कैसे डीएनए में किए गए छोटे से बदलाव ने हरिद्वार में भी सेब उगा दिए!

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29-10-2025 09:10 AM
कैसे डीएनए में किए गए छोटे से बदलाव ने हरिद्वार में भी सेब उगा दिए!

क्या आप जानते हैं कि वैज्ञानिकों ने वह कर दिखाया है जिसे कभी असंभव माना जाता था? हरिद्वार के गर्म मैदानी इलाकों में, जहाँ गर्मियों में तापमान अक्सर 40 डिग्री सेल्सियस (°C) के पार चला जाता है, अब सेब के पेड़ फल दे रहे हैं। यह कोई साधारण बागवानी का चमत्कार नहीं है, बल्कि यह उस ताकत का जीता-जागता सबूत है जो हमारे जैविक संसार की सबसे छोटी इकाई, यानी डीएनए (DNA) में छिपी है।

यह कहानी सिर्फ सेब की नहीं है। यह कहानी हमारे प्राकृतिक संसार के भविष्य की है, हमारी फसलों के लचीलेपन की है, और उस अत्याधुनिक विज्ञान की है जो तेजी से बदलती दुनिया में उत्तराखंड की समृद्ध वनस्पति विरासत की रक्षा करने की कुंजी अपने पास रखता है।

पीढ़ियों से हम यही समझते आए हैं कि कुछ खास पौधे कुछ खास जगहों पर ही उगते हैं। सेब हमेशा से ठंडी और साफ हवा वाले ऊँचे पहाड़ी बागानों की फसल रही है, न कि हरिद्वार की उमस भरी जलवायु की। लेकिन स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र के शोधकर्ताओं ने इस सोच को बदल दिया है। उन्होंने 'अन्ना' और 'डोरसेट गोल्डन' (Dorsett Golden) जैसी किस्मों को अमरूदों के पेड़ों के साथ लगाकर तेज धूप से बचाया और सेब उगाने में सफलता पाई। यह उपलब्धि हमें उस रहस्य को समझने के लिए प्रेरित करती है जो एक पौधे को पौधा बनाता है, और वह है उसकी “आनुवंशिकी” (Genetics)।

इस पूरी कहानी के केंद्र में है 'प्लांट जेनेटिक्स' (Plant Genetics), यानी यह विज्ञान कि कैसे पौधों के गुण डीएनए के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाते हैं। आप डीएनए को एक विस्तृत निर्देश पुस्तिका (instruction manual) की तरह समझ सकते हैं, जो पौधे की हर कोशिका में मौजूद होती है। इस पुस्तिका में 'जीन' (genes) होते हैं! ये वे खास निर्देश हैं जो फूल के रंग से लेकर फल की मिठास तक सब कुछ तय करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यही जीन तय करते हैं कि एक पौधा अपने पर्यावरण के अनुसार खुद को कैसे ढालेगा। इस आनुवंशिक कोड (Genetic code) को समझकर ही हम पेड़-पौधों की विशाल दुनिया की विविधता को जान सकते हैं और नई चुनौतियों से निपटने की उनकी क्षमता को उजागर कर सकते हैं।

हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है जलवायु परिवर्तन (Climate Change), और इसका असर हमारे क्षेत्र में साफ दिखने लगा है। इंडिया टुडे (India Today) की एक हालिया रिपोर्ट एक चिंताजनक तस्वीर पेश करती है, जिसमें कहा गया है कि उत्तराखंड के पारंपरिक सेब के बागान सिकुड़ रहे हैं। एक समय पर 'भारत के फलों का कटोरा' कहा जाने वाला यह राज्य आज एक संकट का सामना कर रहा है। बढ़ते तापमान और मौसम के बदलते मिजाज ने उस नाजुक संतुलन को बिगाड़ दिया है जो सेब जैसे ठंडे मौसम के फलों के लिए जरूरी होता है। यह सिर्फ एक कृषि संकट नहीं है, बल्कि यह हजारों लोगों की रोजी-रोटी और राज्य की पारिस्थितिक पहचान (ecological identity) के लिए भी एक बड़ा खतरा है।

यहीं पर हमारी कहानी समस्या से समाधान की ओर और चुनौती से नवीनता (innovation) की ओर मुड़ती है। जैसे-जैसे हमारा पर्यावरण बदल रहा है, विज्ञान भी हमारे पेड़-पौधों को इसके साथ तालमेल बिठाने में मदद करने के रास्ते खोज रहा है। यहीं एक क्रांतिकारी तकनीक सामने आती है, जिसका नाम है - CRISPR (क्रिस्पर)। भारत के बोस संस्थान (Bose Institute) जैसे संस्थानों के वैज्ञानिक इस शक्तिशाली जीन-संपादन उपकरण (Gene-Editing Tool) का उपयोग कुछ भी अप्राकृतिक बनाने के लिए नहीं, बल्कि एक पौधे की अपनी छिपी हुई क्षमता को जगाने के लिए कर रहे हैं।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अनुसार, यह नई क्रिस्पर तकनीक एक 'स्मार्ट स्विच' (Smart Switch) की तरह काम करती है। यह डीएनए को स्थायी रूप से नहीं बदलती, बल्कि जब कोई पौधा गर्मी या बीमारी के हमले का सामना करता है, तो यह उसके कुछ विशेष रक्षात्मक जीन्स (defensive genes) को अस्थायी रूप से 'चालू' कर देती है। कल्पना कीजिए कि एक टमाटर का पौधा है, जो लू (heatwave) चलने या किसी जीवाणु (bacteria) के हमला करने पर अपनी 'बुखार' से लड़ने और अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को खुद ही सक्रिय कर सकता है। क्रिस्पर तकनीक की यही हकीकत है। यह हमारी सबसे महत्वपूर्ण फसलों में लचीलापन पैदा करने का एक सटीक, कुशल और बहुत ही समझदार तरीका है।

बेशक, पौधे हजारों सालों से खुद को पर्यावरण के अनुसार ढालते आ रहे हैं। वैज्ञानिक पत्रिका 'फ्रंटियर्स इन प्लांट साइंस' (Frontiers in Plant Science) में बताया गया है कि पौधों में पर्यावरणीय दबाव के तहत विकसित होने की एक प्राकृतिक क्षमता होती है। कई पीढ़ियों तक अपने डीएनए में छोटे-छोटे बदलावों के माध्यम से, वे ऐसे गुण विकसित कर लेते हैं जो उन्हें कठोर परिस्थितियों में जीवित रहने में मदद करते हैं। हालांकि, विकास की यह प्रक्रिया बहुत धीमी होती है, और जलवायु परिवर्तन की तेज गति को देखते हुए हमें एक तेज समाधान की जरूरत है। क्रिस्पर जैसे आधुनिक आनुवंशिक उपकरण इसी प्राकृतिक प्रक्रिया को तेज कर देते हैं। इससे हम बहुत कम समय में ही बेहतर प्रतिरोधक क्षमता वाली फसलें विकसित कर सकते हैं, जिसमें प्रकृति को शायद सदियां लग जातीं।

इसकी गंभीरता को समझते हुए, अब सरकारी संस्थाएं भी इस महत्वपूर्ण शोध को बढ़ावा देने के लिए आगे आ रही हैं। भारत सरकार का जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Biotechnology - DBT) कृषि में नवीनता के एक नए युग की शुरुआत कर रहा है। इसका एक बड़ा उदाहरण है राष्ट्रीय कृषि-खाद्य जैव प्रौद्योगिकी संस्थान (NABI) में हाल ही में शुरू की गई "नेशनल स्पीड ब्रीडिंग क्रॉप फैसिलिटी" (National Speed Breeding Crop Facility)। यह अत्याधुनिक सुविधा नई फसलों की किस्मों के विकास में तेजी लाती है।

इस सुविधा में, वैज्ञानिक पूरी तरह से नियंत्रित वातावरण का उपयोग करके एक ही साल में गेहूं, चावल और सोयाबीन जैसी फसलों की चार से अधिक पीढ़ियां उगा सकते हैं। प्रेस सूचना ब्यूरो (PIB) के अनुसार, इस पहल से वैज्ञानिकों को जलवायु परिवर्तन को झेल सकने वाली उन्नत किस्मों को बहुत तेजी से विकसित करने में मदद मिलेगी। इसका सीधा फायदा पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और हमारे अपने उत्तराखंड क्षेत्र के किसानों को होगा। यह हमारी खाद्य सुरक्षा में एक सीधा निवेश है और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हमारी लड़ाई में एक शक्तिशाली हथियार भी है।

हरिद्वार की गर्मी में सेब की आश्चर्यजनक सफलता से लेकर फसलों के तेजी से विकास की राष्ट्रीय रणनीति तक, डीएनए इन सभी को जोड़ने वाली एक ही कड़ी है। हमारे क्षेत्र की वनस्पतियों को समझने की यह यात्रा अब जीनोम (genome) यानी किसी भी जीव के संपूर्ण डीएनए सेट को समझने की यात्रा बन गई है। इस आनुवंशिक कोड को समझकर और इसके साथ काम करके, हम केवल बदलती दुनिया का सामना करने के तरीके ही नहीं खोज रहे हैं, बल्कि हम एक ऐसे भविष्य को आकार दे रहे हैं जहाँ हमारी खेती अधिक टिकाऊ हो, हमारी विरासत संरक्षित रहे, और हमारी खाद्य आपूर्ति सुरक्षित हो।

"डीएनए द्वारा वनस्पति" की यह कहानी तो अभी शुरू हुई है। यह एक ऐसे भविष्य का वादा करती है जहाँ विज्ञान और प्रकृति हाथ से हाथ मिलाकर काम करेंगे, ताकि हरिद्वार और उत्तराखंड के खेत और बाग आने वाली पीढ़ियों तक लहलहाते रहें।

संदर्भ 

https://tinyurl.com/2yv9uewq 

https://tinyurl.com/y4a7rdh2 

https://tinyurl.com/2a3q2h2j 

https://tinyurl.com/27h8oqys 

https://tinyurl.com/22splcpu 

https://tinyurl.com/22xcx5o4 



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