प्रकृति का वरदान, कैसे कस्तूरी मृग के लिए श्राप बन गया?

शरीर के अनुसार वर्गीकरण
30-10-2025 09:10 AM
प्रकृति का वरदान, कैसे कस्तूरी मृग के लिए श्राप बन गया?

जीव-जंतुओं की विशाल दुनिया में, हर प्राणी को उसकी विशेषताओं के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। यह वैज्ञानिक प्रणाली हमें यह समझने में मदद करती है कि कौन-सा जीव किस परिवार या समूह से संबंधित है। लेकिन कभी-कभी, एक जानवर की कहानी उसके वैज्ञानिक वर्गीकरण से नहीं, बल्कि उसके शरीर के किसी एक अनूठे अंग से लिखी जाती है। एक ऐसा अंग, जो इंसानों के लिए इतना कीमती हो कि वह उस जीव के अस्तित्व को ही ख़तरे में डाल दे।

यह कहानी हिमालय के कस्तूरी मृग की है, जिसे उत्तराखंड में कस्तूरी मृग' भी कहते हैं। इस जानवर की जिंदगी और उसका संकट, उसकी एक छोटी सी ग्रंथि में बनने वाले सुगंधित, मोम जैसे पदार्थ पर निर्भर करता है।

कस्तूरी मृग को समझने के लिए, पहले यह जानना ज़रूरी है कि यह क्या नहीं है। अपने नाम के बावजूद, कस्तूरी मृग एक पूर्ण या असली हिरण' नहीं है। यह हिरणों के परिवार, सर्विडे (Cervidae), का सदस्य नहीं है। इसके बजाय, इसका अपना एक अलग परिवार है, जिसे मोशिडे (Moschidae) कहा जाता है। वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि यह परिवार हिरणों के बजाय भेड़, बकरी और चिंकारा जैसे जानवरों के परिवार बोविडे (Bovidae) के अधिक करीब है।

कई विशेषताएं इसे असली हिरणों से अलग करती हैं। कस्तूरी मृग के सींग नहीं होते और न ही आँखों के नीचे ग्रंथियां होती हैं। इसके अलावा, इनमें पित्ताशय (gallbladder) होता है। नर मृग की पहचान शाखाओं वाले सींगों से नहीं, बल्कि ऊपरी जबड़े से बाहर निकले दो लंबे, कटार जैसे नुकीले दांतों से होती है। ये दांत दस सेंटीमीटर तक लंबे हो सकते हैं।

कस्तूरी मृग उत्तराखंड के कई संरक्षित क्षेत्रों में पाया जाता है।

  • केदारनाथ कस्तूरी मृग अभयारण्य (Kedarnath Musk Deer Sanctuary): इस अभयारण्य की स्थापना का मुख्य उद्देश्य ही हिमालयी कस्तूरी मृग का संरक्षण करना था। यहाँ इस लुप्तप्राय प्रजाति की घटती आबादी रहती है। इसी अभयारण्य के भीतर कांचुलाखर्क में 1982 में एक 'कस्तूरी मृग प्रजनन केंद्र' भी स्थापित किया गया था, ताकि इन्हें कैद में पालकर इनकी संख्या बढ़ाई जा सके और फिर जंगल में छोड़ा जा सके।
  • गंगोत्री नेशनल पार्क (Gangotri National Park): इस पार्क में पाए जाने वाले जीवों में कस्तूरी मृग भी शामिल है।
  • गोविंद वन्यजीव अभयारण्य और नेशनल पार्क (Govind Wildlife Sanctuary & National Park): यहाँ पाए जाने वाले वन्यजीवों में कस्तूरी मृग का भी उल्लेख है।
  • अस्कोट वन्यजीव अभयारण्य (Askot Wildlife Sanctuary): इस अभयारण्य की स्थापना भी मुख्य रूप से हिमालयी कस्तूरी मृग के संरक्षण के लिए ही की गई थी।
  • फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान (Valley of Flowers National Park): इस प्रसिद्ध राष्ट्रीय उद्यान में तितलियों, भरल (नीली भेड़) और हिम तेंदुए के साथ-साथ कस्तूरी मृग भी पाए जाते हैं।

यह ऊँचे पहाड़ों का एक छोटा और अकेला रहने वाला जीव है। इसका शरीर गठीला होता है और पिछली टाँगें अगली टाँगों से काफी लंबी होती हैं। इसी वजह से इसकी चाल बड़ी अजीब होती है - यह हिरण की तरह छलांग नहीं भरता, बल्कि कंगारू की तरह उछल-उछल कर चलता है। हिमालय की ढलानों पर, अक्सर 2,500 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर, यह शर्मिला जीव घनी झाड़ियों और जंगलों में रहता है। यह सुबह और शाम के समय पत्ते, फूल, काई और शैवाल खाने के लिए बाहर निकलता है और अपनी अनोखी शारीरिक बनावट के कारण खड़ी चट्टानों पर भी बड़ी आसानी से चढ़ जाता है।

लेकिन कस्तूरी मृग की कोई भी शारीरिक खूबी उसके भाग्य का कारण नहीं बनी। उसकी किस्मत तय करने वाला अंग है कस्तूरी ग्रंथि, जो एक छोटी सी थैली होती है। यह थैली सिर्फ वयस्क नर मृग के पेट में, जननांगों और नाभि के बीच पाई जाती है। प्रजनन के मौसम में इस ग्रंथि से एक बहुत शक्तिशाली, टिकाऊ और कीमती पदार्थ निकलता है, जिसे 'कस्तूरी' कहते हैं। मृग तो इस तेज गंध का इस्तेमाल अपना इलाका तय करने और मादाओं को आकर्षित करने के लिए करता है, लेकिन इंसानों ने इसे बिल्कुल अलग कारणों से चाहा।

हजारों सालों से यह भूरा, मोम जैसा पदार्थ इत्र बनाने और पारंपरिक दवाइयों का एक मुख्य आधार रहा है। इसी वजह से दुनिया भर में इसकी इतनी माँग पैदा हुई जिसे यह छोटा सा जानवर कभी पूरा नहीं कर सकता था। इसकी कीमत वाकई में चौंकाने वाली है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक किलोग्राम कस्तूरी की कीमत 45,000 डॉलर (लगभग 37 लाख रुपये) तक पहुँच सकती है, जो इसे सोने से भी कहीं ज़्यादा कीमती बना देती है।

इसी भारी कीमत ने इसके अवैध शिकार की संभावना को कई गुना बढ़ा दिया। पुराने समय में, दुनिया का इत्र उद्योग इसकी माँग का एक बड़ा कारण था। सुगंध का वैश्विक केंद्र, फ्रांस (France) का इत्र उद्योग, इसका एक महत्वपूर्ण उपभोक्ता था। यहाँ तक कि 1996 में भी, फ़्रांस में दुनिया की लगभग 15% कस्तूरी का इस्तेमाल किया गया। सिंथेटिक (Synthetic) विकल्पों के विकास और 1999 में यूरोपीय संघ द्वारा आयात पर प्रतिबंध के बावजूद, आज भी लगभग 10% कस्तूरी का इस्तेमाल इत्र बनाने के लिए किया जाता है। हालाँकि, सबसे ज़्यादा माँग (90% से अधिक) पारंपरिक पूर्वी एशियाई दवाओं के लिए होती है, जहाँ इसका उपयोग 400 से अधिक तरह की दवाइयों में किया जाता है। इन दवाओं से हृदय रोग से लेकर तंत्रिका तंत्र के विकारों तक का इलाज किया जाता है।

हिमालय के कस्तूरी मृग के लिए यह माँग विनाशकारी साबित हुई है। कस्तूरी की ऊँची कीमत अवैध शिकारियों के एक विशाल और क्रूर नेटवर्क को बढ़ावा देती है। एक नर मृग की ग्रंथि से केवल 25 ग्राम कस्तूरी निकलती है, जिसका अर्थ है कि एक किलोग्राम कस्तूरी के लिए दर्जनों जानवरों को मारना पड़ता है। शिकार के तरीके बेहद क्रूर और अंधाधुंध होते हैं। शिकारी अक्सर तार के फंदे लगाते हैं या भागने के रास्ते बंद करने के लिए जंगल में आग तक लगा देते हैं, जिससे रास्ते में आने वाला कोई भी जानवर फँस जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि कस्तूरी के लिए मारे गए हर एक नर मृग के पीछे, तीन से पाँच दूसरे मृग, जिनमें मादा और बच्चे भी शामिल होते हैं, मारे जाते हैं और फेंक दिए जाते हैं।

इस लगातार दबाव के कारण इन जानवरों की आबादी में भारी गिरावट आई है। यहाँ उत्तराखंड में यह गिरावट साफ दिखाई देती है। केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य, जिसे 1972 में विशेष रूप से कस्तूरी मृग संरक्षण के लिए स्थापित किया गया था, में 1980 के दशक के अंत और 1990 की शुरुआत में 600 से 1,000 के बीच मृग होने का अनुमान था। आज, अधिकारियों का मानना ​​है कि वहाँ 100 से भी कम बचे हैं। इस प्रजाति को अब आईयूसीएन (IUCN) की रेड लिस्ट (Red List) में 'संकटग्रस्त' (Endangered) के रूप में वर्गीकृत किया गया है और भारत में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची I के तहत इसे अधिकतम स्तर की सुरक्षा प्रदान की गई है।

इस गंभीर संकट को देखते हुए संरक्षण के प्रयास तो हुए, लेकिन वे चुनौतियों और अधूरे वादों से भरे रहे। यह जीव बहुत ऊँचाई पर दूर-दराज के इलाकों में रहता है, जिससे शिकारियों पर नजर रखना अविश्वसनीय रूप से मुश्किल हो जाता है। पशुओं की चराई और अन्य मानवीय दबावों के कारण इसके प्राकृतिक आवास पर भी संकट बढ़ गया है।

हालाँकि, उम्मीद की कुछ किरणें अभी भी बाकी हैं। दिसंबर 2020 में केदारनाथ अभयारण्य में कस्तूरी मृग का दिखना एक दुर्लभ घटना थी, जिसके बाद वन विभाग ने इनकी आबादी का व्यापक अनुमान लगाने की योजना की घोषणा की। किसी भी व्यवस्थित संरक्षण परियोजना के लिए यह एक महत्वपूर्ण पहला कदम है।

लेकिन, संरक्षण का व्यापक इतिहास असफलताओं की कहानी कहता है। 1982 में केदारनाथ अभयारण्य के भीतर एक कृत्रिम प्रजनन केंद्र स्थापित किया गया था। वहाँ इनकी आबादी पाँच से बढ़कर अट्ठाईस हो गई, लेकिन 2006 तक, एक को छोड़कर सभी की विभिन्न कारणों से मौत हो गई। बची हुई आखिरी मादा, जिसका नाम 'पल्लवी' था, को दार्जिलिंग के एक चिड़ियाघर में भेज दिया गया और वह केंद्र भी बंद हो गया।

इससे भी निराशाजनक बात यह है कि केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (Central Zoo Authority) की 2024 की एक रिपोर्ट से पता चला कि इस लुप्तप्राय प्रजाति के लिए किसी भी मान्यता प्राप्त भारतीय चिड़ियाघर में संरक्षण प्रजनन का कोई विशेष कार्यक्रम कभी सही से शुरू ही नहीं किया गया। यह स्थिति चीन के बिल्कुल विपरीत है, जिसने न केवल इन हिरणों को कैद में सफलतापूर्वक पाला है, बल्कि जानवर को बिना नुकसान पहुँचाए कस्तूरी निकालने की तकनीक भी विकसित कर ली है। भारत में यह विफलता व्यवस्था की उन खामियों की ओर इशारा करती है, जहाँ योजनाएँ तो बनती हैं पर लागू नहीं होतीं, जिससे उत्तराखंड के इस राज्य-पशु का भविष्य अधर में लटका हुआ है।

कस्तूरी मृग की कहानी एक मार्मिक और शक्तिशाली सबक है कि कैसे किसी जीव की एक जैविक विशेषता ही उसकी जान की दुश्मन बन सकती है। हिमालय में कस्तूरी मृग की 'फीकी पड़ती सुगंध' उस वैश्विक अर्थव्यवस्था का सीधा परिणाम है, जो एक जीव के जीवन से अधिक उसकी सुगंधित ग्रंथि को महत्व देती है। अगर जल्द ही एक नई, पूरी तरह से समर्पित और प्रभावी ढंग से लागू की गई संरक्षण रणनीति नहीं अपनाई गई, तो वह दिन दूर नहीं, जब पहाड़ों का यह शर्मीला, नुकीले दाँतों वाला अजूबा हमेशा के लिए गायब हो जाएगा, और इसकी बेशकीमती सुगंध हमेशा के लिए केवल यादों में सिमट कर रह जाएगी।


संदर्भ 

https://tinyurl.com/2ad6gyej 

https://tinyurl.com/tgz98p5 

https://tinyurl.com/22er2pub 

https://tinyurl.com/23e2la2r 

https://tinyurl.com/23ashuh6 

https://tinyurl.com/24tyb7p2 

https://tinyurl.com/2adxocnt 



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