकट्ठा करते हैं। फिर वे इस जल को शिव मंदिरों तक ले जाते हैं। यहां हिंदू वंशावली रजिस्टरों को सहेजने की परंपरा भी जारी रही। इन रजिस्टरों को 'बही' कहा जाता है। स्थानीय पंडित इन बहियों में अपने यजमानों के विवाह, जन्म और मृत्यु का विवरण दर्ज करते थे। ये रिकॉर्ड उत्तर भारत के पारिवारिक इतिहास का एक विशाल भंडार हैं।
इस काल में हरिद्वार की 'प्रवेश द्वार' के रूप में पहचान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसका नाम 'हरिद्वार' यानी 'विष्णु का द्वार' (हरि = विष्णु) है। यह बद्रीनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए शुरुआती बिंदु को दर्शाता है। इसी तरह, 'हरद्वार' का अर्थ 'शिव का द्वार' (हर = शिव) भी हो सकता है। यह कैलाश पर्वत, केदारनाथ और अन्य प्रमुख शिव तीर्थों की यात्रा के लिए प्रस्थान बिंदु का प्रतीक है। यह शहर छोटा चार धाम यात्रा (बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री) के लिए भी एक प्रवेश बिंदु है।
18वीं शताब्दी तक, यानी 1780 ईस्वी आते-आते, हरिद्वार ने अपनी समृद्ध धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को मजबूती से स्थापित कर लिया था। यह एक ऐसी विरासत थी जो इसके जीवन और समय के साथ लगातार आगे बढ़ती रही। शहर में आज भी कई पुरानी हवेलियां और हवेलीनुमा मकान मौजूद हैं। इन पर की गई उत्कृष्ट भित्ति चित्रकारी और जटिल पत्थर की कारीगरी इसकी ऐतिहासिक गहराई की गवाही देती हैं। हालांकि, ऊपरी गंगा नहर (Upper Ganga Canal) जैसी बड़ी ढांचागत परियोजनाएं बाद में शुरू हुईं (काम 1842 में शुरू हुआ, 1854 में नहर खुली), लेकिन 1450-1780 की अवधि ने उत्तर भारत में एक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक केंद्र के रूप में हरिद्वार के स्थायी महत्व की नींव रखी थी।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2dm4qykp
https://tinyurl.com/yyjuoc2y
https://tinyurl.com/26gwftkp