
हरिद्वार शहर का हज़ारों वर्षों का आध्यात्मिक और ऐतिहासिक महत्व है। यह भारतीय संस्कृति और विकास का एक जीता-जागता उदाहरण है। यहाँ प्राचीन परंपराएं आज की प्रगति के साथ सहजता से मिलती हैं। हरिद्वार को 'देवताओं के प्रवेश द्वार' के रूप में जाना जाता है। यह हिंदू धर्म का एक प्रमुख स्थल है। यह शहर अपनी पवित्र जड़ों को मजबूती से थामे हुए लगातार विकसित हो रहा है।
प्राचीन भारत में 600 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी के बीच का समय बड़े धार्मिक और सामाजिक परिवर्तनों का गवाह रहा। इस इतिहास में हरिद्वार ने एक उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। हालांकि, इस विशिष्ट समय-सीमा में इसका सीधा उल्लेख मुख्य रूप से पुरातात्विक साक्ष्यों और पौराणिक कथाओं में ही मिलता है।
हरिद्वार की गहरी आध्यात्मिक पहचान इसके विभिन्न प्राचीन नामों में झलकती है। इन नामों में कपिल्स्थान, गंगाद्वार और मायापुरी शामिल हैं। इसका आधुनिक नाम, हरिद्वार, 'विष्णु का द्वार' कहलाता है। यहाँ 'हरि' का अर्थ विष्णु और 'द्वार' का अर्थ प्रवेश मार्ग है। यह अक्सर बद्रीनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए शुरुआती बिंदु होता है।
इसी तरह, 'हरद्वार' नाम भी प्रचलित है, जिसमें 'हर' का अर्थ शिव है। इसका अर्थ 'शिव का द्वार' है। यह कैलाश पर्वत या केदारनाथ की यात्रा के लिए एक पारंपरिक प्रस्थान बिंदु है। यह दोहरी व्युत्पत्ति इस शहर के वैष्णव और शैव दोनों परंपराओं में महत्व को दर्शाती है।
इस शहर को गंगाद्वार के नाम से भी जाना जाता है। यह वही स्थान है जहाँ शक्तिशाली गंगा नदी पहली बार मैदानी इलाकों में प्रवेश करती है। गंगा नदी गौमुख में अपने उद्गम स्थल से 253 किलोमीटर की यात्रा के बाद यहाँ पहुँचती है।
पौराणिक कथा के अनुसार, हरिद्वार उन चार पवित्र स्थलों में से एक है, जहाँ समुद्र मंथन के दौरान अमृत की बूंदें गिरी थीं। यह अमृत कलश दिव्य पक्षी गरुड़ ले जा रहे थे। माना जाता है कि हर की पौड़ी स्थित ब्रह्म कुंड ही वह सटीक स्थान है, जहाँ अमृत गिरा था। इसी वजह से यह हरिद्वार का सबसे पवित्र घाट है।
यह कांवड़ यात्रा के मुख्य केंद्र के रूप में भी प्रसिद्ध है। लाखों भक्त यहाँ से पवित्र गंगा जल लेकर शिव मंदिरों में चढ़ाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की पौराणिक उपस्थिति से हरिद्वार और भी पवित्र हो जाता है। श्रद्धालुओं का मानना है कि हरिद्वार में पवित्र गंगा में एक डुबकी लगाने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इससे उन्हें जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है।
शहर को 'सप्त पुरी' में गिना जाता है। ये हिंदू धर्म के सात सबसे पवित्र तीर्थ स्थल हैं। ऐसी मान्यता है कि इन स्थलों की यात्रा से तीर्थयात्री को मोक्ष का आशीर्वाद मिलता है। हरिद्वार एक 'नित्य तीर्थ' है। माना जाता है कि यह स्थान प्राकृतिक रूप से आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न है। स्वयं हरिद्वार के भीतर भी 'पंच तीर्थ' (पांच तीर्थ) स्थित हैं। इनमें गंगाद्वार (हर की पौड़ी), कुशावर्त (कनखल में एक घाट), बिल्व तीर्थ (मनसा देवी मंदिर) और नील पर्वत (चंडी देवी मंदिर) शामिल हैं।
प्राचीन ग्रंथों और पौराणिक कथाओं से हरिद्वार का धार्मिक महत्व और भी पुख्ता होता है। महाभारत के 'वन पर्व' में गंगाद्वार (हरिद्वार) और कनखल का उल्लेख मिलता है। बताया गया है कि ऋषि अगस्त्य ने यहीं तपस्या की थी।
माना जाता है कि ऋषि कपिल का यहाँ एक आश्रम था। इसी वजह से इस शहर का प्राचीन नाम कपिला या कपिल्स्थान पड़ा। पौराणिक राजा भगीरथ की कथा भी यहीं से जुड़ी है। उन्होंने सत्य युग में वर्षों की तपस्या से गंगा नदी को स्वर्ग से धरती पर उतारा था। इसका उद्देश्य अपने 60,000 पूर्वजों का उद्धार करना था। आज भी हजारों हिंदू इसी परंपरा को निभाते हैं। वे अपने दिवंगत परिजनों की अस्थियों को गंगा में विसर्जित करते हैं। यह भी माना जाता है कि हर की पौड़ी की ऊपरी दीवार पर एक पत्थर है। उस पत्थर पर भगवान विष्णु के पदचिह्न अंकित हैं। गंगा का प्रवाह निरंतर इन पदचिह्नों को स्पर्श करता है।
हरिद्वार का पौराणिक इतिहास बहुत प्राचीन है। लेकिन पुरातात्विक खोजें यहाँ मानव उपस्थिति के ठोस सबूत देती हैं। इन खोजों से पता चलता है कि इस क्षेत्र में 1700 ईसा पूर्व से 1200 ईसा पूर्व के बीच एक टेराकोटा (terracotta) संस्कृति मौजूद थी।
शहर की प्राचीन जड़ों का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (Xuanzang) के वृत्तांतों में भी मिलता है। उन्होंने 629 ईस्वी में हरिद्वार को 'मो-यू-लो' के रूप में दर्ज किया था। उन्होंने मायापुर में मौजूद खंडहरों का भी जिक्र किया। साथ ही, उन्होंने विशेष रूप से 'गंगाद्वार' यानी गंगा के प्रवेश द्वार का भी उल्लेख किया था। ह्वेन त्सांग एक चीनी बौद्ध भिक्षु और विद्वान थे। वे सातवीं शताब्दी में चीन के तांग राजवंश (Tang Dynasty) के दौरान हुए थे। उनकी यह यात्रा सन 627 से 643 ईस्वी के बीच हुई। ह्वेन त्सांग ने भारत में अपने अनुभवों को बहुत विस्तार से दर्ज किया। उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज, संस्कृति और धर्म के बारे में लिखा। इसके साथ ही उन्होंने यहाँ की राजनीति पर भी प्रकाश डाला। उनके द्वारा लिखे गए वृत्तांत बहुत मूल्यवान माने जाते हैं। इनसे उस दौर के भारतीय इतिहास और संस्कृति को समझने में महत्वपूर्ण मदद मिलती है।
मौर्य साम्राज्य और धार्मिक परिवर्तन: लगभग 600 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी के दौरान हरिद्वार मौर्य साम्राज्य के प्रभाव में आ गया था। मौर्य साम्राज्य की स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 320 ईसा पूर्व में की थी। इसका शक्ति केंद्र मगध में था। यह साम्राज्य पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर दक्षिण में उत्तरी दक्कन तक फैला हुआ था। चंद्रगुप्त के पोते अशोक ने लगभग 268 से 232 ईसा पूर्व तक शासन किया। उनके शासन में साम्राज्य ने लगभग सभी प्रमुख शहरी केंद्रों और व्यापार मार्गों पर नियंत्रण कर लिया था। मौर्य काल में जैन, बौद्ध और आजीवक संप्रदाय का विशेष उदय हुआ। वहीं, पहले से चले आ रहे ब्राह्मणवाद में भी एक बड़ा परिवर्तन आया।
यूनानी स्रोतों के अनुसार, चंद्रगुप्त मौर्य ब्राह्मणवादी अनुष्ठानों और यज्ञों को प्रायोजित करते थे। हालांकि, जैन ग्रंथ बताते हैं कि बाद में उन्होंने जैन धर्म अपना लिया था। उन्होंने अपना सिंहासन और सभी सांसारिक वस्तुएं त्याग दी थीं। वे एक जैन भिक्षु बन गए थे। यहाँ तक कि अपने अंतिम दिनों में उन्होंने संथारा (मृत्यु तक उपवास) की कठोर प्रथा का भी पालन किया। उनके पुत्र बिंदुसार ने यूनानी (Greek) दुनिया के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे। बौद्ध ग्रंथ उन्हें 'ब्राह्मण भक्त' कहते हैं। लेकिन उन्होंने आजीवक धर्म में भी आस्था रखी और ब्राह्मण मठों को अनुदान दिया।
सम्राट अशोक का धम्म परिवर्तन: मौर्य साम्राज्य के दौरान सबसे प्रभावशाली धार्मिक बदलाव सम्राट अशोक के समय हुआ। विनाशकारी कलिंग युद्ध (262–261 ईसा पूर्व) के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया। उन्होंने युद्ध और हिंसा का मार्ग त्याग दिया। उन्होंने अपने 'धम्म' (नैतिक कानून) का सक्रिय रूप से प्रचार किया। उन्होंने पूरे एशिया (Asia) में बौद्ध मिशनरी (Buddhist missionaries) भेजे, जिनमें श्रीलंका, उत्तर-पश्चिम भारत और मध्य एशिया (Central Asia) शामिल थे।
अशोक के प्रयासों ने बौद्ध धर्म को एक विश्व धर्म बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने पूरे साम्राज्य में कई मठों, स्कूलों और स्तूपों का निर्माण करवाया। इनमें प्रसिद्ध सांची स्तूप (Sanchi Stupa) और महाबोधि मंदिर (Mahabodhi Temple) भी शामिल हैं। उनके शिलालेख आज भी देश भर में मिलते हैं। इन शिलालेखों में जंगली जानवरों की हत्या और जंगलों के विनाश पर रोक लगाने का आदेश था। इसी कारण कुछ आधुनिक पर्यावरण इतिहासकार उन्हें पर्यावरण नैतिकता का शुरुआती समर्थक मानते हैं।
मौर्य काल में महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक बदलाव भी हुए। इस दौरान गंगा के मैदानी इलाकों में जाति व्यवस्था और भी मजबूत हो गई। वहीं, इंडो-आर्यन (Indo-Aryan) भाषी क्षेत्रों में महिलाओं के अधिकारों में गिरावट देखी गई।
आर्थिक रूप से, साम्राज्य ने राजनीतिक एकता और सैन्य सुरक्षा को बढ़ावा दिया। इससे एक सामान्य आर्थिक प्रणाली बनी, व्यापार बढ़ा और कृषि उत्पादकता में भी वृद्धि हुई। चंद्रगुप्त मौर्य ने एक समान मुद्रा स्थापित की थी। उन्होंने व्यापारियों और किसानों की सुरक्षा के लिए क्षेत्रीय गवर्नरों का एक नेटवर्क भी बनाया था। उत्तरापथ जैसे प्रमुख व्यापार मार्गों ने दूर-दराज के क्षेत्रों को जोड़ा।
मौर्य साम्राज्य की वास्तुकला विरासत भी प्रभावशाली है। इसमें पाटलिपुत्र का भव्य लकड़ी का महल शामिल है, जिसमें 80 ऊंचे स्तंभ थे। इसके अलावा, अशोक के स्तंभ (Ashokan Pillars) और नक्काशीदार शिलालेख भी देशभर में फैले हुए थे। लगभग 185 ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद हरिद्वार 1206 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के शासन में आया। बाद में, 1399 ईस्वी में इसे मध्य एशियाई विजेता तैमूर लंग (Tamerlane) के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा।
शहर में 1504 ईस्वी में पहले सिख गुरु, गुरु नानक देव जी भी आए थे। उनकी याद में यहाँ गुरुद्वारा नानकवाड़ा (Gurudwara Nanakwara) बना हुआ है। 16वीं शताब्दी में मुगल काल के दौरान, 'आइन-ए-अकबरी' (Ain-i-Akbari) में हरिद्वार का उल्लेख मिलता है। इसे सात पवित्र हिंदू शहरों में से एक बताया गया है। बादशाह अकबर (Emperor Akbar) खुद गंगा जल पीते थे और इसे 'अमरता का जल' कहते थे।
आमेर के राजा मान सिंह को वर्तमान शहर की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने ही हर की पौड़ी के घाटों का जीर्णोद्धार करवाया था। अंग्रेजों के आगमन से शहर में बड़े ढांचागत बदलाव आए। 1840 के दशक में भीमगोड़ा बांध (Bhim Goda Barrage) का निर्माण हुआ। इस बांध से गंगा के पानी को सिंचाई के लिए ऊपरी गंगा नहर (Upper Ganga Canal) में मोड़ा गया। हालांकि इससे खेती को फायदा हुआ, लेकिन गंगा के प्रवाह में कमी आ गई। हरिद्वार को 1886 में रेलवे से जोड़ा गया था।
आधुनिक हरिद्वार आज भी अपनी आध्यात्मिक विरासत को सहेजे हुए आगे बढ़ रहा है। यहाँ औद्योगिक और शैक्षिक विकास साथ-साथ हो रहे हैं। धार्मिक महत्व के अलावा, यह शहर उद्योग का भी एक केंद्र है। यहाँ भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (Bharat Heavy Electricals Limited - BHEL) और सिडकुल (SIDCUL - State Infrastructure and Industrial Development Corporation of Uttarakhand Ltd) जैसे बड़े औद्योगिक क्षेत्र हैं।
यह शहर शिक्षा का भी एक बड़ा केंद्र है। यहाँ गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय (Gurukul Kangri University) है, जिसकी स्थापना 1902 में हुई थी। यह संस्थान पारंपरिक वैदिक और संस्कृत शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान भी पढ़ाता है। इसके अलावा, देव संस्कृति विश्वविद्यालय (Dev Sanskriti Vishwavidyalaya) भी यहीं स्थित है। देश के सबसे पुराने इंजीनियरिंग संस्थानों में से एक, प्रतिष्ठित IIT रुड़की (IIT Roorkee) भी इसी जिले में है।
शहर में हर की पौड़ी के अलावा भी कई मंदिर हैं। इनमें नील पर्वत पर चंडी देवी मंदिर और बिल्व पर्वत पर मनसा देवी मंदिर प्रमुख हैं। इन दोनों मंदिरों तक रोपवे (ropeway) से पहुंचा जा सकता है। यहाँ प्राचीन माया देवी मंदिर भी है, जिसे सिद्धपीठों में से एक माना जाता है।
शहर में बढ़ते ट्रैफिक जाम से निपटने के लिए एक बड़ी परियोजना पर काम चल रहा है। यह परियोजना हरिद्वार रिंग रोड (Haridwar Ring Road) है। इसका पहला चरण 15 किलोमीटर लंबा है, जो शहर के बाहरी इलाकों में बनाया जा रहा है। यह रिंग रोड दिल्ली को नजीबाबाद, देहरादून और नैनीताल से जोड़ेगी। इसका लक्ष्य घंटों के सफर को मिनटों में पूरा करना है। उम्मीद है कि यह रिंग रोड 2026 तक बनकर तैयार हो जाएगी।
हरिद्वार आज भी पूरी तरह से एक शाकाहारी शहर है। यहाँ 2002 से मांस की बिक्री पर प्रतिबंध है। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने 2004 में इस प्रतिबंध को बरकरार रखा था। अपने समृद्ध इतिहास, पौराणिक कथाओं और आधुनिक विकास के साथ, हरिद्वार भारत के अतीत और वर्तमान का एक जीवंत प्रतीक बना हुआ है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/27cmf4qz
https://tinyurl.com/y9vdrl37
https://tinyurl.com/yyjuoc2y
https://tinyurl.com/2yeaju5x
https://tinyurl.com/29o4zkcp
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