हरिद्वार से समुद्र तक पानी और मछलियों का रोमांचक सफ़र

महासागर
11-10-2025 03:00 PM
हरिद्वार से समुद्र तक पानी और मछलियों का रोमांचक सफ़र

उत्तराखंड के प्रमुख तीर्थस्थल हरिद्वार का पवित्र गंगा नदी से एक अटूट संबंध है। भले ही हरिद्वार समुद्र से बहुत दूर है, फिर भी नदी और समुद्र के पानी के बीच के बुनियादी अंतर को समझना बहुत ज़रूरी है। इससे हमें गंगा जैसे मीठे पानी के स्रोतों के महत्व को समझने में मदद मिलती है, खासकर उस क्षेत्र के लिए जहाँ टिकाऊ मछली पालन (aquaculture) को बढ़ावा दिया जा रहा है। गंगा जैसी नदी की यात्रा, जो अपने उद्गम से शुरू होकर आखिर में समुद्र में मिलती है, यह भी एक गहरे संबंध को दर्शाती है, क्योंकि दुनिया की हर नदी अंततः विशाल महासागरों का ही हिस्सा बन जाती है।

हमारी पृथ्वी की सतह का लगभग 70% हिस्सा पानी से ढका हुआ है। लेकिन इस पानी के प्रकार में एक बड़ा असंतुलन है। इसका लगभग 96.5% हिस्सा खारा पानी (saltwater) है, और केवल 3.5% ही मीठा पानी (freshwater) है। पानी की बनावट का यही बुनियादी फ़र्क उनके अलग-अलग गुणों को तय करता है।

सबसे बड़ा और साफ़ अंतर नमक की मात्रा, यानी खारेपन का है। गंगा नदी जैसा मीठा पानी, जिसमें नमक की मात्रा 1% से भी कम होती है। कुछ परिभाषाओं के अनुसार तो यह 0.05% जितनी कम भी हो सकती है। इसी वजह से, मीठे पानी का आमतौर पर कोई स्वाद, गंध या रंग नहीं होता। इसके विपरीत, समुद्री पानी में कम से कम 3% नमक और कई अन्य खनिज (minerals) घुले होते हैं। महासागरों में औसतन 3.5% नमक होता है, जिसमें मुख्य रूप से सोडियम क्लोराइड (साधारण नमक) (Sodium Chloride) के अलावा सल्फेट(sulphate), मैग्नीशियम (magnesium), कैल्शियम (calcium), पोटेशियम (potassium) और ब्रोमीन (bromine) भी अच्छी-खासी मात्रा में पाए जाते हैं। जब पानी ज़मीन पर बहता हुआ समुद्र तक पहुँचता है, तो यह चट्टानों और मिट्टी से लगातार खनिजों को घोलता रहता है और समुद्र में पहुँचने तक इसमें ये तत्व जमा हो जाते हैं।File:Ocean Splashing on Rocks.jpg

खनिजों की यह बनावट पानी के pH स्तर पर भी असर डालती है। समुद्र का पानी, अपने ज़्यादा खारेपन की वजह से, हल्का क्षारीय (alkaline) होता है, जिसका औसत pH 8.1 के करीब होता है। इसका मुख्य कारण समुद्र के तल पर कैल्शियम कार्बोनेट (calcium carbonate) का लगातार घुलना है, जिससे पानी में क्षारीय बाइकार्बोनेट (bi-carbonate) और हाइड्रॉक्साइड (hydroxide) मिल जाते हैं। हालांकि, आजकल समुद्री पानी कम क्षारीय होने की प्रवृत्ति दिखा रहा है। यह बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड (carbon dioxide) के अवशोषण और कार्बोनिक एसिड (carbonic acid) बनने के कारण हो रहा है। वहीं, मीठे पानी का pH ज़्यादा परिवर्तनशील होता है, जो आमतौर पर 6.0 से 8.0 के बीच रहता है। यह तापमान, बारिश और मिट्टी में मौजूद खनिजों जैसे स्थानीय कारकों पर निर्भर करता है।

मीठे पानी में खारे पानी की तुलना में लगभग 20% ज़्यादा घुली हुई ऑक्सीजन होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कम खारेपन और खनिजों की कम मात्रा के कारण ऑक्सीजन के अणुओं को घुलने के लिए ज़्यादा जगह मिल जाती है। ठंडा और बहता हुआ पानी, जैसे कि एक नदी, गर्म और स्थिर पानी की तुलना में ज़्यादा ऑक्सीजन धारण कर सकता है।

घनत्व (density) की बात करें तो, घुले हुए नमक और खनिजों की अधिकता समुद्री पानी को मीठे पानी से ज़्यादा सघन बनाती है। यही कारण है कि खारे पानी में कोई भी वस्तु, यहाँ तक कि इंसान भी, ज़्यादा आसानी से तैर सकता है। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण मृत सागर (Dead Sea) है, जहाँ 28% खारेपन के कारण तैरना बेहद आसान हो जाता है।

पानी की स्पष्टता, यानी प्रकाश उसके भीतर कितनी दूर तक जा सकता है, यह उसके गंदलेपन (turbidity) पर निर्भर करता है। गंदलेपन का मतलब पानी में तैरते हुए मिट्टी जैसे कणों की मात्रा से है। मीठे और खारे, दोनों तरह के पानी की स्पष्टता कम या ज़्यादा हो सकती है। लेकिन, जहाँ मीठा और खारा पानी आपस में मिलता है, जैसे नदी के मुहाने (estuaries), वहाँ का पानी आमतौर पर बहुत गंदला और कम पारदर्शी होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि दोनों तरह के पानी को मिलाने वाली धाराओं में काफी हलचल होती है।

इसके अलावा, पानी में घुले हुए नमक और खनिज उसके जमने और उबलने के तापमान पर भी असर डालते हैं। मीठे पानी की तुलना में, खारे पानी का जमने का तापमान कम (लगभग -2°C) और उबलने का तापमान ज़्यादा (लगभग 102°C) होता है। मीठा पानी 0°C पर जमता है और 100°C पर उबलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पानी में घुले हुए कण पानी के अणुओं को जमने के लिए क्रिस्टल बनाने और उबलने के लिए भाप बनकर उड़ने से रोकते हैं।

मीठे और खारे पानी के अलग-अलग रासायनिक और भौतिक गुणों के कारण, इनमें रहने वाली मछलियों को जिंदा रहने के लिए खास शारीरिक बनावट और क्षमताओं की ज़रूरत होती है।

मीठे पानी की मछलियाँ ऐसे माहौल में रहती हैं जहाँ उनके शरीर के अंदर का तरल पदार्थ बाहर के पानी से ज़्यादा खारा होता है। इसलिए, उनके शरीर में पानी भरने का खतरा बना रहता है। इससे बचने के लिए उनकी किडनियाँ (kidneys) बहुत कुशल होती हैं, जो बड़ी मात्रा में पानी को तेज़ी से बाहर निकाल देती हैं। उनके गलफड़ों (gills) में भी खास कोशिकाएं होती हैं जो पानी से ज़रूरी नमक सोखती हैं। साथ ही, उनकी किडनियाँ पेशाब से भी नमक को शरीर से बाहर जाने से पहले वापस सोख लेती हैं, जिससे उनके शरीर में नमक का संतुलन बना रहता है।

इसके विपरीत, खारे पानी की मछलियाँ ऐसे माहौल में रहती हैं, जहाँ बाहरी पानी उनके शरीर के तरल पदार्थ से ज़्यादा खारा होता है। उनके सामने यह चुनौती होती है कि उनके शरीर का पानी, खासकर गलफड़ों के ज़रिए, लगातार बाहर निकलता रहता है। इसकी भरपाई के लिए, समुद्री मछलियाँ बहुत सारा खारा पानी पीती हैं और उनके गलफड़ों में मौजूद खास कोशिकाएं अतिरिक्त नमक को छानकर बाहर निकाल देती हैं। उनकी किडनियाँ पानी को बचाने में बहुत कुशल होती हैं, जिस वजह से वे बहुत कम पेशाब करती हैं।

मीठे पानी की मछलियाँ, जैसे कि कैटफ़िश (catfish), ट्राउट (trout), पाइक (pike) और सैल्मन (salmon), कई तरह के आवासों में पाई जाती हैं। वे उथले तालाबों, झीलों और नदियों में रहती हैं, और 5°C से 24°C तक के तापमान में रह सकती हैं। खारे पानी की मछलियाँ, जैसे टूना (tuna), शार्क (shark), कॉड (cod) और मार्लिन (marlin), ठंडे ध्रुवीय महासागरों से लेकर गर्म उष्णकटिबंधीय समुद्रों तक, हर जगह फलती-फूलती हैं। वे मूंगे की चट्टानों (coral reefs), मैंग्रोव, और गहरे समुद्र में भी पाई जाती हैं। हिल्सा जैसी कुछ मछलियाँ प्रवासी होती हैं, यानी वे मीठे पानी की नदियों और खारे पानी के समुद्रों के बीच यात्रा करती हैं। यह इन दोनों वातावरणों के बीच के गहरे संबंध को भी दिखाता है।

हरिद्वार की पहचान गंगा नदी से अटूट रूप से जुड़ी हुई है। यह एक महत्वपूर्ण मीठे पानी का स्रोत है जो न केवल इंसानी बस्तियों को, बल्कि एक समृद्ध जलीय जीवन को भी सहारा देता है। नदी के किनारे शहर की रणनीतिक स्थिति, अनुकूल जलवायु और भरपूर पानी की उपलब्धता, इसे एक्वाकल्चर (मछली पालन) का एक संभावित केंद्र बनाती है। यहाँ बायोफ्लॉक (Biofloc) जैसी तकनीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जो पानी और चारे का उपयोग कम करते हुए प्रदूषण भी घटाती हैं। यह सीधे तौर पर मछली उत्पादन बढ़ाने, स्थानीय आबादी के लिए प्रोटीन का स्रोत प्रदान करने और मछली पालकों की आजीविका में सुधार करने में मदद करता है।

हाल के अध्ययनों से गंगा के जलीय जीवन में एक सकारात्मक रुझान दिखता है। 1991 और 2012 के बीच मछलियों की प्रजातियों की संख्या लगभग आधी हो गई थी, लेकिन अब इसमें एक शानदार वापसी हुई है। पिछले दशक में प्रजातियों में 36% की वृद्धि हुई है, और 2021 में यह संख्या 190 तक पहुँच गई। इस पुनरुद्धार का श्रेय नदी को साफ करने और मछुआरों को छोटी मछलियाँ न पकड़ने के लिए शिक्षित करने जैसे प्रयासों को दिया जाता है। हिल्सा, कजरी, वचा, गरुआ और पियाली जैसी कीमती प्रजातियाँ अब फिर से नदी किनारे बसे शहरों में मिलने लगी हैं। कानपुर से फरक्का तक के हिस्से में 103 प्रजातियाँ दर्ज की गईं (जो पहले 79 थीं) और फरक्का क्षेत्र में अब तक की सर्वाधिक 84 प्रजातियाँ मिलीं, जो नदी के अनुकूल माहौल का संकेत है। केंद्रीय अंतर्देशीय मत्स्य अनुसंधान संस्थान (CIFRI) की पहलों ने भी मछली की संख्या बढ़ाने और पानी की गुणवत्ता सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

इन सुधारों के बावजूद, चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। गंगा के ऊपरी हिस्सों में, जैसे हरिद्वार से ऊपर अलकनंदा और भागीरथी बेसिन में, पानी की गुणवत्ता आम तौर पर पीने के लिए 'क्लास ए' मानकों को पूरा करती है। यहाँ घुली हुई ऑक्सीजन (DO) पर्याप्त है और बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (Biochemical Oxygen Demand) का स्तर भी स्वीकार्य है। लेकिन, कानपुर से वाराणसी तक के निचले हिस्सों में प्रदूषण बढ़ जाता है और इसे गंभीर रूप से प्रदूषित माना गया है, जहाँ अक्सर फीकल कॉलीफॉर्म का स्तर बहुत ज़्यादा होता है। चल रहा "नमामि गंगे" कार्यक्रम एक बहु-आयामी प्रयास है, जिसका उद्देश्य प्रदूषण कम करके, जनभागीदारी बढ़ाकर और जैव विविधता का संरक्षण करके नदी का कायाकल्प करना है।

मानवीय हस्तक्षेप, जैसे गंगा बेसिन पर बनी जलविद्युत परियोजनाएं, भी नदी की पारिस्थितिकी को प्रभावित करते हैं। जहाँ एक ओर जलविद्युत एक स्वच्छ ऊर्जा का स्रोत है, वहीं यह पानी के बहाव और नदी के तल की स्थिति को बदलकर जलीय जीवन पर असर डाल सकता है। इन प्रभावों को कम करने के लिए, बांधों के पास मछलियों के आने-जाने में मदद करने के लिए तकनीकी 'फिश पास' का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, बांधों से नीचे की ओर नदी में एक न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह (E-flows) बनाए रखने के लिए नियम बनाए जा रहे हैं, खासकर उन महीनों में जब मछलियाँ प्रवास करती हैं।

 

संदर्भ 

https://tinyurl.com/2bcvxqvx

https://tinyurl.com/25phesca

https://tinyurl.com/253n97s4

https://tinyurl.com/24z8vlk9

https://tinyurl.com/2cjdss65



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