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अपनी आध्यात्मिक पहचान और हिमालय की तलहटी में बसे होने के लिए मशहूर हरिद्वार, एक समृद्ध और जीवंत वन संपदा का प्रवेश द्वार भी है। इस कुदरती विरासत के केंद्र में शानदार राजाजी नेशनल पार्क है। यह उत्तराखंड का एक बेहद महत्वपूर्ण वन्यजीव और वन संरक्षण क्षेत्र है। इसके साथ ही, देहरादून में स्थित ऐतिहासिक वन अनुसंधान संस्थान (FRI) भी है, जो भारत के वानिकी परिदृश्य को आकार देने में एक अहम भूमिका निभाता है।
राजाजी नेशनल पार्क आज वन्यजीव प्रेमियों के लिए एक प्रसिद्ध ठिकाना है, जिसकी आधिकारिक स्थापना 1983 में हुई थी। हालाँकि, इसकी जड़ें बहुत पुरानी हैं। दरअसल, इसकी उत्पत्ति तीन अलग-अलग वन्यजीव अभयारण्यों (Wildlife Sanctuaries) राजाजी अभयारण्य, मोतीचूर अभयारण्य, और पौड़ी वन प्रभाग की चिल्ला रेंज के विलय से हुई। पार्क बनाने की इरादा अधिसूचना 12 अगस्त, 1983 को जारी की गई थी।
इस पार्क का नाम राजाजी अभयारण्य से लिया गया है। यह नाम स्वतंत्र भारत के पहले भारतीय गवर्नर-जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के नाम पर रखा गया था, जिन्हें प्यार से 'राजाजी' कहा जाता था। वह भारत के अंतिम गवर्नर-जनरल भी थे, क्योंकि 1950 में भारत के गणतंत्र बनने पर इस पद को समाप्त कर दिया गया था। यही नहीं, वे इस प्रतिष्ठित पद को संभालने वाले एकमात्र भारतीय मूल के व्यक्ति थे। पार्क के निर्माण पर उनके प्रभाव का एक दिलचस्प किस्सा भी है। कहा जाता है कि एक बार शिकार के निमंत्रण पर, राजाजी उस क्षेत्र की जैविक विविधता और बड़ी संख्या में जंगली जानवरों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शिकार में हिस्सा लेने के बजाय, एक वन्यजीव अभयारण्य बनाने का सुझाव दे दिया। इस दूरदर्शिता भरे कदम ने देश के लिए उनके महत्वपूर्ण योगदान और भारत की प्राकृतिक विरासत को बचाने की उनकी सोच को सम्मानित किया।
राजाजी नेशनल पार्क 820.42 वर्ग किलोमीटर के एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है। इसका विस्तार शिवालिक पर्वतमाला पर, उत्तर-पश्चिम में देहरादून-सहारनपुर सड़क से लेकर दक्षिण-पूर्व में रावसन नदी तक है। गंगा नदी इसकी एक अनोखी भौगोलिक विशेषता है, जो पार्क को दो हिस्सों में बांटती है। इसका पूर्वी भाग चिल्ला और गोहरी रेंज से मिलकर बना है, जबकि पश्चिमी भाग में रामगढ़, कांसरो, मोतीचूर, हरिद्वार, ढोलखंड और चिल्लावाली रेंज शामिल हैं। यह पार्क सचमुच "शिवालिक की जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का एक अनमोल खजाना" है।
राजाजी नेशनल पार्क के जंगल इसके विविध आवासों का प्रमाण हैं। इनमें नम शिवालिक साल वन (Moist Shivalik Sal Forest), नम मिश्रित पर्णपाती वन (Moist Mixed Deciduous Forest), उत्तरी शुष्क मिश्रित पर्णपाती वन (Northern Dry Mixed Deciduous), दक्षिणी ढलानों पर खैर-सीस्सू वन (Khair-Sissoo forests), निचले जलोढ़ सवाना वुडलैंड्स (Low Alluvial Savannah woodlands) और शिवालिक पहाड़ियों की ऊँचाइयों पर चीड़-पाइन के जंगल शामिल हैं।
यह समृद्ध वनस्पति वन्यजीवों की एक अद्भुत दुनिया को सहारा देती है। राजाजी 50 से भी ज़्यादा स्तनधारी जीवों का घर है। इनमें सबसे प्रमुख हैं, विलुप्त होने की कगार पर खड़े एशियाई हाथी और मुश्किल से दिखाई देने वाला बाघ। एक अनुमान के मुताबिक, इस पार्क में 350 से ज़्यादा एशियाई हाथी रहते हैं। यहाँ पाए जाने वाले अन्य प्रमुख जानवरों में तेंदुए, हिमालयी काले भालू, स्लॉथ बेयर (Sloth Bear), सिवेट (Civet), मार्टन (Marten), सियार, लकड़बग्घे, सांभर, चीतल (spotted deer), काकड़ (barking deer), जंगली सूअर, नीलगाय, लंगूर और जंगली बिल्लियाँ शामिल हैं। घुरल (पहाड़ी बकरी), जो निचले हिमालय का एक खास जानवर है, वह शिवालिक की खड़ी ढलानों पर बड़ी संख्या में पाया जाता है।
राजाजी नेशनल पार्क पक्षी प्रेमियों (birdwatchers) के लिए भी किसी स्वर्ग से कम नहीं है। यहाँ 300 से भी ज़्यादा प्रजातियों के पक्षी देखे गए हैं। इनमें लगभग 90 प्रवासी प्रजातियाँ जैसे पोचार्ड (Pochard), गल (Gull), मैलार्ड (Mallard), टील (Teal) और शेल्डक (Shelduck) आदि शामिल हैं, जो पार्क के जलाशयों और गंगा नदी के नम-भरे क्षेत्रों में आते हैं। यहाँ के स्थानीय पक्षियों में मोर, जंगली मुर्गे, कई तरह के तोते, कठफोड़वा, किंगफिशर (Kingfisher), थ्रश (Thrush), वार्बलर (Warbler) और बारबेट (Barbet) शामिल हैं। पार्क में हॉर्नबिल (Hornbill) की विभिन्न प्रजातियों के बीच, ग्रेट पाइड हॉर्नबिल (Great Pied Hornbill) का दिखना एक बेहद खास अनुभव माना जाता है। पक्षियों और जानवरों के अलावा, पार्क में रेंगने वाले जीवों की भी अच्छी संख्या है, जिनमें अजगर, कोबरा और किंग कोबरा सहित कई प्रजातियों की छिपकलियाँ, साँप और कछुए शामिल हैं। पार्क के अंदर की नदियाँ जलीय-जीवों जैसे गोल्डन महासीर (Golden Mahseer) और अन्य मछलियों से भरी हुई हैं।
वन्यजीव संरक्षण में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए, राजाजी नेशनल पार्क को 2015 में टाइगर रिज़र्व (Tiger Reserve) घोषित कर दिया गया। इस दर्जे से पार्क की जैव-विविधता को सुरक्षा की एक और परत मिली है और यह बंगाल टाइगर के अस्तित्व के लिए इसके महत्व को भी रेखांकित करता है।
यहाँ संरक्षण के प्रयास लगातार जारी हैं और समय के साथ बदल भी रहे हैं। एक महत्वपूर्ण पहल बाघों के स्थानांतरण (relocation) से जुड़ी है, ताकि राजाजी में उनकी आबादी को बढ़ाया जा सके। कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व (CTR) से पाँच और बाघों (तीन बाघिन और दो बाघ) को राजाजी टाइगर रिज़र्व में लाने का एक प्रस्ताव राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) को भेजा गया है। यह कदम राजाजी के 'बाघ पुनर्स्थापना योजना' के दूसरे चरण का हिस्सा है। इस स्थानांतरण के पीछे दो मुख्य कारण हैं: पहला, राजाजी में बाघों की आबादी को बढ़ाना, खासकर इसके पूर्वी रेंज (range) में जहाँ समय के साथ उनकी संख्या कम हो गई थी; और दूसरा, कॉर्बेट में बढ़ते मानव-बाघ संघर्ष को नियंत्रित करने में मदद करना, जो दुनिया में सबसे ज़्यादा बाघ घनत्व वाले क्षेत्रों में से एक है।
इससे पहले भी बाघों को यहाँ लाया गया है, जैसे 2022 में कॉर्बेट से पाँच बाघों (तीन बाघिन और दो बाघ) का स्थानांतरण, जिसके नतीजे काफ़ी सकारात्मक रहे हैं। निगरानी से पता चला कि इन बाघों ने राजाजी के नए माहौल में खुद को अच्छी तरह से ढाल लिया; उन्हें वहाँ पर्याप्त जगह और शिकार भी मिला। वन्यजीव विशेषज्ञ इस वैज्ञानिक स्थानांतरण को एक दूरदर्शी और प्रकृति-संवेदनशील नीति बताकर इसकी प्रशंसा करते हैं। यह न केवल संघर्ष को कम करती है, बल्कि बाघों की सुरक्षा और उनके प्राकृतिक जीवन-चक्र में भी मदद करती है। इस पहल को राजाजी को एक स्थायी बाघ निवास स्थान के रूप में फिर से स्थापित करने में एक मील का पत्थर माना जा रहा है। इससे कॉर्बेट जैसे घने जंगलों पर भार संतुलित होता है और नए क्षेत्रों में बाघों की आबादी फिर से बसाई जा रही है।
जहाँ राजाजी नेशनल पार्क इस क्षेत्र के जंगलों के जंगली हृदय का प्रतीक है, वहीं हरिद्वार के पास स्थित वन अनुसंधान संस्थान (FRI) भारत के वानिकी प्रयासों की बौद्धिक रीढ़ का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी स्थापना 1878 में 'फॉरेस्ट स्कूल ऑफ देहरादून' (Forest School of Dehradun) के रूप में हुई थी। बाद में, 1906 में ब्रिटिश इंपीरियल फॉरेस्ट्री सर्विस (British Imperial Forestry Service) के तहत इसका नाम बदलकर 'इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट' (Imperial Forestry Research Institution) कर दिया गया। 1991 में, इसे डीम्ड यूनिवर्सिटी (Deemed University) का दर्जा प्राप्त हुआ, जिससे वानिकी शिक्षा और अनुसंधान में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका और भी मज़बूत हो गई।
इस संस्थान की मुख्य इमारत अपने आप में वास्तुकला का एक बेजोड़ नमूना है। इसका उद्घाटन 1929 में वायसराय विलिंगडन (Viceroy Willingdon) ने किया था। प्रसिद्ध वास्तुकार सी.जी. ब्लोमफील्ड (C.G. Blomfield) द्वारा ग्रीको-रोमन (Greco-Roman) और औपनिवेशिक (Colonial) शैली में रूपांकित की गई इस इमारत ने कभी दुनिया की सबसे बड़ी, पूरी तरह से ईंटों से बनी संरचना के रूप में गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स (Guinness World Records) में जगह बनाई थी। इस इमारत का विशाल आकार सचमुच हैरान कर देने वाला है, जो 2.5 हेक्टेयर के प्लिंथ एरिया में फैली हुई है। बाहरी हिमालय की पृष्ठभूमि में स्थित, इस संस्थान का कैंपस (campus) 450 हेक्टेयर के विशाल क्षेत्र में फैला है, जिसमें शानदार मैदान, वनस्पति उद्यान और पिकनिक स्पॉट (picnic spot) भी हैं।
वन अनुसंधान संस्थान, वानिकी अनुसंधान और शिक्षा का एक आधार स्तंभ है। यहाँ अत्याधुनिक प्रयोगशालाएँ (state-of-the-art laboratories), एक समृद्ध पुस्तकालय, एक व्यापक हर्बेरियम (Herbarium), आर्बोरिटम (Arboretum), एक प्रिंटिंग प्रेस (Printing Press) और प्रायोगिक क्षेत्र मौजूद हैं। यहाँ वानिकी के विभिन्न पहलुओं पर केंद्रित छह विशेष संग्रहालय भी हैं, जिनमें पैथोलॉजी (Pathology), सोशल फॉरेस्ट्री (Social Forestry), सिल्विकल्चर (Silviculture), टिम्बर (Timber), गैर-लकड़ी वन उत्पाद और एंटोमोलॉजी शामिल हैं। इस संस्थान के कैंपस ने सांस्कृतिक महत्व भी हासिल किया है। यह 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर', 'पान सिंह तोमर', और 'डियर डैडी' जैसी कई बॉलीवुड फिल्मों के लिए एक ग्लैमरस पृष्ठभूमि के रूप में काम कर चुका है।
कुल मिलाकर हरिद्वार और उसके आसपास के जंगल, खासकर राजाजी नेशनल पार्क और देहरादून का फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (FRI), भारत की प्राकृतिक और वैज्ञानिक विरासत के अहम हिस्सा रहे हैं। राजाजी पार्क का नाम एक ऐसे नेता के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने वन संरक्षण की वकालत की थी। आज भी यहां बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए उन्हें दूसरी जगहों से लाकर बसाया जा रहा है ! यह सफल वन्यजीव प्रबंधन का बेहतरीन उदाहरण है। दूसरी ओर, देहरादून में बना भव्य एफआईआर संस्थान पिछले सौ सालों से वनों पर शोध और शिक्षा का केंद्र बना हुआ है। ये दोनों संस्थान मिलकर यह दिखाते हैं कि भारत अपने अनोखे पर्यावरण को बचाने और इंसान तथा प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए कितना गंभीर है। ये जगहें न केवल सुंदर हैं, बल्कि हमें संरक्षण के जरूरी सबक भी सिखाती हैं।
संदर्भ