बदलती जलवायु के साथ अपनी खेती के तौर तरीकों को भी बदल रहे हैं, उत्तराखंड के किसान!

जलवायु व ऋतु
11-10-2025 03:00 PM
बदलती जलवायु के साथ अपनी खेती के तौर तरीकों को भी बदल रहे हैं, उत्तराखंड के किसान!

हिमालय की तलहटी में बसा हरिद्वार, समुद्र तल से 295 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है! आज यह शहर अपने मौसम और जलवायु में कई बड़े बदलाव देख रहा है। ये बदलाव कोई अकेली घटना नहीं हैं। बल्कि यह एक वैश्विक समस्या का स्थानीय असर है, जिसके यहाँ के पर्यावरण, खेती और समुदायों पर गहरे प्रभाव पड़ रहे हैं। पूरी दुनिया ने इस समस्या से लड़ने के लिए सामूहिक सहमति बनाई है। इसका एक उदाहरण 2015 का पेरिस समझौता है, जिसका लक्ष्य ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gas) उत्सर्जन को तेजी से कम करके ग्लोबल वार्मिंग (global warming) को पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में 2°C से काफी नीचे, और हो सके तो 1.5°C तक सीमित रखना है। लेकिन उत्तराखंड जैसे क्षेत्रों में, इसके दुष्परिणाम पहले से ही साफ दिखाई दे रहे हैं और तेज़ी से बढ़ भी रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन के असर अब साफ नज़र आ रहे हैं। इसके प्रभावों में बढ़ता तापमान, पिघलते ग्लेशियर (glacier), ध्रुवीय बर्फ का घटना, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि, बढ़ता मरुस्थलीकरण, और लू (heat waves), सूखा, बाढ़ और तूफ़ान जैसी चरम मौसमी घटनाओं का बार-बार होना आदि शामिल है। हालांकि जलवायु परिवर्तन का असर दुनिया भर में एक जैसा नहीं है! यह कुछ क्षेत्रों को दूसरों से ज़्यादा प्रभावित करता है, लेकिन उत्तराखंड विशेष रूप से एक संवेदनशील क्षेत्र बनकर उभरा है।

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि उत्तराखंड वैश्विक औसत की तुलना में लगभग दोगुनी रफ़्तार से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर रहा है। यह बात इसे भारत के सबसे अधिक आपदा-संभावित क्षेत्रों में से एक बनाती है। राज्य के हिमालयी क्षेत्र में, इन प्रभावों की गंभीरता ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ और भी बढ़ जाती है।

मेटियोब्लू (Meteoblue) का जलवायु आंकड़े हरिद्वार क्षेत्र में हो रहे इन स्थानीय बदलावों की एक साफ़ तस्वीर पेश करता है। यह आंकड़े 1979 से 2024 तक के ERA5 वायुमंडलीय पुनर्विश्लेषण पर आधारित है। आंकड़े एक स्पष्ट वार्मिंग ट्रेंड (warming trend) दिखाता है। इसका मतलब है कि समय के साथ यहाँ का औसत वार्षिक तापमान लगातार बढ़ रहा है। इसी तरह, 1979 के बाद से मासिक तापमान में आए बदलाव भी यही कहानी कहते हैं। 1980-2010 के 30-सालों के औसत की तुलना में अब गर्म महीनों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो ग्लोबल वार्मिंग का सीधा प्रमाण है।

तापमान के अलावा, बारिश का रुख भी तेज़ी से अनियमित हो रहा है। हालांकि हरिद्वार में होने वाली कुल औसत बारिश का रुझान यह बता सकता है कि क्षेत्र गीला हो रहा है या सूखा, लेकिन मासिक आंकड़े में बड़े उतार-चढ़ाव दिखते हैं। यह संकट मानवीय गतिविधियों के कारण और भी गहरा गया है। विकास के नाम पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई और पेड़ों का काटा जाना पानी की कमी का एक बड़ा कारण है। निर्माण कार्यों के लिए पहाड़ों की अवैज्ञानिक कटाई और विस्फोट भी इस संकट को बढ़ाने में एक अहम भूमिका निभा रहे हैं। इन्हीं वजहों से यह राज्य सुनामी को छोड़कर, लगभग 'हर बड़ी प्राकृतिक आपदा' का सामना कर चुका है।

बदलते मौसम ने उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में खेती-किसानी का पूरा नक्शा ही बदल दिया है। अनियमित मौसम, सिकुड़ती खेती की ज़मीन और घटती पैदावार का सामना कर रहे किसान अब एक बड़ा बदलाव कर रहे हैं। वे ज़्यादा पानी वाली पारंपरिक फ़सलों जैसे गेहूँ, धान और आलू को छोड़कर, मौसम की मार झेलने वाली दालों और मसालों की ओर बढ़ रहे हैं।

क्लाइमेट ट्रेंड्स (Climate Trends) के एक हालिया विश्लेषण में यह बात सामने आई है। इस रिपोर्ट का शीर्षक था, "'पहाड़ों में पानी और गर्मी का तनाव: जलवायु परिवर्तन कैसे उत्तराखंड के कृषि परिदृश्य को आकार दे रहा है'"। इसके अनुसार, पिछले एक दशक में राज्य में कुल खेती की ज़मीन में 27.2 प्रतिशत की भारी गिरावट आई है और कुल पैदावार में 15.2 प्रतिशत की कमी हुई है। अनाज और तिलहन पर सबसे ज़्यादा मार पड़ी है। पहाड़ी इलाकों में इनकी 27 प्रतिशत कृषि भूमि कम हो गई, जिसमें गेहूँ की खेती में 4.63 प्रतिशत की गिरावट और धान व अन्य मोटे अनाजों में भी इसी तरह की गिरावट देखी गई।File:Deerfire.jpg

इस कृषि बदलाव का सबसे चौंकाने वाला उदाहरण आलू के उत्पादन में आई भारी गिरावट है। आलू एक ऐसी फ़सल है जिसे पारंपरिक रूप से ठंडे मौसम की ज़रूरत होती है। सिर्फ़ पाँच सालों में आलू की पैदावार 70.82 प्रतिशत तक गिर गई, जो 2020-21 में 3,67,309 मीट्रिक टन से घटकर 2023-24 में 1,07,150 मीट्रिक टन रह गई। 2020 से 2023 के बीच आलू की खेती का रकबा भी 36.4 प्रतिशत कम हो गया। विशेषज्ञ इस गिरावट का कारण कम बर्फ़बारी, अनियमित बारिश, बढ़ते तापमान और बार-बार पड़ने वाले ओलों को बताते हैं। ये सभी चीज़ें इस पूरी तरह से बारिश पर निर्भर फ़सल के लिए मिट्टी की नमी और पैदावार पर बहुत बुरा असर डालती हैं। अकेले 2023 में ही, उत्तराखंड ने 94 दिन चरम मौसम का सामना किया, जिससे 44,882 हेक्टेयर (hectare) खेती की ज़मीन को नुकसान पहुँचा।

राज्य का बागवानी क्षेत्र, जो कभी खूब फलता-फूलता था, वह भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। उत्तराखंड को अक्सर भारत का 'फ्रूट बास्केट' (फलों का कटोरा) कहा जाता था, जो ऐतिहासिक रूप से नाशपाती, आड़ू, प्लम, खुबानी का एक प्रमुख उत्पादक और उच्च गुणवत्ता वाले सेब का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक रहा है। लेकिन पिछले सात सालों में यहाँ प्रमुख फलों की पैदावार में भारी गिरावट आई है। 2016-17 से 2022-23 तक, फलों की खेती का कुल रकबा 54 प्रतिशत तक घट गया, और इसी दौरान कुल पैदावार में भी लगभग 44 प्रतिशत की गिरावट आई। ऊँचाई पर उगाए जाने वाले समशीतोष्ण फलों (Temperate fruits) पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा है। उदाहरण के लिए, सेब के उत्पादन का क्षेत्र 50 प्रतिशत से ज़्यादा कम हो गया—2016-17 के 25,201.58 हेक्टेयर से घटकर 2022-23 में 11,327.33 हेक्टेयर रह गया और पैदावार में भी 30 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। नींबू की किस्मों की पैदावार में तो 58 प्रतिशत की चौंकाने वाली गिरावट आई।

समशीतोष्ण फलों के लिए मूल समस्या सर्दियों में बढ़ता तापमान है। उत्तराखंड में औसत तापमान 1970 से 2022 के बीच 0.02 डिग्री सेल्सियस (°C) की वार्षिक दर से बढ़ा है। इससे कुल मिलाकर लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस की गर्मी बढ़ी है, और ऊँचाई वाले इलाकों में यह दर और भी ज़्यादा है। पिछले 20 सालों में, ऊँचाई वाले इलाकों में सर्दियों का तापमान प्रति दशक 0.12°C बढ़ा है और बारिश प्रति दशक 11.2 मिमी कम हुई है।

इसकी वजह से बर्फ़ की चादर तेज़ी से सिकुड़ रही है। यह बर्फ़ सेब, प्लम और आड़ू जैसे समशीतोष्ण फलों के विकास और फूल आने के लिए बेहद ज़रूरी है, जिन्हें एक निश्चित 'चिलिंग आवर्स' (chilling hours) की ज़रूरत होती है (यानी निष्क्रिय अवस्था में 1200-1600 घंटे तक 7°C से नीचे का ठंडा तापमान)। किसान अपना दर्द बयां करते हैं। एक सेब और आड़ू के किसान ने बताया कि कैसे उनके गाँव में सेब की सप्लाई (supply) एक दिन में 1500 पेटियों से घटकर 350 से भी कम रह गई है। वहीं एक प्लम के बाग के मालिक ने बताया कि 2-3 साल से बर्फ़बारी हुई ही नहीं, बारिश ना के बराबर हुई, और मई का तापमान 31°C के पार जाने लगा, जिससे पानी के स्रोत भी सूख गए। अल्मोड़ा में, पिछले दो दशकों में समशीतोष्ण फलों का उत्पादन कथित तौर पर आधा हो गया है, जिससे बिना सिंचाई वाले किसानों पर बहुत बुरा असर पड़ा है। खेती-किसानी में घटते अवसरों के कारण पहाड़ों से मैदानी इलाकों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन भी हुआ है।

इन बड़ी चुनौतियों के बीच, उत्तराखंड के किसान नए रास्ते अपना रहे हैं। वे खुद को हालात के हिसाब से ढाल रहे हैं। पानी की कमी को झेलने की अपनी क्षमता और कम लागत की वजह से दालें लोकप्रिय हो रही हैं। इनमें चना, अरहर के साथ-साथ GI-टैग (GI-Tag) वाली फसलें जैसे पहाड़ी तूर, गहत, और काला भट्ट शामिल हैं। काला सोयाबीन और गहत जैसी फसलें, ज़्यादा पानी चाहने वाले धान और गेहूँ के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा अनुकूल साबित हो रही हैं।

मसालों की खेती भी तेज़ी से बढ़ रही है। पिछले एक दशक में हल्दी की खेती दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई है और मिर्च का उत्पादन 35 प्रतिशत बढ़ गया है। कुल मिलाकर, राज्य में मसालों की खेती में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, और 2016 से 2022 के बीच पैदावार में 10.5 प्रतिशत का उछाल आया है।

बागवानी के क्षेत्र में, जहाँ समशीतोष्ण (temperate) फल संघर्ष कर रहे हैं, वहीं उष्णकटिबंधीय (tropical) विकल्प उम्मीद जगा रहे हैं। आम और लीची का उत्पादन, खेती का रकबा घटने के बावजूद, काफ़ी हद तक स्थिर रहा है। वहीं अमरूद और आँवले के उत्पादन क्षेत्र और पैदावार, दोनों में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी हुई है। यह बदलते मौसम या बाज़ार की माँग के हिसाब से ज़्यादा उपयुक्त फलों की ओर एक रणनीतिक बदलाव को दिखाता है। किसान सेब की कम चिलिंग वाली किस्मों (low-chilling cultivars) के साथ भी प्रयोग कर रहे हैं। वे कठोर छिलके वाले मेवों की जगह कीवी और अनार जैसे उष्णकटिबंधीय फल लगा रहे हैं। उत्तरकाशी जिले की निचली पहाड़ियों और घाटियों में आम की आम्रपाली किस्म की सघन खेती (high-density cultivation) से तो अच्छी कमाई भी हुई है। कृषि विज्ञान केंद्र भी किसानों की सक्रिय रूप से मदद कर रहे हैं, ताकि वे सूखे को झेलने वाली किस्में अपना सकें और अपनी आजीविका बचाने के लिए सही फसल चुन सकें।

उत्तराखंड और हरिद्वार जैसे क्षेत्रों के लिए आगे का रास्ता कई मोर्चों पर एक साथ काम करने की माँग करता है। विशेषज्ञ पहाड़ों से पलायन को रोकने के लिए स्थायी समाधानों की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इन समाधानों में सौर ऊर्जा (solar energy) अपनाना, बुनियादी ढाँचे (infrastructure) को बेहतर बनाना और इंटरनेट कनेक्टिविटी (internet connectivity) को बढ़ाना शामिल है।एक संतुलित दृष्टिकोण का आह्वान किया जा रहा है, जो पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक तकनीकों के साथ जोड़े, और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली परियोजनाओं के खिलाफ एक बड़ी चेतावनी भी देता है। पर्यावरण की रक्षा को रोज़गार से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि अगर हमारा ग्रह ही स्वस्थ नहीं रहेगा, तो किसी भी मानवीय गतिविधि का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

बागवानी क्षेत्र और खेती के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए, हमें कुछ ज़रूरी कदम उठाने होंगे। हमें जगह के हिसाब से जलवायु-अनुकूल (climate-resilient) किस्मों और प्रबंधन के तरीकों को पहचानना और विकसित करना होगा। साथ ही, किसान समुदाय की मदद के लिए ज़रूरी क्लाइमेट फाइनेंसिंग (climate financing) भी उपलब्ध करानी होगी। इसके अलावा, हितधारकों को प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए तैयार करने और सही निर्णय लेने में मदद करने के लिए, गाँव-स्तर पर कृषि-मौसम सलाह सेवाओं (agromet advisory services) का समय पर प्रसार करना महत्वपूर्ण है। 


संदर्भ 

https://tinyurl.com/2ysmmbbg 

https://tinyurl.com/2bd4gcj4 

https://tinyurl.com/25bq25xe 

https://tinyurl.com/22splcpu 

https://tinyurl.com/28v9trgn 



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