इतिहास के पन्नों से निकली हरिद्वार की वो कहानी, जो 4000 साल पहले शुरू हुई थी

निवास : 2000 ई.पू. से 600 ई.पू.
11-10-2025 03:00 PM
इतिहास के पन्नों से निकली हरिद्वार की वो कहानी, जो 4000 साल पहले शुरू हुई थी

अत्यंत प्राचीन और आध्यात्मिक नगरी हरिद्वार मानव सभ्यता की एक जीती-जागती मिसाल है। यह शहर हमेशा से ही मानव बस्तियों का केंद्र रहा है। यहाँ 2000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व के बीच की प्राचीन बस्तियों के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। इस पवित्र भूमि को 'देवताओं का द्वार' भी कहा जाता है। इसे इतिहास में मायापुरी, कपिला और गंगाद्वार जैसे कई नामों से जाना जाता था। उत्तराखंड की यह पावन भूमि भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अद्भुत संगम प्रस्तुत करती है। इसके समृद्ध अतीत को पुरातात्विक खोजों के माध्यम से लगातार उजागर किया जा रहा है।

पुरातात्विक साक्ष्य स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि हरिद्वार क्षेत्र में एक जीवंत टेराकोटा (terracotta) संस्कृति मौजूद थी। यह संस्कृति विशेष रूप से 1700 ईसा पूर्व से 1200 ईसा पूर्व के बीच फली-फूली। हरिद्वार में मानव जीवन और उस काल की वस्तुओं की जानकारी गुरुकुल कांगड़ी के पुरातत्व संग्रहालय में मिलती है। यह संस्थान सौ साल से भी अधिक पुराना है। यह प्राचीन भारतीय संस्कृति के ज्ञान के प्रसार के लिए पूरी तरह समर्पित है।

संग्रहालय की प्रागैतिहासिक वीथिका (Protohistoric Gallery) इस युग की महत्वपूर्ण जानकारी देती है। इसका हड़प्पा संस्कृति खंड (Harappa Culture Section) उस काल के व्यापक परिदृश्य को समझने में मदद करता है। हालांकि, इसमें रखी गई अधिकांश वस्तुएं मोहनजोदड़ो, राखीगढ़ी, बनावली और कालीबंगा जैसी प्रसिद्ध हड़प्पाकालीन जगहों से हैं।

यहाँ रखी प्राचीन वस्तुओं में शामिल हैं:

  • पकी मिट्टी से बनी मानव और पशुओं की मूर्तियां। इनमें मातृदेवी की मूर्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
  • विभिन्न प्रकार के मनके और आभूषण भी यहाँ देखे जा सकते हैं, जिनमें चूड़ियाँ और अंगूठियाँ शामिल हैं।
  • पत्थर की बनी वस्तुओं में गोफन की गोलियां, चर्ट ब्लेड (chert blade) और बाट प्रमुख हैं।
  • धातु की वस्तुओं में तांबे की छेनी, भाले और छोटी कटोरियां रखी गई हैं। इनमें से कुछ पर परिपक्व हड़प्पा काल की विशेष लिपि भी अंकित है।
  • खूबसूरती से चित्रित हड़प्पाकालीन मिट्टी के बर्तन भी इस संग्रह का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी वीथिका का ताम्र-निधि संस्कृति खंड (Copper-Hoard Culture Section) हरिद्वार क्षेत्र को इस महत्वपूर्ण सांस्कृतिक दौर से सीधे जोड़ता है। यहाँ गेरुए रंग के मिट्टी के बर्तनों (OCP - Ochre Colored Pottery) के टुकड़े रखे हैं। साथ ही, ताम्र-निधि संस्कृति की विशिष्ट वस्तुएं भी मौजूद हैं। इन वस्तुओं में हारपून वाले सेल्ट (harpoon celts), कांटेदार भाले और एंटीना वाली तलवारें (antenna swords) शामिल हैं।

यह सभी वस्तुएं हरिद्वार जिले की रुड़की तहसील के नासिरपुर नामक स्थान से प्राप्त हुई थीं। यह संग्रह इस क्षेत्र में प्रारंभिक सांस्कृतिक समूहों और उनकी तकनीकी प्रगति को स्पष्ट रूप से दिखाता है।

जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, इस क्षेत्र में चित्रित धूसर मृद्भांड (Painted Grey Ware) संस्कृति का उदय और प्रसार हुआ। इस संस्कृति का समय आमतौर पर 1100 ईसा पूर्व से 700 ईसा पूर्व के बीच माना जाता है। उत्तराखंड और उसके आसपास के खुदाई स्थलों से इन बाद की बस्तियों के पर्याप्त सबूत मिले हैं। यह काल प्रारंभिक लौह युग में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का प्रतीक है।

उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में हुई पुरातात्विक खुदाई ने इस देवभूमि के गौरवशाली इतिहास के कई नए पन्ने खोले हैं। इन खोजों से पता चलता है कि यह क्षेत्र हजारों वर्षों से मानव सभ्यता का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है।

ऊधम सिंह नगर जिले के काशीपुर में हुई पुरातात्विक खुदाई ने एक बड़ा खुलासा किया है। यहाँ की खुदाई मुख्य रूप से गुप्त काल के एक मंदिर पर केंद्रित थी। हालांकि, यहाँ से चित्रित धूसर मृद्भांड (PGW) काल से लेकर प्रारंभिक मध्ययुगीन काल तक के मिट्टी के बर्तन मिले हैं। यह इस महत्वपूर्ण स्थान पर पीजीडब्ल्यू (PGW) युग से लगातार मानव उपस्थिति का स्पष्ट संकेत है।

उत्तरकाशी जिले में कमल नदी के बाएं किनारे पर पुरोला का प्राचीन स्थल स्थित है। यहाँ भी सबसे निचले स्तरों की खुदाई में चित्रित धूसर मृद्भांड के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से मिली अन्य सामग्रियों में शामिल हैं:

  • पकी मिट्टी की मूर्तियाँ और मनके।
  • मिट्टी के बर्तन पर ठप्पा लगाने वाली एक मुहर।
  • पालतू घोड़े के दाँत और जाँघ की हड्डी के हिस्से भी पाए गए हैं।

पुरोला में एक सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण खोज हुई है। यहाँ ईंटों से बनी एक वेदी मिली है, जिसे 'श्येन चिति' के रूप में पहचाना गया है। इसका आकार उड़ते हुए गरुड़ जैसा है और इसके बीच में एक चौकोर कक्ष बना हुआ है। यह वेदी, कुणिंद शासकों के तांबे के सिक्के, हड्डियों के टुकड़े और अग्नि देवता के रूप में पहचाने गए मानव आकृति वाली सोने की एक पतली पत्ती, उस युग की जटिल धार्मिक प्रथाओं और आर्थिक गतिविधियों की ओर इशारा करते हैं।

टिहरी जिले में अलकनंदा नदी के दाहिने किनारे पर स्थित थापली का स्थल विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यहाँ हुई खुदाई में केवल चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृति की 1.20 मीटर मोटी परत मिली है।

यहाँ से मिली अन्य कलाकृतियों में शामिल हैं:

  • इस संस्कृति की खास तश्तरियां और कटोरे।
  • चित्रकारी वाले छोटे फूलदान।
  • पूरी तरह से पकी हुई एक मिट्टी की चिड़िया, जिसे खांचे बनाकर सजाया गया था।
  • तांबे की चूड़ियाँ और कीलें।
  • एक बर्तन के टुकड़े पर धान की भूसी का निशान भी मिला, जो चावल के उपयोग का पुख्ता प्रमाण है।

थापली में पीजीडब्ल्यू (PGW) संस्कृति की उपस्थिति एक अभूतपूर्व खोज थी। इसने पहली बार यह पुष्टि की कि यह संस्कृति मध्य हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों तक फैली हुई थी, जहाँ पहले इसके कोई प्रमाण नहीं मिले थे। स्वयं हरिद्वार जिले में भी इस संस्कृति के सीधे प्रमाण मिले हैं। गुरुकुल कांगड़ी संग्रहालय द्वारा गढ़ी श्यामपुर में की गई पुरातात्विक जाँच में चित्रित धूसर मृद्भांड के टुकड़े पाए गए। श्री मनोज कुमार के नेतृत्व में हुई इस खोज में मिले अवशेष 1000 ईसा पूर्व से 700 ईसा पूर्व के हैं। इनके साथ ही कुणिंद शासकों के जनजातीय सिक्के और कश्मीर के शासकों के सिक्के भी मिले हैं।

टिहरी जिले में स्थित रानीहाट, उस काल के अंत में मानव बस्तियों और शुरुआती तकनीकी विकास का महत्वपूर्ण प्रमाण प्रस्तुत करता है। यहाँ के पहले काल (600-400 ईसा पूर्व) से बिना रंगे हुए महीन स्लेटी बर्तन, चमकदार लाल बर्तन और काले पॉलिश वाले बर्तन मिले हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ तांपा और लोहा गलाने के सबूत भी मिले हैं। इससे पता चलता है कि रानीहाट के निवासी स्थानीय अयस्क से लोहे के औजार बनाने में माहिर थे। वे इन औजारों का उपयोग मछली पकड़ने और शिकार जैसी गतिविधियों के लिए करते थे।

प्राचीन बस्तियों से मिले सबूत बताते हैं कि टेराकोटा (terracotta) का ऐतिहासिक उपयोग सांस्कृतिक कौशल और वास्तुकला के विकास का प्रतीक रहा है। प्राचीन घरों से लेकर पवित्र स्थानों तक इसकी मौजूदगी इसके सदियों पुराने महत्व को दर्शाती है।

टेराकोटा (terracotta) के साथ यह गहरा ऐतिहासिक जुड़ाव आज भी समकालीन डिजाइन को प्रेरित कर रहा है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण है एलुडेकोर की 'अर्थकोट सीरीज' (EarthKott Series)। यह सीरीज टेराकोटा (terracotta) के पारंपरिक आकर्षण को आधुनिक डिजाइन (modern design) के साथ खूबसूरती से जोड़ती है। यह 21वीं सदी के लिए वास्तुकला की सुंदरता को एक नई परिभाषा देती है।

टेराकोटा (terracotta) की समृद्ध विरासत से प्रेरित होकर, यह सीरीज दुनिया भर की संस्कृतियों को अपने में समेटती है। यह मानवता और पृथ्वी के बीच के अटूट संबंध का उत्सव मनाती है। यह सीरीज विरासत और आधुनिकता (modernity) के बीच एक पुल का काम करती है।

भारत के प्राचीन सांस्कृतिक अतीत के ज्ञान को संरक्षित करने और फैलाने में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय संग्रहालय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इस संग्रहालय की स्थापना 1907-08 में कांगड़ी गाँव के पास पवित्र गंगा के पूर्वी तट पर हुई थी। इसका उद्देश्य छात्रों और आम लोगों को प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का ज्ञान प्रदान करना है। हालांकि, 1924 में आई गंगा की विनाशकारी बाढ़ में इसके शुरुआती संग्रह का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया था।

इसके बाद, 1945 और फिर 1950 में संग्रहालय को पुनर्गठित किया गया। आखिरकार, 1980 में इसने अपना वर्तमान व्यवस्थित स्वरूप प्राप्त किया। आज यहाँ की विभिन्न वीथिकाओं में वर्गीकृत कला वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं।

संग्रहालय का एक प्रमुख उद्देश्य हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में पुरातात्विक खोज करना भी है। इन खोजों और खुदाइयों से नई जानकारियां सामने आती हैं, जिससे संग्रहालय का संग्रह और भी समृद्ध होता है। प्रागैतिहासिक वीथिका के अलावा, संग्रहालय में एक 'टेराकोटा गैलरी' (Terracotta Gallery) भी है। इसमें हड़प्पा काल से लेकर गुप्त काल के अंत तक की मूर्तियां, पैनल (panel) और पट्टिकाएं प्रदर्शित हैं।

आज हरिद्वार एक जीवंत शहर के रूप में लगातार आगे बढ़ रहा है। यह शहर अपनी गहरी ऐतिहासिक और धार्मिक पहचान के साथ आधुनिक प्रगति का संतुलन बनाए हुए है। यह उन पहले शहरों में से एक है जहां गंगा पहाड़ों से निकलकर मैदानी इलाकों में प्रवेश करती है।

हरिद्वार हमेशा से ही कला, विज्ञान और संस्कृति के ज्ञान का केंद्र रहा है। यहाँ एक ओर पारंपरिक शिक्षा की अनूठी गुरुकुल परंपरा कायम है, तो दूसरी ओर आईआईटी रुड़की (IIT Roorkee) जैसे आधुनिक संस्थान भी मौजूद हैं। आधुनिक शहरी जीवन को बेहतर बनाने के लिए हरिद्वार नगर निगम ने एक जियो-टैग्ड मोबाइल एप्लिकेशन (geo-tagged mobile application) की शुरुआत की है। नगर आयुक्त नंदन कुमार के नेतृत्व में यह पहल की गई है। इसका उद्देश्य शहर की स्वच्छता प्रणाली को अधिक पारदर्शी, जवाबदेह और तकनीकी रूप से मजबूत बनाना है।

इस ऐप (app) के माध्यम से, स्वच्छता कर्मचारियों को रोजाना अपने निर्धारित कार्यस्थल से एक जियो-टैग्ड फोटो (geo-tagged photo) अपलोड (upload) करना होता है। इससे उनकी उपस्थिति और काम की रीयल-टाइम (real-time) निगरानी सुनिश्चित होती है। यह हरिद्वार की उस प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जिसमें वह अपनी समृद्ध विरासत को सामुदायिक कल्याण के लिए समकालीन समाधानों के साथ मिला रहा है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि हरिद्वार और उसके आसपास के क्षेत्रों की पुरातात्विक विरासत एक लंबी और निरंतर कहानी बयां करती है। यह कहानी 2000 ईसा पूर्व से शुरू होकर 600 ईसा पूर्व तक मानव बस्तियों और सांस्कृतिक विकास को दर्शाती है। यह क्षेत्र प्राचीन काल में एक गतिशील केंद्र था, जहां टेराकोटा (terracotta) और ताम्र-निधि संस्कृतियों से लेकर चित्रित धूसर मृद्भांड तक का विकास हुआ। टेराकोटा (terracotta) की स्थायी विरासत आज भी आधुनिक डिजाइन (modern design) को प्रेरित करती है, जबकि गुरुकुल कांगड़ी संग्रहालय जैसे संस्थान इस समृद्ध अतीत को लगन से संरक्षित कर रहे हैं। प्राचीन परंपराओं और समकालीन नवाचारों के मिश्रण के साथ, आधुनिक हरिद्वार इस गहरी ऐतिहासिक यात्रा का एक जीवंत प्रमाण है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/2836kp98
https://tinyurl.com/25rb6vcj
https://tinyurl.com/2dpg36e2
https://tinyurl.com/2cnkb4xp 



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