हरिद्वार शहर अपनी आध्यात्मिक गाथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं के लिए प्रसिद्ध है। पूर्व मध्यकाल के दौरान हरिद्वार ने कई महत्वपूर्ण बदलाव देखे। यह कालखंड 1000 ईस्वी से 1450 ईस्वी तक का था। इस युग की पहचान एक ओर प्राचीन धार्मिक परंपराओं की निरंतरता से थी, तो दूसरी ओर राजनीतिक सत्ता में भी बड़े बदलाव हो रहे थे। ये बदलाव विशेष रूप से दिल्ली सल्तनत के आगमन और इस्लामी शासन की स्थापना के साथ हुए। इन सदियों में शहर की पहचान को आध्यात्मिक भक्ति, राजवंशों में परिवर्तन और इस्लामी आक्रमणों के दूरगामी प्रभाव ने मिलकर एक नया आकार दिया।
हरिद्वार के आध्यात्मिक हृदय में माया देवी मंदिर स्थित है। यह मंदिर शहर की प्राचीन जड़ों और इसके पवित्र महत्व का एक शक्तिशाली प्रमाण है। इसका महत्व पूर्व मध्यकाल में ही नहीं, बल्कि उसके बाद भी बना रहा।
देवी माया को समर्पित यह सम्मानित हिंदू मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी का माना जाता है। यह हरिद्वार के उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है, जो आज भी अपने मूल स्वरूप में मौजूद हैं। इनके अलावा नारायणी शिला मंदिर और भैरव मंदिर भी प्राचीन माने जाते हैं।
यह मंदिर एक शक्तिपीठ के रूप में गहरा आध्यात्मिक महत्व रखता है। ऐसी मान्यता है कि यह वही पवित्र स्थान है, जहाँ देवी सती का हृदय और नाभि गिरे थे। हरिद्वार को पहले मायापुरी के नाम से भी जाना जाता था। यह नाम देवी माया के सम्मान में ही रखा गया था, जिन्हें शहर की अधिष्ठात्री देवी (संरक्षक देवी) माना जाता है।
इसके अतिरिक्त, माया देवी मंदिर को एक सिद्ध पीठ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। सिद्ध पीठ एक ऐसा पूजा स्थल होता है, जहाँ भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। माना जाता है कि विशेषकर तंत्र विद्या के माध्यम से यहाँ इच्छाओं की पूर्ति होती है। यह हरिद्वार के तीन प्रमुख सिद्ध पीठों में से एक है। अन्य दो सिद्ध पीठ चंडी देवी मंदिर और मनसा देवी मंदिर हैं।
मंदिर के गर्भगृह में केंद्र में माया देवी की मूर्ति है। उनके बाईं ओर देवी काली और दाईं ओर माँ कामाख्या की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इनके साथ ही शक्ति के दो अन्य स्वरूपों की मूर्तियां भी हैं। स्थानीय परंपरा के अनुसार, माया देवी मंदिर की तीर्थयात्रा भैरव के दर्शन के बिना अधूरी मानी जाती है। भैरव को माया का रक्षक माना जाता है। यह मंदिर विशेष रूप से नवरात्र और कुंभ मेले जैसे त्योहारों के दौरान बड़ी संख्या में भक्तों को आकर्षित करता है।
वर्ष 1192 ईस्वी में तराइन के युद्ध के बाद उत्तर भारत का राजनीतिक परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया। इस युद्ध ने इस क्षेत्र में मुस्लिम प्रभुत्व की नींव रखी थी। कुतुबुद्दीन ऐबक नाम के एक वफादार तुर्की अधिकारी ने इसमें एक निर्णायक भूमिका निभाई। उसने 1192 ईस्वी में हांसी और दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। बाद में उसने 1206 ईस्वी में मामलुक वंश के तहत दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। इस स्थापना से तुर्की शासन और भी मजबूत हो गया। आधुनिक हरियाणा का बड़ा हिस्सा, जिसमें उस समय हरिद्वार का क्षेत्र भी आता था, इस नए स्थापित साम्राज्य का एक अभिन्न अंग बन गया।
सल्तनत ने हांसी, हिसार, सिरसा, मेवात, रोहतक, सोनीपत, रेवाड़ी और थानेसर जैसे प्रमुख क्षेत्रों में अपनी सैनिक चौकियां (military outposts) स्थापित कीं। इन चौकियों की देखरेख दारोगा करते थे। उनकी मुख्य जिम्मेदारियां भू-राजस्व इकट्ठा करना और किसी भी तरह के विद्रोह को दबाना था।
1210 ईस्वी में सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद अस्थिरता का एक लंबा दौर शुरू हुआ। नासिर-उद-दीन कुबाचा और ताजुद्दीन यिल्दिज जैसे शासकों ने सत्ता पर नियंत्रण के लिए संघर्ष किया। इस संघर्ष में सिरसा सहित कई इलाकों पर दावेदारी को लेकर खींचतान चली। हालांकि, शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश ने जल्द ही अपनी सत्ता स्थापित कर ली। उसने 1210 ईस्वी में ही अपना शासन शुरू कर दिया था। जनवरी 1216 में उसने तराइन के पास यिल्दिज को एक निर्णायक युद्ध में हरा दिया। इसके बाद 1227 ईस्वी में कुबाचा को भी अपने अधीन कर लिया। इस जीत के साथ ही सिरसा जैसे इलाके मजबूती से उसके नियंत्रण में आ गए।
इल्तुतमिश ने कई महत्वपूर्ण प्रशासनिक बदलाव भी लागू किए। उसने अपने विशाल साम्राज्य को कई 'इक्ता' (प्रशासनिक क्षेत्रों) में विभाजित कर दिया। हरियाणा क्षेत्र में हांसी, सिरसा, पिपली, रेवाड़ी, नारनौल और पलवल जैसे प्रमुख इक्ता बनाए गए। इन इक्ताओं का प्रबंधन 'मुक्ता' या 'बलि' कहे जाने वाले अधिकारी करते थे। ये अधिकारी सीधे सुल्तान की निगरानी में काम करते थे।
इल्तुतमिश के शासनकाल के बाद और 1229 में उसके सबसे बड़े बेटे की मृत्यु के बाद, कुछ समय के लिए अव्यवस्था का माहौल रहा। उसकी बेटी रजिया का संक्षिप्त शासन 1240 ईस्वी में उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया। इसके बाद लगभग छह वर्षों तक कम कुशल शासकों के अधीन अराजकता फैली रही। स्थिरता तब लौटी, जब 1246 में नासिर-उद-दीन महमूद सिंहासन पर बैठा। उस समय गियास-उद-दीन बलबन उसका एक बहुत प्रभावशाली मंत्री हुआ करता था। 1266 में महमूद की मृत्यु हुई और बलबन खुद गद्दी पर बैठ गया। बलबन को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इनमें सबसे बड़ी चुनौती मेवात क्षेत्र में लगातार हो रही अशांति थी। यह अशांति इल्तुतमिश के निधन के बाद से ही बनी हुई थी।
बलबन ने मेव लोगों के खिलाफ जो अभियान चलाए, वे बेहद क्रूरता भरे थे। इन अभियानों में बड़े पैमाने पर नरसंहार हुए और लोगों की खाल तक उतार दी गई। ऐसा कहा जाता है कि लगभग 12,000 पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया था। इन कठोर यातनाओं के बावजूद, शुरुआती मुस्लिम शासक मेवात को कभी भी स्थायी रूप से नहीं जीत सके।
1290 ईस्वी तक हिसार का जिला खिलजियों के नियंत्रण में आ गया। खिलजी शासक अपने क्रूर वित्तीय शोषण और दमन के लिए जाने जाते थे। हालांकि, अला-उद-दीन की मृत्यु के बाद उनका यह अत्याचार भी समाप्त हो गया।
1320 ईस्वी में, गियास-उद-दीन तुगलक ने दिल्ली की गद्दी पर कब्जा कर लिया। उसके आने से एक बार फिर स्थिरता और नियंत्रण का दौर लौटा। सिरसा उन पहले क्षेत्रों में से एक था, जिसे उसने अपने कब्जे में लिया था।
गियास-उद-दीन के उत्तराधिकारी, मुहम्मद बिन तुगलक ने एक उल्लेखनीय सहिष्णुता के दौर की शुरुआत की। उसने हिंदू धार्मिक स्वतंत्रता को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया। यहाँ तक कि वह खुद हिंदुओं के त्योहार होली में भी भाग लेता था। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी और इब्न बतूता (Ibn Battuta) के लेखों से भी इसकी पुष्टि होती है। उनके अनुसार, तुगलक के शासनकाल में हिंदू खुले तौर पर अपने धर्म का पालन कर सकते थे और गंगा में तीर्थ यात्रा भी कर सकते थे।
हालांकि, इस उदार नीति ने कुछ मुस्लिम सहयोगियों को नाराज कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके उत्तराधिकारी फिरोज शाह तुगलक ने इनमें से कई नीतियों को उलट दिया। फिरोज शाह ने हिंदुओं के प्रति असहिष्णुता दिखाई। उसने लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया और कई मंदिरों को नष्ट कर दिया, जिनमें सोहना और गोहाना के मंदिर भी शामिल थे।
इसके बावजूद, फिरोज शाह ने कई महत्वपूर्ण विकास कार्य भी किए। उसने फतेहाबाद और हिसार जैसे शहरों की स्थापना की। उसने फुलाद में घग्घर नहर और पश्चिमी यमुना नहर जैसी नहरों का भी निर्माण कराया। 1360 ईस्वी में उसने रानिया के पास फिरोजाबाद नाम का एक शहर भी बसाया था।
इस पूर्व मध्यकाल के अंत के करीब एक बड़ी विनाशकारी घटना घटी। यह घटना थी तैमूर लंग का आक्रमण। 13 जनवरी, 1399 को तैमूर की खूंखार सेना ने हरिद्वार पर हमला कर दिया। उसका आक्रमण पंजाब और राजस्थान से होता हुआ नवंबर 1398 में सिरसा पहुँचा था। उसने शाही शहर दिल्ली और हरिद्वार सहित आसपास के क्षेत्रों में भारी तबाही मचाई थी। इस दौरान बड़े पैमाने पर लूटपाट और नरसंहार हुए। दिल्ली में अपने विनाशकारी अभियान को अंजाम देने के बाद, उसने हरिद्वार के पास हिंदू सेनाओं को भी पराजित किया था।
तैमूर के जाने के बाद पूरे इलाके में अराजकता और भ्रम की स्थिति बन गई। इस उथल-पुथल के बीच, खिज्र खान ने 1411 ईस्वी में हिसार पर अपना कब्जा जमा लिया। इसके बाद उसने 1414 ईस्वी में सैय्यद वंश की स्थापना की। 1428 ईस्वी तक आते-आते हिसार की जागीर महमूद हसन को दे दी गई थी।
बाद में बहलोल लोदी ने सत्ता पर नियंत्रण तो हासिल कर लिया और उसका वंश 1526 ईस्वी तक चला। लेकिन 1000 से 1450 ईस्वी के इस कालखंड में, लोदी वंश का सीधा प्रभाव कम ही रहा। इस दौर में मुख्य रूप से सैय्यद और तुगलक वंशों का ही दबदबा बना रहा। मुगलों का एक प्रमुख शक्ति के रूप में उदय 1526 ईस्वी के बाद ही हुआ।
दिल्ली सल्तनत के पूरे शासनकाल (1206 ईस्वी के बाद) के दौरान हिंदुओं के प्रति शासकों का रवैया काफी हद तक सहिष्णु माना जाता है। हिंदुओं को 'धिम्मी' का दर्जा दिया गया था। इसके तहत उन्हें एक इस्लामी राज्य में संरक्षित अधिकार तो मिले, लेकिन उन पर 'जजिया' कर जैसी कुछ पाबंदियां भी लगाई गईं।
यह मिला-जुला रवैया अलग-अलग राजनीतिक माहौल से प्रभावित था। उदाहरण के लिए, इल्तुतमिश ने स्थिरता बनाए रखने के लिए धार्मिक स्वतंत्रता दी। वहीं, मुहम्मद तुगलक ने हिंदू त्योहारों और तीर्थयात्राओं को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया। इसके विपरीत, फिरोज शाह तुगलक विशेष रूप से असहिष्णु था। उसने नाराज मुस्लिम सहयोगियों को खुश करने के लिए जबरन धर्म परिवर्तन कराया और मंदिर भी तुड़वाए। हालांकि, उसके पूर्ववर्ती शासकों की उदारता का प्रभाव इतना गहरा था कि फिरोज शाह की कठोर नीतियां भी उसे पूरी तरह मिटा नहीं सकीं। बाद में सैय्यद और लोदी शासकों ने अक्सर ऐसी कट्टर नीतियों को नरम ही रखा।
आम लोगों के स्तर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच काफी हद तक सहिष्णुता दिखाई देती थी। कुछ ऐसे दुर्लभ उदाहरण भी मिलते हैं, जहाँ हिंदुओं ने मुसलमानों को काम पर रखा था। कई हिंदुओं ने जाति व्यवस्था की कठोरता से बचने के लिए दिखावटी तौर पर इस्लाम अपना लिया था, लेकिन उन्होंने अपनी आध्यात्मिक हिंदू पहचान बनाए रखी। दिल्ली के आम लोगों के बीच उन्हें स्वीकृति भी मिली।
कला के क्षेत्र में भी एक-दूसरे का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। एक तरफ सुल्तान हिंदू मंदिरों को नष्ट करने के लिए जाने जाते थे, तो वहीं दूसरी ओर, मुसलमानों द्वारा धीरे-धीरे हिंदू वास्तुकला की शैलियों को भी अपनाया जा रहा था।
शुरुआत में हिंदू मजदूर मुस्लिम वास्तुकला से परिचित नहीं थे, फिर भी उन्हें मस्जिदों के निर्माण में लगाया गया। इससे दोनों शैलियों का एक सुंदर मिश्रण हुआ। समय के साथ, मुस्लिम वास्तुकला में हिंदू प्रतीकों को शामिल किया जाने लगा, जैसे कि पेड़ों के रूपांकन। इसका एक उदाहरण 1500 ईस्वी के आसपास बनी सिदी सैय्यद की मस्जिद (Sidi Saiyyed Mosque) में देखा जा सकता है। माना जाता है कि यह चलन शायद पहले ही शुरू हो गया था।
इस्लाम में संगीत को आम तौर पर अच्छा नहीं माना जाता है। इसके बावजूद, कुछ सुल्तानों ने अपने दरबारों में हिंदू संगीत का स्वागत किया। यहाँ तक कि हिंदू महिलाएं भी सूफी भजन गाने लगी थीं, जिससे सांस्कृतिक मेलजोल को और बढ़ावा मिला।
आर्थिक रूप से, हिंदू सल्तनत के लिए अपरिहार्य थे। उनकी विशाल जनसंख्या के कारण उन्हें आसानी से काम पर रखा जा सकता था। आर्थिक जीवन का एक बड़ा हिस्सा हिंदुओं के हाथों में ही बना रहा। कम कीमत पर खरीदकर ऊंचे दाम पर बेचने का धंधा (regrating) मुख्य रूप से एक हिंदू पेशा था। बढ़ईगीरी और लोहारगिरी जैसे शिल्पों में हिंदू सिंधियों का एकाधिकार (monopoly) था।
इस आर्थिक निर्भरता ने सल्तनत को एक उदारवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर किया, क्योंकि गंभीर दमन से आर्थिक अस्थिरता पैदा हो सकती थी। हालांकि सल्तनत ने हिंदुओं की संपत्ति को नियंत्रित करने के लिए कर लगाए, लेकिन ये उपाय अक्सर आर्थिक व्यवस्था में संतोष बनाए रखने के लिए ही तय किए जाते थे।
1000 ईस्वी से 1450 ईस्वी तक का पूर्व मध्यकाल हरिद्वार के लिए एक परिवर्तनकारी युग था। इस काल ने एक ओर ग्यारहवीं सदी के माया देवी मंदिर जैसे प्राचीन स्थलों के जरिये शहर की आध्यात्मिक पहचान को मजबूत किया। तो वहीं दूसरी ओर, इसे दिल्ली सल्तनत के व्यापक राजनीतिक और सांस्कृतिक दायरे में भी एकीकृत किया। अलग-अलग शासकों के अधीन समय-समय पर संघर्ष और धार्मिक सहिष्णुता के बदलते स्तरों के बावजूद, इस अवधि ने एक अनूठी भारत-मुस्लिम संस्कृति को जन्म दिया। इसकी विशेषता दमन और मेल-मिलाप का एक जटिल संतुलन थी। हरिद्वार के स्थायी आध्यात्मिक महत्व और इस्लामी आक्रमणों के गहरे, फिर भी अक्सर उदारवादी, प्रभाव ने उस विविध और बहुलतावादी समाज के लिए एक आवश्यक आधार तैयार किया, जो आज भारतीय उपमहाद्वीप की पहचान है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/29p34mmq
https://tinyurl.com/28qhzqd3
https://tinyurl.com/27ast7s2
https://tinyurl.com/yyjuoc2y