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प्रकृति की विशाल और जटिल दुनिया किसी अनूठे ताने-बाने से कम नहीं है। इस दुनिया में हर जीव, चाहे वो एक छोटा सा कीड़ा हो या एक विशाल स्तनपायी, विकास की एक अद्भुत रचना का परिणाम है। इस विविधता को समझने के लिए वैज्ञानिक वर्गीकरण की एक प्रणाली का उपयोग करते हैं। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो संपूर्ण जीव-जगत को उनकी समान विशेषताओं के आधार पर अलग-अलग समूहों में बांटती है। यह वर्गीकरण 'जगत' (Kingdom) से शुरू होता है, जिसे आगे कई 'संघ' (Phylum) में बांटा गया है। एक संघ में वे सभी जीव आते हैं जिनके शरीर की बनावट एक जैसी होती है। उदाहरण के लिए, कॉर्डेटा (Chordata) संघ में वे सभी जीव शामिल हैं जिनकी रीढ़ की हड्डी होती है।
प्रत्येक संघ के भीतर, वर्गीकरण को और संकीर्ण करते हुए 'वर्ग' (Class), 'गण' (Order), 'कुल' (Family), 'वंश' (Genus), और अंत में, 'प्रजाति' (Species) में बांटा जाता है। जैसे, कॉर्डेटा संघ के भीतर स्तनधारी (Mammalia) वर्ग आता है। ये गर्म खून वाले जीव होते हैं जो अपने बच्चों को दूध पिलाते हैं। इस वर्ग में प्राइमेट (Primates) (जैसे बंदर और इंसान), मांसाहारी (जैसे बिल्ली और कुत्ते), और रोडेंशिया (Rodentia) यानी कुतरने वाले जीव (जैसे चूहे और गिलहरी) जैसे विभिन्न गण शामिल हैं।
इन्हीं कुतरने वाले जीवों के गण में हमें एक ऐसा जीव परिवार मिलता है जिसका व्यवहार इतना विशेष और अपने पर्यावरण के लिए इतनी खूबसूरती से अनुकूलित है कि यह प्रकृति के सामान्य नियमों को भी चुनौती देता हुआ प्रतीत होता है। यह जीव है - उड़ान गिलहरी।
जब हम किसी गिलहरी के बारे में सोचते हैं, तो आमतौर पर घनी पूंछ वाले एक ऐसे जीव की छवि मन में आती है जो फुदककर पेड़ पर चढ़ता है। लेकिन हिमालय के घने, चौड़ी पत्ती वाले जंगलों में एक अलग ही तरह की गिलहरी का राज चलता है। हॉजसन जायंट फ्लाइंग स्क्विरल (Hodgson Giant Flying Squirrel - Petaurista magnificus (पेटौरिस्टा मैग्निफिकस)) रात में सक्रिय रहने वाला एक जीव है। यह बड़े आकार और आकर्षक रंगों वाला एक कुतरने वाला जीव है, जिसकी बनावट पेड़ों पर रहने वाले जीवन के लिए पूरी तरह से अनुकूलित है। नेपाल से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक फैले इस क्षेत्र के मूल निवासी, ये गिलहरियाँ 400 से 3,700 मीटर की ऊँचाई पर स्थित जंगलों में रहती हैं।
इनका सबसे आश्चर्यजनक व्यवहार है, इनके एक जगह से दूसरी जगह जाने का तरीका। वे पक्षियों की तरह पंख फड़फड़ाकर सही मायनों में 'उड़ते' नहीं हैं। बल्कि, वे हवा में तैरते (ग्लाइड (glide) करते) हैं। उनकी कलाई से लेकर टखने तक त्वचा की एक झिल्ली फैली होती है, जिसे 'पेटाजियम' (Patagium) कहते हैं। यह पैराशूट (parachute) की तरह काम करती है। इसी का उपयोग करके वे खुद को एक ऊंची शाखा से छलांग लगाते हैं और हवा में तैरते चले जाते हैं। वे एक ही उड़ान में 100 मीटर तक की आश्चर्यजनक दूरी तय कर सकते हैं। अपनी लंबी, चपटी पूंछ का उपयोग वे एक पतवार की तरह करते हैं, जिससे वे हवा में बाधाओं से बचते हैं और दूसरी पेड़ पर धीरे से उतरने से पहले अपनी गति को नियंत्रित करते हैं। उनका यह अद्भुत अनुकूलन केवल दिखावे के लिए नहीं है, बल्कि यह जीवन बचाने का एक महत्वपूर्ण साधन है। हवा में तैरने की क्षमता उन्हें बड़े क्षेत्रों में भोजन खोजने, साथी ढूंढने और सबसे महत्वपूर्ण, जमीन पर मौजूद शिकारियों से खामोशी और कुशलता से बचने में मदद करती है।
इनका जीवन शाम और सुबह की लय से तय होता है। ये पूरी तरह से निशाचर होते हैं, जो दिन के उजाले में पेड़ों के खोखले तनों या पत्तियों से बने घोंसलों की सुरक्षा में आराम करते हैं। जैसे ही शाम ढलती है, वे बाहर निकलते हैं और भोजन की अपनी रात की तलाश शुरू करने से पहले अक्सर गूंजती हुई आवाज़ों में एक-दूसरे से संवाद करते हैं। उनका आहार सर्वाहारी होता है, जिसमें फल, शाहबलूत (chestnuts) और बांज फल (acorns) जैसे मेवे, कोमल नई पत्तियां, कलियां और यहां तक कि कीड़े भी शामिल होते हैं, जो उन्हें जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र का एक अभिन्न अंग बनाता है।
हवा में तैरने की कला उड़ान गिलहरियों में अनोखी हो सकती है, लेकिन वे अपने आम, न उड़ने वाले भाई-बंधुओं के साथ कई व्यवहार साझा करती हैं। गिलहरियाँ अत्यधिक संचारी जीव होती हैं। इनकी पूंछ का लगातार फड़कना घबराहट का संकेत नहीं, बल्कि इन जीवों के बीच संकेत का एक जटिल रूप है। उनकी अपनी आवाजें भी होती हैं; किसी घुसपैठिए को चेतावनी देने के लिए गुर्राहट से लेकर, शायद उनके जमा किए हुए मेवों को छेड़ने पर नाराजगी जताने वाली तेज सीटी जैसी 'व्ही' की आवाज तक।
उत्तराखंड राज्य, अपने घने और विविध जंगलों के साथ, इन दुर्लभ जीवों का एक प्रमुख निवास केंद्र है। उत्तराखंड वन विभाग की अनुसंधान शाखा द्वारा अक्टूबर 2020 से जुलाई 2021 के बीच एक ऐतिहासिक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन ने पहली बार यह स्थापित किया कि राज्य में उड़ान गिलहरियों की पाँच अलग-अलग प्रजातियाँ मौजूद हैं। इनमें रेड जायंट (Red Giant), व्हाइट-बेल्ड (White-Blade), और इंडियन जायंट उड़ान गिलहरी (Indian Giant Flying Squirrel) शामिल हैं। साथ ही, दुर्लभ वूली (ऊनी) उड़ान गिलहरी और कश्मीरी उड़ान गिलहरी भी यहाँ पाई जाती हैं। खास बात यह है कि कश्मीरी उड़ान गिलहरी को रानीखेत में पूरे 25 साल के अंतराल के बाद देखा गया। भारत में किसी भी वन विभाग द्वारा किया गया यह अपनी तरह का पहला अध्ययन था, जो इस क्षेत्र के पारिस्थितिक महत्व और संरक्षण की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
हाल ही में दिखे कुछ नज़ारों ने प्रकृतिवादियों को रोमांचित कर दिया है। इन टिप्पणियों ने इन जीवों के अनुकूलन क्षमता की नई जानकारी दी है। पिथौरागढ़ जिले के थल कस्बे में, रेड जायंट उड़ान गिलहरियों का एक जोड़ा मात्र 880 मीटर की ऊंचाई पर देखा गया। यह उनके सामान्य निवास स्थान (1,800 मीटर या उससे अधिक) से बहुत नीचे है। यह "ऊंचाई में भिन्नता" (altitudinal variation) का एक अनूठा उदाहरण है। ऐसा लगता है कि यह प्रजाति कम ऊंचाई पर मौजूद घने जंगलों में जीवन के लिए खुद को ढाल रही है।
इससे भी अधिक रोमांचक खोज रानीखेत के हिल स्टेशन में हुई। यहाँ पहली बार इंडियन जायंट उड़ान गिलहरी को देखा गया। यह प्रजाति वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची II के तहत संरक्षित है और इसे एक 'की-स्टोन' प्रजाति (Key-Stone Species) माना जाता है। फलों और मेवों को खाकर, यह बीजों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिससे उन्हीं जंगलों को फिर से उगाने में मदद मिलती है जिन्हें यह अपना घर कहती है।
इन अद्भुत क्षमताओं के बावजूद, उड़ान गिलहरियों का भविष्य सुरक्षित नहीं है। वे कई गंभीर खतरों का सामना कर रही हैं, जिनमें सबसे बड़ा खतरा उनके आवास का नष्ट होना है। वनों की कटाई, अवैध कटान, बढ़ता कृषि क्षेत्र, बांधों का निर्माण और बढ़ता शहरीकरण उन जंगलों को सिकोड़ रहा है जिन पर वे निर्भर हैं।
रात में हवा में तैरने वाले ये जीव जंगल के स्वास्थ्य के प्रहरी हैं। उनकी घटती आबादी एक तनावग्रस्त पारिस्थितिकी तंत्र का स्पष्ट संकेत है। उनका मांस और फर के लिए भी शिकार किया जाता है और कभी-कभी पालतू जानवर के रूप में बेचने के लिए भी उन्हें पकड़ लिया जाता है। उत्तराखंड में हुआ यह हालिया अध्ययन और नई खोजें आशा की एक किरण प्रदान करती हैं। इन पाँच अनूठी प्रजातियों के वितरण, व्यवहार और आवास को समझकर, संरक्षणवादी उन्हें बचाने के लिए लक्षित रणनीतियाँ बना सकते हैं। जंगल में रहने वाले ये रातों के भूत सिर्फ एक जैविक जिज्ञासा नहीं हैं; वे हिमालय के समृद्ध पारिस्थितिक ताने-बाने का एक महत्वपूर्ण धागा हैं। उनकी सुरक्षा हम सभी की जिम्मेदारी है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हमारे राज्य के जंगल, आसमान में महारत हासिल करने वाली इस गिलहरी की मूक, ऊंची उड़ान से गूंजते रहें।
संदर्भ